Books - तत्वदृष्टि से बंधन मुक्ति
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Language: HINDI
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समर्थ सत्ता को खोजें
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घटना 29 जून सन् 1954 की है। न्यूयार्क अमेरिका के एक डॉक्टर श्री रेमर की धर्मपत्नी विश्राम कर रही थी। उनकी एक पुत्री—जेस्सी 9 माह पूर्व ही अपनी दादी के पास कैलिफोर्निया गई हुई थी। मां-बेटी के बीच की भौगोलिक दूरी 3000 किलोमीटर थी। अकस्मात श्रीमती रेमर चीख कर पलंग से खड़ी हो गई डॉक्टर साहब दौड़े-दौड़े आये। पूछा क्या बात है? श्रीमती रेमर ने कहा—मैंने अभी-अभी जेस्सी के चीखने की आवाज सुनी, ऐसा लगा वह किसी संकट में है। डॉक्टर ने धर्मपत्नी के शरीर का परीक्षण किया।
उस समय और कोई बात तो नहीं हुई किन्तु दो दिनों तक घर में विलक्षण मायूसी छाई रही। तीसरे दिन वह निराशा की स्थिति पूर्ण विहाग में तब बदल गई जब सचमुच जेस्सी के दुर्घटनाग्रस्त होने का तार मिला। आश्चर्य की बात यह थी कि श्रीमती रेमर ने जिस समय यह चीख सुनी वह और जेस्सी के कार ऐक्सीडेंट-जिससे उसका प्राणान्त हुआ—का समय एक ही था।
एक अन्य घटना—फ्रान्स के रियर एडमिरल गैलरी की आत्मकथा से उद्धृत।—आठ घन्टियां (एट बेल्स) नामक उक्त आत्मकथा में गैलरी महाशय लिखते हैं—मुझे सोमवार को अपनी ड्यूटी पर जाना था। रविवार की रात जब मैं सोया तो स्वप्न देखा कि मैं अपने जहाज पर बैठा हूं, जहाज चलने की तैयारी में है। यात्री ऊपर आ रहे हैं, दो युवक आते हैं, मैंने उनसे नाम पूछा—एक ने अपना नाम डिक ग्रेन्स दूसरे ने पाप-कनवे बताया। तभी जहाज में एकाएक विस्फोट होता पर यही दोनों जख्मी होते हैं और पाप मर जाता है। स्वप्न इतनी गम्भीर मनःस्थिति में देखा था कि सोकर उठने के बाद भी वह मानस पटल पर छाया रहा। जब कि आये दिन दिखने वाले स्वप्न जोर देने पर भी याद नहीं आते।
आश्चर्य वहां से प्रारम्भ हुआ जब मैंने आफिस जाकर जहाज के यात्रियों की लिस्ट पर दृष्टि दौड़ाई मुझे यह देखकर भारी हैरानी हुई कि जो नाम इससे पहले कभी सुने भी नहीं थे—जो रात स्वप्न में देखे थे वे सचमुच उस लिस्ट में थे। यह देखते ही हृदय किसी अज्ञात आशंका से भर गया। फिर भी जीवन की गति तो कोई न चलाना चाहे तो भी चलती है। जहाज ने ठीक समय पर प्रस्थान किया पर अभी उसने अच्छी तरह बन्दरगाह भी नहीं छोड़ा था कि एक इंजन में विस्फोट हुआ, केवल डिकग्रेन्स और पाप कनवे दुर्घटनाग्रस्त हुये, जिनमें से पाप कनबे की तत्काल मृत्यु हो गई।
एक तीसरी घटना—डरहम की एक स्त्री से सम्बन्धित है, पैरासाइकोलॉजी संस्थान कैलीफोर्निया के रिकार्ड से ली गई—डरहम की एक स्त्री अपने बच्चों के साथ स्नान के लिये निकली। घर में उस समय उक्त महिला अर्थात् उस स्त्री की सास ही रह गई। अभी वह स्त्री वहां से कुछ सौ गज ही मोड़ पार कर गई होगी कि उसकी सास बुरी तरह चिल्लाई—बहू को खतरा है। पास-पड़ौस के लोग दौड़े और इस पागलपन पर हंसे भी। किन्तु दो घन्टे पीछे ही शेरिफ ने सूचना दी कि रास्ते में ऐक्सिडेन्ट हो जाने से अस्पताल में महिला का प्राणान्त हो गया है।
ऊपर एक ही तरह की तीन घटनायें दी हैं जो न तो भाव सम्प्रेषण (टेलेपैथी) है और न ही परोक्षदर्शन (क्लेरबायेन्स)। टेलीपैथी का अर्थ उस आभास से है जिसमें किसी मित्र, परिचित, कुटुम्बी या प्रिय परिजन द्वारा भावनाओं की अत्यधिक गहराई से याद किया गया हो और वह संवेदना इस व्यक्ति तक पहुंची हो। इसी तरह दूर-दर्शन का अर्थ तो मात्र भौगोलिक दूरी को किसी अतीन्द्रिय क्षमता से पार कर किसी घटना का आभास पाया गया हो। ऊपर तीन घटनायें प्रस्तुत की गई हैं उनमें एक का सम्बन्ध वर्तमान से है तो शेष दो का अतीत और भविष्य से। जो हो रहा है वह देखा जा सकता है जो हो चुका है उसे भी जाना जा सकता है कि अभी तक जो हुआ ही नहीं यदि उसकी जानकारी हो जाती है तो उसे न तो दूरदर्शन ही कहा जायेगा और न ही दूर संचार। वास्तव में इस तरह की अनुभूतियां आये दिन हर किसी को होती रहती हैं। और उनका मानव-जीवन से गहन आध्यात्मिक सम्बन्ध भी है। तथापि उन्हें समझ पाया हर किसी के लिये सम्भव नहीं होता।
वेदान्त दर्शन के अनुसार सृष्टि में एक ‘ब्राह्मी चेतना’ या परमात्मा ही एक ऐसा तत्व है जो सर्वव्यापी है अर्थात् ब्रह्माण्ड उसी में अवस्थित है। वह काल की सीमा से परे है अर्थात् भूत, भविष्य वर्तमान तीनों भी उसी में समाहित हैं। उक्त तीनों घटनाओं का उल्लेख करते हुए ‘एक्स्प्लोरिंग साइकिक फेनामेना बियाण्ड एण्ड मैटर’ पुस्तक के लेखक श्री डी. स्काट रोगों ने उक्त तथ्य का स्मरण कराते हुये लिखा है कि भावनायें तथा विचार ‘प्राणशक्ति की स्फुरणा’ (डिस्चार्ज आफ वाइटल फोर्स) के रूप में होती हैं। यह स्फुरणा यदि एक ही समय में एक-दूसरे को आत्मसात् करती है तब तो वह दूर संचार हो सकता है किन्तु यदि वह समय की सीमाओं का अतिक्रमण करता है तो उसका अर्थ यही होगा कि माध्यम को आधार-भूत सत्ता या ब्राह्मी चेतना होती है। इस चेतना की कल्पना आइन्स्टीन ने भी सापेक्षवाद के सिद्धान्त में की है और यह लिखा है कि यदि प्रकाश की गति से भी कोई तीव्र गति वाला तत्व होता है तो उसके लिये बीते कल, आज और आने वाले कल में कोई अन्तर ही न रहेगा। भारतीय शास्त्र पग-पग पर उसी महान् सत्ता में अपने आप घुलाने और परम पद पाने की बात कहते हैं निस्सन्देह वह एक अति समर्थ, अत्यन्त संवेदनशील स्थिति होगी। यह घटनायें इस दिक्कालातीत चिन्मय ब्रह्म सत्ता से अपनी अभिन्नता जुड़ने की अनुभूति ही हो सकती है। क्षणिक सम्पर्क इतना आश्चर्यजनक हो सकता है तो उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कितनी सामर्थ्य प्रदान करने वाली होगी—तब मनुष्य को किसी प्रकार के अभाव वस्तुतः क्योंकर सताते होंगे?
