Books - युगगीता (भाग-३)
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सांख्य (संन्यास) और कर्मयोग दोनों एक ही हैं, अलग-अलग नहीं
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स्वं- स्वं चरित्रं शिक्षेरन्
दूसरे श्लोक का सार यह है कि कर्मयोग एवं कर्मसंन्यास, यद्यपि ये दोनों ही मोक्ष की ओर ही ले जाते हैं एवं दोनों ही श्रेष्ठ हैं, फिर भी इन दोनों में कर्मों का संपादन (कर्मयोग) अधिक महत्त्व वाला, व्यावहारिक एवं हम सबके लिए करने योग्य है। जब भी संन्यास की बात की जाती है, तो ‘कर्मभाव’ से अर्थात् हमारे भीतर जड़ जमाकर बैठे अहंभाव के त्याग की अपेक्षा हमसे की जाती है। व्यावहारिक धरातल पर शिक्षण दे रहे योगेश्वर श्रीकृष्ण एक सामान्य आदमी के लिए भी एवं विशिष्टता की पराकाष्ठा पर चलने वालों के लिए भी यही सूत्र देते हैं कि कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मों का संपादन श्रेष्ठ है ‘‘तयोस्तु कर्मसन्न्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते ।’’ हम ऐसे दिव्यकर्मी बनें कि हमारे कर्म ही औरों के लिए शिक्षण बन सकें। स्वामी तुरीयानंदजी (रामकृष्ण मिशन) कहा करते थे, ‘‘लिव एन एक्जेम्पलरी लाइफ’’ अपना जीवन उदाहरण की तरह जियो। अपने कर्मों से, आचरण से औरों को शिक्षण दे सको, जो कि हमारी संस्कृति का आदि सत्य है, स्वं- स्वं चरित्रं शिक्षेरन् (स्वं- स्वं आचरेण शिक्षेरन्) पृथिव्यां सर्वमानवः कुछ ऐसी बात इस श्लोक से हमें ज्ञात होती है। जो भगवान् को पसंद हो, वही हमें भी पसंद होना चाहिए। यदि भगवान् कर्मयोगी बनाना चाहते हैं मानव मात्र को, तो वही हम सबकी नियति होनी चाहिए। आज का कर्मयोग- युगधर्म है—मानव मात्र में छाए आस्थासंकट का निवारण, इसके लिए छाई दुर्गति को मिटाने के लिए एक विराट् स्तर पर ज्ञानयज्ञ- विद्याविस्तार। हर व्यक्ति का चिंतन, सोचने का तरीका सही हो, अहर्निश यही हमारा पुरुषार्थ चले, चिंतन चले एवं कर्म भी उसी दिशा में नियोजित हों। युगधर्म की बात आती है, तो यहाँ गोरखनाथ जी का एक दृष्टांत उद्धृत करने का मन करता है।
समूह मन का जागरण
गुरु गोरखनाथ का जब उदय हुआ, तो उनका नाम था अघोरवज्र। अघोर से गोरखनाथ पैदा हुए एवं चूँकि वे वज्रयानी संप्रदाय के थे, वे अघोरवज्र भी कहलाते थे। उनके एक साथी थे फेरुकवज्र। मुहम्मद गौरी की सेना ने आक्रमण किया एवं वह उत्तर से दक्षिण तक सब कुछ तहस- नहस करती हुई, देवालयों को तोड़ती हुई सोमनाथ व उड़ीसा के कोणार्क मंदिर तक पहुँच गई। आक्रमण इस स्तर पर प्रचंड था एवं हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा पिछड़े वर्ग की उपेक्षा इतनी अधिक थी कि उसके विधर्मीकरण आंदोलन में कई व्यक्ति धर्म बदलकर मुस्लिम बनते चले गए। इसमें एक काला पहाड़ की कहानी सभी जानते हैं, जो कि घृणा से जन्मा था एवं जिसने हजारों हिंदुओं को मुस्लिम बनाकर बर्बरता से मारा। उस समय जब योग और तंत्र की शक्ति में महारत रखने वाले ढेरों वज्रयानी गोरक्षनाथ, फेरुकवज्र मौजूद थे, ये घटनाएँ घटीं। तत्कालीन राजा तंत्र के टोटकों से प्रभावित हो यही समझ बैठे थे कि यही लोग मोरचा ले लेंगे, हमें लड़ने की जरूरत भी नहीं होगी। सेनाओं की छुट्टी कर दी गई थी। यही मान लिया गया कि तांत्रिकों के, योगियों के बल पर ही यवन- शक से जूझ लिया जाएगा। जब गजनवी आकर रौंद कर चला गया, तो गोरखनाथ ने अपने से आयु व अनुभव में बड़े फेरुकवज्र से पूछा, ‘‘आपका तप कहाँ चला गया? ज्ञान का क्या हुआ? क्यों नहीं जूझ पाए आप?’’ तब फेरुकवज्र बोले, ‘‘योग और तंत्र की अपनी सीमा है।’’ ऐसे विपत्ति के समय में आवश्यकता आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों की, विजय की कामना रखने वालों की एवं कर्मयोगियों की होती है। गजनी के सैनिकों में गजब का आत्म- विश्वास था, विजय की कामना थी। जब कर्मयोगी जिजीविषा सम्पन्न व्यक्ति एक साथ होते हैं, तो समूह मन का निर्माण करते हैं। इस समूह मन के सामने तंत्र और योग एक तरफ रखा रह गया और उनकी दुर्दांत इच्छाशक्ति काम करती चली गई। ‘‘आगे जब भी जमाना बदलेगा, तो वह समूह मन के जागरण से ही बदलेगा।’’
