Books - विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व
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Language: HINDI
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अन्तःचेतना से अद्भुत सुव्यवस्था
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मनुष्य शरीर ‘परमात्मा की’ अनुपम और अद्वितीय अद्भुत कलाकृति है। इस कलाकृति की संरचना का अध्ययन किया जाय तो सहज ही यह विदित हो जायेगा कि मनुष्य शरीर कितना जटिल, सुव्यवस्थित और सुनियोजित कार्यप्रणाली पर निर्भर है। इतनी जटिल संरचना और उससे भी अधिक कार्यप्रणाली बिना किसी बाहरी नियन्त्रणकर्ता नियामक के अपने आप सुचारू रूप से सम्पन्न होती रहती है। मनुष्य का स्वास्थ्य शरीर-आरोग्य, आहार, बिहार पर निर्भर करता है। स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने वाला निरोग रहता है और असंयम बरतने वाले अखाद्य खाने वाले बीमार पड़ते हैं। बीमारियों के कारण रोग कीटाणुओं के रूप में ऋतु प्रभाव या धातुओं तत्वों के हेर फेर में ढूंढ़े जाते हैं और उसी आधार पर चिकित्सा की जाती है। पर कई बार इन मान्यताओं को झुठलाते हुए ऐसे कारण उपस्थित हो जाते हैं कि अप्रत्याशित रूप से शरीर के किन्हीं अवयवों का या प्रवृत्तियों का यकायक घटना बढ़ना शुरू हो जाता है। कारण ढूंढ़ते हैं तो समझ में नहीं आता, अंधेरे में ढेला फेंकने की तरह कुछ उपचार किया जाता है तो उसका कुछ परिणाम नहीं निकलता।
ऐसी परिस्थितियां प्रायः हारमोन ग्रन्थियों में गड़बड़ी आजाने के कारण उत्पन्न होती हैं। शरीर के सामान्य अवयवों की संरचना और उनकी कार्यपद्धति का ज्ञान धीरे-धीरे बढ़ता आया है इसलिये रोगों के कारण और निवारण के सम्बन्ध में काफी प्रगति भी हुई है। पर यह अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की आश्चर्यचकित करने वाली हरकतें जब से सामने आई हैं तब से चिकित्सा विज्ञानी स्तब्ध रह गये हैं, प्रत्यक्षतः शरीरगत क्रिया-कलाप से इनका कोई सीधा उपयोग नहीं है। वे किसी महत्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति नहीं करतीं चुपचाप एक कोने में पड़ी रहती हैं और वहीं से तनिक सा स्राव बहा देती हैं। वह स्राव भी पाचन अंगों द्वारा नहीं सीधा रक्त से जा मिलता है और अपना जादू जैसा प्रभाव छोड़ता है।
हारमोन, शरीर और मन पर कितने ही प्रकार के प्रभाव डालते और परिवर्तन करते हैं। उनमें से एक परिवर्तन कामवासना का मानसिक जागरण और यौन अंगों की प्रजनन क्षमता भी सम्मिलित है।
छोटी उम्र में लड़की और लड़के लगभग एक जैसे लगते हैं। कपड़ों से, बालों से उनकी भिन्नता पहचानी जा सकती है अन्यथा वे साथ-साथ हंसते, खेलते, खाते हैं कोई विशेष अन्तर दिखाई नहीं पड़ता पर जब बारह वर्ष की आयु ऊपर उठती है तो दोनों में काफी अन्तर अनायास की उत्पन्न होने लगता है। लड़के की आवाज भारी होने लगती है। होठों के बाल काले होने लगते हैं और कोमल अंग कठोर होने लगते हैं। लड़कियां शरमाने लगती हैं उनके कुछ अंगों में उभार आने लगता है और नये किस्म की इच्छायें तथा कल्पनायें मन में घुमड़ने लगती हैं।
यह ‘हारमोन’ स्रावों की करतूत है। वे समय-समय पर ऐसे उठते जगते हैं मानो किसी घड़ी में अलार्म लगा कर रख दिया हो अथवा टाइम बम को समय के कांटे के साथ फिट करके रखा हो। यौवन उभार के सम्बन्ध में इन्हीं के द्वारा सारा खेल रचा जाता है। अन्य सारा शरीर अपने ढंग से ठीक काम करता रहे पर यदि इन हारमोन ग्रन्थियों का स्राव न्यून हो तो यौवन अंग ही विकसित न होंगे और यदि किसी प्रकार विकसित हो भी जांय तो उसमें वासना का उभार नहीं होगा, न कामेच्छा जागृत होगी, न उस क्रिया में रुचि होगी। सन्तानोत्पादन तो होगा ही कैसे?
साधारण कामोत्तेजना का प्रसंग 15-16 वर्ष की आयु से आरम्भ होकर 60 वर्ष पर जाकर लगभग समाप्त हो जाता है। स्त्रियों का मानसिक धर्म बन्द हो जाने पर लगभग पचास वर्ष की आयु में उसकी वासनात्मक शारीरिक क्षमता और मानसिक आकांक्षा दोनों की समाप्त हो जाती हैं। इसी प्रकार 60 वर्ष पर पहुंचते-पहुंचते पुरुष की इन्द्रियां एवं आकांक्षायें भी शिथिल और समाप्त हो जाती हैं। यह सामान्य क्रम है। पर कई बार हारमोनों की प्रबलता इस सन्दर्भ में आश्चर्यजनक अपवाद प्रस्तुत करती है। बहुत छोटी आयु के बच्चे भी न केवल पूर्ण मैथुन में वरन् सफल प्रजनन में भी समर्थ देखे गये हैं। उसी प्रकार शताधिक आयु हो जाने पर भी वृद्ध व्यक्तियों में इस प्रकार की युवावस्था जैसी परिपूर्ण क्षमता पाई गई है।
लिंग भेद से सम्बन्धित हारमोनों में गड़बड़ी पड़ जाय तो नारी की मूंछें निकल सकती हैं। पुरुष बिन मूंछ का हो सकता है तथा दोनों की प्रवृत्तियां भिन्न लिंग जैसी हो सकती हैं। नारी पुरुष की तरह कठोर व्यवहार करने वाली और नर, जनखों जैसी स्त्री स्वभाव का हो सकता है। यौन आकांक्षायें भी विपरीत वर्ग जैसी हो सकती हैं। इतना ही नहीं कई बार तो इन हारमोनों का उत्पात ऐसा हो सकता है कि प्रजनन अंगों की बनावट ही बदल जाय। ऐसे अनेक आपरेशनों के समाचार समय-समय पर सुनने को मिलते रहते हैं जिनमें नर से नारी की और नारी से नर की जननेन्द्रियों का विकास हुआ और फिर शल्य क्रिया द्वारा उसे तब तक के जीवन की अपेक्षा भिन्न लिंग का घोषित किया गया। इसी नई परिस्थिति के अनुसार उनने साथी ढूंढ़े विवाह किये और गृहस्थ बनाये।
हिप्पोक्रेटस् ने इस तरह की विपरीत वर्गीय कुछ घटनायें देखी थी और उनका कारण समझने का प्रयत्न किया था। चिकित्सक प्लिनी ने एक ऐसे सात वर्ष के लड़के का वर्णन लिखा है जो लैंगिक दृष्टि से पूर्ण विकसित हो गया था।
8 जनवरी सन् 1910 को दो चीनी बच्चों ने सामान्य बालकों को जन्म दिया। जिसमें माता की उम्र 8 वर्ष और पिता की 9 वर्ष की थी। संसार में यह सबसे छोटे माता पिता हैं। अमोय फूकेन प्रान्त का यह कृषक परिवार ‘साद’ नाम से पुकारा जाता है। इस परिवार में ऐसे ही बाल प्रजनन के और भी उदाहरण हैं।
कलावार (अफ्रीका) में भी कुछ समय पूर्व ऐसी ही घटना घटित हुई थी। वहां एक्क्री नामक एक नीग्रो की आठ वर्षीय पत्नी ने आठ वर्ष में चार मास की आयु में ही प्रसव किया और एक बालिका को जन्म दिया, आश्चर्य यह और देखिये कि वह बच्ची भी अपनी मां की तरह आठ वर्ष की आयु में ही मां बन गई। इस प्रकार उमजी को 17 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते दादी बनने का अवसर प्राप्त हो गया।
सूडान में अभी इसी वर्ष एक नौ वर्ष की लड़की मां बनी है उसका पति 10 वर्ष का है। यह समाचार कुछ ही दिन पूर्व प्रायः सभी समाचार पत्रों में छपा था।