ऋग्वेद में एक ऋचा आती है—‘अग्निना अग्नि समिध्यते, अर्थात् अग्नि से अग्नि प्रदीप्त होती है। आत्मज्ञान आत्मानुभूति से ब्रह्म प्राप्ति इसी सिद्धान्त पर होती है। उपरोक्त घटनायें ‘अन्त स्फुरण’ तथा ‘आत्म जागृति’ की क्षणिक अनुभूतियां हैं। रेडियो घुमाते-घुमाते अनायास कोई अति सूक्ष्म स्टेशन सैकिंड के सौवें हिस्से में पकड़ में आ जाता है फिर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता। यह घटनायें वैसा ही तत्व बोध हैं, विस्तृत अनुभूति, ज्ञान प्राप्ति, ईश्वर की शक्तियों को अनुभव करने के लिये तो आत्म परिष्कार की गहराई में ही उतरना पड़ेगा। जो लोग सांसारिकता में ही पड़े रहेंगे वे न तो उस महान् को अनुभव कर सकेंगे न पा सकेंगे। वे तो ऐसी घटनाओं पर भी अटकलें ही लगाते रहेंगे।
असीम को खोजें
यह खोज, खबर इसलिए भी उपयोगी है कि ‘एकाकी पन’ नामक कोई तत्व अगले दिनों शेष नहीं रहने वाला है। इस विश्व का कण कण एक-दूसरे से अत्यन्त सघनता और जटिलता के साथ जुड़ा हुआ है, उन्हें प्रथक करने से किसी की सत्ता अक्षुण्य नहीं रह सकती। सब एक दूसरे के साथ इतनी मजबूत जंजीरों से बंधे हुए हैं कि प्रथकता की बात सोचना दूसरे अर्थों में मृत्यु को आमन्त्रण देना ही कहा जा सकता है।
शरीर में कोशिकाओं की स्वतन्त्र सत्ता अवश्य है पर वह अपने आप में पूर्ण नहीं है। एक से दूसरे का पोषण होता है और दूसरे-तीसरे को बल मिलता है। हम सभी एक दूसरे पर निर्भर हैं। यहां न कोई स्वतन्त्र है न स्वावलम्बी। साधन सामूहिकता ही विभिन्न प्रकार के क्रियाकलापों, अस्तित्वों और तथ्यों की जननी है मानवी प्रगति का यही रहस्य है। प्रकृति प्रदत्त समूह संरचना का उसने अधिक बुद्धिमत्ता पूर्वक लाभ उठाकर समाज व्यवस्था बनाई और सहयोग के आधार पर परिवार निर्माण से लेकर शासन सत्ता तक के बहुमुखी घटक खड़े किये हैं। एक-दूसरे के लिए वे किस प्रकार उपयोगी सिद्ध होंगे। पारस्परिक सहयोग से किस किस प्रकार एक दूसरे की सुख−सुविधा बढ़ाये इसी रीति-नीति के अभिवर्धन को अग्रगामी बनाने के लिए धर्म, अध्यात्म तत्व-ज्ञान की आधारशिला रखी गई। भौतिक विज्ञान की खोज और प्रगति ने प्रकृति गत परमाणुओं की इसी रीति-नीति का परिचय दिया है। जड़ अथवा चेतन किसी भी पक्ष को देखें, इस विश्व के समस्त आधार परस्पर सम्बद्ध प्रतीत होते हैं और उनकी सार्थकता एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए रहने से ही सिद्ध होती है। एकाकी इकाइयां तो इतनी नगण्य है कि वे अपने अस्तित्व का न तो परिचय दे सकती हैं और न उसे रख सकती हैं। यह सिद्धान्त ग्रह-नक्षत्रों पर भी लागू होता है। विश्व-ब्रह्माण्ड के समस्त ग्रह नक्षत्र अपनी सूत्र संचालक आकाश गंगाओं के साथ जुड़े हैं और आकाश गंगाएं महत्त्व हिरण्य गर्भ की उंगलियों में बंधी हुई कठपुतलियां भरे हैं। अगणित और मण्डल भी एक-दूसरे का परिपोषण करते हुए अपना क्रिया-कलाप चला रहे हैं। सूर्य ही अपने ग्रहों को गुरुत्वाकर्षण में बांधे हो और उन्हें ताप प्रकाश देता हो सो बात नहीं है, बदले में ग्रह परिवार भी अपने शासनाध्यक्ष सूर्य का विविध आधारों से पोषण करता है। सौर परिवार के ग्रह अपनी जगह से छिटक कर किसी अन्तरिक्ष में अपना कोई और पथ बनालें तो फिर सूर्य का सन्तुलन भी बिगड़ जायेगा और वह आज की स्थिति में न रहकर किसी चित्र-विचित्र विभीषिका में उलझ हुआ दिखाई देगा।
तारे और नक्षत्र में यह अन्तर है कि तारा अपनी रोशनी से चमकता है जब कि नक्षत्रों में अपनी रोशनी नहीं होती। वे तारकों की धूप के प्रकाश में आते हैं तभी चमकते हैं। अपने सौर मण्डल में केवल एक ही सूर्य है शेष 9 नक्षत्र हैं। ब्रह्माण्ड की तुलना में अपने सूर्य का सीमा क्षेत्र बहुत छोटा है पर पृथ्वी की तुलना में वह बहुत बड़ा है। नक्षत्रों के अपने उपग्रह होते हैं जैसे पृथ्वी का उपग्रह चन्द्रमा। ग्रह स्थिति के 12 चन्द्रमा हैं।
जिस प्रकार अपने सौर-मण्डल के नव-ग्रह सूर्य-तारक के साथ जुड़े हैं उसी प्रकार ब्रह्माण्ड के अगणित तारक अपनी-अपनी नीहारिकाएं जो अरबों की संख्या में हैं, जुड़े हैं। उनमें भीतर ऐसी हलचल चलती रहती है जिसके कारण कुछ समय बाद भयंकर विस्फोट होते हैं और अन्तर्भूत पदार्थों में से कुछ टुकड़े बाहर छिटक कर स्वतन्त्र तारक के रूप में विकसित होते हैं। इन्हीं नवोदित तारकों का नाम ‘नोवा और सुपर नोवा’ दिया गया है। जिस प्रकार बिल्ली हर साल कई-कई बच्चे देती है इसी प्रकार से नीहारिकाएं भी थोड़े-थोड़े दिनों बाद प्रसूता होती हैं और विस्फोट जैसी भयानक प्रसव पीड़ा के साथ नव-तारकों को जन्म देती हैं। बच्चों की सारी हरकतें वे सिलसिले होती हैं ऐसा ही कुछ ऊंट-पटांग यह नवोदित तारे भी करते रहते हैं। जब वे घिस-पीट कर ठीक हो जाते हैं। शैशव से आगे बढ़कर किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं तब उनकी व्यवस्था क्रमबद्ध हो जाती है। तब तक उनका फुलाव, सिकुड़न, रुदन, उपद्रव शयन सब कुछ अचंभे जैसा ही है। छोटे बच्चे जैसे बार-बार टट्टी कर देते हैं उसी प्रकार इन नवोदित तारकों की गरमा-गरम गैस भी फटती चिटखती रहती है और उससे भी ग्रह, उपग्रह, उल्का धूमकेतु आदि न जाने क्या-क्या अन्तरिक्षीय फुलझड़ियों का सृजन विसर्जन होता रहता है। इसके अतिरिक्त इन बच्चों में लड़-झगड़ और मारपीट भी कम नहीं होती। निश्चित व्यवस्था का कार्यक्षेत्र न बन पाने के कारण उनके टकराव भी होते रहते हैं और कभी-कभी तो यह टकराव ऐसे विचित्र होते हैं कि दोनों पक्ष अपना अस्तित्व गंवा बैठें और फिर उनके ध्वंसावशेष से कुछ-कुछ और नवीन संरचना सामने आये। आकाश की नापतोल मीलों की संख्या में करना कौड़ियां बिछाकर मुहरों का हिसाब करने बैठने की तरह उपहासास्पद होगा। इस प्रकार तो इतनी विन्दियां प्रयोग करनी पड़ेंगी कि ज्योतिर्विदों को बाध्य विन्दियों से ही भरने पड़ें।
