Books - स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा
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प्रखर प्रतिभा का उद्गम-स्रोत
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जिस प्रकार कुछ भी उपार्जन करने में मनुष्य समर्थ है, उसी प्रकार उसकी इच्छा पर यह भी निर्भर है कि उसका सदुपयोग या दुरुपयोग करने लगे। कर्मफल अवश्य ही नियंता ने अपने हाथ में रखा है, फिर भी जहाँ तक कर्तव्य का संबंध है, वहाँ तक मनुष्य अपनी मनमर्जी बरतने में स्वतंत्र है। अर्जित प्राणशक्ति के बारे में भी यही बात है। दैत्य स्तर के लोग भौतिक सामर्थ्यों की तरह आत्मिक विभूतियों का दुरुपयोग कर सकते हैं। तांत्रिक, अघोरी, कापालिक आदि ऐसे ही उद्धत प्रयोग करते रहे हैं।
प्राणशक्ति को भौतिक लाभ के लिये भी प्रयोग किया जा सकता है। जीवट वाले सामान्य परिस्थितियों में पैदा होने पर भी अपने लिये अपने उपयुक्त वातावरण बनाते और व्यवहारकुशलता का परिचय देते हुए अभीष्ट क्षेत्र की प्रगति अर्जित करते हैं। धनवान् बलवान्, विद्वान् व कलाकार स्तर के लोग अपनी तत्परता, तन्मयता, कुशलता और जागरूकता के सहारे अपनी इच्छित सफलताएँ अर्जित करते हैं, जबकि अनगढ़ स्तर के लोग किसी प्रकार अपना गुजारा भर चला पाते हैं- कई बार तो ऐसे जाल- जंजाल बुन लेते हैं, जिनके कारण उन्हें अनेकानेक विग्रहों- संकटों का सामना करना पड़ता है। असावधान और अव्यावहारिक लोग अकसर लोकव्यवहार में भी इतनी भूलें करते देखे गये हैं, जिनके कारण उनके लिये चैन से दिन गुजारना भी कठिन पड़ जाता है, सफलता और समृद्धियाँ प्राप्त कर सकना तो दूर की बात बन जाती है।
भौतिक क्षेत्र में अपने जीवट का सुनियोजन करने वाले आमतौर से अभीष्ट सफलता की दिशा में ही बढ़ते हैं। संपत्तिवान प्रगतिशील सफलताओं के अधिष्ठाता कहलाते हैं। कभी- कभी ऐसे लोग चालाकी भी अपनाते हैं, पर इतना तो निश्चित है कि जीवट का धनी हुए बिना कोई उस स्थिति तक नहीं पहुँच सकता, जिसे उन्नतिशील कहलाने का श्रेय मिल सके।
अनगढ़ और पुरुषार्थी, दो स्तर के लोग आम जनता के बीच पाये जाते हैं। उन्हीं को गरीब- अमीर व सफल- असफल भी कहते हैं, किंतु इन सबसे ऊँचा एक और स्तर है, जिसे देवमानव कहकर सराहा जाता है। प्रतिभाशाली उपयुक्त सफलताएँ पाते हैं; भले ही उसका दुरुपयोग करके अपयश के भाजन ही क्यों न बनें, किंतु जिनने अपने गुण- कर्म को सुनियोजित व सुसंस्कृत बना लिया है, उनके लिये आत्मिक संतोष, लोक- सम्मान और दैवी अनुग्रह, तीनों ही सुरक्षित रहते और दिन- दिन समुन्नत होते जाते हैं। वस्तुतः: व्यक्तित्व का परिष्कार और उदात्तीकरण ही वह योगाभ्यास है, जिसके माहात्म्य को लोक और परलोक की अभीष्ट सफलताएँ देने वाला बताया गया है। प्रखर प्रतिभा का उद्गम- स्रोत ईश्वर है। जिसे दूसरे शब्दों में सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय भी कहा जा सकता है। मनुष्य- जीवन में वह गरिमामयी आदर्शवादिता और उत्कृष्टता के रूप में अवतरित होता है। पूजा- उपासना के समस्त कर्मकाण्डों का उद्देश्य इसी आंतरिक वरिष्ठता का सम्पादन और अभिवर्द्धन करना है।
