Books - आस्तिकता का प्राण हैं- श्रद्धा
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आस्तिकता का प्राण हैं- श्रद्धा
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गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियों, भाइयों! गुरु की महत्ता बहुत बडी है। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु महेश कहते हुए उन्हें साक्षात परब्रह्म माना गया है। यह गुरु को महान सामर्थ्य का परिचय है। हमसे गुरु बहुत ही सामर्थ्यवान हैं। गायत्री माता के भीतर जो भी सामर्थ्य रहीं होगी, जो भी चमत्कार रहे होंगे, वह हमारे गुरुदेव के भीतर भी रहे होगे। इस संबंध में लोगों ने एक बार कहा कि गुरुजी आपके गुरु कोई देवता हो, तो बात अलग है, अन्यथा इनसान का इतना सामर्थ्यवान होना संभव नहीं है। इनसान, इनसान की सीमित सहायता कर सकता है। गुरुजी आप जैसा कहते हैं, वह मुश्किल मालूम पड़ता है। अतः आप ही बतलाइए कि आपके गुरु किस प्रकार से ऐसी सहायता करते हैं?
मित्रो, इस संदर्भ में कइयों ने विश्लेषण करके कहा है कि गुरुजी वह आपकी श्रद्धा का चमत्कार मालूम पड़ता है। हाँ बेटे, श्रद्धा के चमत्कार की वजह से एक पत्थर का टुकड़ा मीरा के लिए गिरधर गोपाल हो गया था। इतना ही नहीं, रामकृष्ण परमहंस को पत्थर की देवी माँ काली बन गई थी। रामकृष्ण की देवी इतनी विशाल हो गई थी कि वह जमीन से लेकर आसमान तक दिखलाई पड़ती थी। उस देवी का चमत्कार आपने विवेकानन्द के साथ नहीं देखा, जिसने उन्हें भक्ति और शक्ति दे दी थी। क्या पत्थर की देवी भक्ति और शक्ति दे सकती है? यह तो विवेकानन्द की उस देवी के प्रति श्रद्धा थी, जिसके द्वारा उन्हें उनकी भक्ति और शक्ति मिल गई और वे धन्य हो गए। पत्थर के टुकड़े केवल प्रतीक के काम आ सकते हैं, लेकिन वह रामकृष्ण परमहंस की श्रद्धा थी जिसने इसको देवी बना दिया, माँ काली बना दिया था। मीरा की वह श्रद्धा ही थी जिसने पत्थर के टुकड़े को कृष्ण बना दिया था। एकलव्य की वह श्रद्धा ही थी जिसने मिट्टी की एक मूर्ति को साक्षात गुरु बना दिया था तथा उससे उसने वे सब लाभ प्राप्त कर लिए थे जो जीवित द्रोणाचार्य से अन्य शिष्यों ने, विशेषकर अर्जुन ने प्राप्त किया था। हमारा तो यह कहना है कि अर्जुन से भी प्यादा लाभ एकलव्य ने प्राप्त किया था।
वास्तव में श्रद्धा ही मनुष्य को गोबर में से गणेश बना देती है तथा पत्थर में से काली और शंकर बना देती है। लोग अकसर हमसे पूछते रहते हैं कि क्या आपने भी अपने मन में हिमालय के किसी व्यक्ति के प्रति ऐसी श्रद्धा बना ली है, जो सदैव आपकी सहायता करते हैं। हमने कभी भी लोगों को उनके बारे में नहीं बताया, परंतु हमने अपनी श्रद्धा को बढ़ाने का प्रयास हमेशा किया है, अपनी श्रद्धा को समर्थ बनाने का प्रयास किया है, ताकि हमें अधिक से अधिक लाभ मिल सके। हमारी पूरी जिंदगी की श्रद्घा का परिणाम आपके सामने है। हमने श्रद्धा के द्वारा जो पाया है, उसे आप देख सकते है। श्रद्धा हमारे लिए भगवान है। हमने अपनी श्रद्धा को असीम माना है। उसे निरंतर बढ़ाते रहने में ही हमें प्रसन्नता होती है। अगर आप सही माने तो हमने श्रद्धा को ही भगवान माना है।
एक बार हम कैलाश पर्वत पर लोगों के साथ शंकर भगवान और पार्वती जी के दर्शन करने के लिए चल पड़े। हिमालय जाने के बाद लोगों ने कैलाश तथा मानसरोवर का दर्शन किया। उसके वाद वापस होने लगे। हमने पूछा- क्या आप लोगों ने शंकर भगवान का दर्शन नहीं किया? लोगों ने कहा कि हमने तो दर्शन कर लिया और अब हम जा रहे हैं। हमने कहा कि हम तो आपके साथ शंकर भगवान का दर्शन करने आए हैं, बिना दर्शन किए हम कैसे वापस जाएँगे। उन्होंने कहा कि हम तो चले जाएँगे, पर आप बने रहें। हमने कहा कि आप चले जाइए, हम तो शंकर भगवान और पार्वती माँ के दर्शन करके ही लौटेंगे। हम लगातार वहाँ एक महीना बने रहे और जगह- जगह हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं में घूमते रहे। एक महीने तक हम वहाँ चक्कर काटते रहे, जहाँ पर कोई मदिर नहीं, मस्जिद नहीं, धर्मशाला नहीं। एक महीने तक किसी तरह कम्बलों के सहारे बर्फीले पहाड़ को गुफाओं में रहते रहे। एक दिन आँखों के सामने अँधेरा सा छा गया और चक्कर सा महसूस होने लगा। मन में कहा कि हम तो शंकर जी के दर्शन करने आए हैं, पर उनका दर्शन नहीं हो रहा है। हमने सोचा, शायद वे व्यस्त होगे। हमने कहा कि थोड़ा हम झुक जाएँगे, थोड़ा आप भी झुके। आप नहीं दर्शन देते तो कम से कम अपने बेटे गणेश जी को ही भेज दें। उनसे ही हम मिल लें। अगर वे भी व्यस्त हों या खेल रहे हों, तो उनकी सवारी चूहे को ही भेज दीजिए हम उनका ही दर्शन कर लेंगे। आप नहीं मिले तो आपके नुमाइन्दे ही मिल गए, यहीं मानकर संतोष कर लेंगे।
