Books - विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व
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Language: HINDI
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प्राणि जगत की अतृप्त प्यास-प्रेम
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सृष्टि का हर प्राणी हर जीव जन्तु स्वभाव में एक दूसरे से भिन्न है। कुछ अच्छे, कुछ बुरे गुण सब में पाये जाते हैं, पर प्रेम के प्रति सद्भावना और प्रेमी की प्यास से वंचित कोई एक भी जीव सृष्टि में दिखाई नहीं देता। मनुष्य जीवन का तो सम्पूर्ण सुख और स्वर्ग ही प्रेम है। प्रेम जैसी सत्ता को पाकर भी मनुष्य अपने को दीन-हीन अनुभव करे तो यही मानना पड़ता है कि मनुष्य ने जीवन के यथार्थ अर्थ को जाना नहीं।
अमरीका के मध्य भाग में पाई जाने वाली एक छिपकली के सिर पर अनेक सींग होते हैं। यह मांसाहारी जन्तु क्रोध की स्थिति में होता है तो उसकी आंखों में रक्त उतर आता है, फिर वह शत्रु पर कैसा भी भयंकर आक्रमण करने से नहीं चूकती। इसका सारा जीवन ही चींटियों, गिराड़ों को मारने खाने में बीतता है, पर अपनी प्रेयसी के प्रति उसकी करुणा भी देखते ही बनती है उसके लिये तो वह गिलहरी और खरगोश की तरह दीन बन जाती है।
बिच्छु बड़ा क्षुद्र जन्तु है किन्तु प्रेम की प्यास से मुक्त वह भी नहीं। वह अपने बच्चों से इतना प्यार करती है कि उन्हें, जब तक वे पूर्ण समर्थ नहीं हो जाते अपनी पीठ पर चढ़ाये घूमती है। भालू खूंख्वार जानवर है, वह भूखा नहीं रह सकता, पर जब कभी मादा भालू बच्चे देगी तो जब तक बच्चों की आंखें नहीं खुल जायेंगी वह उनके पास ही बैठी भूख-प्यास भूलकर उन्हें चूमती चाटती रहेगी।
चींटियों के जीवन में सामान्यतः मजदूर चींटियों में कोई विलक्षणता नहीं होती। उनमें अपनी बुद्धि अपनी निजी कोई इच्छा भी नहीं होती है, एक नियम व्यवस्था के अन्तर्गत जीती रहती हैं तथापि प्रेम की आकांक्षा उनमें भी होती है और वे अपने उस कोमल भाव को दबा नहीं सकतीं इस अन्तरंग भाव की पूर्ति वे किसी और तरह से करती हैं। वह तितली के बच्चे से ही प्रेम करके अपनी आन्तरिक प्यास बुझाती हैं। यद्यपि यह सब एक प्राकृतिक प्रेरणा जैसा लगता है पर मूल भूत भावना का उभार स्पष्ट समझ में आता है। तितलियां फूलों का मधु चूसती रहती हैं उससे उनके जो बच्चे होते हैं उनकी देह भी मीठी होती है। माता-पिता के स्थूल शारीरिक गुण बच्चे पर आते हैं यह एक प्राकृतिक नियम है, तितली के नन्हें बच्चे, जिसे लार्वा कहते हैं, मजदूर चींटियां सावधानी से उठा ले जाती हैं, उसके शरीर के मीठे वाले अंग को चाट-चाट कर चींटी अपने परिवार के लिए मधु एकत्र कर लेती है पर ऐसा करते हुए स्पष्ट-सा पता चलता रहता है कि यह एक स्वार्थपूर्ण कार्य है इससे नन्हें से लार्वे को कष्ट पहुंचता है इसलिये वह थोड़ी मिठास एकत्र कर लेने के तुरन्त बाद उस बच्चे को परिचर्या भवन में ले जाती हैं और उसकी तब तक सेवा सुश्रूषा करती रहती हैं जब तक लार्वा बढ़कर एक अच्छी तितली नहीं बन जाता। तितली बन जाने पर चींटी उसे हार्दिक स्वागत के साथ घर से विदा कर देती है। जीव शास्त्रियों के लिये चींटी और तितली की यह प्रगाढ़ मैत्री गूढ़ रहस्य बनी हुई है। उसकी मूल प्रेरणा अन्तरंग का वह प्यार ही है। जिसके लिए आत्मायें जीवन-भर प्यासी इधर-उधर भटकती रहती हैं।
आस्ट्रेलिया के फैलेन्जर्स नामक गिलहरी की शक्ल का एक जीव पाया जाता है। इसे सुगर स्क्वैरेल भी कहते हैं। यह एक लड़ाकू और उग्र स्वभाव वाला जीव है, तो भी उसकी अपने बच्चों और पारिवारीय जनों के प्रति ममता देखते ही बनती है। वह जहां भी जाती है अपनी एक विशेष थैली में बच्चों को टिकाये रहती हैं और थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हें चाटती और सहलाती रहा करती है। मानो वह अपने अन्तःकरण की प्रेम भावनाओं के उद्वेग को सम्भाल सकने में असमर्थ हो जाती हो। जीव-जन्तुओं का यह प्रेम-प्रदर्शन यद्यपि एक छोटी सीमा तक अपने बच्चों और कुटुम्ब तक ही सीमित रहता है तथापि वह इस बात का प्रमाण है कि प्रेम जीव मात्र की अन्तरंग सकता है। इसलिये कि वह अधिक संवेदनशील और कोमल भावनाओं वाला है। अन्य जीवों का प्यार पूर्णतया संतुष्ट नहीं हो पाता इसलिये वे अपेक्षाकृत अधिक कठोर, स्वार्थी और खूंख्वार से जान पड़ते हैं, पर इसमें सन्देह नहीं कि यदि उनके अन्तःकरण में छिपे प्रेमभाव से तादात्म्य किया जा सके तो उन हिंसक व मूर्ख जन्तुओं में भी प्रकृति का अगाध सौन्दर्य देखने को मिल सकता है। भगवान शिव सर्पों को गले से लटकाए रहते हैं, महर्षि रमण के आश्रम में बन्दर, मोर और गिलहरी ही नहीं सर्प, भेड़िये आदि तक अपने पारिवारिक झगड़े तय कराने आया करते थे। सारा ‘अरुणाचलम्’ पर्वत उनका घर था और उसमें निवास करने वाले सभी जीव-जन्तु उनके बन्धु, बान्धव, सुहृद, सखा पड़ौसी थे। स्वामी रामतीर्थ हिमालय में जहां रहते वहां शेर, चीते प्रायः उनके दर्शनों को आया करते और उनके समीप बैठकर घंटों विश्राम किया करते थे। यह उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि हमारा प्रेमभाव विस्तृत हो सके तो हम अपने को विराट् विश्व परिवार के सदस्य होने का गौरव प्राप्त कर एक ऐसी आनन्द निर्झरिणी में प्रवाहित होने का आनन्द लूट सकते हैं जिसके आगे संसार के सारे सुख-वैभव फीके पड़ जायें।
600 वर्ष पूर्व की घटना है रोम में एक महिला अपने बच्चे से खेल रही थी। वह कभी उसे कपड़े पहनाती कभी दूध पिलाती, इधर-उधर के काम करके फिर बच्चे के पास आकर उसे चूमती चाटती और अपने काम में चली जाती। प्रेम भावनाओं से जीवन की थकान मिटती है। लगता है अपने काम की थकावट दूर करने के लिए उसे बार-बार बच्चे से प्यार जताना आवश्यक हो जाता था। घर के सामने एक ऊंचा टावर था उसमें बैठा हुआ एक बन्दर यह सब बड़ी देर से, बड़े ध्यान से देख रहा था। स्त्री जैसे ही कुछ क्षण के लिये अलग हुई कि बन्दर लपका और उस बच्चे को उठा ले गया। लोगों ने भागदौड़ मचायी तब तक बन्दर सावधानी के साथ बच्चे को लेकर उसी टावर पर चढ़ गया। जैसे-जैसे उसमें मां को बच्चे से प्यार करते देखा था स्वयं भी बच्चे के साथ वैसे ही व्यवहार करने लगा। कभी उसे चूमता चाटता तो कभी उसके कपड़े उतार कर फिर से पहनाता। इधर वह अपनी प्रेम की प्यास बुझा रहा था उधर उसकी मां और घर वाले तड़प रहे थे, बिलख-बिलख कर रो रहे थे। बच्चे की मां तो एकटक उसी टावर की ओर देखती हुई बुरी तरह चीख कर रो रही थी।
बन्दर ने यह सब देखा। संभवतः उसने सारी स्थिति भी समझ ली इसीलिये एक हाथ से बच्चे को छाती से चिपका लिया शेष तीन हाथ-पांव की मदद से वह बड़ी सावधानी से नीचे उतरा और बिना किसी भय अथवा संकोच के उस स्त्री के पास तक गया और बच्चे को उसके हाथों में सौंप दिया। यह कौतुक लोग स्तब्ध खड़े देख रहे थे और देख रहे थे साथ-साथ एक कटु सत्य, किस तरह बन्दर जैसा चंचल प्राणी प्रेम के प्रति इस तरह गम्भीर और आस्थावान हो सकता है। मां के हाथ में बच्चा पहुंचा सब लोग देखने लगे उसे कहीं कोई चोट तो नहीं आई। इस बीच बन्दर वहां से कहां गया, किधर चला गया वह आज तक किसी ने नहीं जाना।
पीछे जब लोगों का ध्यान उधर गया तो सबने यह माना कि बन्दर या तो कोई दैवी शक्ति थी जो प्रेम की वात्सल्य महत्ता दर्शाने आई थी अथवा वह प्रेम से बिछड़ी हुई कोई आत्मा थी जो अपनी प्यास को एक क्षणिक तृप्ति देने आई थी। उस बन्दर की याद में एक अखण्ड-दीप जलाकर उसी टावर में रखा गया। इस टावर का नाम भी उसकी यादगार में बन्दर टावर (मंकी टावर) रखा गया। कहते हैं 600 वर्ष हुये यह दीपक आज भी जल रहा है। दीपक के 600 वर्ष से चमत्कारिक रूप से जलते रहने में कितनी सत्यता है, हम नहीं जानते, पर यह सत्य है कि बन्दर के अन्तःकरण में बच्चे के प्रति प्रसृत प्यार का प्रकाश जब तक यह टावर खड़ा रहेगा, लाखों लोगों का ध्यान मानव जीवन की इस परम उदात्त ईश्वरीय प्रेरणा की ओर आकर्षित करता रहेगा।
प्रेम की यह आशा और प्यास केवल जीव धारियों तक- जिन्हें हम जीवित समझते हैं उन जानवरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि पेड़-पौधे भी प्राणवान होते हैं और वे भी प्रेम, स्नेह, सहानुभूति की अपेक्षा रखते हैं।
पेड़ पौधों में भी प्राण हैं
