Books - युगगीता (भाग-३)
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ज्ञानीजन क्षणिक सुखों में रमण नहीं करते
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अक्षय सुख की प्राप्ति
श्री भगवान् का यह प्रतिपादन है कि आत्मज्ञान प्राप्त होते ही व्यक्ति व्यर्थ की मानसिक उलझनों से मुक्त हो जाता है। ऐसे व्यक्ति में दो विशेषताएँ विकसित होती हैं-१. समत्व भाव, सभी के प्रति एक जैसा भाव, सभी में उसी परमात्म-चेतना को संव्याप्त मानना तथा २. दुःख-सुख की पराकाष्ठा में तनिक भी विचलित न होना। ऐसा व्यक्ति जो जीवन जीता है, वह बिना किसी प्रतिक्रिया का होता है। अगला श्लोक दिव्यकर्मियों के लिए बड़े शुभ संकेत लेकर आता है। कर्म करते हुए बिना फल की आकांक्षा करते हुए जीवन जीते चलने के सत्परिणाम क्या होते हैं? यह यहाँ इस अध्याय की पराकाष्ठा में स्पष्ट होने लगता है।श्लोक इस प्रकार है-
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥ ५/२१
बाहरी विषयों के स्पर्श से (बाह्यस्पर्शेषु), अनासक्त चित्त (असक्तात्मा), ब्रह्म में ही स्थित, ब्रह्म में संलग्र (ब्रह्मयोगयुक्तात्मा)वह योगी (सः) आत्मा में (आत्मनि) जो नित्य सुख (यत् सुखं) पाता है (विन्दति), वह (सः) अक्षय (अक्षयं) सुख (सुखं) पाता है (विन्दति), वह (सः) अक्षय (अक्षयं) सुख (सुखं) के रूप में प्राप्त होता है (अश्रुते)॥
बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अंतःकरण वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यानजनित सात्त्विक आनंद है, उसको प्राप्त होता है। तदुपरांत वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष अक्षय आनंद की अनुभूति करता है। ५/२१ और भी भाव रूप में देखें, तो भाव हुआ ‘‘बाह्य विषयों में अनासक्त चित्त ब्रह्म में संलग्र योगी आत्मा में जो नित्य सुख पाते हैं, वह अक्षय आनंदरूप है।’’
यह जो अक्षय आनंद है, हर व्यक्ति का, साधक का इष्ट है, किंतु हर आदमी बहिरंग साधनों में इसे खोजता है, यही सबसे बड़ी विडंबना है। अतः सबसे पहले बहिरंग के प्रति अनासक्ति का भाव विकसित करना होगा, फिर स्वयं को ब्रह्म से हर पल जोड़े रहना होगा। तद्रूप बनना होगा, तब ही वह कभी समाप्त न होने वाला (अक्षय) आनंद प्राप्त होगा। इस श्लोक में एक शब्द आया है, ‘ब्रह्मयोगयुक्तात्मा’ जिसका मन पूर्णतः आत्मा में ही रमण करे। ऐसा साधक-दिव्यकर्मी भोगवादी जीवन अस्वीकार कर देता है; क्योंकि वही सब प्रकार के दुःखों का मूल है।
अनासक्ति एवं ब्रह्म में स्थिति
अतः आंतरिक उल्लास, जीवरूप में ब्रह्म का एक अंश होने का संतोष तथा कभी नष्ट न होने वाला आनंद पाना हो, शांति प्राप्त करनी हो, तो एक ही राजमार्ग पकड़ना होगा, बाहरी विषयों के स्पर्श से अनासक्ति। इसी का उत्तरार्द्ध है स्वयं को ब्रह्म में स्थित करना, ब्रह्मज्ञान लाभ प्राप्त कर उसी में निरंतर रमण करते रहना (ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम् अचिरेणाधिगच्छति—श्लोक ३९, अध्याय ४) आत्मज्ञान को प्राप्त होते ही नित्य सुख की प्राप्ति, शांति व अक्षय आनंद सुनिश्चित उपलब्धियों के रूप में हस्तगत हो जाते हैं। यह अंदर का आनंद, इसकी अनुभूति ही सिद्ध साधन को बहिरंग भौतिकवादी जीवन की उपेक्षा कर उससे ऊपर उठ अध्यात्मवादी जीवन जीने की प्रेरणा देती है। फिर ऐसा व्यक्ति बहिरंग संसार की क्रियाओं के प्रति अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं करता। निंदा से अप्रसन्न नहीं होता एवं यशप्राप्ति से, सम्मान से अति हर्षित नहीं होता। अपना समस्वरता वाला स्वरूप बनाए रखता है। फिर वही ऐसा एकमात्र दिव्यकर्मी बन जाता है, जो संसार में श्रेष्ठतम कर्म करता चलता है एवं दिव्य शांति को प्राप्त होता है।
