Books - जीवन देवता की साधना-आराधना
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अध्यात्म तत्त्वज्ञान का मर्म जीवन साधना
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अति निकट और अति दूर की उपेक्षा करना मानव का सहज स्वभाव है। यह उक्ति जीवन
सम्पदा के हर क्षेत्र में लागू होती है। जीवन हम हर घड़ी जीते हैं, पर न
तो उसकी गरिमा समझते और न यह सोच पाते हैं कि इसके सदुपयोग से क्या- क्या
सिद्धियाँ उपलब्ध हो सकती हैं। प्राणी जन्म लेता और पेट प्रजनन की,
प्राकृतिक उत्तेजनाओं से विक्षुब्ध होकर, निर्वाह की जरूरतें पूरी करते हुए
दम तोड़ देता है। ऐसे क्षण कदाचित ही कभी आते हैं, जब यह सोचा जाता हो कि
स्रष्टा की तिजोरी का सर्वोपरि उपहार मनुष्य जीवन है। जिसे अनुग्रहपूर्वक
यह जीवन दिया गया है, उससे यह आशा की गई है कि वह उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग
करेगा। अपनी अपूर्णता पूरी करके तुच्छ से महान बनेगा, साथ ही विश्व उद्यान
को कुशल माली की तरह सींचते- सँजोते यह सिद्ध करेगा कि उसे स्वार्थ और
परमार्थ के सही रूप का ज्ञान है। स्वार्थ इसमें है कि पशु प्रवृत्तियों की
कुसंस्कारिता से पीछा छुड़ायें और सत्प्रवृत्तियों की आवश्यक मात्रा में
अवधारणा करते हुए उस परीक्षा में उत्तीर्ण हों, जो धरोहर का सदुपयोग कर
सकने के रूप में सामने प्रस्तुत हुई है। जो उसमें उत्तीर्ण होता है, वह
देवमानव की कक्षा में प्रवेश करता है। अपना ही भला नहीं करता, असंख्यों को
अपनी नाव में बिठाकर पार करता है। ऐसों को ही अभिनन्दनीय, अनुकरणीय महामानव
कहा जाता है। तृप्ति, तुष्टि, शान्ति के त्रिविध आनन्द ऐसों को ही मिलते
हैं।
मनुष्य जीवन दिव्य सत्ता की एक बहुमूल्य धरोहर है, जिसे सौंपते समय उसकी सत्पात्रता पर विश्वास किया जाता है। मनुष्य के साथ यह पक्षपात नहीं है, वरन् ऊँचे अनुदान देने के लिये यह प्रयोग- परीक्षण है। अन्य जीवधारी शरीर भर की बात सोचते और क्रिया करते हैं, किन्तु मनुष्य को स्रष्टा का उत्तराधिकारी युवराज होने के नाते अनेकानेक कर्तव्य और उत्तरदायित्व निभाने पड़ते हैं। उसी में उसकी गरिमा और सार्थकता है। यदि पेट प्रजनन तक, लोभ- मोह तक उसकी गतिविधियाँ सीमित रहें तो उसे नरपशु के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा? लोभ- मोह के साथ अहंकार और जुड़ जाने पर तो बात और भी अधिक बिगड़ती है। महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिये उभरी अहंमन्यता अनेक प्रकार के कुचक्र रचती और पतन- पराभव के गर्त में गिरती है। अहन्ता से प्रेरित व्यक्ति अनाचारी बनता है और आक्रामक भी। ऐसी दशा में उसका स्वरूप और भी भयंकर हो जाता है। दुष्ट दुरात्मा एवं नर- पिशाच स्तर की आसुरी गतिविधियाँ अपनाता है। इस प्रकार मनुष्य जीवन जहाँ श्रेष्ठ सौभाग्य का प्रतीक था, वहाँ वह दुर्भाग्य और दुर्गति का कारण ही बनता है। इसी को कहते हैं- वरदान को अभिशाप बना लेना। दोनों ही दिशायें हर किसी के लिये खुली हैं। जो इनमें से जिसे चाहता है, उसे चुन लेता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप जो है।
