Books - तत्वदृष्टि से बंधन मुक्ति
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Language: HINDI
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समस्त दुखों का कारण अज्ञान
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प्रगति वस्तुओं का बाहुल्य के, इन्द्रिय भोगों के अथवा प्रिय परिस्थितियों की उपलब्धि के साथ जुड़ी हुई नहीं है, वरन् ज्ञान के विस्तार से सम्बन्धित है। जिनका ज्ञान जितना सीमित है वह उतना ही पिछड़ा हुआ है। सम्भव है जिनकी ज्ञान सम्पदा बढ़ी-चढ़ी है, उसकी शक्ति और अशक्ति का लेखा जोखा भी ज्ञान सम्पदा की न्यूनाधिकता के साथ जुड़ा हुआ है।
मनुष्य का नैतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्तर उसकी सुसंस्कृत ज्ञान चेतना के साथ जुड़ा हुआ है। भौतिक शक्तियों के उपार्जन और उपभोग को भी मानसिक विकास से पृथक नहीं रखा जा सकता। आदिकाल में मनुष्य शारीरिक दृष्ट से अब की अपेक्षा अधिक बलिष्ठ रहा होगा, पर उसकी चेतना पशु स्तर से कुछ ही ऊंची होने के कारण सुविकसित लोगों की तुलना में गया गुजरा ही सिद्ध होता रहा है। अतीत के पिछड़ेपन पर जब एक दृष्टि डालते है तो प्रतीत होता है कि चिन्तन क्षेत्र में अज्ञान की स्थिति कितनी कष्टकर और कितनी लज्जास्पद परिस्थितियों में मनुष्य को डाले रही है।
अमेरिकन म्यूजियम आफ नेचुरल हिस्ट्री के पक्षी विभाग ऐसोसियेट क्यूरेटर द्वारा प्रकाशित विवरणों से पता चलता है कि न्यूगिनी के आदिम और आदिवासी किस तरह अपने क्षेत्र में जा भटकने वाले लोगों को भून-भूनकर खा जाते थे। उस क्षेत्र में पक्षियों की खोज में एक खोजी दल जा पहुंचा। पापुआन क्षेत्र के मियाओं कबीले के बड़े निर्दय क्रूर कर्मों के लिये प्रसिद्ध हैं। इस क्षेत्र में किसी विशेष सुरक्षा व्यवस्था के बिना किसी को जाने देने की इजाजत नहीं है, पर वह खोजी दल किसी प्रकार उस क्षेत्र में जा ही पहुंचा और उसके सभी सदस्यों का रोमांचकारी वध हो गया।
पादरी आइवोस्केफर उस क्षेत्र में 45 वर्ष से इन नर भक्षियों के बीच प्रभु ईसा का सन्देश सुनाने के लिये रहते थे। उन्होंने इन नर भक्षियों को अपने प्रेम एवं सेवा कार्य से प्रभावित कर रखा था। शिक्षा चिकित्सा आदि उपायों से उन्होंने इस क्षेत्र के निवासियों का मन जीत लिया था। उन्हें वे पवित्र आत्मा समझते थे और किसी प्रकार की हानि पहुंचाने के स्थान पर सम्मान प्रदान करते थे।
आरम्भ में उस निष्ठावान, धर्मात्मा किन्तु क्रिया कुशल पादरी ने बड़ी बुद्धिमत्ता के साथ इन लोगों के बीच अपना स्थान बनाया था स्केफर ने अपनी पुस्तिका में लिखा है कि—पहली बार जब वे इस इलाके में अपने एक साथी के साथ गये तो उन्हें नर भक्षियों के द्वारा घेर लिया गया। उन्हें देखने वालों ने शोर मचाकर 40-50 योद्धाओं को बुला लिया—वे भाले ले लेकर आ गये और हम लोगों को चारों ओर से घेरे में लेकर हर्ष नृत्य करने लगे। उन्हें दो मनुष्य का—उसमें भी गोरों का ताजा मांस खाने को मिलेगा। इस कार्य का श्रेय वे लेंगे इस खुशी में उन्मत्तों जैसी उछल कूद कर रहे थे। घेरे में आये शिकार अब भाग तो सकते नहीं थे।
इस सम्बन्ध में वे निश्चित होकर देवता के बलिदान के उद्देश्य से गीत गा रहे थे और हर्ष मना रहे थे।
पादरी ने एक युक्ति से काम लिया। उसने थैले में से एक दर्पण निकाला और उसे आदिवासियों के सरदार के सामने कर दिया उसने जैसे ही अपनी आकृति देखी वह डर गया। दर्पण उन लोगों के लिये सर्वथा नई वस्तु थी। एक-एक करके पादरी ने दर्पण सभी को दिखाया। वे सभी बहुत डरे और समझने लगे कि यह आदमी कोई जादूगर है इसे मारने से कोई विपत्ति आ सकती है। अस्तु वे अपने-अपने भाले फेंक कर उसके इर्द-गिर्द आशीर्वाद पाने के लिये सिर झुकाकर बैठ गये। पादरी ने एक और दूसरा चमत्कार प्रकट किया। उसके पोपले मुंह में दोनों जबड़े नकली दांतों के लगे थे। उन बैठे हुए दर्शकों को सम्बोधित कर अब उसने एक नया जादू दिखाया। मुंह में से दांतों की बत्तीसी निकाली, दांत उन्हें दिखाये, पोपला मुंह दिखाया और फिर दांतों को मुंह में ठूंस कर पहले जैसा मुंह बना लिया। आदिवासी इस चमत्कार को देखकर दंग रह गये और उन्होंने पूरा भरोसा कर लिया कि यह कोई जादुई पुरुष है इतनी मान्यता बना देने से पादरी का काम बहुत सरल हो गया और निश्चिंतता पूर्वक अपना काम उस क्षेत्र में करने लगे। काम चलाऊ टूटी-फूटी आदिवासी भाषा तो उन्होंने पहले ही सीख ली थी।
पादरी ने लिखा है कि न्यूगिनी के यह आदिवासी योद्धा, निर्दयी, क्रूर, कष्ट सहिष्णु और भारी अनुदार होते हैं। एक कबीले का अधिकार जिस क्षेत्र पर है, उसमें घुसकर यदि किसी दूसरे कबीले का कोई सदस्य भूल से या जान बूझकर कोई पेड़ काट ले तो इतने से ही वे लोग आग बबूला हो जाते और रात को छिप कर उस पर हमला बोल देते। एक बार के हमले का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा है कि कांगना मन कबीले के लोगों ने अपने पड़ौसी करारन कबीले की झोपड़ियों पर चढ़ाई करके सोते हुए लोगों को पकड़ लिया और उनमें तीस के सिर काट कर ले आये। इस विजयोपहार में से एक सिर भेंट करने के लिए वे पादरी के पास भी आये थे।
कबीले का मुखिया तथा योद्धा बनने के लिये वे लोग पूरी तैयारी करते हैं। प्रायः 16 वर्ष की आयु में उसे इसकी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिये एक जीवित मनुष्य का सिर काटना पड़ता है। अक्सर इस कार्य के लिये अपने ही कबीले की या किसी अन्य कबीले से खरीदी हुई औरत प्रयुक्त की जाती है। थोड़े पालतू पशु, चमड़ा, पक्षियों के पंख आदि देकर औरतें आसानी से खरीदी भी जा सकती हैं। वध उत्सव पर उस अभागी महिला को देव ग्रह में लाया जाता है, जहां वह नव योद्धा भाले छेद-छेद कर उस स्त्री का काम तमाम कर देता है और फिर उसका सिर काटकर सरदार को भेंट करता है। इतना कर लेने पर उसकी गणना कबीले के योद्धा के रूप में होने लगती है। इन्हीं में से पीछे कोई मुखिया भी चुन लिया जाता है।
एक बार तो पादरी के यहां ठहरे हुए गोरों को घेर लिया और प्रस्ताव किया कि दल की एक गोरी महिला उन्हें वध करने के लिये दे दी जाय इसके बदले बीस आदिवासी युवतियां उन्हें दें देंगे। इस धर्म संकट को भी बड़ी चतुरता पूर्वक ही टाला जा सका।
अतीत में अज्ञान ही पिछड़ी हुई परिस्थितियों में मनुष्य में रहा है। आज जिस स्थिति पर हम थोड़ा गर्व सन्तोष कर सकते हैं, वह ज्ञान साधन का ही प्रतिफल है। भविष्य में यदि अधिक सुख शांति की, आनन्द उल्लास की परिस्थितियां अभीष्ट हों तो उसके लिये सद्ज्ञान सम्पदा की दिशा में हमारे प्रयास अधिकाधिक तीव्र होने चाहिये। जिन दिनों भारत का स्वर्णिम काल था उन दिनों यहां की ज्ञान सम्पदा ही मूर्धन्य स्तर पर पहुंची हुई थी। संसार को स्वर्ग और मनुष्य को देवोपम बनाने के लिये, वर्तमान दुर्गति के दल-दल से निकलने के लिये ज्ञान साधना में अनवरत रूप से संलग्न रहने की आवश्यकता है। भूत और वर्तमान की तुलना करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान के बिना उज्ज्वल भविष्य का और कोई मार्ग नहीं।
इस ज्ञान साधना के सम्बन्ध में उपनिषद्कार ने कहा है—
परा ञ्चि खानि व्यतृणत स्वयम्भू स्तस्मात्पराङ्ग पश्यति नान्तरात्मन् । कश्चिद्धीरः प्रत्यङ्गात्मानमैक्ष्व— दावृतचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ।। —केन 2।1।1
अर्थात्, ‘‘स्वयंभू परमात्मा ने समस्त इन्द्रियों के द्वार बाहर की ओर निर्मित किये हैं इसलिए बाह्य वस्तुएं ही देखी जाती हैं, अन्तरात्मा नहीं देखी जाती। किसी मेधावी ने ही अमृतत्व की कामना कर चक्षु आदि को भीतर की ओर प्रेरित कर अन्तरात्मा के दर्शन (अनुभव) किये हैं।’’
हम बाह्य जीवन के बारे में, सुविस्तृत संसार के बारे में बहुत कुछ जानते हैं, पर आश्चर्य की बात यह है कि अपने सम्बन्ध में अपनी सत्ता और महत्ता के सम्बन्ध में बहुत ही कम जानते हैं। बहिर्मुखी जीवन व्यस्त रहता है और यथार्थता के समझने की न तो आवश्यकता समझता है और न अवसर पाता है। यदि अपने स्वरूप, लक्ष्य और कर्तव्य का ठीक तरह भान हो जाय और संसार के साथ अपने सम्बन्धों को ठीक तरह जान सुधार लिया जाय तो यह साधारण दीखने वाला मानवी अस्तित्व महानता से सहज ही ओत-प्रोत हो सकता है।
जीवन यापन करने के लिए हमें नौ उपकरण प्राप्त हैं। (1) नेत्र (2) जिह्वा (3) नासिका (4) कान (5) त्वचा (6) मन (7) बुद्धि (8) चित्त (9) अहंकार, इन्हीं के माध्यम से हमें विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है। इस ज्ञान को ही यथार्थ मानते हैं। पर थोड़ी गहराई के साथ देखा जाय तो प्रतीत होगा कि यह सभी उपकरण एक सीमित और सापेक्ष जानकारी देते हैं, इनके माध्यम से मिली जानकारी न तो यथार्थ होती है और न पूर्ण। इसलिए उन अपूर्ण साधनों से मिली जानकारी को सही मान बैठना ‘भूल’ ही कही जायगी। वेदान्त की भाषा में इस अपूर्ण जानकारी को ‘स्वप्न’ मिथ्या कहकर उसका वस्तुस्थिति पर प्रकाश डाला गया है।
