Books - युगगीता (भाग-३)
Media: TEXT
Language: EN
Language: EN
कर्मसंन्यास एवं कर्मयोग में कौन सा श्रेष्ठ है?
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
यहाँ से कर्म संन्यास योग नाम से श्रीमद्भगवद्गीता का पाँचवाँ
अध्याय आरंभ करते हैं। युगगीता का यह भाव प्रवाह द्वापर में कही
गयी गीता एवं प्रज्ञावतार की सत्ता के लीला संदोह पर आधारित
है। नवयुग आगमन की वेला में इस युगगीता की व्याख्या- विवेचना में
वह सब कुछ है, जो आज एक साधक के रूप में हम सभी को अभीष्ट
है, करने योग्य एक कर्त्तव्य
है, युगधर्म है। श्री गीता जी के प्रथम छह अध्याय कर्मयोग
प्रधान हैं। यों स्थान- स्थान पर इसमें भक्तियोग, ज्ञानयोग गुँथा
पड़ा है। मोहग्रस्त किंतु जिज्ञासु शिष्यभाव में स्थित अर्जुन के प्रश्रोत्तरों
के माध्यम से कुछ ऐसे प्रसंग आए हैं, जो आज की युग परिवर्तन
की संक्रमण वेला में सभी को प्रेरणा देते हैं। चौथा अध्याय
ज्ञान- कर्म संन्यास योग पर था। प्रस्तुत अध्याय कर्म- संन्यास योग
प्रकरण पर है। अर्जुन ने ज्ञान का महत्त्व जान लिया, किंतु अभी
भी कर्मयोग के संबंध में उसके मन में कुछ संदेह है। वह बोलता
तो प्रारंभ में ही है, पर श्रीकृष्ण मंद- मंद मुस्कान के साथ
उसकी मानसिकता का अध्ययन कर रहे हैं एवं उसका प्रश्र
समाप्त होते ही कर्मों से संन्यास व कर्मयोग तथा संन्यास योग
अर्थात् सांख्ययोग की महत्ता समझाने लगते हैं। ज्ञान में कर्मों
का संन्यास। (ज्ञान- कर्म संन्यास योग) चौथे अध्याय का प्रकरण था,
जहाँ उठो भारत!
अज्ञान से जन्मे संशयों से मुक्त होकर विवेक- ज्ञान को जीवन
में उतारकर समत्व रूपी योग में स्थित हो जाओ, इस संदेश के साथ
योगेश्वर सद्गुरु द्वारा समापन किया गया था।
लोकसेवियों की मार्गदर्शिका
अब एक प्रकार से पुनः उसी विषय को गहरी जाँच- पड़ताल के साथ पी.एच.डी. स्तर के गहन अध्ययन की तैयारी के साथ श्रीकृष्ण प्रस्तुत करना चाह रहे हैं। यह विषय हर कार्यकर्त्ता के लिये, स्वयंसेवक के लिये, एक आदर्श राष्ट्रनिष्ठ लोकसेवी के लिये समझना बहुत जरूरी है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि ज्ञान को सर्वोपरि मानकर उसी के आधार पर अपने व्यक्तिगत अहं की बलि दी जानी चाहिए। अहंकार का समर्पण हो एवं व्यक्ति निष्काम कर्म की ओर बढ़े, चाहे कितनी ही मुश्किलें क्यों न आएँ। अब इस ‘‘अहं’’ से मुक्ति कैसे पाई जाए? यह अहंकार है क्या? इस मद को पहचाना कैसे जाए? किसी तरह हम इसके स्वरूप को जान लें एवं शुद्ध ‘‘अहं’’ के गरिमामय रूप को जानकर उसमें प्रतिष्ठित होने की सोचें, तो कितना बड़ा परिवर्तन आ सकता है? यह सब कार्यकर्त्ताओं की आचार- संहिता का प्रकरण इस अध्याय में आया है, जो उसे साधना की धुरी पर जीवन कला को निखारने की बात भी समझाता है। संन्यास वेशधारी तो लाखों की संख्या में समाज में हैं, पर क्या वे अपना ‘‘अहं’’ छोड़ पाए हैं? वास्तविक संन्यास क्या होता है? व कर्मयोग व संन्यास का परस्पर समन्वय कैसे स्थापित किया जाए? इसकी विशिष्ट व्याख्या इस अध्याय में श्रीकृष्ण करते हैं। अहंकार के नाश की विधि इसमें वर्णित की गयी है, इसीलिये इस अध्याय का नाम ‘‘कर्म- संन्यास योग’’ है।
इस अध्याय के २९ श्लोकों में सारे कर्म सिद्धान्त को योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा बड़े सरल ढंग से समझाने का प्रयास किया गया है। इस अध्याय में स्थान- स्थान पर कर्म- संन्यास की व्याख्या एवं कर्मयोग की महत्ता बताते हुए भगवान् कृष्ण अहंकार से रहित सिद्ध पुरुषों के लक्षण भी अर्जुन को बताते हैं। अहंकार रहित होना एक बड़ी सिद्धि है एवं इतना भर हो जाने पर मनुष्य किस तरह सामान्य से असामान्य हो जाता है, यह पढ़ने पर पाठक के मन में भी ललक पैदा होने लगती है। स्थान- स्थान पर आसक्ति को छोड़कर कर्म करने की महत्ता इस अध्याय में प्रतिपादित की गयी है, पर अर्जुन इतने मात्र से संभवतः