मशीनों में बिजली का करेंट कम मात्रा में पहुँचता है तो उनकी चाल बहुत धीमी पड़ जाती है, पर जैसे- जैसे वह विद्युत् प्रवाह बढ़ता है, वैसे- वैसे ही उन सब में तेजी, गति और शक्ति बढ़ती जाती है। चेतना का कामचलाऊ अंश तो प्राणिमात्र में रहता है, जिससे वह किसी प्रकार अपनी जीवनचर्या चलाता रह सके। यह जन्मजात है, किंतु जब कभी इसकी अतिरिक्त मात्रा की आवश्यकता पड़ती है तो वह योग और तपपरक साधना करता है। इन दोनों का तात्पर्य प्रकारांतर से प्रतिभा और सेवा- साधना में सरलता अनुभव होने की प्रवृत्ति ही समझी जा सकती है।
योगदर्शन में अष्टांग- साधना में सर्वप्रथम यम- नियम की गणना की गई है। यह अंतरंग और बहिरंग सुव्यवस्था के ही दो रूप हैं। जिसने इस दिशा में जितनी प्रगति की, समझना चाहिये कि उसे उतनी ही आत्मिक प्रगति हस्तगत हुई और उसकी क्षमता उस स्तर की निखरी, जिसका वर्णन महामानवों में पाई जाने वाली ऋद्धि- सिद्धियों के रूप में किया जाता है। उपासनात्मक समस्त कर्मकाण्डों की सनरचना इसी एक प्रयोजन के लिये हुई है कि व्यक्ति की पशु- प्रवृत्तियों के घटने और दैवी संपदाओं के बढ़ने का सिलसिला क्रमबद्ध रूप से चलता रहे। यदि उद्देश्य का विस्मरण कर दिया जाए और मात्र पूजापरक क्रिया- कृत्यों को ही सब कुछ मान लिया जाए तो यह चिह्न−पूजा को निर्जीव उपक्रम ही माना जाएगा और उतने भर से बढ़ी- चढ़ी उपलब्धियों की आशा करने वालों को निराश ही रहना पड़ेगा।
समर्थ पक्षियों के नेतृत्व में अनेक छोटी चिड़ियाँ उड़ान भरती हैं। बलिष्ठ मृग के परिवार में आश्रय पाने के लिये उसी जाति के अनेक प्राणी सम्मिलित होते जाते हैं। च्यूँटियाँ कतार बनाकर चलती हैं। बलिष्ठ आत्मबल के होने पर दैवी शक्तियों का अवतरण आरंभ हो जाता है और साधक क्रमश: अधिक सिद्ध स्तर का बनता जाता है। यही है वह उपलब्धि, जिसके सहारे महान् प्रयोजन सधते और ऐसे गौरवास्पद कार्य बन पड़ते हैं, जिन्हें सामान्य स्तर के लोग प्राय: असंभव ही मानते रहते हैं।
बड़ी उपलब्धियों के लिये प्राय: दो मोर्चे संभालने पड़ते हैं- एक यह कि अपनी निजी दुर्बलताओं को घटाना- मिटाना पड़ता है। उनके रहते मनुष्य में आधी- चौथाई शक्ति ही शेष रह जाती है, अधिकांश तो निजी दुर्बलताओं के छिद्रों से होकर बह जाती है। जिनके लिये अपनी समस्याओं को सुलझाना ही कठिन पड़ता है, वह व्यापक क्षेत्र के बड़े कामों को सरंजाम किस प्रकार जुटा सकेंगे। भूखा व्यक्ति किसी भी मोर्चे पर जीत नहीं पाता। इसी प्रकार दुर्गुणी व्यक्ति स्वयं अपने लिये इतनी समस्याएँ खड़ी करता रहता है, जिनके सुलझने में उपलब्ध योग्यता का अधिकांश भाग खपा देने पर भी यह निश्चय नहीं होता कि अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य संपादित करने के लिये कुछ सामर्थ्य बचेगी या नहीं।