संसार में अनेक कारणों से अनेक शब्द कम्पन उत्पन्न होते रहते हैं, इन ध्वनि तरंगों की गति भिन्न-भिन्न होती है। मनुष्य के कान केवल उतने ही ध्वनि कम्पन पकड़ सुन सकते हैं जिनकी गति 33 प्रति सेकिंड से लेकर 40 प्रति सेकिंड के बीच में होती है। इससे कम या ज्यादा गति वाले कम्पन अपने कानों की पकड़ में नहीं आते। इस परिधि के बाहर विचरण करने वाला प्रवाह इतना अधिक है जिसकी तुलना में सुनाई देने वाले शब्दों को लाख करोड़वां हिस्सा कह सकते हैं। इतनी स्वल्प ध्वनि को सुन सकने वाले कानों को शब्द सागर की कुछ बूंदों का ही अनुभव होता है। शेष के बारे में वे सर्वथा अनजान ही बने रहते हैं। इस अपूर्ण उपकरण के माध्यम से ध्वनि के माध्यम से विचरण करने वाले ज्ञान को सर्वथा स्वल्प ही कहा जा सकता है और उतने से साधन से मिलने वाली जानकारी के आधार पर वस्तु स्थिति समझने का दावा नहीं कर सकते।
त्वचा के माध्यम से मिलने वाली जानकारी भी कानों की तरह ही अपूर्ण होती है साथ ही भ्रान्त भी। हाथ पर एक मिनट तक बर्फ रखे रहें इसके बाद उसी हाथ को साधारण जल में डुबोए। लगेगा पानी गरम है। इसके बाद हाथ पर कुछ देर कोई गरम चीज रखे रहें, इसके बाद हाथ को उसी पानी में डुबाये प्रतीत होगा पानी ठण्डा है। जल एक ही तापमान का था पर बर्फ अथवा गरम चीज रखने के बाद हाथ डुबाने पर अलग अलग तरह के अनुभव हुए। ऐसी त्वचा की गवाही पर क्या भरोसा किया जाय जो कुछ का कुछ बताती है। ठण्ड और गर्मी की न्यूनाधिकता का अन्तर भी त्वचा एक सीमा तक ही बताती है। अत्यधिक गरम या अत्यधिक ठण्डी वस्तु में तापमान या शीतमान का जो अन्तर होता है उसे त्वचा नहीं बता सकती। ऐसी सीमित शक्ति वाली त्वचा इन्द्रिय के माध्यम से हम समग्र सत्य को समझ सकने में कैसे समर्थ हो सकते हैं? अपनी आंखें सघन रात्रि में घोर अन्धकार का अनुभव करती हैं, कुछ भी देख नहीं सकतीं। पर उसी स्थिति में उल्लू, चमगादड़, बिल्ली, चीता आदि प्राणी भली प्रकार से देखते हैं। विज्ञान कहता है कि जगत में प्रकाश सर्वदा और सर्वत्र विद्यमान है। अन्धकार नाम की कोई चीज इस दुनिया में नहीं है। मनुष्य की आंखें एक सीमा तक के ही प्रकाश कम्पनों को देख पाती हैं जब प्रकाश की गति मनुष्य की नेत्र शक्ति की सीमा से कम होती है तो उसे अन्धकार प्रतीत होता है।
आकाश में अनेक रंगों के भिन्न-भिन्न गति वाले प्रकाश कम्पन चलते रहते हैं। मनुष्य के नेत्र उनमें से केवल सात रंगों की स्वल्प जितनी प्रकाश तरंगों को ही अनुभव कर पाते हैं और शेष को देखने में असमर्थ रहते हैं। पीलिया रोग हो जाने पर हर वस्तु पीली दीखती है। ‘रैटिनाइटिस पिग मैन्टोजा’ रोग हो जाने पर एक सीधी रेखा धब्बे या बिन्दुओं के रूप में दिखाई देती है। आकाश को ही लीजिये वह हमें नीली चादर वाला गोलाकार पर्दे जैसा लगा दीखता है और लगता है उसमें समतल तारे टके हुए हैं। पर क्या वह ज्ञान सही है? क्या आकाश की सीमा उतनी ही है जितनी आंखों से दीखता है? क्या तारे उतने ही छोटे हैं जितने कि आंखों को प्रतीत होते हैं? क्या वे सब समतल बिछे हैं? क्या आकाश का रंग वस्तुतः नीला है? इन प्रश्नों का उत्तर खगोल शास्त्र के अनुसार नहीं हो सकता है। पर इन आंखों को क्या कहा जाय जो हमें यथार्थता से सर्वत्र भिन्न प्रकार की जानकारी देती हैं और भ्रम में डालती हैं।
यही हाल नासिका का है। हमें कितनी ही वस्तुएं गन्ध हीन लगती हैं। पर वस्तुतः उनमें गन्ध रहती है और उनके स्तर अगणित प्रकार के होते हैं। कुत्तों की नाक इस गन्ध स्तर की भिन्नता को समझती है और बिछुड़ जाने पर अपने घर तक उसे पहुंचा देती है। प्रशिक्षित कुत्ते इसी गन्ध के आधार पर चोरी हत्या आदि अपराध करने वालों को ढूंढ़ निकालते हैं। यही बात सुगन्ध दुर्गन्ध के भेद भाव से सम्बन्धित है। प्याज लहसुन आदि की गन्ध कितनों को बड़ी अरुचिकर लगती है, भोजन में थोड़ी सी भी पड़ जाने से मितली आती हैं पर कितनों को इनके बिना भोजन में जायका ही नहीं आता। यही बात सिगरेट शराब आदि की गन्ध के बारे में भी है। इन परिस्थितियों में नासिका के आधार पर यथार्थता का निर्णय कैसे किया जाय?
जिह्वा स्वादों की जो अनुभूति कराती है वह भी वस्तुस्थिति नहीं है। खाद्य पदार्थ के साथ मुख के स्राव मिलकर एक विशेष प्रकार का सम्मिश्रण बनाते हैं उसी को मस्तिष्क स्वाद के रूप में अनुभव करता है। यदि वही वास्तविकता होती तो नीम के पत्ते मनुष्य की तरह ऊंट को भी कड़ुए लगते और वह भी उन्हें न खाता। ऊंट को नीम की पत्तियों का स्वाद मनुष्य की जिह्वा अनुभूतियों से सर्वथा भिन्न प्रकार का होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि पदार्थों का वास्तविक स्वाद जीभ पकड़ नहीं पाती। भिन्न-भिन्न प्राणी अपनी जीभ बनावट के अनुसार उसका स्वाद अनुभव करते हैं। कच्चा मांस मनुष्य के लिए अरुचिकर होता है यह इसी को मांसभोजी पशु बड़ी रुचि पूर्वक खाते हैं। मलीन वस्तुओं को मनुष्य की जीभ सहज स्वीकार नहीं कर सकती पर शूकर को उसमें प्रिय स्वाद की अनुभूति होती है। मुंह में छाले हो जाने पर बुखार या अपच रहने पर अथवा ‘गुड़ मार बूटी’ खाकर रसना मूर्छित कर देने पर वस्तु के स्वाद का अनुभव नहीं होता। इस अधूरी जानकारी वाली जिह्वा इन्द्रिय को सत्य की साक्षी के रूप में कैसे प्रामाणिक माना जाय?
अपनी अपनी दुनिया
दुनिया वैसी है नहीं—जैसी कि हम उसे देखते हैं। सच तो यह है कि संसार के समस्त पदार्थ कुछ विशेष प्रकार के परमाणुओं की भागती-दौड़ती हलचल मात्र है। हमारी आंखों की संरचना और मस्तिष्क का क्रिया-कलाप जिस स्तर का होता है, उसी प्रकार की वस्तुओं की अनुभूति होती है।
हमारी आंखें जैसा कुछ देखती हैं, आवश्यक नहीं दूसरों को भी वैसा ही दीखें। दृष्टि के मन्द, तीव्र, रुग्ण, निरोग होने की दशा में दृश्य बदल जाते हैं। एक को सामने का दृश्य एक प्रकार का दीखता है तो दूसरे को दूसरी तरह का। यही बात स्वाद के सम्बन्ध में है। रोगी के मुंह का जायका खराब होने के कारण हर वस्तु कड़वी लगती है। पेट भरा होने या अपच रहने पर स्वादिष्ट वस्तु का भी स्वाद बिगड़ जाता है। बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती, हर मनुष्य के स्रावों में कुछ न कुछ रासायनिक अन्तर रहता है जिसके कारण एक ही खाद्य पदार्थ का स्वाद हर व्यक्ति को दूसरे की अपेक्षा कुछ न कुछ भिन्न प्रकार का अनुभव होता है। यों नमक, शकर आदि का स्वाद मोटे रूप से खारी या मीठा कहा जा सकता है पर यदि गम्भीर निरीक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि इस खारीपन और मिठास के इतने भेद प्रभेद हैं जितने कि मनुष्य। किसी का स्वाद किसी से पूर्णतया नहीं मिलता, कुछ न कुछ भिन्नता रहती है। यही बात आंखों के संबन्ध में है आंखों की संरचना और मस्तिष्क की बनावट में जो अन्तर पाया जाता है उसी के कारण एक मनुष्य दूसरे की तुलना में कुछ न कुछ भिन्नता के साथ ही वस्तुओं तथा घटनाओं को देखता है।
मनुष्यों और पक्षियों की आंखों की सूक्ष्म बनावट को देखता है। मस्तिष्कीय संरचना में काफी अन्दर है इसलिए वे वस्तुओं को उसी तरह नहीं देखते जैसे कि हम देखते हैं। उन्हें हमारी अपेक्षा भिन्न तरह के रंग दिखाई पड़ते हैं।
रूस की पशु प्रयोगशाला ने बताया है कि बैल को लाल रंग नहीं दीखता, उनके लिए सफेद और लाल रंग एक ही स्तर के होते हैं। इसी तरह मधु-मक्खियों को भी लाल और सफेद रंग का अन्तर विदित नहीं होता। जुगनू सरीखे कीट पतंग एक अतिरिक्त रंग ‘अल्ट्रावायलेट’ भी देखते हैं जो मनुष्यों की आंखें देख सकने में असमर्थ हैं। पक्षियों को लाल, नीला, पीला, और हरा यह चार रंग ही दीखते हैं। हमारी तरह वे न तो सात रंग देखते हैं और न उनके भेद उपभेदों से ही परिचित होते हैं।
ठीक इसी प्रकार हरी घास की हरीतिमा सबको एक ही स्तर की दिखाई नहीं पड़ेगी। किन्तु हमारी भाषा का अभी इतना विस्तार नहीं हुआ कि इस माध्यम से हर व्यक्ति को जैसा सूक्ष्म अन्तर उस हरे रंग के बीच दिखाई पड़ता है उसका विवरण बताया जा सके। यदि अन्तर प्रत्यन्तर की गहराई में जाया जाय तो स्वाद और रंग के अन्तर बढ़ते ही चले जायेंगे और अन्ततः यह मानना पड़ेगा कि जिस तरह हर मनुष्य की आवाज, शकल और प्रकृति में अन्तर होता है उसी प्रकार रंगों की अनुभूति में भी अन्तर रहता है। स्वाद के सम्बन्ध में भी यही बात है। गन्ध में भी यही अन्तर रहेगा। सुनने और छूने में भी हर व्यक्ति को दूसरे से भिन्न प्रकार का अनुभव होता है। यह भिन्नता बहुत ही सूक्ष्म स्तर की होती है, पर होती अवश्य है।
सच तो यह है कि स्वाद की तरह रंगों की अनुभूति में भी हर मनुष्य का अनुभव एक दूसरे से पूरी तरह नहीं मिलता और उसमें अन्तर होता है। यह अन्तर इतना सूक्ष्म होता है कि उसका वर्णन हमारी शब्दावली ठीक तरह से नहीं कर सकती। एक वस्तु की मिठास एक व्यक्ति को जैसी अनुभव होती है, दूसरे को उसकी अनुभूति जैसी होगी, उसमें अन्तर रहेगा और अन्तर इतना हलका है कि सभी लोग गन्ने को ‘मीठा’ कह सकते हैं पर इस मिठास को किसने किस तरह के स्तर का अनुभव किया इस की कोई सूक्ष्म परीक्षा व्यवस्था हो तो सहज ही यह कहा जा सकता है कि एक ने दूसरे से काफी अन्तर वाली मिठास चखी हैं। इसका कारण मुख में रहने वाली रासायनिक द्रवों की संरचना एवं मात्रा में अन्तर होना होता है।
हमारी आंखें जिस वस्तु का जो रंग देखती हैं क्या वस्तुतः वह उसी रंग की है? हमारी आंखों को जिस वस्तु का जो रंग दीखता है क्या अन्य जीवों को भी वैसा ही दीखता है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर बेखटके नहीं दिया जा सकता है।
तथ्य यह है कि वस्तुतः किसी पदार्थ का कोई रंग नहीं है। अणुओं की विशेष प्रकार की संरचना ही सघन होकर विभिन्न प्रकार की वस्तुओं जैसी बनती है। अणुओं का कोई रंग नहीं। फिर रंगीनी क्या है?