प्रभावित नहीं है। उसकी आशंकाएँ अभी भी यथावत् हैं; क्योंकि वह व्यावहारिकता के धरातल पर मार्गदर्शन चाहता है। विगत दो अध्यायों को चरम सोपान पर पहुँचा देता है—यह पाँचवाँ अध्याय जहाँ अंतिम श्लोकों में ध्यान की विधि भी योगेश्वर द्वारा बता दी जाती है। जीवन कैसे जिया जाए? कर्मों को दिव्य कैसे बनाया जाए? औरों से अधिक बेहतर जीवन किस तरह जिया जाए? विचारों व भावनाओं का सुव्यवस्थित विकास कैसे संभव हो? यह श्रीगीता जी के काव्य की विशेषता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि जीवन को एक खेल की तरह मानकर ठीक तरह जी लिया जाए, तो हमारा जीवन सुसंस्कृत एवं चरित्रनिष्ठा से भरा- पूरा होता चला जाता है। जीवन पूर्णतः रूपान्तरित होने लगता है। सदाचारमय जीवन जीते- जीते मनुष्य क्रमशः उन्नति की ओर बढ़ने लगता है- आध्यात्मिकता की ओर भी एवं भौतिकता की ओर भी। उसके अंदर का दानव मिटता चला जाता है एवं देवत्व जागने लगता है। छठे अध्याय में आत्मसंयम के योग को समझाने से पूर्व श्रीकृष्ण अर्जुन में जिज्ञासा जगाकर इस पाँचवें महत्त्वपूर्ण अध्याय में कर्मयोग की पराकाष्ठा तक उसे पहुँचा देते हैं। यही है—पाँचवें अध्याय में प्रवेश की भूमिका।
पाँचवाँ अध्याय अर्जुन की एक जिज्ञासा से आरंभ होता है। वह अभी सुन चुका है- ‘‘योगमातिष्ठोतिष्ठ भारत’’- हे भारत! उठो एवं योग का आश्रय लो। अपनी अहं केन्द्रित कामनाओं को त्यागो। वस्तुतः यही सच्चे अर्थों में संन्यास है।
तत्काल ही वह अपनी जिज्ञासा श्रीकृष्ण के सम्मुख रख देता है-
अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् (५/१)
अर्जुन ने कहा- ‘‘हे कृष्ण! आप कर्मों का त्याग करने (कर्मणां संन्यासं) और फिर उन्हें करते रहने (कर्मयोग) पर जोर देते हैं, इनकी प्रशंसा करते हैं। इन दोनों मार्गों में से कौन- सा एक मेरे लिए भलीभाँति निश्चित, कल्याणकारक व श्रेष्ठ है, यह आप मुझे बताइये।’’
यहाँ अर्जुन पूर्णतः भ्रमित है। उसे दोनों मार्ग परस्पर विरोधी दिखाई दे रहे हैं। पहले मार्ग के अनुसार, तो यह स्पष्ट होता है कि तमाम कर्मों का त्याग कर दिया जाना चाहिए (संन्यास) और दूसरा मार्ग हमें सामाजिक और व्यक्तिगत रूप से जीवन में रुचि लेने- कर्मयोग में निरत होने की बात कहता है। अर्जुन की बुद्धि में यहाँ वह गंभीर भाव नहीं आ पा रहा है, जो दोनो मार्गों की तत्त्व से उसे जानकारी करा सके।
भगवान् श्री जो यहाँ कहना चाह रहे हैं, उसके अनुसार कर्मों में अहंकार का त्याग ही कर्मणां संन्यासः है- कर्मों का त्याग है तथा कर्मफल उपभोग के प्रति हमारी चाह के त्याग को कर्मयोग कहा गया है। कितना बारीकी से रखा गया दर्शन है, पर वह समझ में तब ही आ सकता है, जब हम उसका मर्म समझ सकें। जैसे ही वह समझ में आ जाता है हम समष्टि में संव्याप्त उस परमात्मसत्ता को भी जान लेते हैं। बाधक मात्र अहंकार है- उसके उद्वेग हैं। कर्त्ता का भाव व भोक्ता का भाव यदि निकल जाए, तो हम अपने दिव्य स्वरूप को जान सकते हैं- मानवी गरिमा के अनुरूप जीवन जीने की स्थिति में प्रतिष्ठित हो सकते हैं। फिर हम उन ग्रन्थियों में उलझने से बच जाते हैं, जो हमें देवत्व के राजमार्ग से हटाकर इन्द्रिय तुष्टि की ओर- अहं की पूर्ति की ओर- स्वार्थ पूर्ति की ओर ले जाती है।
कर्त्ता-भाव का त्याग ही कर्म-संन्यास
उत्तर जो मिलने जा रहा है, उसकी भूमिका समझ लें, तो हमें अर्जुन का प्रश्र अच्छी तरह समझ में आ जाएगा। कर्त्ता भाव के त्याग की विधि कर्मों का संन्यास है और भोक्ताभाव से ऊपर उठने की विधि कर्मयोग है। अहंकार का त्याग करके लोकसेवा में लगना ‘‘संन्यास’’ है एवं कर्मफल की लालसा पर नियंत्रण रख लोकसेवा में लगाना ‘‘कर्मयोग’’ है। शास्त्रों में वर्णित इन दो शब्दों को समझ लेने के बाद इस अध्याय का एवं कर्मयोग का मर्म समझ में आ जाता है। पाण्डुपुत्र अर्जुन चाहता है कि उसके गुरु श्रीकृष्ण उसका एक ही निश्चित मार्ग-पूर्ण संन्यास अथवा पूर्ण कर्मयोग (संन्यास एवं योग) के विषय में मार्गदर्शन करें।
