Books - सहयोग और सहिष्णुता
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Language: HINDI
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सहिष्णुता और समझौते की भावना
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संसार में निर्दोष व्यक्तियों की संख्या बहुत कम है । अगर मनुष्य में दस गुणों के मुकाबले में दो-चार दोष हों तो उसे बहुत गनीमत समझना चाहिए अन्यथा आजकल का सामाजिक आर्थिक राजनैतिक वातावरण ही ऐसा अस्वाभाविक बन गया है कि उसके परिणाम स्वरूप लोगों में तरह-तरह के दोष तथा दुर्गुण सहज ही पैदा हो जाते हैं । ऐसी दुनियाँ में अगर सुधार का सहयोग का इच्छुक सहिष्णुता और समझौते की भावना से काम लेना नहीं जानता तो वह सफल कदापि नहीं हो सकता । अगर हमको समाज में अथवा अपने व्यक्तिगत क्षेत्र में सहयोग की भावना की वृद्धि करनी है तो उसके लिए लोगों की निर्बलताओं त्रुटियों को क्षमा करते हुए ही काम निकालना पड़ेगा । इससे सदैव सबके साथ सहृदयता का व्यवहार करना आवश्यक है जिससे वे हमारे मित्र बने रह कर धीरे-धीरे हमारी बातों पर ध्यान देकर अपना सुधार करने में समर्थ हो सकें ।
सबकी बुद्धि एक समान नहीं है । आत्म निरीक्षण करने की अपने आपको जाँचने की योग्यता हर किसी में नहीं होती । स्वर्गीय डॉन टॉमस कहा करते थे कि- "इस दुनियाँ में नब्बे प्रतिशत आधे पागल रहते हैं ।" आधे पागल न भी हो तो भी इतना तो निश्चय ही मानना पड़ेगा कि आत्म-परीक्षण करने और वस्तुस्थिति को समझने की योग्यता बहुत कम लोगों में होती है । वे भावावेश, कल्पना की उड़ान और स्वतंत्र धारणा के अनुसार अपने अपने मत निर्धारित करते हैं इस मत निर्धारण में विचारशीलता की नहीं वरन् अंधविश्वास की प्रधानता होती है । जहाँ विचारशीलता की प्रधानता है वहाँ गलती समझने और स्वीकार करने को क्षमता होगी किन्तु ऐसे सौभाग्यशाली पुरुष अभी इस भूतल में उँगलियों पर गिनने लायक हैं । अधिकांश तो असंस्कृत मस्तिष्क के ही पड़े हुए हैं व्यवहार उन्हीं से पड़ता है । ऐसी नीति और कुशलता से काम न लिया जाय तो अच्छे परिणाम की आशा नहीं की जा सकती ।
जब आपको किसी की गलती बतानी है तो पहले उसके साथ सहानुभूति प्रकट करिए । जिस स्थिति में वह गलती हुई उस स्थिति की पेचीदगी के कारण वह वैसा करने को मजबूर हुआ ऐसा प्रकट करिए । क्योंकि यदि जानबूझ कर भी उसने गलती की है तो वैसा कहकर उसकी लोकलज्जा को नष्ट करना उचित नहीं, क्योंकि अपने को मूर्ख सिद्ध न होने के लिए वह दुराग्रह करेगा और गलती को गलती ही साबित न होने देगा, उल्टा दुराग्रह उसका समर्थन करेगा । लड़झगड़ कर आप अधिक से अधिक किसी को चुप कर सकते हैं पर इससे वह इस बात को मानने के लिए मजबूर न हो जायगा वरन् अपने अपमान का बदला लेने के लिए उसी पर अड़ बैठेगा ।