जोरा आगा नामक टर्की के एक दीर्घजीवी वृद्ध पुरुष की आयु 1927 में 153 वर्ष की थी। उस समय उसने अपना ग्यारहवां विवाह किया था। उससे पूर्व 10 स्त्रियों और 27 बच्चों को वह अपने हाथों कब्र में सुला चुका था। उसके जीवित बच्चे 70 से ऊपर थे।
लिंग परिवर्तन की घटनाओं की यही होता है। मनुष्य की आकांक्षायें और अभिरुचियां जिधर गतिशील होती हैं उसी तरह की लिंग मनोभूमि बनती चली जाती है। कोई नारी यदि नर के प्रति अत्यधिक आसक्त होती है, उसी के सान्निध्य एवं चिन्तन में निरत रहती है तो उसका अन्तःकरण उसी ढांचे में ढलता और तादात्म्य होता चला जाएगा। कालान्तर में वह आकांक्षा उसे स्वयं नर के रूप में परिणत कर सकती है। इसी प्रकार कोई नर यदि नारी के चिन्तन और सान्निध्य में अतिशय रुचि लेता है तो उसकी चेतना नारी वर्ग में परिणत होने लगेगी और वह उस प्रवृत्ति की तीव्रता के अनुरूप देर में या जल्दी लिंग परिवर्तन कर लेगा। इसमें एकाध जन्म की देरी भी हो सकती है। लिंग परिवर्तन की ऐसी घटनाओं में जिनमें नारी नर के रूप में या नर नारी के रूप में परिणत किये गये, उनमें शारीरिक या मानसिक कारण नहीं होते वरन् अन्तःचेतना का गहन स्तर—कारण शरीर ही इस प्रकार की पृष्ठभूमि विनिर्मित करता है। नपुंसक वर्ग भी ऐसी ही स्थिति है। इसे परिवर्तन का मध्य स्थल कह सकते हैं।
समलिंगी आकर्षक से लेकर सहवास तक ही अनेक घटनायें देखने सुनने में आती रहती हैं। इसमें भी वह अतृप्त आन्तरिक आकांक्षा ही उभरती है। दो नारी यदि नर रूप में विकसित हो रही होंगी तो उनमें नर के प्रति आकर्षण की विद्यमान मात्रा स्त्री रति की अपेक्षा पुरुष रति में रस एवं तृप्ति अनुभव करेगी और उनमें परस्पर घनिष्ठता बढ़ती जायेगी। इसी प्रकार दो नर यदि नारी रूप में विकसित हुए हैं तो उनका पूर्वाभ्यास नारी के प्रति आकर्षण बनाये रहेगा और वे दो नारियां परस्पर मिलन का अधिक आनन्द अनुभव करेंगी। यह विपर्यय दोनों कारणों से हो सकता है। विकसित होती हुई आकांक्षा भी अपनी अतृप्ति का समाधान कर सकती है। इसी प्रकार विकास आगे चल पड़ा है। शरीर बदल गये हैं पर पूर्व मनोवृत्ति से भिन्न लिंग के संस्कार अभी भी प्रबल हैं तो वे भी बार-बार वैसी ही उमंगें उठाकर समलिंगी सम्पर्क में अधिक आकर्षण अनुभव कर सकते हैं।
गत वर्ष यूरोप में ऐसे विवाहों को अदालत द्वारा भी मान्यता मिल चुकी है जिनमें पति-पत्नी दोनों या तो नर ही थे या नारी ही नारी। यों ऐसे प्रसंग निजी और अप्रकट रूप से चलते तो रहते हैं पर पिछली न्यायिक परम्परायें तोड़कर जिन्हें कानूनी मान्यता मिली हो ऐसे विवाह गत वर्ष ही सर्व साधारण के सामने आये हैं।
काम-वासना को ही लें पुराने जमाने में भस्में तथा रसायनें खिलाकर मृत या स्वल्प कामेच्छा को पुनर्जागृत करने का प्रयत्न किया जाता था। वह प्रयास भी नशे से उत्पन्न क्षणिक उत्तेजना जैसा ही सिद्ध हुआ। जब से हारमोन प्रक्रिया का ज्ञान हुआ है तब से यौन ग्रन्थियों के रसों को पहुंचाने से लेकर बन्दर एवं कुत्ते की ग्रन्थियों का आरोपण करने तक का क्रम बराबर चल रहा है। आरम्भ में उससे तत्काल लाभ दिखता है पर वह बाहर का आरोपण देर तक नहीं ठहरता। भयंकर आपरेशनों के समय रोगी को अन्य व्यक्ति का रक्त दिया जाता है। वह शरीर में 3-4 दिन से अधिक नहीं ठहरता। शरीर यदि नया रक्त स्वयं बनाने लगे तो ही फिर आगे की गाड़ी चलती है। इसी प्रकार आरोपित स्राव अथवा रस ग्रन्थियां तत्काल ही लाभ दिखावेंगी यदि उस उत्तेजना से अपनी ग्रन्थियां जागृत होकर स्वतः काम करने लगें तो ही कुछ काम चलेगा अन्यथा वह बाहरी आरोपण की फुलझड़ी थोड़ी देर चमक दिखाकर बुझ जायेगी। अब तक के बाहरी आरोपण के सारे प्रयास निष्फल हो गये हैं। कुछ सप्ताह का चमत्कार देख लेने के अतिरिक्त उनसे कोई प्रयोजन सिद्ध न हुआ।
सन् 1879 में एक वृद्ध डॉक्टर ब्राउन सेक्वार्ड ने घोषणा की कि उसने कुत्ते का वृषण रस अपने शरीर में पहुंचाकर पुनः यौवन प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करली है। 72 वर्षीय इस डॉक्टर की ओर अनेक चिकित्सा शास्त्रियों का ध्यान आकर्षित हुआ और उन्होंने उसकी घोषणा को सच पाया, लेकिन यह सफलता स्थिर न रह सकी वे कुछ ही दिन बाद पुनः पुरानी स्थिति में आ गये।
इंग्लैण्ड के डॉक्टर मूरे ने थामरेक्सिन का प्रयोग एक थायरायड विकारग्रस्त रोगिणी पर किया। दवा का असर बहुत थोड़े समय तक रहता था। कुछ वर्ष जीवित रखने के लिए एक-एक करके 870 भेड़ों की ग्रन्थियां निचोड़ कर उसे आये दिन लगानी पड़ती थी। इस पर धक्का-मुक्की करके ही उसकी गाड़ी कुछ दिन और आगे धकेली जा सकी। शरीर शास्त्रियों ने इस अद्भुत निरंकुश को ढूंढ़ने का प्रयत्न किया तो उनकी पकड़ में अन्तःस्रावी ग्रन्थियां आ गईं। इनमें कुछ प्रधान हैं, कई उपप्रधान हैं। इनमें तनिक-तनिक से रस स्रवित होते रहते हैं वे रेंग कर रक्त में जा मिलते हैं जिन्हें हारमोन कहते हैं। इनके भी कई भेद-उपभेद ढूंढ़े गये हैं। इतना सब होते हुए भी यह आश्चर्य का विषय है कि इनमें आखिर ऐसा क्या जादू है जो शरीर की सामान्य व्यवस्था में इतनी भयानक उलट-पुलट वे करके रख देते हैं। स्वास्थ्य के साधारण नियमोपनियम एक ओर और इनकी मनमानी एक ओर, तथा इस रस्साकशी में सामान्य व्यवस्था लड़खड़ा जाती है और इन हारमोनों की मनमानी जीतती है। इन स्रावों का रासायनिक विश्लेषण करने पर वे सामान्य स्तर के ही सिद्ध होते हैं उनमें कुछ ऐसी अनहोनी मिश्रित नहीं दीखती जिससे ऐसे उथल-पुथल भरे परिणाम होने चाहिए। पर चाहिए को ताक पर रख कर जब ‘होता’ है, सामने आता है, तो बुद्धि चकरा जाती है और इस अन्धाधुन्धी में हाथ पर हाथ डाल कर बैठना पड़ता है।
जहां तक खोज का विषय है उन अन्तः स्राव ग्रन्थियों का— उनसे प्रवाहित होने वाले रसों का स्वरूप समझ लिया गया है और उनका रासायनिक विश्लेषण कर लिया गया है। पर उनकी असाधारण महत्ता और असाधारण हरकत का कुछ कारण नहीं जाना जा सका। इतना ही नहीं उनके नियन्त्रण का भी कोई उपाय हाथ नहीं लगा है। यह मोटा और भोंड़ा तरीका है कि उसी स्तर के रसायन बाहर से पहुंचा कर उन स्रावों की कमी-वेशी के परिणामों को रोकने का प्रयत्न किया जाय। इतना ही बन पड़ा है सो किया भी गया है। अन्य जीवों से प्राप्त करके—अथवा रासायनिक पद्धति से विनिर्मित करे उन रसों को व्यक्ति के शरीर में पहुंचा कर यह प्रयत्न किया जाता है कि विकृतियों का नियन्त्रण किया जाय, उसका लाभ होता तो हैं पर रहता क्षणिक ही है। भीतर का उपार्जन बन्द हो जाय तो बाहर से पहुंचाई मदद कब तक काम देगी। इसी प्रकार जमीन फोड़ कर स्रोत निकल रहा हो तो उसे एक जगह से बन्द करने पर दूसरे छेद से फूटेगा। यह तो तात्कालिक या क्षणिक उपचार हुआ। बात तब बनती है जब उत्पादन के केन्द्र स्वतः ही अपने स्रावों को घटा या बढ़ा लें। उपचार का उद्देश्य तो शरीर शास्त्रियों के सारे प्रयत्न अब तक निष्फल ही रहे हैं; और आगे भी इनकी अद्भुत संरचना और कार्य पद्धति को देखते हुए कुछ अधिक आशा नहीं बंधती।