सूर्य की दूरी पृथ्वी से सवा नौ करोड़ मील है। इसके बाद का सबसे निकटवर्ती तारा 2,50,00,00,00,00,000 मील दूरी पर है। अन्य तारे तो इससे भी लाखों गुनी दूरी पर हैं। इस दूरी का हिसाब रखने के लिए ‘प्रकाश वर्ष’ का नया पैमाना बनाया गया है। प्रकाश की किरणें एक सैकिण्ड में एक लाख छियासी हजार मील की चाल से चलती हैं। इस गति से चलते हुए प्रकाश एक वर्ष में जितनी दूरी तय करले उसे एक प्रकाश वर्ष कहा जायेगा। इस पैमाने के हिसाब से पृथ्वी से सूर्य की दूरी सिर्फ सवा आठ प्रकाश सैकिण्ड रह जाती है। इसके आगे किसी और तारे की खोज में आगे बढ़ा जाय तो सबसे निकटवर्ती तारा सवा चार प्रकाश वर्ष चल लेने के बाद ही मिलेगा।
ब्रह्माण्ड का 99 प्रतिशत भाग शून्य है। एक प्रतिशत भाग को ही ग्रह नक्षत्र घेरे हुए हैं। अनुमान है कि आकाश में सूर्य जैसे अरबों तारकों का अस्तित्व है। वह तारे आकाश गंगाओं से जुड़े हैं। वे उसी से निकले हैं और उसी से बंधे हैं। मुर्गी अण्डे देती है उन्हें सेती है और जब तक बच्चे समर्थ नहीं हो जाते उन्हें अपने साथ ही लिए फिरती है। आकाश गंगाएं ऐसी ही मुर्गियां हैं जिनके अण्डे बच्चों की गणना करना पूरा सिर दर्द है। हमारी आकाश गंगा एक लाख प्रकाश वर्ष लम्बी और 20 हजार प्रकाश वर्ष मोटी है। सूर्य इसी मुर्गी का एक छोटा चूजा है जो अपनी माता से 33000 प्रकाश वर्ष दूर रहकर उसकी प्रदक्षिणा 170 मील प्रति सैकिण्ड की गति से करता है। आकाश गंगायें भी आकाश में करोड़ों हैं। वे आपस में टकरा न जायें या उनके अण्डे-बच्चे एक-दूसरे से उलझ न पड़ें इसलिए उनने अपने सैर-सपाटे के लिए काफी-काफी बड़ा क्षेत्र हथिया लिया है। प्रायः ये आकाशगंगाएं एक-दूसरे से 20 लाख प्रकाश वर्ष दूर रहती हैं।
अब तक खोजे गये तारकों में सबसे बड़ा ‘काला तारा’ है। यह अपने सूर्य से 20 अरब गुना बड़ा है। यहां यह भूलना नहीं चाहिए कि सूर्य अपनी पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है। उस हिसाब से पृथ्वी की तुलना में काला तारा कितना बड़ा होगा उसे कागज पर जोड़ लेना तो सरल है पर उस विस्तार को मस्तिष्क में यथावत बिठा सकना बहुत ही कठिन है।
हम विश्वात्मा के घटक
मनुष्य अपने को एकाकी अनुभव करके स्वार्थान्ध रहने की भूल भले ही करता रहे, पर वस्तुतः इस विराट् ब्रह्म का-विशाल विश्व का—एक अकिंचन सा घटक मात्र है। समुद्र की लहरों की तरह उसका अस्तित्व अलग से दीखता भले ही हो, पर वस्तुतः वह समिष्टि सत्ता का एक तुच्छ सा परमाणु भर है। ऐसा परमाणु जिसे अपनी सत्ता और हलचल बनाये रहने के लिए दूसरी महा शक्तियों के अनुदान पर निर्भर रहना पड़ता है।
अपनी पृथ्वी सूर्य से बहुत दूर है और उसका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध दिखाई नहीं पड़ता फिर भी वह पूरी तरह सूर्य पर आश्रित है। सर्दी, गर्मी, वर्षा, दिन, रात्रि जैसी घटनाओं से लेकर प्राणियों में पाया जाने वाला उत्साह और अवसाद भी सूर्य सम्पर्क से सम्बन्धित रहता है। वनस्पतियों का उत्पादन और प्राणियों की हलचल में जो जीवन तत्व काम करता है उसे भौतिक परीक्षण से नापा जाय तो उसे सूर्य का ही अनुदान कहा जायेगा। असंख्य जीव कोशाओं से मिलकर एक शरीर बनता है, उन सबके समन्वित सहयोग भरे प्रयास से जीवन की गाड़ी चलती है। प्राण तत्व से इन सभी कोशाओं को अपनी स्थिति बनाये रहने की सामर्थ्य मिलती है। इसी प्रकार इस संसार के समस्त जड़ चेतन घटकों को सूर्य से अभीष्ट विकास के लिए आवश्यक अनुदान सन्तुलित और समुचित मात्रा में मिलता है।
यह सूर्य भी अपने अस्तित्व के लिए महासूर्य के अनुग्रह पर आश्रित है और महा सूर्यों को भी अतिसूर्य का कृपाकांक्षी रहना पड़ता है। अन्ततः सभी को उस महाकेन्द्र पर निर्भर रहना पड़ता है जो ज्ञान एवं शक्ति का केन्द्र है वह ब्रह्म है, सविता है। अति सूर्य, महासूर्य और सूर्य सब उसी पर आश्रित हैं।
प्राणियों, वनस्पतियों और पदार्थों की गतिविधियों पर सूर्य के प्रभाव का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उनकी स्वावलम्बी हलचलें वस्तुतः परावलम्बी हैं। (1) संसार अन्योन्याश्रित
(2) सूर्य चन्द मनुष्य वृक्ष जीवों को प्रभावित करते हैं। सूर्य की उंगलियों में बंधे हुए धागे ही बाजीगर द्वारा कठपुतली नचाने की तरह विभिन्न गतिविधियों की चित्र-विचित्र भूमिकाएं प्रस्तुत करते हैं। यहां तक कि प्राणियों का, मनुष्यों का चिन्तन और चरित्र तक इस शक्ति प्रवाह पर आश्रित रहता है। केवल सूर्य वरन् न्यूनाधिक मात्रा में सौर मण्डल के ग्रह, उपग्रह तथा ब्रह्माण्ड क्षेत्र के सूर्य तारक भी हमारी सत्ता-स्थिरता एवं प्रगति को प्रभावित करते हैं।