उस समय की परिस्थिति से मजबूर होकर, दबाव से अन्य कारणवश वैसा करना पड़ा होगा । ऐसा कहने से गलती को स्वीकार करना सरल हो जाता है । गलती बताकर अपनी बुद्धिमानी साबित की जा रही हैं ऐसी आशंका भी उसके मन में मत उपजने दीजिए । जिस प्रकार की भूल उस आदमी से हुई है वैसी अन्य लोग भी करते हैं या कर चुके हैं ऐसे उदाहरण बताने से गलती स्वीकार करने में उसे विशेष हिचकिचाहट नहीं होती । यदि आपसे स्वयं वैसे ही या उससे मिलती-जुलती कोई भूल हुई है तो उसका उदाहरण देकर सुनने वाले को निश्चित कर सकते हैं कि उसको नीचा साबित करने के लिए वह बात नहीं कही जा रही है । आम लोगों के सामने इस प्रकार के वार्तालाप करने को अपेक्षा एकान्त में करना अधिक उपयोगी है क्योंकि वहाँ प्रतिष्ठा घटने की अधिक आशंका उसे नहीं रहती और सच्चाई की तह तक पहुँचने में किसी हद तक मार्ग सुगम हो जाता है ।
जिसने गलती की है उसे अपराधी या पापी कहा जा सकता है पर ऐसा कहना हानिकर है, क्योंकि इससे उसके तामस स्वभाव को प्रोत्साहन मिलेगा । जब अपराधी, पापी, दुष्ट, मूर्ख, दुरात्मा, नालायक उसे साबित किया जा सकता है तो हो सकता कि अपने सदगुणों और सात्विक स्वभावों की सम्भावना पर अविश्वास करने लगे और निर्लज्ज्तापूर्वक दुर्बुद्धि लोगों की श्रेणी में खड़ा होकर अधिक नीचता पर उतर आवे । इसलिए गलती को भूल के नाम से ही पुकारिए, पाप और अपराध का कर्ण कटु नाम प्रयोग मत कीजिए । भूल को सुधारना आसान बनाइये, त्रुटि रहित जीवन की महत्ता बताइये और उसे फिर से सुधारने के लिए प्रोत्साहित कीजिए । जिसने गलती की है वह अपने को पवित्रता से रहित और सुधरने में असमर्थ समझने लगता है । इस धारणा को धैर्य बँधाकर, गलती को छोटी बताकर, प्रोत्साहन देकर, जैसे भी बन सके दूर करना चाहिए । कटु वचन कहकर किसी का दिल तोड़ देना आसान है ऐसा तो एक बेवकूफ भी कर सकता है । आपका कार्यक्रम ऊँचा होना चाहिए, दिल बढ़ाने का सही मार्ग पर लाने का प्रयास कठिन है । आपकी बुद्धि को यह चुनौती दी जाती है कि वह कठिन प्रयास द्वारा उपयोगी कार्य सम्पादन करके अपनी महत्ता साबित करे ।
किसी को हुक्म मत दीजिए-तुम यह करो तुम वह करो हुक्म देने का तरीका सेना में अच्छा समझा जाता है परन्तु सामाजिक जीवन को हम लोग सैनिक की तरह नहीं वरन् सहयोग के साथ भाईचारे के आधार पर व्यतीत करते हैं । इसमें हुक्म देने की पद्धति कारगर नहीं होती । वेतन भोगी नौकर भी यह चाहता है कि मुझे केवल मशीन का जड़ पुर्जा न माना जाय । जिस कार्य में अपना विचार समन्वित नहीं होता, जिस कार्य में अपनी दिलचस्पी नहीं जुड़ती, वह कार्य आधे मन से बेगार की तरह किया जाता है । 'पराया-जराया' यह कहावत मशहूर है । दूसरे के काम को ऐसे किया जाता है मानो जराया हुआ हो-जला दिया गया हो । साधारणतः हुक्म बजाने में अपनी लघुता साबित होती है और लघुता, परवशता के विरुद्ध विद्रोह की इच्छा उठा करती है । आपने देखा होगा कि छोटे बालक-जिन्हें आज्ञापालन न करने से हानि का भय नहीं होता अक्सर हुकुमउदूली किया करते हैं उन्हें यह पसन्द नहीं होता कि अपराधी की ग्रह आज्ञा पालन के लिए मजबूर होना पड़े । बड़ा होने पर मनुष्य लाभ या भय के कारण हुक्म बजाता है पर आन्तरिक इच्छा उसकी वैसी नहीं होती । विश्व में आजकल स्वतंत्रता की तीव्र माँग है । स्वतंत्रता के लिए मानव जाति घोर संघर्ष कर रही है बड़ी-बड़ी कुर्बानी कर रही है आध्यात्मवादी भी मुक्ति चाहते हैं-मुक्ति या स्वतंत्रता एक ही वस्तु के दो नाम हैं । सब कोई पराधीनता से छुटकारा पाना चाहते हैं पराधीनता को कतई पसन्द नहीं करते ।