गलती उसकी भी नहीं है। अर्जुन ने पहले ज्ञानयोग की महिमा सुनी कि ज्ञान से अधिक पवित्र धरती पर कुछ भी नहीं व उसे इसके लिये श्रद्धावान बनना होगा-फिर चौथे अध्याय में उसने सुना कि कर्मयोगी बनना चाहिए-दिव्यकर्मी होना चाहिए। अर्जुन किसी बीच के मार्ग, किसी शार्टकट की, बायपास मार्ग की तलाश में है। युद्ध में लगने का उसका मन नहीं है-कर्मयोगी वह अभी बनना नहीं चाहता; क्योंकि उससे बार-बार युद्ध करने की बात कही जा रही है। हाँ, यदि किसी तरह संन्यास मिल जाए तो जान बच सकती है। संन्यास ले लेंगे, तो कर्म से बच जायेंगे। संन्यास, ऐसे पावन आश्रम परम्परा की दुर्गति अनादि काल से होती चली आयी है। संन्यास अर्थात् कर्मों से पलायन। भगवान् उसे दुविधा से निकालते हैं एवं उससे कहते हैं-
श्री भगवानुवाच—
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥ ५/२॥
अर्थात् ‘‘श्री भगवान् बोले-कर्मसंन्यास (कर्मों का त्याग) और कर्मयोग (कर्मों का सम्पादन) दोनों ही हमें मोक्ष की ओर ले जाते हैं, किन्तु इन दोनों में से कर्मों के त्याग की अपेक्षा कर्मयोग—साधना में सुगम होने से अधिक श्रेष्ठ है।’’
दोनों ही परम कल्याणकारी हैं-दोनों से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है; परंतु इनमें से भी कर्मयोग जिसमें कर्मों का संपादन करते-करते सफलता की ओर बढ़ा जाता है, सर्वाधिक श्रेष्ठ है-यह श्री भगवान् का स्पष्ट मत है। यह एक प्रारम्भिक साधक के लिये-युद्धभूमि में खड़े योद्धा के लिये-मोहग्रस्त अर्जुन के लिये दिया जा रहा मार्गदर्शन है। एक स्पष्ट घोषणा आचार्य के द्वारा की जाती है कि कर्म-संन्यास की अपेक्षा कर्मों का सम्पादन करते हुए जीना ही सर्वश्रेष्ठ है (तयो अस्तु कर्म संन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते)। बिना रजोगुण पार किये जो सतोगुण सीधे पाना चाहता हो, उसे यह जान लेना चाहिए कि राजमार्ग मात्र एक ही है। हर कोई तमोगुणी की (मोह और-अहंता की) स्थिति में पलायनवादी बनकर हिमालय जाने की बात कहता है; क्योंकि वह मार्ग सीधा-सच्चा दिखाई देता है, पर यह तो छलावा है। ऐसे व्यक्ति वापस तमस की ओर लौटते हैं एवं यदि जीवन में सच्चा मार्गदर्शन नहीं मिला, तो जन्म-जन्मान्तरों तक भटकते रहते हैं।
भगवान् एक ही बात कहते हैं- ‘‘तुम्हारे लिये कर्मयोग ही श्रेष्ठ है। यही युगधर्म है और इसी में तुम्हें ही नहीं, किसी भी काल के मानव को सर्वप्रथम अपने आपको नियोजित करना चाहिए।’’ यह पूरा अध्याय युगधर्म की ही बात कहता है एवं हमें बताता है कि हमारे कर्मों को किस दिशा में नियोजित किया जाना चाहिए। आज के युग में चारों ओर आपाधापी मची हुई है; मनुष्य दूषित हो रहा है, उसके कर्म दूषित हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में ऐसे युगधर्म की अपेक्षा है, जो हमें बता सके कि हमारे कर्म पथ प्रदर्शन के योग्य बन सकते हैं-हम औरों को अपने कर्मों से शिक्षण दे सकते हैं। आज की परिस्थिति में गेरुए कपड़े पहनकर वैराग्य का जीवन जीना संभव नहीं है। कभी संन्यास धर्म प्रतिष्ठित रहा होगा, पर आज तो युगधर्म का परिपालन करने वाले वानप्रस्थ-परिव्राजक वर्ग के कर्मयोगियों की सर्वाधिक आवश्यकता है।
युगधर्म को समझें
युगधर्म की व्याख्या परम पूज्य गुरुदेव के एक लेख के माध्यम से समझाना चाहेंगे। यह लेख ‘‘अखण्ड ज्योति’’ पत्रिका अप्रैल १९८३ के लिये लिखा गया था-शीर्षक था-‘‘जाग्रतात्माएँ युगधर्म का निर्वाह करें’’ (पृष्ठ-५१)। पूज्यवर लिखते हैं-‘‘आपत्तिकालीन परिस्थितियों से निपटने के लिये समर्थ भावनाशीलों को आगे आना पड़ता है। अग्रिकाण्ड, भूकम्प, बाढ़, महामारी, दुर्भिक्ष जैसे संकट आ खड़े होने पर उदारचेता अपने कामधंधे में हर्ज करके भी दौड़ते और संत्रस्त जनसमुदाय की सहायता करने में कुछ उठा नहीं रखते। स्थानीय चिकित्सकों की जिम्मेदारी और भी अधिक है। इस अवसर पर उनकी योग्यता विशेष रूप से आवश्यक होती है। यदि वे मरहम पट्टी-करने के लिए आने से इंकार या आनाकानी करें, तो यह तत्काल के संकट से परे रहना अन्ततः हानिकारक ही सिद्ध होगा। इस निष्ठुरता के लिये उन्हें आत्मप्रताड़ना और लोकभर्त्सना दोनों ही सहनी पड़ेगी।’’