कर्मयोग ही आज का युगधर्म समूह मन का जागरण ही है, आज का युगधर्म। परमपूज्य गुरुदेव ने इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य का न केवल नारा दिया, उसके लिए सुनियोजित कार्यक्रम भी दिया तथा सभी गायत्री परिजनों को कर्मयोगी भी बना दिया। कहा—परमार्थ में ही सच्चा स्वार्थ है। इस समय का युगधर्म विचारक्रांति, समाज- सेवा है। इसके साथ- साथ उनने सामूहिक साधना द्वारा समूह मन के जागरण की प्रक्रिया को जीवन भर गति दी। उनने कहा कि जो इसमें जुटेगा, वह भारत को महानायक होते देखेगा। गोरखनाथ से भी फेरुकवज्र ने यह बात इसी तरह कही, ‘‘भारतवर्ष का उद्धार तंत्र साधना या संन्यास से नहीं, गुफा में बैठकर नहीं, समवेत मनों की शक्ति के जागरण से ही हो पाएगा, ऐसा समय निश्चित ही आएगा।’’ तत्पश्चात् गोरक्षनाथ ने नाथ योगियों की एक सेना खड़ी की एवं उन्हें एक विशिष्ट कार्य सौंपा। जहाँ भी यवनों का आक्रमण होने की संभावना रहती थी, वहाँ यह सेना पहले से ही पहुँच जाती थी एवं बाकायदा मोर्चा लेती थी। वे जाकर सभी को एकत्र करते एवं बताते थे कि युगधर्म क्या है? इस समय तलवार हाथ में लेकर लड़ना एवं विधर्मियों को मार गिराना ही युगधर्म है। अमृताशन की परंपरा को भी गोरक्षनाथ ने ही सबसे पहले आरंभ किया था। कहा था कि यही इस जमाने का आहार है। इसी को खाकर, योग साधकर, संयमी जीवन अपनाकर सभी को सैनिक बनना चाहिए। परमपूज्य गुरुदेव ने भी अमृताशन (खिचड़ी) को युग सैनिकों के लिए एकमात्र आहार बताया। भगवान् भी यहाँ गीता के दूसरे श्लोक में यही कह रहे हैं कि संन्यास लेकर वैराग्य की स्थिति (जो कि अर्जुन के मन में आ रहा है) की तुलना में कर्मयोग ही सर्वश्रेष्ठ है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण क्यों कहते हैं कि हमें कर्मयोगी ही होना चाहिए? वे हमें तीसरे श्लोक में संन्यासी की विशिष्टताओं एवं अहं के मिट जाने वाली प्रक्रिया की ओर संकेत करते हुए कहते हैं—
ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बंधात्प्रमुच्यते ॥ ५/३
‘‘हे अर्जुन! उसी कर्मयोगी को संन्यासी जानो, जो किसी से न द्वेष करता है और न राग ही रखता है, क्योंकि ऐसा राग- दोषों के द्वंद्वों से रहित व्यक्ति, तो सहज रूप में ही संसार बंधनों से मुक्त हो जाता है।’’
यो न द्वेष्टि न कांक्षति
संन्यासी राग- द्वेष से परे होता है। उसका अपना प्रिय कोई भी नहीं होता है, फिर भी सभी उसी के अपने आत्मीय होते हैं। वह व्यक्ति विशेष से जाति- धर्म संबंध (रिश्तेदारी), लिंग आदि के आधार पर न प्रीति रखता है, न उनसे घृणा करता है। घोषणा करने की जरूरत नहीं है कि अब हमने गेरिक वस्त्र पहन लिए हैं, हमने संन्यास ले लिया है; संन्यास आचरण में दिखाई देना चाहिए। संन्यासी अपने कुल- नाम को भूलकर गुरु की परंपरा से जुड़ जाता है और सारा समाज उसका कार्यक्षेत्र हो जाता है। जिसके हृदय से अहंभाव पूरी तरह दूर हो गया हो, उसे ही संन्यासी मानना चाहिए। (ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी), जिसे न राग है किसी से, न द्वेष ही (यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति)। यदि किसी प्रकार की वासना होगी ही नहीं, तो राग- द्वेष क्यों पनपेंगे? आगे भगवान् कहते हैं कि जिसने द्वंद्वों से पीछा छुड़ा लिया, वह सहज भाव से ही बंधनों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। (निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बंधात्प्रमुच्यते)।