बच्चों को लोरी गाकर सुला दिया जाता है। झूले पर हिलते रहने वाले बच्चे भी जल्दी सो जाते हैं। रोने वाले बच्चे को अफीम चटाकर खुमारी में डाल दिया जाता है। इसी प्रकार व्यक्ति को भी कुसंग और दुर्व्यसन में आलस्य- प्रमाद का आदी बनाकर ऐसा कुछ बना दिया जाता है, मानों वह अर्ध- मृत या अर्ध- विक्षिप्त अनगढ़ स्थिति में रह रहा है। ऐसे व्यक्ति पग- पग पर भूलें करते और कुमार्ग पर चलते देखे जाते हैं। उपलब्धियों का आमतौर से ऐसे ही लोग दुरुपयोग करते और घाटा उठाते हैं, किन्तु जिनने इस अनौचित्य की हानियों को समझ लिया है, उनके लिये आत्मानुशासन कठिन नहीं रहता वरन् उसके मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को उससे कहीं अधिक हल्की अनुभव करते हैं, जो कुमार्ग पर चलने वाले को पग- पग पर उठानी पड़ती हैं। परमार्थ- कार्यों में समय और साधनों का खर्च तो होता है, पर वह उतने दुष्परिणाम उत्पन्न नहीं करता जितना कि संकीर्ण स्वार्थपरता अपनाकर तत्काल दीखने वाले लाभों के व्यामोह में निरंतर पतन और पराभव ही हाथ लगता है।
हर महत्त्वपूर्ण कार्य के लिये प्रतिभाशाली व्यक्तित्व चाहिये अन्यथा असावधान एवं अनगढ़ जितना कुछ कर पाते हैं, उससे अधिक हानि करते रहते हैं। ऐसों की न कहीं आवश्यकता होती है, न इज्जत और न उपयोगिता। ऐसी दशा में उन्हें जहाँ- तहाँ ठोकरें खाते देखा जाता है। इसके विपरीत उन जागरूक लोगों का पुरुषार्थ है, जो पूरे मनोयोग के साथ काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हैं। बड़प्पन ऐसों के हिस्से में ही आता है। बड़े काम संपन्न करते ऐसे ही लोग देखे जाते हैं। बड़ाई उन्हीं के हिस्से में आती है। साधन तो सहायक भर होते हैं। वस्तुतः: मनुष्य की क्षमता और दक्षता गुण, कर्म, स्वभाव के निखार पर निर्भर रहती है।
अध्यात्म जादूगरी नहीं है और न कहीं आसमान से बरसने वाले वरदान- अनुदान देवी- देवताओं का भी यह धंधा नहीं है कि चापलूसी करने वालों को निहाल करते रहें और जो इनके लिये ध्यान न दे सकें, उन्हें उपेक्षित रखें या आक्रोश का भाजन बनायें। वस्तुतः: देवत्व आत्म- जागरण की एक स्थिति विशेष है, जिसमें अपने ही प्रसुप्त वर्चस्व को प्रयत्नपूर्वक काम में लाया जाता है और सत्प्रयासों का अधिकाधिक लाभ उठाया जाता है।