अमेरिका के पागलखानों में किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि पूर्णिमा के दिन मानसिक रोगी अधिक विक्षिप्त हो जाते हैं, जबकि अमावस के दिन यह दौर सर्वाधिक कम होता है। विक्षिप्त ही नहीं, सामान्य मनुष्यों की चित्त-दशा पर भी चन्द्रकलाओं के उतार-चढ़ाव का प्रभाव पड़ना सामूहिक मनश्चेतना का ही द्योतक है।
वनस्पति विज्ञानी वृक्षों के तनों में बनने वाले वर्तुलों द्वारा वृक्षों के जीवन का अध्ययन करते हैं। देखा गया है कि वृक्ष में प्रतिवर्ष एक वृन्त बनता है, जोकि उसके द्वारा छोड़ी गई छाल से विनिर्मित होता है। हर ग्यारहवें वर्ष यह वृन्त सामान्य वृन्तों की अपेक्षा बड़ा बनता है। अमेरिका के रिसर्च सेन्टर आफ ट्री रिंग ने पता लगाया कि ग्यारहवें वर्ष जब सूर्य पर आणविक विस्फोट होते हैं तो वृक्ष का तना मोटा हो जाता है और उसी कारण वृन्त बड़ा बनता है। स्पष्ट है कि सूर्य और चन्द्र के परिवर्तनों से मनुष्यों एवं पशु-पक्षी तथा पेड़ पौधे भी प्रभावित होते हैं। तब क्या मात्र मनुष्यों में ही सामूहिक मनश्चेतना न होकर सम्पूर्ण सृष्टि में ही कोई एक समष्टि चेतना विद्यमान है, यह प्रश्न आज वैज्ञानिकों के सामने खड़ा उन्हें आकर्षित कर रहा है।
डा. हेराल्ड श्वाइत्जर के नेतृत्व में आस्ट्रिया के वैज्ञानिकों ने सूर्यग्रहण के प्रभावों का निरीक्षण-परीक्षण कर यह निष्कर्ष निकाला कि पूर्ण सूर्यग्रहण के समय सामान्य कीट-पतंग भी विचित्र आचरण करने लगते हैं।
अनेक पक्षी सूर्यग्रहण के चौबीस घण्टे पूर्व ही चहचहाना बन्द कर देते हैं। चींटियां सूर्यग्रहण के आधा घण्टे पूर्व से भोजन की खोजबीन बन्द कर देती हैं और व्यर्थ ही भटकती रहती है। सदा चंचल बंदर वृक्षों को छोड़कर जमीन पर आ बैठता है। वुड लाइस, बीटल्स, मिली पीड्स आदि ऐसे कीट-पतंग जो सामान्यतः रात्रि में ही बाहर निकलते हैं, वे भी सूर्यग्रहण के दिन बाहर निकले देखे जाते हैं। दिशा-विज्ञान में दक्ष चिड़ियां चहकना भी भूल-सी जाती हैं।
जापान के प्रख्यात जैविकीविद् तोनातो के अनुसार हर ग्यारहवें वर्ष सूर्य पर होने वाले आणविक विस्फोटों के समय पृथ्वी पर पुरुषों के रक्त में अम्ल तत्व बढ़ जाते हैं और उनका रक्त पतला पड़ जाता है।
पृथ्वी का मात्र सूर्य से अथवा अपने ही उपग्रह चन्द्र से ही अन्तर्सम्बन्ध नहीं है। प्रोफेसर ब्राउन ने मंगल, शुक्र, बृहस्पति आदि ग्रहों का अध्ययन कर यह सिद्ध किया है कि इनकी गतियों और स्थितियों के परिवर्तन से पृथ्वी भी प्रभावित होती है। ये सभी सूर्य सन्तति ही तो हैं और जुड़वां बच्चों वाला सिद्धान्त यहां भी घटित होता है, तो आश्चर्य ही क्या?
रूसी वैज्ञानिक चीजेवस्की ने 1920 में ही यह सिद्ध कर दिया था कि सूर्य पर प्रति ग्यारहवें वर्ष होने वाले आणविक विस्फोट से पृथ्वी पर युद्ध एवं क्रान्तियों का उद्भव-विकास होता है। उनका कहना था कि पृथ्वी पर घटित होने वाले प्रत्येक प्रमुख परिवर्तन का सम्बन्ध सूर्य से होता है।
ऐसे ही निष्कर्षों के विस्तृत अध्ययन व इस दिशा में व्यापक अनुसन्धान प्रयासों के लिए 1950 में वैज्ञानिक जियोजारजी गिआर्डी ने ब्रह्माण्ड रसायन को जन्म दिया। गिआर्डी के अनुसार समूचा ब्रह्माण्ड एक शरीर है और इसके सभी अंग इससे सम्पूर्णतः एकात्म हैं। इसका अर्थ हुआ कि प्रत्येक नक्षत्र पिण्ड फिर वह कितनी भी दूरी पर क्यों न हो पृथ्वी के जीवन को प्रभावित करता है।
भारत में इसी तत्वदर्शन के अनुरूप अतीत में ज्योतिर्विज्ञान का विकास हुआ था। आर्यभट्ट का ज्योतिष सिद्धान्त, कालक्रिया पाद, गोलपाद, और सूर्य सिद्धान्त, फिर नारदेव, ब्रह्मगुप्त आदि द्वारा उन सिद्धान्तों का संशोधन-परिवर्धन, भाष्कराचार्य का महाभाष्करीय आदि ग्रन्थ उस महत् प्रयास के कुछ सुलभ अवशिष्ट परिणाम हैं। बाद में इस विशुद्ध विज्ञान का जो दुरुपयोग हुआ, उसे जातीय-जीवन क्रम के ह्रास-काल की अराजकता समझते हुए उसके मूल सिद्धान्त सूत्रों तथा संकेतों के आधार पर इस दिशा में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
भारतीय तत्व मनीषी हजारों वर्ष पूर्व इस तथ्य से परिचित थे कि जड़ता वस्तुतः कहीं है नहीं। वह हमारी स्थूल दृष्टि की ‘एपियरेन्स’ या आभास मात्र है। यथार्थतः सर्वत्र आत्मचेतना ही विद्यमान है। यह सर्वव्यापी चैतन्यसत्ता ही विश्वात्मा है। विश्वात्मा के साथ आत्मा की जितनी समीपता घनिष्ठता होती है उसी अनुपात से उसे विशिष्ट अनुदान प्राप्त होते हैं।
भारतीय मनीषियों की मान्यता है कि सृष्टि के आरम्भ में एक मूल द्रव्य हिरण्यगर्भ था। उसी के विस्फोट से आकाश गंगायें विनिर्मित हुईं। इस विस्फोट की तेजी कुछ तो धीमी हुई है पर अभी भी उस छिटकाव की चाल बहुत तीव्र है। अनन्त आकाश में यों आकाश गंगाएं अपनी अपनी दिशा में द्रुतगति से दौड़ती जा रही हैं। इस संदर्भ में अपनी आकाश गंगा की चाल 24,300 मील प्रति सैकिंड नापी गयी है।
यह विश्व अनन्त है और उसके सम्बन्ध में जानकारियां प्राप्त करने का क्षेत्र भी असीम है। इस असीम और अनन्त की खोज के लिए बिना निराश हुए मनुष्य की असीमता किस उत्साह के साथ अग्रगामी हो रही है यह देख कर विश्वास होता है कि मानवी महत्ता अद्भुत है और यदि वह सही राह पर चले तो न केवल प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन करने में वरन् उन्हें करतलगत करने में भी समर्थ हो सकती है।