द्वंद्व ही तो हैं, जो हमें बंधनों में फँसाते रहते हैं, यह मेरा है, यह मेरा पद, मेरी उपलब्धि मेरे स्वयं के ही कारण है, यह घृणित है, मेरे कथनानुसार नहीं चलता, मेरे मार्ग में बाधक है, इस प्रकार का चिंतन व्यक्ति को द्वंद्वों में उलझाकर बंधनों में जकड़ लेता है। इन द्वंद्वों से मनोविकार एवं फिर प्रज्ञापराध पनपता है। व्यक्ति बाहर से स्वस्थ, किंतु वस्तुतः रोगी बन जाता है। परमपूज्य गुरुदेव ने उसे वास्तविक रोगी एवं आस्था- संकट से ग्रस्त बताया है। यह भी उन्होंने कहा कि आज बहुसंख्य व्यक्ति इसी विडंबना में उलझे हैं, अधिक पाने की आकांक्षा, राग की अधिकता, कामनाओं का महत्त्वाकांक्षाओं में बदलना एवं बाधक तत्त्वों को हटाने के लिए द्वेष का जन्म लेना, फिर इन द्वंद्वों में उलझकर एक मायावी मृगतृष्णा में फँसकर जीवन गँवाते चलना यह नरसमुदाय की एक नियति- सी बन गई है। समाधान वे भी एक ही बताते हैं, विचारों में परिवर्तन, राग- द्वेष से मुक्ति, द्वंद्वों से परे चलकर जीवनमुक्ति- बंधनमुक्ति। वासना, तृष्णा, अहंता के त्रिविध विकारों से छुटकारा संन्यासी की वास्तविक मनःस्थिति में जाए बिना होगा नहीं। इसके लिए संन्यासी वेश की नहीं, संन्यास की मनःस्थिति की जरूरत है।
श्रीअरविंद ‘गीताप्रबंध’ में कहते हैं, ‘‘अहंकारी समझता है कि मैं ही वास्तविक आत्मा हूँ और इस तरह कर्म करता है मानो कर्म का वास्तविक केन्द्र वही है और सब कुछ मानो उसी के लिए है और यहीं वह दृष्टिकोण और नियोजन की भूल करता है। यह सोचना गलत नहीं है कि हमारे अंदर, हमारी प्रकृति के इस कर्म में कोई चीज या पुरुष ऐसा है, जो हमारी प्रकृति के कर्म का वास्तविक केंद्र है और सब कुछ उसी के लिए है; परंतु वह केंद्र, अहंकार नहीं, बल्कि हृदिदेश स्थित निगूढ़ ईश्वर (हृद्देदेशे अर्जुन तिष्ठति १८/६१ गीता) परमपिता परमात्मा है और वही वह दिव्य पुरुष है, जो अहंकार से पृथक् सत्ता का एक अंश है।’’ हम सबके भीतर वासनाओं द्वारा नियंत्रित, उसी के द्वारा निर्देशित ताल पर नृत्य करती हुई बुद्धि हमारे राग- द्वेष का भरण- पोषण करती है और फिर यही क्रिया रूप को भी जन्म देती है, किंतु जिसने बुद्धि को द्वंद्वों से मुक्त कर लिया, वह जीवन के बंधनों से मुक्त हो जाता है। फिर वह ऐषणाओं, उद्वेगों, कामुकता के ज्वरों से मुक्त हो जाता है। यह स्थिति अचानक नहीं आती। न ही प्रत्येक संन्यासी को सहज ही प्राप्त हो जाती है। इसीलिए श्रीकृष्ण का आग्रह है कि कर्म- संन्यास की तुलना में कर्मयोग करते- करते इसे प्राप्त करना और अधिक व्यावहारिक एवं सरल है। निष्ठा के साथ यज्ञीय भाव से कर्म करते रहने वाले दिव्यकर्मी (जैसा कि चौथे अध्याय में विस्तार से बताया गया) अपने जीवन की दैनंदिन वासनाओं का क्षय और अहंता पर विजय का महती कार्य संपन्न कर लेते हैं। अब कर्म- संन्यास और कर्मयोग को कोई पृथक् मानने की भूल न कर बैठे, इसके लिए भगवान चौथे श्लोक में एक सूत्र देते हैं—
साङ्ख्ययोग पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पंडिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥ ५/४
‘‘बालक की तरह आचरण करने वाले मूर्ख जन सांख्ययोग (ज्ञान द्वारा कर्म- संन्यास) और कर्मों के संपादन (कर्मयोग) को पृथक्- पृथक् फल देने वाला मानते हैं, किंतु पंडितजन (बुद्धिमान- समझदार) जानते हैं कि दोनों में से एक का भी पूरी तरह अनुसरण करने वाला दोनों के फल को प्राप्त कर परमात्मा से साक्षात्कार करने की स्थिति में आ जाता है।’’
