Books - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
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Language: HINDI
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गायत्री के पांच मुख
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गायत्री को पंचमुखी कहा गया है। पंचमुख शंकर की भांति गायत्री भी पंच मुखी है। पुराणों में ऐसा वर्णन कई जगह आया है जिसमें वेदमाता गायत्री को पांच मुख वाली कहा गया है। अधिक मुख, अधिक हाथ पांव वाले देवताओं का होना कुछ अटपटा सा लगता है। इसलिए बहुधा इस सम्बन्ध में संदेह प्रकट किया जाता है। चार मुख वाले ब्रह्माजी, पांच मुख वाले शिवजी, छह मुख वाले कार्तिकेय जी बताए गये हैं। चतुर्भुज विष्णु, अष्टभुजी दुर्गा, दशभुजी गणेश प्रसिद्ध हैं। ऐसे उदाहरण कुछ और भी हैं। रावण के दस सिर और बीस भुजाएं भी प्रसिद्ध हैं। सहस्रबाहु की हजार भुजा और इन्द्र के हजार नेत्रों का वर्णन है।
यह प्रकट है कि अन्योक्तियां एवं पहेलियां बड़ी आकर्षक एवं मनोरंजक होती हैं, उनके पूछने और उत्तर देने में रहस्योद्घाटन की एक विशेष महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का विकास होता है। छोटे बच्चों से पहेलियां पूछते हैं, वे उस विलक्षण प्रश्न का उत्तर खोजने में अपने मस्तिष्क को दूर दूर तक दौड़ते हैं। और उत्तर खोजने में बुद्धि पर काफी जोर देते हैं, स्वयं नहीं सूझ पड़ता तो दूसरों से आग्रह पूर्वक पूछते हैं जब तक उस विलक्षण पहेली का उत्तर उन्हें नहीं मिल जाता तब तक उनके मन में बड़ी उत्सुकता एवं बेचैनी रहती है। इस प्रकार सीधे साधे नीरस प्रश्नों की अपेक्षा, टेड़े मेडे उलझन भरे विलक्षण प्रश्न, पहेलियों के द्वारा हल करने से बालकों को बौद्धिक विकास और मनोरंजन दोनों ही प्राप्त होते हैं।
देव दानवों के अधिक मुख और अधिक अंग ऐसी ही रहस्यमय पहेली हैं जिनमें तत्संबन्धी प्रमुख तथ्यों का रहस्य सन्निहित होता है। इस विलक्षणता के कारण जिज्ञासु का कौतूहल बढ़ता है वह सोचता है ऐसी विचित्रता क्यों हुई? इस प्रश्न पहेली का बुझोअल करने के निमित्त जब वह अन्वेषण करता है तब पता चल जाता है कि इस बहाने कैसे महत्वपूर्ण तथ्य उसे ज्ञान होते जाते हैं वह अनुभव करता है कि यदि इस प्रकार उलझी पहेली न होती तो शायद उसका ध्यान भी उन रहस्य मय बातों की ओर न जाता और वह उस अमूल्य जानकारी से वंचित रह जाता। पहेलियों के उत्तर बालकों को ऐसी दृढ़ता पूर्वक याद हो जाते हैं कि वे भूलते नहीं। अध्यात्म कक्षा का विद्यार्थी भी अधिक मुख वाले देवताओं को समझने के लिए जब उत्सुक होता है तो उसे वे अद्भुत बातें सहज ही विदित हो जाती हैं जो उस दिव्य महाशक्ति से सम्बद्ध हैं।
कभी अवसर मिलेगा तो सभी देवताओं की आकृतियों के बारे में विस्तार पूर्वक पाठकों को बतायेंगे। हनुमान जी की पूंछ, गणेश जी की सूंड़, हयग्रीव का अश्व मुख, ब्रह्माजी के चार मुख, दुर्गा जी की आठ भुजाएं, शिवजी के तीन नेत्र, कार्तिकेय जी के छह मुख, तथा इन देवताओं के मूषक, मोर, बैल, सिंह आदि वाहनों में क्या रहस्य है इसका विस्तृत वर्णन फिर कभी करेंगे। आज तो गायत्री के पांच मुखों के सम्बन्ध में प्रकाश डालना है।