कहते हैं कि भगवान् शेष शय्या पर सोते रहते हैं। कुसंस्कारी लोगों का भगवान् उन बचकानों की बेहूदी धमा- चौकड़ी से तंग आकर आँखें मूँदकर इसी प्रकार जान बचाता है, पर जो मनस्वी उसकी सहायता से कठिनाइयों में त्राण पाना चाहते हैं, उनके लिये द्रौपदी या गज की तरह उसकी कष्टनिवारण शक्ति भी दौड़ी आती है। जिन्हें वर्चस्व प्राप्त करना होता है, उन्हें सुदामा, नरसी, विभीषण व सुग्रीव की तरह वैभव भी प्रचुर परिमाण में हस्तगत होता है। इच्छाशक्ति संसार की सबसे बड़ी सामर्थ्य है। साहस भरे संकल्प बल से बढ़कर इस संसार में और कोई नहीं। इसी को अर्जित करते जाना जीवन का वास्तविक लक्ष्य है, क्योंकि स्वर्ग- मुक्ति जैसे आध्यात्मिक और ऋद्धि- सिद्धि जैसे भौतिक लाभ इसी आधार पर उपलब्ध किये जाते रहते हैं।
स्वयं का भार वहन करना भी आमतौर से कठिन काम माना जाता है। फिर अनेकों का भार वहन करते हुए उन्हें ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने को लक्ष्य पूरा करना तो और भी अधिक कठिन पड़ना चाहिये, पर यह कठिनाई या असमर्थता तभी तक टिकती है, जब तक अपने में सामर्थ्य की कमी रहती है। उसका बाहुल्य हो तो मजबूत क्रेनें रेलगाड़ी के पटरी से उतरे डिब्बों को अंकुश में लपेटकर उलटकर सीधा करतीं और यथास्थान चलने योग्य बनाकर अच्छी स्थिति में पहुँचा देती हैं।
इक्कीसवीं सदी में उससे कहीं अधिक पुरुषार्थ किये जाने हैं, जितना कि पिछले दो महायुद्धों की विनाश- विभीषिका में ध्वंस हुआ है; जैसे कि वायु- प्रदूषण ने जीवन- मरण का संकट उत्पन्न किया है; विषमताओं और अनाचारजन्य विभीषिकाओं ने भी संकट उत्पन्न किये हैं। शक्ति तो इन सभी में खर्च हुई, पर ध्वंस की अपेक्षा सृजन के लिये कहीं अधिक सामर्थ्य और साधनों की आवश्यकता पड़ती है। इसका यदि संचय समय रहते किया जा सके तो समझना चाहिये कि दुष्ट चिंतन और भ्रष्ट आचरण के कारण उन असंख्य समस्याओं का समाधान संभव होगा जो इन दिनों हर किसी को उत्तेजित, विक्षुब्ध और आतंकित किये हुए हैं।
प्राणशक्ति को भौतिक लाभ के लिये भी प्रयोग किया जा सकता है। जीवट वाले सामान्य परिस्थितियों में पैदा होने पर भी अपने लिये अपने उपयुक्त वातावरण बनाते और व्यवहारकुशलता का परिचय देते हुए अभीष्ट क्षेत्र की प्रगति अर्जित करते हैं। धनवान् बलवान्, विद्वान् व कलाकार स्तर के लोग अपनी तत्परता, तन्मयता, कुशलता और जागरूकता के सहारे अपनी इच्छित सफलताएँ अर्जित करते हैं, जबकि अनगढ़ स्तर के लोग किसी प्रकार अपना गुजारा भर चला पाते हैं- कई बार तो ऐसे जाल- जंजाल बुन लेते हैं, जिनके कारण उन्हें अनेकानेक विग्रहों- संकटों का सामना करना पड़ता है। असावधान और अव्यावहारिक लोग अकसर लोकव्यवहार में भी इतनी भूलें करते देखे गये हैं, जिनके कारण उनके लिये चैन से दिन गुजारना भी कठिन पड़ जाता है, सफलता और समृद्धियाँ प्राप्त कर सकना तो दूर की बात बन जाती है।