परमहंसदेव ठाकुर श्रीरामकृष्ण ने कहा है ‘‘सच्चे संन्यासी वही हैं, जिनके मन, प्राण, आत्मा सभी परमात्मा में लीन हो गए हैं। जो कामिनी-कंचन का त्यागी है, वही साधु कहने योग्य है। साधु सदा ईश्वर की चिंता करते हैं। ईश्वर संबंधी बातों के अतिरिक्त अन्य कोई बात नहीं करते और सर्वभूतों में ईश्वर संव्याप्त है, यह मानकर उनकी सेवा करते हैं।’’ हम लोग ‘ब्रह्मसत्यंजगन्मिथ्या’ कहते रहते हैं, पर क्या उसे समझ पाते हैं? लोगों ने समझा कि जगत् बेकार है, इसे किसी भी हालत में नहीं देखना चाहिए। ब्रह्म ही सत्य है, यही मानना चाहिए; परंतु आद्यशंकर ने जब इसकी व्याख्या की, तो यह उनका आशय नहीं था। उनका कथन था कि जगत् के रूप में भोग करते हुए, साधन-सामग्री के रूप में जगत् को पाकर फूले न समाना गलत है। साधन न मिलने पर दुःखी हो जाना गलत है। यह एक प्रकार से मिथ्या आचरण है। यदि हम जगत् के सही स्वरूप को समझ सकें, तो कभी भी दुःखी नहीं होंगे।
भर्तृहरि के तीन शतक
भर्तृहरि ने तीन शतक लिखे हैं। नीतिशतक, शृंगारशतक और वैराग्यशतक। पहला शतक उनने तब लिखा, जब उनके पिता ने राज्य खो दिया। उस राज्य को कैसे पाया जाए, हूणों से उसे छुड़ाया कैसे जाए और जीतने के लिए कौन-सी नीति अपनाई जाए, यह बना नीतिशतक। रानी पिंगला के प्रेम में डूबे रसिक भर्तृहरि ने लिखा शृंगारशतक। तीसरा तब लिखा जब उनने पिंगला का वास्तविक रूप देखा व उन्हें जीवन से वैराग्य हो गया। शृंगार से वैराग्य का जन्म हुआ। उनने लिखा-
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयम्
रूपे जराया भयं, वैराग्यमेवाभयम्॥
यह श्लोक जीवन जीने की कला का सूत्र देता है। रोग भोगने से व कुलीन जाति से नीचे गिरने पर भय पैदा होता है। रूपवान हैं, तो बुढ़ापे का डर है। वैराग्य है, तो किसी प्रकार का भय नहीं होना चाहिए। वैराग्य आ गया तो अभय आ जाता है। यहाँ जीवन का निष्कर्ष निकल आता है। इसीलिए भगवान् बार-बार कह रहे हैं कि सांसारिक स्पर्श सुखजन्य भोगों से ऊपर उठकर कर्मयोग में निरत होने में ही भलाई है।ब्रह्मयोग युक्तात्मा
योगेश्वर श्रीकृष्ण ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः’ (श्लोक २०) से आगे चलकर यहाँ ‘ब्रह्मयोगयुक्तात्मा’ की चर्चा करते हैं और फिर यहाँ से चलकर आगे के नौ श्लोकों में ब्रह्मनिर्वाण और उससे प्राप्त होने वाली शांति की चर्चा (शान्ति निर्वाणपरमां) करते हैं। वे कहते हैं कि ऐसा ही व्यक्ति अक्षय सुख का भोग कर सकता है, जिसकी आत्मा ब्रह्म के साथ योग द्वारा युक्त है। जो अनासक्ति योग को जीवन में, प्रतिपल आचरण में उतारता हो। अनासक्त होना अत्यधिक आवश्यक है। काम, क्रोध, लोभ, मोह से छुटकारा मिले बिना सच्चा सुख मिल पाना संभव नहीं है। यह सुख और जीवन का समत्व (संतुलित व्यवस्थित जीवन-समत्वं योग उच्चते, इक्वीलिब्रियम इज योगा) मनुष्य को यदि पुनरावृत्ति (पुनर्जन्म) को प्राप्त नहीं होना है, तो इसी जीवन में, इसी काया में रहते हुए प्राप्त करने होंगे। यह मूढ़ मान्यता है, एक प्रकार की भ्रांति है कि पूर्ण मुक्ति शरीर छोड़ने के बाद (काशीय करवट या अन्य) प्राप्त होती है। श्री अरविंद इसे ‘निम्र विक्षुब्ध प्रकृति का दासत्व’ कहते हैं। पूर्ण आध्यात्मिक स्वतंत्रता का लाभ और उपभोग गीता का योग जीवन में उतारने पर इसी जगत् में, इसी मानव जीवन में, इसी देह के रहते संभव है।
आत्मानंद, निर्वाण के सुख की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए योगेश्वर एक प्रकार से गर्जना करते हुए अपने अगले श्लोक में यह उद्घोष कर देते हैं कि इन्द्रिय सुखों का भोग दुःख लाता है एवं यदि मनुष्य बुद्धिमान है, प्रज्ञावान है (बुधः), आत्मबोध को प्राप्त है, तो वह उनमें लिप्त नहीं होगा।
अगला बाईसवाँ श्लोक कहता है-
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥ —५/२२