आप जिस कार्यक्रम की ओर दूसरों को खींचना चाहते हैं उसकी तीव्र चाह उत्पन्न करिए । उसे यह बतलाइये कि नवीन कार्य पुराने कार्य की अपेक्षा अधिक लाभदायक है । 'इन्द्रिय असंयम बुरा हैं' इतना कह देने मात्र से काम न चलेगा । यदि किसी को ब्रह्मचर्य के पथ पर अग्रसर करना चाहते हैं तो स्वस्थ और सुन्दर ब्रह्मचर्य का उदाहरण सामने उपस्थित करिए और स्पर्द्धा उत्पन्न कीजिए कि वह भी ऐसा ही भरे हुए गुलाब से चेहरे का सौन्दर्य प्राप्त करे शरीर को सुडौल बलवान और निरोग बनावे । इन लाभों की ओर जितना ही आकर्षित किया जा सकता है उतना ही वह ब्रह्मचर्य पर दृढतापूर्वक आरूढ़ हो जायगा । काम करना कोई पसन्द नहीं करता सब चाहते हैं कि बैठे-ठाले बिना मेहनत किए चैन से गुजरती रहे । परिश्रम का अप्रिय काम करने के लिए जब प्रेरणा मिलती है जब उससे कच्चा फल मिलने की आशा होती है । जोखिम से भरे हुए खतरनाक और दुस्साध्य कामों का लाभ विशेष लाभ को आशा से उठाया जाता है । इसलिए आप जिस कार्य के लिए दूसरों को तैयार करना चाहते है । उसे समझाइये कि इसमें कौन-कौन लाभ मिल सकते हैं । निकृष्ट कोटि के चोरी, व्यभिचार ठगी आदि कामों के लाभ बहुत ही निकृष्ट और प्रत्यक्ष होते हैं, इसलिए उनकी ओर लोग आसानी से ढुल जाते हैं । उच्च कोटि के, सात्विक, ईमानदारी सचाई, प्रेम, न्याय युक्त कार्यों के लाभ उतने निकट या प्रत्यक्ष नहीं होते तथा उनमें श्रम भी अधिक पड़ता है । यदि दूसरों को इस प्रकार के कष्ट साध्य कार्यों में प्रवृत्त करना है तो उन कार्यों के द्वारा प्राप्त होने वाले सुखों, लाभों और उत्तम परिणामों का विस्तारपूर्वक वर्णन करिए । उदाहरण, अनुभव तर्क और परिणाम द्वारा इन लाभों को इस प्रकार उपस्थित करिए कि सिनेमा के चित्र की तरह वह सब बातें उसके नेत्रों में घूम जावें, हृदय के अन्त: पटल पर भली-भाँति अंकित हो जावें ।
तीव्र चाह उत्पन्न करना किसी कार्य की ओर आकर्षित करने का सबसे प्रभावशाली तरीका है । अमुक कार्य भला है अमुक बुरा है अमुक पुण्य है, अमुक पाप है, इतना कह देने मात्र से कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । साधारण बुद्धि के मनुष्य को भय और लोभ इन दो ही तत्वों के कारण कार्य करने की प्रेरणा मिलती है । लाभ के लोभ से निवृत्ति होती है । जिस काम को करने से दूसरे को रोकना चाहते हैं उससे रोकने में जो भय, आपत्ति, हानि अनिष्ट उत्पन्न होने की आशंका है उसे भली प्रकार हृदयंगम कराइए । वेश्यागमन की ओर जिसकी प्रवृत्ति है उसे उपदंश होने की हानि से भलीभाँति भयभीत कर देने पर उस कुकर्म से रोका जा सकता है । उपदंशजनित, कष्ट, बदनामी, क्रियाशीलता का अन्त भोगों से बिल्कुल वंचित हो जाना, धन नाश आदि यह सब भय और आशंकाएँ उस व्यक्ति के मन में बिठाई जा सकें तो निस्संदेह ? उसका कुमार्गगमन रुक जायगा । दण्ड देकर, प्रतिबन्ध लगाकर या बलपूर्वक रोकने की अपेक्षा यह उत्तम है कि जिस-जिस मार्ग से किसी को रोकना चाहते हैं उसके मन में में तत्सम्बन्धी हानि और आशंकाओं का मूर्तिमान चित्र खड़ा करें और उसे स्वयं ही वह कार्य बन्द करने का निर्णय करने दें । किसी को एक कार्य से हटाकर दूसरे कार्य पर लगाने का प्रश्न यदि कभी आपके सामने आवे तो नये काम