युगधर्म की अति महत्त्वपूर्ण व्याख्या करने के बाद इसी के आगे पूज्यवर लिखते हैं-‘‘प्रज्ञा परिजनों की स्थिति सुयोग्य चिकित्सकों जैसी है और समय की विपन्नता भयानक दुर्घटना जैसी। इन दिनों आस्था संकट के सर्वनाशी घटाटोप पूरी प्रौढ़ता पर हैं। साधन संपन्न परिस्थितियों में भी मनुष्य को दिन-दिन अधिकाधिक कष्टदायक स्थितियों में फँसना पड़ रहा है। आज की परिस्थितियों को यदि कोई पर्दा उघाड़ कर देखे, तो प्रतीत होगा कि दृश्यमान चमक-दमक के पीछे कितनी अधिक पीड़ा, खीज, निराशा संव्याप्त है। व्यक्ति की तरह ही समाज की चूलें भी चरमरा रही हैं। लोग ऐसे माहौल में जी रहे हैं, जिसमें आतंक, अनाचार और प्रपंच-पाखण्ड के अतिरिक्त और कुछ बच ही नहीं रहा। कहना न होगा कि समय को जिस स्तर की उद्धार क्षमता चाहिए, उसकी उपयुक्त मात्रा प्रज्ञा परिजनों के अतिरिक्त कदापि कहीं अन्यत्र दिखाई पड़े।’’
कर्मयोगी बनें, युगधर्म निबाहें
यह पूरा निबन्ध पढ़ने योग्य है; पर इसका जो अंश यहाँ उद्धृत है- वह हम सबके लिए है, हर देवमानव के लिये है, जिसके भी मन में समाज के प्रति थोड़ी भी पीड़ा है- उसके लिये है। यह लेख १९८३ में लिखा गया था; पर आज बीस वर्ष बाद भी यह उतना ही सामयिक है। जो भी कुछ विवरण ऊपर दिया गया है- वह आज के समाज की जन्मकुण्डली है- पूरा वास्तविक लेखा- जोखा है। ऐसे में हमसे एक सुयोग्य चिकित्सक की भूमिका निभाने को कहा जा रहा है। हम अर्थात् ‘‘अखण्ड ज्योति’’ के पाठक, संवेदना की धुरी से मिशन के उद्देश्यों से जुड़े परिजन, लोकसेवी, कर्मयोग में निरत हर कोई सामान्य जन। परम पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि हमें कर्म- संन्यास व कर्मयोग दोनों में से चुनना पड़े, तो युगधर्म की दृष्टि से चिकित्सक वाला- लोकशिक्षक वाला कर्मयोग का मार्ग चुनना चाहिए। कभी- कभी संन्यासी बनने की हूक मन में उठती है, लगता है कि संन्यास ले लिया होता, तो ज्यादा श्रेष्ठ कहलाते।
आनंद का जीवन होता। आज जो संन्यासी समुदाय है, उसकी तरह भोग का जीवन जीते। सन् १९८०- ८१ की बात है। परम पूज्य गुरुदेव के आदेश से हमें एक आश्रम में जाने का मौका मिला, इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम की मशीन लेकर। एक आश्रम में एक स्वामी जी को हार्ट अटैक हुआ था। जिस कक्ष में से होकर हम गुजरे- वहाँ कई संन्यासी भोजन कर रहे थे। अत्यधिक गरिष्ठ- मेवा प्रधान भोजन। आज की दृष्टि से हाई कोलेस्ट्रॉल फूड। अंदर ई.सी.जी. लिया। तुरंत तात्कालिक उपचार किया- दिल का दौरा पड़ा था। रक्त की चर्बी की दृष्टि से चेक अप कराने हेतु सैम्पल भेजा। उसी कक्ष से लौटना हुआ। लगा यदि सभी स्वामी जी, जो बड़े- बड़े मठों में रहते हैं, यह भोजन करते होंगे, तो उन्हें हार्ट अटैक नहीं होगा, तो क्या होगा? यहाँ हम यह नहीं कह रहे कि सारे संन्यासी ऐसे होते हैं, पर आज जो स्थिति हो गयी है, संन्यास आश्रम की- धर्म की जो दुर्गति हो गयी है, उसमें कर्मयोग से परे हटकर पलायनवादी बनकर जीने वाले अधिक हैं एवं इनकी संख्या प्रति कुम्भ में बढ़ती चली जाती है। बाहर तो भगवा है, किन्तु अन्तरंग में क्या है, यह किसी को दिखाई नहीं देता। नंगे पाँव चलते हैं- कुछ तप- तितिक्षा के व्रत साध लिये हैं- मौन रहते हैं, पर जीवन वैसा का वैसा ही है; क्योंकि तमस् से ऊपर नहीं उठ पाए। यदि अंदर- बाहर दोनों ओर कर्मणां न्यासं- कर्मसंन्यास सही अर्थों में स्थापित हो जाए, तो वह स्वामी विवेकानन्द, महर्षि दयानन्द की तरह, आद्य शंकराचार्य की तरह लाखों के दिशादर्शक बन सकते हैं।