हे अर्जुन! (कौंतेय), इंद्रियों के साथ विषयों के संयोग से उत्पन्न (संस्पर्शजा) जो भोग-सुख हैं (ये भोगाः) वह सब (ते) दुःख के ही कारण हैं (दुःखयो नय एव) और उत्पत्ति विनाशशील अर्थात् एकदम अनित्य हैं (आद्यन्तवन्तः)। (इसलिए) उन क्षणिक विषयानंदों में (तेषु) ज्ञानी व्यक्ति (बुधः) आकर्षित नहीं होते, उस ओर विचलित नहीं होते (न रमते)।
भावार्थ हुआ-हे कुंतीपुत्र! जो ये इंद्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप में प्रतीत होते हैं, तो भी ये दुःख के ही हेतु हैं और आदि-अंत वाले अनित्य हैं, इसलिए बुद्धिमान विवेकी ज्ञानी पुरुष उनमें रमण नहीं करता।
विषय सुख-दुःख के हेतु
कितनी बड़ी भ्रांति है कि इंद्रियजन्य भोगों, विषयसुखों को ही मनुष्य सब कुछ मान बैठता है। कुत्ता अपनी प्रिय वस्तु हड्डी चबाता रहता है। उसे और तो कुछ नहीं मिलता। अपने ही दाँतों-मसूढ़ों से आने वाले रक्त का वह स्वाद लेता रहता है, यह मान लेता है कि इसी से आ रहा है। स्वयं को जख्मी और कर लेता है। क्या मनुष्य की स्थिति भी ऐसी नहीं है। भोगवादी, उपभोक्ताप्रधान जीवनशैली आज के युग में बहुसंख्य व्यक्ति इसी सुख को, जो उन्हें इंद्रिय-विषयों के संयोग से प्राप्त होता है, सभी कुछ, आराध्य, इष्ट मान बैठते हैं। अपनी शक्ति गँवाते हैं, क्षणिक आनंद की तलाश में अपना सब कुछ खो बैठते हैं। फिर भी यह नहीं समझ पाते कि ये सभी सुख अनित्य हैं, क्षणिक हैं। इसीलिए उनकी गिनती अज्ञानियों में की जाती है। परमपूज्य गुरुदेव उनकी गिनती नरकीटक, नरपशुओं में करते हैं, जो मात्र शिश्रोदरपरायण (पेट-प्रजनन का) जीवन जीते हैं।
न तेषु रमते बुधः
देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श करना, प्यार करना, सोचना (कपोल-कल्पनाएँ करते रहना) ये सब-के-सब हमारी ज्ञानेंद्रियों-कर्मेंद्रियों के नित्य व्यापारों की श्रेणी में आते हैं। हमारी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक उपाधियों के अपने-अपने विषयों के साथ संपर्क के ये परिणाम हैं। विषय, भावनाओं और विचारों का यह संसार निरंतर परिवर्तित होता रहता है। प्रत्येक का आदि भी है, अंत भी। इसीलिए इनसे प्राप्त सुख या आनंद क्षणभंगुर हैं। इन अनित्य नाशवान क्षणिक सुखों में बुद्धिमान मनुष्य, ज्ञानीजन नहीं उलझते (न तेषु रमते बुधः)।
ज्ञानी उसे कहते हैं, जो एक निराले ही संसार में रहता है। वहाँ उसे अखंड आनंद, शांति और प्रसन्नता की सतत अनुभूति होती रहती है। वह स्वतंत्र होकर कर्म करता रहता है। हम लोग प्रतिक्रियाओं से अलग नहीं रह पाते, लेकिन वह उनसे परे चलता है; क्योंकि उसे आत्मज्ञान प्राप्त हो गया है। हम वासनाओं के दास हैं, वह उनसे मुक्त है। यदि हम भी उसके समान बनना चाहते हैं तो हमें अपने स्व का विस्तार कर, अहंता, वासना, तृष्णा के भवबंधनों से पार चलना सीखना होगा।
युवाशक्ति का योगपथ हेतु आह्वान
इक्कीसवीं सदी में जी रहे हर युवक का श्रीकृष्ण इन पंक्तियों के माध्यम से आमंत्रण करते हैं। क्या आज का आधुनिक युवक उपभोक्तावादी सभ्यता के आकर्षण से ऊपर उठकर एक महान यात्रा पर चल पड़ने के लिए तैयार है? क्या उसके अंदर इतना साहस है? क्या उसे अपने शक्तिस्रोत की जानकारी है? किशोरावस्था से गुजरकर युवा बनने की दिशा में अग्रसर जीव एक संधिवेला से गुजरता है, जहाँ इन आकर्षणों की दुनिया का उसे भी आमंत्रण मिलता है। धन और सुरा का, आधुनिक भोग की सामग्रियों का आकर्षण, चमचमाती कारें, वासनात्मक आकर्षण, रातोरात करोड़पति बनने की ललक, चकाचौंध करने वाली लाइट्स, सत्ता का, लालबत्ती-नीलीबत्ती का प्रलोभन, भ्रष्टाचार की कमाई से प्राप्त होने वाला सुख, यह सभी एक विराट् जंगल के समान हैं, जिनमें से हर युवा को गुजरना होता है। एक पवित्र दिव्य यात्रा के लिए कुछ सोचने का समय उसके पास है क्या? यह प्रश्र आज की जवानी, कल के नागरिकों के समक्ष है। जो अपना जीवन भोग में खपा चुके, जो उत्तरार्द्ध किसी तरह समय काटकर जी रहे हैं, उनसे तो इतनी ही अपेक्षा की जा सकती