मित्रो, इस तरह एक महीना व्यतीत हो गया, पर किसी के दर्शन नहीं हुए। हमने सोचा कि अगर शंकर भगवान की सवारी के गोबर का ही दर्शन हो जाए तो उसे ही मस्तक पर लगा लेंगे और वापस घर चले जाएँगे। परंतु वह भी नहीं मिला। गोबर भी दिखलाई नहीं पड़ा। हमें बहुत दुःख हुआ कि ऐसे महादेव, जो किसी दूसरे से ताल्लुक नहीं रखते हैं,इनसे हमारा क्या मतलब है। हमारा स्वास्थ्य भी खराब होने लगा था। हमने सोचा कि अब वापस चलना चाहिए और मैं चल पड़ा। वापसी में मैं नास्तिक को गया। शंकर भगवान पर हमें बहुत आक्रोश था कि वे लोगों की श्रद्धा को महत्त्व नहीं देते हैं। अगर खुद नहीं आ सकते तो गणेश को, अपनी सवारी को ही भेज देते या उनके गोबर को ही दिखा देते। कहीं ऐसे भी शंकर भगवान होते हैं क्या? हम नास्तिक हो गए और घर वापस आ गए। हमारे घर में हर वर्ष रामायण का पाठ होता था। उस वर्ष भी रामायण हुआ। हमें रामायण के पाठों ने नास्तिक होने से बचा लिया। आज मैं आपके सामने एक आस्तिक व्यक्ति हूँ तथा आस्तिकता का प्रचार करता हूँ।
रामायण ने हमें नास्तिकता से कैसे बचा लिया? रामायण में एक श्लोक है जो रामायण का सार है, भक्ति का सार है और वह है-
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्घा विश्वासरूपिणौ।
याम्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम् ।।
इस प्रकार तुलसीदास जी ने साफ शब्दों में बतला दिया कि भवानी और शंकर कैसे होना चाहिए? वह होना चाहिए- श्रद्धा, विश्वास के रूप में। उसी रूप में हमें उन्हें पूजना चाहिए। उन्होंने पार्वती- श्रद्धा, शंकर- विश्वास के बारे में हमारे मस्तिष्क को साफ कर दिया। गोस्वामी जी ने साफ शब्दों में कह दिया कि भगवान व्यक्ति नहीं हो सकते हैं। भगवान एक सिद्धांत का नाम है, आदर्श का नाम है। भवानी हो सकती है तो इनसान की श्रद्धा तथा शंकर हो सकते हैं तो इनसान का विश्वास- यह तथा हमें भलीभाँति समझ लेना चाहिए।
श्रद्धा ही आदमी का प्राण है, यही आस्तिकता का प्राण है। आध्यात्मिकता का, दैवी अनुदानों का,चमत्कार का, आत्मसाक्षात्कार का प्राण यह श्रद्धा ही है। श्रद्धा का ही चमत्कार हमारे जीवन में हुआ है। पंद्रह वर्ष को उम्र में ही हमारे गुरु ने दर्शन दिया था, रास्ते दिखलायें थे। उस समय हम बहुत ही भावुक हो गए थे और कहा था कि आप हमें हुकुम दीजिए, हम उसका पालन करेंगे। हम आपका वचन मानेंगे और रघुकुल रीति सदा चली आई। प्राण जाएँ, पर वचन न जाई, की तरह आपके आदेशों का, वचनों का पालन करेंगे। हमने आपको अपना गुरु, मार्गदर्शक, बॉस माना है, हम आपके हर आदेश का पालन करेंगे। हम उन लोगों में से नहीं हैं, जो पैर पीछे हटाकर भाग गए। आप आदेश दें, हम पालन करेंगे। हम घटिया वाले, छोटे वाले आदमी नहीं हैं, जो रोज वायदा करते हैं, कसमें खाते हैं और समय आने पर मुकर जाते है। हम शानदार आदमी है। हमने आपसे शादी की है और वह ऐसी नहीं है जो आए दिन हुआ करती है।
साथियों, चौबीस साल के चौबीस महापुरश्चरण पूरे करने के बाद हमारे गुरु ने, मार्गदर्शक भगवान ने हमें हिमालय बुलाया। हमने कहा कि आपने उस दिन जो हमें आदेश दिया था उसका तो हमने पालन किया। उसके बाद हमने आपसे कोई पूछताछ नहीं की। जिस प्रकार आप बतलाते चले गए हम पालन करते चले गए। आज हम आपके पास आ गए हैं, आप आदेश करें। हमारे गुरु ने कहा कि आपने पूछा नहीं और हमने बतलाया नहीं। उन्होंने कहा कि हमने आपको पहले दिन ही कहा था कि हम आपको देवता बनाना चाहते हैं। हम आपको महान बनाना चाहते हैं। हम आपको इनसान के जीवन तक सीमित नहीं रहने देना चाहते। हम आपको भगवान के दरजे तक पहुँचाना चाहते थे, सो वह हमने आपको इन दिनों बनाने का प्रयास किया और आप सफल हो गए।