युगधर्म की बात से उपर्युक्त प्रसंग उभरे। युग धर्म का परिपालन ही कर्मयोग को जीवन में उतारना है। पीले कपड़े, जो त्याग- तप, उल्लास का प्रतीक है, पहने गायत्री परिवार के कार्यकर्त्ता स्थान- स्थान पर सात आंदोलनों (साधना, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलम्बन, पर्यावरण, नारी जागरण, व्यसन- कुरीति उन्मूलन) में निरत दिखाई देते हैं। गुरुवर चाहते तो वे भी सभी को गेरुए कपड़े पहना देते, पर उनने कहा- ‘‘आपको हम पीले कपड़े पहना रहे हैं। आपको लोग गाली देंगे, अपमानित करेंगे; क्योंकि धर्मतंत्र बुरी तरह पददलित हुआ है- अवमानित हुआ है। आपको जीवन विद्या की पुनःस्थापना करनी है, इसलिये आपको पीले कपड़े पहनाए हैं; ताकि आप धर्मतंत्र को पुनर्जीवित कर सकें। कर्मयोगी बनकर अर्जुन की तरह हम भी मोह, अहं के भवबंधन पार कर सकते हैं।
लोकसेवियों की मार्गदर्शिका
अब एक प्रकार से पुनः उसी विषय को गहरी जाँच- पड़ताल के साथ पी.एच.डी. स्तर के गहन अध्ययन की तैयारी के साथ श्रीकृष्ण प्रस्तुत करना चाह रहे हैं। यह विषय हर कार्यकर्त्ता के लिये, स्वयंसेवक के लिये, एक आदर्श राष्ट्रनिष्ठ लोकसेवी के लिये समझना बहुत जरूरी है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि ज्ञान को सर्वोपरि मानकर उसी के आधार पर अपने व्यक्तिगत अहं की बलि दी जानी चाहिए। अहंकार का समर्पण हो एवं व्यक्ति निष्काम कर्म की ओर बढ़े, चाहे कितनी ही मुश्किलें क्यों न आएँ। अब इस ‘‘अहं’’ से मुक्ति कैसे पाई जाए? यह अहंकार है क्या? इस मद को पहचाना कैसे जाए? किसी तरह हम इसके स्वरूप को जान लें एवं शुद्ध ‘‘अहं’’ के गरिमामय रूप को जानकर उसमें प्रतिष्ठित होने की सोचें, तो कितना बड़ा परिवर्तन आ सकता है? यह सब कार्यकर्त्ताओं की आचार- संहिता का प्रकरण इस अध्याय में आया है, जो उसे साधना की धुरी पर जीवन कला को निखारने की बात भी समझाता है। संन्यास वेशधारी तो लाखों की संख्या में समाज में हैं, पर क्या वे अपना ‘‘अहं’’ छोड़ पाए हैं? वास्तविक संन्यास क्या होता है? व कर्मयोग व संन्यास का परस्पर समन्वय कैसे स्थापित किया जाए? इसकी विशिष्ट व्याख्या इस अध्याय में श्रीकृष्ण करते हैं। अहंकार के नाश की विधि इसमें वर्णित की गयी है, इसीलिये इस अध्याय का नाम ‘‘कर्म- संन्यास योग’’ है।
इस अध्याय के २९ श्लोकों में सारे कर्म सिद्धान्त को योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा बड़े सरल ढंग से समझाने का प्रयास किया गया है। इस अध्याय में स्थान- स्थान पर कर्म- संन्यास की व्याख्या एवं कर्मयोग की महत्ता बताते हुए भगवान् कृष्ण अहंकार से रहित सिद्ध पुरुषों के लक्षण भी अर्जुन को बताते हैं। अहंकार रहित होना एक बड़ी सिद्धि है एवं इतना भर हो जाने पर मनुष्य किस तरह सामान्य से असामान्य हो जाता है, यह पढ़ने पर पाठक के मन में भी ललक पैदा होने लगती है। स्थान- स्थान पर आसक्ति को छोड़कर कर्म करने की महत्ता इस अध्याय में प्रतिपादित की गयी है, पर अर्जुन इतने मात्र से संभवतः प्रभावित नहीं है। उसकी आशंकाएँ अभी भी यथावत् हैं; क्योंकि वह व्यावहारिकता के धरातल पर मार्गदर्शन चाहता है। विगत दो अध्यायों को चरम सोपान पर पहुँचा देता है—यह पाँचवाँ अध्याय जहाँ अंतिम श्लोकों में ध्यान की विधि भी योगेश्वर द्वारा बता दी जाती है। जीवन कैसे जिया जाए? कर्मों को दिव्य कैसे बनाया जाए? औरों से अधिक बेहतर जीवन किस तरह जिया जाए? विचारों व भावनाओं का सुव्यवस्थित विकास कैसे संभव हो? यह श्रीगीता जी के काव्य की विशेषता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि जीवन को एक खेल की तरह मानकर ठीक तरह जी लिया जाए, तो हमारा जीवन सुसंस्कृत एवं चरित्रनिष्ठा से भरा- पूरा होता चला जाता है। जीवन पूर्णतः रूपान्तरित होने लगता है। सदाचारमय जीवन जीते- जीते मनुष्य क्रमशः उन्नति की ओर बढ़ने लगता है- आध्यात्मिकता की ओर भी एवं भौतिकता की ओर भी। उसके अंदर का दानव मिटता चला जाता है एवं देवत्व जागने लगता है। छठे अध्याय में आत्मसंयम के योग को समझाने से पूर्व श्रीकृष्ण अर्जुन में जिज्ञासा जगाकर इस पाँचवें महत्त्वपूर्ण अध्याय में कर्मयोग की पराकाष्ठा तक उसे पहुँचा देते हैं। यही है—पाँचवें अध्याय में प्रवेश की भूमिका।