है कि वे यथाशीघ्र ज्ञान के मार्ग पर लौटें। वासनात्मक, तृष्णाप्रधान जीवन से जीर्ण-शीर्ण इन लोगों से कुछ और अपेक्षा भी नहीं की जा सकती; परंतु योगेश्वर श्रीकृष्ण युवा अर्जुन से, परमपूज्य गुरुदेव हर उस युवा चिंतन वाले, अभीप्सा रखने वाले अध्यात्म मार्ग के पथिक से अपेक्षा रखते हैं कि क्या वह यह पथ अपनाने का साहस करेगा? अध्यात्म को क्षुरस्य धारा पंथ (छुरे की धार पर चलने वाला मार्ग) कहा गया है। यदि कुछ मुट्ठी भर व्यक्ति भी इस मार्ग पर चलने का साहस करते हैं, तो उन्हें आगे आकर भावी पीढ़ी का मार्गदर्शन करना चाहिए, स्वयं को बुधः फिर लोकनायक की श्रेणी में बिठाना चाहिए। तभी हम इक्कीसवीं सदी में उज्जवल भविष्य एवं भारत को विश्व का जगत् गुरु, महानायक बनने की अपेक्षा रख सकते हैं।
यो वै भूमा तत्सुखम्
हमारे उपनिषद् भी श्री गीता जी के इस बाईसवें श्लोक की हर बात का समर्थन करते प्रतीत होते हैं। छांदोग्योपनिषद् लिखता है, ‘यो वै भूमा तत्सुखम्, नाल्पे सुखमस्ति’ अर्थात् छोटी वस्तुओं में सुख नहीं है। सुखस्वरूप तो भूमा है अर्थात् सर्वत्र संव्याप्त आत्मा। इसी में, सर्वहितार्थाय ही जीकर हमें सुख प्राप्त करना चाहिए। आगे उपनिषद् और लिखता है, ‘आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् बिभेति कदाचन’ अर्थात् आनंदस्वरूप ब्रह्म को जानकर योगीगण निर्भय हो जाते हैं। ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस कहते हैं, ‘‘जब ईश्वर दर्शन होने लगता है, तो रमण सुख अर्थात् विषयानंद से कोटि गुना अधिक आनंद मिलता है। आत्मा से ब्रह्म की अभिन्न रूप से अपरोक्ष अनुभूति होने पर निर्विकल्प समाधि में जिस प्रकार के आनंद की अनुभूति होती है, उसका कुछ आभास मात्र ही विषयजन्य सुख में मिलता है, जो कि बाद में दुःख-ही-दुःख छोड़ जाता है।’’
चिरस्थायी ब्रह्मानंद पाएँ
एक अति कामुक भी ब्रह्मानंद की अनुभूति होने पर कैसे विषयों से दूर हो सकता है, इसका एक उदाहरण श्रीरंगम् (दक्षिण भारत) के एक डाकू के जीवन से मिलता है। रामानुजाचार्य के समय की यह घटना है। इस डाकू का आकर्षण एक वेश्या के प्रति हो गया। वह उस अति सुंदर स्त्री के पीछे छाता लेकर चलता। कहीं शरीर धूप में काला न पड़ जाए। सभी उसकी इस प्रवृत्ति को देखकर हँसते, पर उसके क्रूर स्वभाव के कारण कुछ कह न पाते। संयोग से रामानुज उधर से गुजरे; श्रीरंगम् के दर्शन हेतु जा रहे थे। शिष्यों के द्वारा उक्त विवरण सुनकर बोले, ‘‘भाई, ऐसा नाटक क्यों करते हो? क्यों इस महिला के पीछे दौड़ते हो?’’ वह बोला, ‘‘बड़ी सुंदर है। मन को अच्छी लगती है।’’ संतश्री बोले, ‘‘यही आनंद तुम्हें और भी ज्यादा अधिक समय तक मिलने लगे, तो क्या इसे छोड़ दोगे?’’ हाँ में उत्तर सुनकर योगबल से उनने उस डाकू को श्रीकृष्ण की सुंदर झाँकी का दर्शन कराया। दोनों ने ये दर्शन किए। जो आनंद प्राप्त हुआ, वह सहस्रों गुना अधिक था। संतश्री ने आशीर्वाद दिया कि अब इस स्त्री को अपनी पत्नी बना लो और दोनों इसी झाँकी का आनंद लेकर जनसेवा में लग जाओ। ऐसा ही हुआ। श्री रामानुजाचार्य जब स्नान हेतु जाते, तो संन्यासियों के कंधों पर हाथ रखकर, किंतु लौटते तो उस डाकू के कंधे पर हाथ रखकर। कहते ब्रह्मानंद की एक झलक पाकर शुद्ध हो गया है, अंदर से पवित्र हो गया है। यह घटना उस क्षेत्र में बड़ी प्रख्यात हुई। इसी प्रकार तुलसीदास के मित्र नाभादास भी एक महिला के प्रेम में विक्षिप्त समान थे। श्री वल्लभाचार्य ने प्रेरणा दी, ब्रह्मानंद की अनुभूति कराई, उसके बाद उनके जीवन की दिशा ही बदल गई।
हमें भी प्रेरणा लेनी होगी कि हम अज्ञान से ज्ञान की ओर यात्रा करें। क्षणिक आनंद हेतु नहीं, चिरस्थायी आनंद, ब्रह्मानंद हेतु प्रयास करें। हम ‘बुधः’ आत्मबोध को प्राप्त ज्ञानी बनें। यह ध्यान रखें कि पंडितजन, ज्ञानी, विवेकवान व्यक्ति अनित्य दुःखों के हेतु, विषयभोगों के चक्कर में न पड़कर ब्रह्मयोग मुक्तात्मा ही बनते हैं एवं ब्रह्मानंद की प्राप्ति करते हैं।