उस समय और कोई बात तो नहीं हुई किन्तु दो दिनों तक घर में विलक्षण मायूसी छाई रही। तीसरे दिन वह निराशा की स्थिति पूर्ण विहाग में तब बदल गई जब सचमुच जेस्सी के दुर्घटनाग्रस्त होने का तार मिला। आश्चर्य की बात यह थी कि श्रीमती रेमर ने जिस समय यह चीख सुनी वह और जेस्सी के कार ऐक्सीडेंट-जिससे उसका प्राणान्त हुआ—का समय एक ही था।
एक अन्य घटना—फ्रान्स के रियर एडमिरल गैलरी की आत्मकथा से उद्धृत।—आठ घन्टियां (एट बेल्स) नामक उक्त आत्मकथा में गैलरी महाशय लिखते हैं—मुझे सोमवार को अपनी ड्यूटी पर जाना था। रविवार की रात जब मैं सोया तो स्वप्न देखा कि मैं अपने जहाज पर बैठा हूं, जहाज चलने की तैयारी में है। यात्री ऊपर आ रहे हैं, दो युवक आते हैं, मैंने उनसे नाम पूछा—एक ने अपना नाम डिक ग्रेन्स दूसरे ने पाप-कनवे बताया। तभी जहाज में एकाएक विस्फोट होता पर यही दोनों जख्मी होते हैं और पाप मर जाता है। स्वप्न इतनी गम्भीर मनःस्थिति में देखा था कि सोकर उठने के बाद भी वह मानस पटल पर छाया रहा। जब कि आये दिन दिखने वाले स्वप्न जोर देने पर भी याद नहीं आते।
आश्चर्य वहां से प्रारम्भ हुआ जब मैंने आफिस जाकर जहाज के यात्रियों की लिस्ट पर दृष्टि दौड़ाई मुझे यह देखकर भारी हैरानी हुई कि जो नाम इससे पहले कभी सुने भी नहीं थे—जो रात स्वप्न में देखे थे वे सचमुच उस लिस्ट में थे। यह देखते ही हृदय किसी अज्ञात आशंका से भर गया। फिर भी जीवन की गति तो कोई न चलाना चाहे तो भी चलती है। जहाज ने ठीक समय पर प्रस्थान किया पर अभी उसने अच्छी तरह बन्दरगाह भी नहीं छोड़ा था कि एक इंजन में विस्फोट हुआ, केवल डिकग्रेन्स और पाप कनवे दुर्घटनाग्रस्त हुये, जिनमें से पाप कनबे की तत्काल मृत्यु हो गई।
एक तीसरी घटना—डरहम की एक स्त्री से सम्बन्धित है, पैरासाइकोलॉजी संस्थान कैलीफोर्निया के रिकार्ड से ली गई—डरहम की एक स्त्री अपने बच्चों के साथ स्नान के लिये निकली। घर में उस समय उक्त महिला अर्थात् उस स्त्री की सास ही रह गई। अभी वह स्त्री वहां से कुछ सौ गज ही मोड़ पार कर गई होगी कि उसकी सास बुरी तरह चिल्लाई—बहू को खतरा है। पास-पड़ौस के लोग दौड़े और इस पागलपन पर हंसे भी। किन्तु दो घन्टे पीछे ही शेरिफ ने सूचना दी कि रास्ते में ऐक्सिडेन्ट हो जाने से अस्पताल में महिला का प्राणान्त हो गया है।
ऊपर एक ही तरह की तीन घटनायें दी हैं जो न तो भाव सम्प्रेषण (टेलेपैथी) है और न ही परोक्षदर्शन (क्लेरबायेन्स)। टेलीपैथी का अर्थ उस आभास से है जिसमें किसी मित्र, परिचित, कुटुम्बी या प्रिय परिजन द्वारा भावनाओं की अत्यधिक गहराई से याद किया गया हो और वह संवेदना इस व्यक्ति तक पहुंची हो। इसी तरह दूर-दर्शन का अर्थ तो मात्र भौगोलिक दूरी को किसी अतीन्द्रिय क्षमता से पार कर किसी घटना का आभास पाया गया हो। ऊपर तीन घटनायें प्रस्तुत की गई हैं उनमें एक का सम्बन्ध वर्तमान से है तो शेष दो का अतीत और भविष्य से। जो हो रहा है वह देखा जा सकता है जो हो चुका है उसे भी जाना जा सकता है कि अभी तक जो हुआ ही नहीं यदि उसकी जानकारी हो जाती है तो उसे न तो दूरदर्शन ही कहा जायेगा और न ही दूर संचार। वास्तव में इस तरह की अनुभूतियां आये दिन हर किसी को होती रहती हैं। और उनका मानव-जीवन से गहन आध्यात्मिक सम्बन्ध भी है। तथापि उन्हें समझ पाया हर किसी के लिये सम्भव नहीं होता।
वेदान्त दर्शन के अनुसार सृष्टि में एक ‘ब्राह्मी चेतना’ या परमात्मा ही एक ऐसा तत्व है जो सर्वव्यापी है अर्थात् ब्रह्माण्ड उसी में अवस्थित है। वह काल की सीमा से परे है अर्थात् भूत, भविष्य वर्तमान तीनों भी उसी में समाहित हैं। उक्त तीनों घटनाओं का उल्लेख करते हुए ‘एक्स्प्लोरिंग साइकिक फेनामेना बियाण्ड एण्ड मैटर’ पुस्तक के लेखक श्री डी. स्काट रोगों ने उक्त तथ्य का स्मरण कराते हुये लिखा है कि भावनायें तथा विचार ‘प्राणशक्ति की स्फुरणा’ (डिस्चार्ज आफ वाइटल फोर्स) के रूप में होती हैं। यह स्फुरणा यदि एक ही समय में एक-दूसरे को आत्मसात् करती है तब तो वह दूर संचार हो सकता है किन्तु यदि वह समय की सीमाओं का अतिक्रमण करता है तो उसका अर्थ यही होगा कि माध्यम को आधार-भूत सत्ता या ब्राह्मी चेतना होती है। इस चेतना की कल्पना आइन्स्टीन ने भी सापेक्षवाद के सिद्धान्त में की है और यह लिखा है कि यदि प्रकाश की गति से भी कोई तीव्र गति वाला तत्व होता है तो उसके लिये बीते कल, आज और आने वाले कल में कोई अन्तर ही न रहेगा। भारतीय शास्त्र पग-पग पर उसी महान् सत्ता में अपने आप घुलाने और परम पद पाने की बात कहते हैं निस्सन्देह वह एक अति समर्थ, अत्यन्त संवेदनशील स्थिति होगी। यह घटनायें इस दिक्कालातीत चिन्मय ब्रह्म सत्ता से अपनी अभिन्नता जुड़ने की अनुभूति ही हो सकती है। क्षणिक सम्पर्क इतना आश्चर्यजनक हो सकता है तो उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कितनी सामर्थ्य प्रदान करने वाली होगी—तब मनुष्य को किसी प्रकार के अभाव वस्तुतः क्योंकर सताते होंगे?