बालबुद्धि बनाम पंडित- बुद्धि—भगवान् का मत है कि जो सांख्ययोग और कर्मयोग को अलग- अलग समझता है, वह बालक है। बालक के समान मूर्खतापूर्ण आचरण करने वाला है। पंडित अर्थात् विद्वत्जन जो समझदार हैं, जिन्होंने ज्ञान को भलीभाँति आत्मसात कर लिया है, वे जानते हैं कि दोनों एक समान ही फल देने वाले हैं। इसलिए किसी एक को भलीभाँति जीवन में उतारकर आगे बढ़ते रहने में ही समझदारी है। यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण के शब्दों में तीखा व्यंग्य भी है एवं थोड़ा- सा रोष भी। श्रीकृष्ण दोनों योगों में विवाद पैदा करने वालों की हँसी उड़ाते हैं व यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि ज्ञान द्वारा कर्म संन्यास एवं कर्मों के संपादन दोनों में कोई अंतर नहीं है। ये अविभाज्य हैं, परस्पर विरोधी नहीं हैं। जैसे विज्ञान और अध्यात्म एक- दूसरे के पूरक हैं, ऐसे ही ये दोनों ही सिद्धांत साथ चलने वाले हैं, अलग- अलग नहीं हैं।
‘पंडित’ शब्द का यहाँ गीताकार ने प्रयोग किया है, तो इन अर्थों में कि उसने न केवल शास्त्रों का गहन अध्ययन- मनन किया है, वह अहं के परित्याग (संन्यास) और कामनाओं के त्याग (सच्चा कर्मयोगी) में कोई भेद नहीं करता। पढ़ा- लिखा होते हुए भी, बाहर से पंडित समान वेश धारण किए, ढेरों डिग्री लिए व्यक्ति यदि दोनों योगों को अलग- अलग बताता है, तो फिर उसे ज्ञानी नहीं, बालक ही मानना चाहिए; बुद्धिमान नहीं, मूर्ख ही जानना चाहिए। ऐसी अपरिपक्व बुद्धि वाली जनता हम से अनजान नहीं है। हमारे चारों ओर ही ऐसे ढेरों व्यक्ति हमें मिल जाएँगे, जो संन्यास का न कोई मर्म जानते हैं, न निजी जीवन में उसे उतारते हैं; हाँ बाहर से मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, संन्यासी का चोला अवश्य पहने हुए हैं। स्वयं छलावे में जी रहे हैं, औरों को भी इसी मृगतृष्णा में उलझाने की कोशिश कर रहे हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण ने कहा है—साङ्ख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पंडिताः। बालाः अर्थात् बालबुद्धि वाले पंडित अर्थात् विद्वान- ज्ञानी ‘एनलाइटण्ड मैन’।
कर्त्ताभाव- भोक्ताभाव
इसी बात को इस तरह भी समझा जा सकता है कि कर्त्ता के भाव का त्याग सांख्य मार्ग है एवं भोक्ता के भाव का त्याग कर्मयोग का मार्ग है। जो किसी एक को भी पूरी तरह जीवन में उतार लेता है, वह इन दोनों का ही फल प्राप्त कर लेता है,(एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोः विन्दते फलम्), यह कहकर श्रीकृष्ण अर्जुन को पूरी तरह से मौन कर देते हैं, जो अभी भी द्वंद्व की स्थिति से गुजर रहा है। उनका स्पष्ट मत है कि भोक्ताभाव का त्याग योगी को, साधना पथ के पथिक को लौकिक जीवन की वासनाओं का क्षय करने में मदद करता है। जैसे- जैसे वासनाएँ मिटती चली जाती हैं, मन शांत होता चला जाता है। मन की शांति किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जरूरी है। ऐसी मनःस्थिति में स्थित व्यक्ति अपने ध्यान द्वारा चैतन्य की आत्मानुभूति कर लेता है। जब अपने आप ही कर्त्ताभाव मिट जाता है, तो संन्यास की स्थिति में जाकर मनुष्य परम आनंद को प्राप्त होता है।
कहाँ है वह आनंद? जो कर्त्ताभाव व भोक्ताभाव का त्याग करने वाले एक संन्यासी में होना चाहिए, कहीं दिखाई पड़ता है? परम पूज्य गुरुदेव इसी विडंबना पर अक्सर चर्चा करते हुए कहते थे कि धर्म के नाम पर पलायनवाद को जन्म देने वाले राष्ट्र के साठ लाख बाबाजी यदि कर्मयोगी बने होते, तो राष्ट्र का उद्धार हो गया होता। धर्मतंत्र राजतंत्र पर निर्भर नहीं होता, उसका दिशादर्शक होता है। यदि एक- एक बाबाजी आठ- आठ व्यक्तियों को साक्षर व संस्कारवान बना देते तो स्वतंत्रता के बाद इन पचपन वर्षों में देश कहाँ- का पहुँच गया होता। इसीलिए परमपूज्य गुरुदेव ने नवसंन्यास, इस युग का आपाद् धर्म परिव्रज्या सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बताया एवं परिपक्व, पर उत्तरदायित्वों से मुक्त वानप्रस्थियों से यह आवश्यकता पूरी करने को कहा। हम यह नहीं कहते कि १०० प्रतिशत संन्यासी ऐसे हैं। कुछ प्रतिशत तो वास्तव में प्राणवान- प्रज्ञावान हैं, पर शेष मठाधीश बने भोग कर रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है।