पेड़ पौधों में भी प्राण और जीवन है इसका प्रमाण छोटे-छोटे प्रयोगों द्वारा भी मिल जाता है। कोई नाक और मुंह बन्द कर दे तो मनुष्य मर जाता है। पौधे के किसी पत्ते में छेद कर दिया जाये, या उसके दोनों तरफ कागज चिपका दिया जाय तो पत्ता कुछ ही समय में पीला पड़कर गिर जायगा। यदि तमाम पत्ते न होते तो संभवतः पेड़ ही नष्ट हो जाते। मानना चाहिए कि प्रकृति ही हर रचना परमात्मा की कृपा और सृष्टि व्यवस्था का अंग है। कोई ऊबड़-खाबड़ बनावट मात्र नहीं। कुछ पौधे तो जल के भीतर रहते हैं, उनके लिए भी सांस आवश्यक है। यूरोप के तालाबों में एक पौधा पाया जाता है, जिसके पत्तों में झिल्ली नहीं होती। उसके लिए मछलियां पानी में मिली हुई वायु के कण अलग कर देती हैं, इसी से वह अपना जीवन चलाता रहता है, पर श्वांस के बिना जीवित वह भी नहीं रह सकता, वृक्षों के जीवन के यह अकाट्य तर्क हैं।
आत्मा वृक्षों और वनस्पतियों में भी है, इसलिये अध्यात्मवादी दृष्टिकोण के अनुसार उनके साथ भी सद्व्यवहार करना चाहिये, वृक्षों का लगाना, उनका पोषण करना एक पुण्य माना गया है, उसी प्रकार उन्हें काटना और बढ़ने न देना पाप कहा गया है। वृक्ष हमें प्राण-वायु, जीवन-तत्त्व, हरीतिमा, छाया, लकड़ी, पुष्प-फल आदि बहुत कुछ देते हैं, ऐसे उपकारी प्राणियों से, वृक्षों से हमें बहुत कुछ सीखना है और उनके जैसा उपकारी बनना है।
यह प्रश्न हो सकता है कि वृक्ष जड़ हैं, उनमें किसी तरह की चेतना संवेदनशीलता नहीं है, इसीलिये उनके साथ जड़ जैसा बर्ताव करना पाप या अनुचित कर्म नहीं। इस सम्बन्ध में वैदिक मान्यतायें स्पष्ट ही इस पक्ष में हैं कि वृक्षों में जीवन है, अब उक्त कथन को वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा भी सिद्ध करना सम्भव हो गया है। सर जगदीशचन्द्र बोस का तो जीवन ही इस बात में लग गया, उन्होंने वृक्षों की संवेदनशीलता के अनेक प्रयोग किये थे। सांस और स्पन्दन की गति की नाप और जहरीले पदार्थों का प्रयोग करके यहां तक सिद्ध कर दिखाया था कि जिस तरह और प्राणियों के शरीर में विष का प्रभाव होता है, वृक्षों पर भी वैसा ही प्रभाव पड़ता है। हरे-भरे होना वृक्षों का जीवन है तो उनका सूख जाना ही मृत्यु। मनुष्यों की तरह आहार पर जीवित रहने, सांस लेने, सूर्य रश्मियों से जीवन ग्रहण करने, काम क्रीड़ायें आदि विभिन्न क्रियायें वृक्ष-वनस्पति भी करते हैं, इसलिये उन्हें प्राणिजगत् का ही एक अंग मानने से इनकार नहीं किया जा सकता।
‘केतकीयम’ भारतीय शब्द भी इसी मान्यता का प्रतिपादक है कि प्रत्येक वृक्ष के फूलों में नर और मादा किस्में होती हैं और उन दोनों के संयोग से ही उनकी वंशावली का विकास होता है। कई बार यह माध्यम पशु-पक्षियों और हवा आदि के द्वारा भी बनता है। पर यह संयोग प्रत्येक दशा में आवश्यक है। बीजाण्ड में फल का विकास गर्भ-कोष में पड़े वीर्य से बच्चे के विकास जैसा ही होता है।
वृक्षों में जीवन के अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण उसका विश्लेषण है। जिस प्रकार जीवित प्राणी प्रोटोप्लाज्मा नामक तत्त्व से बना होता है उसका सबसे सूक्ष्म कण सेल कहलाता है, उसी प्रकार वनस्पति के सबसे छोटे अणु का नाम जीवाणु (वैक्टीरिया) है। इन्हें एक कोशिका वाले पौधे कहा जा सकता है और वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि माइक्रोस्कोप की सहायता से बिना देखे नहीं जा सकते। यही जीवाणु मनुष्यों और पशुओं की आहार नली में रहते हैं और सैल्यूलोज वाले भाग को पचाने का काम करते हैं। जीवाणु कोशिका की लम्बाई 0.5 माइक्रोन तक होती है। यह तीन प्रकार के होते हैं, गोलाणु (कोकस) दण्डाणु (वैसिलस) और सर्पिलाणु (स्पिरिलस)।
कोशिका जिस तरह प्रोटीन के आवरण में बन्द होती है और उसके भीतर केन्द्रक (न्यूक्लियस) काम किया करता है, उसी प्रकार जीवाणु कोशिका एक लिसलिसी श्लैष्मपरत (कैप्सूल) में बन्द (रेजिस्ट) होती है। कोशिका भित्ति की सुरक्षा के लिये प्लाज्मा झिल्ली (प्लाज्मा मैम्बरैन) होती है। किन्तु किन्हीं जीवाणु कोशिकाओं के केन्द्रक नहीं भी होते हैं तो भी उनमें केन्द्रकीय पदार्थ (क्रोमिटिन) अवश्य होता है। यह जीवाणु भी अलैंगिक रीति से स्वयं ही बढ़ने की वैसी ही क्षमता रखते हैं, जैसे कि ‘प्रोटोप्लाज्मा’ केन्द्रक। एक कोशिका से विभाजन प्रारम्भ होता है तो 15 घण्टे बाद उसी तरह की एक अरब संतति कोशिकायें (डाटर सेल्स) जन्म ले लेती हैं। 36 घण्टे बाद इनकी तादात इतनी हो जाती है कि उससे सौ ट्रक भरे जा सकते हैं, यह गति यदि निर्बाध चलती रहे तो 48 घण्टे बाद एक कोशिका से बने अन्य कोशिकाओं का भार पृथ्वी के भार से चौगुना अधिक हो जायेगा, किन्तु उसकी ही देह से निकले विषैले पदार्थ इस वृद्धि को रोक देते हैं और यह गति रुक जाती है। वस्तुतः यह बाढ़ मानव जाति के हित में ही है। जीवाणु सर्वत्र विद्यमान रहकर मनुष्य जाति की बड़ी सेवा करते हैं, एक प्रतिशत जीवाणु ही मनुष्य के लिये हानिकारक हैं। अन्यथा पौधों और जन्तुओं के हानिकारक तत्त्वों और मृत अवशेषों का विघटन यह जीवाणु ही करते हैं। प्रति पौधा 200 अरब टन कार्बन, कार्बन-डाइऑक्साइड गैस लेकर प्रकाश-किरणों द्वारा उसे जैव पदार्थ में बदल देता है। यह कार्बन जीवों द्वारा पैदा की जाती है, यदि जीवाणु यह क्रिया सम्पन्न न करें तो सारा वायु मण्डल कार्बन डाइऑक्साइड से आच्छादित हो जाये और मनुष्य का धरती पर रहना कठिन हो जाये।
जीवाणु की क्रिया और प्रोटोप्लाज्मा की कोशिका (सेल) की क्रिया का तुलनात्मक अध्ययन करें तो दोनों में एक जैसी चेतना ही दिखाई देती है, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, आकृति और कार्य प्रणाली में थोड़ा अन्तर है, जो मनुष्य के हित में पूरक ही है। यदि यह पूरक क्रिया सम्पन्न न हो तो मनुष्य का जीवन खतरे में पड़ जाये। विश्व चेतना का यह अंश मनुष्य के उपयोग में आता है पर उसका यह अर्थ नहीं लगा लेना चाहिए कि उसमें आत्मा नहीं है। यदि मनुष्य की प्रजनन प्रणाली, खाद्य प्रणाली, मल विसर्जन आदि की क्रियायें और उसकी परमाणविक रचना में वृक्ष वनस्पतियों की क्रिया प्रणाली में साम्य पाया जाता है तो उसे विश्व-व्यापी चेतना का स्वरूप ही मानना चाहिए। यदि विज्ञान की इन उपलब्धियों से भी मनुष्य यह मानने को तैयार नहीं होता तो उसे हठधर्मी ही कहा जायेगा।
वृक्ष दीखते और समझे भर जड़ रहते हैं, वस्तुतः वे चेतन हैं। एक ही चेतन आत्मा सर्वत्र सबमें विद्यमान है। यह अनुभव करते हुए हमें विराट् ब्रह्म की असीम चेतना अपने चारों ओर फैली हुई देखनी चाहिए और सबके साथ सहृदयतापूर्ण व्यवहार करना चाहिये। वृक्षों को भी अकारण क्षति न पहुंचायें, यही उचित है।
शास्त्रकार का कथन है- खं वायुमग्निं सलिलं महीं च, ज्योतीषि सत्त्वानि दिशोद्रुमादीन। सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं, यत्किंच भूतं प्रणमेदनन्यः॥ भक्ति सूक्त 26
तात्! आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नक्षत्र, जीव जन्तु, दिशायें, वृक्ष, नदियां, समुद्र तथा और भी जो कुछ भूत जात है वह सब परमात्मा का ही शरीर है। अतएव सबको अनन्य भाव से प्रणाम करें।
उपरोक्त सूक्त में आचार्य संकेत करते हैं कि एक ही चेतन आत्मा सब में विद्यमान है यह अनुभव करते हुए हमें विराट् ब्रह्म की असीम चेतना अपने चारों ओर फैली देखनी चाहिए और सबके साथ सहृदयतापूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
स्थूल दृष्टि से यह बात कुछ असंगत प्रतीत सी होती है कि जड़ को भी चेतन माना जाये। नदियां, पहाड़, दिशायें, नक्षत्र भी जीवन धारा हो सकते हैं इन्हें थोड़ा जटिल कहा जा सकता है पर वृक्ष-वनस्पति के बारे में तो अब विज्ञान को भी इस बात का सन्देह नहीं रहा कि उनमें जीवन नहीं है। जीवधारियों के सारे लक्षण उनमें पाये जाते हैं। श्वांस-क्रिया गति और जीवन का प्रथम लक्षण है। कुछ दशाब्दी पूर्व तक इस सम्बन्ध में विज्ञान जगत पूर्ण अन्धकार में था किन्तु जब उन्होंने पौधों के शरीर में जीवन-स्पन्दन की पुष्टि की तो इस दिशा में वैज्ञानिक तेजी से आकृष्ट हुए और नये-नये आविष्कार अनुसंधान हुए जिन्होंने पुष्ट किया कि सचमुच यदि अन्तःचेतना का विश्लेषण करके देखा जाये तो शक नहीं वृक्ष-वनस्पति में भी मानवीय चेतना का अस्तित्व स्पष्ट देखा जा सकता है। अगर यह लिखा जाय कि वृक्षों में श्वांस-प्रश्वांस क्रिया अन्य जीव-जन्तुओं की अपेक्षा कहीं अधिक सुन्दर और शक्तिदायक है तो उसे आश्चर्यजनक नहीं माना जाना चाहिए। स्थूल दृष्टि से पौधों में नाक नहीं होती, फेफड़े भी नहीं होते पर यदि सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) से देखें तो पौधे के पत्ते-पत्ते में श्वांस छिद्र देखे जा सकते हैं। इन छिद्रों से ही वे श्वांस लेते हैं यह अलग बात है कि प्राकृतिक सन्तुलन बनाये रखने के लिए पौधे मनुष्य और अन्य जीवधारियों द्वारा छोड़ी हुई दूषित वायु कार्बन डाइऑक्साइड मूर्छित और अर्द्ध चेतन रखने वाली गैस है इसी का प्रभाव है कि वृक्ष संधि योनि में अचेत और मूर्छित पड़े रहते हैं यदि प्रकृति ने ऐसा नहीं किया होता तो वृक्षों के पास कोई जाता, अपशब्द बकता या उन्हें काटता तो अपने डाल रूप हाथ से वे जोर से तमाचा मार देते। ऐसा न कर प्रकृति ने किसी कर्मवश उन्हें अन्य जीवधारियों का पोषक बनाया। कर्मफल का सिद्धान्त परमात्मा की न्याय व्यवस्था का अटल नियम है। वृक्ष वनस्पतियों के रूप में विद्यमान जीवात्मायें सम्भवतः उसी व्यवस्था के अन्तर्गत अपने किन्हीं कर्मों के कारण एक ही स्थान पर स्थिर रहने, हिलने डुलने की क्षमता से वंचित कर दी गयी हों।