भौतिक क्षेत्र में अपने जीवट का सुनियोजन करने वाले आमतौर से अभीष्ट सफलता की दिशा में ही बढ़ते हैं। संपत्तिवान प्रगतिशील सफलताओं के अधिष्ठाता कहलाते हैं। कभी- कभी ऐसे लोग चालाकी भी अपनाते हैं, पर इतना तो निश्चित है कि जीवट का धनी हुए बिना कोई उस स्थिति तक नहीं पहुँच सकता, जिसे उन्नतिशील कहलाने का श्रेय मिल सके।
अनगढ़ और पुरुषार्थी, दो स्तर के लोग आम जनता के बीच पाये जाते हैं। उन्हीं को गरीब- अमीर व सफल- असफल भी कहते हैं, किंतु इन सबसे ऊँचा एक और स्तर है, जिसे देवमानव कहकर सराहा जाता है। प्रतिभाशाली उपयुक्त सफलताएँ पाते हैं; भले ही उसका दुरुपयोग करके अपयश के भाजन ही क्यों न बनें, किंतु जिनने अपने गुण- कर्म को सुनियोजित व सुसंस्कृत बना लिया है, उनके लिये आत्मिक संतोष, लोक- सम्मान और दैवी अनुग्रह, तीनों ही सुरक्षित रहते और दिन- दिन समुन्नत होते जाते हैं। वस्तुतः: व्यक्तित्व का परिष्कार और उदात्तीकरण ही वह योगाभ्यास है, जिसके माहात्म्य को लोक और परलोक की अभीष्ट सफलताएँ देने वाला बताया गया है। प्रखर प्रतिभा का उद्गम- स्रोत ईश्वर है। जिसे दूसरे शब्दों में सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय भी कहा जा सकता है। मनुष्य- जीवन में वह गरिमामयी आदर्शवादिता और उत्कृष्टता के रूप में अवतरित होता है। पूजा- उपासना के समस्त कर्मकाण्डों का उद्देश्य इसी आंतरिक वरिष्ठता का सम्पादन और अभिवर्द्धन करना है।
मशीनों में बिजली का करेंट कम मात्रा में पहुँचता है तो उनकी चाल बहुत धीमी पड़ जाती है, पर जैसे- जैसे वह विद्युत् प्रवाह बढ़ता है, वैसे- वैसे ही उन सब में तेजी, गति और शक्ति बढ़ती जाती है। चेतना का कामचलाऊ अंश तो प्राणिमात्र में रहता है, जिससे वह किसी प्रकार अपनी जीवनचर्या चलाता रह सके। यह जन्मजात है, किंतु जब कभी इसकी अतिरिक्त मात्रा की आवश्यकता पड़ती है तो वह योग और तपपरक साधना करता है। इन दोनों का तात्पर्य प्रकारांतर से प्रतिभा और सेवा- साधना में सरलता अनुभव होने की प्रवृत्ति ही समझी जा सकती है।
योगदर्शन में अष्टांग- साधना में सर्वप्रथम यम- नियम की गणना की गई है। यह अंतरंग और बहिरंग सुव्यवस्था के ही दो रूप हैं। जिसने इस दिशा में जितनी प्रगति की, समझना चाहिये कि उसे उतनी ही आत्मिक प्रगति हस्तगत हुई और उसकी क्षमता उस स्तर की निखरी, जिसका वर्णन महामानवों में पाई जाने वाली ऋद्धि- सिद्धियों के रूप में किया जाता है। उपासनात्मक समस्त कर्मकाण्डों की सनरचना इसी एक प्रयोजन के लिये हुई है कि व्यक्ति की पशु- प्रवृत्तियों के घटने और दैवी संपदाओं के बढ़ने का सिलसिला क्रमबद्ध रूप से चलता रहे। यदि उद्देश्य का विस्मरण कर दिया जाए और मात्र पूजापरक क्रिया- कृत्यों को ही सब कुछ मान लिया जाए तो यह चिह्न−पूजा को निर्जीव उपक्रम ही माना जाएगा और उतने भर से बढ़ी- चढ़ी उपलब्धियों की आशा करने वालों को निराश ही रहना पड़ेगा।
