Books - जीवन देवता की साधना-आराधना
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सार्थक, सुलभ एवं समग्र साधना
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पदार्थ से शरीर और आत्मा का महत्त्व अधिक है। इसी प्रकार समृद्धि-
सम्पन्नता का, प्रगति और योग्यता का, आत्मिक प्रखरता, प्रतिभा का स्तर भी
क्रम से, एक से एक सीढ़ी ऊँचाई का समझा जा सकता है। आन्तरिक आस्थाएँ ही वे
विभूतियाँ हैं, जो व्यक्ति के चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को परिष्कृत करती
हैं। व्यक्तित्व को प्रखर, प्रामाणिक एवं प्रतिभावान बनाती हैं। इसी आधार
पर वे क्षमताएँ उभरती हैं, जो अनेकानेक सफलताओं की उद्गम स्रोत हैं।
आत्मबल के आधार पर अन्य सभी बल हस्तगत किये जा सकते हैं। इसी के आधार पर उपलब्धियों का सदुपयोग बन पड़ता है। परिस्थितियों की प्रतिकूलता रहने पर भी उन्हें व्यक्तित्व की उत्कृष्टता के आधार पर अनुकूल बनाया जा सकता है। संसार के इतिहास में ऐसे अगणित व्यक्ति हुए हैं, जिनकी प्रारम्भिक परिस्थितियाँ गई- गुजरी थीं। निर्वाह के साधनों तक की कमी पड़ती थी, फिर प्रगति के सरंजाम जुट सकना और भी कठिन, लगभग असम्भव दीख पड़ता था। इतने पर भी वे व्यक्तित्व की प्रामाणिकता के आधार पर सभी के लिये विश्वस्त एवं आकर्षक बन गये। उनका चुम्बकत्व व्यक्तियों, साधनों और परिस्थितियों को अनुकूल बनाता चला गया और वे अपने पुरुषार्थ के साथ उस सद्भाव का तालमेल बिठाते हुए दिन- दिन ऊँचे उठते चले गये और अन्ततः: सफलता के सर्वोच्च शिखर तक जा पहुँचने में समर्थ हुए। ऐसे अवसरों पर व्यक्तित्व की उत्कृष्टता को ही श्रेय दिया जाता है। इस उपलब्धि को ही आत्मबल का चमत्कार कहते हैं।
इसके विपरीत ऐसे भी अनेकानेक प्रसंग सामने आते रहते हैं, जिसमें सभी अनुकूलताएँ रहने पर भी लोग अपनी दुर्बुद्धि के कारण दिन- दिन घटते और गिरते चले गये। पूर्वजों के कमाये धन को दुर्व्यसनों में उड़ा दिया। आलस्य और प्रमाद में ग्रसित रहकर अपनी क्षमताओं और सम्पदाओं को गलाते चले गये। कई अनाचार के मार्ग पर चल पड़े और दुर्गति भुगतने के लिये मजबूर हुए। इसमें उनके मानस की गुण, कर्म, स्वभाव की निकृष्टता ने अनेक सुविधाएँ रहते हुए भी उन्हें असुविधा भरी परिस्थितियों तक पहुँचा दिया।
चेतना की शक्ति संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। मनुष्य ही, रेल, जहाज कारखाने आदि बनाता है। विज्ञान के नित नये आविष्कार करता है। यहाँ तक कि धर्म और दर्शन, आचार और विचार भी उसी के रचे हुए हैं। ईश्वर की साकार रूप में कल्पना तथा स्थापना करना भी उसी का बुद्धि- कौशल है। इस अनगढ़ धरातल को, सुविधाओं, सुन्दरताओं, उपलब्धियों से भरापूरा बनाना भी मनुष्य का ही काम है। यहाँ मनुष्य शब्द में किसी शरीर या वैभव को नहीं समझा जाना चाहिये। विशेषताएँ चेतना के साथ जुड़ी होती हैं। इसे भी प्रयत्न पूर्वक उठाया या गिराया जा