श्री भगवान् का यह प्रतिपादन है कि आत्मज्ञान प्राप्त होते ही व्यक्ति व्यर्थ की मानसिक उलझनों से मुक्त हो जाता है। ऐसे व्यक्ति में दो विशेषताएँ विकसित होती हैं-१. समत्व भाव, सभी के प्रति एक जैसा भाव, सभी में उसी परमात्म-चेतना को संव्याप्त मानना तथा २. दुःख-सुख की पराकाष्ठा में तनिक भी विचलित न होना। ऐसा व्यक्ति जो जीवन जीता है, वह बिना किसी प्रतिक्रिया का होता है। अगला श्लोक दिव्यकर्मियों के लिए बड़े शुभ संकेत लेकर आता है। कर्म करते हुए बिना फल की आकांक्षा करते हुए जीवन जीते चलने के सत्परिणाम क्या होते हैं? यह यहाँ इस अध्याय की पराकाष्ठा में स्पष्ट होने लगता है।श्लोक इस प्रकार है-
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥ ५/२१
बाहरी विषयों के स्पर्श से (बाह्यस्पर्शेषु), अनासक्त चित्त (असक्तात्मा), ब्रह्म में ही स्थित, ब्रह्म में संलग्र (ब्रह्मयोगयुक्तात्मा)वह योगी (सः) आत्मा में (आत्मनि) जो नित्य सुख (यत् सुखं) पाता है (विन्दति), वह (सः) अक्षय (अक्षयं) सुख (सुखं) पाता है (विन्दति), वह (सः) अक्षय (अक्षयं) सुख (सुखं) के रूप में प्राप्त होता है (अश्रुते)॥
बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अंतःकरण वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यानजनित सात्त्विक आनंद है, उसको प्राप्त होता है। तदुपरांत वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष अक्षय आनंद की अनुभूति करता है। ५/२१ और भी भाव रूप में देखें, तो भाव हुआ ‘‘बाह्य विषयों में अनासक्त चित्त ब्रह्म में संलग्र योगी आत्मा में जो नित्य सुख पाते हैं, वह अक्षय आनंदरूप है।’’
यह जो अक्षय आनंद है, हर व्यक्ति का, साधक का इष्ट है, किंतु हर आदमी बहिरंग साधनों में इसे खोजता है, यही सबसे बड़ी विडंबना है। अतः सबसे पहले बहिरंग के प्रति अनासक्ति का भाव विकसित करना होगा, फिर स्वयं को ब्रह्म से हर पल जोड़े रहना होगा। तद्रूप बनना होगा, तब ही वह कभी समाप्त न होने वाला (अक्षय) आनंद प्राप्त होगा। इस श्लोक में एक शब्द आया है, ‘ब्रह्मयोगयुक्तात्मा’ जिसका मन पूर्णतः आत्मा में ही रमण करे। ऐसा साधक-दिव्यकर्मी भोगवादी जीवन अस्वीकार कर देता है; क्योंकि वही सब प्रकार के दुःखों का मूल है।
अनासक्ति एवं ब्रह्म में स्थिति
अतः आंतरिक उल्लास, जीवरूप में ब्रह्म का एक अंश होने का संतोष तथा कभी नष्ट न होने वाला आनंद पाना हो, शांति प्राप्त करनी हो, तो एक ही राजमार्ग पकड़ना होगा, बाहरी विषयों के स्पर्श से अनासक्ति। इसी का उत्तरार्द्ध है स्वयं को ब्रह्म में स्थित करना, ब्रह्मज्ञान लाभ प्राप्त कर उसी में निरंतर रमण करते रहना (ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम् अचिरेणाधिगच्छति—श्लोक ३९, अध्याय ४) आत्मज्ञान को प्राप्त होते ही नित्य सुख की प्राप्ति, शांति व अक्षय आनंद सुनिश्चित उपलब्धियों के रूप में हस्तगत हो जाते हैं। यह अंदर का आनंद, इसकी अनुभूति ही सिद्ध साधन को बहिरंग भौतिकवादी जीवन की उपेक्षा कर उससे ऊपर उठ अध्यात्मवादी जीवन जीने की प्रेरणा देती है। फिर ऐसा व्यक्ति बहिरंग संसार की क्रियाओं के प्रति अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं करता। निंदा से अप्रसन्न नहीं होता एवं यशप्राप्ति से, सम्मान से अति हर्षित नहीं होता। अपना समस्वरता वाला स्वरूप बनाए रखता है। फिर वही ऐसा एकमात्र दिव्यकर्मी बन जाता है, जो संसार में श्रेष्ठतम कर्म करता चलता है एवं दिव्य शांति को प्राप्त होता है।