ऋग्वेद में एक ऋचा आती है—‘अग्निना अग्नि समिध्यते, अर्थात् अग्नि से अग्नि प्रदीप्त होती है। आत्मज्ञान आत्मानुभूति से ब्रह्म प्राप्ति इसी सिद्धान्त पर होती है। उपरोक्त घटनायें ‘अन्त स्फुरण’ तथा ‘आत्म जागृति’ की क्षणिक अनुभूतियां हैं। रेडियो घुमाते-घुमाते अनायास कोई अति सूक्ष्म स्टेशन सैकिंड के सौवें हिस्से में पकड़ में आ जाता है फिर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता। यह घटनायें वैसा ही तत्व बोध हैं, विस्तृत अनुभूति, ज्ञान प्राप्ति, ईश्वर की शक्तियों को अनुभव करने के लिये तो आत्म परिष्कार की गहराई में ही उतरना पड़ेगा। जो लोग सांसारिकता में ही पड़े रहेंगे वे न तो उस महान् को अनुभव कर सकेंगे न पा सकेंगे। वे तो ऐसी घटनाओं पर भी अटकलें ही लगाते रहेंगे।
असीम को खोजें
यह खोज, खबर इसलिए भी उपयोगी है कि ‘एकाकी पन’ नामक कोई तत्व अगले दिनों शेष नहीं रहने वाला है। इस विश्व का कण कण एक-दूसरे से अत्यन्त सघनता और जटिलता के साथ जुड़ा हुआ है, उन्हें प्रथक करने से किसी की सत्ता अक्षुण्य नहीं रह सकती। सब एक दूसरे के साथ इतनी मजबूत जंजीरों से बंधे हुए हैं कि प्रथकता की बात सोचना दूसरे अर्थों में मृत्यु को आमन्त्रण देना ही कहा जा सकता है।
शरीर में कोशिकाओं की स्वतन्त्र सत्ता अवश्य है पर वह अपने आप में पूर्ण नहीं है। एक से दूसरे का पोषण होता है और दूसरे-तीसरे को बल मिलता है। हम सभी एक दूसरे पर निर्भर हैं। यहां न कोई स्वतन्त्र है न स्वावलम्बी। साधन सामूहिकता ही विभिन्न प्रकार के क्रियाकलापों, अस्तित्वों और तथ्यों की जननी है मानवी प्रगति का यही रहस्य है। प्रकृति प्रदत्त समूह संरचना का उसने अधिक बुद्धिमत्ता पूर्वक लाभ उठाकर समाज व्यवस्था बनाई और सहयोग के आधार पर परिवार निर्माण से लेकर शासन सत्ता तक के बहुमुखी घटक खड़े किये हैं। एक-दूसरे के लिए वे किस प्रकार उपयोगी सिद्ध होंगे। पारस्परिक सहयोग से किस किस प्रकार एक दूसरे की सुख−सुविधा बढ़ाये इसी रीति-नीति के अभिवर्धन को अग्रगामी बनाने के लिए धर्म, अध्यात्म तत्व-ज्ञान की आधारशिला रखी गई। भौतिक विज्ञान की खोज और प्रगति ने प्रकृति गत परमाणुओं की इसी रीति-नीति का परिचय दिया है। जड़ अथवा चेतन किसी भी पक्ष को देखें, इस विश्व के समस्त आधार परस्पर सम्बद्ध प्रतीत होते हैं और उनकी सार्थकता एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए रहने से ही सिद्ध होती है। एकाकी इकाइयां तो इतनी नगण्य है कि वे अपने अस्तित्व का न तो परिचय दे सकती हैं और न उसे रख सकती हैं। यह सिद्धान्त ग्रह-नक्षत्रों पर भी लागू होता है। विश्व-ब्रह्माण्ड के समस्त ग्रह नक्षत्र अपनी सूत्र संचालक आकाश गंगाओं के साथ जुड़े हैं और आकाश गंगाएं महत्त्व हिरण्य गर्भ की उंगलियों में बंधी हुई कठपुतलियां भरे हैं। अगणित और मण्डल भी एक-दूसरे का परिपोषण करते हुए अपना क्रिया-कलाप चला रहे हैं। सूर्य ही अपने ग्रहों को गुरुत्वाकर्षण में बांधे हो और उन्हें ताप प्रकाश देता हो सो बात नहीं है, बदले में ग्रह परिवार भी अपने शासनाध्यक्ष सूर्य का विविध आधारों से पोषण करता है। सौर परिवार के ग्रह अपनी जगह से छिटक कर किसी अन्तरिक्ष में अपना कोई और पथ बनालें तो फिर सूर्य का सन्तुलन भी बिगड़ जायेगा और वह आज की स्थिति में न रहकर किसी चित्र-विचित्र विभीषिका में उलझ हुआ दिखाई देगा।
तारे और नक्षत्र में यह अन्तर है कि तारा अपनी रोशनी से चमकता है जब कि नक्षत्रों में अपनी रोशनी नहीं होती। वे तारकों की धूप के प्रकाश में आते हैं तभी चमकते हैं। अपने सौर मण्डल में केवल एक ही सूर्य है शेष 9 नक्षत्र हैं। ब्रह्माण्ड की तुलना में अपने सूर्य का सीमा क्षेत्र बहुत छोटा है पर पृथ्वी की तुलना में वह बहुत बड़ा है। नक्षत्रों के अपने उपग्रह होते हैं जैसे पृथ्वी का उपग्रह चन्द्रमा। ग्रह स्थिति के 12 चन्द्रमा हैं।
जिस प्रकार अपने सौर-मण्डल के नव-ग्रह सूर्य-तारक के साथ जुड़े हैं उसी प्रकार ब्रह्माण्ड के अगणित तारक अपनी-अपनी नीहारिकाएं जो अरबों की संख्या में हैं, जुड़े हैं। उनमें भीतर ऐसी हलचल चलती रहती है जिसके कारण कुछ समय बाद भयंकर विस्फोट होते हैं और अन्तर्भूत पदार्थों में से कुछ टुकड़े बाहर छिटक कर स्वतन्त्र तारक के रूप में विकसित होते हैं। इन्हीं नवोदित तारकों का नाम ‘नोवा और सुपर नोवा’ दिया गया है। जिस प्रकार बिल्ली हर साल कई-कई बच्चे देती है इसी प्रकार से नीहारिकाएं भी थोड़े-थोड़े दिनों बाद प्रसूता होती हैं और विस्फोट जैसी भयानक प्रसव पीड़ा के साथ नव-तारकों को जन्म देती हैं। बच्चों की सारी हरकतें वे सिलसिले होती हैं ऐसा ही कुछ ऊंट-पटांग यह नवोदित तारे भी करते रहते हैं। जब वे घिस-पीट कर ठीक हो जाते हैं। शैशव से आगे बढ़कर किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं तब उनकी व्यवस्था क्रमबद्ध हो जाती है। तब तक उनका फुलाव, सिकुड़न, रुदन, उपद्रव शयन सब कुछ अचंभे जैसा ही है। छोटे बच्चे जैसे बार-बार टट्टी कर देते हैं उसी प्रकार इन नवोदित तारकों की गरमा-गरम गैस भी फटती चिटखती रहती है और उससे भी ग्रह, उपग्रह, उल्का धूमकेतु आदि न जाने क्या-क्या अन्तरिक्षीय फुलझड़ियों का सृजन विसर्जन होता रहता है। इसके अतिरिक्त इन बच्चों में लड़-झगड़ और मारपीट भी कम नहीं होती। निश्चित व्यवस्था का कार्यक्षेत्र न बन पाने के कारण उनके टकराव भी होते रहते हैं और कभी-कभी तो यह टकराव ऐसे विचित्र होते हैं कि दोनों पक्ष अपना अस्तित्व गंवा बैठें और फिर उनके ध्वंसावशेष से कुछ-कुछ और नवीन संरचना सामने आये। आकाश की नापतोल मीलों की संख्या में करना कौड़ियां बिछाकर मुहरों का हिसाब करने बैठने की तरह उपहासास्पद होगा। इस प्रकार तो इतनी विन्दियां प्रयोग करनी पड़ेंगी कि ज्योतिर्विदों को बाध्य विन्दियों से ही भरने पड़ें।