समर्थ पक्षियों के नेतृत्व में अनेक छोटी चिड़ियाँ उड़ान भरती हैं। बलिष्ठ मृग के परिवार में आश्रय पाने के लिये उसी जाति के अनेक प्राणी सम्मिलित होते जाते हैं। च्यूँटियाँ कतार बनाकर चलती हैं। बलिष्ठ आत्मबल के होने पर दैवी शक्तियों का अवतरण आरंभ हो जाता है और साधक क्रमश: अधिक सिद्ध स्तर का बनता जाता है। यही है वह उपलब्धि, जिसके सहारे महान् प्रयोजन सधते और ऐसे गौरवास्पद कार्य बन पड़ते हैं, जिन्हें सामान्य स्तर के लोग प्राय: असंभव ही मानते रहते हैं।
बड़ी उपलब्धियों के लिये प्राय: दो मोर्चे संभालने पड़ते हैं- एक यह कि अपनी निजी दुर्बलताओं को घटाना- मिटाना पड़ता है। उनके रहते मनुष्य में आधी- चौथाई शक्ति ही शेष रह जाती है, अधिकांश तो निजी दुर्बलताओं के छिद्रों से होकर बह जाती है। जिनके लिये अपनी समस्याओं को सुलझाना ही कठिन पड़ता है, वह व्यापक क्षेत्र के बड़े कामों को सरंजाम किस प्रकार जुटा सकेंगे। भूखा व्यक्ति किसी भी मोर्चे पर जीत नहीं पाता। इसी प्रकार दुर्गुणी व्यक्ति स्वयं अपने लिये इतनी समस्याएँ खड़ी करता रहता है, जिनके सुलझने में उपलब्ध योग्यता का अधिकांश भाग खपा देने पर भी यह निश्चय नहीं होता कि अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य संपादित करने के लिये कुछ सामर्थ्य बचेगी या नहीं।
बच्चों को लोरी गाकर सुला दिया जाता है। झूले पर हिलते रहने वाले बच्चे भी जल्दी सो जाते हैं। रोने वाले बच्चे को अफीम चटाकर खुमारी में डाल दिया जाता है। इसी प्रकार व्यक्ति को भी कुसंग और दुर्व्यसन में आलस्य- प्रमाद का आदी बनाकर ऐसा कुछ बना दिया जाता है, मानों वह अर्ध- मृत या अर्ध- विक्षिप्त अनगढ़ स्थिति में रह रहा है। ऐसे व्यक्ति पग- पग पर भूलें करते और कुमार्ग पर चलते देखे जाते हैं। उपलब्धियों का आमतौर से ऐसे ही लोग दुरुपयोग करते और घाटा उठाते हैं, किन्तु जिनने इस अनौचित्य की हानियों को समझ लिया है, उनके लिये आत्मानुशासन कठिन नहीं रहता वरन् उसके मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को उससे कहीं अधिक हल्की अनुभव करते हैं, जो कुमार्ग पर चलने वाले को पग- पग पर उठानी पड़ती हैं। परमार्थ- कार्यों में समय और साधनों का खर्च तो होता है, पर वह उतने दुष्परिणाम उत्पन्न नहीं करता जितना कि संकीर्ण स्वार्थपरता अपनाकर तत्काल दीखने वाले लाभों के व्यामोह में निरंतर पतन और पराभव ही हाथ लगता है।
हर महत्त्वपूर्ण कार्य के लिये प्रतिभाशाली व्यक्तित्व चाहिये अन्यथा असावधान एवं अनगढ़ जितना कुछ कर पाते हैं, उससे अधिक हानि करते रहते हैं। ऐसों की न कहीं आवश्यकता होती है, न इज्जत और न उपयोगिता। ऐसी दशा में उन्हें जहाँ- तहाँ ठोकरें खाते देखा जाता है। इसके विपरीत उन जागरूक लोगों का पुरुषार्थ है, जो पूरे मनोयोग के साथ काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हैं। बड़प्पन ऐसों के हिस्से में ही आता है। बड़े काम संपन्न करते ऐसे ही लोग देखे जाते हैं। बड़ाई उन्हीं के हिस्से में आती है। साधन तो सहायक भर होते हैं। वस्तुतः: मनुष्य की क्षमता और दक्षता गुण, कर्म, स्वभाव के निखार पर निर्भर रहती है।