वस्तुएं सूर्य की केवल सफेद किरणों को आत्मसात करती हैं और उन किरणों के किसी एक रंग को प्रतिबिम्बित करती हैं। पौधे की पत्तियां रहे रंग की इसलिए दीखती हैं कि वे सूर्य किरणों का हरा रंग पचा नहीं पातीं और उसकी उलटी कर देती हैं। पत्तियों द्वारा किरणों का हरा रंग वापिस फेंक देना यही है उनका हरा रंग दिखाई पड़ना।
तत्व ज्ञानियों का यह कथन एक दृष्टि से सर्वथा सत्य है कि—‘‘हर मनुष्य की अपनी दुनिया है। वह उसकी अपनी बनाई हुई है और उसी में रमण करता है। दुनिया वस्तुतः कैसी है? इस प्रश्न का एक ही उत्तर हो सकता है कि वह जड़ परमाणुओं की नीरस और निर्मम हलचल मात्र है। यहां अणुओं की धूल बिखरी पड़ी है और वह किन्हीं प्रवाहों में बहती हुई इधर-उधर भगदड़ करती रहती है। इसके अतिरिक्त यहां ऐसा कुछ नहीं है जिसे स्वादिष्ट अस्वादिष्ट या रूपवान कुरूप कहा जा सके। हमें नीम की पत्ती कड़वी लगती हैं पर ऊंट उन्हें रुचि पूर्वक खाता है संभव है उसे वे पत्तियां बिस्कुट या मिठाई की तरह मधुर लगती हों। वस्तुतः कोई वस्तु न मधुर है न कड़वी हमारी अपनी संरचना ही अमुक वस्तुओं के साथ तालमेल बिठाने पर जैसी कुछ उलटी-पुलटी प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है उसी आधार पर हम उसका रंग स्वाद आदि निर्धारण करते हैं। यही बात प्रिय अथवा अप्रिय के सम्बन्ध में लागू होती है। अपने और बिराने के सम्बन्ध में भी अपनी ही दृष्टि और अपनी ही मान्यता काम करती है। वस्तुतः न कोई अपना है न बिराना। इस दुनिया के आंगन में अगणित बालक खेलते हैं। इनमें से कभी कोई किसी के साथ हो लेता है, कभी प्रतिपक्षी का खेल खेलता है। इन क्षणिक संयोगों और संवेगों को बालबुद्धि जब बहुत अधिक महत्व देने लगती है तो प्रतीत होता है कि कुछ बहुत बड़ी अनुकूलता-प्रतिकूलता उत्पन्न हो गई है। हर्ष शोक के आवेशों में घटना क्रम उतना उत्तरदायी नहीं होता जितना कि अपना मनःस्तर स्वयं सोचने का दृष्टिकोण। सन्त और चोर के—ज्ञानी और अज्ञानी के—दृष्टिकोण में एक ही स्थिति के सम्बन्ध में जो जमीन आसमान जैसा अन्तर रहता है उसका कारण प्रथक-प्रथक मनःस्थिति ही है। घना क्रम का उतना श्रेय या दोष नहीं।
संसार के स्वरूप निर्धारण में—उन्हें जानने समझने में पांच ज्ञानेन्द्रियों की भांति ही यह मनः संस्थान के चार चेतना केन्द्र भी काम करते हैं। अतएव उन्हें भी अनुभूति उपकरणों में ही गिना गया है। हमारा समस्त ज्ञान इन्हीं उपकरणों के आधार पर टिका हुआ है।
मनुष्यों की भिन्न मनःस्थिति के कारण एक ही तथ्य के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी मान्यतायें एवं रुचियां होती हैं। यदि यथार्थता एक ही होती तो सबको एक ही तरह के अनुभव होते। एक व्यक्ति अपराधों में संलग्न होता है दूसरा परमार्थ परोपकार में। एक को भोग प्रिय है दूसरे को त्याग। एक को प्रदर्शन में रुचि है दूसरे को सादगी में। एक विलास के साधन जुटा रहा है दूसरा त्याग पथ पर बढ़ रहा है। इन भिन्नताओं से यही सिद्ध होता है कि वास्तविक सुख-दुख, हानि-लाभ कहां है किसमें है इसका निर्णय किसी सार्वभौम कसौटी पर नहीं मनःसंस्थान की स्थिति के आधार पर दृष्टिकोण के अनुरूप ही किया जाता है। यह सार्वभौम सत्य यदि प्राप्त हो गया होता तो संसार में मत-भेदों की कोई गुंजाइश न रहती। मनःसंस्थान जो अनुभव कराता है उसमें भी इन्द्रिय ज्ञान से कम नहीं वरन् अधिक ही भ्रांति भरी पड़ी है।
सुख और दुख की अनुभूति सापेक्ष है। दूसरे की तुलना करके ही स्थिति के भले-बुरे का अनुभव किया जाता है। कोई मध्य स्थिति का व्यक्ति अमीर की तुलना में गरीब है। किन्तु महादरिद्र की तुलना में वह भी अमीर है। ज्वर पीड़ित व्यक्ति स्वस्थ मनुष्य की तुलना में दुखी है पर केन्सर ग्रस्त की तुलना में सुखी। शरीर पीड़ा की कुछ अनुभूतियों को छोड़कर शेष 90 प्रतिशत दुख और सुख सापेक्ष होते हैं। उसी स्थिति में एक व्यक्ति अपने को सुखी अनुभव कर सकता है। और दूसरा दुखी। इन विभिन्न निष्कर्षों के आधार पर सत्य को पहचानना कठिन है।
संसार पदार्थों से बना है। पदार्थ अणुओं से बने हैं। अणु परमाणुओं से—परमाणु इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि विखण्डों से—और वे विखण्ड तरंगों के घनीभूत रूप हैं। विज्ञान बताता है कि यह जगत तरंगों का परिणाम है, तरंग मय है, तरंग ही है। शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की तन्मात्रायें और विचार विवेचना, अभिव्यक्ति, अनुभूति अभिव्यंजना आदि के पीछे केवल तरंगें काम करती हैं। यहां तरंगों के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं है।
प्रकृति में परम सत्ता का निरन्तर संयोग मिलन, संस्फुरण, आदान-प्रदान, आकर्षण-विकर्षण ही तरंगें बनकर गतिशील रहता है और वह गति ही पदार्थ बनकर सामने आती रहती है। जो दीखता है उसके मूल में केवल तरंग स्फुरणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जो प्रिय अप्रिय है उसमें आत्मानुभूति की मात्रा की घट-बढ़ की उथल-पुथल के अतिरिक्त और कहीं कुछ भी नहीं है। जड़ चेतन के समस्त परमाणु एक क्रमबद्ध प्रक्रिया के अनुरूप एक दिशा में चलते जा रहे हैं। उस प्रवाह का कोई चाहे तो समुद्र तट पर बैठकर उसकी हिलोरों का आनन्द ले सकता है। भ्रमग्रस्त हर नई लहर के आने का लाभ और जाने की हानि समझता हुआ हंसने रोने का प्रलाप कर सकता है। नियति का क्रम अपने ढंग से चलेगा, किसी के सोचने का तरीका क्या है, इसकी उसे परवा नहीं। हाथी अपनी राह चलेगा ही कुत्ते उसका स्वागत करें या रोष दिखायें यह उनकी मर्जी। प्रकृति की स्वसंचालित व्याख्या हाथी की तरह ही चलेगी यहां हर वस्तु का रूप बदलेगा। आज का सृजन, संयोग कल विनाश एवं वियोग का रूप धारण करेगा। अपरिवर्तनवादी आकांक्षा अधूरी ही रहेगी। यहां स्थिरता के लिये कोई स्थान नहीं। जो संग्रह एवं स्थायित्व के अभिलाषी हैं उन्हें निराशा भरे पश्चात्ताप के अतिरिक्त और क्या हाथ लगेगा?
दुखों का कारण
वस्तु स्थिति को न जानने के कारण ही विविध भांति के दुःख संताप उत्पन्न। महर्षि वशिष्ठ ने भगवान राम को दुखों का कारण अज्ञान बताते हुये उससे मुक्त होने का उपाय ज्ञान साधना ही बताया है।
योगवाशिष्ठ का वचन है— ‘‘आयधो व्याधयश्चैव द्वय दुःखस्य कारणम् । तत्क्षयो मोक्ष उच्यते ।।’’
अर्थात्—आधि, व्याधि—अर्थात् मानसिक और शारीरिक यह दो ही प्रकार के दुःख इस संसार में हैं। इनकी निवृत्ति विद्या अर्थात् ज्ञान द्वारा ही होती है। इस दुःख निवृत्ति का नाम ही मोक्ष है।’’
इस प्रकार इस न्याय से विदित होता है कि यदि मनुष्य जीवन से दुःखों का तिरोधान हो जाय तो वह मोक्ष की स्थिति में अवस्थित हो जाये। दुःखों का अत्यन्त अभाव ही आनन्द भी है। अर्थात् मोक्ष और आनन्द एक दूसरे के पर्याय हैं। इस प्रकार यदि जीवन के दुःखों को नष्ट किया जा सके तो आनन्द वाची मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। बहुत बार देखा जाता है कि लोग जीवन में अनेक बार आनन्द प्राप्त करते हैं। वे हंसते, बोलते खाते, खेलते, मनोरंजन करते, नृत्य-संगीत और काव्य-कलाओं का, आनन्द लेते, उत्सव-समारोह और पर्व मनाते, प्रेम पाते और प्रदान करते, गोष्ठी और सत्संगों में मोद-विनोद करते और न जाने इसी प्रकार से आमोद-प्रमोद पाते और प्रसन्न बना करते हैं—तो क्या उनकी इस स्थिति को मोक्ष कहा जा सकता है?