हमने कहा- गुरुदेव आप हमारे पास ही क्यों आए और हमें क्यों परेशान किया हैं? उन्होंने बतलाया कि हम बहुत दिनों से एक शिकारी कुत्ते की तरह से घूमते रहे और तुम्हें खोजते रहे। जब तुम मिल गए तो हमने पकड़ लिया। इसी तरह हम बिना बुलाए सूँघते- सूँघते आपके घर जा पहुँचे। शिकारी कुत्ते इसी प्रकार सूँघते- सूँघते घर पर पहुँच जाते हैं और हत्यारों को, चोरों को पकड़ लेते हैं तथा पुलिस के हवाले कर देते हैं। हमने पूछा कि आपने क्या चीज सूँघी है? उन्होंने कहा कि हमने आपके अंदर एक चीज सूँघी है और वह है आपकी श्रद्धा। श्रद्धा से रहित आदमी के पास भगवान कहाँ से आ जाएगा? देवता कहाँ से आ जाएगा? मंत्र कहाँ से आएगा। श्रद्धा के बिना पूजा- पाठ एवं सारे कर्मकाण्ड प्राणहीन,खोखले जीवन की तरह हैं। इससे मनुष्य को कोई लाभ कदापि नहीं मिल सकता है। श्रद्धा नहीं है तो यह सब ढकोसला है। यह सब मन बहलाव है। श्रद्धा के बिना सब बेकार है।
हमारे गुरुदेव ने कहा कि ढूँढ़ते- ढूँढ़ते हमने एक ऐसे इनसान की तलाश की जिसके अन्दर श्रद्धा जीवंत थी। उन्होंने बतलाया कि जहाँ श्रद्धा जीवंत है उसके लिए सारी मंजिल खुली हुई है। अगर किसी व्यक्ति की श्रद्धा खतम हो गई तो उस आदमी में कोई जान नहीं है। उसके आध्यात्मिक विकास का फिर कोई रास्ता नहीं है। हमने आपके अंदर देख लिया कि आपके अंदर श्रद्धा का बीज विद्यमान है और अगर उसे ठीक ढंग से उगाया जा सका तो बहुत बड़ा काम हो सकता है। हमने आपकी श्रद्धा को देख लिया था, इसलिए आपको साधना सिखा दी थी।
हमने अपने गुरु के आदेश पर अपने अंदर विद्यमान श्रद्धा के बीज को आगे बढ़ाने के लिए उनके दो आदेशों का पालन किया है। पहला यह कि योगी, तपस्वी को हर काम में हर बात में 'यस' नहीं कहना चाहिए, बल्कि पहले सोचना चाहिए उसके बाद कार्य करना चाहिए। अगर आपने बीबी से कहा- 'यस' तथा मित्र से कहा- 'यस' तो ये लोग आपको तबाह कर देंगे। अतः आप दूसरा काम यह कीजिए कि 'ना' करना भी सीखिए। यह भी आदेश हमारे गुरु ने दिया। हमने उनके हर आदेश का पालन किया। हमने कभी भी अपने रिश्तेदारों, मित्रों, दोस्तों की बातों को 'यस' नहीं किया है। अरे भाई, साला है और यह कहता है कि चलिए सिनेमा दिखाकर लाएँगे, तो आप 'यस' न करें। हमारे गुरु ने कहा कि योगी तपस्वी हर परिस्थितियों में 'यस' नहीं करते है। वे तप करने के लिए धूप में, गरमी मे, अग्नि में खड़े हो जाते हैं तथा अपने को तपाते हैं। यह तितिक्षा होती है। अध्यात्मवादी उसे कहते हैं जो अपने भीतर वाली गलती को, भीतर वाली कमियों को निकाल बाहर करते रहते हैं। उनसे हमेशा लड़ते रहते हैं, अन्यथा ये सारी चीजें आदमी को खा जाती हैं। अतः इसे अवश्य रोकने का प्रयास करना चाहिए।
मित्रों, हम देख रहे हैं कि इन दो हजार आदमियों में गाँधी बनने की क्षमता वाले कम से कम दो भी आदमी बैठे हैं। इसमें से कई आदमी सरदार पटेल, नेहरू एवं शास्त्री बन सकते थे, परंतु केवल दो सूराखों ने इनको क्या खा लिया। इनमें बहुत से आदमी हमें ऐसे दिखाई पड़ रहे हैं जिन्हें हम यदि मोर्चे पर खड़े कर दें तो वे इन्हें न जाने कहाँ से कहाँ ले जा सकते हैं। आप में से हमें ऐसे व्यक्ति दिखलाई पड़ रहे हैं जिन्हें गुरु गोविंद सिंह होना चाहिए था, परंतु ये नहीं हो सके। इसके लिए दो ही सुराख जिम्मेदार हैं, एक है- भीतरवाली कमजोरियाँ जिसे हम हमेशा बतलाते रहते हैं। वह है हमारी इंद्रियाँ जिससे हमने कभी 'नो' कहना ही नहीं सीखा। दूसरे वाले हैं- हमारे कुटुंबी, जिनसे भी हमने 'नो' कहना ही नहीं सीखा, आप उन्हें 'नो' कहिए। आप कहिए कि हम आपकी सलाह को नहीं मान सकते। आप हमें मजबूर न करें कि हम उस रास्ते पर चलने के लिए तैयार हो जाएँ।
मित्रो, पंद्रह वर्ष की आयु से ही बराबर चौबीस साल तक हमें अकेले हो खड़े रहना पड़ा। हमारे रिश्तेदारों ने इसका बहुत विरोध किया,पुरातनपंथियों ने तो हमारा विरोध बाद में किया। नारियों के गायत्री अधिकार के बारे में उन्होंने विरोध बाद में किया। गायत्री का अधिकार केवल ब्राह्मणों को है, ऐसे शब्दों का प्रयोग प्रतिगामी लोगों ने बाद में किया परंतु असली विरोधी तो हमारे संबंधी, रिश्तेदार पहले थे, जिन्होंने हमेशा बरगलाने को कोशिश की, हमारी हिम्मत तोड़ने की कोशिश की है। उन्होंने ऐसे ऐसे कटाक्ष कसे, आक्षेप लगाए, सलूक किया था जिससे हमारी हिम्मत टूट जानी चाहिए थी, परंतु हम हमेशा उनके आदेशों को 'नो' करते रहे।