साधकों में भिन्नता देखी जाती है। उनके भिन्न- भिन्न इष्ट देव उपास्य होते हैं। उनसे अनुग्रह अनुकम्पा की आशा की जाती है। और विभिन्न मनोकामनायें पूर्ण करने की अपेक्षा रखी जाती है। इनमें से कितने सफल होते हैं, इस सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता है। क्योंकि पराधीनता की स्थिति में स्वामी की इच्छा पर सब कुछ निर्भर रहता है। सेवक तो अनुनय- विनय ही करता रह सकता है, किन्तु जीवन देवता के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। उसकी अभ्यर्थना सही रूप में बन पड़ने पर वह सब कुछ इसी कल्पवृक्ष के नीचे प्राप्त किया जा सकता है, जिसकी कहीं अन्यत्र से पाने की आशा लगाई जाती है।
ब्रह्माण्ड का छोटा सा रूप पिण्ड परमाणु है। जो ब्रह्माण्ड में है वह सब कुछ पदार्थ के सबसे छोटे घटक परमाणु में भी विद्यमान है और सौर मण्डल की समस्त क्रिया- प्रक्रिया अपने में धारण किये हुए है। इसे विज्ञानवेत्ताओं ने एक स्वर से स्वीकार किया है। इसी प्रतिपादन का दूसरा पक्ष यह है कि परमसत्ता ब्रह्माण्डीय चेतना का छोटा किन्तु समग्र प्रतीक जीव है। वेदान्त दर्शन के अनुसार परिष्कृत आत्मा ही परमात्मा है। तत्त्वदर्शन के अनुसार इसी काय कलेवर में समस्त देवताओं का निवास है। परब्रह्म की दिव्य क्षमताओं का समस्त वैभव जीवब्रह्म के प्रसुप्त संस्थानों में समग्र रूप से विद्यमान है। यदि उन्हें जगाया जा सके तो विज्ञात अतीन्द्रिय क्षमतायें और अविज्ञात दिव्य विभूतियाँ जाग्रत, सक्षम एवं क्रियाशील हो सकती हैं। तपस्वी, योगी, ऋषि, मनीषी, महामानव सिद्धपुरुष ऐसी ही विभूतियों से सम्पन्न देखे गये हैं। तथ्य शाश्वत और सनातन हैं। जो कभी हो चुका है, वह अब भी हो सकता है। जीवन देवता की साधना से ही महा सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। कस्तूरी के हिरण जैसी बात है। बाहर खोजने में थकान और खीझ ही हाथ लगती है। शान्ति तब मिलती है, जब उस सुगन्ध का केन्द्र अपनी ही नाभि में होने का पता चलता है। परमात्मा के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिये अन्यत्र खोजबीन करने की योजना व्यर्थ है। वह एक देशकाल तक सीमित नहीं है, कलेवरधारी भी नहीं। उसे अति निकटवर्ती क्षेत्र में देखना हो तो वह अपना अन्तःकरण ही हो सकता है। समग्र जीवन इसी की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है।
गीताकार ने उस परब्रह्म को श्रद्धा में ही समाहित बताया है और कहा है कि जिसकी जैसी श्रद्धा हो, वह वैसा ही है; जो अपने को जैसा मानता है, वह वैसा ही बन जाता है। यदि अपने को तुच्छ और हेय समझते रहा जायेगा तो व्यक्तित्व उसी ढाँचे में ढल जायेगा। जिसने अपने अन्दर में महानता आरोपित की है, उसे अपना अस्तित्त्व मानवी गरिमा से ओत- प्रोत दिखाई पड़ेगा।
परमात्मा सब कुछ करने मे समर्थ है। उसमें समस्त विभूतियाँ विद्यमान हैं। इसी शास्त्री वचन को यों भी कहा जा सकता है कि उसका प्रतीक प्रतिनिधि उत्तराधिकार युवराज भी, अपने सृजेता की विशेषताओं से सम्पन्न है। कठिनाई तब पड़ती है जब आत्मविस्मृति का अज्ञानान्धकार अपनी सघनता से वस्तुस्थिति को आच्छादित कर लेता है। अँधेरे में झाड़ी को भूत और रस्सी को साँप के रूप में देखा जाता है। जिधर भी कदम बढ़ाया जाय उधर ही ठोकरें लगती हैं, किन्तु यदि प्रकाश की व्यवस्था बन जाये तो सब कुछ यथावत दिखाई पड़ेगा। आत्मबोध को उस प्रकाश की व्यवस्था बन जाये तो सब कुछ यथावत दिखाई पड़ेगा। आत्मबोध से उस प्रकाश का उदय माना जाता है, जिसमें अपने सही स्वरूप का आभास भी मिलता है और सही मार्ग ढूँढ़ने में भी विलम्ब नहीं लगता।