दूसरे श्लोक का सार यह है कि कर्मयोग एवं कर्मसंन्यास, यद्यपि ये दोनों ही मोक्ष की ओर ही ले जाते हैं एवं दोनों ही श्रेष्ठ हैं, फिर भी इन दोनों में कर्मों का संपादन (कर्मयोग) अधिक महत्त्व वाला, व्यावहारिक एवं हम सबके लिए करने योग्य है। जब भी संन्यास की बात की जाती है, तो ‘कर्मभाव’ से अर्थात् हमारे भीतर जड़ जमाकर बैठे अहंभाव के त्याग की अपेक्षा हमसे की जाती है। व्यावहारिक धरातल पर शिक्षण दे रहे योगेश्वर श्रीकृष्ण एक सामान्य आदमी के लिए भी एवं विशिष्टता की पराकाष्ठा पर चलने वालों के लिए भी यही सूत्र देते हैं कि कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मों का संपादन श्रेष्ठ है ‘‘तयोस्तु कर्मसन्न्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते ।’’ हम ऐसे दिव्यकर्मी बनें कि हमारे कर्म ही औरों के लिए शिक्षण बन सकें। स्वामी तुरीयानंदजी (रामकृष्ण मिशन) कहा करते थे, ‘‘लिव एन एक्जेम्पलरी लाइफ’’ अपना जीवन उदाहरण की तरह जियो। अपने कर्मों से, आचरण से औरों को शिक्षण दे सको, जो कि हमारी संस्कृति का आदि सत्य है, स्वं- स्वं चरित्रं शिक्षेरन् (स्वं- स्वं आचरेण शिक्षेरन्) पृथिव्यां सर्वमानवः कुछ ऐसी बात इस श्लोक से हमें ज्ञात होती है। जो भगवान् को पसंद हो, वही हमें भी पसंद होना चाहिए। यदि भगवान् कर्मयोगी बनाना चाहते हैं मानव मात्र को, तो वही हम सबकी नियति होनी चाहिए। आज का कर्मयोग- युगधर्म है—मानव मात्र में छाए आस्थासंकट का निवारण, इसके लिए छाई दुर्गति को मिटाने के लिए एक विराट् स्तर पर ज्ञानयज्ञ- विद्याविस्तार। हर व्यक्ति का चिंतन, सोचने का तरीका सही हो, अहर्निश यही हमारा पुरुषार्थ चले, चिंतन चले एवं कर्म भी उसी दिशा में नियोजित हों। युगधर्म की बात आती है, तो यहाँ गोरखनाथ जी का एक दृष्टांत उद्धृत करने का मन करता है।
समूह मन का जागरण
गुरु गोरखनाथ का जब उदय हुआ, तो उनका नाम था अघोरवज्र। अघोर से गोरखनाथ पैदा हुए एवं चूँकि वे वज्रयानी संप्रदाय के थे, वे अघोरवज्र भी कहलाते थे। उनके एक साथी थे फेरुकवज्र। मुहम्मद गौरी की सेना ने आक्रमण किया एवं वह उत्तर से दक्षिण तक सब कुछ तहस- नहस करती हुई, देवालयों को तोड़ती हुई सोमनाथ व उड़ीसा के कोणार्क मंदिर तक पहुँच गई। आक्रमण इस स्तर पर प्रचंड था एवं हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा पिछड़े वर्ग की उपेक्षा इतनी अधिक थी कि उसके विधर्मीकरण आंदोलन में कई व्यक्ति धर्म बदलकर मुस्लिम बनते चले गए। इसमें एक काला पहाड़ की कहानी सभी जानते हैं, जो कि घृणा से जन्मा था एवं जिसने हजारों हिंदुओं को मुस्लिम बनाकर बर्बरता से मारा। उस समय जब योग और तंत्र की शक्ति में महारत रखने वाले ढेरों वज्रयानी गोरक्षनाथ, फेरुकवज्र मौजूद थे, ये घटनाएँ घटीं। तत्कालीन राजा तंत्र के टोटकों से प्रभावित हो यही समझ बैठे थे कि यही लोग मोरचा ले लेंगे, हमें लड़ने की जरूरत भी नहीं होगी। सेनाओं की छुट्टी कर दी गई थी। यही मान लिया गया कि तांत्रिकों के, योगियों के बल पर ही यवन- शक से जूझ लिया जाएगा। जब गजनवी आकर रौंद कर चला गया, तो गोरखनाथ ने अपने से आयु व अनुभव में बड़े फेरुकवज्र से पूछा, ‘‘आपका तप कहाँ चला गया? ज्ञान का क्या हुआ? क्यों नहीं जूझ पाए आप?’’ तब फेरुकवज्र बोले, ‘‘योग और तंत्र की अपनी सीमा है।’’ ऐसे विपत्ति के समय में आवश्यकता आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों की, विजय की कामना रखने वालों की एवं कर्मयोगियों की होती है। गजनी के सैनिकों में गजब का आत्म- विश्वास था, विजय की कामना थी। जब कर्मयोगी जिजीविषा सम्पन्न व्यक्ति एक साथ होते हैं, तो समूह मन का निर्माण करते हैं। इस समूह मन के सामने तंत्र और योग एक तरफ रखा रह गया और उनकी दुर्दांत इच्छाशक्ति काम करती चली गई। ‘‘आगे जब भी जमाना बदलेगा, तो वह समूह मन के जागरण से ही बदलेगा।’’