सकता है। शरीर को बलिष्ठ या दुर्बल बना लेना प्राय: मनुष्य की अपनी, रीति- नीति पर निर्भर रहता है। सम्पन्न और विपन्न भी लोग अपनी हरकतों से ही बनते हैं। उठना और गिरना अपने हाथ की बात है। मनुष्य को अपने भाग्य का निर्माता आप कहा जाता है। यहाँ व्यक्ति का मतलब आत्मचेतना से ही समझा जाना चाहिये। वही प्रगतिशीलता का उद्गम है। इसी क्षेत्र में पतन- पराभव के विषैले बीजांकुर भी जमे होते हैं। सद्गुणी लोग अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी सुख- शान्ति का वातावरण बना लेते हैं। अन्त: चेतना से समुन्नत होने पर समूचा वातावरण, सम्पर्क क्षेत्र सुख- शान्ति से भर जाता है। इसके विपरीत जिनका मानस दोष- दुर्गुणों से भरा हुआ है, वे अच्छी भली परिस्थितियों में भी दुर्गति और अवगति का कठोर दुःख सहते हैं।
वैभव अर्जित करने के अनेक तरीके सीखे और सिखाये जाते हैं। शरीर को निरोग रखने के लिये भी व्यायामशालाओं, स्वास्थ्य केन्द्रों से लेकर अस्पतालों तक की अनेक व्यवस्थायें देखी जाती हैं। औद्योगिक, वैज्ञानिक, शैक्षणिक, शासकीय प्रबन्ध भी अनेक हैं, पर ऐसी व्यवस्थायें कम ही कहीं दीख पड़ती है, जिनसे चेतना को परिष्कृत एवं विकसित करने के लिये सार्थक, समर्थ एवं बुद्धि- संगत सर्वोपयोगी आधार बन पड़ा हो।
प्रज्ञायोग एक ऐसी ही विधा है। इसे बोलचाल की भाषा में जीवन साधना भी कहा जा सकता है। इसमें जप, ध्यान, प्राणायाम, संयम जैसे विधानों की व्यवस्था है। पर सब कुछ उतने तक ही सीमित नहीं है। उपासना में ध्यान धारणा स्तर के सभी कर्मकाण्ड आ जाते हैं। इसके साथ ही जीवन के हर क्षेत्र में मानवी गरिमा को उभारने और रुकावटें हटाने जैसे सभी पक्षों को जोड़कर रखा गया है। शरीरसंयम, समयसंयम, अर्थसंयम, विचारसंयम इस धारा के अलग न हो सकने वाले अंग हैं। दुर्गुणों के कुसंस्कारों के निराकरण पर जहाँ जोर दिया गया है, वहाँ यह भी अनिवार्य माना गया है कि अब की अपेक्षा अगले दिनों अधिक विवेकवान, चरित्रवान और पुरुषार्थ परायण बनने के लिये चिन्तन तथा अभ्यास जारी रखा जाये। वास्तव में यह समग्रता ही जीवन साधना की विशेषता है। साधक को कर्तव्य क्षेत्र में धार्मिकता, मान्यता क्षेत्र में आत्मपरायणता और अध्यात्म क्षेत्र में दूरदर्शी विवेकशीलता उत्कृष्ट आदर्शवाद को अपनाने के लिये कहा जाता है। इन सर्वतोमुखी दिशाधाराओं में समुचित जागरूकता बरतने पर ही वह लाभ मिलता है, जिसे आत्म परिष्कार के नाम से जाना जाता है। यह हर किसी के लिये सरल, सम्भव और स्वाभाविक भी है।
आत्मपरिष्कार के अन्य उपाय भी हो सकते हैं। पर जहाँ तक प्रज्ञा परिवार के प्रयोगों का सम्बन्ध है, वहाँ यह कहा जा सकता है कि वह अपेक्षाकृत अधिक सरल, तर्कसंगत और व्यवस्थित हैं। इस सन्दर्भ में अनेक अभ्यासरत अनुभवियों की साक्षी भी सम्मिलित है।