मनुष्यों में भी इस प्रकार की कई कोटियां देखने में आती हैं। कई मनुष्य क्रोधी और क्रूर स्वभाव के देखे जाते हैं तो कइयों में संतों के गुण और विशेषतायें देखी जाती हैं। वृक्षों में भी यह गुण विद्यमान होते हैं। इन गुणों की विद्यमानता देखकर पता चलता है कि वे भी कर्म-बन्धनों से बंधे जीव हैं उनकी प्रकृति कैसी भी क्यों न होती हो। ऐसे क्रूरकर्मा एक वृक्ष का वृत्तान्त लिखते हुए मेडागास्कार द्वीप की यात्रा करने वाले प्रसिद्ध फ्रांसीसी खोजी डा. नेल्सन ने वहां पाये जाने वाले मनुष्य-भक्षी वृक्ष का उल्लेख किया है। नेल्सन ने लिखा है कि 25 से 30 फुट तक ऊंचे इन वृक्षों में थाली जितना बड़ा एक आकर्षण फूल होता है, दुष्ट और पापी लोग भोले-भाले सज्जनों को एक मिथ्या आकर्षण में बांधकर ही तो लूटते हैं इन वृक्षों का सुन्दर फूल देखकर भी जो पक्षी या मनुष्य वहां पहुंच जाता है वृक्ष एक-एक फीट से भी बड़े कांटे उसके शरीर में चुभाकर उसका रक्त चूस लेता है और उसके निर्जीव शरीर को फेंक देता है रक्त चूसने के कुछ समय बाद तक यह फूल आकार में बढ़े हुए होते हैं धीरे-धीरे रक्त शरीर में पच जाता है तब ये सामान्य स्थिति में आ जाते हैं। आस्ट्रेलिया, मलाया, श्री लंका और भारतवर्ष के असम बंगाल क्षेत्र में ‘‘घटपर्णी’’ नामक वृक्ष भी ऐसा ही होता है इसके फल में एक प्रकार का चिपचिपा तरल द्रव लगा रहता है। कीड़े-मकोड़े, पक्षी उसे खाने बैठते हैं तो फल अपना मुंह बन्द कर लेता है और उस दबाये हुए पक्षी या कीड़े को चूस डालता है। इस तरह के राक्षस वृक्ष संसार के और भी दूसरे भागों में पाये जाते हैं, पर इनका उल्लेख कोई आवश्यक नहीं है। दुष्टतायें तो मनुष्य जाति में भी बहुत हैं उन्हें ठीक किया जाना चाहिए।
पौधों में जीवन के अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण है वे पौधे विज्ञान जिन्हें कभी तो पौधे कहता है और कभी जीव-जन्तु। हायड्रा एक ऐसा ही जन्तु है जो देखने में सूखी लकड़ी सा लगता है, इसके कई मुंह होते हैं, यह अपना आकार घटा बढ़ा भी लेता है इसके मुंह में यह बाल ही इसके लिए हाथ और पैरों का काम दे जाते हैं। शरीर से वृक्ष किन्तु प्रकृति और स्वभाव से जन्तु कहे जाने वाले इन पौधों में वेस्टइण्डीज, फ्लोरिडा तथा कैलीफोर्निया में पाया जाने वाला पौधा कैरोपहोलिया, एस्पेरिया आपसिस, पत्थरों में रहने वाला एल्कोनियम तथा बैरियर रीफ (आस्ट्रेलिया) में पाये जाने वाले एक्टीनेरिया उल्लेखनीय हैं इनकी आकृति किसी की गुलाब के फूल जैसी होती है तो किसी की सुन्दर झाड़ फानूस-सी। ऊपर से नितान्त पौधे दिखने वाले यह जीव यदि स्वभाव से भिन्न नहीं होते तो उन्हें वृक्ष-योनि से अलग करना कठिन हो जाता। समुद्र में पाया जाने वाला एक कोशीय जीव- ‘डायटन’ किस श्रेणी में रखा जाय यह अभी तक भी वैज्ञानिकों के विवाद का विषय बना हुआ है। यह अमीबा की तरह भोजन भी ग्रहण कर सकता और वृक्षों की तरह प्रकाश संश्लेषण द्वारा भी अपनी जीवनी शक्ति का विकास करता है। इसीलिए इसे उभयनिष्ठ माना गया है। भारतीय तत्वदर्शियों ने इस सारे गूढ़ ज्ञान के आधार पर वृक्षों को संधियोनि कहा तो इसमें कोई अत्युक्ति नहीं हमें उनके सिद्धान्त को समझना चाहिए। अथर्ववेद में कहा है।
इयं कल्याण्य जरा मृर्त्यस्यामृता गृहै। यस्मै कृता शयेस यश्चकार जजार सः॥
यथार्त्- यह आत्मा जो कल्याण करने वाला है अविनाशी तत्व है मृर्त्यप्राणी के घर शरीर में रहता है जिसे आत्मतत्व का बोध हो जाता है, वह सुख प्राप्त करता है जो उसे प्राप्त करने का पुरुषार्थ करता है वही सब प्रकार से आदरणीय और सम्मानास्पद होता है।
प्रकृति ने जीवधारियों को कर्मवश संधियोनि में जन्म और जीवन दिया है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि वे इस कारण सम्मान और सद्व्यवहार के पात्र नहीं है। जीव-जन्तु कर्मवश इस योनि को प्राप्त हुये हैं। लेकिन मनुष्यों तथा जीवधारियों पर उनके अनन्त उपकार हैं। उनके प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता न रखी जाय यह मनुष्य के लिए शोभा जनक नहीं है इससे मानवीय बुद्धि का पतन ही होता है। वृक्ष वनस्पति के प्रति श्रद्धा और पूज्य भाव की परम्परा को बनाये रखने में मनुष्य की भाव-प्रवणता केवल अपने सहचर स्वजनों के प्रति, ही नहीं सभी वस्तुओं के प्रति व्यक्त की जानी चाहिए। पश्चिमी देशों में वृक्ष वनस्पतियों के साथ सहृदयता और सद्भाव व्यक्त कर उन पर होने वाले प्रभावों के बारे में काफी प्रयोग किये गये हैं।
पेड़ पौधों से प्यार
इन प्रयोगों द्वारा बिना कांटों के गुलाब पैदा करने तथा अन्य वृक्षों में समय से पहले ही फल लगने के आश्चर्यजनक प्रयोग किये गये हैं। जिनमें सफलता भी मिली है। सम्भव है संसार के किसी और भाग में भी अब ऐसे गुलाब के पौधे हों जिनमें कांटे न हों, बेर हों पर उनमें भी कांटे न हों, कुमुदिनी हो पर दिन में भी खिलती हो, अखरोट के वृक्ष हों जो 32 वर्ष की अपेक्षा 16 वर्ष में ही अपनी सामान्य ऊंचाई से भी बड़े होकर अच्छे फल देने लगते हों पर वे होंगे अमेरिका के कैलिफोर्निया में विशेष रूप से तैयार किये गये पौधों की ही सन्तान। कैलिफोर्निया में यह पौधे किसी वनस्पति शास्त्री या किसी ऐसे शोध संस्थान द्वारा तैयार नहीं किये गये। उसका श्रेय एक अमेरिकन सन्त लूथर बरबैंक को है, जिन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में प्रेम योग का अभ्यास किया और यह सिद्ध कर दिखाया कि प्रेम से प्रकृति के अटल सिद्धांतों को भी परिवर्तित किया जा सकता है। यह पौधे और कैलिफोर्निया का लूथर बरबैंक का यह बगीचा उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
एक बार एक सज्जन इस बाग से एक बिना कांटों वाला ‘सेहुंड़’ लेने गये ताकि वे उसे अपने खेत के किनारे-किनारे थूहड़ के रूप में रोप सकें। अमेरिका क्या सारी दुनिया भर में सम्भवतः यही वह स्थान था जहां सेहुंड़ बिना कांटों के थे। बाग का माली खुरपी लेकर डाल काटने चला तो दूर से ही लूथर बरबैंक ने मना किया, बोले— आपसे काटते नहीं बनेगा। लाओ में काट देता हूं। यह कहकर खुरपी उन्होंने अपने हाथ में ले ली और बोले— माना कि यह पौधे है, इनमें जीवन के लक्षण प्रतीत नहीं होते तथापि यह भी आत्मा है और प्रत्येक आत्मा प्रेम की प्यासी भावनाओं की भूखी होती है।
बरबैंक सेहुंड़ के पास बैठकर खुरपी से सेहुंड़ की डाल काटते जाते थे, पर उनकी उस क्रिया में भी कितनी आत्मीयता और ममत्व झलकता था यह देखते ही बनता था, जैसे कोई मां अपने बच्चे को कई बार दण्ड भी देती है पर परोक्ष में उसका हित और मंगल भाव ही उसके हृदय में भरा रहता है, वैसे ही श्री बरबैंक सेहुंड़ को काटते जाते थे और भावनाओं का एक सशक्त स्पंदन भी प्रवाहित करते जाते थे— ऐ पौधे! तुम यह न समझना कि हम तुम्हें काट कर अलग कर रहे हैं। हम तो तुम्हारे और अधिक विस्तार की कामना से विदा कर रहे हैं। यहां से चले जाने के बाद भी तुम मुझसे अलग नहीं होगे। तुम मेरे नाम के साथ जुड़े हो, तुम मेरी आत्मा के अंग हो। माना लोक कल्याण के लिए तुम्हें यहां से दूर जाना पड़ रहा है, पर तुम मेरे जीवन के अभिन्न अंग हो। जहां भी रहोगे हम तुम्हें अपने समीप ही अनुभव करेंगे—ऐसी भावनाओं के साथ बरबैंक ने सेहुंड़ की दो तीन डालें काट दीं और आगन्तुक को दे दीं, आगन्तुक उन्हें ले गया। इस तरह इस बाग की सैकड़ों पौध सारी दुनिया में फैली और बरबैंक के नाम से विख्यात होती गईं।
यह कोई गल्प-कथा नहीं वरन् एक ऐसा तथ्य है जिसने सारे यूरोप के वैज्ञानिकों को यह सोचने के लिये विवश कर दिया कि क्या सचमुच ही भावनाओं के द्वारा पदार्थ के वैज्ञानिक नियम भी परिवर्तित हो सकते हैं?