कर्मयोग ही आज का युगधर्म समूह मन का जागरण ही है, आज का युगधर्म। परमपूज्य गुरुदेव ने इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य का न केवल नारा दिया, उसके लिए सुनियोजित कार्यक्रम भी दिया तथा सभी गायत्री परिजनों को कर्मयोगी भी बना दिया। कहा—परमार्थ में ही सच्चा स्वार्थ है। इस समय का युगधर्म विचारक्रांति, समाज- सेवा है। इसके साथ- साथ उनने सामूहिक साधना द्वारा समूह मन के जागरण की प्रक्रिया को जीवन भर गति दी। उनने कहा कि जो इसमें जुटेगा, वह भारत को महानायक होते देखेगा। गोरखनाथ से भी फेरुकवज्र ने यह बात इसी तरह कही, ‘‘भारतवर्ष का उद्धार तंत्र साधना या संन्यास से नहीं, गुफा में बैठकर नहीं, समवेत मनों की शक्ति के जागरण से ही हो पाएगा, ऐसा समय निश्चित ही आएगा।’’ तत्पश्चात् गोरक्षनाथ ने नाथ योगियों की एक सेना खड़ी की एवं उन्हें एक विशिष्ट कार्य सौंपा। जहाँ भी यवनों का आक्रमण होने की संभावना रहती थी, वहाँ यह सेना पहले से ही पहुँच जाती थी एवं बाकायदा मोर्चा लेती थी। वे जाकर सभी को एकत्र करते एवं बताते थे कि युगधर्म क्या है? इस समय तलवार हाथ में लेकर लड़ना एवं विधर्मियों को मार गिराना ही युगधर्म है। अमृताशन की परंपरा को भी गोरक्षनाथ ने ही सबसे पहले आरंभ किया था। कहा था कि यही इस जमाने का आहार है। इसी को खाकर, योग साधकर, संयमी जीवन अपनाकर सभी को सैनिक बनना चाहिए। परमपूज्य गुरुदेव ने भी अमृताशन (खिचड़ी) को युग सैनिकों के लिए एकमात्र आहार बताया। भगवान् भी यहाँ गीता के दूसरे श्लोक में यही कह रहे हैं कि संन्यास लेकर वैराग्य की स्थिति (जो कि अर्जुन के मन में आ रहा है) की तुलना में कर्मयोग ही सर्वश्रेष्ठ है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण क्यों कहते हैं कि हमें कर्मयोगी ही होना चाहिए? वे हमें तीसरे श्लोक में संन्यासी की विशिष्टताओं एवं अहं के मिट जाने वाली प्रक्रिया की ओर संकेत करते हुए कहते हैं—
ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बंधात्प्रमुच्यते ॥ ५/३
‘‘हे अर्जुन! उसी कर्मयोगी को संन्यासी जानो, जो किसी से न द्वेष करता है और न राग ही रखता है, क्योंकि ऐसा राग- दोषों के द्वंद्वों से रहित व्यक्ति, तो सहज रूप में ही संसार बंधनों से मुक्त हो जाता है।’’
यो न द्वेष्टि न कांक्षति
संन्यासी राग- द्वेष से परे होता है। उसका अपना प्रिय कोई भी नहीं होता है, फिर भी सभी उसी के अपने आत्मीय होते हैं। वह व्यक्ति विशेष से जाति- धर्म संबंध (रिश्तेदारी), लिंग आदि के आधार पर न प्रीति रखता है, न उनसे घृणा करता है। घोषणा करने की जरूरत नहीं है कि अब हमने गेरिक वस्त्र पहन लिए हैं, हमने संन्यास ले लिया है; संन्यास आचरण में दिखाई देना चाहिए। संन्यासी अपने कुल- नाम को भूलकर गुरु की परंपरा से जुड़ जाता है और सारा समाज उसका कार्यक्षेत्र हो जाता है। जिसके हृदय से अहंभाव पूरी तरह दूर हो गया हो, उसे ही संन्यासी मानना चाहिए। (ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी), जिसे न राग है किसी से, न द्वेष ही (यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति)। यदि किसी प्रकार की वासना होगी ही नहीं, तो राग- द्वेष क्यों पनपेंगे? आगे भगवान् कहते हैं कि जिसने द्वंद्वों से पीछा छुड़ा लिया, वह सहज भाव से ही बंधनों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। (निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बंधात्प्रमुच्यते)।