नहीं, मनुष्य की इस स्थिति को मोक्ष नहीं कहा जा सकता। मोक्ष का आनन्द स्थायी, स्थिर, अक्षय, समान अहैतुकं और निःशेष हुआ करता है। वह न कहीं से आता और न कहीं जाता है। न किसी कारण से उत्पन्न होता है और न किसी कारण से नष्ट होता है। वह आत्म-भूत और अहैतुकं होता है। वह सम्पूर्ण रूप में मिलता है सम्पूर्ण रूप में अनुभूत होता है सम्पूर्ण रूप में सदा-सर्वदा ही बना रहता है। वह सार्वदेशिक सर्वव्यापक, और सर्वस्व सहित ही होता है। मोक्ष का आनन्द पाने पर न तो कोई अंश शेष रह जाता है और न उसके आगे किसी प्रकार के आनन्द की इच्छा शेष रह जाती है। वह प्रकाम, पूर्ण और परमावधिक ही होता है।
पूर्वोक्त लौकिक आनन्दों में यह विशेषताएं नहीं होतीं। उनकी प्राप्ति के लिये कारण और साधन की आवश्यकता होती है। वह किसी हेतु से उत्पन्न होता है और हेतु के मिट जाने पर नष्ट हो जाता है। इतना ही क्यों—यदि एक बार उसका आधार बना भी रहे तो भी उस आनन्द में जीर्णता, क्षीणता, प्राचीनता और अरुचिता आ जाती है। लौकिक आनन्दों की परि-समाप्ति दुःख में ही होती है। आज जो किसी कारण से प्रसन्न है, आनन्दित है वह कल किसी कारण से दुःखी होने लगता है। लौकिक आनन्द की कितनी ही मात्रा क्यों न मिलती जाय, तथापि और अधिक पाने की प्यास बनी रहती है। उससे न तृप्ति मिलती है और न सन्तोष। जिस अनुभूति में अतृप्ति, असन्तोष और तृष्णा बनी रहे वह आनन्द कैसा? लौकिक आनन्द के कितने ही सघन वातावरण में क्यों न बैठे हों एक छोटा-सा अप्रिय समाचार या छोटी-सी दुःखद बात उसे समूल नष्ट कर देती है। तब न किसी के मुख पर हंसी रह जाती है और न हृदय में पुलक! लौकिक आनन्द और मोक्षानन्द की परस्पर तुलना ही नहीं की जा सकती। लौकिक आनन्दों में इस असफलता का कारण यह होता है कि वे असत्य एवं भ्रामक होते हैं। उनकी अनुभूति, प्रवंचना अथवा मृगतृष्णा के समान ही होती है। इस असत्यता का दोष ही लौकिक आनन्द को निकृष्ट एवं अग्राह्य बना देते हैं। आनन्द केवल आत्मिक आनन्द ही होता है। मोक्ष का आनन्द ही वास्तविक तथा अन्वेषणीय आनन्द है। लौकिक आनन्दों की अग्राह्यता का प्रतिपादन इसीलिये किया गया है कि जो व्यक्ति उसके झूंठे प्रवचनों में फंस जाता है, उन्हें पकड़ने, पाने के लिये दौड़ता रहता है, उनको स्थिर और स्थायी बनाने में लगता है, वह अपना सारा जीवन इसी मायाजाल में उलझकर खो देता है। भ्रम में पड़े रहने के कारण उसे वास्तविकता का ध्यान ही नहीं आता। लौकिक आनन्दों के फेर में पड़कर जिसे वास्तविक आनन्द का ध्यान ही न आयेगा वह उसको पाने के लिये प्रयत्नशील भी क्यों होगा। जिस हिरण को मरुमरीचिक जल भ्रम में भुला लेती है तन-मन से उसी को पकड़ने के पीछे पड़ा रहता है। अब पाया, अब पाया करता हुआ वह निःसार दुराशा का यन्त्र बना भटकता रहता है और इस प्रकार वास्तविक जल की खोज से वंचित हो जाता है। परिणाम यह होता है कि भटक-भटक कर प्यासा ही मर जाता है। जिस जीवन में वह पानी और परितृप्ति दोनों को पाकर कृतार्थ हो सकता था वह जीवन यों ही चला जाता है, नष्ट हो जाता है। यही हाल लौकिक आनन्दवादियों का होता है। जिस जीवन में वे मोक्ष और उसका वास्तविक सुख प्राप्त कर सकते हैं वे उसे माया-छाया और भ्रामक सुख की मरीचिका में नष्ट कर अपनी अनन्त हानि कर लेते हैं। इसीलिये लौकिक सुखों को प्रबलता के साथ अग्राह्य एवं गर्हित बताया गया है। वास्तविक आनन्द लौकिक लिप्साओं और सांसारिक भोग-विलासों में नहीं है वह मोक्ष और मोक्ष की स्थिति में है। उसी को पाने का प्रयत्न करना चाहिये, वही मानव जीवन का लक्ष्य है, उसी में शांति और तृप्ति मिलेगी।
इस प्रकार स्पष्ट है कि दुःख तो दुःख ही है सांसारिक सुख भी दुःख का एक स्वरूप है। इनकी निवृत्ति से ही सच्चे सुख की प्राप्ति सम्भव है। किन्तु इनकी निवृत्ति का उपाय क्या है? इसके लिये पुनः योगवाशिष्ठ में कहा गया है—
‘‘ज्ञानान्निर्दुःखतामेति ज्ञानादज्ञान संक्षयः । ज्ञानादेव परासिद्धि नन्दियस्याद्राम वस्तुतः ।।’’
—हे राम! ज्ञान से ही दुःख दूर होते हैं, ज्ञान से अज्ञान का निवारण होता है, ज्ञान से ही परम सिद्धि होती है और किसी उपाय से नहीं।
और भी आगे बताया गया है— ‘‘प्रज्ञा विज्ञात विज्ञेय सम्यग् दर्शन माधयः । न दहन्ति वनं वर्षा सिक्तमग्निशिखा इव ।’’
—जिसने जानने योग्य को जान लिया है और विवेक दृष्टि प्राप्त कर ली है, उस ज्ञानी को दुःख उसी प्रकार त्रासक नहीं होते जिस प्रकार वर्षा से भीगे जंगल को अग्नि शिखा नहीं जा पाती।
तत्वज्ञान क्या है
अब यहां पर ज्ञान का स्वरूप जानने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि आखिर दुःख की उत्पत्ति होती किन कारणों से? वैसे तो जीवात्मा अपने मूल रूप में आनन्दमय है। तब अवश्य ही कोई कारण ऐसा होना चाहिये जो उसके लिये दुःख की सृष्टि करता है। उसको भी योगवाशिष्ठ में इस प्रकार बताया गया है—
‘‘देह दुःख विदुर्व्याधि माध्याख्यं मानसामयम् । मौर्ख्य मूले हते विद्या तत्वज्ञाने परीक्षयः ।।’’
—शारीरिक दुःखों को व्याधि और मानसिक दुःखों को आधि कहते हैं। यह दोनों मुख्य अर्थात् अज्ञान से ही उत्पन्न होती हैं और ज्ञान से नष्ट होती हैं।
संसार के सारे दुःखों का एकमात्र हेतु अविद्या अथवा अज्ञान ही है। जिस प्रकार प्रकाश का अभाव अन्धकार है और अन्धकार का अभाव प्रकाश होता है, उसी प्रकार ज्ञान का अभाव अज्ञान और अज्ञान का ज्ञान होना स्वाभाविक ही है और जिस प्रकार ज्ञान का परिणाम सुख-शान्ति और आनन्द है उसी प्रकार अज्ञान का फल दुःख, अशान्ति और शोक-सन्ताप होना ही चाहिये।
यह युग-युग का अनुभूत तथा अन्वेषित सत्य है कि दुःखों की उत्पत्ति अज्ञान से ही होती है और संसार के सारे विद्वान, चिन्तक एवं मनीषी जन इस बात पर एकमत पाये जाते हैं। इस प्रकार सार्वभौमिक और सार्वजनिक रूप से प्रतिपादित तथ्य में संदेह की गुंजाइश रह ही नहीं जाती—इस प्रकार अपना-अपना मत देते हुये विद्वानों ने कहा है—चाणक्य ने लिखा—‘‘अज्ञान के समान मनुष्य का और कोई दूसरा शत्रु नहीं है।’’ विश्वविख्यात दार्शनिक प्लेटो ने कहा है—‘अज्ञानी रहने से जन्म न लेना ही अच्छा है, क्यों कि अज्ञान ही समस्त विपत्तियों का मूल है।’’ शेक्सपियर ने लिखा है—‘‘अज्ञान ही अन्धकार है।’’
जीवन की समस्त विकृतियों, अनुभव होने वाले दुःखों, उलझनों और अशान्ति आदि का मूल कारण मनुष्य का अपना अज्ञान ही होता है। यही मनुष्य का परम शत्रु है। अज्ञान के कारण ही मनुष्य भी अन्य जीव-जन्तुओं की तरह अनेक दृष्टियों से हीन अवस्था में ही पड़ा रहता है। ज्ञान के अभाव में जिनका विवेक मन्द ही बना रहता है उनके जीवन के अन्धकार में भटकते हुये तरह-तरह के त्रास आते रहते हैं। अज्ञान के कारण ही मनुष्य को वास्तविक कर्तव्यों की जानकारी नहीं हो पाती इसलिये वह गलत मार्गों पर भटक जाता है और अनुचित कर्म करता हुआ दुःख का भागी बनता है। इसलिये दुःखों से निवृत्ति पाने के लिये यदि उनका कारण अज्ञान को मिटा दिया जाये तो निश्चय ही मनुष्य सुख का वास्तविक अधिकारी बन सकता है।
अज्ञान का निवारण ज्ञान द्वारा ही हो सकता है। शती उसकी विपरीत वस्तु आग द्वारा ही दूर होता है। अन्धकार की परिसमाप्ति प्रकाश द्वारा ही सम्भव है। इसलिये ज्ञान प्राप्त का जो भी उपाय सम्भव हो उसे करते ही रहना चाहिये।
ज्ञान का सच्चा स्वरूप क्या है? केवल कतिपय जानकारियां ही ज्ञान नहीं माना जा सकता। सच्चा ज्ञान वह है जिसको पाकर मनुष्य आत्मा परमात्मा का साक्षात्कार कर सके। अपने साथ अपने इस संसार को पहचान सके। उसे सत् और असत् कर्मों की ठीक-ठीक जानकारी रहे और वह जिसकी प्रेरणा से असत् मार्ग को त्याग कर सन्मार्ग पर असंदिग्ध रूप से चल सके। कुछ शिक्षा और दो-चार शिल्पों को ही सीख लेना भर अथवा किन्हीं उलझनों को सुलझा लेने भर की बुद्धि ही ज्ञान नहीं है। ज्ञान वह है जिससे जीवन-मरण, बन्धन-मुक्ति, कर्म-अकर्म और सत्य-असत्य का न केवल निर्णय ही किया जा सके बल्कि गृहणीय को पकड़ा और अग्राह्य को छोड़ा जा सके, वह ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान ही है।
अज्ञान की स्थिति में कर्मों का क्रम बिगड़ जाता है। संसार में जितने भी सुख-दुःख आदि द्वन्द्व हैं वे सब कर्मों का फल होता है। अज्ञान द्वारा अपकर्म होना स्वाभाविक ही है और तब उनका दण्ड मनुष्य को भोगना ही पड़ता है। इतना ही क्यों सकाम भाव से किये सत्कर्म सुख के फल रूप में परिपक्व होते हैं और असत्य होने से कुछ ही समय में दुःख रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। इसलिये कर्म ही अधिकतर बन्धनों अथवा दुःख को मनुष्य पर आरोपित कराते हैं।