भेड़ों के झुण्ड में पले सिंह- शावक की कथा सर्वविदित है। अपने ईद- गिर्द का वातावरण और प्रचलन मनुष्य को अपने समूह में ही घसीट ले जाता है। पर जब आत्मबोध होता है, तब पता चलता है कि आत्मसत्ता शुद्धोऽसि- बुद्धोऽसि के सिद्धान्त को अक्षरश: चरितार्थ करती है। ‘‘मनुष्य भटका हुआ देवता है’’ इस कथन में उसका सही विश्लेषण देखा जा सकता है। यदि भटकाव दूर हो जाये तो समझना चाहिये कि समस्त समस्याओं का हल निकल आया। समस्त भवबन्धनों से छुटकारा मिल गया। मोक्ष और कुछ नहीं अपने सम्बन्ध में जो अचिन्त्य चिन्तनवश भूल हो गई है, उससे त्राण पा लेने का परम पुरुषार्थ है। मकड़ी अपने लिये जाला अपने भीतर का द्रव निकालकर स्वयं ही बुनती है, स्वयं ही उसमें उलझती और छटपटाती है, किन्तु देखा यह भी गया है कि जब उसे उमंग उठती है तो उस जाले को समेट- बटोरकर स्वयं ही निगल भी जाती है। हेय जीवन स्वकृत है। जैसा सोचा गया, चाहा गया वैसी ही परिस्थितियाँ बन गईं। अब उसे बदलने का मन हो तो मान्यताओं, आकांक्षाओं और गतिविधियों को उलटने की देर है। निकृष्ट को उत्कृष्ट बनाया जा सकता है। क्षुद्र से महान् बना जा सकता है।
‘‘साधना से सिद्धि’’ का सिद्धान्त सर्वमान्य है। देखना इतना भर है कि साधना किसकी की जाय? अन्यान्य इष्टदेवों के बारे में कहा नहीं जा सकता कि उनका निर्धारित स्वरूप और स्वभाव वैसा है या नहीं, जैसा कि सोचा, जाना गया है। इनमें सन्देह होने का कारण भी स्पष्ट है। समूची विश्व व्यवस्था एक है। सूर्य, चन्द्र, पवन आदि सार्वभौम है। ईश्वर भी सर्वजनीन है, सर्वव्यापी भी। फिर उसके अनेक रूप कैसे बने? अनेक आकार- प्रकार और गुण- स्वभाव का उसे कैसे देखा गया? मान्यता यदि यथार्थ है तो उसका स्वरूप सार्वभौम होना चाहिये। यदि वह मतमतान्तरों के कारण अनेक प्रकार का होता है, तो समझना चाहिये कि यह मान्यताओं की ही चित्र- विचित्र अभिव्यक्तियाँ है। ऐसी दशा में सत्य तक कैसे पहुँचा जाय? प्रश्न का सही उत्तर यह है कि जीवन को ही जीवित जाग्रत देवता माना जाये। उसके ऊपर चढ़े कषाय- कल्मषों का परिमार्जन करने का प्रयत्न किया जाये। अंगार पर राख की परत जम जाने पर वह काला- कलूटा दिख पड़ता है, पर जब वह परत हटा दी जाती है तो भीतर छिपी अग्नि स्पष्ट दीखने लगती है। साधना का उद्देश्य इन आवरण आच्छादनों को हटा देना भर है। इसे प्रसुप्ति को जागरण में बदल देना भी कहा जा सकता है।