अध्यात्म जादूगरी नहीं है और न कहीं आसमान से बरसने वाले वरदान- अनुदान देवी- देवताओं का भी यह धंधा नहीं है कि चापलूसी करने वालों को निहाल करते रहें और जो इनके लिये ध्यान न दे सकें, उन्हें उपेक्षित रखें या आक्रोश का भाजन बनायें। वस्तुतः: देवत्व आत्म- जागरण की एक स्थिति विशेष है, जिसमें अपने ही प्रसुप्त वर्चस्व को प्रयत्नपूर्वक काम में लाया जाता है और सत्प्रयासों का अधिकाधिक लाभ उठाया जाता है।
कहते हैं कि भगवान् शेष शय्या पर सोते रहते हैं। कुसंस्कारी लोगों का भगवान् उन बचकानों की बेहूदी धमा- चौकड़ी से तंग आकर आँखें मूँदकर इसी प्रकार जान बचाता है, पर जो मनस्वी उसकी सहायता से कठिनाइयों में त्राण पाना चाहते हैं, उनके लिये द्रौपदी या गज की तरह उसकी कष्टनिवारण शक्ति भी दौड़ी आती है। जिन्हें वर्चस्व प्राप्त करना होता है, उन्हें सुदामा, नरसी, विभीषण व सुग्रीव की तरह वैभव भी प्रचुर परिमाण में हस्तगत होता है। इच्छाशक्ति संसार की सबसे बड़ी सामर्थ्य है। साहस भरे संकल्प बल से बढ़कर इस संसार में और कोई नहीं। इसी को अर्जित करते जाना जीवन का वास्तविक लक्ष्य है, क्योंकि स्वर्ग- मुक्ति जैसे आध्यात्मिक और ऋद्धि- सिद्धि जैसे भौतिक लाभ इसी आधार पर उपलब्ध किये जाते रहते हैं।
स्वयं का भार वहन करना भी आमतौर से कठिन काम माना जाता है। फिर अनेकों का भार वहन करते हुए उन्हें ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने को लक्ष्य पूरा करना तो और भी अधिक कठिन पड़ना चाहिये, पर यह कठिनाई या असमर्थता तभी तक टिकती है, जब तक अपने में सामर्थ्य की कमी रहती है। उसका बाहुल्य हो तो मजबूत क्रेनें रेलगाड़ी के पटरी से उतरे डिब्बों को अंकुश में लपेटकर उलटकर सीधा करतीं और यथास्थान चलने योग्य बनाकर अच्छी स्थिति में पहुँचा देती हैं।
इक्कीसवीं सदी में उससे कहीं अधिक पुरुषार्थ किये जाने हैं, जितना कि पिछले दो महायुद्धों की विनाश- विभीषिका में ध्वंस हुआ है; जैसे कि वायु- प्रदूषण ने जीवन- मरण का संकट उत्पन्न किया है; विषमताओं और अनाचारजन्य विभीषिकाओं ने भी संकट उत्पन्न किये हैं। शक्ति तो इन सभी में खर्च हुई, पर ध्वंस की अपेक्षा सृजन के लिये कहीं अधिक सामर्थ्य और साधनों की आवश्यकता पड़ती है। इसका यदि संचय समय रहते किया जा सके तो समझना चाहिये कि दुष्ट चिंतन और भ्रष्ट आचरण के कारण उन असंख्य समस्याओं का समाधान संभव होगा जो इन दिनों हर किसी को उत्तेजित, विक्षुब्ध और आतंकित किये हुए हैं।