के लाभों का विशद वर्णन करके उस ओर दिलचस्पी पैदा करें तथा पुराने कार्य की हानियों का मूर्तिमान चित्र बनाकर भयभीत करने का प्रयत्न किया कीजिए । जो लोग विवेक और नियम से नहीं समझते उनकी चेतना अभी निर्बल है उस पर लोभ एवं भय द्वारा प्रभाव डालना ही सम्भव है । पशु को घास दिखाकर या लाठी का भय दिखाकर ही कहीं ले जाया जा सकता है अल्प विवेक वाले लोगों को आप भी इन्हीं साधनों से प्रभावित करके उत्तम और उचित मार्ग पर ले जाने का प्रयत्न कीजिए ।
मानव मनोवृत्ति के एक सुयोग्य अन्वेषक ने एक बहुत ही उत्तम शिक्षा दी है कि ''यदि आप मधु इकट्ठा करना चाहते हैं तो मक्खियों के छत्ते को ठोकर मत मारिए ।'' जिन लोगों से सम्बन्ध जारी रखे बिना काम नहीं चल सकता जिनके द्वारा आपकी आजीविका चलती है ऐसे सम्बन्धी तथा ग्राहकों को अकारण क्रुद्ध मत कीजिए । एकान्त में अत्यन्त शान्तिपूर्वक हानि-लाभ का दिग्दर्शन कराते हुए गलती करने वाले को आसानी से समझाया जा सकता है इसमें सुधरने की बहुत सम्भावना रहती है । इसके विपरीत सबके सामने कटु आलोचना करने से बुराइयों में सुधार होना तो दूर उल्टे बैर-विरोध तथा दुराग्रह की जड़ जम जाती है ।
आप जो कार्य करने के लिए दूसरों से कहें उसे आसान बताइये । लोगों को यह विश्वास कराइए कि इसमें अधिक सरलता रहेगी और कठिनाई कम हो जायगी । अपने कार्यक्रम पर किसी को सहमत करने के लिए उसे यह विश्वास कराना आवश्यक है कि यह असम्भव, दुःसाध्य बिरले शूरवीरों के करने योग्य नहीं वरन् बहुत ही सरल पूर्णतया सम्भव और साधारण मनुष्य से पूरा हो सकने योग्य है । अनेक व्यक्ति उस मार्ग पर चल चुके हैं और चल रहे हैं उन्हें कोई ऐसी कठिनाई नहीं उठानी पड़ी जो असाधारण हो । स्मरण रखिये सरलता को टटोल कर लोग उधर ही झुकते हैं । आप अपने कार्य की आसानी प्रकट कीजिए और बतलाइये कि वह बिना किसी झंझट के स्वल्प श्रम स्वल्पकाल और स्वल्प साधनों से पूरा हो सकता है । यदि आप पहले कार्य को तलवार की पार पर चलना बतावेगे, उसमें आने वाली विध्न-वाधाओं को दुस्तर बतावेगें तो आरम्भ में ही हिम्मत टूट जाने के कारण उस पथ पर चलने के लिए कोई मनुष्य मुश्किल से हो तैयार होगा ।
स्वयं कम बोलिए और दूसरों को अधिक बोलने दीजिए । आप एक घण्टे अपनी बात कहकर किसी का मन उतना अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकते जितना कि आधे घण्टा उसे अपनी बात कहने देकर कर सकते हैं । अच्छा वक्ता होने का प्रधान लक्षण यह है कि अच्छा नेता बनना चाहिए ।
आप अपने को प्रशंसित बना लीजिए । दूसरों में जिन सद्गुणों को देखें, जिन सद्वृत्तियों को विकसित होता हुआ पावें उन्हें और अधिक उन्नत करने के लिए प्रोत्साहित करें । मुरझा कर सूख जाने की तैयारी में खड़े हुए पौधे जल से सिंचित होते ही दूसरे ढंग के हो जाते हैं उनकी गतिविधि तुरन्त ही बदल जाती है । कुम्हलाये हुए पत्ते भी सतेज दिखाई पड़ने लगते हैं । प्रशंसा का जल ऐसा ही जीवनदाता है । सूखे हुए अन्तःकरणों में वह आशा और उत्साह का संचार करता है | वर्षा ऋतु में पौधे बल्लियों बढ़ जाते हैं । मेघों का स्नेह बूँद पीकर वनस्पति जगत का रोम-रोम तरंगित होने लगता है । वर्षा ऋतु में मखमल जैसी हरियाली