मनुष्य का नैतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्तर उसकी सुसंस्कृत ज्ञान चेतना के साथ जुड़ा हुआ है। भौतिक शक्तियों के उपार्जन और उपभोग को भी मानसिक विकास से पृथक नहीं रखा जा सकता। आदिकाल में मनुष्य शारीरिक दृष्ट से अब की अपेक्षा अधिक बलिष्ठ रहा होगा, पर उसकी चेतना पशु स्तर से कुछ ही ऊंची होने के कारण सुविकसित लोगों की तुलना में गया गुजरा ही सिद्ध होता रहा है। अतीत के पिछड़ेपन पर जब एक दृष्टि डालते है तो प्रतीत होता है कि चिन्तन क्षेत्र में अज्ञान की स्थिति कितनी कष्टकर और कितनी लज्जास्पद परिस्थितियों में मनुष्य को डाले रही है।
अमेरिकन म्यूजियम आफ नेचुरल हिस्ट्री के पक्षी विभाग ऐसोसियेट क्यूरेटर द्वारा प्रकाशित विवरणों से पता चलता है कि न्यूगिनी के आदिम और आदिवासी किस तरह अपने क्षेत्र में जा भटकने वाले लोगों को भून-भूनकर खा जाते थे। उस क्षेत्र में पक्षियों की खोज में एक खोजी दल जा पहुंचा। पापुआन क्षेत्र के मियाओं कबीले के बड़े निर्दय क्रूर कर्मों के लिये प्रसिद्ध हैं। इस क्षेत्र में किसी विशेष सुरक्षा व्यवस्था के बिना किसी को जाने देने की इजाजत नहीं है, पर वह खोजी दल किसी प्रकार उस क्षेत्र में जा ही पहुंचा और उसके सभी सदस्यों का रोमांचकारी वध हो गया।
पादरी आइवोस्केफर उस क्षेत्र में 45 वर्ष से इन नर भक्षियों के बीच प्रभु ईसा का सन्देश सुनाने के लिये रहते थे। उन्होंने इन नर भक्षियों को अपने प्रेम एवं सेवा कार्य से प्रभावित कर रखा था। शिक्षा चिकित्सा आदि उपायों से उन्होंने इस क्षेत्र के निवासियों का मन जीत लिया था। उन्हें वे पवित्र आत्मा समझते थे और किसी प्रकार की हानि पहुंचाने के स्थान पर सम्मान प्रदान करते थे।
आरम्भ में उस निष्ठावान, धर्मात्मा किन्तु क्रिया कुशल पादरी ने बड़ी बुद्धिमत्ता के साथ इन लोगों के बीच अपना स्थान बनाया था स्केफर ने अपनी पुस्तिका में लिखा है कि—पहली बार जब वे इस इलाके में अपने एक साथी के साथ गये तो उन्हें नर भक्षियों के द्वारा घेर लिया गया। उन्हें देखने वालों ने शोर मचाकर 40-50 योद्धाओं को बुला लिया—वे भाले ले लेकर आ गये और हम लोगों को चारों ओर से घेरे में लेकर हर्ष नृत्य करने लगे। उन्हें दो मनुष्य का—उसमें भी गोरों का ताजा मांस खाने को मिलेगा। इस कार्य का श्रेय वे लेंगे इस खुशी में उन्मत्तों जैसी उछल कूद कर रहे थे। घेरे में आये शिकार अब भाग तो सकते नहीं थे।
इस सम्बन्ध में वे निश्चित होकर देवता के बलिदान के उद्देश्य से गीत गा रहे थे और हर्ष मना रहे थे।
पादरी ने एक युक्ति से काम लिया। उसने थैले में से एक दर्पण निकाला और उसे आदिवासियों के सरदार के सामने कर दिया उसने जैसे ही अपनी आकृति देखी वह डर गया। दर्पण उन लोगों के लिये सर्वथा नई वस्तु थी। एक-एक करके पादरी ने दर्पण सभी को दिखाया। वे सभी बहुत डरे और समझने लगे कि यह आदमी कोई जादूगर है इसे मारने से कोई विपत्ति आ सकती है। अस्तु वे अपने-अपने भाले फेंक कर उसके इर्द-गिर्द आशीर्वाद पाने के लिये सिर झुकाकर बैठ गये। पादरी ने एक और दूसरा चमत्कार प्रकट किया। उसके पोपले मुंह में दोनों जबड़े नकली दांतों के लगे थे। उन बैठे हुए दर्शकों को सम्बोधित कर अब उसने एक नया जादू दिखाया। मुंह में से दांतों की बत्तीसी निकाली, दांत उन्हें दिखाये, पोपला मुंह दिखाया और फिर दांतों को मुंह में ठूंस कर पहले जैसा मुंह बना लिया। आदिवासी इस चमत्कार को देखकर दंग रह गये और उन्होंने पूरा भरोसा कर लिया कि यह कोई जादुई पुरुष है इतनी मान्यता बना देने से पादरी का काम बहुत सरल हो गया और निश्चिंतता पूर्वक अपना काम उस क्षेत्र में करने लगे। काम चलाऊ टूटी-फूटी आदिवासी भाषा तो उन्होंने पहले ही सीख ली थी।
पादरी ने लिखा है कि न्यूगिनी के यह आदिवासी योद्धा, निर्दयी, क्रूर, कष्ट सहिष्णु और भारी अनुदार होते हैं। एक कबीले का अधिकार जिस क्षेत्र पर है, उसमें घुसकर यदि किसी दूसरे कबीले का कोई सदस्य भूल से या जान बूझकर कोई पेड़ काट ले तो इतने से ही वे लोग आग बबूला हो जाते और रात को छिप कर उस पर हमला बोल देते। एक बार के हमले का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा है कि कांगना मन कबीले के लोगों ने अपने पड़ौसी करारन कबीले की झोपड़ियों पर चढ़ाई करके सोते हुए लोगों को पकड़ लिया और उनमें तीस के सिर काट कर ले आये। इस विजयोपहार में से एक सिर भेंट करने के लिए वे पादरी के पास भी आये थे।
कबीले का मुखिया तथा योद्धा बनने के लिये वे लोग पूरी तैयारी करते हैं। प्रायः 16 वर्ष की आयु में उसे इसकी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिये एक जीवित मनुष्य का सिर काटना पड़ता है। अक्सर इस कार्य के लिये अपने ही कबीले की या किसी अन्य कबीले से खरीदी हुई औरत प्रयुक्त की जाती है। थोड़े पालतू पशु, चमड़ा, पक्षियों के पंख आदि देकर औरतें आसानी से खरीदी भी जा सकती हैं। वध उत्सव पर उस अभागी महिला को देव ग्रह में लाया जाता है, जहां वह नव योद्धा भाले छेद-छेद कर उस स्त्री का काम तमाम कर देता है और फिर उसका सिर काटकर सरदार को भेंट करता है। इतना कर लेने पर उसकी गणना कबीले के योद्धा के रूप में होने लगती है। इन्हीं में से पीछे कोई मुखिया भी चुन लिया जाता है।
एक बार तो पादरी के यहां ठहरे हुए गोरों को घेर लिया और प्रस्ताव किया कि दल की एक गोरी महिला उन्हें वध करने के लिये दे दी जाय इसके बदले बीस आदिवासी युवतियां उन्हें दें देंगे। इस धर्म संकट को भी बड़ी चतुरता पूर्वक ही टाला जा सका।
अतीत में अज्ञान ही पिछड़ी हुई परिस्थितियों में मनुष्य में रहा है। आज जिस स्थिति पर हम थोड़ा गर्व सन्तोष कर सकते हैं, वह ज्ञान साधन का ही प्रतिफल है। भविष्य में यदि अधिक सुख शांति की, आनन्द उल्लास की परिस्थितियां अभीष्ट हों तो उसके लिये सद्ज्ञान सम्पदा की दिशा में हमारे प्रयास अधिकाधिक तीव्र होने चाहिये। जिन दिनों भारत का स्वर्णिम काल था उन दिनों यहां की ज्ञान सम्पदा ही मूर्धन्य स्तर पर पहुंची हुई थी। संसार को स्वर्ग और मनुष्य को देवोपम बनाने के लिये, वर्तमान दुर्गति के दल-दल से निकलने के लिये ज्ञान साधना में अनवरत रूप से संलग्न रहने की आवश्यकता है। भूत और वर्तमान की तुलना करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान के बिना उज्ज्वल भविष्य का और कोई मार्ग नहीं।
इस ज्ञान साधना के सम्बन्ध में उपनिषद्कार ने कहा है—
परा ञ्चि खानि व्यतृणत स्वयम्भू स्तस्मात्पराङ्ग पश्यति नान्तरात्मन् । कश्चिद्धीरः प्रत्यङ्गात्मानमैक्ष्व— दावृतचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ।। —केन 2।1।1
अर्थात्, ‘‘स्वयंभू परमात्मा ने समस्त इन्द्रियों के द्वार बाहर की ओर निर्मित किये हैं इसलिए बाह्य वस्तुएं ही देखी जाती हैं, अन्तरात्मा नहीं देखी जाती। किसी मेधावी ने ही अमृतत्व की कामना कर चक्षु आदि को भीतर की ओर प्रेरित कर अन्तरात्मा के दर्शन (अनुभव) किये हैं।’’
हम बाह्य जीवन के बारे में, सुविस्तृत संसार के बारे में बहुत कुछ जानते हैं, पर आश्चर्य की बात यह है कि अपने सम्बन्ध में अपनी सत्ता और महत्ता के सम्बन्ध में बहुत ही कम जानते हैं। बहिर्मुखी जीवन व्यस्त रहता है और यथार्थता के समझने की न तो आवश्यकता समझता है और न अवसर पाता है। यदि अपने स्वरूप, लक्ष्य और कर्तव्य का ठीक तरह भान हो जाय और संसार के साथ अपने सम्बन्धों को ठीक तरह जान सुधार लिया जाय तो यह साधारण दीखने वाला मानवी अस्तित्व महानता से सहज ही ओत-प्रोत हो सकता है।
जीवन यापन करने के लिए हमें नौ उपकरण प्राप्त हैं। (1) नेत्र (2) जिह्वा (3) नासिका (4) कान (5) त्वचा (6) मन (7) बुद्धि (8) चित्त (9) अहंकार, इन्हीं के माध्यम से हमें विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है। इस ज्ञान को ही यथार्थ मानते हैं। पर थोड़ी गहराई के साथ देखा जाय तो प्रतीत होगा कि यह सभी उपकरण एक सीमित और सापेक्ष जानकारी देते हैं, इनके माध्यम से मिली जानकारी न तो यथार्थ होती है और न पूर्ण। इसलिए उन अपूर्ण साधनों से मिली जानकारी को सही मान बैठना ‘भूल’ ही कही जायगी। वेदान्त की भाषा में इस अपूर्ण जानकारी को ‘स्वप्न’ मिथ्या कहकर उसका वस्तुस्थिति पर प्रकाश डाला गया है।
संसार में अनेक कारणों से अनेक शब्द कम्पन उत्पन्न होते रहते हैं, इन ध्वनि तरंगों की गति भिन्न-भिन्न होती है। मनुष्य के कान केवल उतने ही ध्वनि कम्पन पकड़ सुन सकते हैं जिनकी गति 33 प्रति सेकिंड से लेकर 40 प्रति सेकिंड के बीच में होती है। इससे कम या ज्यादा गति वाले कम्पन अपने कानों की पकड़ में नहीं आते। इस परिधि के बाहर विचरण करने वाला प्रवाह इतना अधिक है जिसकी तुलना में सुनाई देने वाले शब्दों को लाख करोड़वां हिस्सा कह सकते हैं। इतनी स्वल्प ध्वनि को सुन सकने वाले कानों को शब्द सागर की कुछ बूंदों का ही अनुभव होता है। शेष के बारे में वे सर्वथा अनजान ही बने रहते हैं। इस अपूर्ण उपकरण के माध्यम से ध्वनि के माध्यम से विचरण करने वाले ज्ञान को सर्वथा स्वल्प ही कहा जा सकता है और उतने से साधन से मिलने वाली जानकारी के आधार पर वस्तु स्थिति समझने का दावा नहीं कर सकते।