जिस तरह भारतवर्ष में इन दिनों नेहरू गुलाब, शास्त्री गेहूं आदि नामों से पौधों अन्नों की विशेष नस्लें कृषि विशेषज्ञ वैज्ञानिक अनुसंधान से तैयार कर रहे हैं उसी प्रकार बरबैंक रोज, पोटेटो (आलू), बरबैंक स्क्वैश, बरबैंक चेरी, बरबैंक रोज, बरबैंक वालनट (अखरोट) आदि सैकड़ों पौधों, फलों, सब्जियों तथा अन्नों की नस्लें बरबैंक के नाम से प्रचलित हैं इन्हें बरबैंक ने तैयार किया यह सत्य है पर किसी वैज्ञानिक पद्धति से नहीं, यह उससे भी अधिक सत्य है। यह सब किस तरह सम्भव हुआ उसका वर्णन स्वयं लूथर ने अपने शब्दों में ‘दि ट्रेनिंग आफ ह्यूमन प्लान्ट’ नामक पुस्तक में निम्न प्रकार लिखा है। यह पुस्तक न्यूयार्क की सेंचुरी कम्पनी से 1922 में प्रकाशित हुई है। लूथर लिखते हैं—
आत्म-चेतना के विकास के साथ मैंने अनुभव किया कि संसार का प्रत्येक परमाणु आत्मामय है। जीव जन्तु ही नहीं वृक्ष-वनस्पतियों में भी वही एक आत्मा प्रभासित हो रहा है— यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हुआ। मैं वृक्षों की प्रकृति पर विचार करते-करते इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इनमें जो कांटे हैं वह इनके क्रोध और रुक्षता के संस्कार हैं सम्भव है लोगों ने इन्हें सताया, कष्ट दिया, इनकी आकांक्षाओं की ओर ध्यान नहीं दिया। इसीलिए ये इतने सुन्दर फूल-फल देने के साथ ही कांटे वाले भी हो गये। यदि ऐसा है तो क्या इन्हें प्रेम और दुलार देकर सुधारा भी जा सकता है? ऐसा एक कौतूहल मेरे मन में जागृत हुआ। मैं देखता हूं कि सारा संसार ही प्रेम का प्यासा है। प्रेम के माध्यम से किसी के भी जीवन में परिवर्तन और अच्छाइयां उत्पन्न की जा सकती हैं, तो यह प्रयोग मैंने पौधों पर करना प्रारम्भ किया।
गुलाब का एक छोटा पौधा लगाया तब उसमें एक भी कांटा नहीं था। मैंने उसके पास जा बैठता मेरे अन्तःकरण से भावनाओं की सशक्त तरंगें उठतीं और पास के वातावरण में विचरण करने लगतीं। मैं कहता— मेरे प्यारे बच्चे, मेरे गुलाब! लोग फूल लेने इस दृष्टि से नहीं आते कि तुम्हें कष्ट दें। वह तो तुम्हारे सौंदर्य से प्रेरित होकर आते हैं। वैसे भी तो तुम्हारा सौन्दर्य, तुम्हारी सुवास विश्व-कल्याण के लिये ही है। जब दान और संसार की प्रसन्नता के लिये उत्सर्ग ही तुम्हारा श्रेय है तो फिर यह कांटे तुम क्यों उगाते हो। तुम अपने कांटे निकालना और लोगों को अकारण कष्ट देना भी छोड़ दो, तो फिर देखना कि संसार तुम्हारा कितना सम्मान करता है। अपने स्वभाव की इस मलिनता और कठोरता को निकाल कर एक बार देखो तो सही, कि यह सारा संसार ही तुम्हें हाथों ही हाथों उठाने के लिये तैयार है या नहीं।
गुलाब से मेरी ऐसी बातचीत प्रतिदिन होतीं। भावनायें अन्तःकरण से निकलें और वह खाली चली जायें, तो फिर संसार में ईश्वरीय अस्तित्व को मानता ही कौन? गुलाब धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उसमें सुडौल डालियां फूटीं, चौड़े-चौड़े पत्ते निकले और पाव-पाव भर के हंसते-इठलाते फूल भी निकलने लगे, पर उसमें क्या मजाल कि एक भी कांटा आया हो। आत्मा को आत्मा प्यार से कुछ कहे और वह उसे ठुकरा दे—ऐसा संसार में कहीं हुआ नहीं, फिर भला बेचारा नन्हा-सा पौधा ही अपवाद क्यों बनता। उसने मेरी बात सहर्ष मान ली और मुझे सन्तोष हुआ कि मेरे बाग का गुलाब बिना कांटों का था।
अखरोट का धीरे-धीरे बढ़ना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। मैंने उसे पानी उतना ही दिया, खाद उतनी ही दी, निराई और गुड़ाई में भी कोई अन्तर नहीं आने दिया, फिर ऐसी क्या भूल हो गई, जो अखरोट 32 वर्ष में ही बढ़ने ही हठ ठान बैठा। मैंने समझा इसे भी किसी ने प्यार नहीं दिया।
मैंने उसे सम्बोधित कर कहा— मेरे बच्चे! तुम्हारे लिए हमने सब जुटाया, क्या उस कर्तव्यपरायणता में जो तुम्हारे प्रति असीम प्यार भरा था, उसे तुम समझ नहीं सकते। तुम मेरे बच्चे के समान हो, तुम्हें मैं अलग अस्तित्व दूं ही कैसे? हम तुम एक ही तो हैं। आज माना कि दो रूपों में खड़े हैं, पर एक दिन तो यह अन्तर मिटेगा ही। क्या हम उस आत्मीयता को अभी भी स्थायित्व प्रदान नहीं कर सकते? तुम उगो और जल्दी उगो, ताकि संसार में अपने ही तरह की और जो आत्मायें हैं, उनकी कुछ सेवा कर सकें। अखरोट बढ़ने लगा और 16 वर्ष की आधी आयु में ही अच्छे-अच्छे फल देने लगा। इसी तरह कद्दू, आलू, नेक्टारीनेस, बेरीज, पापीज आदि सैकड़ों पौधों पर प्रयोग कर श्री बरबैंक ने उन्हें प्रकृति के समान गुणों से पृथक गुणों वाले पौधों के रूप में विकसित कर यह दिखा दिया कि प्रेम ही आत्मा की सच्ची प्यास है। जिस प्रकार हम स्वयं औरों से प्रेम चाहते हैं, वैसे ही बिना किसी आकांक्षा के दूसरों को प्रेम लुटाने का अभ्यास कर सके होते, तो आज सारा संसार ही सुधरा हुआ दिखाई देता। प्रेम का सिद्धान्त ही एकमात्र वह साधन है जिससे छोटे-छोटे बच्चों से लेकर पारिवारिक जीवन और आस-पड़ौस के लोगों से लेकर सारे समाज, राष्ट्र और विश्व को भी वैसे ही सुधारा और संवारा जा सकता है जैसे बरबैंक ने पेड़-पौधों को विलक्षण रूप से संवार कर दिखा दिया।
श्री बरबैंक ने श्री योगानन्द नामक भारतीय योगी से क्रिया योग की दीक्षा ली थी। उनका निधन 1926 में हुआ, तब लोगों के मुख से एक ही शब्द निकला था—प्रेम-प्रयोगी का निधन सारे विश्व की क्षति है, वह कभी पूरी नहीं हो सकती।
श्री बरबैंक तत्वदृष्टा थे। प्रेम का अभ्यास उन्होंने पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों तक से करके ही आत्मानुभूति प्राप्त की थी। उसी से वे सिद्ध हो गये थे। उनकी भविष्यवाणियां बहुत महत्वपूर्ण होती थी। लन्दन से प्रकाशित होने वाली ‘ईस्ट और वेस्ट’ पत्रिका में उन्होंने ‘साइन्स एण्ड सिविलाइजेशन’ नाम से लेख प्रकाशित किया। उसमें लिखा था— संसार को सुधारने की शक्ति पूर्व में केवल भारतवर्ष के पास है। पश्चिमी देशों को वहां की योग-क्रिया और प्राणायाम की विधियां सीखने के साथ प्रेम, दया, करुणा, उदारता, क्षमा, मैत्री के भाव भी सीखने और आत्मसात करने चाहिए। मैं देख रहा हूं कि भारतवर्ष उसके लिये अपने आपको तैयार कर रहा है और एक दिन सारे संसार को ही उसके कदमों में झुककर जीवन जीने की शुद्ध पद्धति और आत्म विज्ञान सीखना पड़ेगा, इससे ही संसार का कुछ वास्तविक भला होगा।
1948 में लन्दन के एसोसियोटेड प्रेस में पत्रकारों के सामने भावनाओं के महत्व पर प्रकाश डाला था और कहा था—ईश्वर की ओर से मनुष्य को यदि कोई सर्वोपरि मूल्यवान् उपहार दिया गया है तो वह उपहार भाव सम्पदा ही है। एक दूसरे के प्रति, प्राणि मात्र के प्रति, व्यक्त की जाने वाली भावनाओं के माध्यम से ही हम यह जान सकते हैं कि कोई व्यक्ति ईश्वर के दिये इस अनुदान का मूल्य कितना क्या समझता है तथा उसका किस प्रकार सदुपयोग करता है। इन भावनाओं के विकास, उनके सदुपयोग तथा परिष्कारपूर्वक ही कोई व्यक्ति समस्याओं और जटिलताओं से भरे संसार में सुख शान्तिपूर्वक रह सकता है।
अमरीका के मध्य भाग में पाई जाने वाली एक छिपकली के सिर पर अनेक सींग होते हैं। यह मांसाहारी जन्तु क्रोध की स्थिति में होता है तो उसकी आंखों में रक्त उतर आता है, फिर वह शत्रु पर कैसा भी भयंकर आक्रमण करने से नहीं चूकती। इसका सारा जीवन ही चींटियों, गिराड़ों को मारने खाने में बीतता है, पर अपनी प्रेयसी के प्रति उसकी करुणा भी देखते ही बनती है उसके लिये तो वह गिलहरी और खरगोश की तरह दीन बन जाती है।
बिच्छु बड़ा क्षुद्र जन्तु है किन्तु प्रेम की प्यास से मुक्त वह भी नहीं। वह अपने बच्चों से इतना प्यार करती है कि उन्हें, जब तक वे पूर्ण समर्थ नहीं हो जाते अपनी पीठ पर चढ़ाये घूमती है। भालू खूंख्वार जानवर है, वह भूखा नहीं रह सकता, पर जब कभी मादा भालू बच्चे देगी तो जब तक बच्चों की आंखें नहीं खुल जायेंगी वह उनके पास ही बैठी भूख-प्यास भूलकर उन्हें चूमती चाटती रहेगी।