आत्मिक प्रगति का महत्त्व समझा जाना चाहिये। व्यक्ति या राष्ट्र की उन्नति उसकी सम्पदा, शिक्षा, कुशलता आदि तक ही सीमित नहीं होती। शालीनता सम्पन्न व्यक्तित्व ही वह उद्गम है जिसके आधार पर अन्यान्य प्रकार की प्रगतियाँ तथा व्यवस्थाएँ अग्रणी बनती हैं, समर्थता का केन्द्र बिन्दु यही है। इस एकाकी विभूति के बल पर किसी भी उपयोगी दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है। किन्तु यदि आत्मबल का अभाव रहा तो संकीर्ण स्वार्थपरता ही छाई रहेगी और उसके रहते कोई ऐसा प्रयोजन सध न सकेगा जिसे आदर्शवादी एवं लोकोपयोगी भी कहा जा सके। यहाँ वह उक्ति पूरी तरह फिट बैठती है, जिसमें कहा गया है कि ‘‘एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय’’
अनेक प्रकार की समृद्धियों और विशेषताओं से लदा हुआ व्यक्ति अपने कौशल के बलबूते सम्पदा बटोर सकता है। सस्ती वाहवाही भी लूट सकता है। पर जब कभी मानवी गरिमा की कसौटी पर कसा जायेगा तो वह खोटा ही सिद्ध होगा। खोटा सिक्का अपने अस्तित्व से किसी को भ्रम में डाले रह सकता है, पर उस सुनिश्चित प्रगति का अधिकारी नहीं बन सकता जिसे ‘महामानव’ के नाम से जाना जाता है। जिसके लिये सभ्य, सुसंस्कृत, सज्जन, समुन्नत जैसे शब्दों का प्रयोग होता है।
सन्त परम्परा के अनेकानेक महान ऋषियों, लोकसेवियों एवं युगनिर्माताओं से जो प्रबल पुरुषार्थ बन पड़े, उनमें आन्तरिक उत्कृष्टता ही प्रमुख कारण रही। उसी के आधार पर वे निजी जीवन में आत्मसन्तोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह की निरन्तर वर्षा होती अनुभव करते हैं। अपने व्यक्तित्व, कर्तृत्त्व के रूप में ऐसा अनुकरणीय उदाहरण पीछे वालों के लिये छोड़ जाते हैं, जिनका अनुकरण करते हुए गिरों को उठाने और उठों को उछालने जैसे अवसर हस्तगत होते रहें। यही है जीवन की लक्ष्यपूर्ति एवं एकमात्र सार्थकता। प्रज्ञायोग की जीवन साधना इसी महती प्रयोजन की पूर्ति करती है।
आत्मबल के आधार पर अन्य सभी बल हस्तगत किये जा सकते हैं। इसी के आधार पर उपलब्धियों का सदुपयोग बन पड़ता है। परिस्थितियों की प्रतिकूलता रहने पर भी उन्हें व्यक्तित्व की उत्कृष्टता के आधार पर अनुकूल बनाया जा सकता है। संसार के इतिहास में ऐसे अगणित व्यक्ति हुए हैं, जिनकी प्रारम्भिक परिस्थितियाँ गई- गुजरी थीं। निर्वाह के साधनों तक की कमी पड़ती थी, फिर प्रगति के सरंजाम जुट सकना और भी कठिन, लगभग असम्भव दीख पड़ता था। इतने पर भी वे व्यक्तित्व की प्रामाणिकता के आधार पर सभी के लिये विश्वस्त एवं आकर्षक बन गये। उनका चुम्बकत्व व्यक्तियों, साधनों और परिस्थितियों को अनुकूल बनाता चला गया और वे अपने पुरुषार्थ के साथ उस सद्भाव का तालमेल बिठाते हुए दिन- दिन ऊँचे उठते चले गये और अन्ततः: सफलता के सर्वोच्च शिखर तक जा पहुँचने में समर्थ हुए। ऐसे अवसरों पर व्यक्तित्व की उत्कृष्टता को ही श्रेय दिया जाता है। इस उपलब्धि को ही आत्मबल का चमत्कार कहते हैं।