अध्यात्म विज्ञान के तत्त्ववेत्ताओं ने अनेक प्रकार के साधना- उपचार बताये हैं। यदि गम्भीरतापूर्वक उनका विश्लेषण- विवेचन किया जाय तो प्रतीत होगा कि यह प्रतीक पूजा और कुछ नहीं। मात्र आत्मपरिष्कार का ही बालबोध स्तर का प्रतिपादन है। पात्रता और प्रखरता का अभिवर्द्धन ही योग और तप का लक्ष्य है। पात्रता एक चुम्बक है जो अपने उपयोग की वस्तुओं- शक्तियों को अपनी ओर सहज ही आकर्षित करती रहती है। मनुष्य में विकसित हुए देवत्व का चुम्बक संसार में संव्याप्त शक्तियों और परिस्थितियों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। जलाशय गहरे होते हैं। सब ओर से पानी सिमटकर इकट्ठा होने के लिये उनमें जा पहुँचता है। समुद्र में सभी नदियाँ जा मिलती हैं। यह उसकी गहराई का ही प्रतिफल है। पर्वत की चोटियों पर यदि शील की अधिकता से बर्फ जम भी जाय तो वह गर्मी पड़ते ही पिघल जाता है और नदियों से होकर समुद्र में पहुँचकर रुकता है। इसी को कहते हैं- पात्रता पात्रता का अभिवर्द्धन ही साधना का मूलभूत उद्देश्य है। ईश्वर को न किसी की मनुहार चाहिये और न उपहार। वह छोटी- मोटी भेंट- पूजाओं से या स्तवन गुणगान से प्रसन्न नहीं होता। ऐसी प्रकृति तो क्षुद्र लोगों की होती है। भगवान् का ऐसा मानस नहीं। वह न्यायनिष्ठ और विवेकवान है। व्यक्ति में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समावेश होने पर जो गरिमा उभरती है उसी के आधार पर वह प्रसन्न होता और अनुग्रह बरसाता है। उसे फुसलाने का प्रयास करने वालों की बालक्रीड़ा निराशा ही प्रदान करती है।
ऋषि ने पूछा- कस्मै देवाय हविषा विधेम्’’ अर्थात् ‘‘हम किस देवता के लिये भजन करें’’? उसका सुनिश्चित उत्तर है- आत्मदेव के लिये। अपने आप को चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की कसौटियों पर खरा सिद्ध करना ही वह स्थिति है जिसे सौ टंच सोना कहते हैं। पेड़ पर फल फूल ऊपर से टपक कर नहीं लदते, वरन् जड़ें जमीन से जो रस खींचती हैं उसी से वृक्ष बढ़ता है और फलता- फूलता है। जड़ें अपने अन्दर है, जो समूचे व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। जिनके आधार पर आध्यात्मिक महानता और भौतिक प्रगतिशीलता के उभयपक्षीय लाभ मिलते है। यही उपासना, साधना और आराधना का समन्वित स्वरूप है। यही वह साधना है जिसके आधार पर सिद्धियाँ और सफलतायें सुनिश्चित बनती हैं। दूसरे के सामने हाथ पसारने, गिड़गिड़ाने भर से पात्रता के अभाव में कुछ प्राप्त नहीं होता। भले ही वह दानी परमेश्वर ही क्यों न हों! कहा गया है कि ईश्वर केवल उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करने को तत्पर हैं। आत्मपरिष्कार, आत्मशोधन यही जीवन साधना है। इसी को परम पुरुषार्थ कहा गया है। जिन्होंने इस लक्ष्य को समझा तो जानना चाहिये कि उन्होंने अध्यात्म तत्त्वज्ञान का रहस्य और मार्ग हस्तगत कर लिया। चरम लक्ष्य तक पहुँचने का राजमार्ग पा लिया।
मनुष्य जीवन दिव्य सत्ता की एक बहुमूल्य धरोहर है, जिसे सौंपते समय उसकी सत्पात्रता पर विश्वास किया जाता है। मनुष्य के साथ यह पक्षपात नहीं है, वरन् ऊँचे अनुदान देने के लिये यह प्रयोग- परीक्षण है। अन्य जीवधारी शरीर भर की बात सोचते और क्रिया करते हैं, किन्तु मनुष्य को स्रष्टा का उत्तराधिकारी युवराज होने के नाते अनेकानेक कर्तव्य और उत्तरदायित्व निभाने पड़ते हैं। उसी में उसकी गरिमा और सार्थकता है। यदि पेट प्रजनन तक, लोभ- मोह तक उसकी गतिविधियाँ सीमित रहें तो उसे नरपशु के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा? लोभ- मोह के साथ अहंकार और जुड़ जाने पर तो बात और भी अधिक बिगड़ती है। महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिये उभरी अहंमन्यता अनेक प्रकार के कुचक्र रचती और पतन- पराभव के गर्त में गिरती है। अहन्ता से प्रेरित व्यक्ति अनाचारी बनता है और आक्रामक भी। ऐसी दशा में उसका स्वरूप और भी भयंकर हो जाता है। दुष्ट दुरात्मा एवं नर- पिशाच स्तर की आसुरी गतिविधियाँ अपनाता है। इस प्रकार मनुष्य जीवन जहाँ श्रेष्ठ सौभाग्य का प्रतीक था, वहाँ वह दुर्भाग्य और दुर्गति का कारण ही बनता है। इसी को कहते हैं- वरदान को अभिशाप बना लेना। दोनों ही दिशायें हर किसी के लिये खुली हैं। जो इनमें से जिसे चाहता है, उसे चुन लेता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप जो है।
साधकों में भिन्नता देखी जाती है। उनके भिन्न- भिन्न इष्ट देव उपास्य होते हैं। उनसे अनुग्रह अनुकम्पा की आशा की जाती है। और विभिन्न मनोकामनायें पूर्ण करने की अपेक्षा रखी जाती है। इनमें से कितने सफल होते हैं, इस सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता है। क्योंकि पराधीनता की स्थिति में स्वामी की इच्छा पर सब कुछ निर्भर रहता है। सेवक तो अनुनय- विनय ही करता रह सकता है, किन्तु जीवन देवता के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। उसकी अभ्यर्थना सही रूप में बन पड़ने पर वह सब कुछ इसी कल्पवृक्ष के नीचे प्राप्त किया जा सकता है, जिसकी कहीं अन्यत्र से पाने की आशा लगाई जाती है।
ब्रह्माण्ड का छोटा सा रूप पिण्ड परमाणु है। जो ब्रह्माण्ड में है वह सब कुछ पदार्थ के सबसे छोटे घटक परमाणु में भी विद्यमान है और सौर मण्डल की समस्त क्रिया- प्रक्रिया अपने में धारण किये हुए है। इसे विज्ञानवेत्ताओं ने एक स्वर से स्वीकार किया है। इसी प्रतिपादन का दूसरा पक्ष यह है कि परमसत्ता ब्रह्माण्डीय चेतना का छोटा किन्तु समग्र प्रतीक जीव है। वेदान्त दर्शन के अनुसार परिष्कृत आत्मा ही परमात्मा है। तत्त्वदर्शन के अनुसार इसी काय कलेवर में समस्त देवताओं का निवास है। परब्रह्म की दिव्य क्षमताओं का समस्त वैभव जीवब्रह्म के प्रसुप्त संस्थानों में समग्र रूप से विद्यमान है। यदि उन्हें जगाया जा सके तो विज्ञात अतीन्द्रिय क्षमतायें और अविज्ञात दिव्य विभूतियाँ जाग्रत, सक्षम एवं क्रियाशील हो सकती हैं। तपस्वी, योगी, ऋषि, मनीषी, महामानव सिद्धपुरुष ऐसी ही विभूतियों से सम्पन्न देखे गये हैं। तथ्य शाश्वत और सनातन हैं। जो कभी हो चुका है, वह अब भी हो सकता है। जीवन देवता की साधना से ही महा सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। कस्तूरी के हिरण जैसी बात है। बाहर खोजने में थकान और खीझ ही हाथ लगती है। शान्ति तब मिलती है, जब उस सुगन्ध का केन्द्र अपनी ही नाभि में होने का पता चलता है। परमात्मा के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिये अन्यत्र खोजबीन करने की योजना व्यर्थ है। वह एक देशकाल तक सीमित नहीं है, कलेवरधारी भी नहीं। उसे अति निकटवर्ती क्षेत्र में देखना हो तो वह अपना अन्तःकरण ही हो सकता है। समग्र जीवन इसी की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है।