चींटियों के जीवन में सामान्यतः मजदूर चींटियों में कोई विलक्षणता नहीं होती। उनमें अपनी बुद्धि अपनी निजी कोई इच्छा भी नहीं होती है, एक नियम व्यवस्था के अन्तर्गत जीती रहती हैं तथापि प्रेम की आकांक्षा उनमें भी होती है और वे अपने उस कोमल भाव को दबा नहीं सकतीं इस अन्तरंग भाव की पूर्ति वे किसी और तरह से करती हैं। वह तितली के बच्चे से ही प्रेम करके अपनी आन्तरिक प्यास बुझाती हैं। यद्यपि यह सब एक प्राकृतिक प्रेरणा जैसा लगता है पर मूल भूत भावना का उभार स्पष्ट समझ में आता है। तितलियां फूलों का मधु चूसती रहती हैं उससे उनके जो बच्चे होते हैं उनकी देह भी मीठी होती है। माता-पिता के स्थूल शारीरिक गुण बच्चे पर आते हैं यह एक प्राकृतिक नियम है, तितली के नन्हें बच्चे, जिसे लार्वा कहते हैं, मजदूर चींटियां सावधानी से उठा ले जाती हैं, उसके शरीर के मीठे वाले अंग को चाट-चाट कर चींटी अपने परिवार के लिए मधु एकत्र कर लेती है पर ऐसा करते हुए स्पष्ट-सा पता चलता रहता है कि यह एक स्वार्थपूर्ण कार्य है इससे नन्हें से लार्वे को कष्ट पहुंचता है इसलिये वह थोड़ी मिठास एकत्र कर लेने के तुरन्त बाद उस बच्चे को परिचर्या भवन में ले जाती हैं और उसकी तब तक सेवा सुश्रूषा करती रहती हैं जब तक लार्वा बढ़कर एक अच्छी तितली नहीं बन जाता। तितली बन जाने पर चींटी उसे हार्दिक स्वागत के साथ घर से विदा कर देती है। जीव शास्त्रियों के लिये चींटी और तितली की यह प्रगाढ़ मैत्री गूढ़ रहस्य बनी हुई है। उसकी मूल प्रेरणा अन्तरंग का वह प्यार ही है। जिसके लिए आत्मायें जीवन-भर प्यासी इधर-उधर भटकती रहती हैं।
आस्ट्रेलिया के फैलेन्जर्स नामक गिलहरी की शक्ल का एक जीव पाया जाता है। इसे सुगर स्क्वैरेल भी कहते हैं। यह एक लड़ाकू और उग्र स्वभाव वाला जीव है, तो भी उसकी अपने बच्चों और पारिवारीय जनों के प्रति ममता देखते ही बनती है। वह जहां भी जाती है अपनी एक विशेष थैली में बच्चों को टिकाये रहती हैं और थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हें चाटती और सहलाती रहा करती है। मानो वह अपने अन्तःकरण की प्रेम भावनाओं के उद्वेग को सम्भाल सकने में असमर्थ हो जाती हो। जीव-जन्तुओं का यह प्रेम-प्रदर्शन यद्यपि एक छोटी सीमा तक अपने बच्चों और कुटुम्ब तक ही सीमित रहता है तथापि वह इस बात का प्रमाण है कि प्रेम जीव मात्र की अन्तरंग सकता है। इसलिये कि वह अधिक संवेदनशील और कोमल भावनाओं वाला है। अन्य जीवों का प्यार पूर्णतया संतुष्ट नहीं हो पाता इसलिये वे अपेक्षाकृत अधिक कठोर, स्वार्थी और खूंख्वार से जान पड़ते हैं, पर इसमें सन्देह नहीं कि यदि उनके अन्तःकरण में छिपे प्रेमभाव से तादात्म्य किया जा सके तो उन हिंसक व मूर्ख जन्तुओं में भी प्रकृति का अगाध सौन्दर्य देखने को मिल सकता है। भगवान शिव सर्पों को गले से लटकाए रहते हैं, महर्षि रमण के आश्रम में बन्दर, मोर और गिलहरी ही नहीं सर्प, भेड़िये आदि तक अपने पारिवारिक झगड़े तय कराने आया करते थे। सारा ‘अरुणाचलम्’ पर्वत उनका घर था और उसमें निवास करने वाले सभी जीव-जन्तु उनके बन्धु, बान्धव, सुहृद, सखा पड़ौसी थे। स्वामी रामतीर्थ हिमालय में जहां रहते वहां शेर, चीते प्रायः उनके दर्शनों को आया करते और उनके समीप बैठकर घंटों विश्राम किया करते थे। यह उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि हमारा प्रेमभाव विस्तृत हो सके तो हम अपने को विराट् विश्व परिवार के सदस्य होने का गौरव प्राप्त कर एक ऐसी आनन्द निर्झरिणी में प्रवाहित होने का आनन्द लूट सकते हैं जिसके आगे संसार के सारे सुख-वैभव फीके पड़ जायें।
600 वर्ष पूर्व की घटना है रोम में एक महिला अपने बच्चे से खेल रही थी। वह कभी उसे कपड़े पहनाती कभी दूध पिलाती, इधर-उधर के काम करके फिर बच्चे के पास आकर उसे चूमती चाटती और अपने काम में चली जाती। प्रेम भावनाओं से जीवन की थकान मिटती है। लगता है अपने काम की थकावट दूर करने के लिए उसे बार-बार बच्चे से प्यार जताना आवश्यक हो जाता था। घर के सामने एक ऊंचा टावर था उसमें बैठा हुआ एक बन्दर यह सब बड़ी देर से, बड़े ध्यान से देख रहा था। स्त्री जैसे ही कुछ क्षण के लिये अलग हुई कि बन्दर लपका और उस बच्चे को उठा ले गया। लोगों ने भागदौड़ मचायी तब तक बन्दर सावधानी के साथ बच्चे को लेकर उसी टावर पर चढ़ गया। जैसे-जैसे उसमें मां को बच्चे से प्यार करते देखा था स्वयं भी बच्चे के साथ वैसे ही व्यवहार करने लगा। कभी उसे चूमता चाटता तो कभी उसके कपड़े उतार कर फिर से पहनाता। इधर वह अपनी प्रेम की प्यास बुझा रहा था उधर उसकी मां और घर वाले तड़प रहे थे, बिलख-बिलख कर रो रहे थे। बच्चे की मां तो एकटक उसी टावर की ओर देखती हुई बुरी तरह चीख कर रो रही थी।
बन्दर ने यह सब देखा। संभवतः उसने सारी स्थिति भी समझ ली इसीलिये एक हाथ से बच्चे को छाती से चिपका लिया शेष तीन हाथ-पांव की मदद से वह बड़ी सावधानी से नीचे उतरा और बिना किसी भय अथवा संकोच के उस स्त्री के पास तक गया और बच्चे को उसके हाथों में सौंप दिया। यह कौतुक लोग स्तब्ध खड़े देख रहे थे और देख रहे थे साथ-साथ एक कटु सत्य, किस तरह बन्दर जैसा चंचल प्राणी प्रेम के प्रति इस तरह गम्भीर और आस्थावान हो सकता है। मां के हाथ में बच्चा पहुंचा सब लोग देखने लगे उसे कहीं कोई चोट तो नहीं आई। इस बीच बन्दर वहां से कहां गया, किधर चला गया वह आज तक किसी ने नहीं जाना।
पीछे जब लोगों का ध्यान उधर गया तो सबने यह माना कि बन्दर या तो कोई दैवी शक्ति थी जो प्रेम की वात्सल्य महत्ता दर्शाने आई थी अथवा वह प्रेम से बिछड़ी हुई कोई आत्मा थी जो अपनी प्यास को एक क्षणिक तृप्ति देने आई थी। उस बन्दर की याद में एक अखण्ड-दीप जलाकर उसी टावर में रखा गया। इस टावर का नाम भी उसकी यादगार में बन्दर टावर (मंकी टावर) रखा गया। कहते हैं 600 वर्ष हुये यह दीपक आज भी जल रहा है। दीपक के 600 वर्ष से चमत्कारिक रूप से जलते रहने में कितनी सत्यता है, हम नहीं जानते, पर यह सत्य है कि बन्दर के अन्तःकरण में बच्चे के प्रति प्रसृत प्यार का प्रकाश जब तक यह टावर खड़ा रहेगा, लाखों लोगों का ध्यान मानव जीवन की इस परम उदात्त ईश्वरीय प्रेरणा की ओर आकर्षित करता रहेगा।
प्रेम की यह आशा और प्यास केवल जीव धारियों तक- जिन्हें हम जीवित समझते हैं उन जानवरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि पेड़-पौधे भी प्राणवान होते हैं और वे भी प्रेम, स्नेह, सहानुभूति की अपेक्षा रखते हैं।
पेड़ पौधों में भी प्राण हैं
पेड़ पौधों में भी प्राण और जीवन है इसका प्रमाण छोटे-छोटे प्रयोगों द्वारा भी मिल जाता है। कोई नाक और मुंह बन्द कर दे तो मनुष्य मर जाता है। पौधे के किसी पत्ते में छेद कर दिया जाये, या उसके दोनों तरफ कागज चिपका दिया जाय तो पत्ता कुछ ही समय में पीला पड़कर गिर जायगा। यदि तमाम पत्ते न होते तो संभवतः पेड़ ही नष्ट हो जाते। मानना चाहिए कि प्रकृति ही हर रचना परमात्मा की कृपा और सृष्टि व्यवस्था का अंग है। कोई ऊबड़-खाबड़ बनावट मात्र नहीं। कुछ पौधे तो जल के भीतर रहते हैं, उनके लिए भी सांस आवश्यक है। यूरोप के तालाबों में एक पौधा पाया जाता है, जिसके पत्तों में झिल्ली नहीं होती। उसके लिए मछलियां पानी में मिली हुई वायु के कण अलग कर देती हैं, इसी से वह अपना जीवन चलाता रहता है, पर श्वांस के बिना जीवित वह भी नहीं रह सकता, वृक्षों के जीवन के यह अकाट्य तर्क हैं।
आत्मा वृक्षों और वनस्पतियों में भी है, इसलिये अध्यात्मवादी दृष्टिकोण के अनुसार उनके साथ भी सद्व्यवहार करना चाहिये, वृक्षों का लगाना, उनका पोषण करना एक पुण्य माना गया है, उसी प्रकार उन्हें काटना और बढ़ने न देना पाप कहा गया है। वृक्ष हमें प्राण-वायु, जीवन-तत्त्व, हरीतिमा, छाया, लकड़ी, पुष्प-फल आदि बहुत कुछ देते हैं, ऐसे उपकारी प्राणियों से, वृक्षों से हमें बहुत कुछ सीखना है और उनके जैसा उपकारी बनना है।