ओछी भावनाएं अन्तरात्मा में जमी हों और छोटा बनाने वालों पर बड़प्पन के संस्कार जम जायें तो शरीर को ही नहीं मस्तिष्क को भी बड़ा बनाने वाले हारमोन उत्पन्न होंगे। इन्द्रिय भोगों में आसक्त अन्तःभूमिका अपनी तृप्ति के लिए कामोत्तेजक अन्तःस्रावों की मात्रा बढ़ाती है। विवेक जागृत हो और विषय भोगों की निरर्थकता एवं उनकी हानियों को गहराई से समझ लिया जाय तो इन हारमोनों का प्रभाव सहज ही कुण्ठित हो जाता है। इसी प्रकार वियोग, विश्वासघात, अपमान जैसे आघात अन्तःकरण की गहराई तक चोट पहुंचा दें तो युवावस्था में भी भले चंगे हारमोन स्रोत सूख सकते हैं इसके विपरीत यदि रसिकता की लहरें लहराती रहें तो वृद्धावस्था में भी वे यथावत् गतिशील रह सकते हैं। जन्मान्तरों की रसानुभूति बाल्यावस्था में ही प्रबल होकर उस स्तर की उत्तेजना समय से पूर्व ही उत्पन्न कर सकती है।
काम क्रीड़ा शरीर द्वारा होती है, कामेच्छा मन में उत्पन्न होती है। पर इन हारमोनों की जटिल प्रक्रिया न शरीर से प्रभावित होती है और न मन से। उसका सीधा सम्बन्ध मनुष्य की अन्तःचेतना से है, इसे आत्मिक स्तर कह सकते हैं। जीवात्मा में जमे काम बीज जिस स्तर के होते हैं तदनुरूप शरीर और मन का ढांचा ढलता और बनता बिगड़ता है। हारमोनों को भी प्रेरणा उत्तेजना वहीं से मिलती है।
धान के दाने की बराबर धूसर रंग की इस छोटी-सी ग्रन्थि में आश्चर्य ही आश्चर्य भरे पड़े हैं। जिन चूहों में दूसरे चूहों की पीनियल ग्रन्थि का रस भरा गया वे साधारण समय की अपेक्षा आधे दिनों में ही यौन रूप में विकसित हो गये और जल्दी बच्चे पैदा करने लगे। समय से पूर्व उनके अन्य अंग भी विकसित हो गये पर इस विकास में जल्दी भर रही, मजबूती नहीं आयी। काम दहन की शिवजी की कथा की इन हारमोन से संगति अवश्य बैठती है पर अन्तःकरण का रुझान जिस स्तर का होगा शरीर और मन को ढालने के लिये हारमोनों का प्रवाह उसी दिशा में बहने लगेगा।
हारमोन ग्रन्थियों के चमत्कार
इन ग्रन्थियों की कार्य प्रणाली को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि प्रकृति ने इनका निर्माण उद्देश्यपूर्ण प्रयोजन से किया है तथा ये उसी परम्परा को कुशलतापूर्वक निवाह भी रही हैं, छोटी सी आकार में गेहूं के दाने के बराबर वाली इन ग्रन्थियों का अपना निजी स्वार्थ लाभ क्या हो सकता है? वस्तुतः ये प्रकृति व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में सामर्थ्य भर योगदान देने के उद्देश्य से ही सक्रिय रहती दिखाई देती हैं।
इन ग्रन्थियों की हल-चल, शरीर संस्थान में उनकी भूमिका पर अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया है। अवयवों की प्रत्यक्ष हलचलें ही शरीर विज्ञान की शोध का विषय रही हैं। अब तक जो शोधें हुई हैं उनमें यह प्रत्यक्ष ही मूलभूत आधार है। इसलिए समझा जाता है कि पंच तत्वों से बना हुआ है यह काया मात्र ही शरीर है। लेकिन शरीर-गत अनेक सन्दर्भ ऐसे हैं जिन पर रहस्य का पर्दा ही पड़ा हुआ है।
स्थूल शरीर पर सूक्ष्म-सत्ता का नियन्त्रण हमें इन्हीं हलचलों के पीछे झांकता हुआ दीखता है। अन्तःस्रावी ग्रन्थियां—वंशानुक्रम प्रक्रिया—भ्रूणावस्था में जीव का अत्यन्तिक उग्र विकास क्रम, जीवकोषों की अद्भुत क्षमता अचेतन मन की रहस्यमय गतिविधियां भाव सम्वेदना से उत्पन्न अदम्य प्रेरणा, अतीन्द्रिय अनुभूतियां, जीवाणुओं की स्वसंचालित जीवन पद्धति, प्रभावशाली तेजोवलय जैसे अनेकानेक सन्दर्भ ऐसे हैं जिनका शरीर की सामान्य संरचना के साथ कोई ताल-मेल नहीं बैठता। रासायनिक पदार्थों के अपने गुण, धर्म होते हैं। सम्मिश्रण से उनमें भिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं भी होती हैं किन्तु ऐसे रहस्य उत्पन्न नहीं होते जैसे कि अनबूझ पहेलियों के रूप में सामने आते रहते हैं। इनके भौतिक समाधान अभी तक नहीं मिले हैं और न भविष्य में मिलने की सम्भावना है। इनके कारण हमें सूक्ष्म शरीर में ही खोजने होंगे। अन्नमय कोश का वर्णन अपेक्षाकृत सूक्ष्म संस्थानों के अन्तर्गत आता है। इसमें रासायनिक हलचलों की उत्पन्न क्रिया-प्रक्रिया स्थूल शरीर के क्षेत्र में आती है। शरीर-शास्त्रियों की खोज बीन यहीं तक सीमित है। स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए, चिकित्सा उपचार के लिए जो क्रिया-कलाप चलते हैं; उन्हें भौतिक क्षेत्र की मर्यादा माना गया है। ऐसे अद्भुत रहस्य जिनका ताल-मेल रासायनिक हलचलों से नहीं बैठता, उन्हें सूक्ष्म शरीर की शक्ति सत्ता का प्रभाव कहा जा सकता है। यह क्षेत्र अत्यन्त सुविस्तृत है। उसका थोड़ा-सा परिचय जिन प्रत्यक्ष प्रमाणों के आधार पर प्राप्त हो सकता है, उनमें अन्तःस्रावी हारमोन ग्रन्थियों की भी गणना की जा सकती है। उनसे निकलने वाले राई-रत्ती स्राव शरीर में कितनी अद्भुत गतिविधियां सम्पन्न करते हैं; उन्हें देख कर चकित रह जाना पड़ता है।
शरीर-विज्ञान की अन्तरंग शोधों से यह स्पष्ट हो गया है कि हृदय, आमाशय, आंख, कान, त्वचा आदि तो यन्त्र हैं। इन यन्त्रों के संचालक सूक्ष्म अवयव अन्य ही होते हैं और उन संचालक तत्वों या अवयवों के स्वरूप पर ही हमारे स्वास्थ्य का बहुत कुछ आधार निर्भर रहता है। इन सूक्ष्म अवयवों में हारमोनों का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। उनकी सक्रियता-निष्क्रियता का हमारी शारीरिक एवं मानसिक स्थितियों पर भारी प्रभाव पड़ता है। शरीर की आकृति कैसी भी हो, उसकी प्रकृति का निर्माण तो मुख्यतः इन हारमोन रसों से ही प्रभावित होता है। यद्यपि आकृति पर भी इन जीवनरस-स्रावों का प्रभाव पड़ता ही है। कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि विशेष मनःस्थिति के कारण किन्हीं युवतियों का रूप लावण्य तब तक बना रहा, जिस आयु में सामान्य रूप से शरीर पर वृद्धता के चिह्न उभर आते हैं। उनके बने रहने का रहस्य-सूत्र भी निश्चय ही इन हारमोनों-स्रावों में छिपा हुआ माना जाता है। यद्यपि औषधि विद्या और शल्य प्रक्रिया की पहुंच अभी वहां तक नहीं हो पाई है, पर उनके स्वरूप की कुछ-कुछ जानकारी तो आधुनिक शरीरशास्त्र को हो ही गई है।
हारमोन स्रावों के विशेष अनुसन्धानकर्त्ता डॉ. क्रुकशेक ने इन स्रावों की आधार ग्रन्थियों को ‘जादुई ग्रन्थियां’ कहा है और बताया है कि व्यक्ति की वास्तविक स्थिति को जानने के लिए इन स्रावों के सन्तुलन और क्रियाकलाप का परीक्षण करके ही यह जाना जा सकता है कि उसका स्तर एवं व्यक्तित्व सचमुच क्या है?