गीताकार ने उस परब्रह्म को श्रद्धा में ही समाहित बताया है और कहा है कि जिसकी जैसी श्रद्धा हो, वह वैसा ही है; जो अपने को जैसा मानता है, वह वैसा ही बन जाता है। यदि अपने को तुच्छ और हेय समझते रहा जायेगा तो व्यक्तित्व उसी ढाँचे में ढल जायेगा। जिसने अपने अन्दर में महानता आरोपित की है, उसे अपना अस्तित्त्व मानवी गरिमा से ओत- प्रोत दिखाई पड़ेगा।
परमात्मा सब कुछ करने मे समर्थ है। उसमें समस्त विभूतियाँ विद्यमान हैं। इसी शास्त्री वचन को यों भी कहा जा सकता है कि उसका प्रतीक प्रतिनिधि उत्तराधिकार युवराज भी, अपने सृजेता की विशेषताओं से सम्पन्न है। कठिनाई तब पड़ती है जब आत्मविस्मृति का अज्ञानान्धकार अपनी सघनता से वस्तुस्थिति को आच्छादित कर लेता है। अँधेरे में झाड़ी को भूत और रस्सी को साँप के रूप में देखा जाता है। जिधर भी कदम बढ़ाया जाय उधर ही ठोकरें लगती हैं, किन्तु यदि प्रकाश की व्यवस्था बन जाये तो सब कुछ यथावत दिखाई पड़ेगा। आत्मबोध को उस प्रकाश की व्यवस्था बन जाये तो सब कुछ यथावत दिखाई पड़ेगा। आत्मबोध से उस प्रकाश का उदय माना जाता है, जिसमें अपने सही स्वरूप का आभास भी मिलता है और सही मार्ग ढूँढ़ने में भी विलम्ब नहीं लगता।
भेड़ों के झुण्ड में पले सिंह- शावक की कथा सर्वविदित है। अपने ईद- गिर्द का वातावरण और प्रचलन मनुष्य को अपने समूह में ही घसीट ले जाता है। पर जब आत्मबोध होता है, तब पता चलता है कि आत्मसत्ता शुद्धोऽसि- बुद्धोऽसि के सिद्धान्त को अक्षरश: चरितार्थ करती है। ‘‘मनुष्य भटका हुआ देवता है’’ इस कथन में उसका सही विश्लेषण देखा जा सकता है। यदि भटकाव दूर हो जाये तो समझना चाहिये कि समस्त समस्याओं का हल निकल आया। समस्त भवबन्धनों से छुटकारा मिल गया। मोक्ष और कुछ नहीं अपने सम्बन्ध में जो अचिन्त्य चिन्तनवश भूल हो गई है, उससे त्राण पा लेने का परम पुरुषार्थ है। मकड़ी अपने लिये जाला अपने भीतर का द्रव निकालकर स्वयं ही बुनती है, स्वयं ही उसमें उलझती और छटपटाती है, किन्तु देखा यह भी गया है कि जब उसे उमंग उठती है तो उस जाले को समेट- बटोरकर स्वयं ही निगल भी जाती है। हेय जीवन स्वकृत है। जैसा सोचा गया, चाहा गया वैसी ही परिस्थितियाँ बन गईं। अब उसे बदलने का मन हो तो मान्यताओं, आकांक्षाओं और गतिविधियों को उलटने की देर है। निकृष्ट को उत्कृष्ट बनाया जा सकता है। क्षुद्र से महान् बना जा सकता है।
‘‘साधना से सिद्धि’’ का सिद्धान्त सर्वमान्य है। देखना इतना भर है कि साधना किसकी की जाय? अन्यान्य इष्टदेवों के बारे में कहा नहीं जा सकता कि उनका निर्धारित स्वरूप और स्वभाव वैसा है या नहीं, जैसा कि सोचा, जाना गया है। इनमें सन्देह होने का कारण भी स्पष्ट है। समूची विश्व व्यवस्था एक है। सूर्य, चन्द्र, पवन आदि सार्वभौम है। ईश्वर भी सर्वजनीन है, सर्वव्यापी भी। फिर उसके अनेक रूप कैसे बने? अनेक आकार- प्रकार और गुण- स्वभाव का उसे कैसे देखा गया? मान्यता यदि यथार्थ है तो उसका स्वरूप सार्वभौम होना चाहिये। यदि वह मतमतान्तरों के कारण अनेक प्रकार का होता है, तो समझना चाहिये कि यह मान्यताओं की ही चित्र- विचित्र अभिव्यक्तियाँ है। ऐसी दशा में सत्य तक कैसे पहुँचा जाय? प्रश्न का सही उत्तर यह है कि जीवन को ही जीवित जाग्रत देवता माना जाये। उसके ऊपर चढ़े कषाय- कल्मषों का परिमार्जन करने का प्रयत्न किया जाये। अंगार पर राख की परत जम जाने पर वह काला- कलूटा दिख पड़ता है, पर जब वह परत हटा दी जाती है तो भीतर छिपी अग्नि स्पष्ट दीखने लगती है। साधना का उद्देश्य इन आवरण आच्छादनों को हटा देना भर है। इसे प्रसुप्ति को जागरण में बदल देना भी कहा जा सकता है।