गायत्री, सुव्यवस्थित जीवन का, धार्मिक जीवन का, अविच्छिन्न अंग है तो उसे भली प्रकार समझना उसके मर्म रहस्य, तथ्य और उपकरणों को जानना भी आवश्यक है। डॉक्टर, इंजीनियर, यंत्र विद्, बढ़ई, लुहार, रंगरेज, हलवाई, सुनार, दर्जी, कुम्हार, जुलाहा, नट, कथावाचक, अध्यापक, गायक, किसान, आदि सभी वर्ग के कार्यकर्ता अपने अपने काम की बारीकियों को समझते हैं और प्रयोग विधि तथा हानि लाभ के कारणों को समझते हैं। गायत्री विद्या के जिज्ञासुओं और प्रयोक्ताओं को भी अपने विषय से भली प्रकार परिचित होना चाहिए अन्यथा उसकी सफलता का क्षेत्र अवरुद्ध हो जायगा। ऋषियों ने गायत्री के पांच मुख बनाकर हमें बताया है कि इस महाशक्ति के अन्तर्गत पांच तथ्य ऐसे हैं जिनको जानकर और उनका ठीक प्रकार अवगाहन करके संसार सागर के सभी दुस्तर दुरितों से पार हुआ जा सकता है।
गायत्री के पांच मुख वास्तव में उसके पांच भाग हैं।
1— ॐ
2— भूर्भुवः स्वः
3— तत्सवितुर्वरेण्यम्
4— भर्गो देवस्य धीमहि
5— धियो योनः प्रचोदयात् ।
यज्ञोपवीत के भी पांच भाग हैं—तीन लड़ें, चौथी मध्य ग्रन्थियां, पांचवे ब्रह्मग्रन्थि। पांच देवता प्रसिद्ध हैं—ॐ अर्थात् गणेश, व्याहृति अर्थात् भवानी, गायत्री का प्रथम चरण—ब्रह्मा, द्वितीय चरण—विष्णु, तृतीय चरण—महेश इस प्रकार यह पांच देवता गायत्री के प्रमुख शक्ति पुंज कहे जा सकते हैं।
गायत्री के इन पांच भागों में वे सन्देश छिपे हुए हैं जो मानव जीवन की वाह्य एवं आन्तरिक समस्याओं को हल कर सकते हैं। हम क्या हैं, किस कारण जीवन धारण किये हुए हैं, हमारा लक्ष्य क्या है, अभाव ग्रस्त और दुःखी रहने का कारण क्या है, सांसारिक सम्पदाओं की और आत्मिक शान्ति की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है; कौन बन्धन हमें जन्म मरण के चक्र में बांधे हुए हैं, किस उपाय से छुटकारा मिल सकता है, अनन्त आनन्द का उद्गम कहां है, विश्व क्या है, संसार का और हमारा क्या सम्बन्ध है, जन्म मृत्यु के त्रास दायक चक्र को कैसे तोड़ा जा सकता है, आदि जटिल प्रश्नों के सरल उत्तम उपरोक्त पंचकों में मौजूद है।
गायत्री के पांच मुख असंख्यों सूक्ष्म रहस्य और तत्व अपने भीतर छिपाये हुए हैं। उन्हें जानने के बाद मनुष्य को इतनी तृप्ति हो जाती है कि कुछ जानने लायक बात उसे सूझ नहीं पड़ती। महर्षि उद्दालक ने उस विद्या की प्रतिष्ठा की थी। जिसे जानकर और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता, वह विद्या गायत्री विद्या ही है। चार वेद और पांचवा यज्ञ यह पांचों ही गायत्री के पांच मुख हैं जिनमें समस्त ज्ञान विज्ञान और धर्म कर्म, बीज रूप से केन्द्रीभूत हो रहा है।
शरीर पांच तत्वों से बना हुआ है और आत्मा के पांच कोष हैं। मिट्टी, पानी, हवा, और आकाश के सम्मिश्रण से देह बनती है। गायत्री के पांच मुख बताते हैं कि यह शरीर और कुछ नहीं केवल पंच भूतों के जड़ परमाणुओं का सम्मिश्रण मात्र है। यह हमारे लिए अत्यन्त उपयोगी, औजार सेवक एवं वाहन है। अपने आपको शरीर समझ बैठना भारी भूल है। इस भूल को ही माया या अविद्या कहते हैं। शरीर का एवं संसार का वास्तविक रूप समझ लेने पर जीव मोह निद्रा से उठता है और संचय स्वामित्व एवं भोगों की बाल क्रीड़ा से मुंह मोड़कर आत्म कल्याण की ओर लगता है। पांच मुखों का एक संदेश यह है—पंच तत्वों से बने पदार्थों को केवल उपयोग की वस्तु समझें उनमें लिप्त, तन्मय, आसक्त एवं मोह ग्रस्त न हों।
पांच मुखों का दूसरा संकेत आत्मा के पांच कोशों की ओर है। जैसे शरीर के ऊपर बनियान, कुर्त्ता, बासकट, कोट और ओवर कोट, एक के ऊपर एक पहन लेते हैं वैसे ही आत्मा के ऊपर यह पांच आवरण चढ़े हुए हैं। इन पांचों को
1— अन्नमय कोश,
2— प्राणमय कोश
3— मनोमय कोश,
4— विज्ञानमय कोश,
5— आनन्दमय कोश, कहते हैं।
इन पांच परकोटों के किले में जीव बन्दी बना हुआ है। जब इसके फाटक खुल जाते हैं। तो आत्मा बन्धन मुक्त हो जाता है।