हारमोन वे रासायनिक तत्व या रहस्यमय जीवन रस हैं, जो अन्तःस्रावी ग्रन्थियों द्वारा स्रवित होते हैं।
ग्रन्थियां दो प्रकार की होती हैं— (1) बहिर्स्रावी ग्रन्थियां या प्रणाली युक्त ग्रन्थियां (डक्ट या एक्सटेरो ग्लैण्डस) (2) अन्तःस्रावी या प्रणाली विहीन ग्रन्थियां (इनडोक्राइन या डक्टलस ग्लैंड्स)
(1) बहिर्स्रावी ग्रन्थियां— इन ग्रन्थियों में प्रत्येक के साथ एक नलिका मिली होती है। नलिका द्वारा ग्रन्थियों का रस स्राव शरीर के रक्त-प्रवाह में न मिलकर शरीर की ऊपरी सतह पर चला जाता है। इन रसों के द्वारा शरीर की अनेक जरूरतें पूरी की जाती हैं। प्रमुख बहिर्स्रावी ग्रन्थियां तीन हैं— (1) अश्रु ग्रन्थियां (टियर ग्लैण्डस) (2) प्रस्वेद ग्रन्थियां (स्वीटग्लैण्ड्स) (3) लार ग्रन्थियां (सेलिह्वरी ग्लैण्ड्स)
(2) अन्तःस्रावी ग्रन्थियां— इन दोनों क्रोमोसोम्स तथा वंशानुक्रम की चर्चायें बहुत व्यापक रूप से उठा करती हैं। इन प्रक्रियाओं के मूल में अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के स्राव कुछ विशिष्ट हारमोन्स ही हैं। अब तक की शोधों के आधार पर अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के 8 केन्द्र माने जाते हैं। यह शरीर के विभिन्न अंगों में अवस्थित हैं। जैसे— सिर में (1) पीनियल बाड़ी (2) पिट्यूटरी ग्लैण्ड हैं। गले में (3) पैराथाइराइड और (4) थाइराइड ग्लैण्ड होते हैं। वक्षस्थल के ऊपरी भाग में (5) थाइमस ग्लैण्ड स्थित हैं। उदर प्रदेश में (6) एड्रीनल ग्लैण्ड्स और (7) पैंक्रियाज ग्रन्थियां हैं। पेडू क्षेत्र में (8) गोनड्स ग्रन्थियों का स्थान है।
इन ग्रन्थियों की अद्भुत क्षमता के सम्बन्ध में अभी वैज्ञानिकों को पूरी जानकारी नहीं है। उनके बारे में सांकेतिक जानकारी ही प्राप्त हो सकी हैं। फिर भी यह विश्वास किया जाता है कि यदि इनके प्रभाव को जाना और नियन्त्रित किया जा सके तो मनुष्य अपने अन्दर आश्चर्य जनक परिवर्तन ला सकता है।
उदाहरण के लिए गौनड्स ग्रन्थियों को ही लिया जाय ये कामवासना सम्बन्धी ग्रन्थियां होती हैं। इन्हें हम प्रजनन ग्रन्थियां भी कह सकते हैं। पुरुष की प्रजनन ग्रन्थियां शुक्र ग्रन्थियां या वृषण तथा स्त्रियों की प्रजनन ग्रन्थियां, डिम्बग्रन्थियां या अण्डाशय कहलाती हैं पुरुष सेक्स हारमोन्स की उत्पादिका वृषण—ग्रन्थि नर में होती है। उसी से उसका पुरुषत्व जगता है। पुरुष आकृति को नारी से भिन्न करने वाले दाढ़ी-मूंछ आदि लक्षण प्रकट होते हैं। नारी में डिम्बग्रन्थियां गर्भाशय के दोनों छोरों पर होती हैं। इन स्त्री-गोनड्स से अनेक स्राव निकलते हैं। जिनमें मुख्य हैं दो—(1) एस्ट्रोजेन्स (2) प्रोजेस्ट्रोन।
शारीरिक विकास की दृष्टि से ये स्राव अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। स्त्रियोचति, कोमलता तथा गर्भ धारण की क्षमता इन्हीं स्रावों से सम्बन्धित है। लिंग परिवर्तन की जो घटनाएं घटित होती रहती हैं वह इसी ग्रन्थि के स्रावों की उल्टी-पुल्टी के परिणाम स्वरूप होती हैं।
गोनड्स (जनन ग्रन्थियां) जननेन्द्रिय हलचलों की क्षमता को तथा प्रजनन-शक्ति को नियन्त्रित करती है। पुरुष यौवन और नारी यौवन का—विशेषतया प्रजनन सम्बन्धी यौवन का इसी ग्रन्थि से सम्बन्ध रहता है। वृद्धावस्था में आमतौर से शरीर बहुत शिथिल हो जाता है और इन्द्रियां जवाब दे जाती है। फिर भी कई बार यह आश्चर्य देखा गया है कि शताधिक आयु वाले व्यक्ति भी नवयुवकों की तरह प्रजनन क्रिया सफलतापूर्वक सम्पन्न करते रहते हैं। यह गोनड्स ग्रन्थियों के सशक्त बने रहने और समुचित यौन-हारमोन्स स्रवित होते रहने का ही परिणाम है।
मनःशास्त्री एडलर ने काम-प्रवृत्ति की शोध करते हुए पाया कि बाहर से अतीव सुन्दर, आकर्षक और कमनीय दिखाई देने वाली अनेक महिलाएं काम-शक्ति से सर्वथा रहित हैं। उनमें न तो रमणी-प्रवृत्ति थी, न नारी सुलभ उमंग। खोज करने पर ज्ञात हुआ कि यौन-हारमोन्स के स्रोत ही इन विशेषताओं का आधार हैं।
एडलर ने अपनी खोज के दौरान देखा कि कितने ही युवकों की शारीरिक स्थिति सामान्य भी, ऊपर से उनमें मर्दानगी भरी ही दिखाई देती थी, पर थे वे वस्तुतः नपुंसक। न तो उनके मन में काम उमंग थी, न जननेन्द्रिय में उत्तेजना। कारण तलाश करने पर उनमें सेक्स-हारमोनों का अभाव पाया गया। इसके विपरीत उन्हें ऐसे नर-नारी भी मिले जो अल्पवयस्क अथवा वयोवृद्ध होते हुए भी काम-पीड़ित रहते थे।
अन्तःस्रावी ग्रन्थियों और उनसे उत्पन्न हारमोनों के आश्चर्य जनक प्रभाव के ढेरों प्रमाण अध्ययनकत्ताओं को मिले हैं। बीथोवेन जैसे बहरे का प्रखर संगीतज्ञ बनना, डीमास्थनीज जैसे हकलाने वाले का धुरन्धर वक्ता हो सकना, डैनियलबोर्न जैसे मन्द दृष्टि का-सुन्दर दृश्यों का अंकन करने वाला कुशल चित्रकार बन पाना इन्हीं हारमोनों के स्राव की मात्रा पर निर्भर रहा है।
‘एस्ट्रालॉजिकल कोरिलेशन्स विथ द डक्टलैस ग्लैण्ड्स नामक ग्रन्थ में अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की चर्चा आन्तरिक ग्रहों के रूप में की गई है। जिस प्रकार सौर-मंडल के विविध ग्रह परस्पर सन्तुलन स्थिति बनाये हैं, वैसे ही ये अन्तःस्रावी ग्रन्थियां शारीरिक, मानसिक सन्तुलन साधे रहती हैं।
इस तुलना-क्रम में सूर्य की पैनियलबॉडी से, चन्द्र की पिच्यूटरी से, मंगल की पैराथाइराइड से, बुद्ध की थोइराइड से, बृहस्पति की एड्रीनकल से तथा शुक्र की थाइमस से तुलना की गई है ‘‘ऑकल्ट एनाटॉमी’’ के लेखक ने इन ग्रन्थियों का उल्लेख ‘‘ईथर सेन्टरर्स’’ के रूप में किया है कि अविज्ञात चेतना केन्द्रों से इन ग्रन्थियों के माध्यम से मनुष्य को कुछ असाधारण अनुदान मिलता रहता है।
उपरोक्त कथनानुसार अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का सम्बन्ध ब्रह्माण्ड चेतना से—सूक्ष्म जगत से बनता है। वे विश्व शक्तियों के साथ आदान-प्रदान का काम करती हैं। शरीर-शास्त्र के अनुसार उनका प्रभाव काय-कलेवर के अन्तर्गत शरीर और मस्तिष्क को प्रभावित करता है। इसका अर्थ हुआ कि यह ग्रन्थियां भीतर और बाहर दोनों ही क्षेत्रों में अपना प्रभाव छोड़ती हैं। उनका प्रभाव व्यक्तित्व की विविध-विधि क्षमताएं उभारने में असाधारण रूप से होता है। यद्यपि इन ग्रन्थियों को नियन्त्रण से बाहर माना जाता है और समझा जाता है कि इनकी प्रकृति एवं क्रिया-पद्धति बदलना अपने हाथ की बात नहीं है। किन्तु ऐसा है नहीं।