यह प्रश्न हो सकता है कि वृक्ष जड़ हैं, उनमें किसी तरह की चेतना संवेदनशीलता नहीं है, इसीलिये उनके साथ जड़ जैसा बर्ताव करना पाप या अनुचित कर्म नहीं। इस सम्बन्ध में वैदिक मान्यतायें स्पष्ट ही इस पक्ष में हैं कि वृक्षों में जीवन है, अब उक्त कथन को वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा भी सिद्ध करना सम्भव हो गया है। सर जगदीशचन्द्र बोस का तो जीवन ही इस बात में लग गया, उन्होंने वृक्षों की संवेदनशीलता के अनेक प्रयोग किये थे। सांस और स्पन्दन की गति की नाप और जहरीले पदार्थों का प्रयोग करके यहां तक सिद्ध कर दिखाया था कि जिस तरह और प्राणियों के शरीर में विष का प्रभाव होता है, वृक्षों पर भी वैसा ही प्रभाव पड़ता है। हरे-भरे होना वृक्षों का जीवन है तो उनका सूख जाना ही मृत्यु। मनुष्यों की तरह आहार पर जीवित रहने, सांस लेने, सूर्य रश्मियों से जीवन ग्रहण करने, काम क्रीड़ायें आदि विभिन्न क्रियायें वृक्ष-वनस्पति भी करते हैं, इसलिये उन्हें प्राणिजगत् का ही एक अंग मानने से इनकार नहीं किया जा सकता।
‘केतकीयम’ भारतीय शब्द भी इसी मान्यता का प्रतिपादक है कि प्रत्येक वृक्ष के फूलों में नर और मादा किस्में होती हैं और उन दोनों के संयोग से ही उनकी वंशावली का विकास होता है। कई बार यह माध्यम पशु-पक्षियों और हवा आदि के द्वारा भी बनता है। पर यह संयोग प्रत्येक दशा में आवश्यक है। बीजाण्ड में फल का विकास गर्भ-कोष में पड़े वीर्य से बच्चे के विकास जैसा ही होता है।
वृक्षों में जीवन के अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण उसका विश्लेषण है। जिस प्रकार जीवित प्राणी प्रोटोप्लाज्मा नामक तत्त्व से बना होता है उसका सबसे सूक्ष्म कण सेल कहलाता है, उसी प्रकार वनस्पति के सबसे छोटे अणु का नाम जीवाणु (वैक्टीरिया) है। इन्हें एक कोशिका वाले पौधे कहा जा सकता है और वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि माइक्रोस्कोप की सहायता से बिना देखे नहीं जा सकते। यही जीवाणु मनुष्यों और पशुओं की आहार नली में रहते हैं और सैल्यूलोज वाले भाग को पचाने का काम करते हैं। जीवाणु कोशिका की लम्बाई 0.5 माइक्रोन तक होती है। यह तीन प्रकार के होते हैं, गोलाणु (कोकस) दण्डाणु (वैसिलस) और सर्पिलाणु (स्पिरिलस)।
कोशिका जिस तरह प्रोटीन के आवरण में बन्द होती है और उसके भीतर केन्द्रक (न्यूक्लियस) काम किया करता है, उसी प्रकार जीवाणु कोशिका एक लिसलिसी श्लैष्मपरत (कैप्सूल) में बन्द (रेजिस्ट) होती है। कोशिका भित्ति की सुरक्षा के लिये प्लाज्मा झिल्ली (प्लाज्मा मैम्बरैन) होती है। किन्तु किन्हीं जीवाणु कोशिकाओं के केन्द्रक नहीं भी होते हैं तो भी उनमें केन्द्रकीय पदार्थ (क्रोमिटिन) अवश्य होता है। यह जीवाणु भी अलैंगिक रीति से स्वयं ही बढ़ने की वैसी ही क्षमता रखते हैं, जैसे कि ‘प्रोटोप्लाज्मा’ केन्द्रक। एक कोशिका से विभाजन प्रारम्भ होता है तो 15 घण्टे बाद उसी तरह की एक अरब संतति कोशिकायें (डाटर सेल्स) जन्म ले लेती हैं। 36 घण्टे बाद इनकी तादात इतनी हो जाती है कि उससे सौ ट्रक भरे जा सकते हैं, यह गति यदि निर्बाध चलती रहे तो 48 घण्टे बाद एक कोशिका से बने अन्य कोशिकाओं का भार पृथ्वी के भार से चौगुना अधिक हो जायेगा, किन्तु उसकी ही देह से निकले विषैले पदार्थ इस वृद्धि को रोक देते हैं और यह गति रुक जाती है। वस्तुतः यह बाढ़ मानव जाति के हित में ही है। जीवाणु सर्वत्र विद्यमान रहकर मनुष्य जाति की बड़ी सेवा करते हैं, एक प्रतिशत जीवाणु ही मनुष्य के लिये हानिकारक हैं। अन्यथा पौधों और जन्तुओं के हानिकारक तत्त्वों और मृत अवशेषों का विघटन यह जीवाणु ही करते हैं। प्रति पौधा 200 अरब टन कार्बन, कार्बन-डाइऑक्साइड गैस लेकर प्रकाश-किरणों द्वारा उसे जैव पदार्थ में बदल देता है। यह कार्बन जीवों द्वारा पैदा की जाती है, यदि जीवाणु यह क्रिया सम्पन्न न करें तो सारा वायु मण्डल कार्बन डाइऑक्साइड से आच्छादित हो जाये और मनुष्य का धरती पर रहना कठिन हो जाये।
जीवाणु की क्रिया और प्रोटोप्लाज्मा की कोशिका (सेल) की क्रिया का तुलनात्मक अध्ययन करें तो दोनों में एक जैसी चेतना ही दिखाई देती है, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, आकृति और कार्य प्रणाली में थोड़ा अन्तर है, जो मनुष्य के हित में पूरक ही है। यदि यह पूरक क्रिया सम्पन्न न हो तो मनुष्य का जीवन खतरे में पड़ जाये। विश्व चेतना का यह अंश मनुष्य के उपयोग में आता है पर उसका यह अर्थ नहीं लगा लेना चाहिए कि उसमें आत्मा नहीं है। यदि मनुष्य की प्रजनन प्रणाली, खाद्य प्रणाली, मल विसर्जन आदि की क्रियायें और उसकी परमाणविक रचना में वृक्ष वनस्पतियों की क्रिया प्रणाली में साम्य पाया जाता है तो उसे विश्व-व्यापी चेतना का स्वरूप ही मानना चाहिए। यदि विज्ञान की इन उपलब्धियों से भी मनुष्य यह मानने को तैयार नहीं होता तो उसे हठधर्मी ही कहा जायेगा।
वृक्ष दीखते और समझे भर जड़ रहते हैं, वस्तुतः वे चेतन हैं। एक ही चेतन आत्मा सर्वत्र सबमें विद्यमान है। यह अनुभव करते हुए हमें विराट् ब्रह्म की असीम चेतना अपने चारों ओर फैली हुई देखनी चाहिए और सबके साथ सहृदयतापूर्ण व्यवहार करना चाहिये। वृक्षों को भी अकारण क्षति न पहुंचायें, यही उचित है।
शास्त्रकार का कथन है- खं वायुमग्निं सलिलं महीं च, ज्योतीषि सत्त्वानि दिशोद्रुमादीन। सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं, यत्किंच भूतं प्रणमेदनन्यः॥ भक्ति सूक्त 26
तात्! आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नक्षत्र, जीव जन्तु, दिशायें, वृक्ष, नदियां, समुद्र तथा और भी जो कुछ भूत जात है वह सब परमात्मा का ही शरीर है। अतएव सबको अनन्य भाव से प्रणाम करें।
उपरोक्त सूक्त में आचार्य संकेत करते हैं कि एक ही चेतन आत्मा सब में विद्यमान है यह अनुभव करते हुए हमें विराट् ब्रह्म की असीम चेतना अपने चारों ओर फैली देखनी चाहिए और सबके साथ सहृदयतापूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
स्थूल दृष्टि से यह बात कुछ असंगत प्रतीत सी होती है कि जड़ को भी चेतन माना जाये। नदियां, पहाड़, दिशायें, नक्षत्र भी जीवन धारा हो सकते हैं इन्हें थोड़ा जटिल कहा जा सकता है पर वृक्ष-वनस्पति के बारे में तो अब विज्ञान को भी इस बात का सन्देह नहीं रहा कि उनमें जीवन नहीं है। जीवधारियों के सारे लक्षण उनमें पाये जाते हैं। श्वांस-क्रिया गति और जीवन का प्रथम लक्षण है। कुछ दशाब्दी पूर्व तक इस सम्बन्ध में विज्ञान जगत पूर्ण अन्धकार में था किन्तु जब उन्होंने पौधों के शरीर में जीवन-स्पन्दन की पुष्टि की तो इस दिशा में वैज्ञानिक तेजी से आकृष्ट हुए और नये-नये आविष्कार अनुसंधान हुए जिन्होंने पुष्ट किया कि सचमुच यदि अन्तःचेतना का विश्लेषण करके देखा जाये तो शक नहीं वृक्ष-वनस्पति में भी मानवीय चेतना का अस्तित्व स्पष्ट देखा जा सकता है। अगर यह लिखा जाय कि वृक्षों में श्वांस-प्रश्वांस क्रिया अन्य जीव-जन्तुओं की अपेक्षा कहीं अधिक सुन्दर और शक्तिदायक है तो उसे आश्चर्यजनक नहीं माना जाना चाहिए। स्थूल दृष्टि से पौधों में नाक नहीं होती, फेफड़े भी नहीं होते पर यदि सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) से देखें तो पौधे के पत्ते-पत्ते में श्वांस छिद्र देखे जा सकते हैं। इन छिद्रों से ही वे श्वांस लेते हैं यह अलग बात है कि प्राकृतिक सन्तुलन बनाये रखने के लिए पौधे मनुष्य और अन्य जीवधारियों द्वारा छोड़ी हुई दूषित वायु कार्बन डाइऑक्साइड मूर्छित और अर्द्ध चेतन रखने वाली गैस है इसी का प्रभाव है कि वृक्ष संधि योनि में अचेत और मूर्छित पड़े रहते हैं यदि प्रकृति ने ऐसा नहीं किया होता तो वृक्षों के पास कोई जाता, अपशब्द बकता या उन्हें काटता तो अपने डाल रूप हाथ से वे जोर से तमाचा मार देते। ऐसा न कर प्रकृति ने किसी कर्मवश उन्हें अन्य जीवधारियों का पोषक बनाया। कर्मफल का सिद्धान्त परमात्मा की न्याय व्यवस्था का अटल नियम है। वृक्ष वनस्पतियों के रूप में विद्यमान जीवात्मायें सम्भवतः उसी व्यवस्था के अन्तर्गत अपने किन्हीं कर्मों के कारण एक ही स्थान पर स्थिर रहने, हिलने डुलने की क्षमता से वंचित कर दी गयी हों।