द्वंद्व ही तो हैं, जो हमें बंधनों में फँसाते रहते हैं, यह मेरा है, यह मेरा पद, मेरी उपलब्धि मेरे स्वयं के ही कारण है, यह घृणित है, मेरे कथनानुसार नहीं चलता, मेरे मार्ग में बाधक है, इस प्रकार का चिंतन व्यक्ति को द्वंद्वों में उलझाकर बंधनों में जकड़ लेता है। इन द्वंद्वों से मनोविकार एवं फिर प्रज्ञापराध पनपता है। व्यक्ति बाहर से स्वस्थ, किंतु वस्तुतः रोगी बन जाता है। परमपूज्य गुरुदेव ने उसे वास्तविक रोगी एवं आस्था- संकट से ग्रस्त बताया है। यह भी उन्होंने कहा कि आज बहुसंख्य व्यक्ति इसी विडंबना में उलझे हैं, अधिक पाने की आकांक्षा, राग की अधिकता, कामनाओं का महत्त्वाकांक्षाओं में बदलना एवं बाधक तत्त्वों को हटाने के लिए द्वेष का जन्म लेना, फिर इन द्वंद्वों में उलझकर एक मायावी मृगतृष्णा में फँसकर जीवन गँवाते चलना यह नरसमुदाय की एक नियति- सी बन गई है। समाधान वे भी एक ही बताते हैं, विचारों में परिवर्तन, राग- द्वेष से मुक्ति, द्वंद्वों से परे चलकर जीवनमुक्ति- बंधनमुक्ति। वासना, तृष्णा, अहंता के त्रिविध विकारों से छुटकारा संन्यासी की वास्तविक मनःस्थिति में जाए बिना होगा नहीं। इसके लिए संन्यासी वेश की नहीं, संन्यास की मनःस्थिति की जरूरत है।
श्रीअरविंद ‘गीताप्रबंध’ में कहते हैं, ‘‘अहंकारी समझता है कि मैं ही वास्तविक आत्मा हूँ और इस तरह कर्म करता है मानो कर्म का वास्तविक केन्द्र वही है और सब कुछ मानो उसी के लिए है और यहीं वह दृष्टिकोण और नियोजन की भूल करता है। यह सोचना गलत नहीं है कि हमारे अंदर, हमारी प्रकृति के इस कर्म में कोई चीज या पुरुष ऐसा है, जो हमारी प्रकृति के कर्म का वास्तविक केंद्र है और सब कुछ उसी के लिए है; परंतु वह केंद्र, अहंकार नहीं, बल्कि हृदिदेश स्थित निगूढ़ ईश्वर (हृद्देदेशे अर्जुन तिष्ठति १८/६१ गीता) परमपिता परमात्मा है और वही वह दिव्य पुरुष है, जो अहंकार से पृथक् सत्ता का एक अंश है।’’ हम सबके भीतर वासनाओं द्वारा नियंत्रित, उसी के द्वारा निर्देशित ताल पर नृत्य करती हुई बुद्धि हमारे राग- द्वेष का भरण- पोषण करती है और फिर यही क्रिया रूप को भी जन्म देती है, किंतु जिसने बुद्धि को द्वंद्वों से मुक्त कर लिया, वह जीवन के बंधनों से मुक्त हो जाता है। फिर वह ऐषणाओं, उद्वेगों, कामुकता के ज्वरों से मुक्त हो जाता है। यह स्थिति अचानक नहीं आती। न ही प्रत्येक संन्यासी को सहज ही प्राप्त हो जाती है। इसीलिए श्रीकृष्ण का आग्रह है कि कर्म- संन्यास की तुलना में कर्मयोग करते- करते इसे प्राप्त करना और अधिक व्यावहारिक एवं सरल है। निष्ठा के साथ यज्ञीय भाव से कर्म करते रहने वाले दिव्यकर्मी (जैसा कि चौथे अध्याय में विस्तार से बताया गया) अपने जीवन की दैनंदिन वासनाओं का क्षय और अहंता पर विजय का महती कार्य संपन्न कर लेते हैं। अब कर्म- संन्यास और कर्मयोग को कोई पृथक् मानने की भूल न कर बैठे, इसके लिए भगवान चौथे श्लोक में एक सूत्र देते हैं—
साङ्ख्ययोग पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पंडिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥ ५/४
‘‘बालक की तरह आचरण करने वाले मूर्ख जन सांख्ययोग (ज्ञान द्वारा कर्म- संन्यास) और कर्मों के संपादन (कर्मयोग) को पृथक्- पृथक् फल देने वाला मानते हैं, किंतु पंडितजन (बुद्धिमान- समझदार) जानते हैं कि दोनों में से एक का भी पूरी तरह अनुसरण करने वाला दोनों के फल को प्राप्त कर परमात्मा से साक्षात्कार करने की स्थिति में आ जाता है।’’