साधना विज्ञान का गहन अध्ययन किया जाय तो यह प्रतीत होता है कि भारतीय मनीषियों द्वारा साधना, तप, आत्मिक विकास के लिये अपनाये जाने वाले विविध उपचार इन ग्रन्थियों की स्थिति बदलने में पूर्णता सफल और सक्षम रहे हैं। सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करने वाले साधनात्मक प्रयत्नों से इन ग्रन्थियों की स्थिति बदली जा सकती है और अनावश्यक हारमोनों का उत्पादन घटाकर जो उपयोगी हैं उन्हें बढ़ाया जा सकता है।
जो भी अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की स्वनियोजित कार्यप्रणाली इस बात का प्रतीक तो है ही कि वे नियम व्यवस्था के अनुसार काम करती हैं, जब किस हारमोन की आवश्यकता पड़ती है उसका सृजन कर अपना कर्तव्य निबाहती है। सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव इकाइयों में भी इतनी व्यवस्था और नियमबद्धता है, वह उसे संचालित करने वाली चेतन सत्ता का प्रमाण तो है ही।
ऐसी परिस्थितियां प्रायः हारमोन ग्रन्थियों में गड़बड़ी आजाने के कारण उत्पन्न होती हैं। शरीर के सामान्य अवयवों की संरचना और उनकी कार्यपद्धति का ज्ञान धीरे-धीरे बढ़ता आया है इसलिये रोगों के कारण और निवारण के सम्बन्ध में काफी प्रगति भी हुई है। पर यह अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की आश्चर्यचकित करने वाली हरकतें जब से सामने आई हैं तब से चिकित्सा विज्ञानी स्तब्ध रह गये हैं, प्रत्यक्षतः शरीरगत क्रिया-कलाप से इनका कोई सीधा उपयोग नहीं है। वे किसी महत्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति नहीं करतीं चुपचाप एक कोने में पड़ी रहती हैं और वहीं से तनिक सा स्राव बहा देती हैं। वह स्राव भी पाचन अंगों द्वारा नहीं सीधा रक्त से जा मिलता है और अपना जादू जैसा प्रभाव छोड़ता है।
हारमोन, शरीर और मन पर कितने ही प्रकार के प्रभाव डालते और परिवर्तन करते हैं। उनमें से एक परिवर्तन कामवासना का मानसिक जागरण और यौन अंगों की प्रजनन क्षमता भी सम्मिलित है।
छोटी उम्र में लड़की और लड़के लगभग एक जैसे लगते हैं। कपड़ों से, बालों से उनकी भिन्नता पहचानी जा सकती है अन्यथा वे साथ-साथ हंसते, खेलते, खाते हैं कोई विशेष अन्तर दिखाई नहीं पड़ता पर जब बारह वर्ष की आयु ऊपर उठती है तो दोनों में काफी अन्तर अनायास की उत्पन्न होने लगता है। लड़के की आवाज भारी होने लगती है। होठों के बाल काले होने लगते हैं और कोमल अंग कठोर होने लगते हैं। लड़कियां शरमाने लगती हैं उनके कुछ अंगों में उभार आने लगता है और नये किस्म की इच्छायें तथा कल्पनायें मन में घुमड़ने लगती हैं।
यह ‘हारमोन’ स्रावों की करतूत है। वे समय-समय पर ऐसे उठते जगते हैं मानो किसी घड़ी में अलार्म लगा कर रख दिया हो अथवा टाइम बम को समय के कांटे के साथ फिट करके रखा हो। यौवन उभार के सम्बन्ध में इन्हीं के द्वारा सारा खेल रचा जाता है। अन्य सारा शरीर अपने ढंग से ठीक काम करता रहे पर यदि इन हारमोन ग्रन्थियों का स्राव न्यून हो तो यौवन अंग ही विकसित न होंगे और यदि किसी प्रकार विकसित हो भी जांय तो उसमें वासना का उभार नहीं होगा, न कामेच्छा जागृत होगी, न उस क्रिया में रुचि होगी। सन्तानोत्पादन तो होगा ही कैसे?
साधारण कामोत्तेजना का प्रसंग 15-16 वर्ष की आयु से आरम्भ होकर 60 वर्ष पर जाकर लगभग समाप्त हो जाता है। स्त्रियों का मानसिक धर्म बन्द हो जाने पर लगभग पचास वर्ष की आयु में उसकी वासनात्मक शारीरिक क्षमता और मानसिक आकांक्षा दोनों की समाप्त हो जाती हैं। इसी प्रकार 60 वर्ष पर पहुंचते-पहुंचते पुरुष की इन्द्रियां एवं आकांक्षायें भी शिथिल और समाप्त हो जाती हैं। यह सामान्य क्रम है। पर कई बार हारमोनों की प्रबलता इस सन्दर्भ में आश्चर्यजनक अपवाद प्रस्तुत करती है। बहुत छोटी आयु के बच्चे भी न केवल पूर्ण मैथुन में वरन् सफल प्रजनन में भी समर्थ देखे गये हैं। उसी प्रकार शताधिक आयु हो जाने पर भी वृद्ध व्यक्तियों में इस प्रकार की युवावस्था जैसी परिपूर्ण क्षमता पाई गई है।
लिंग भेद से सम्बन्धित हारमोनों में गड़बड़ी पड़ जाय तो नारी की मूंछें निकल सकती हैं। पुरुष बिन मूंछ का हो सकता है तथा दोनों की प्रवृत्तियां भिन्न लिंग जैसी हो सकती हैं। नारी पुरुष की तरह कठोर व्यवहार करने वाली और नर, जनखों जैसी स्त्री स्वभाव का हो सकता है। यौन आकांक्षायें भी विपरीत वर्ग जैसी हो सकती हैं। इतना ही नहीं कई बार तो इन हारमोनों का उत्पात ऐसा हो सकता है कि प्रजनन अंगों की बनावट ही बदल जाय। ऐसे अनेक आपरेशनों के समाचार समय-समय पर सुनने को मिलते रहते हैं जिनमें नर से नारी की और नारी से नर की जननेन्द्रियों का विकास हुआ और फिर शल्य क्रिया द्वारा उसे तब तक के जीवन की अपेक्षा भिन्न लिंग का घोषित किया गया। इसी नई परिस्थिति के अनुसार उनने साथी ढूंढ़े विवाह किये और गृहस्थ बनाये।
हिप्पोक्रेटस् ने इस तरह की विपरीत वर्गीय कुछ घटनायें देखी थी और उनका कारण समझने का प्रयत्न किया था। चिकित्सक प्लिनी ने एक ऐसे सात वर्ष के लड़के का वर्णन लिखा है जो लैंगिक दृष्टि से पूर्ण विकसित हो गया था।
8 जनवरी सन् 1910 को दो चीनी बच्चों ने सामान्य बालकों को जन्म दिया। जिसमें माता की उम्र 8 वर्ष और पिता की 9 वर्ष की थी। संसार में यह सबसे छोटे माता पिता हैं। अमोय फूकेन प्रान्त का यह कृषक परिवार ‘साद’ नाम से पुकारा जाता है। इस परिवार में ऐसे ही बाल प्रजनन के और भी उदाहरण हैं।
कलावार (अफ्रीका) में भी कुछ समय पूर्व ऐसी ही घटना घटित हुई थी। वहां एक्क्री नामक एक नीग्रो की आठ वर्षीय पत्नी ने आठ वर्ष में चार मास की आयु में ही प्रसव किया और एक बालिका को जन्म दिया, आश्चर्य यह और देखिये कि वह बच्ची भी अपनी मां की तरह आठ वर्ष की आयु में ही मां बन गई। इस प्रकार उमजी को 17 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते दादी बनने का अवसर प्राप्त हो गया।
सूडान में अभी इसी वर्ष एक नौ वर्ष की लड़की मां बनी है उसका पति 10 वर्ष का है। यह समाचार कुछ ही दिन पूर्व प्रायः सभी समाचार पत्रों में छपा था।
जोरा आगा नामक टर्की के एक दीर्घजीवी वृद्ध पुरुष की आयु 1927 में 153 वर्ष की थी। उस समय उसने अपना ग्यारहवां विवाह किया था। उससे पूर्व 10 स्त्रियों और 27 बच्चों को वह अपने हाथों कब्र में सुला चुका था। उसके जीवित बच्चे 70 से ऊपर थे।