अध्यात्म विज्ञान के तत्त्ववेत्ताओं ने अनेक प्रकार के साधना- उपचार बताये हैं। यदि गम्भीरतापूर्वक उनका विश्लेषण- विवेचन किया जाय तो प्रतीत होगा कि यह प्रतीक पूजा और कुछ नहीं। मात्र आत्मपरिष्कार का ही बालबोध स्तर का प्रतिपादन है। पात्रता और प्रखरता का अभिवर्द्धन ही योग और तप का लक्ष्य है। पात्रता एक चुम्बक है जो अपने उपयोग की वस्तुओं- शक्तियों को अपनी ओर सहज ही आकर्षित करती रहती है। मनुष्य में विकसित हुए देवत्व का चुम्बक संसार में संव्याप्त शक्तियों और परिस्थितियों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। जलाशय गहरे होते हैं। सब ओर से पानी सिमटकर इकट्ठा होने के लिये उनमें जा पहुँचता है। समुद्र में सभी नदियाँ जा मिलती हैं। यह उसकी गहराई का ही प्रतिफल है। पर्वत की चोटियों पर यदि शील की अधिकता से बर्फ जम भी जाय तो वह गर्मी पड़ते ही पिघल जाता है और नदियों से होकर समुद्र में पहुँचकर रुकता है। इसी को कहते हैं- पात्रता पात्रता का अभिवर्द्धन ही साधना का मूलभूत उद्देश्य है। ईश्वर को न किसी की मनुहार चाहिये और न उपहार। वह छोटी- मोटी भेंट- पूजाओं से या स्तवन गुणगान से प्रसन्न नहीं होता। ऐसी प्रकृति तो क्षुद्र लोगों की होती है। भगवान् का ऐसा मानस नहीं। वह न्यायनिष्ठ और विवेकवान है। व्यक्ति में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समावेश होने पर जो गरिमा उभरती है उसी के आधार पर वह प्रसन्न होता और अनुग्रह बरसाता है। उसे फुसलाने का प्रयास करने वालों की बालक्रीड़ा निराशा ही प्रदान करती है।
ऋषि ने पूछा- कस्मै देवाय हविषा विधेम्’’ अर्थात् ‘‘हम किस देवता के लिये भजन करें’’? उसका सुनिश्चित उत्तर है- आत्मदेव के लिये। अपने आप को चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की कसौटियों पर खरा सिद्ध करना ही वह स्थिति है जिसे सौ टंच सोना कहते हैं। पेड़ पर फल फूल ऊपर से टपक कर नहीं लदते, वरन् जड़ें जमीन से जो रस खींचती हैं उसी से वृक्ष बढ़ता है और फलता- फूलता है। जड़ें अपने अन्दर है, जो समूचे व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। जिनके आधार पर आध्यात्मिक महानता और भौतिक प्रगतिशीलता के उभयपक्षीय लाभ मिलते है। यही उपासना, साधना और आराधना का समन्वित स्वरूप है। यही वह साधना है जिसके आधार पर सिद्धियाँ और सफलतायें सुनिश्चित बनती हैं। दूसरे के सामने हाथ पसारने, गिड़गिड़ाने भर से पात्रता के अभाव में कुछ प्राप्त नहीं होता। भले ही वह दानी परमेश्वर ही क्यों न हों! कहा गया है कि ईश्वर केवल उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करने को तत्पर हैं। आत्मपरिष्कार, आत्मशोधन यही जीवन साधना है। इसी को परम पुरुषार्थ कहा गया है। जिन्होंने इस लक्ष्य को समझा तो जानना चाहिये कि उन्होंने अध्यात्म तत्त्वज्ञान का रहस्य और मार्ग हस्तगत कर लिया। चरम लक्ष्य तक पहुँचने का राजमार्ग पा लिया।