पाँचवाँ अध्याय अर्जुन की एक जिज्ञासा से आरंभ होता है। वह अभी सुन चुका है- ‘‘योगमातिष्ठोतिष्ठ भारत’’- हे भारत! उठो एवं योग का आश्रय लो। अपनी अहं केन्द्रित कामनाओं को त्यागो। वस्तुतः यही सच्चे अर्थों में संन्यास है।
तत्काल ही वह अपनी जिज्ञासा श्रीकृष्ण के सम्मुख रख देता है-
अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् (५/१)
अर्जुन ने कहा- ‘‘हे कृष्ण! आप कर्मों का त्याग करने (कर्मणां संन्यासं) और फिर उन्हें करते रहने (कर्मयोग) पर जोर देते हैं, इनकी प्रशंसा करते हैं। इन दोनों मार्गों में से कौन- सा एक मेरे लिए भलीभाँति निश्चित, कल्याणकारक व श्रेष्ठ है, यह आप मुझे बताइये।’’
यहाँ अर्जुन पूर्णतः भ्रमित है। उसे दोनों मार्ग परस्पर विरोधी दिखाई दे रहे हैं। पहले मार्ग के अनुसार, तो यह स्पष्ट होता है कि तमाम कर्मों का त्याग कर दिया जाना चाहिए (संन्यास) और दूसरा मार्ग हमें सामाजिक और व्यक्तिगत रूप से जीवन में रुचि लेने- कर्मयोग में निरत होने की बात कहता है। अर्जुन की बुद्धि में यहाँ वह गंभीर भाव नहीं आ पा रहा है, जो दोनो मार्गों की तत्त्व से उसे जानकारी करा सके।
भगवान् श्री जो यहाँ कहना चाह रहे हैं, उसके अनुसार कर्मों में अहंकार का त्याग ही कर्मणां संन्यासः है- कर्मों का त्याग है तथा कर्मफल उपभोग के प्रति हमारी चाह के त्याग को कर्मयोग कहा गया है। कितना बारीकी से रखा गया दर्शन है, पर वह समझ में तब ही आ सकता है, जब हम उसका मर्म समझ सकें। जैसे ही वह समझ में आ जाता है हम समष्टि में संव्याप्त उस परमात्मसत्ता को भी जान लेते हैं। बाधक मात्र अहंकार है- उसके उद्वेग हैं। कर्त्ता का भाव व भोक्ता का भाव यदि निकल जाए, तो हम अपने दिव्य स्वरूप को जान सकते हैं- मानवी गरिमा के अनुरूप जीवन जीने की स्थिति में प्रतिष्ठित हो सकते हैं। फिर हम उन ग्रन्थियों में उलझने से बच जाते हैं, जो हमें देवत्व के राजमार्ग से हटाकर इन्द्रिय तुष्टि की ओर- अहं की पूर्ति की ओर- स्वार्थ पूर्ति की ओर ले जाती है।
कर्त्ता-भाव का त्याग ही कर्म-संन्यास
उत्तर जो मिलने जा रहा है, उसकी भूमिका समझ लें, तो हमें अर्जुन का प्रश्र अच्छी तरह समझ में आ जाएगा। कर्त्ता भाव के त्याग की विधि कर्मों का संन्यास है और भोक्ताभाव से ऊपर उठने की विधि कर्मयोग है। अहंकार का त्याग करके लोकसेवा में लगना ‘‘संन्यास’’ है एवं कर्मफल की लालसा पर नियंत्रण रख लोकसेवा में लगाना ‘‘कर्मयोग’’ है। शास्त्रों में वर्णित इन दो शब्दों को समझ लेने के बाद इस अध्याय का एवं कर्मयोग का मर्म समझ में आ जाता है। पाण्डुपुत्र अर्जुन चाहता है कि उसके गुरु श्रीकृष्ण उसका एक ही निश्चित मार्ग-पूर्ण संन्यास अथवा पूर्ण कर्मयोग (संन्यास एवं योग) के विषय में मार्गदर्शन करें।
गलती उसकी भी नहीं है। अर्जुन ने पहले ज्ञानयोग की महिमा सुनी कि ज्ञान से अधिक पवित्र धरती पर कुछ भी नहीं व उसे इसके लिये श्रद्धावान बनना होगा-फिर चौथे अध्याय में उसने सुना कि कर्मयोगी बनना चाहिए-दिव्यकर्मी होना चाहिए। अर्जुन किसी बीच के मार्ग, किसी शार्टकट की, बायपास मार्ग की तलाश में है। युद्ध में लगने का उसका मन नहीं है-कर्मयोगी वह अभी बनना नहीं चाहता; क्योंकि उससे बार-बार युद्ध करने की बात कही जा रही है। हाँ, यदि किसी तरह संन्यास मिल जाए तो जान बच सकती है। संन्यास ले लेंगे, तो कर्म से बच जायेंगे। संन्यास, ऐसे पावन आश्रम परम्परा की दुर्गति अनादि काल से होती चली आयी है। संन्यास अर्थात् कर्मों से पलायन। भगवान् उसे दुविधा से निकालते हैं एवं उससे कहते हैं-