इसके विपरीत ऐसे भी अनेकानेक प्रसंग सामने आते रहते हैं, जिसमें सभी अनुकूलताएँ रहने पर भी लोग अपनी दुर्बुद्धि के कारण दिन- दिन घटते और गिरते चले गये। पूर्वजों के कमाये धन को दुर्व्यसनों में उड़ा दिया। आलस्य और प्रमाद में ग्रसित रहकर अपनी क्षमताओं और सम्पदाओं को गलाते चले गये। कई अनाचार के मार्ग पर चल पड़े और दुर्गति भुगतने के लिये मजबूर हुए। इसमें उनके मानस की गुण, कर्म, स्वभाव की निकृष्टता ने अनेक सुविधाएँ रहते हुए भी उन्हें असुविधा भरी परिस्थितियों तक पहुँचा दिया।
चेतना की शक्ति संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। मनुष्य ही, रेल, जहाज कारखाने आदि बनाता है। विज्ञान के नित नये आविष्कार करता है। यहाँ तक कि धर्म और दर्शन, आचार और विचार भी उसी के रचे हुए हैं। ईश्वर की साकार रूप में कल्पना तथा स्थापना करना भी उसी का बुद्धि- कौशल है। इस अनगढ़ धरातल को, सुविधाओं, सुन्दरताओं, उपलब्धियों से भरापूरा बनाना भी मनुष्य का ही काम है। यहाँ मनुष्य शब्द में किसी शरीर या वैभव को नहीं समझा जाना चाहिये। विशेषताएँ चेतना के साथ जुड़ी होती हैं। इसे भी प्रयत्न पूर्वक उठाया या गिराया जा सकता है। शरीर को बलिष्ठ या दुर्बल बना लेना प्राय: मनुष्य की अपनी, रीति- नीति पर निर्भर रहता है। सम्पन्न और विपन्न भी लोग अपनी हरकतों से ही बनते हैं। उठना और गिरना अपने हाथ की बात है। मनुष्य को अपने भाग्य का निर्माता आप कहा जाता है। यहाँ व्यक्ति का मतलब आत्मचेतना से ही समझा जाना चाहिये। वही प्रगतिशीलता का उद्गम है। इसी क्षेत्र में पतन- पराभव के विषैले बीजांकुर भी जमे होते हैं। सद्गुणी लोग अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी सुख- शान्ति का वातावरण बना लेते हैं। अन्त: चेतना से समुन्नत होने पर समूचा वातावरण, सम्पर्क क्षेत्र सुख- शान्ति से भर जाता है। इसके विपरीत जिनका मानस दोष- दुर्गुणों से भरा हुआ है, वे अच्छी भली परिस्थितियों में भी दुर्गति और अवगति का कठोर दुःख सहते हैं।
वैभव अर्जित करने के अनेक तरीके सीखे और सिखाये जाते हैं। शरीर को निरोग रखने के लिये भी व्यायामशालाओं, स्वास्थ्य केन्द्रों से लेकर अस्पतालों तक की अनेक व्यवस्थायें देखी जाती हैं। औद्योगिक, वैज्ञानिक, शैक्षणिक, शासकीय प्रबन्ध भी अनेक हैं, पर ऐसी व्यवस्थायें कम ही कहीं दीख पड़ती है, जिनसे चेतना को परिष्कृत एवं विकसित करने के लिये सार्थक, समर्थ एवं बुद्धि- संगत सर्वोपयोगी आधार बन पड़ा हो।
प्रज्ञायोग एक ऐसी ही विधा है। इसे बोलचाल की भाषा में जीवन साधना भी कहा जा सकता है। इसमें जप, ध्यान, प्राणायाम, संयम जैसे विधानों की व्यवस्था है। पर सब कुछ उतने तक ही सीमित नहीं है। उपासना में ध्यान धारणा स्तर के सभी कर्मकाण्ड आ जाते हैं। इसके साथ ही जीवन के हर क्षेत्र में मानवी गरिमा को उभारने और रुकावटें हटाने जैसे सभी पक्षों को जोड़कर रखा गया है। शरीरसंयम, समयसंयम, अर्थसंयम, विचारसंयम इस धारा के अलग न हो सकने वाले अंग हैं। दुर्गुणों के