लिंग परिवर्तन की घटनाओं की यही होता है। मनुष्य की आकांक्षायें और अभिरुचियां जिधर गतिशील होती हैं उसी तरह की लिंग मनोभूमि बनती चली जाती है। कोई नारी यदि नर के प्रति अत्यधिक आसक्त होती है, उसी के सान्निध्य एवं चिन्तन में निरत रहती है तो उसका अन्तःकरण उसी ढांचे में ढलता और तादात्म्य होता चला जाएगा। कालान्तर में वह आकांक्षा उसे स्वयं नर के रूप में परिणत कर सकती है। इसी प्रकार कोई नर यदि नारी के चिन्तन और सान्निध्य में अतिशय रुचि लेता है तो उसकी चेतना नारी वर्ग में परिणत होने लगेगी और वह उस प्रवृत्ति की तीव्रता के अनुरूप देर में या जल्दी लिंग परिवर्तन कर लेगा। इसमें एकाध जन्म की देरी भी हो सकती है। लिंग परिवर्तन की ऐसी घटनाओं में जिनमें नारी नर के रूप में या नर नारी के रूप में परिणत किये गये, उनमें शारीरिक या मानसिक कारण नहीं होते वरन् अन्तःचेतना का गहन स्तर—कारण शरीर ही इस प्रकार की पृष्ठभूमि विनिर्मित करता है। नपुंसक वर्ग भी ऐसी ही स्थिति है। इसे परिवर्तन का मध्य स्थल कह सकते हैं।
समलिंगी आकर्षक से लेकर सहवास तक ही अनेक घटनायें देखने सुनने में आती रहती हैं। इसमें भी वह अतृप्त आन्तरिक आकांक्षा ही उभरती है। दो नारी यदि नर रूप में विकसित हो रही होंगी तो उनमें नर के प्रति आकर्षण की विद्यमान मात्रा स्त्री रति की अपेक्षा पुरुष रति में रस एवं तृप्ति अनुभव करेगी और उनमें परस्पर घनिष्ठता बढ़ती जायेगी। इसी प्रकार दो नर यदि नारी रूप में विकसित हुए हैं तो उनका पूर्वाभ्यास नारी के प्रति आकर्षण बनाये रहेगा और वे दो नारियां परस्पर मिलन का अधिक आनन्द अनुभव करेंगी। यह विपर्यय दोनों कारणों से हो सकता है। विकसित होती हुई आकांक्षा भी अपनी अतृप्ति का समाधान कर सकती है। इसी प्रकार विकास आगे चल पड़ा है। शरीर बदल गये हैं पर पूर्व मनोवृत्ति से भिन्न लिंग के संस्कार अभी भी प्रबल हैं तो वे भी बार-बार वैसी ही उमंगें उठाकर समलिंगी सम्पर्क में अधिक आकर्षण अनुभव कर सकते हैं।
गत वर्ष यूरोप में ऐसे विवाहों को अदालत द्वारा भी मान्यता मिल चुकी है जिनमें पति-पत्नी दोनों या तो नर ही थे या नारी ही नारी। यों ऐसे प्रसंग निजी और अप्रकट रूप से चलते तो रहते हैं पर पिछली न्यायिक परम्परायें तोड़कर जिन्हें कानूनी मान्यता मिली हो ऐसे विवाह गत वर्ष ही सर्व साधारण के सामने आये हैं।
काम-वासना को ही लें पुराने जमाने में भस्में तथा रसायनें खिलाकर मृत या स्वल्प कामेच्छा को पुनर्जागृत करने का प्रयत्न किया जाता था। वह प्रयास भी नशे से उत्पन्न क्षणिक उत्तेजना जैसा ही सिद्ध हुआ। जब से हारमोन प्रक्रिया का ज्ञान हुआ है तब से यौन ग्रन्थियों के रसों को पहुंचाने से लेकर बन्दर एवं कुत्ते की ग्रन्थियों का आरोपण करने तक का क्रम बराबर चल रहा है। आरम्भ में उससे तत्काल लाभ दिखता है पर वह बाहर का आरोपण देर तक नहीं ठहरता। भयंकर आपरेशनों के समय रोगी को अन्य व्यक्ति का रक्त दिया जाता है। वह शरीर में 3-4 दिन से अधिक नहीं ठहरता। शरीर यदि नया रक्त स्वयं बनाने लगे तो ही फिर आगे की गाड़ी चलती है। इसी प्रकार आरोपित स्राव अथवा रस ग्रन्थियां तत्काल ही लाभ दिखावेंगी यदि उस उत्तेजना से अपनी ग्रन्थियां जागृत होकर स्वतः काम करने लगें तो ही कुछ काम चलेगा अन्यथा वह बाहरी आरोपण की फुलझड़ी थोड़ी देर चमक दिखाकर बुझ जायेगी। अब तक के बाहरी आरोपण के सारे प्रयास निष्फल हो गये हैं। कुछ सप्ताह का चमत्कार देख लेने के अतिरिक्त उनसे कोई प्रयोजन सिद्ध न हुआ।
सन् 1879 में एक वृद्ध डॉक्टर ब्राउन सेक्वार्ड ने घोषणा की कि उसने कुत्ते का वृषण रस अपने शरीर में पहुंचाकर पुनः यौवन प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करली है। 72 वर्षीय इस डॉक्टर की ओर अनेक चिकित्सा शास्त्रियों का ध्यान आकर्षित हुआ और उन्होंने उसकी घोषणा को सच पाया, लेकिन यह सफलता स्थिर न रह सकी वे कुछ ही दिन बाद पुनः पुरानी स्थिति में आ गये।
इंग्लैण्ड के डॉक्टर मूरे ने थामरेक्सिन का प्रयोग एक थायरायड विकारग्रस्त रोगिणी पर किया। दवा का असर बहुत थोड़े समय तक रहता था। कुछ वर्ष जीवित रखने के लिए एक-एक करके 870 भेड़ों की ग्रन्थियां निचोड़ कर उसे आये दिन लगानी पड़ती थी। इस पर धक्का-मुक्की करके ही उसकी गाड़ी कुछ दिन और आगे धकेली जा सकी। शरीर शास्त्रियों ने इस अद्भुत निरंकुश को ढूंढ़ने का प्रयत्न किया तो उनकी पकड़ में अन्तःस्रावी ग्रन्थियां आ गईं। इनमें कुछ प्रधान हैं, कई उपप्रधान हैं। इनमें तनिक-तनिक से रस स्रवित होते रहते हैं वे रेंग कर रक्त में जा मिलते हैं जिन्हें हारमोन कहते हैं। इनके भी कई भेद-उपभेद ढूंढ़े गये हैं। इतना सब होते हुए भी यह आश्चर्य का विषय है कि इनमें आखिर ऐसा क्या जादू है जो शरीर की सामान्य व्यवस्था में इतनी भयानक उलट-पुलट वे करके रख देते हैं। स्वास्थ्य के साधारण नियमोपनियम एक ओर और इनकी मनमानी एक ओर, तथा इस रस्साकशी में सामान्य व्यवस्था लड़खड़ा जाती है और इन हारमोनों की मनमानी जीतती है। इन स्रावों का रासायनिक विश्लेषण करने पर वे सामान्य स्तर के ही सिद्ध होते हैं उनमें कुछ ऐसी अनहोनी मिश्रित नहीं दीखती जिससे ऐसे उथल-पुथल भरे परिणाम होने चाहिए। पर चाहिए को ताक पर रख कर जब ‘होता’ है, सामने आता है, तो बुद्धि चकरा जाती है और इस अन्धाधुन्धी में हाथ पर हाथ डाल कर बैठना पड़ता है।
जहां तक खोज का विषय है उन अन्तः स्राव ग्रन्थियों का— उनसे प्रवाहित होने वाले रसों का स्वरूप समझ लिया गया है और उनका रासायनिक विश्लेषण कर लिया गया है। पर उनकी असाधारण महत्ता और असाधारण हरकत का कुछ कारण नहीं जाना जा सका। इतना ही नहीं उनके नियन्त्रण का भी कोई उपाय हाथ नहीं लगा है। यह मोटा और भोंड़ा तरीका है कि उसी स्तर के रसायन बाहर से पहुंचा कर उन स्रावों की कमी-वेशी के परिणामों को रोकने का प्रयत्न किया जाय। इतना ही बन पड़ा है सो किया भी गया है। अन्य जीवों से प्राप्त करके—अथवा रासायनिक पद्धति से विनिर्मित करे उन रसों को व्यक्ति के शरीर में पहुंचा कर यह प्रयत्न किया जाता है कि विकृतियों का नियन्त्रण किया जाय, उसका लाभ होता तो हैं पर रहता क्षणिक ही है। भीतर का उपार्जन बन्द हो जाय तो बाहर से पहुंचाई मदद कब तक काम देगी। इसी प्रकार जमीन फोड़ कर स्रोत निकल रहा हो तो उसे एक जगह से बन्द करने पर दूसरे छेद से फूटेगा। यह तो तात्कालिक या क्षणिक उपचार हुआ। बात तब बनती है जब उत्पादन के केन्द्र स्वतः ही अपने स्रावों को घटा या बढ़ा लें। उपचार का उद्देश्य तो शरीर शास्त्रियों के सारे प्रयत्न अब तक निष्फल ही रहे हैं; और आगे भी इनकी अद्भुत संरचना और कार्य पद्धति को देखते हुए कुछ अधिक आशा नहीं बंधती।