मनुष्यों में भी इस प्रकार की कई कोटियां देखने में आती हैं। कई मनुष्य क्रोधी और क्रूर स्वभाव के देखे जाते हैं तो कइयों में संतों के गुण और विशेषतायें देखी जाती हैं। वृक्षों में भी यह गुण विद्यमान होते हैं। इन गुणों की विद्यमानता देखकर पता चलता है कि वे भी कर्म-बन्धनों से बंधे जीव हैं उनकी प्रकृति कैसी भी क्यों न होती हो। ऐसे क्रूरकर्मा एक वृक्ष का वृत्तान्त लिखते हुए मेडागास्कार द्वीप की यात्रा करने वाले प्रसिद्ध फ्रांसीसी खोजी डा. नेल्सन ने वहां पाये जाने वाले मनुष्य-भक्षी वृक्ष का उल्लेख किया है। नेल्सन ने लिखा है कि 25 से 30 फुट तक ऊंचे इन वृक्षों में थाली जितना बड़ा एक आकर्षण फूल होता है, दुष्ट और पापी लोग भोले-भाले सज्जनों को एक मिथ्या आकर्षण में बांधकर ही तो लूटते हैं इन वृक्षों का सुन्दर फूल देखकर भी जो पक्षी या मनुष्य वहां पहुंच जाता है वृक्ष एक-एक फीट से भी बड़े कांटे उसके शरीर में चुभाकर उसका रक्त चूस लेता है और उसके निर्जीव शरीर को फेंक देता है रक्त चूसने के कुछ समय बाद तक यह फूल आकार में बढ़े हुए होते हैं धीरे-धीरे रक्त शरीर में पच जाता है तब ये सामान्य स्थिति में आ जाते हैं। आस्ट्रेलिया, मलाया, श्री लंका और भारतवर्ष के असम बंगाल क्षेत्र में ‘‘घटपर्णी’’ नामक वृक्ष भी ऐसा ही होता है इसके फल में एक प्रकार का चिपचिपा तरल द्रव लगा रहता है। कीड़े-मकोड़े, पक्षी उसे खाने बैठते हैं तो फल अपना मुंह बन्द कर लेता है और उस दबाये हुए पक्षी या कीड़े को चूस डालता है। इस तरह के राक्षस वृक्ष संसार के और भी दूसरे भागों में पाये जाते हैं, पर इनका उल्लेख कोई आवश्यक नहीं है। दुष्टतायें तो मनुष्य जाति में भी बहुत हैं उन्हें ठीक किया जाना चाहिए।
पौधों में जीवन के अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण है वे पौधे विज्ञान जिन्हें कभी तो पौधे कहता है और कभी जीव-जन्तु। हायड्रा एक ऐसा ही जन्तु है जो देखने में सूखी लकड़ी सा लगता है, इसके कई मुंह होते हैं, यह अपना आकार घटा बढ़ा भी लेता है इसके मुंह में यह बाल ही इसके लिए हाथ और पैरों का काम दे जाते हैं। शरीर से वृक्ष किन्तु प्रकृति और स्वभाव से जन्तु कहे जाने वाले इन पौधों में वेस्टइण्डीज, फ्लोरिडा तथा कैलीफोर्निया में पाया जाने वाला पौधा कैरोपहोलिया, एस्पेरिया आपसिस, पत्थरों में रहने वाला एल्कोनियम तथा बैरियर रीफ (आस्ट्रेलिया) में पाये जाने वाले एक्टीनेरिया उल्लेखनीय हैं इनकी आकृति किसी की गुलाब के फूल जैसी होती है तो किसी की सुन्दर झाड़ फानूस-सी। ऊपर से नितान्त पौधे दिखने वाले यह जीव यदि स्वभाव से भिन्न नहीं होते तो उन्हें वृक्ष-योनि से अलग करना कठिन हो जाता। समुद्र में पाया जाने वाला एक कोशीय जीव- ‘डायटन’ किस श्रेणी में रखा जाय यह अभी तक भी वैज्ञानिकों के विवाद का विषय बना हुआ है। यह अमीबा की तरह भोजन भी ग्रहण कर सकता और वृक्षों की तरह प्रकाश संश्लेषण द्वारा भी अपनी जीवनी शक्ति का विकास करता है। इसीलिए इसे उभयनिष्ठ माना गया है। भारतीय तत्वदर्शियों ने इस सारे गूढ़ ज्ञान के आधार पर वृक्षों को संधियोनि कहा तो इसमें कोई अत्युक्ति नहीं हमें उनके सिद्धान्त को समझना चाहिए। अथर्ववेद में कहा है।
इयं कल्याण्य जरा मृर्त्यस्यामृता गृहै। यस्मै कृता शयेस यश्चकार जजार सः॥
यथार्त्- यह आत्मा जो कल्याण करने वाला है अविनाशी तत्व है मृर्त्यप्राणी के घर शरीर में रहता है जिसे आत्मतत्व का बोध हो जाता है, वह सुख प्राप्त करता है जो उसे प्राप्त करने का पुरुषार्थ करता है वही सब प्रकार से आदरणीय और सम्मानास्पद होता है।
प्रकृति ने जीवधारियों को कर्मवश संधियोनि में जन्म और जीवन दिया है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि वे इस कारण सम्मान और सद्व्यवहार के पात्र नहीं है। जीव-जन्तु कर्मवश इस योनि को प्राप्त हुये हैं। लेकिन मनुष्यों तथा जीवधारियों पर उनके अनन्त उपकार हैं। उनके प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता न रखी जाय यह मनुष्य के लिए शोभा जनक नहीं है इससे मानवीय बुद्धि का पतन ही होता है। वृक्ष वनस्पति के प्रति श्रद्धा और पूज्य भाव की परम्परा को बनाये रखने में मनुष्य की भाव-प्रवणता केवल अपने सहचर स्वजनों के प्रति, ही नहीं सभी वस्तुओं के प्रति व्यक्त की जानी चाहिए। पश्चिमी देशों में वृक्ष वनस्पतियों के साथ सहृदयता और सद्भाव व्यक्त कर उन पर होने वाले प्रभावों के बारे में काफी प्रयोग किये गये हैं।
पेड़ पौधों से प्यार
इन प्रयोगों द्वारा बिना कांटों के गुलाब पैदा करने तथा अन्य वृक्षों में समय से पहले ही फल लगने के आश्चर्यजनक प्रयोग किये गये हैं। जिनमें सफलता भी मिली है। सम्भव है संसार के किसी और भाग में भी अब ऐसे गुलाब के पौधे हों जिनमें कांटे न हों, बेर हों पर उनमें भी कांटे न हों, कुमुदिनी हो पर दिन में भी खिलती हो, अखरोट के वृक्ष हों जो 32 वर्ष की अपेक्षा 16 वर्ष में ही अपनी सामान्य ऊंचाई से भी बड़े होकर अच्छे फल देने लगते हों पर वे होंगे अमेरिका के कैलिफोर्निया में विशेष रूप से तैयार किये गये पौधों की ही सन्तान। कैलिफोर्निया में यह पौधे किसी वनस्पति शास्त्री या किसी ऐसे शोध संस्थान द्वारा तैयार नहीं किये गये। उसका श्रेय एक अमेरिकन सन्त लूथर बरबैंक को है, जिन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में प्रेम योग का अभ्यास किया और यह सिद्ध कर दिखाया कि प्रेम से प्रकृति के अटल सिद्धांतों को भी परिवर्तित किया जा सकता है। यह पौधे और कैलिफोर्निया का लूथर बरबैंक का यह बगीचा उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
एक बार एक सज्जन इस बाग से एक बिना कांटों वाला ‘सेहुंड़’ लेने गये ताकि वे उसे अपने खेत के किनारे-किनारे थूहड़ के रूप में रोप सकें। अमेरिका क्या सारी दुनिया भर में सम्भवतः यही वह स्थान था जहां सेहुंड़ बिना कांटों के थे। बाग का माली खुरपी लेकर डाल काटने चला तो दूर से ही लूथर बरबैंक ने मना किया, बोले— आपसे काटते नहीं बनेगा। लाओ में काट देता हूं। यह कहकर खुरपी उन्होंने अपने हाथ में ले ली और बोले— माना कि यह पौधे है, इनमें जीवन के लक्षण प्रतीत नहीं होते तथापि यह भी आत्मा है और प्रत्येक आत्मा प्रेम की प्यासी भावनाओं की भूखी होती है।
बरबैंक सेहुंड़ के पास बैठकर खुरपी से सेहुंड़ की डाल काटते जाते थे, पर उनकी उस क्रिया में भी कितनी आत्मीयता और ममत्व झलकता था यह देखते ही बनता था, जैसे कोई मां अपने बच्चे को कई बार दण्ड भी देती है पर परोक्ष में उसका हित और मंगल भाव ही उसके हृदय में भरा रहता है, वैसे ही श्री बरबैंक सेहुंड़ को काटते जाते थे और भावनाओं का एक सशक्त स्पंदन भी प्रवाहित करते जाते थे— ऐ पौधे! तुम यह न समझना कि हम तुम्हें काट कर अलग कर रहे हैं। हम तो तुम्हारे और अधिक विस्तार की कामना से विदा कर रहे हैं। यहां से चले जाने के बाद भी तुम मुझसे अलग नहीं होगे। तुम मेरे नाम के साथ जुड़े हो, तुम मेरी आत्मा के अंग हो। माना लोक कल्याण के लिए तुम्हें यहां से दूर जाना पड़ रहा है, पर तुम मेरे जीवन के अभिन्न अंग हो। जहां भी रहोगे हम तुम्हें अपने समीप ही अनुभव करेंगे—ऐसी भावनाओं के साथ बरबैंक ने सेहुंड़ की दो तीन डालें काट दीं और आगन्तुक को दे दीं, आगन्तुक उन्हें ले गया। इस तरह इस बाग की सैकड़ों पौध सारी दुनिया में फैली और बरबैंक के नाम से विख्यात होती गईं।
यह कोई गल्प-कथा नहीं वरन् एक ऐसा तथ्य है जिसने सारे यूरोप के वैज्ञानिकों को यह सोचने के लिये विवश कर दिया कि क्या सचमुच ही भावनाओं के द्वारा पदार्थ के वैज्ञानिक नियम भी परिवर्तित हो सकते हैं?