गुरु किसी व्यक्ति को नहीं कहते हैं। गुरु एक शक्ति है, गुरु एक फिलॉसफी दर्शन है। गुरु के बारे में शास्त्र कहते हैं- "गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुगुरुर्देवो महेश्वरः। गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नम: ।" तो क्या आप ब्रह्मा हो सकते हैं? नहीं। क्यों? अच्छा तो आप एक बच्चे को बना दीजिए। चलिए बच्चा नहीं बन सकता तो एक लूँ बनाकर दिखा दीजिए। ब्रह्मा ने तो सारी सृष्टि बना दी है, पर आप कुछ नहीं बना सकते हैं। हमने गुरुतत्त्व को समझने की कोशिश की है, आपको भी समझने का प्रयास करना चाहिए। अध्यात्म की जितनी भी सामर्थ्य है, सिद्धियाँ हैं, वह एक व्यक्ति के मार्गदर्शन पर टिकी हुईं है और उसका नाम गुरु है, जो व्यक्ति की चतुर्मुखी प्रतिभा को विकसित कर देता है। सारा चमत्कार श्रद्धा का ही है। हमने जो कुछ भी पाया है, वह केवल श्रद्धा का ही है।
साथियों! हमसे जो २४ साल तक अनुष्ठान करने को कहा गया था, उसमें डर था कि हम उसे कैसे कर पाएँगे, परंतु यह हमारी श्रद्धा का ही फल है, जो हम उसे पूरा कर पाए। इतना ही नहीं, आगे भी हमारी श्रद्धा बढ़ती ही गई। हमारे गुरु ने जब गायत्री वह मंदिर बनाने के लिए कहा तो उसके लिए हमने जो जमीन ली, वह एक बगीची थी। उसे खरीदने से लेकर बनाने तक का सारा काम हमारी श्रद्धा के द्वारा ही पूरा हो सका। देश के कोने- कोने से हमें इस कार्य हेतु सहयोग मिलना शुरू हो गया। पहले हमारी हैसियत क्या थी, परंतु गुरु के साथ जुड़ जाने पर हमारी हैसियत हमारे मार्गदर्शक के कारण बढ़ गई। हमने अपने गुरु से कहा कि हमारा बजट इतना नहीं है। हमारे बॉस ने कहा कि आपका बजट नहीं है तो क्या हुआ, हमारा बजट तो है। आप काम शुरू करें। हमने वह बगीची ६०००/- में खरीद ली, जिसमें एक इमारत भी थी। मंदिर की तरह भी कुछ बना था। एक कुआँ भी था। उन्होंने कहा कि एक आयोजन भी करना होगा। जिसमें चार लाख व्यक्तियों के ठहरने एवं भोजन की व्यवस्था बनानी होगी। हमने कहा कि आप तो कहते ही चले जाते है, पर बजट का क्या होगा? उन्होंने कहा कि आपके बजट से कोई मतलब नहीं है। यह हमारा बजट है, जिसमें पाँच दिनों तक चार लाख आदमियों को भोजन कराना होगा। इतने लोगों में एक रुपए के हिसाब से बीस लाख रुपए खरच होंगे। दूसरे समय के भोजन में २० लाख। इस तरह ४० लाख भोजन में और यज्ञ एवं अन्य व्यवस्था में करोड़ों रुपए खरच करने होंगे। पर आप इसकी चिंता मत कीजिए। हमने अपने बॉस से कहा कि हम तो ब्राह्मण हैं। हमारे बाप- दादों ने दक्षिणा में इक्कीस रुपए माँगे हैं, परंतु हमने कसम खाई है कि हम इनसान के आगे कमी भी नहीं माँगेंगे और न हाथ फैलाएँगे। इस संबंध में हम अपनी जबान नहीं खोलेंगे। अगर आपने हमसे कहा कि आप रसीदबुक लेकर के जाइए और दुकान- दुकान जाकर अठन्नी माँगकर लाइए, तो यह हमसे नहीं हो सकता है। उन्होंने कहा कि आप तो काम चलने दीजिए।
बेटे, सन् १९५८ के विराट यज्ञ का सारा काम हो गया। उस दिन से हमारा स्थान भी बन गया। हमारा मनोबल भी बढ़ गया। हमें विश्वास हो गया कि हमारे साथ एक समर्थ सत्ता है। यह है हमारी श्रद्धा, गुरु के प्रति! गुरु श्रद्धा है, विश्वास है। इसमें हम एक व्यक्ति के प्रति श्रद्धा जाग्रत करते हैं। कमजोरियों किसमें नहीं होती हैं? हमारा गुरु? एक व्यक्ति है, एक पत्थर है, किंतु एकलव्य के तरीके से हमने उसे भगवान बना दिया है। यह है हमारी श्रद्धा। हमारे लिए गोबर गणेश ही महान हैं।