सूर्य की दूरी पृथ्वी से सवा नौ करोड़ मील है। इसके बाद का सबसे निकटवर्ती तारा 2,50,00,00,00,00,000 मील दूरी पर है। अन्य तारे तो इससे भी लाखों गुनी दूरी पर हैं। इस दूरी का हिसाब रखने के लिए ‘प्रकाश वर्ष’ का नया पैमाना बनाया गया है। प्रकाश की किरणें एक सैकिण्ड में एक लाख छियासी हजार मील की चाल से चलती हैं। इस गति से चलते हुए प्रकाश एक वर्ष में जितनी दूरी तय करले उसे एक प्रकाश वर्ष कहा जायेगा। इस पैमाने के हिसाब से पृथ्वी से सूर्य की दूरी सिर्फ सवा आठ प्रकाश सैकिण्ड रह जाती है। इसके आगे किसी और तारे की खोज में आगे बढ़ा जाय तो सबसे निकटवर्ती तारा सवा चार प्रकाश वर्ष चल लेने के बाद ही मिलेगा।
ब्रह्माण्ड का 99 प्रतिशत भाग शून्य है। एक प्रतिशत भाग को ही ग्रह नक्षत्र घेरे हुए हैं। अनुमान है कि आकाश में सूर्य जैसे अरबों तारकों का अस्तित्व है। वह तारे आकाश गंगाओं से जुड़े हैं। वे उसी से निकले हैं और उसी से बंधे हैं। मुर्गी अण्डे देती है उन्हें सेती है और जब तक बच्चे समर्थ नहीं हो जाते उन्हें अपने साथ ही लिए फिरती है। आकाश गंगाएं ऐसी ही मुर्गियां हैं जिनके अण्डे बच्चों की गणना करना पूरा सिर दर्द है। हमारी आकाश गंगा एक लाख प्रकाश वर्ष लम्बी और 20 हजार प्रकाश वर्ष मोटी है। सूर्य इसी मुर्गी का एक छोटा चूजा है जो अपनी माता से 33000 प्रकाश वर्ष दूर रहकर उसकी प्रदक्षिणा 170 मील प्रति सैकिण्ड की गति से करता है। आकाश गंगायें भी आकाश में करोड़ों हैं। वे आपस में टकरा न जायें या उनके अण्डे-बच्चे एक-दूसरे से उलझ न पड़ें इसलिए उनने अपने सैर-सपाटे के लिए काफी-काफी बड़ा क्षेत्र हथिया लिया है। प्रायः ये आकाशगंगाएं एक-दूसरे से 20 लाख प्रकाश वर्ष दूर रहती हैं।
अब तक खोजे गये तारकों में सबसे बड़ा ‘काला तारा’ है। यह अपने सूर्य से 20 अरब गुना बड़ा है। यहां यह भूलना नहीं चाहिए कि सूर्य अपनी पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है। उस हिसाब से पृथ्वी की तुलना में काला तारा कितना बड़ा होगा उसे कागज पर जोड़ लेना तो सरल है पर उस विस्तार को मस्तिष्क में यथावत बिठा सकना बहुत ही कठिन है।
हम विश्वात्मा के घटक
मनुष्य अपने को एकाकी अनुभव करके स्वार्थान्ध रहने की भूल भले ही करता रहे, पर वस्तुतः इस विराट् ब्रह्म का-विशाल विश्व का—एक अकिंचन सा घटक मात्र है। समुद्र की लहरों की तरह उसका अस्तित्व अलग से दीखता भले ही हो, पर वस्तुतः वह समिष्टि सत्ता का एक तुच्छ सा परमाणु भर है। ऐसा परमाणु जिसे अपनी सत्ता और हलचल बनाये रहने के लिए दूसरी महा शक्तियों के अनुदान पर निर्भर रहना पड़ता है।
अपनी पृथ्वी सूर्य से बहुत दूर है और उसका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध दिखाई नहीं पड़ता फिर भी वह पूरी तरह सूर्य पर आश्रित है। सर्दी, गर्मी, वर्षा, दिन, रात्रि जैसी घटनाओं से लेकर प्राणियों में पाया जाने वाला उत्साह और अवसाद भी सूर्य सम्पर्क से सम्बन्धित रहता है। वनस्पतियों का उत्पादन और प्राणियों की हलचल में जो जीवन तत्व काम करता है उसे भौतिक परीक्षण से नापा जाय तो उसे सूर्य का ही अनुदान कहा जायेगा। असंख्य जीव कोशाओं से मिलकर एक शरीर बनता है, उन सबके समन्वित सहयोग भरे प्रयास से जीवन की गाड़ी चलती है। प्राण तत्व से इन सभी कोशाओं को अपनी स्थिति बनाये रहने की सामर्थ्य मिलती है। इसी प्रकार इस संसार के समस्त जड़ चेतन घटकों को सूर्य से अभीष्ट विकास के लिए आवश्यक अनुदान सन्तुलित और समुचित मात्रा में मिलता है।
यह सूर्य भी अपने अस्तित्व के लिए महासूर्य के अनुग्रह पर आश्रित है और महा सूर्यों को भी अतिसूर्य का कृपाकांक्षी रहना पड़ता है। अन्ततः सभी को उस महाकेन्द्र पर निर्भर रहना पड़ता है जो ज्ञान एवं शक्ति का केन्द्र है वह ब्रह्म है, सविता है। अति सूर्य, महासूर्य और सूर्य सब उसी पर आश्रित हैं।
प्राणियों, वनस्पतियों और पदार्थों की गतिविधियों पर सूर्य के प्रभाव का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उनकी स्वावलम्बी हलचलें वस्तुतः परावलम्बी हैं। (1) संसार अन्योन्याश्रित
(2) सूर्य चन्द मनुष्य वृक्ष जीवों को प्रभावित करते हैं। सूर्य की उंगलियों में बंधे हुए धागे ही बाजीगर द्वारा कठपुतली नचाने की तरह विभिन्न गतिविधियों की चित्र-विचित्र भूमिकाएं प्रस्तुत करते हैं। यहां तक कि प्राणियों का, मनुष्यों का चिन्तन और चरित्र तक इस शक्ति प्रवाह पर आश्रित रहता है। केवल सूर्य वरन् न्यूनाधिक मात्रा में सौर मण्डल के ग्रह, उपग्रह तथा ब्रह्माण्ड क्षेत्र के सूर्य तारक भी हमारी सत्ता-स्थिरता एवं प्रगति को प्रभावित करते हैं।