यों तो गायत्री के पांच मुखों में अनेक पंचकों के अद्भुत रहस्य छिपे हुए हैं। पर इन सब की चर्चा इस पुस्तक में नहीं हो सकती। यहां तो हमें इन पंच कोशों पर ही कुछ प्रकाश डालना है। कोष खजाने को भी कहते हैं। आत्मा के पास यह पांच खजाने हैं इनमें से हर एक में बहुमूल्य सम्पदाएं भरी पड़ी हैं। जैसे धन कुबेरों के यहां नोट रखने की, चांदी रखने की, सोना रखने की, जवाहरात रखने की, हुण्डी चैक आदि रखने की जगह अलग-अलग होती हैं वैसे ही आत्मा के पास भी यह पांच खजाने हैं। सिद्ध किये हुए पांचों कोशों के द्वारा ऐसी अगणित सम्पदाएं सुख सुविधाएं मिलती हैं जिनको पाकर इसी जीवन में स्वर्गीय आनन्द की उपलब्धि होती है योगी लोग उसी आनन्द के लिए तप करते हैं और देवता लोग नर तनु धारण के लिए उसी आनन्द को तरसते रहते हैं। कोशों में सदुपयोग अनन्त आनन्द का उत्पादक है और उनका दुरुपयोग पांच परकोटों वाले कैदखाने के रूप में बन्धन कारक बन जाता है।
पंच कोषों का उपहार प्रभु ने हमारी अनन्त सुख सुविधाओं के लिए दिया है। यह पांच सवारियां हैं जो हमें चाहे जहां सैर करा लाती हैं, तप पांच हथियार हैं जो अनिष्ट रूपी शत्रुओं का विनाश और आत्म संरक्षण करने के लिए अतीव उपयोगी हैं यह पांच वस्त्र हैं जो असुविधा से बचाते और शोभा को बढ़ाते हैं। यह पांच शक्तिशाली सेवक हैं जो हर घड़ी आज्ञा पालन के लिए प्रस्तुत रहते हैं। इन पांच खजानों में अटूट सम्पदा भरी पड़ी है। इस पंचामृत का ऐसा स्वाद है कि जिसे इसकी बूंदें चखने के लिए मुक्त हुई आत्माएं लौट लौट कर तन में अवतार लेती रहती हैं।
बिगड़ा हुआ अमृत विष हो जाता है। स्वामिभक्त कुत्ता पागल हो जाने पर अपने पालने वालों को ही संकट में डाल देता है। सड़ा हुआ अन्न विष्ठा कहलाता है, जीवन का आधार रक्त जब सड़ने लगता है तो दुर्गन्धित पीप बनकर वेदना कारक फोड़े के रूप में प्रकट होता है। पंच कोषों का विकृत रूप भी हमारे लिए ऐसा ही दुखदायी होता है। नाना प्रकार के पाप तापों, क्लेश कलहों, दुख दुर्भाग्यों, चिन्ता शोकों, अभाव दरिद्रों और पीड़ा वेदनाओं में तड़फते हुए मानव इस विकृति के ही शिकार हो रहे हैं। सुन्दरता और दृष्टि ज्योति के केन्द्र नेत्रों में जब विकृति आ जाती है, दुखने लगती है तो सुन्दरता एक ओर रही, उलटी उन पर चिथड़े की पट्टी बंध जाती है, सुन्दर दृश्य देखकर मनोरंजन करना तो दूर दर्द के बारे मछली की तरह तड़पना पड़ता है। आनन्द के उद्गम पांच कोशों की विकृति ही जीवन को दुखी बनाती है अन्यथा ईश्वर का राजकुमार जिस दिव्य रथ में बैठकर जिस नन्दन वन में आया है उसमें आनन्द ही आनन्द आना चाहिए। दुख दुर्भाग्य का कारण इस विकृति के अतिरिक्त और कोई हो ही नहीं सकता।
पांच तत्व, पांच कोश, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां पांच प्राण, पांच उपप्राण, पांच तन्मात्राएं पांच यज्ञ, पांच देव, पांच योग, पांच अग्नि, पांच अंग, पांच वर्ण, पांच स्थिति, पांच अवस्था, पांच शूल, पांच क्लेश आदि अनेक पंचक गायत्री के पांच मुखों से सम्बन्धित हैं। इनको सिद्ध करने वाले पुरुषार्थी व्यक्ति ऋषि, राजर्षि, ब्रह्मर्षि, महर्षि और देवर्षि कहलाते हैं। आत्मोन्नति की पांच कक्षाएं हैं। पांच भूमिकाएं हैं उनमें से जो जिस कक्षा की भूमिका को उत्तीर्ण कर लेता है वह उसी श्रेणी का ऋषि बन जाता है। किसी समय भारत भूमि ऋषियों की भूमि थी। वहां ऋषि से कम तो कोई था ही नहीं पर आज तो लोगों ने उस पंचामृत का तिरष्कार कर रखा है और बुरी तरह प्रपंच में फंसकर पंच क्लेशों से क्लेशित हो रहे हैं।