आपने तो देवी की पूजा की, चाय पिलाया, दूध चढ़ाया, परंतु आपकी देवी ने कभी भी- थैंक यू वेरी मच नहीं कहा। कम से कम थैंक यू ही कह देती पर वह भी नहीं कहा उसने। वह तो चुपचाप बैठी रहती है। हम नमस्कार करते रहते हैं, परंतु वह जवाब तक नहीं देती है। अगर आप एक आदमी को नमस्कार करें तो वह जवाब दे देता है। कोई व्यक्ति लेखन भी कर रहा हो, तो वह यदि हाथ नहीं उठा सकता तो कम से कम अपना सिर तो हिला देता है, परंतु देवी कभी भी कुछ नहीं कहती है। वह खाना खाती रहती हैं, तो यह भी नहीं कहती हैं कि आप भी आ जाइए और थोड़ा सा भोजन कर लीजिए। वह देवी केला खिलाने पर भी कुछ नहीं कहती। यह तो आपकी श्रद्धा है जो आप खिलाते रहते हैं और वह आपकी भावना को उसी प्रकार स्वीकार करती रहती है। किंतु हमने अपनी श्रद्धा को कायम रखा है, जिसके कारण देवी ने हमें दर्शन- लाभ देना शुरू कर दिया है। हमने जो दीपक जलाया है, वह क्या है ?आग है, परंतु हमारी श्रद्धा दूसरे प्रकार की है। हमने उसे कभी भी आग के रूप में नहीं, प्रकाश के रूप मे, एक ज्योति के रूप में दर्शन किया है। वह है हमारी श्रद्धा। यह श्रद्धा ही है जो न जाने क्या से क्या कराती और क्या से क्या बना देती है। हमारा वह दीपक चमत्कार दिखाता है। वह दीपक हमारी सिद्धि का प्रतीक है। वह दीपक हमारी प्रगति का प्रतीक है और न जाने क्या- क्या है।
मित्रों, आज गुरुपूर्णिमा का पर्व है। यह पर्व केवल श्रद्धा का है। हमारे मार्गदर्शक ने कहा था कि हम तुम्हें देवता बनाएँगे। यह हम अपने मुख से क्या कहें, ये बैठे हुए लोग स्वयं समझते हैं। हमने समाज को दिया है, यह हम अपने मुख से क्या कह सकते है? हमारे शरीर छोड़ने के याद आप लोग याद करेंगे कि हमने क्या किया है और किसको क्या दिया है। हमारे जाने के बाद आप सब याद करेंगे कि एक ऐसा भी इनसान इस धरती पर आया था जिसने संसार के हर व्यक्ति को प्यार दिया था। मोहब्बत दी थी। लोगों को दिशाएँ दी थी, प्रेरणाएँ दी और लोगों के मामले एक उदाहरण प्रस्तुत किया था। आप कहेंगे कि उसका सबूत क्या है? सबूत यही है कि हमारा प्यार लौटकर हमारे पास आ जाता है। आप विश्वास करें या न करें, पर हमारा ही प्यार हजारों- लाखों आदमियों में 'रिफ्लेक्ट' होता है और वह इस कदर वापस हमारे ऊपर आ जाता है जिसे देखकर लगता है कि हम इस बेकार की दुनिया में नहीं रहते हैं, वरन हम प्यार की दुनिया में रहते हैं, हम मोहब्बत की दुनिया में रहते हैं। हमें लगता है कि हम श्रेय की दुनिया में, सद्भावना की दुनिया में रहते हैं। हमारी दुनिया ऐसी है कि उसका क्या कहना। हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि ऐसी दुनिया भगवान हर किसी भाग्यवान को दे।
आप लोग इतनी दूर से हमारे पास आते है। आप क्या लेकर आते हैं? मोहब्बत लेकर आते हैं, प्यार लेकर आते हैं और पैसा खरच करके आते हैं। आप अपनी पत्नी के जेवर तक बेचकर आते हैं और न जाने कितनी परेशानी उठाकर हमारे पास आते हैं। यह क्यों होता है? बेटे हमारी मोहब्बत और प्यार तुम्हें खींचकर यहाँ ले आता है। गुरुजी! मेरा तो एकदम मन नहीं था, परंतु एक व्यक्ति ने कहा कि गुरुपूर्णिमा में तो चलना ही चाहिए और हम खिंचते हुए आपके पास चले आए, हम यहाँ पर अपनी मोहब्बत आपके ऊपर बिखेरते हैं और वह आपके दिलों पर हावी हो जाता है। हमने मोहब्बत दो है, उत्साह दिया है और आप लोगों की उछाल दिया है। ऊपर से नीचे आना पानी का नैसर्गिक गुण है। आज लोग इसी प्रकार मनुष्य को नीचे गिरा देते हैं, परंतु हमने हर व्यक्ति की नीचे से ऊपर उठाया है। उसे उछाल दिया है।
आप पूछ सकते हैं कि क्यों गुरुजी हमें भी ऐसा गुरु मिल सकता है? हम कहते हैं कि आप में से हर एक आदमी को ऐसा गुरु मिल सकता है, परंतु शर्त एक है- आपकी श्रद्धा। आप इसे न पैदा करना चाहते हैं और न आपको इस पर विश्वास है। आपको चालबाजी और जालसाजी पर विश्वास है श्रद्धा पर विश्वास नहीं है। हमने श्रद्धा पर विश्वास किया है। हमारे लिए हमारा गुरु पत्थर का हो या हिमालयवासी हो, हमने उसे श्रद्धा के रूप में देखा है और पाया है। वह हमारे आगे- आगे चलता है, बातें करता रहता है। हमारी हर समस्या को हल करता है। हम आपको यह बताना चाहते है कि किस प्रकार हमारा बॉस हमको सामर्थ्यवान बनाता चला जा रहा है। हम चाहते हैं कि आपको भी हम सामर्थ्यवान बना दे, परंतु आप में श्रद्धा ही नहीं है। स्वामी विवेकानन्द को अपनी सत्ता और शक्ति रामकृष्ण परमहंस ने स्वयं सौंप दी थी। हम भी यही चाहते हैं कि आप सभी हमारे बच्चे बड़े हो गए हैं और अपनी जिम्मेदारी संभालने योग्य हो गए हैं। अतः हम अपनी सारी शक्ति आपको देकर निश्चित हो जाएँ।