श्री भगवानुवाच—
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥ ५/२॥
अर्थात् ‘‘श्री भगवान् बोले-कर्मसंन्यास (कर्मों का त्याग) और कर्मयोग (कर्मों का सम्पादन) दोनों ही हमें मोक्ष की ओर ले जाते हैं, किन्तु इन दोनों में से कर्मों के त्याग की अपेक्षा कर्मयोग—साधना में सुगम होने से अधिक श्रेष्ठ है।’’
दोनों ही परम कल्याणकारी हैं-दोनों से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है; परंतु इनमें से भी कर्मयोग जिसमें कर्मों का संपादन करते-करते सफलता की ओर बढ़ा जाता है, सर्वाधिक श्रेष्ठ है-यह श्री भगवान् का स्पष्ट मत है। यह एक प्रारम्भिक साधक के लिये-युद्धभूमि में खड़े योद्धा के लिये-मोहग्रस्त अर्जुन के लिये दिया जा रहा मार्गदर्शन है। एक स्पष्ट घोषणा आचार्य के द्वारा की जाती है कि कर्म-संन्यास की अपेक्षा कर्मों का सम्पादन करते हुए जीना ही सर्वश्रेष्ठ है (तयो अस्तु कर्म संन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते)। बिना रजोगुण पार किये जो सतोगुण सीधे पाना चाहता हो, उसे यह जान लेना चाहिए कि राजमार्ग मात्र एक ही है। हर कोई तमोगुणी की (मोह और-अहंता की) स्थिति में पलायनवादी बनकर हिमालय जाने की बात कहता है; क्योंकि वह मार्ग सीधा-सच्चा दिखाई देता है, पर यह तो छलावा है। ऐसे व्यक्ति वापस तमस की ओर लौटते हैं एवं यदि जीवन में सच्चा मार्गदर्शन नहीं मिला, तो जन्म-जन्मान्तरों तक भटकते रहते हैं।
भगवान् एक ही बात कहते हैं- ‘‘तुम्हारे लिये कर्मयोग ही श्रेष्ठ है। यही युगधर्म है और इसी में तुम्हें ही नहीं, किसी भी काल के मानव को सर्वप्रथम अपने आपको नियोजित करना चाहिए।’’ यह पूरा अध्याय युगधर्म की ही बात कहता है एवं हमें बताता है कि हमारे कर्मों को किस दिशा में नियोजित किया जाना चाहिए। आज के युग में चारों ओर आपाधापी मची हुई है; मनुष्य दूषित हो रहा है, उसके कर्म दूषित हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में ऐसे युगधर्म की अपेक्षा है, जो हमें बता सके कि हमारे कर्म पथ प्रदर्शन के योग्य बन सकते हैं-हम औरों को अपने कर्मों से शिक्षण दे सकते हैं। आज की परिस्थिति में गेरुए कपड़े पहनकर वैराग्य का जीवन जीना संभव नहीं है। कभी संन्यास धर्म प्रतिष्ठित रहा होगा, पर आज तो युगधर्म का परिपालन करने वाले वानप्रस्थ-परिव्राजक वर्ग के कर्मयोगियों की सर्वाधिक आवश्यकता है।
युगधर्म को समझें
युगधर्म की व्याख्या परम पूज्य गुरुदेव के एक लेख के माध्यम से समझाना चाहेंगे। यह लेख ‘‘अखण्ड ज्योति’’ पत्रिका अप्रैल १९८३ के लिये लिखा गया था-शीर्षक था-‘‘जाग्रतात्माएँ युगधर्म का निर्वाह करें’’ (पृष्ठ-५१)। पूज्यवर लिखते हैं-‘‘आपत्तिकालीन परिस्थितियों से निपटने के लिये समर्थ भावनाशीलों को आगे आना पड़ता है। अग्रिकाण्ड, भूकम्प, बाढ़, महामारी, दुर्भिक्ष जैसे संकट आ खड़े होने पर उदारचेता अपने कामधंधे में हर्ज करके भी दौड़ते और संत्रस्त जनसमुदाय की सहायता करने में कुछ उठा नहीं रखते। स्थानीय चिकित्सकों की जिम्मेदारी और भी अधिक है। इस अवसर पर उनकी योग्यता विशेष रूप से आवश्यक होती है। यदि वे मरहम पट्टी-करने के लिए आने से इंकार या आनाकानी करें, तो यह तत्काल के संकट से परे रहना अन्ततः हानिकारक ही सिद्ध होगा। इस निष्ठुरता के लिये उन्हें आत्मप्रताड़ना और लोकभर्त्सना दोनों ही सहनी पड़ेगी।’’
युगधर्म की अति महत्त्वपूर्ण व्याख्या करने के बाद इसी के आगे पूज्यवर लिखते हैं-‘‘प्रज्ञा परिजनों की स्थिति सुयोग्य चिकित्सकों जैसी है और समय की विपन्नता भयानक दुर्घटना जैसी। इन दिनों आस्था संकट के सर्वनाशी घटाटोप पूरी प्रौढ़ता पर हैं। साधन संपन्न परिस्थितियों में भी मनुष्य को दिन-दिन अधिकाधिक कष्टदायक स्थितियों में फँसना पड़ रहा है। आज की परिस्थितियों को यदि कोई पर्दा उघाड़ कर देखे, तो प्रतीत होगा कि दृश्यमान चमक-दमक के पीछे कितनी अधिक पीड़ा, खीज, निराशा संव्याप्त है। व्यक्ति की तरह ही समाज की चूलें भी चरमरा रही हैं। लोग ऐसे माहौल में जी रहे हैं, जिसमें आतंक, अनाचार और प्रपंच-पाखण्ड के अतिरिक्त और कुछ बच ही नहीं रहा। कहना न होगा कि समय को जिस स्तर की उद्धार क्षमता चाहिए, उसकी उपयुक्त मात्रा प्रज्ञा परिजनों के अतिरिक्त कदापि कहीं अन्यत्र दिखाई पड़े।’’