अमेरिका के पागलखानों में किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि पूर्णिमा के दिन मानसिक रोगी अधिक विक्षिप्त हो जाते हैं, जबकि अमावस के दिन यह दौर सर्वाधिक कम होता है। विक्षिप्त ही नहीं, सामान्य मनुष्यों की चित्त-दशा पर भी चन्द्रकलाओं के उतार-चढ़ाव का प्रभाव पड़ना सामूहिक मनश्चेतना का ही द्योतक है।
वनस्पति विज्ञानी वृक्षों के तनों में बनने वाले वर्तुलों द्वारा वृक्षों के जीवन का अध्ययन करते हैं। देखा गया है कि वृक्ष में प्रतिवर्ष एक वृन्त बनता है, जोकि उसके द्वारा छोड़ी गई छाल से विनिर्मित होता है। हर ग्यारहवें वर्ष यह वृन्त सामान्य वृन्तों की अपेक्षा बड़ा बनता है। अमेरिका के रिसर्च सेन्टर आफ ट्री रिंग ने पता लगाया कि ग्यारहवें वर्ष जब सूर्य पर आणविक विस्फोट होते हैं तो वृक्ष का तना मोटा हो जाता है और उसी कारण वृन्त बड़ा बनता है। स्पष्ट है कि सूर्य और चन्द्र के परिवर्तनों से मनुष्यों एवं पशु-पक्षी तथा पेड़ पौधे भी प्रभावित होते हैं। तब क्या मात्र मनुष्यों में ही सामूहिक मनश्चेतना न होकर सम्पूर्ण सृष्टि में ही कोई एक समष्टि चेतना विद्यमान है, यह प्रश्न आज वैज्ञानिकों के सामने खड़ा उन्हें आकर्षित कर रहा है।
डा. हेराल्ड श्वाइत्जर के नेतृत्व में आस्ट्रिया के वैज्ञानिकों ने सूर्यग्रहण के प्रभावों का निरीक्षण-परीक्षण कर यह निष्कर्ष निकाला कि पूर्ण सूर्यग्रहण के समय सामान्य कीट-पतंग भी विचित्र आचरण करने लगते हैं।
अनेक पक्षी सूर्यग्रहण के चौबीस घण्टे पूर्व ही चहचहाना बन्द कर देते हैं। चींटियां सूर्यग्रहण के आधा घण्टे पूर्व से भोजन की खोजबीन बन्द कर देती हैं और व्यर्थ ही भटकती रहती है। सदा चंचल बंदर वृक्षों को छोड़कर जमीन पर आ बैठता है। वुड लाइस, बीटल्स, मिली पीड्स आदि ऐसे कीट-पतंग जो सामान्यतः रात्रि में ही बाहर निकलते हैं, वे भी सूर्यग्रहण के दिन बाहर निकले देखे जाते हैं। दिशा-विज्ञान में दक्ष चिड़ियां चहकना भी भूल-सी जाती हैं।
जापान के प्रख्यात जैविकीविद् तोनातो के अनुसार हर ग्यारहवें वर्ष सूर्य पर होने वाले आणविक विस्फोटों के समय पृथ्वी पर पुरुषों के रक्त में अम्ल तत्व बढ़ जाते हैं और उनका रक्त पतला पड़ जाता है।
पृथ्वी का मात्र सूर्य से अथवा अपने ही उपग्रह चन्द्र से ही अन्तर्सम्बन्ध नहीं है। प्रोफेसर ब्राउन ने मंगल, शुक्र, बृहस्पति आदि ग्रहों का अध्ययन कर यह सिद्ध किया है कि इनकी गतियों और स्थितियों के परिवर्तन से पृथ्वी भी प्रभावित होती है। ये सभी सूर्य सन्तति ही तो हैं और जुड़वां बच्चों वाला सिद्धान्त यहां भी घटित होता है, तो आश्चर्य ही क्या?
रूसी वैज्ञानिक चीजेवस्की ने 1920 में ही यह सिद्ध कर दिया था कि सूर्य पर प्रति ग्यारहवें वर्ष होने वाले आणविक विस्फोट से पृथ्वी पर युद्ध एवं क्रान्तियों का उद्भव-विकास होता है। उनका कहना था कि पृथ्वी पर घटित होने वाले प्रत्येक प्रमुख परिवर्तन का सम्बन्ध सूर्य से होता है।
ऐसे ही निष्कर्षों के विस्तृत अध्ययन व इस दिशा में व्यापक अनुसन्धान प्रयासों के लिए 1950 में वैज्ञानिक जियोजारजी गिआर्डी ने ब्रह्माण्ड रसायन को जन्म दिया। गिआर्डी के अनुसार समूचा ब्रह्माण्ड एक शरीर है और इसके सभी अंग इससे सम्पूर्णतः एकात्म हैं। इसका अर्थ हुआ कि प्रत्येक नक्षत्र पिण्ड फिर वह कितनी भी दूरी पर क्यों न हो पृथ्वी के जीवन को प्रभावित करता है।
भारत में इसी तत्वदर्शन के अनुरूप अतीत में ज्योतिर्विज्ञान का विकास हुआ था। आर्यभट्ट का ज्योतिष सिद्धान्त, कालक्रिया पाद, गोलपाद, और सूर्य सिद्धान्त, फिर नारदेव, ब्रह्मगुप्त आदि द्वारा उन सिद्धान्तों का संशोधन-परिवर्धन, भाष्कराचार्य का महाभाष्करीय आदि ग्रन्थ उस महत् प्रयास के कुछ सुलभ अवशिष्ट परिणाम हैं। बाद में इस विशुद्ध विज्ञान का जो दुरुपयोग हुआ, उसे जातीय-जीवन क्रम के ह्रास-काल की अराजकता समझते हुए उसके मूल सिद्धान्त सूत्रों तथा संकेतों के आधार पर इस दिशा में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
भारतीय तत्व मनीषी हजारों वर्ष पूर्व इस तथ्य से परिचित थे कि जड़ता वस्तुतः कहीं है नहीं। वह हमारी स्थूल दृष्टि की ‘एपियरेन्स’ या आभास मात्र है। यथार्थतः सर्वत्र आत्मचेतना ही विद्यमान है। यह सर्वव्यापी चैतन्यसत्ता ही विश्वात्मा है। विश्वात्मा के साथ आत्मा की जितनी समीपता घनिष्ठता होती है उसी अनुपात से उसे विशिष्ट अनुदान प्राप्त होते हैं।
भारतीय मनीषियों की मान्यता है कि सृष्टि के आरम्भ में एक मूल द्रव्य हिरण्यगर्भ था। उसी के विस्फोट से आकाश गंगायें विनिर्मित हुईं। इस विस्फोट की तेजी कुछ तो धीमी हुई है पर अभी भी उस छिटकाव की चाल बहुत तीव्र है। अनन्त आकाश में यों आकाश गंगाएं अपनी अपनी दिशा में द्रुतगति से दौड़ती जा रही हैं। इस संदर्भ में अपनी आकाश गंगा की चाल 24,300 मील प्रति सैकिंड नापी गयी है।
यह विश्व अनन्त है और उसके सम्बन्ध में जानकारियां प्राप्त करने का क्षेत्र भी असीम है। इस असीम और अनन्त की खोज के लिए बिना निराश हुए मनुष्य की असीमता किस उत्साह के साथ अग्रगामी हो रही है यह देख कर विश्वास होता है कि मानवी महत्ता अद्भुत है और यदि वह सही राह पर चले तो न केवल प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन करने में वरन् उन्हें करतलगत करने में भी समर्थ हो सकती है।