त्वचा के माध्यम से मिलने वाली जानकारी भी कानों की तरह ही अपूर्ण होती है साथ ही भ्रान्त भी। हाथ पर एक मिनट तक बर्फ रखे रहें इसके बाद उसी हाथ को साधारण जल में डुबोए। लगेगा पानी गरम है। इसके बाद हाथ पर कुछ देर कोई गरम चीज रखे रहें, इसके बाद हाथ को उसी पानी में डुबाये प्रतीत होगा पानी ठण्डा है। जल एक ही तापमान का था पर बर्फ अथवा गरम चीज रखने के बाद हाथ डुबाने पर अलग अलग तरह के अनुभव हुए। ऐसी त्वचा की गवाही पर क्या भरोसा किया जाय जो कुछ का कुछ बताती है। ठण्ड और गर्मी की न्यूनाधिकता का अन्तर भी त्वचा एक सीमा तक ही बताती है। अत्यधिक गरम या अत्यधिक ठण्डी वस्तु में तापमान या शीतमान का जो अन्तर होता है उसे त्वचा नहीं बता सकती। ऐसी सीमित शक्ति वाली त्वचा इन्द्रिय के माध्यम से हम समग्र सत्य को समझ सकने में कैसे समर्थ हो सकते हैं? अपनी आंखें सघन रात्रि में घोर अन्धकार का अनुभव करती हैं, कुछ भी देख नहीं सकतीं। पर उसी स्थिति में उल्लू, चमगादड़, बिल्ली, चीता आदि प्राणी भली प्रकार से देखते हैं। विज्ञान कहता है कि जगत में प्रकाश सर्वदा और सर्वत्र विद्यमान है। अन्धकार नाम की कोई चीज इस दुनिया में नहीं है। मनुष्य की आंखें एक सीमा तक के ही प्रकाश कम्पनों को देख पाती हैं जब प्रकाश की गति मनुष्य की नेत्र शक्ति की सीमा से कम होती है तो उसे अन्धकार प्रतीत होता है।
आकाश में अनेक रंगों के भिन्न-भिन्न गति वाले प्रकाश कम्पन चलते रहते हैं। मनुष्य के नेत्र उनमें से केवल सात रंगों की स्वल्प जितनी प्रकाश तरंगों को ही अनुभव कर पाते हैं और शेष को देखने में असमर्थ रहते हैं। पीलिया रोग हो जाने पर हर वस्तु पीली दीखती है। ‘रैटिनाइटिस पिग मैन्टोजा’ रोग हो जाने पर एक सीधी रेखा धब्बे या बिन्दुओं के रूप में दिखाई देती है। आकाश को ही लीजिये वह हमें नीली चादर वाला गोलाकार पर्दे जैसा लगा दीखता है और लगता है उसमें समतल तारे टके हुए हैं। पर क्या वह ज्ञान सही है? क्या आकाश की सीमा उतनी ही है जितनी आंखों से दीखता है? क्या तारे उतने ही छोटे हैं जितने कि आंखों को प्रतीत होते हैं? क्या वे सब समतल बिछे हैं? क्या आकाश का रंग वस्तुतः नीला है? इन प्रश्नों का उत्तर खगोल शास्त्र के अनुसार नहीं हो सकता है। पर इन आंखों को क्या कहा जाय जो हमें यथार्थता से सर्वत्र भिन्न प्रकार की जानकारी देती हैं और भ्रम में डालती हैं।
यही हाल नासिका का है। हमें कितनी ही वस्तुएं गन्ध हीन लगती हैं। पर वस्तुतः उनमें गन्ध रहती है और उनके स्तर अगणित प्रकार के होते हैं। कुत्तों की नाक इस गन्ध स्तर की भिन्नता को समझती है और बिछुड़ जाने पर अपने घर तक उसे पहुंचा देती है। प्रशिक्षित कुत्ते इसी गन्ध के आधार पर चोरी हत्या आदि अपराध करने वालों को ढूंढ़ निकालते हैं। यही बात सुगन्ध दुर्गन्ध के भेद भाव से सम्बन्धित है। प्याज लहसुन आदि की गन्ध कितनों को बड़ी अरुचिकर लगती है, भोजन में थोड़ी सी भी पड़ जाने से मितली आती हैं पर कितनों को इनके बिना भोजन में जायका ही नहीं आता। यही बात सिगरेट शराब आदि की गन्ध के बारे में भी है। इन परिस्थितियों में नासिका के आधार पर यथार्थता का निर्णय कैसे किया जाय?
जिह्वा स्वादों की जो अनुभूति कराती है वह भी वस्तुस्थिति नहीं है। खाद्य पदार्थ के साथ मुख के स्राव मिलकर एक विशेष प्रकार का सम्मिश्रण बनाते हैं उसी को मस्तिष्क स्वाद के रूप में अनुभव करता है। यदि वही वास्तविकता होती तो नीम के पत्ते मनुष्य की तरह ऊंट को भी कड़ुए लगते और वह भी उन्हें न खाता। ऊंट को नीम की पत्तियों का स्वाद मनुष्य की जिह्वा अनुभूतियों से सर्वथा भिन्न प्रकार का होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि पदार्थों का वास्तविक स्वाद जीभ पकड़ नहीं पाती। भिन्न-भिन्न प्राणी अपनी जीभ बनावट के अनुसार उसका स्वाद अनुभव करते हैं। कच्चा मांस मनुष्य के लिए अरुचिकर होता है यह इसी को मांसभोजी पशु बड़ी रुचि पूर्वक खाते हैं। मलीन वस्तुओं को मनुष्य की जीभ सहज स्वीकार नहीं कर सकती पर शूकर को उसमें प्रिय स्वाद की अनुभूति होती है। मुंह में छाले हो जाने पर बुखार या अपच रहने पर अथवा ‘गुड़ मार बूटी’ खाकर रसना मूर्छित कर देने पर वस्तु के स्वाद का अनुभव नहीं होता। इस अधूरी जानकारी वाली जिह्वा इन्द्रिय को सत्य की साक्षी के रूप में कैसे प्रामाणिक माना जाय?
अपनी अपनी दुनिया
दुनिया वैसी है नहीं—जैसी कि हम उसे देखते हैं। सच तो यह है कि संसार के समस्त पदार्थ कुछ विशेष प्रकार के परमाणुओं की भागती-दौड़ती हलचल मात्र है। हमारी आंखों की संरचना और मस्तिष्क का क्रिया-कलाप जिस स्तर का होता है, उसी प्रकार की वस्तुओं की अनुभूति होती है।
हमारी आंखें जैसा कुछ देखती हैं, आवश्यक नहीं दूसरों को भी वैसा ही दीखें। दृष्टि के मन्द, तीव्र, रुग्ण, निरोग होने की दशा में दृश्य बदल जाते हैं। एक को सामने का दृश्य एक प्रकार का दीखता है तो दूसरे को दूसरी तरह का। यही बात स्वाद के सम्बन्ध में है। रोगी के मुंह का जायका खराब होने के कारण हर वस्तु कड़वी लगती है। पेट भरा होने या अपच रहने पर स्वादिष्ट वस्तु का भी स्वाद बिगड़ जाता है। बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती, हर मनुष्य के स्रावों में कुछ न कुछ रासायनिक अन्तर रहता है जिसके कारण एक ही खाद्य पदार्थ का स्वाद हर व्यक्ति को दूसरे की अपेक्षा कुछ न कुछ भिन्न प्रकार का अनुभव होता है। यों नमक, शकर आदि का स्वाद मोटे रूप से खारी या मीठा कहा जा सकता है पर यदि गम्भीर निरीक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि इस खारीपन और मिठास के इतने भेद प्रभेद हैं जितने कि मनुष्य। किसी का स्वाद किसी से पूर्णतया नहीं मिलता, कुछ न कुछ भिन्नता रहती है। यही बात आंखों के संबन्ध में है आंखों की संरचना और मस्तिष्क की बनावट में जो अन्तर पाया जाता है उसी के कारण एक मनुष्य दूसरे की तुलना में कुछ न कुछ भिन्नता के साथ ही वस्तुओं तथा घटनाओं को देखता है।
मनुष्यों और पक्षियों की आंखों की सूक्ष्म बनावट को देखता है। मस्तिष्कीय संरचना में काफी अन्दर है इसलिए वे वस्तुओं को उसी तरह नहीं देखते जैसे कि हम देखते हैं। उन्हें हमारी अपेक्षा भिन्न तरह के रंग दिखाई पड़ते हैं।
रूस की पशु प्रयोगशाला ने बताया है कि बैल को लाल रंग नहीं दीखता, उनके लिए सफेद और लाल रंग एक ही स्तर के होते हैं। इसी तरह मधु-मक्खियों को भी लाल और सफेद रंग का अन्तर विदित नहीं होता। जुगनू सरीखे कीट पतंग एक अतिरिक्त रंग ‘अल्ट्रावायलेट’ भी देखते हैं जो मनुष्यों की आंखें देख सकने में असमर्थ हैं। पक्षियों को लाल, नीला, पीला, और हरा यह चार रंग ही दीखते हैं। हमारी तरह वे न तो सात रंग देखते हैं और न उनके भेद उपभेदों से ही परिचित होते हैं।
ठीक इसी प्रकार हरी घास की हरीतिमा सबको एक ही स्तर की दिखाई नहीं पड़ेगी। किन्तु हमारी भाषा का अभी इतना विस्तार नहीं हुआ कि इस माध्यम से हर व्यक्ति को जैसा सूक्ष्म अन्तर उस हरे रंग के बीच दिखाई पड़ता है उसका विवरण बताया जा सके। यदि अन्तर प्रत्यन्तर की गहराई में जाया जाय तो स्वाद और रंग के अन्तर बढ़ते ही चले जायेंगे और अन्ततः यह मानना पड़ेगा कि जिस तरह हर मनुष्य की आवाज, शकल और प्रकृति में अन्तर होता है उसी प्रकार रंगों की अनुभूति में भी अन्तर रहता है। स्वाद के सम्बन्ध में भी यही बात है। गन्ध में भी यही अन्तर रहेगा। सुनने और छूने में भी हर व्यक्ति को दूसरे से भिन्न प्रकार का अनुभव होता है। यह भिन्नता बहुत ही सूक्ष्म स्तर की होती है, पर होती अवश्य है।
सच तो यह है कि स्वाद की तरह रंगों की अनुभूति में भी हर मनुष्य का अनुभव एक दूसरे से पूरी तरह नहीं मिलता और उसमें अन्तर होता है। यह अन्तर इतना सूक्ष्म होता है कि उसका वर्णन हमारी शब्दावली ठीक तरह से नहीं कर सकती। एक वस्तु की मिठास एक व्यक्ति को जैसी अनुभव होती है, दूसरे को उसकी अनुभूति जैसी होगी, उसमें अन्तर रहेगा और अन्तर इतना हलका है कि सभी लोग गन्ने को ‘मीठा’ कह सकते हैं पर इस मिठास को किसने किस तरह के स्तर का अनुभव किया इस की कोई सूक्ष्म परीक्षा व्यवस्था हो तो सहज ही यह कहा जा सकता है कि एक ने दूसरे से काफी अन्तर वाली मिठास चखी हैं। इसका कारण मुख में रहने वाली रासायनिक द्रवों की संरचना एवं मात्रा में अन्तर होना होता है।
हमारी आंखें जिस वस्तु का जो रंग देखती हैं क्या वस्तुतः वह उसी रंग की है? हमारी आंखों को जिस वस्तु का जो रंग दीखता है क्या अन्य जीवों को भी वैसा ही दीखता है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर बेखटके नहीं दिया जा सकता है।
तथ्य यह है कि वस्तुतः किसी पदार्थ का कोई रंग नहीं है। अणुओं की विशेष प्रकार की संरचना ही सघन होकर विभिन्न प्रकार की वस्तुओं जैसी बनती है। अणुओं का कोई रंग नहीं। फिर रंगीनी क्या है?