जिस तरह भारतवर्ष में इन दिनों नेहरू गुलाब, शास्त्री गेहूं आदि नामों से पौधों अन्नों की विशेष नस्लें कृषि विशेषज्ञ वैज्ञानिक अनुसंधान से तैयार कर रहे हैं उसी प्रकार बरबैंक रोज, पोटेटो (आलू), बरबैंक स्क्वैश, बरबैंक चेरी, बरबैंक रोज, बरबैंक वालनट (अखरोट) आदि सैकड़ों पौधों, फलों, सब्जियों तथा अन्नों की नस्लें बरबैंक के नाम से प्रचलित हैं इन्हें बरबैंक ने तैयार किया यह सत्य है पर किसी वैज्ञानिक पद्धति से नहीं, यह उससे भी अधिक सत्य है। यह सब किस तरह सम्भव हुआ उसका वर्णन स्वयं लूथर ने अपने शब्दों में ‘दि ट्रेनिंग आफ ह्यूमन प्लान्ट’ नामक पुस्तक में निम्न प्रकार लिखा है। यह पुस्तक न्यूयार्क की सेंचुरी कम्पनी से 1922 में प्रकाशित हुई है। लूथर लिखते हैं—
आत्म-चेतना के विकास के साथ मैंने अनुभव किया कि संसार का प्रत्येक परमाणु आत्मामय है। जीव जन्तु ही नहीं वृक्ष-वनस्पतियों में भी वही एक आत्मा प्रभासित हो रहा है— यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हुआ। मैं वृक्षों की प्रकृति पर विचार करते-करते इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इनमें जो कांटे हैं वह इनके क्रोध और रुक्षता के संस्कार हैं सम्भव है लोगों ने इन्हें सताया, कष्ट दिया, इनकी आकांक्षाओं की ओर ध्यान नहीं दिया। इसीलिए ये इतने सुन्दर फूल-फल देने के साथ ही कांटे वाले भी हो गये। यदि ऐसा है तो क्या इन्हें प्रेम और दुलार देकर सुधारा भी जा सकता है? ऐसा एक कौतूहल मेरे मन में जागृत हुआ। मैं देखता हूं कि सारा संसार ही प्रेम का प्यासा है। प्रेम के माध्यम से किसी के भी जीवन में परिवर्तन और अच्छाइयां उत्पन्न की जा सकती हैं, तो यह प्रयोग मैंने पौधों पर करना प्रारम्भ किया।
गुलाब का एक छोटा पौधा लगाया तब उसमें एक भी कांटा नहीं था। मैंने उसके पास जा बैठता मेरे अन्तःकरण से भावनाओं की सशक्त तरंगें उठतीं और पास के वातावरण में विचरण करने लगतीं। मैं कहता— मेरे प्यारे बच्चे, मेरे गुलाब! लोग फूल लेने इस दृष्टि से नहीं आते कि तुम्हें कष्ट दें। वह तो तुम्हारे सौंदर्य से प्रेरित होकर आते हैं। वैसे भी तो तुम्हारा सौन्दर्य, तुम्हारी सुवास विश्व-कल्याण के लिये ही है। जब दान और संसार की प्रसन्नता के लिये उत्सर्ग ही तुम्हारा श्रेय है तो फिर यह कांटे तुम क्यों उगाते हो। तुम अपने कांटे निकालना और लोगों को अकारण कष्ट देना भी छोड़ दो, तो फिर देखना कि संसार तुम्हारा कितना सम्मान करता है। अपने स्वभाव की इस मलिनता और कठोरता को निकाल कर एक बार देखो तो सही, कि यह सारा संसार ही तुम्हें हाथों ही हाथों उठाने के लिये तैयार है या नहीं।
गुलाब से मेरी ऐसी बातचीत प्रतिदिन होतीं। भावनायें अन्तःकरण से निकलें और वह खाली चली जायें, तो फिर संसार में ईश्वरीय अस्तित्व को मानता ही कौन? गुलाब धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उसमें सुडौल डालियां फूटीं, चौड़े-चौड़े पत्ते निकले और पाव-पाव भर के हंसते-इठलाते फूल भी निकलने लगे, पर उसमें क्या मजाल कि एक भी कांटा आया हो। आत्मा को आत्मा प्यार से कुछ कहे और वह उसे ठुकरा दे—ऐसा संसार में कहीं हुआ नहीं, फिर भला बेचारा नन्हा-सा पौधा ही अपवाद क्यों बनता। उसने मेरी बात सहर्ष मान ली और मुझे सन्तोष हुआ कि मेरे बाग का गुलाब बिना कांटों का था।
अखरोट का धीरे-धीरे बढ़ना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। मैंने उसे पानी उतना ही दिया, खाद उतनी ही दी, निराई और गुड़ाई में भी कोई अन्तर नहीं आने दिया, फिर ऐसी क्या भूल हो गई, जो अखरोट 32 वर्ष में ही बढ़ने ही हठ ठान बैठा। मैंने समझा इसे भी किसी ने प्यार नहीं दिया।
मैंने उसे सम्बोधित कर कहा— मेरे बच्चे! तुम्हारे लिए हमने सब जुटाया, क्या उस कर्तव्यपरायणता में जो तुम्हारे प्रति असीम प्यार भरा था, उसे तुम समझ नहीं सकते। तुम मेरे बच्चे के समान हो, तुम्हें मैं अलग अस्तित्व दूं ही कैसे? हम तुम एक ही तो हैं। आज माना कि दो रूपों में खड़े हैं, पर एक दिन तो यह अन्तर मिटेगा ही। क्या हम उस आत्मीयता को अभी भी स्थायित्व प्रदान नहीं कर सकते? तुम उगो और जल्दी उगो, ताकि संसार में अपने ही तरह की और जो आत्मायें हैं, उनकी कुछ सेवा कर सकें। अखरोट बढ़ने लगा और 16 वर्ष की आधी आयु में ही अच्छे-अच्छे फल देने लगा। इसी तरह कद्दू, आलू, नेक्टारीनेस, बेरीज, पापीज आदि सैकड़ों पौधों पर प्रयोग कर श्री बरबैंक ने उन्हें प्रकृति के समान गुणों से पृथक गुणों वाले पौधों के रूप में विकसित कर यह दिखा दिया कि प्रेम ही आत्मा की सच्ची प्यास है। जिस प्रकार हम स्वयं औरों से प्रेम चाहते हैं, वैसे ही बिना किसी आकांक्षा के दूसरों को प्रेम लुटाने का अभ्यास कर सके होते, तो आज सारा संसार ही सुधरा हुआ दिखाई देता। प्रेम का सिद्धान्त ही एकमात्र वह साधन है जिससे छोटे-छोटे बच्चों से लेकर पारिवारिक जीवन और आस-पड़ौस के लोगों से लेकर सारे समाज, राष्ट्र और विश्व को भी वैसे ही सुधारा और संवारा जा सकता है जैसे बरबैंक ने पेड़-पौधों को विलक्षण रूप से संवार कर दिखा दिया।
श्री बरबैंक ने श्री योगानन्द नामक भारतीय योगी से क्रिया योग की दीक्षा ली थी। उनका निधन 1926 में हुआ, तब लोगों के मुख से एक ही शब्द निकला था—प्रेम-प्रयोगी का निधन सारे विश्व की क्षति है, वह कभी पूरी नहीं हो सकती।
श्री बरबैंक तत्वदृष्टा थे। प्रेम का अभ्यास उन्होंने पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों तक से करके ही आत्मानुभूति प्राप्त की थी। उसी से वे सिद्ध हो गये थे। उनकी भविष्यवाणियां बहुत महत्वपूर्ण होती थी। लन्दन से प्रकाशित होने वाली ‘ईस्ट और वेस्ट’ पत्रिका में उन्होंने ‘साइन्स एण्ड सिविलाइजेशन’ नाम से लेख प्रकाशित किया। उसमें लिखा था— संसार को सुधारने की शक्ति पूर्व में केवल भारतवर्ष के पास है। पश्चिमी देशों को वहां की योग-क्रिया और प्राणायाम की विधियां सीखने के साथ प्रेम, दया, करुणा, उदारता, क्षमा, मैत्री के भाव भी सीखने और आत्मसात करने चाहिए। मैं देख रहा हूं कि भारतवर्ष उसके लिये अपने आपको तैयार कर रहा है और एक दिन सारे संसार को ही उसके कदमों में झुककर जीवन जीने की शुद्ध पद्धति और आत्म विज्ञान सीखना पड़ेगा, इससे ही संसार का कुछ वास्तविक भला होगा।
1948 में लन्दन के एसोसियोटेड प्रेस में पत्रकारों के सामने भावनाओं के महत्व पर प्रकाश डाला था और कहा था—ईश्वर की ओर से मनुष्य को यदि कोई सर्वोपरि मूल्यवान् उपहार दिया गया है तो वह उपहार भाव सम्पदा ही है। एक दूसरे के प्रति, प्राणि मात्र के प्रति, व्यक्त की जाने वाली भावनाओं के माध्यम से ही हम यह जान सकते हैं कि कोई व्यक्ति ईश्वर के दिये इस अनुदान का मूल्य कितना क्या समझता है तथा उसका किस प्रकार सदुपयोग करता है। इन भावनाओं के विकास, उनके सदुपयोग तथा परिष्कारपूर्वक ही कोई व्यक्ति समस्याओं और जटिलताओं से भरे संसार में सुख शान्तिपूर्वक रह सकता है।