कर्मयोगी बनें, युगधर्म निबाहें
यह पूरा निबन्ध पढ़ने योग्य है; पर इसका जो अंश यहाँ उद्धृत है- वह हम सबके लिए है, हर देवमानव के लिये है, जिसके भी मन में समाज के प्रति थोड़ी भी पीड़ा है- उसके लिये है। यह लेख १९८३ में लिखा गया था; पर आज बीस वर्ष बाद भी यह उतना ही सामयिक है। जो भी कुछ विवरण ऊपर दिया गया है- वह आज के समाज की जन्मकुण्डली है- पूरा वास्तविक लेखा- जोखा है। ऐसे में हमसे एक सुयोग्य चिकित्सक की भूमिका निभाने को कहा जा रहा है। हम अर्थात् ‘‘अखण्ड ज्योति’’ के पाठक, संवेदना की धुरी से मिशन के उद्देश्यों से जुड़े परिजन, लोकसेवी, कर्मयोग में निरत हर कोई सामान्य जन। परम पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि हमें कर्म- संन्यास व कर्मयोग दोनों में से चुनना पड़े, तो युगधर्म की दृष्टि से चिकित्सक वाला- लोकशिक्षक वाला कर्मयोग का मार्ग चुनना चाहिए। कभी- कभी संन्यासी बनने की हूक मन में उठती है, लगता है कि संन्यास ले लिया होता, तो ज्यादा श्रेष्ठ कहलाते।
आनंद का जीवन होता। आज जो संन्यासी समुदाय है, उसकी तरह भोग का जीवन जीते। सन् १९८०- ८१ की बात है। परम पूज्य गुरुदेव के आदेश से हमें एक आश्रम में जाने का मौका मिला, इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम की मशीन लेकर। एक आश्रम में एक स्वामी जी को हार्ट अटैक हुआ था। जिस कक्ष में से होकर हम गुजरे- वहाँ कई संन्यासी भोजन कर रहे थे। अत्यधिक गरिष्ठ- मेवा प्रधान भोजन। आज की दृष्टि से हाई कोलेस्ट्रॉल फूड। अंदर ई.सी.जी. लिया। तुरंत तात्कालिक उपचार किया- दिल का दौरा पड़ा था। रक्त की चर्बी की दृष्टि से चेक अप कराने हेतु सैम्पल भेजा। उसी कक्ष से लौटना हुआ। लगा यदि सभी स्वामी जी, जो बड़े- बड़े मठों में रहते हैं, यह भोजन करते होंगे, तो उन्हें हार्ट अटैक नहीं होगा, तो क्या होगा? यहाँ हम यह नहीं कह रहे कि सारे संन्यासी ऐसे होते हैं, पर आज जो स्थिति हो गयी है, संन्यास आश्रम की- धर्म की जो दुर्गति हो गयी है, उसमें कर्मयोग से परे हटकर पलायनवादी बनकर जीने वाले अधिक हैं एवं इनकी संख्या प्रति कुम्भ में बढ़ती चली जाती है। बाहर तो भगवा है, किन्तु अन्तरंग में क्या है, यह किसी को दिखाई नहीं देता। नंगे पाँव चलते हैं- कुछ तप- तितिक्षा के व्रत साध लिये हैं- मौन रहते हैं, पर जीवन वैसा का वैसा ही है; क्योंकि तमस् से ऊपर नहीं उठ पाए। यदि अंदर- बाहर दोनों ओर कर्मणां न्यासं- कर्मसंन्यास सही अर्थों में स्थापित हो जाए, तो वह स्वामी विवेकानन्द, महर्षि दयानन्द की तरह, आद्य शंकराचार्य की तरह लाखों के दिशादर्शक बन सकते हैं।
युगधर्म की बात से उपर्युक्त प्रसंग उभरे। युग धर्म का परिपालन ही कर्मयोग को जीवन में उतारना है। पीले कपड़े, जो त्याग- तप, उल्लास का प्रतीक है, पहने गायत्री परिवार के कार्यकर्त्ता स्थान- स्थान पर सात आंदोलनों (साधना, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलम्बन, पर्यावरण, नारी जागरण, व्यसन- कुरीति उन्मूलन) में निरत दिखाई देते हैं। गुरुवर चाहते तो वे भी सभी को गेरुए कपड़े पहना देते, पर उनने कहा- ‘‘आपको हम पीले कपड़े पहना रहे हैं। आपको लोग गाली देंगे, अपमानित करेंगे; क्योंकि धर्मतंत्र बुरी तरह पददलित हुआ है- अवमानित हुआ है। आपको जीवन विद्या की पुनःस्थापना करनी है, इसलिये आपको पीले कपड़े पहनाए हैं; ताकि आप धर्मतंत्र को पुनर्जीवित कर सकें। कर्मयोगी बनकर अर्जुन की तरह हम भी मोह, अहं के भवबंधन पार कर सकते हैं।