परमहंसदेव ठाकुर श्रीरामकृष्ण ने कहा है ‘‘सच्चे संन्यासी वही हैं, जिनके मन, प्राण, आत्मा सभी परमात्मा में लीन हो गए हैं। जो कामिनी-कंचन का त्यागी है, वही साधु कहने योग्य है। साधु सदा ईश्वर की चिंता करते हैं। ईश्वर संबंधी बातों के अतिरिक्त अन्य कोई बात नहीं करते और सर्वभूतों में ईश्वर संव्याप्त है, यह मानकर उनकी सेवा करते हैं।’’ हम लोग ‘ब्रह्मसत्यंजगन्मिथ्या’ कहते रहते हैं, पर क्या उसे समझ पाते हैं? लोगों ने समझा कि जगत् बेकार है, इसे किसी भी हालत में नहीं देखना चाहिए। ब्रह्म ही सत्य है, यही मानना चाहिए; परंतु आद्यशंकर ने जब इसकी व्याख्या की, तो यह उनका आशय नहीं था। उनका कथन था कि जगत् के रूप में भोग करते हुए, साधन-सामग्री के रूप में जगत् को पाकर फूले न समाना गलत है। साधन न मिलने पर दुःखी हो जाना गलत है। यह एक प्रकार से मिथ्या आचरण है। यदि हम जगत् के सही स्वरूप को समझ सकें, तो कभी भी दुःखी नहीं होंगे।
भर्तृहरि के तीन शतक
भर्तृहरि ने तीन शतक लिखे हैं। नीतिशतक, शृंगारशतक और वैराग्यशतक। पहला शतक उनने तब लिखा, जब उनके पिता ने राज्य खो दिया। उस राज्य को कैसे पाया जाए, हूणों से उसे छुड़ाया कैसे जाए और जीतने के लिए कौन-सी नीति अपनाई जाए, यह बना नीतिशतक। रानी पिंगला के प्रेम में डूबे रसिक भर्तृहरि ने लिखा शृंगारशतक। तीसरा तब लिखा जब उनने पिंगला का वास्तविक रूप देखा व उन्हें जीवन से वैराग्य हो गया। शृंगार से वैराग्य का जन्म हुआ। उनने लिखा-
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयम्
रूपे जराया भयं, वैराग्यमेवाभयम्॥
यह श्लोक जीवन जीने की कला का सूत्र देता है। रोग भोगने से व कुलीन जाति से नीचे गिरने पर भय पैदा होता है। रूपवान हैं, तो बुढ़ापे का डर है। वैराग्य है, तो किसी प्रकार का भय नहीं होना चाहिए। वैराग्य आ गया तो अभय आ जाता है। यहाँ जीवन का निष्कर्ष निकल आता है। इसीलिए भगवान् बार-बार कह रहे हैं कि सांसारिक स्पर्श सुखजन्य भोगों से ऊपर उठकर कर्मयोग में निरत होने में ही भलाई है।ब्रह्मयोग युक्तात्मा
योगेश्वर श्रीकृष्ण ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः’ (श्लोक २०) से आगे चलकर यहाँ ‘ब्रह्मयोगयुक्तात्मा’ की चर्चा करते हैं और फिर यहाँ से चलकर आगे के नौ श्लोकों में ब्रह्मनिर्वाण और उससे प्राप्त होने वाली शांति की चर्चा (शान्ति निर्वाणपरमां) करते हैं। वे कहते हैं कि ऐसा ही व्यक्ति अक्षय सुख का भोग कर सकता है, जिसकी आत्मा ब्रह्म के साथ योग द्वारा युक्त है। जो अनासक्ति योग को जीवन में, प्रतिपल आचरण में उतारता हो। अनासक्त होना अत्यधिक आवश्यक है। काम, क्रोध, लोभ, मोह से छुटकारा मिले बिना सच्चा सुख मिल पाना संभव नहीं है। यह सुख और जीवन का समत्व (संतुलित व्यवस्थित जीवन-समत्वं योग उच्चते, इक्वीलिब्रियम इज योगा) मनुष्य को यदि पुनरावृत्ति (पुनर्जन्म) को प्राप्त नहीं होना है, तो इसी जीवन में, इसी काया में रहते हुए प्राप्त करने होंगे। यह मूढ़ मान्यता है, एक प्रकार की भ्रांति है कि पूर्ण मुक्ति शरीर छोड़ने के बाद (काशीय करवट या अन्य) प्राप्त होती है। श्री अरविंद इसे ‘निम्र विक्षुब्ध प्रकृति का दासत्व’ कहते हैं। पूर्ण आध्यात्मिक स्वतंत्रता का लाभ और उपभोग गीता का योग जीवन में उतारने पर इसी जगत् में, इसी मानव जीवन में, इसी देह के रहते संभव है।
आत्मानंद, निर्वाण के सुख की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए योगेश्वर एक प्रकार से गर्जना करते हुए अपने अगले श्लोक में यह उद्घोष कर देते हैं कि इन्द्रिय सुखों का भोग दुःख लाता है एवं यदि मनुष्य बुद्धिमान है, प्रज्ञावान है (बुधः), आत्मबोध को प्राप्त है, तो वह उनमें लिप्त नहीं होगा।
अगला बाईसवाँ श्लोक कहता है-
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥ —५/२२
हे अर्जुन! (कौंतेय), इंद्रियों के साथ विषयों के संयोग से उत्पन्न (संस्पर्शजा) जो भोग-सुख हैं (ये भोगाः) वह सब (ते) दुःख के ही कारण हैं (दुःखयो नय एव) और उत्पत्ति विनाशशील अर्थात् एकदम अनित्य हैं (आद्यन्तवन्तः)। (इसलिए) उन क्षणिक विषयानंदों में (तेषु) ज्ञानी व्यक्ति (बुधः) आकर्षित नहीं होते, उस ओर विचलित नहीं होते (न रमते)।