हमारे गुरु ने हमसे कहा था कि आप अगर श्रद्धा कायम रखेंगे तो हमारा अनुमान कभी खाली नहीं जाता। आज गुरुपूर्णिमा के इस पावन पर्व पर हम आपको एक बात बतलाना चाहते हैं कि आपकी आध्यात्मिक उन्नति, चमत्कार इसके बिना अर्थात श्रद्धा के विना कदापि संभव नहीं है। ऐसे बहुत से श्रद्धावान शिष्य हुए हैं, जिनने अपने एक बूँद दवा के- द्वारा हजारों लोगों की बीमारियों को ठीक कर दिया है। उन्हें लाभ पहुँचाया है। यह श्रद्धा का भी चमत्कार हैं ।। हमारी दवा में श्रद्धा है जो अमृत है। हमारे जीवन में सफलता की यही कहानी है। हमने श्रद्धा के साथ अपने मार्गदर्शक को अपनाया है। हमें अपने गुरु के प्रति, आचार्यों के प्रति भगवान के प्रति, आस्तिकता के प्रति अटूट श्रद्धा है। हम कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखते। अकेले चलते हैं। हमारे साथ हमारी श्रद्धा और विश्वास चलता है और हम सफल होते हैं।
साथियो, हम हर काम में सफल होते चले जाते हैं। हमने नैष्ठिक साधक बनाने का संकल्प लिया है और वह पूरा हो रहा है। हमने अपने छह हजार गायत्री परिवार की शाखाओं के अंतर्गत गायत्री चरणपीठ बनाने का संकल्प लिया है। पहले हमने चौबीस गायत्री शक्तिपीठ बनाने का संकल्प लिया था जो अब २४०० के निर्माण के रूप में बदल गया है। हम अपने मरने तक एक लाख चरणपीठ बना लेंगे। आप नहीं जानते हैं कि हमारे पीछे कौन भी शक्ति है? आपको मालूम नहीं है कि हमारा कोई काम, कोई संकल्प अधूरा नहीं रहा है। हमारी श्रद्धा ने उन्हें जकड़ रखा है। यह हमारे साधु- ब्राह्मण जीवन का फल है। आज इसका संसार में अभाव है। आज संतों का अभाव है। कहीं भी कोई संत दिखलाई नहीं पड़ रहा है। आज वे रहते तो हमें चरणपीठ बनाने की क्यों आवश्यकता पड़ती। वे गाँवों में अशिक्षा को समस्या दूर कर देते। सामाजिक कुरीतियों को निकालने में सफल हो जाते। हम अगले दिनों संतों की, ब्राह्मणों की एक नई मीही का निर्माण करेंगे उन्हें हम निर्माण की और अग्रसर करेंगे।
आप हमें कभी भी व्यक्ति नहीं समझना, आप हमें एक शक्ति समझना। सारे काम समय पर हो जाएँगे। हम अकेले नहीं काम करते हैं। हमारी पाँच शक्तियाँ काम करती हैं। आदिवासियों की समस्या, हम हल करेंगे। हमने झाबुआ में आदिवासी सम्मेलन बुलाया है। उसमें हम हर समस्या का समाधान करेंगे। आप देखना हम आगे चलकर सामाजिक कुरीतियों का समाधान किस तरह से करते हैं। आप आगामी दिनों हमारा चमत्कार देखना। हमारी सरकार निरक्षरता का समाधान नहीं कर सकी। हमें देश के, मुल्क के लोगों को साक्षर बनाना है। हमें अभी बहुत काम करना है। हम अभी नहीं मरेंगे। हमने तो कह दिया है कि हमें जब चलना होगा तो टेलीफोन करके आपको बुला लेंगे।
बेटे, इन समस्याओं का हल केवल मनुष्य के दिल और दिमागों के बदलने से होगा। हम अगले दिनों असंख्य मनुष्यों के दिल और दिमागों को बदल डालेंगे। हमारे बाँस ने कहा था कि हम तुम्हें भगवान बनाएँगे। इसका मतलब यह नहीं था कि वे मुझे पूजा- उपासना कक्ष तक सीमित कर देंगे, बल्कि वह प्राणऊर्जा हमारे अन्दर भर देंगे जो कि हम भगवान जैसे कार्य, दिल- दिमाग बदलने जैसा कार्य सहज में कर सके। हम भगवान के 'टूल्स' हैं, आप हमें भगवान कहें तो हमें आपत्ति हो सकती है। टूल्स् कहने पर नहीं। आप बुद्ध को और गाँधी को चाहे तो भगवान कह सकते हैं।
हमारा बाँस, हमारा भगवान जब भी हमें आवश्यकता पड़ी है, दोस्त के तरीके से- गुरु के तरीके से आया है, उसने मदद की है। हमने श्रद्धा के बल पर उसे पकड़ लिया है। हो सकता है कि हमारा गुरु सूक्ष्म हो, परंतु माइक्रोस्कोप के माध्यम से देखकर हमने उसे बड़ा बना दिया है। वह महान है, उसकी शक्ति महान है। आप चाहें तो उसी तरीके से अपने अंदर ला सकते हैं तथा लाभ प्राप्त कर सकते है। हम आपको यह बतलाना चाहते है कि आप भगवान के रास्ते पर चलना, भगवान आपके रास्ते पर चलेंगे। अर्जुन भगवान के रास्ते पर चले तो भगवान भी अर्जुन के रास्ते पर चले। हम भगवान के रास्ते पर चले हैं। हमने उनको समर्पित कर दिया। हम दोनो एक दूसरे में समाए हुए हैं। आध्यात्मिक्ता के ऊँचे रास्ते पर चलने का यहीं रास्ता है। अगर आपको बड़ी चीजें मानी हों तो आपको इसी रास्ते पर चलना होगा। अपनी श्रद्धा को विकसित करना होगा। गुरुतत्त्व को हम श्रद्धातत्त्व कहते हैं। इसके द्वारा ही चमत्कार होता है। अगर ये आपके अंदर आ जाता तो आपका जीवन भी हमारी तरह मस्ती का होता, चमत्कारों, ऋद्धि सिद्धियों से भरा होता। इसके द्वारा आपको आत्मशान्ति, आत्मगौरव प्राप्त होता। अगर आप हमारा रास्ता अपना लेते तो आपके बराबर सौभाग्यवान और कोई नहीं होता। भगवान करे, यह दिन आपका सौभाग्य आप पर बरसाए।