बालबुद्धि बनाम पंडित- बुद्धि—भगवान् का मत है कि जो सांख्ययोग और कर्मयोग को अलग- अलग समझता है, वह बालक है। बालक के समान मूर्खतापूर्ण आचरण करने वाला है। पंडित अर्थात् विद्वत्जन जो समझदार हैं, जिन्होंने ज्ञान को भलीभाँति आत्मसात कर लिया है, वे जानते हैं कि दोनों एक समान ही फल देने वाले हैं। इसलिए किसी एक को भलीभाँति जीवन में उतारकर आगे बढ़ते रहने में ही समझदारी है। यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण के शब्दों में तीखा व्यंग्य भी है एवं थोड़ा- सा रोष भी। श्रीकृष्ण दोनों योगों में विवाद पैदा करने वालों की हँसी उड़ाते हैं व यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि ज्ञान द्वारा कर्म संन्यास एवं कर्मों के संपादन दोनों में कोई अंतर नहीं है। ये अविभाज्य हैं, परस्पर विरोधी नहीं हैं। जैसे विज्ञान और अध्यात्म एक- दूसरे के पूरक हैं, ऐसे ही ये दोनों ही सिद्धांत साथ चलने वाले हैं, अलग- अलग नहीं हैं।
‘पंडित’ शब्द का यहाँ गीताकार ने प्रयोग किया है, तो इन अर्थों में कि उसने न केवल शास्त्रों का गहन अध्ययन- मनन किया है, वह अहं के परित्याग (संन्यास) और कामनाओं के त्याग (सच्चा कर्मयोगी) में कोई भेद नहीं करता। पढ़ा- लिखा होते हुए भी, बाहर से पंडित समान वेश धारण किए, ढेरों डिग्री लिए व्यक्ति यदि दोनों योगों को अलग- अलग बताता है, तो फिर उसे ज्ञानी नहीं, बालक ही मानना चाहिए; बुद्धिमान नहीं, मूर्ख ही जानना चाहिए। ऐसी अपरिपक्व बुद्धि वाली जनता हम से अनजान नहीं है। हमारे चारों ओर ही ऐसे ढेरों व्यक्ति हमें मिल जाएँगे, जो संन्यास का न कोई मर्म जानते हैं, न निजी जीवन में उसे उतारते हैं; हाँ बाहर से मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, संन्यासी का चोला अवश्य पहने हुए हैं। स्वयं छलावे में जी रहे हैं, औरों को भी इसी मृगतृष्णा में उलझाने की कोशिश कर रहे हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण ने कहा है—साङ्ख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पंडिताः। बालाः अर्थात् बालबुद्धि वाले पंडित अर्थात् विद्वान- ज्ञानी ‘एनलाइटण्ड मैन’।
कर्त्ताभाव- भोक्ताभाव
इसी बात को इस तरह भी समझा जा सकता है कि कर्त्ता के भाव का त्याग सांख्य मार्ग है एवं भोक्ता के भाव का त्याग कर्मयोग का मार्ग है। जो किसी एक को भी पूरी तरह जीवन में उतार लेता है, वह इन दोनों का ही फल प्राप्त कर लेता है,(एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोः विन्दते फलम्), यह कहकर श्रीकृष्ण अर्जुन को पूरी तरह से मौन कर देते हैं, जो अभी भी द्वंद्व की स्थिति से गुजर रहा है। उनका स्पष्ट मत है कि भोक्ताभाव का त्याग योगी को, साधना पथ के पथिक को लौकिक जीवन की वासनाओं का क्षय करने में मदद करता है। जैसे- जैसे वासनाएँ मिटती चली जाती हैं, मन शांत होता चला जाता है। मन की शांति किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जरूरी है। ऐसी मनःस्थिति में स्थित व्यक्ति अपने ध्यान द्वारा चैतन्य की आत्मानुभूति कर लेता है। जब अपने आप ही कर्त्ताभाव मिट जाता है, तो संन्यास की स्थिति में जाकर मनुष्य परम आनंद को प्राप्त होता है।
कहाँ है वह आनंद? जो कर्त्ताभाव व भोक्ताभाव का त्याग करने वाले एक संन्यासी में होना चाहिए, कहीं दिखाई पड़ता है? परम पूज्य गुरुदेव इसी विडंबना पर अक्सर चर्चा करते हुए कहते थे कि धर्म के नाम पर पलायनवाद को जन्म देने वाले राष्ट्र के साठ लाख बाबाजी यदि कर्मयोगी बने होते, तो राष्ट्र का उद्धार हो गया होता। धर्मतंत्र राजतंत्र पर निर्भर नहीं होता, उसका दिशादर्शक होता है। यदि एक- एक बाबाजी आठ- आठ व्यक्तियों को साक्षर व संस्कारवान बना देते तो स्वतंत्रता के बाद इन पचपन वर्षों में देश कहाँ- का पहुँच गया होता। इसीलिए परमपूज्य गुरुदेव ने नवसंन्यास, इस युग का आपाद् धर्म परिव्रज्या सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बताया एवं परिपक्व, पर उत्तरदायित्वों से मुक्त वानप्रस्थियों से यह आवश्यकता पूरी करने को कहा। हम यह नहीं कहते कि १०० प्रतिशत संन्यासी ऐसे हैं। कुछ प्रतिशत तो वास्तव में प्राणवान- प्रज्ञावान हैं, पर शेष मठाधीश बने भोग कर रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है।