कुसंस्कारों के निराकरण पर जहाँ जोर दिया गया है, वहाँ यह भी अनिवार्य माना गया है कि अब की अपेक्षा अगले दिनों अधिक विवेकवान, चरित्रवान और पुरुषार्थ परायण बनने के लिये चिन्तन तथा अभ्यास जारी रखा जाये। वास्तव में यह समग्रता ही जीवन साधना की विशेषता है। साधक को कर्तव्य क्षेत्र में धार्मिकता, मान्यता क्षेत्र में आत्मपरायणता और अध्यात्म क्षेत्र में दूरदर्शी विवेकशीलता उत्कृष्ट आदर्शवाद को अपनाने के लिये कहा जाता है। इन सर्वतोमुखी दिशाधाराओं में समुचित जागरूकता बरतने पर ही वह लाभ मिलता है, जिसे आत्म परिष्कार के नाम से जाना जाता है। यह हर किसी के लिये सरल, सम्भव और स्वाभाविक भी है।
आत्मपरिष्कार के अन्य उपाय भी हो सकते हैं। पर जहाँ तक प्रज्ञा परिवार के प्रयोगों का सम्बन्ध है, वहाँ यह कहा जा सकता है कि वह अपेक्षाकृत अधिक सरल, तर्कसंगत और व्यवस्थित हैं। इस सन्दर्भ में अनेक अभ्यासरत अनुभवियों की साक्षी भी सम्मिलित है।
आत्मिक प्रगति का महत्त्व समझा जाना चाहिये। व्यक्ति या राष्ट्र की उन्नति उसकी सम्पदा, शिक्षा, कुशलता आदि तक ही सीमित नहीं होती। शालीनता सम्पन्न व्यक्तित्व ही वह उद्गम है जिसके आधार पर अन्यान्य प्रकार की प्रगतियाँ तथा व्यवस्थाएँ अग्रणी बनती हैं, समर्थता का केन्द्र बिन्दु यही है। इस एकाकी विभूति के बल पर किसी भी उपयोगी दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है। किन्तु यदि आत्मबल का अभाव रहा तो संकीर्ण स्वार्थपरता ही छाई रहेगी और उसके रहते कोई ऐसा प्रयोजन सध न सकेगा जिसे आदर्शवादी एवं लोकोपयोगी भी कहा जा सके। यहाँ वह उक्ति पूरी तरह फिट बैठती है, जिसमें कहा गया है कि ‘‘एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय’’
अनेक प्रकार की समृद्धियों और विशेषताओं से लदा हुआ व्यक्ति अपने कौशल के बलबूते सम्पदा बटोर सकता है। सस्ती वाहवाही भी लूट सकता है। पर जब कभी मानवी गरिमा की कसौटी पर कसा जायेगा तो वह खोटा ही सिद्ध होगा। खोटा सिक्का अपने अस्तित्व से किसी को भ्रम में डाले रह सकता है, पर उस सुनिश्चित प्रगति का अधिकारी नहीं बन सकता जिसे ‘महामानव’ के नाम से जाना जाता है। जिसके लिये सभ्य, सुसंस्कृत, सज्जन, समुन्नत जैसे शब्दों का प्रयोग होता है।
सन्त परम्परा के अनेकानेक महान ऋषियों, लोकसेवियों एवं युगनिर्माताओं से जो प्रबल पुरुषार्थ बन पड़े, उनमें आन्तरिक उत्कृष्टता ही प्रमुख कारण रही। उसी के आधार पर वे निजी जीवन में आत्मसन्तोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह की निरन्तर वर्षा होती अनुभव करते हैं। अपने व्यक्तित्व, कर्तृत्त्व के रूप में ऐसा अनुकरणीय उदाहरण पीछे वालों के लिये छोड़ जाते हैं, जिनका अनुकरण करते हुए गिरों को उठाने और उठों को उछालने जैसे अवसर हस्तगत होते रहें। यही है जीवन की लक्ष्यपूर्ति एवं एकमात्र सार्थकता। प्रज्ञायोग की जीवन साधना इसी महती प्रयोजन की पूर्ति करती है।