वस्तुएं सूर्य की केवल सफेद किरणों को आत्मसात करती हैं और उन किरणों के किसी एक रंग को प्रतिबिम्बित करती हैं। पौधे की पत्तियां रहे रंग की इसलिए दीखती हैं कि वे सूर्य किरणों का हरा रंग पचा नहीं पातीं और उसकी उलटी कर देती हैं। पत्तियों द्वारा किरणों का हरा रंग वापिस फेंक देना यही है उनका हरा रंग दिखाई पड़ना।
तत्व ज्ञानियों का यह कथन एक दृष्टि से सर्वथा सत्य है कि—‘‘हर मनुष्य की अपनी दुनिया है। वह उसकी अपनी बनाई हुई है और उसी में रमण करता है। दुनिया वस्तुतः कैसी है? इस प्रश्न का एक ही उत्तर हो सकता है कि वह जड़ परमाणुओं की नीरस और निर्मम हलचल मात्र है। यहां अणुओं की धूल बिखरी पड़ी है और वह किन्हीं प्रवाहों में बहती हुई इधर-उधर भगदड़ करती रहती है। इसके अतिरिक्त यहां ऐसा कुछ नहीं है जिसे स्वादिष्ट अस्वादिष्ट या रूपवान कुरूप कहा जा सके। हमें नीम की पत्ती कड़वी लगती हैं पर ऊंट उन्हें रुचि पूर्वक खाता है संभव है उसे वे पत्तियां बिस्कुट या मिठाई की तरह मधुर लगती हों। वस्तुतः कोई वस्तु न मधुर है न कड़वी हमारी अपनी संरचना ही अमुक वस्तुओं के साथ तालमेल बिठाने पर जैसी कुछ उलटी-पुलटी प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है उसी आधार पर हम उसका रंग स्वाद आदि निर्धारण करते हैं। यही बात प्रिय अथवा अप्रिय के सम्बन्ध में लागू होती है। अपने और बिराने के सम्बन्ध में भी अपनी ही दृष्टि और अपनी ही मान्यता काम करती है। वस्तुतः न कोई अपना है न बिराना। इस दुनिया के आंगन में अगणित बालक खेलते हैं। इनमें से कभी कोई किसी के साथ हो लेता है, कभी प्रतिपक्षी का खेल खेलता है। इन क्षणिक संयोगों और संवेगों को बालबुद्धि जब बहुत अधिक महत्व देने लगती है तो प्रतीत होता है कि कुछ बहुत बड़ी अनुकूलता-प्रतिकूलता उत्पन्न हो गई है। हर्ष शोक के आवेशों में घटना क्रम उतना उत्तरदायी नहीं होता जितना कि अपना मनःस्तर स्वयं सोचने का दृष्टिकोण। सन्त और चोर के—ज्ञानी और अज्ञानी के—दृष्टिकोण में एक ही स्थिति के सम्बन्ध में जो जमीन आसमान जैसा अन्तर रहता है उसका कारण प्रथक-प्रथक मनःस्थिति ही है। घना क्रम का उतना श्रेय या दोष नहीं।
संसार के स्वरूप निर्धारण में—उन्हें जानने समझने में पांच ज्ञानेन्द्रियों की भांति ही यह मनः संस्थान के चार चेतना केन्द्र भी काम करते हैं। अतएव उन्हें भी अनुभूति उपकरणों में ही गिना गया है। हमारा समस्त ज्ञान इन्हीं उपकरणों के आधार पर टिका हुआ है।
मनुष्यों की भिन्न मनःस्थिति के कारण एक ही तथ्य के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी मान्यतायें एवं रुचियां होती हैं। यदि यथार्थता एक ही होती तो सबको एक ही तरह के अनुभव होते। एक व्यक्ति अपराधों में संलग्न होता है दूसरा परमार्थ परोपकार में। एक को भोग प्रिय है दूसरे को त्याग। एक को प्रदर्शन में रुचि है दूसरे को सादगी में। एक विलास के साधन जुटा रहा है दूसरा त्याग पथ पर बढ़ रहा है। इन भिन्नताओं से यही सिद्ध होता है कि वास्तविक सुख-दुख, हानि-लाभ कहां है किसमें है इसका निर्णय किसी सार्वभौम कसौटी पर नहीं मनःसंस्थान की स्थिति के आधार पर दृष्टिकोण के अनुरूप ही किया जाता है। यह सार्वभौम सत्य यदि प्राप्त हो गया होता तो संसार में मत-भेदों की कोई गुंजाइश न रहती। मनःसंस्थान जो अनुभव कराता है उसमें भी इन्द्रिय ज्ञान से कम नहीं वरन् अधिक ही भ्रांति भरी पड़ी है।
सुख और दुख की अनुभूति सापेक्ष है। दूसरे की तुलना करके ही स्थिति के भले-बुरे का अनुभव किया जाता है। कोई मध्य स्थिति का व्यक्ति अमीर की तुलना में गरीब है। किन्तु महादरिद्र की तुलना में वह भी अमीर है। ज्वर पीड़ित व्यक्ति स्वस्थ मनुष्य की तुलना में दुखी है पर केन्सर ग्रस्त की तुलना में सुखी। शरीर पीड़ा की कुछ अनुभूतियों को छोड़कर शेष 90 प्रतिशत दुख और सुख सापेक्ष होते हैं। उसी स्थिति में एक व्यक्ति अपने को सुखी अनुभव कर सकता है। और दूसरा दुखी। इन विभिन्न निष्कर्षों के आधार पर सत्य को पहचानना कठिन है।
संसार पदार्थों से बना है। पदार्थ अणुओं से बने हैं। अणु परमाणुओं से—परमाणु इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि विखण्डों से—और वे विखण्ड तरंगों के घनीभूत रूप हैं। विज्ञान बताता है कि यह जगत तरंगों का परिणाम है, तरंग मय है, तरंग ही है। शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की तन्मात्रायें और विचार विवेचना, अभिव्यक्ति, अनुभूति अभिव्यंजना आदि के पीछे केवल तरंगें काम करती हैं। यहां तरंगों के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं है।
प्रकृति में परम सत्ता का निरन्तर संयोग मिलन, संस्फुरण, आदान-प्रदान, आकर्षण-विकर्षण ही तरंगें बनकर गतिशील रहता है और वह गति ही पदार्थ बनकर सामने आती रहती है। जो दीखता है उसके मूल में केवल तरंग स्फुरणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जो प्रिय अप्रिय है उसमें आत्मानुभूति की मात्रा की घट-बढ़ की उथल-पुथल के अतिरिक्त और कहीं कुछ भी नहीं है। जड़ चेतन के समस्त परमाणु एक क्रमबद्ध प्रक्रिया के अनुरूप एक दिशा में चलते जा रहे हैं। उस प्रवाह का कोई चाहे तो समुद्र तट पर बैठकर उसकी हिलोरों का आनन्द ले सकता है। भ्रमग्रस्त हर नई लहर के आने का लाभ और जाने की हानि समझता हुआ हंसने रोने का प्रलाप कर सकता है। नियति का क्रम अपने ढंग से चलेगा, किसी के सोचने का तरीका क्या है, इसकी उसे परवा नहीं। हाथी अपनी राह चलेगा ही कुत्ते उसका स्वागत करें या रोष दिखायें यह उनकी मर्जी। प्रकृति की स्वसंचालित व्याख्या हाथी की तरह ही चलेगी यहां हर वस्तु का रूप बदलेगा। आज का सृजन, संयोग कल विनाश एवं वियोग का रूप धारण करेगा। अपरिवर्तनवादी आकांक्षा अधूरी ही रहेगी। यहां स्थिरता के लिये कोई स्थान नहीं। जो संग्रह एवं स्थायित्व के अभिलाषी हैं उन्हें निराशा भरे पश्चात्ताप के अतिरिक्त और क्या हाथ लगेगा?
दुखों का कारण
वस्तु स्थिति को न जानने के कारण ही विविध भांति के दुःख संताप उत्पन्न। महर्षि वशिष्ठ ने भगवान राम को दुखों का कारण अज्ञान बताते हुये उससे मुक्त होने का उपाय ज्ञान साधना ही बताया है।
योगवाशिष्ठ का वचन है— ‘‘आयधो व्याधयश्चैव द्वय दुःखस्य कारणम् । तत्क्षयो मोक्ष उच्यते ।।’’
अर्थात्—आधि, व्याधि—अर्थात् मानसिक और शारीरिक यह दो ही प्रकार के दुःख इस संसार में हैं। इनकी निवृत्ति विद्या अर्थात् ज्ञान द्वारा ही होती है। इस दुःख निवृत्ति का नाम ही मोक्ष है।’’
इस प्रकार इस न्याय से विदित होता है कि यदि मनुष्य जीवन से दुःखों का तिरोधान हो जाय तो वह मोक्ष की स्थिति में अवस्थित हो जाये। दुःखों का अत्यन्त अभाव ही आनन्द भी है। अर्थात् मोक्ष और आनन्द एक दूसरे के पर्याय हैं। इस प्रकार यदि जीवन के दुःखों को नष्ट किया जा सके तो आनन्द वाची मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। बहुत बार देखा जाता है कि लोग जीवन में अनेक बार आनन्द प्राप्त करते हैं। वे हंसते, बोलते खाते, खेलते, मनोरंजन करते, नृत्य-संगीत और काव्य-कलाओं का, आनन्द लेते, उत्सव-समारोह और पर्व मनाते, प्रेम पाते और प्रदान करते, गोष्ठी और सत्संगों में मोद-विनोद करते और न जाने इसी प्रकार से आमोद-प्रमोद पाते और प्रसन्न बना करते हैं—तो क्या उनकी इस स्थिति को मोक्ष कहा जा सकता है?