चारों ओर छा जाती है ऊसर भूमि भी सुशोभित दीखती है चट्टानों का मैल धुल जाने से उनकी स्वच्छता निखर जाती है । आप यदि प्रशंसा द्वारा दूसरों के मुरझाये हुए हृदयों को सींचना आरंभ कर दें कानों की राह आत्माओं को अमृत पिलावें तो ठीक वैसा ही कार्य करेंगे जैसा कि परोपकारी मेघ किया करते हैं । तवे के समान जलता हुआ भूतल मेघमाला का स्नेह पीकर तृप्त होता है और वनस्पतियों का हरा-भरा आशीर्वाद उगलता है । परोपकार और आशीर्वाद के सम्मिश्रण से बड़ी ही शान्तिदायक हरियाली उपज पड़ती है और विश्व की असाधारण सौन्दर्य वृद्धि करती हैं । क्या आपको यह कार्य पद्धति पसन्द है ? यदि है तो अपने चारों ओर बिखरे पड़े हुए असंख्य अतृप्त और अविकसित हृदयों को अपनी प्रोत्साहनमयी मधुर वाणी से सींचना आरम्भ कर दीजिए वे हरे-भरे स्वच्छ उत्फुल्ल हो जायें । उनके सद्गुण वर्षा की वनस्पति की तरह तीब्र गति से बढ़ने और फैलने छूटने लगें ।
यह बहुत ही उच्चकोटि का पुनीत धर्म कार्य है अन्तःकरण की चिर तृषा इससे तृप्त होती है उन्नति के रुद्ध स्त्रोत खुलते हैं अविकसित सद्वृत्तियाँ प्रस्फुटित होती हैं छिपी हुई योग्यतायें जागृत होती हैं और निराशा के अन्धकार में आशा का दीपक एक बार पुन: जगमगाने लगता है । निन्दा और भर्त्सना ने अनेक उन्नतमना लोगों को निराश, कायर, भयभीत और निकम्मा बना दिया । हम ऐसे लोगों को जानते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उन्नतिशील थे उनमें अच्छी योग्यताओं के अंकुर मौजूद थे पर उनका सम्पर्क बड़े दुर्बुद्धि संरक्षकों के साथ में रहा । जरा-जरा सी बात पर झिड़कना, मूर्ख बताना ,नालायकी साबित करना, अयोग्यता का फतवा देना, यह ऐसे कार्य हैं जिनके द्वारा माता-पिता अपने बालकों की, मालिक अपने नौकरों की गुरुजन अपने शिष्यों की आशा-कली को बेदर्दी के साथ कुचल डालते हैं '' । निरन्तर भर्त्सना करते रहने से न तो कुछ सुधार होता है और न कोई उन्नति होती है । केवल इतना ही परिणाम निकलता है कि वह अपने बारे में निराशाजनक भावनाएँ धारण करता है, अपने को अयोग्य मान बैठता है, उसका दिल बैठ जाता है और धीरे-धीरे निर्लज्ज होकर उसी अवनति के ढाँचे में ढ़लता जाता है ।
जिस व्यक्ति में निराश करने की जरा-जरा से दोषों को कहने की, झिड़कने की निन्दा करने की, निरुत्साह करने की आदत है वह सचमुच बड़ा भयंकर है । व्याघ्र आदि हिंसक जन जिस पर आक्रमण करते हैं उसे क्षण भर में फाड़ कर खा जाते हैं परन्तु गिराने वाले निन्दा सूचक शब्दों का प्रयोग करने का जिसे अभ्यास हो गया है उसकी भयंकरता व्याघ्र से अधिक है । सूखा मसान बालकों का कलेजा चूसकर उसे ठठरी बना देता है, इसी प्रकार निन्दा सूचक वाक्य प्रहारों से भीतर ही भीतर दूसरे का कलेजा खाली हो जाता है । यदि आप प्रशंसा करने ओर प्रोत्साहन देने की नीति को अपना लेते हैं तो इसके द्वारा अनेकों व्यक्तियों को ऊँचा उठाने में आगे बढ़ाने में सहायक होते हैं । हो सकता है कि कोई क्रियाशील व्यक्ति आपके द्वारा प्रोत्साहन पाकर उन्नति के प्रकाशपूर्ण पथ पर चल निकले और एक दिन ऊँची चोटी पर जा पहुँचे । क्या आपको उसका श्रेय न मिलेगा ? क्या उस महान कर्म साधना में आप पुण्य के भागी न होंगे ?