ओछी भावनाएं अन्तरात्मा में जमी हों और छोटा बनाने वालों पर बड़प्पन के संस्कार जम जायें तो शरीर को ही नहीं मस्तिष्क को भी बड़ा बनाने वाले हारमोन उत्पन्न होंगे। इन्द्रिय भोगों में आसक्त अन्तःभूमिका अपनी तृप्ति के लिए कामोत्तेजक अन्तःस्रावों की मात्रा बढ़ाती है। विवेक जागृत हो और विषय भोगों की निरर्थकता एवं उनकी हानियों को गहराई से समझ लिया जाय तो इन हारमोनों का प्रभाव सहज ही कुण्ठित हो जाता है। इसी प्रकार वियोग, विश्वासघात, अपमान जैसे आघात अन्तःकरण की गहराई तक चोट पहुंचा दें तो युवावस्था में भी भले चंगे हारमोन स्रोत सूख सकते हैं इसके विपरीत यदि रसिकता की लहरें लहराती रहें तो वृद्धावस्था में भी वे यथावत् गतिशील रह सकते हैं। जन्मान्तरों की रसानुभूति बाल्यावस्था में ही प्रबल होकर उस स्तर की उत्तेजना समय से पूर्व ही उत्पन्न कर सकती है।
काम क्रीड़ा शरीर द्वारा होती है, कामेच्छा मन में उत्पन्न होती है। पर इन हारमोनों की जटिल प्रक्रिया न शरीर से प्रभावित होती है और न मन से। उसका सीधा सम्बन्ध मनुष्य की अन्तःचेतना से है, इसे आत्मिक स्तर कह सकते हैं। जीवात्मा में जमे काम बीज जिस स्तर के होते हैं तदनुरूप शरीर और मन का ढांचा ढलता और बनता बिगड़ता है। हारमोनों को भी प्रेरणा उत्तेजना वहीं से मिलती है।
धान के दाने की बराबर धूसर रंग की इस छोटी-सी ग्रन्थि में आश्चर्य ही आश्चर्य भरे पड़े हैं। जिन चूहों में दूसरे चूहों की पीनियल ग्रन्थि का रस भरा गया वे साधारण समय की अपेक्षा आधे दिनों में ही यौन रूप में विकसित हो गये और जल्दी बच्चे पैदा करने लगे। समय से पूर्व उनके अन्य अंग भी विकसित हो गये पर इस विकास में जल्दी भर रही, मजबूती नहीं आयी। काम दहन की शिवजी की कथा की इन हारमोन से संगति अवश्य बैठती है पर अन्तःकरण का रुझान जिस स्तर का होगा शरीर और मन को ढालने के लिये हारमोनों का प्रवाह उसी दिशा में बहने लगेगा।
हारमोन ग्रन्थियों के चमत्कार
इन ग्रन्थियों की कार्य प्रणाली को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि प्रकृति ने इनका निर्माण उद्देश्यपूर्ण प्रयोजन से किया है तथा ये उसी परम्परा को कुशलतापूर्वक निवाह भी रही हैं, छोटी सी आकार में गेहूं के दाने के बराबर वाली इन ग्रन्थियों का अपना निजी स्वार्थ लाभ क्या हो सकता है? वस्तुतः ये प्रकृति व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में सामर्थ्य भर योगदान देने के उद्देश्य से ही सक्रिय रहती दिखाई देती हैं।
इन ग्रन्थियों की हल-चल, शरीर संस्थान में उनकी भूमिका पर अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया है। अवयवों की प्रत्यक्ष हलचलें ही शरीर विज्ञान की शोध का विषय रही हैं। अब तक जो शोधें हुई हैं उनमें यह प्रत्यक्ष ही मूलभूत आधार है। इसलिए समझा जाता है कि पंच तत्वों से बना हुआ है यह काया मात्र ही शरीर है। लेकिन शरीर-गत अनेक सन्दर्भ ऐसे हैं जिन पर रहस्य का पर्दा ही पड़ा हुआ है।
स्थूल शरीर पर सूक्ष्म-सत्ता का नियन्त्रण हमें इन्हीं हलचलों के पीछे झांकता हुआ दीखता है। अन्तःस्रावी ग्रन्थियां—वंशानुक्रम प्रक्रिया—भ्रूणावस्था में जीव का अत्यन्तिक उग्र विकास क्रम, जीवकोषों की अद्भुत क्षमता अचेतन मन की रहस्यमय गतिविधियां भाव सम्वेदना से उत्पन्न अदम्य प्रेरणा, अतीन्द्रिय अनुभूतियां, जीवाणुओं की स्वसंचालित जीवन पद्धति, प्रभावशाली तेजोवलय जैसे अनेकानेक सन्दर्भ ऐसे हैं जिनका शरीर की सामान्य संरचना के साथ कोई ताल-मेल नहीं बैठता। रासायनिक पदार्थों के अपने गुण, धर्म होते हैं। सम्मिश्रण से उनमें भिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं भी होती हैं किन्तु ऐसे रहस्य उत्पन्न नहीं होते जैसे कि अनबूझ पहेलियों के रूप में सामने आते रहते हैं। इनके भौतिक समाधान अभी तक नहीं मिले हैं और न भविष्य में मिलने की सम्भावना है। इनके कारण हमें सूक्ष्म शरीर में ही खोजने होंगे। अन्नमय कोश का वर्णन अपेक्षाकृत सूक्ष्म संस्थानों के अन्तर्गत आता है। इसमें रासायनिक हलचलों की उत्पन्न क्रिया-प्रक्रिया स्थूल शरीर के क्षेत्र में आती है। शरीर-शास्त्रियों की खोज बीन यहीं तक सीमित है। स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए, चिकित्सा उपचार के लिए जो क्रिया-कलाप चलते हैं; उन्हें भौतिक क्षेत्र की मर्यादा माना गया है। ऐसे अद्भुत रहस्य जिनका ताल-मेल रासायनिक हलचलों से नहीं बैठता, उन्हें सूक्ष्म शरीर की शक्ति सत्ता का प्रभाव कहा जा सकता है। यह क्षेत्र अत्यन्त सुविस्तृत है। उसका थोड़ा-सा परिचय जिन प्रत्यक्ष प्रमाणों के आधार पर प्राप्त हो सकता है, उनमें अन्तःस्रावी हारमोन ग्रन्थियों की भी गणना की जा सकती है। उनसे निकलने वाले राई-रत्ती स्राव शरीर में कितनी अद्भुत गतिविधियां सम्पन्न करते हैं; उन्हें देख कर चकित रह जाना पड़ता है।
शरीर-विज्ञान की अन्तरंग शोधों से यह स्पष्ट हो गया है कि हृदय, आमाशय, आंख, कान, त्वचा आदि तो यन्त्र हैं। इन यन्त्रों के संचालक सूक्ष्म अवयव अन्य ही होते हैं और उन संचालक तत्वों या अवयवों के स्वरूप पर ही हमारे स्वास्थ्य का बहुत कुछ आधार निर्भर रहता है। इन सूक्ष्म अवयवों में हारमोनों का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। उनकी सक्रियता-निष्क्रियता का हमारी शारीरिक एवं मानसिक स्थितियों पर भारी प्रभाव पड़ता है। शरीर की आकृति कैसी भी हो, उसकी प्रकृति का निर्माण तो मुख्यतः इन हारमोन रसों से ही प्रभावित होता है। यद्यपि आकृति पर भी इन जीवनरस-स्रावों का प्रभाव पड़ता ही है। कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि विशेष मनःस्थिति के कारण किन्हीं युवतियों का रूप लावण्य तब तक बना रहा, जिस आयु में सामान्य रूप से शरीर पर वृद्धता के चिह्न उभर आते हैं। उनके बने रहने का रहस्य-सूत्र भी निश्चय ही इन हारमोनों-स्रावों में छिपा हुआ माना जाता है। यद्यपि औषधि विद्या और शल्य प्रक्रिया की पहुंच अभी वहां तक नहीं हो पाई है, पर उनके स्वरूप की कुछ-कुछ जानकारी तो आधुनिक शरीरशास्त्र को हो ही गई है।
हारमोन स्रावों के विशेष अनुसन्धानकर्त्ता डॉ. क्रुकशेक ने इन स्रावों की आधार ग्रन्थियों को ‘जादुई ग्रन्थियां’ कहा है और बताया है कि व्यक्ति की वास्तविक स्थिति को जानने के लिए इन स्रावों के सन्तुलन और क्रियाकलाप का परीक्षण करके ही यह जाना जा सकता है कि उसका स्तर एवं व्यक्तित्व सचमुच क्या है?