नहीं, मनुष्य की इस स्थिति को मोक्ष नहीं कहा जा सकता। मोक्ष का आनन्द स्थायी, स्थिर, अक्षय, समान अहैतुकं और निःशेष हुआ करता है। वह न कहीं से आता और न कहीं जाता है। न किसी कारण से उत्पन्न होता है और न किसी कारण से नष्ट होता है। वह आत्म-भूत और अहैतुकं होता है। वह सम्पूर्ण रूप में मिलता है सम्पूर्ण रूप में अनुभूत होता है सम्पूर्ण रूप में सदा-सर्वदा ही बना रहता है। वह सार्वदेशिक सर्वव्यापक, और सर्वस्व सहित ही होता है। मोक्ष का आनन्द पाने पर न तो कोई अंश शेष रह जाता है और न उसके आगे किसी प्रकार के आनन्द की इच्छा शेष रह जाती है। वह प्रकाम, पूर्ण और परमावधिक ही होता है।
पूर्वोक्त लौकिक आनन्दों में यह विशेषताएं नहीं होतीं। उनकी प्राप्ति के लिये कारण और साधन की आवश्यकता होती है। वह किसी हेतु से उत्पन्न होता है और हेतु के मिट जाने पर नष्ट हो जाता है। इतना ही क्यों—यदि एक बार उसका आधार बना भी रहे तो भी उस आनन्द में जीर्णता, क्षीणता, प्राचीनता और अरुचिता आ जाती है। लौकिक आनन्दों की परि-समाप्ति दुःख में ही होती है। आज जो किसी कारण से प्रसन्न है, आनन्दित है वह कल किसी कारण से दुःखी होने लगता है। लौकिक आनन्द की कितनी ही मात्रा क्यों न मिलती जाय, तथापि और अधिक पाने की प्यास बनी रहती है। उससे न तृप्ति मिलती है और न सन्तोष। जिस अनुभूति में अतृप्ति, असन्तोष और तृष्णा बनी रहे वह आनन्द कैसा? लौकिक आनन्द के कितने ही सघन वातावरण में क्यों न बैठे हों एक छोटा-सा अप्रिय समाचार या छोटी-सी दुःखद बात उसे समूल नष्ट कर देती है। तब न किसी के मुख पर हंसी रह जाती है और न हृदय में पुलक! लौकिक आनन्द और मोक्षानन्द की परस्पर तुलना ही नहीं की जा सकती। लौकिक आनन्दों में इस असफलता का कारण यह होता है कि वे असत्य एवं भ्रामक होते हैं। उनकी अनुभूति, प्रवंचना अथवा मृगतृष्णा के समान ही होती है। इस असत्यता का दोष ही लौकिक आनन्द को निकृष्ट एवं अग्राह्य बना देते हैं। आनन्द केवल आत्मिक आनन्द ही होता है। मोक्ष का आनन्द ही वास्तविक तथा अन्वेषणीय आनन्द है। लौकिक आनन्दों की अग्राह्यता का प्रतिपादन इसीलिये किया गया है कि जो व्यक्ति उसके झूंठे प्रवचनों में फंस जाता है, उन्हें पकड़ने, पाने के लिये दौड़ता रहता है, उनको स्थिर और स्थायी बनाने में लगता है, वह अपना सारा जीवन इसी मायाजाल में उलझकर खो देता है। भ्रम में पड़े रहने के कारण उसे वास्तविकता का ध्यान ही नहीं आता। लौकिक आनन्दों के फेर में पड़कर जिसे वास्तविक आनन्द का ध्यान ही न आयेगा वह उसको पाने के लिये प्रयत्नशील भी क्यों होगा। जिस हिरण को मरुमरीचिक जल भ्रम में भुला लेती है तन-मन से उसी को पकड़ने के पीछे पड़ा रहता है। अब पाया, अब पाया करता हुआ वह निःसार दुराशा का यन्त्र बना भटकता रहता है और इस प्रकार वास्तविक जल की खोज से वंचित हो जाता है। परिणाम यह होता है कि भटक-भटक कर प्यासा ही मर जाता है। जिस जीवन में वह पानी और परितृप्ति दोनों को पाकर कृतार्थ हो सकता था वह जीवन यों ही चला जाता है, नष्ट हो जाता है। यही हाल लौकिक आनन्दवादियों का होता है। जिस जीवन में वे मोक्ष और उसका वास्तविक सुख प्राप्त कर सकते हैं वे उसे माया-छाया और भ्रामक सुख की मरीचिका में नष्ट कर अपनी अनन्त हानि कर लेते हैं। इसीलिये लौकिक सुखों को प्रबलता के साथ अग्राह्य एवं गर्हित बताया गया है। वास्तविक आनन्द लौकिक लिप्साओं और सांसारिक भोग-विलासों में नहीं है वह मोक्ष और मोक्ष की स्थिति में है। उसी को पाने का प्रयत्न करना चाहिये, वही मानव जीवन का लक्ष्य है, उसी में शांति और तृप्ति मिलेगी।
इस प्रकार स्पष्ट है कि दुःख तो दुःख ही है सांसारिक सुख भी दुःख का एक स्वरूप है। इनकी निवृत्ति से ही सच्चे सुख की प्राप्ति सम्भव है। किन्तु इनकी निवृत्ति का उपाय क्या है? इसके लिये पुनः योगवाशिष्ठ में कहा गया है—
‘‘ज्ञानान्निर्दुःखतामेति ज्ञानादज्ञान संक्षयः । ज्ञानादेव परासिद्धि नन्दियस्याद्राम वस्तुतः ।।’’
—हे राम! ज्ञान से ही दुःख दूर होते हैं, ज्ञान से अज्ञान का निवारण होता है, ज्ञान से ही परम सिद्धि होती है और किसी उपाय से नहीं।
और भी आगे बताया गया है— ‘‘प्रज्ञा विज्ञात विज्ञेय सम्यग् दर्शन माधयः । न दहन्ति वनं वर्षा सिक्तमग्निशिखा इव ।’’
—जिसने जानने योग्य को जान लिया है और विवेक दृष्टि प्राप्त कर ली है, उस ज्ञानी को दुःख उसी प्रकार त्रासक नहीं होते जिस प्रकार वर्षा से भीगे जंगल को अग्नि शिखा नहीं जा पाती।
तत्वज्ञान क्या है
अब यहां पर ज्ञान का स्वरूप जानने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि आखिर दुःख की उत्पत्ति होती किन कारणों से? वैसे तो जीवात्मा अपने मूल रूप में आनन्दमय है। तब अवश्य ही कोई कारण ऐसा होना चाहिये जो उसके लिये दुःख की सृष्टि करता है। उसको भी योगवाशिष्ठ में इस प्रकार बताया गया है—
‘‘देह दुःख विदुर्व्याधि माध्याख्यं मानसामयम् । मौर्ख्य मूले हते विद्या तत्वज्ञाने परीक्षयः ।।’’
—शारीरिक दुःखों को व्याधि और मानसिक दुःखों को आधि कहते हैं। यह दोनों मुख्य अर्थात् अज्ञान से ही उत्पन्न होती हैं और ज्ञान से नष्ट होती हैं।
संसार के सारे दुःखों का एकमात्र हेतु अविद्या अथवा अज्ञान ही है। जिस प्रकार प्रकाश का अभाव अन्धकार है और अन्धकार का अभाव प्रकाश होता है, उसी प्रकार ज्ञान का अभाव अज्ञान और अज्ञान का ज्ञान होना स्वाभाविक ही है और जिस प्रकार ज्ञान का परिणाम सुख-शान्ति और आनन्द है उसी प्रकार अज्ञान का फल दुःख, अशान्ति और शोक-सन्ताप होना ही चाहिये।
यह युग-युग का अनुभूत तथा अन्वेषित सत्य है कि दुःखों की उत्पत्ति अज्ञान से ही होती है और संसार के सारे विद्वान, चिन्तक एवं मनीषी जन इस बात पर एकमत पाये जाते हैं। इस प्रकार सार्वभौमिक और सार्वजनिक रूप से प्रतिपादित तथ्य में संदेह की गुंजाइश रह ही नहीं जाती—इस प्रकार अपना-अपना मत देते हुये विद्वानों ने कहा है—चाणक्य ने लिखा—‘‘अज्ञान के समान मनुष्य का और कोई दूसरा शत्रु नहीं है।’’ विश्वविख्यात दार्शनिक प्लेटो ने कहा है—‘अज्ञानी रहने से जन्म न लेना ही अच्छा है, क्यों कि अज्ञान ही समस्त विपत्तियों का मूल है।’’ शेक्सपियर ने लिखा है—‘‘अज्ञान ही अन्धकार है।’’
जीवन की समस्त विकृतियों, अनुभव होने वाले दुःखों, उलझनों और अशान्ति आदि का मूल कारण मनुष्य का अपना अज्ञान ही होता है। यही मनुष्य का परम शत्रु है। अज्ञान के कारण ही मनुष्य भी अन्य जीव-जन्तुओं की तरह अनेक दृष्टियों से हीन अवस्था में ही पड़ा रहता है। ज्ञान के अभाव में जिनका विवेक मन्द ही बना रहता है उनके जीवन के अन्धकार में भटकते हुये तरह-तरह के त्रास आते रहते हैं। अज्ञान के कारण ही मनुष्य को वास्तविक कर्तव्यों की जानकारी नहीं हो पाती इसलिये वह गलत मार्गों पर भटक जाता है और अनुचित कर्म करता हुआ दुःख का भागी बनता है। इसलिये दुःखों से निवृत्ति पाने के लिये यदि उनका कारण अज्ञान को मिटा दिया जाये तो निश्चय ही मनुष्य सुख का वास्तविक अधिकारी बन सकता है।
अज्ञान का निवारण ज्ञान द्वारा ही हो सकता है। शती उसकी विपरीत वस्तु आग द्वारा ही दूर होता है। अन्धकार की परिसमाप्ति प्रकाश द्वारा ही सम्भव है। इसलिये ज्ञान प्राप्त का जो भी उपाय सम्भव हो उसे करते ही रहना चाहिये।
ज्ञान का सच्चा स्वरूप क्या है? केवल कतिपय जानकारियां ही ज्ञान नहीं माना जा सकता। सच्चा ज्ञान वह है जिसको पाकर मनुष्य आत्मा परमात्मा का साक्षात्कार कर सके। अपने साथ अपने इस संसार को पहचान सके। उसे सत् और असत् कर्मों की ठीक-ठीक जानकारी रहे और वह जिसकी प्रेरणा से असत् मार्ग को त्याग कर सन्मार्ग पर असंदिग्ध रूप से चल सके। कुछ शिक्षा और दो-चार शिल्पों को ही सीख लेना भर अथवा किन्हीं उलझनों को सुलझा लेने भर की बुद्धि ही ज्ञान नहीं है। ज्ञान वह है जिससे जीवन-मरण, बन्धन-मुक्ति, कर्म-अकर्म और सत्य-असत्य का न केवल निर्णय ही किया जा सके बल्कि गृहणीय को पकड़ा और अग्राह्य को छोड़ा जा सके, वह ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान ही है।
अज्ञान की स्थिति में कर्मों का क्रम बिगड़ जाता है। संसार में जितने भी सुख-दुःख आदि द्वन्द्व हैं वे सब कर्मों का फल होता है। अज्ञान द्वारा अपकर्म होना स्वाभाविक ही है और तब उनका दण्ड मनुष्य को भोगना ही पड़ता है। इतना ही क्यों सकाम भाव से किये सत्कर्म सुख के फल रूप में परिपक्व होते हैं और असत्य होने से कुछ ही समय में दुःख रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। इसलिये कर्म ही अधिकतर बन्धनों अथवा दुःख को मनुष्य पर आरोपित कराते हैं।