भावार्थ हुआ-हे कुंतीपुत्र! जो ये इंद्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप में प्रतीत होते हैं, तो भी ये दुःख के ही हेतु हैं और आदि-अंत वाले अनित्य हैं, इसलिए बुद्धिमान विवेकी ज्ञानी पुरुष उनमें रमण नहीं करता।
विषय सुख-दुःख के हेतु
कितनी बड़ी भ्रांति है कि इंद्रियजन्य भोगों, विषयसुखों को ही मनुष्य सब कुछ मान बैठता है। कुत्ता अपनी प्रिय वस्तु हड्डी चबाता रहता है। उसे और तो कुछ नहीं मिलता। अपने ही दाँतों-मसूढ़ों से आने वाले रक्त का वह स्वाद लेता रहता है, यह मान लेता है कि इसी से आ रहा है। स्वयं को जख्मी और कर लेता है। क्या मनुष्य की स्थिति भी ऐसी नहीं है। भोगवादी, उपभोक्ताप्रधान जीवनशैली आज के युग में बहुसंख्य व्यक्ति इसी सुख को, जो उन्हें इंद्रिय-विषयों के संयोग से प्राप्त होता है, सभी कुछ, आराध्य, इष्ट मान बैठते हैं। अपनी शक्ति गँवाते हैं, क्षणिक आनंद की तलाश में अपना सब कुछ खो बैठते हैं। फिर भी यह नहीं समझ पाते कि ये सभी सुख अनित्य हैं, क्षणिक हैं। इसीलिए उनकी गिनती अज्ञानियों में की जाती है। परमपूज्य गुरुदेव उनकी गिनती नरकीटक, नरपशुओं में करते हैं, जो मात्र शिश्रोदरपरायण (पेट-प्रजनन का) जीवन जीते हैं।
न तेषु रमते बुधः
देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श करना, प्यार करना, सोचना (कपोल-कल्पनाएँ करते रहना) ये सब-के-सब हमारी ज्ञानेंद्रियों-कर्मेंद्रियों के नित्य व्यापारों की श्रेणी में आते हैं। हमारी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक उपाधियों के अपने-अपने विषयों के साथ संपर्क के ये परिणाम हैं। विषय, भावनाओं और विचारों का यह संसार निरंतर परिवर्तित होता रहता है। प्रत्येक का आदि भी है, अंत भी। इसीलिए इनसे प्राप्त सुख या आनंद क्षणभंगुर हैं। इन अनित्य नाशवान क्षणिक सुखों में बुद्धिमान मनुष्य, ज्ञानीजन नहीं उलझते (न तेषु रमते बुधः)।
ज्ञानी उसे कहते हैं, जो एक निराले ही संसार में रहता है। वहाँ उसे अखंड आनंद, शांति और प्रसन्नता की सतत अनुभूति होती रहती है। वह स्वतंत्र होकर कर्म करता रहता है। हम लोग प्रतिक्रियाओं से अलग नहीं रह पाते, लेकिन वह उनसे परे चलता है; क्योंकि उसे आत्मज्ञान प्राप्त हो गया है। हम वासनाओं के दास हैं, वह उनसे मुक्त है। यदि हम भी उसके समान बनना चाहते हैं तो हमें अपने स्व का विस्तार कर, अहंता, वासना, तृष्णा के भवबंधनों से पार चलना सीखना होगा।
युवाशक्ति का योगपथ हेतु आह्वान
इक्कीसवीं सदी में जी रहे हर युवक का श्रीकृष्ण इन पंक्तियों के माध्यम से आमंत्रण करते हैं। क्या आज का आधुनिक युवक उपभोक्तावादी सभ्यता के आकर्षण से ऊपर उठकर एक महान यात्रा पर चल पड़ने के लिए तैयार है? क्या उसके अंदर इतना साहस है? क्या उसे अपने शक्तिस्रोत की जानकारी है? किशोरावस्था से गुजरकर युवा बनने की दिशा में अग्रसर जीव एक संधिवेला से गुजरता है, जहाँ इन आकर्षणों की दुनिया का उसे भी आमंत्रण मिलता है। धन और सुरा का, आधुनिक भोग की सामग्रियों का आकर्षण, चमचमाती कारें, वासनात्मक आकर्षण, रातोरात करोड़पति बनने की ललक, चकाचौंध करने वाली लाइट्स, सत्ता का, लालबत्ती-नीलीबत्ती का प्रलोभन, भ्रष्टाचार की कमाई से प्राप्त होने वाला सुख, यह सभी एक विराट् जंगल के समान हैं, जिनमें से हर युवा को गुजरना होता है। एक पवित्र दिव्य यात्रा के लिए कुछ सोचने का समय उसके पास है क्या? यह प्रश्र आज की जवानी, कल के नागरिकों के समक्ष है। जो अपना जीवन भोग में खपा चुके, जो उत्तरार्द्ध किसी तरह समय काटकर जी रहे हैं, उनसे तो इतनी ही अपेक्षा की जा सकती है कि वे यथाशीघ्र ज्ञान के मार्ग पर लौटें। वासनात्मक, तृष्णाप्रधान जीवन से जीर्ण-शीर्ण इन लोगों