हारमोन वे रासायनिक तत्व या रहस्यमय जीवन रस हैं, जो अन्तःस्रावी ग्रन्थियों द्वारा स्रवित होते हैं।
ग्रन्थियां दो प्रकार की होती हैं— (1) बहिर्स्रावी ग्रन्थियां या प्रणाली युक्त ग्रन्थियां (डक्ट या एक्सटेरो ग्लैण्डस) (2) अन्तःस्रावी या प्रणाली विहीन ग्रन्थियां (इनडोक्राइन या डक्टलस ग्लैंड्स)
(1) बहिर्स्रावी ग्रन्थियां— इन ग्रन्थियों में प्रत्येक के साथ एक नलिका मिली होती है। नलिका द्वारा ग्रन्थियों का रस स्राव शरीर के रक्त-प्रवाह में न मिलकर शरीर की ऊपरी सतह पर चला जाता है। इन रसों के द्वारा शरीर की अनेक जरूरतें पूरी की जाती हैं। प्रमुख बहिर्स्रावी ग्रन्थियां तीन हैं— (1) अश्रु ग्रन्थियां (टियर ग्लैण्डस) (2) प्रस्वेद ग्रन्थियां (स्वीटग्लैण्ड्स) (3) लार ग्रन्थियां (सेलिह्वरी ग्लैण्ड्स)
(2) अन्तःस्रावी ग्रन्थियां— इन दोनों क्रोमोसोम्स तथा वंशानुक्रम की चर्चायें बहुत व्यापक रूप से उठा करती हैं। इन प्रक्रियाओं के मूल में अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के स्राव कुछ विशिष्ट हारमोन्स ही हैं। अब तक की शोधों के आधार पर अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के 8 केन्द्र माने जाते हैं। यह शरीर के विभिन्न अंगों में अवस्थित हैं। जैसे— सिर में (1) पीनियल बाड़ी (2) पिट्यूटरी ग्लैण्ड हैं। गले में (3) पैराथाइराइड और (4) थाइराइड ग्लैण्ड होते हैं। वक्षस्थल के ऊपरी भाग में (5) थाइमस ग्लैण्ड स्थित हैं। उदर प्रदेश में (6) एड्रीनल ग्लैण्ड्स और (7) पैंक्रियाज ग्रन्थियां हैं। पेडू क्षेत्र में (8) गोनड्स ग्रन्थियों का स्थान है।
इन ग्रन्थियों की अद्भुत क्षमता के सम्बन्ध में अभी वैज्ञानिकों को पूरी जानकारी नहीं है। उनके बारे में सांकेतिक जानकारी ही प्राप्त हो सकी हैं। फिर भी यह विश्वास किया जाता है कि यदि इनके प्रभाव को जाना और नियन्त्रित किया जा सके तो मनुष्य अपने अन्दर आश्चर्य जनक परिवर्तन ला सकता है।
उदाहरण के लिए गौनड्स ग्रन्थियों को ही लिया जाय ये कामवासना सम्बन्धी ग्रन्थियां होती हैं। इन्हें हम प्रजनन ग्रन्थियां भी कह सकते हैं। पुरुष की प्रजनन ग्रन्थियां शुक्र ग्रन्थियां या वृषण तथा स्त्रियों की प्रजनन ग्रन्थियां, डिम्बग्रन्थियां या अण्डाशय कहलाती हैं पुरुष सेक्स हारमोन्स की उत्पादिका वृषण—ग्रन्थि नर में होती है। उसी से उसका पुरुषत्व जगता है। पुरुष आकृति को नारी से भिन्न करने वाले दाढ़ी-मूंछ आदि लक्षण प्रकट होते हैं। नारी में डिम्बग्रन्थियां गर्भाशय के दोनों छोरों पर होती हैं। इन स्त्री-गोनड्स से अनेक स्राव निकलते हैं। जिनमें मुख्य हैं दो—(1) एस्ट्रोजेन्स (2) प्रोजेस्ट्रोन।
शारीरिक विकास की दृष्टि से ये स्राव अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। स्त्रियोचति, कोमलता तथा गर्भ धारण की क्षमता इन्हीं स्रावों से सम्बन्धित है। लिंग परिवर्तन की जो घटनाएं घटित होती रहती हैं वह इसी ग्रन्थि के स्रावों की उल्टी-पुल्टी के परिणाम स्वरूप होती हैं।
गोनड्स (जनन ग्रन्थियां) जननेन्द्रिय हलचलों की क्षमता को तथा प्रजनन-शक्ति को नियन्त्रित करती है। पुरुष यौवन और नारी यौवन का—विशेषतया प्रजनन सम्बन्धी यौवन का इसी ग्रन्थि से सम्बन्ध रहता है। वृद्धावस्था में आमतौर से शरीर बहुत शिथिल हो जाता है और इन्द्रियां जवाब दे जाती है। फिर भी कई बार यह आश्चर्य देखा गया है कि शताधिक आयु वाले व्यक्ति भी नवयुवकों की तरह प्रजनन क्रिया सफलतापूर्वक सम्पन्न करते रहते हैं। यह गोनड्स ग्रन्थियों के सशक्त बने रहने और समुचित यौन-हारमोन्स स्रवित होते रहने का ही परिणाम है।
मनःशास्त्री एडलर ने काम-प्रवृत्ति की शोध करते हुए पाया कि बाहर से अतीव सुन्दर, आकर्षक और कमनीय दिखाई देने वाली अनेक महिलाएं काम-शक्ति से सर्वथा रहित हैं। उनमें न तो रमणी-प्रवृत्ति थी, न नारी सुलभ उमंग। खोज करने पर ज्ञात हुआ कि यौन-हारमोन्स के स्रोत ही इन विशेषताओं का आधार हैं।
एडलर ने अपनी खोज के दौरान देखा कि कितने ही युवकों की शारीरिक स्थिति सामान्य भी, ऊपर से उनमें मर्दानगी भरी ही दिखाई देती थी, पर थे वे वस्तुतः नपुंसक। न तो उनके मन में काम उमंग थी, न जननेन्द्रिय में उत्तेजना। कारण तलाश करने पर उनमें सेक्स-हारमोनों का अभाव पाया गया। इसके विपरीत उन्हें ऐसे नर-नारी भी मिले जो अल्पवयस्क अथवा वयोवृद्ध होते हुए भी काम-पीड़ित रहते थे।
अन्तःस्रावी ग्रन्थियों और उनसे उत्पन्न हारमोनों के आश्चर्य जनक प्रभाव के ढेरों प्रमाण अध्ययनकत्ताओं को मिले हैं। बीथोवेन जैसे बहरे का प्रखर संगीतज्ञ बनना, डीमास्थनीज जैसे हकलाने वाले का धुरन्धर वक्ता हो सकना, डैनियलबोर्न जैसे मन्द दृष्टि का-सुन्दर दृश्यों का अंकन करने वाला कुशल चित्रकार बन पाना इन्हीं हारमोनों के स्राव की मात्रा पर निर्भर रहा है।
‘एस्ट्रालॉजिकल कोरिलेशन्स विथ द डक्टलैस ग्लैण्ड्स नामक ग्रन्थ में अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की चर्चा आन्तरिक ग्रहों के रूप में की गई है। जिस प्रकार सौर-मंडल के विविध ग्रह परस्पर सन्तुलन स्थिति बनाये हैं, वैसे ही ये अन्तःस्रावी ग्रन्थियां शारीरिक, मानसिक सन्तुलन साधे रहती हैं।
इस तुलना-क्रम में सूर्य की पैनियलबॉडी से, चन्द्र की पिच्यूटरी से, मंगल की पैराथाइराइड से, बुद्ध की थोइराइड से, बृहस्पति की एड्रीनकल से तथा शुक्र की थाइमस से तुलना की गई है ‘‘ऑकल्ट एनाटॉमी’’ के लेखक ने इन ग्रन्थियों का उल्लेख ‘‘ईथर सेन्टरर्स’’ के रूप में किया है कि अविज्ञात चेतना केन्द्रों से इन ग्रन्थियों के माध्यम से मनुष्य को कुछ असाधारण अनुदान मिलता रहता है।
उपरोक्त कथनानुसार अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का सम्बन्ध ब्रह्माण्ड चेतना से—सूक्ष्म जगत से बनता है। वे विश्व शक्तियों के साथ आदान-प्रदान का काम करती हैं। शरीर-शास्त्र के अनुसार उनका प्रभाव काय-कलेवर के अन्तर्गत शरीर और मस्तिष्क को प्रभावित करता है। इसका अर्थ हुआ कि यह ग्रन्थियां भीतर और बाहर दोनों ही क्षेत्रों में अपना प्रभाव छोड़ती हैं। उनका प्रभाव व्यक्तित्व की विविध-विधि क्षमताएं उभारने में असाधारण रूप से होता है। यद्यपि इन ग्रन्थियों को नियन्त्रण से बाहर माना जाता है और समझा जाता है कि इनकी प्रकृति एवं क्रिया-पद्धति बदलना अपने हाथ की बात नहीं है। किन्तु ऐसा है नहीं।
साधना विज्ञान का गहन अध्ययन किया जाय तो यह प्रतीत होता है कि भारतीय मनीषियों द्वारा साधना, तप, आत्मिक विकास के लिये अपनाये जाने वाले विविध उपचार इन ग्रन्थियों की स्थिति बदलने में पूर्णता सफल और सक्षम रहे हैं। सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करने वाले साधनात्मक प्रयत्नों से इन ग्रन्थियों की स्थिति बदली जा सकती है और अनावश्यक हारमोनों का उत्पादन घटाकर जो उपयोगी हैं उन्हें बढ़ाया जा सकता है।
जो भी अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की स्वनियोजित कार्यप्रणाली इस बात का प्रतीक तो है ही कि वे नियम व्यवस्था के अनुसार काम करती हैं, जब किस हारमोन की आवश्यकता पड़ती है उसका सृजन कर अपना कर्तव्य निबाहती है। सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव इकाइयों में भी इतनी व्यवस्था और नियमबद्धता है, वह उसे संचालित करने वाली चेतन सत्ता का प्रमाण तो है ही।