से कुछ और अपेक्षा भी नहीं की जा सकती; परंतु योगेश्वर श्रीकृष्ण युवा अर्जुन से, परमपूज्य गुरुदेव हर उस युवा चिंतन वाले, अभीप्सा रखने वाले अध्यात्म मार्ग के पथिक से अपेक्षा रखते हैं कि क्या वह यह पथ अपनाने का साहस करेगा? अध्यात्म को क्षुरस्य धारा पंथ (छुरे की धार पर चलने वाला मार्ग) कहा गया है। यदि कुछ मुट्ठी भर व्यक्ति भी इस मार्ग पर चलने का साहस करते हैं, तो उन्हें आगे आकर भावी पीढ़ी का मार्गदर्शन करना चाहिए, स्वयं को बुधः फिर लोकनायक की श्रेणी में बिठाना चाहिए। तभी हम इक्कीसवीं सदी में उज्जवल भविष्य एवं भारत को विश्व का जगत् गुरु, महानायक बनने की अपेक्षा रख सकते हैं।
यो वै भूमा तत्सुखम्
हमारे उपनिषद् भी श्री गीता जी के इस बाईसवें श्लोक की हर बात का समर्थन करते प्रतीत होते हैं। छांदोग्योपनिषद् लिखता है, ‘यो वै भूमा तत्सुखम्, नाल्पे सुखमस्ति’ अर्थात् छोटी वस्तुओं में सुख नहीं है। सुखस्वरूप तो भूमा है अर्थात् सर्वत्र संव्याप्त आत्मा। इसी में, सर्वहितार्थाय ही जीकर हमें सुख प्राप्त करना चाहिए। आगे उपनिषद् और लिखता है, ‘आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् बिभेति कदाचन’ अर्थात् आनंदस्वरूप ब्रह्म को जानकर योगीगण निर्भय हो जाते हैं। ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस कहते हैं, ‘‘जब ईश्वर दर्शन होने लगता है, तो रमण सुख अर्थात् विषयानंद से कोटि गुना अधिक आनंद मिलता है। आत्मा से ब्रह्म की अभिन्न रूप से अपरोक्ष अनुभूति होने पर निर्विकल्प समाधि में जिस प्रकार के आनंद की अनुभूति होती है, उसका कुछ आभास मात्र ही विषयजन्य सुख में मिलता है, जो कि बाद में दुःख-ही-दुःख छोड़ जाता है।’’
चिरस्थायी ब्रह्मानंद पाएँ
एक अति कामुक भी ब्रह्मानंद की अनुभूति होने पर कैसे विषयों से दूर हो सकता है, इसका एक उदाहरण श्रीरंगम् (दक्षिण भारत) के एक डाकू के जीवन से मिलता है। रामानुजाचार्य के समय की यह घटना है। इस डाकू का आकर्षण एक वेश्या के प्रति हो गया। वह उस अति सुंदर स्त्री के पीछे छाता लेकर चलता। कहीं शरीर धूप में काला न पड़ जाए। सभी उसकी इस प्रवृत्ति को देखकर हँसते, पर उसके क्रूर स्वभाव के कारण कुछ कह न पाते। संयोग से रामानुज उधर से गुजरे; श्रीरंगम् के दर्शन हेतु जा रहे थे। शिष्यों के द्वारा उक्त विवरण सुनकर बोले, ‘‘भाई, ऐसा नाटक क्यों करते हो? क्यों इस महिला के पीछे दौड़ते हो?’’ वह बोला, ‘‘बड़ी सुंदर है। मन को अच्छी लगती है।’’ संतश्री बोले, ‘‘यही आनंद तुम्हें और भी ज्यादा अधिक समय तक मिलने लगे, तो क्या इसे छोड़ दोगे?’’ हाँ में उत्तर सुनकर योगबल से उनने उस डाकू को श्रीकृष्ण की सुंदर झाँकी का दर्शन कराया। दोनों ने ये दर्शन किए। जो आनंद प्राप्त हुआ, वह सहस्रों गुना अधिक था। संतश्री ने आशीर्वाद दिया कि अब इस स्त्री को अपनी पत्नी बना लो और दोनों इसी झाँकी का आनंद लेकर जनसेवा में लग जाओ। ऐसा ही हुआ। श्री रामानुजाचार्य जब स्नान हेतु जाते, तो संन्यासियों के कंधों पर हाथ रखकर, किंतु लौटते तो उस डाकू के कंधे पर हाथ रखकर। कहते ब्रह्मानंद की एक झलक पाकर शुद्ध हो गया है, अंदर से पवित्र हो गया है। यह घटना उस क्षेत्र में बड़ी प्रख्यात हुई। इसी प्रकार तुलसीदास के मित्र नाभादास भी एक महिला के प्रेम में विक्षिप्त समान थे। श्री वल्लभाचार्य ने प्रेरणा दी, ब्रह्मानंद की अनुभूति कराई, उसके बाद उनके जीवन की दिशा ही बदल गई।
हमें भी प्रेरणा लेनी होगी कि हम अज्ञान से ज्ञान की ओर यात्रा करें। क्षणिक आनंद हेतु नहीं, चिरस्थायी आनंद, ब्रह्मानंद हेतु प्रयास करें। हम ‘बुधः’ आत्मबोध को प्राप्त ज्ञानी बनें। यह ध्यान रखें कि पंडितजन, ज्ञानी, विवेकवान व्यक्ति अनित्य दुःखों के हेतु, विषयभोगों के चक्कर में न पड़कर ब्रह्मयोग मुक्तात्मा ही बनते हैं एवं ब्रह्मानंद की प्राप्ति करते हैं।