आज की बात समाप्त।
।। ॐ शांति: ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियों, भाइयों! गुरु की महत्ता बहुत बडी है। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु महेश कहते हुए उन्हें साक्षात परब्रह्म माना गया है। यह गुरु को महान सामर्थ्य का परिचय है। हमसे गुरु बहुत ही सामर्थ्यवान हैं। गायत्री माता के भीतर जो भी सामर्थ्य रहीं होगी, जो भी चमत्कार रहे होंगे, वह हमारे गुरुदेव के भीतर भी रहे होगे। इस संबंध में लोगों ने एक बार कहा कि गुरुजी आपके गुरु कोई देवता हो, तो बात अलग है, अन्यथा इनसान का इतना सामर्थ्यवान होना संभव नहीं है। इनसान, इनसान की सीमित सहायता कर सकता है। गुरुजी आप जैसा कहते हैं, वह मुश्किल मालूम पड़ता है। अतः आप ही बतलाइए कि आपके गुरु किस प्रकार से ऐसी सहायता करते हैं?
मित्रो, इस संदर्भ में कइयों ने विश्लेषण करके कहा है कि गुरुजी वह आपकी श्रद्धा का चमत्कार मालूम पड़ता है। हाँ बेटे, श्रद्धा के चमत्कार की वजह से एक पत्थर का टुकड़ा मीरा के लिए गिरधर गोपाल हो गया था। इतना ही नहीं, रामकृष्ण परमहंस को पत्थर की देवी माँ काली बन गई थी। रामकृष्ण की देवी इतनी विशाल हो गई थी कि वह जमीन से लेकर आसमान तक दिखलाई पड़ती थी। उस देवी का चमत्कार आपने विवेकानन्द के साथ नहीं देखा, जिसने उन्हें भक्ति और शक्ति दे दी थी। क्या पत्थर की देवी भक्ति और शक्ति दे सकती है? यह तो विवेकानन्द की उस देवी के प्रति श्रद्धा थी, जिसके द्वारा उन्हें उनकी भक्ति और शक्ति मिल गई और वे धन्य हो गए। पत्थर के टुकड़े केवल प्रतीक के काम आ सकते हैं, लेकिन वह रामकृष्ण परमहंस की श्रद्धा थी जिसने इसको देवी बना दिया, माँ काली बना दिया था। मीरा की वह श्रद्धा ही थी जिसने पत्थर के टुकड़े को कृष्ण बना दिया था। एकलव्य की वह श्रद्धा ही थी जिसने मिट्टी की एक मूर्ति को साक्षात गुरु बना दिया था तथा उससे उसने वे सब लाभ प्राप्त कर लिए थे जो जीवित द्रोणाचार्य से अन्य शिष्यों ने, विशेषकर अर्जुन ने प्राप्त किया था। हमारा तो यह कहना है कि अर्जुन से भी प्यादा लाभ एकलव्य ने प्राप्त किया था।
वास्तव में श्रद्धा ही मनुष्य को गोबर में से गणेश बना देती है तथा पत्थर में से काली और शंकर बना देती है। लोग अकसर हमसे पूछते रहते हैं कि क्या आपने भी अपने मन में हिमालय के किसी व्यक्ति के प्रति ऐसी श्रद्धा बना ली है, जो सदैव आपकी सहायता करते हैं। हमने कभी भी लोगों को उनके बारे में नहीं बताया, परंतु हमने अपनी श्रद्धा को बढ़ाने का प्रयास हमेशा किया है, अपनी श्रद्धा को समर्थ बनाने का प्रयास किया है, ताकि हमें अधिक से अधिक लाभ मिल सके। हमारी पूरी जिंदगी की श्रद्घा का परिणाम आपके सामने है। हमने श्रद्धा के द्वारा जो पाया है, उसे आप देख सकते है। श्रद्धा हमारे लिए भगवान है। हमने अपनी श्रद्धा को असीम माना है। उसे निरंतर बढ़ाते रहने में ही हमें प्रसन्नता होती है। अगर आप सही माने तो हमने श्रद्धा को ही भगवान माना है।
एक बार हम कैलाश पर्वत पर लोगों के साथ शंकर भगवान और पार्वती जी के दर्शन करने के लिए चल पड़े। हिमालय जाने के बाद लोगों ने कैलाश तथा मानसरोवर का दर्शन किया। उसके वाद वापस होने लगे। हमने पूछा- क्या आप लोगों ने शंकर भगवान का दर्शन नहीं किया? लोगों ने कहा कि हमने तो दर्शन कर लिया और अब हम जा रहे हैं। हमने कहा कि हम तो आपके साथ शंकर भगवान का दर्शन करने आए हैं, बिना दर्शन किए हम कैसे वापस जाएँगे। उन्होंने कहा कि हम तो चले जाएँगे, पर आप बने रहें। हमने कहा कि आप चले जाइए, हम तो शंकर भगवान और पार्वती माँ के दर्शन करके ही लौटेंगे। हम लगातार वहाँ एक महीना बने रहे और जगह- जगह हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं में घूमते रहे। एक महीने तक हम वहाँ चक्कर काटते रहे, जहाँ पर कोई मदिर नहीं, मस्जिद नहीं, धर्मशाला नहीं। एक महीने तक किसी तरह कम्बलों के सहारे बर्फीले पहाड़ को गुफाओं में रहते रहे। एक दिन आँखों के सामने अँधेरा सा छा गया और चक्कर सा महसूस होने लगा। मन में कहा कि हम तो शंकर जी के दर्शन करने आए हैं, पर उनका दर्शन नहीं हो रहा है। हमने सोचा, शायद वे व्यस्त होगे। हमने कहा कि थोड़ा हम झुक जाएँगे, थोड़ा आप भी झुके। आप नहीं दर्शन देते तो कम से कम अपने बेटे गणेश जी को ही भेज दें। उनसे ही हम मिल लें। अगर वे भी व्यस्त हों या खेल रहे हों, तो उनकी सवारी चूहे को ही भेज दीजिए हम उनका ही दर्शन कर लेंगे। आप नहीं मिले तो आपके नुमाइन्दे ही मिल गए, यहीं मानकर संतोष कर लेंगे।
मित्रो, इस तरह एक महीना व्यतीत हो गया, पर किसी के दर्शन नहीं हुए। हमने सोचा कि अगर शंकर भगवान की सवारी के गोबर का ही दर्शन हो जाए तो उसे ही मस्तक पर लगा लेंगे और वापस घर चले जाएँगे। परंतु वह भी नहीं मिला। गोबर भी दिखलाई नहीं पड़ा। हमें बहुत दुःख हुआ कि ऐसे महादेव, जो किसी दूसरे से ताल्लुक नहीं रखते हैं,इनसे हमारा क्या मतलब है। हमारा स्वास्थ्य भी खराब होने लगा था। हमने सोचा कि अब वापस चलना चाहिए और मैं चल पड़ा। वापसी में मैं नास्तिक को गया। शंकर भगवान पर हमें बहुत आक्रोश था कि वे लोगों की श्रद्धा को महत्त्व नहीं देते हैं। अगर खुद नहीं आ सकते तो गणेश को, अपनी सवारी को ही भेज देते या उनके गोबर को ही दिखा देते। कहीं ऐसे भी शंकर भगवान होते हैं क्या? हम नास्तिक हो गए और घर वापस आ गए। हमारे घर में हर वर्ष रामायण का पाठ होता था। उस वर्ष भी रामायण हुआ। हमें रामायण के पाठों ने नास्तिक होने से बचा लिया। आज मैं आपके सामने एक आस्तिक व्यक्ति हूँ तथा आस्तिकता का प्रचार करता हूँ।
रामायण ने हमें नास्तिकता से कैसे बचा लिया? रामायण में एक श्लोक है जो रामायण का सार है, भक्ति का सार है और वह है-
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्घा विश्वासरूपिणौ।
याम्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम् ।।
इस प्रकार तुलसीदास जी ने साफ शब्दों में बतला दिया कि भवानी और शंकर कैसे होना चाहिए? वह होना चाहिए- श्रद्धा, विश्वास के रूप में। उसी रूप में हमें उन्हें पूजना चाहिए। उन्होंने पार्वती- श्रद्धा, शंकर- विश्वास के बारे में हमारे मस्तिष्क को साफ कर दिया। गोस्वामी जी ने साफ शब्दों में कह दिया कि भगवान व्यक्ति नहीं हो सकते हैं। भगवान एक सिद्धांत का नाम है, आदर्श का नाम है। भवानी हो सकती है तो इनसान की श्रद्धा तथा शंकर हो सकते हैं तो इनसान का विश्वास- यह तथा हमें भलीभाँति समझ लेना चाहिए।
श्रद्धा ही आदमी का प्राण है, यही आस्तिकता का प्राण है। आध्यात्मिकता का, दैवी अनुदानों का,चमत्कार का, आत्मसाक्षात्कार का प्राण यह श्रद्धा ही है। श्रद्धा का ही चमत्कार हमारे जीवन में हुआ है। पंद्रह वर्ष को उम्र में ही हमारे गुरु ने दर्शन दिया था, रास्ते दिखलायें थे। उस समय हम बहुत ही भावुक हो गए थे और कहा था कि आप हमें हुकुम दीजिए, हम उसका पालन करेंगे। हम आपका वचन मानेंगे और रघुकुल रीति सदा चली आई। प्राण जाएँ, पर वचन न जाई, की तरह आपके आदेशों का, वचनों का पालन करेंगे। हमने आपको अपना गुरु, मार्गदर्शक, बॉस माना है, हम आपके हर आदेश का पालन करेंगे। हम उन लोगों में से नहीं हैं, जो पैर पीछे हटाकर भाग गए। आप आदेश दें, हम पालन करेंगे। हम घटिया वाले, छोटे वाले आदमी नहीं हैं, जो रोज वायदा करते हैं, कसमें खाते हैं और समय आने पर मुकर जाते है। हम शानदार आदमी है। हमने आपसे शादी की है और वह ऐसी नहीं है जो आए दिन हुआ करती है।
साथियों, चौबीस साल के चौबीस महापुरश्चरण पूरे करने के बाद हमारे गुरु ने, मार्गदर्शक भगवान ने हमें हिमालय बुलाया। हमने कहा कि आपने उस दिन जो हमें आदेश दिया था उसका तो हमने पालन किया। उसके बाद हमने आपसे कोई पूछताछ नहीं की। जिस प्रकार आप बतलाते चले गए हम पालन करते चले गए। आज हम आपके पास आ गए हैं, आप आदेश करें। हमारे गुरु ने कहा कि आपने पूछा नहीं और हमने बतलाया नहीं। उन्होंने कहा कि हमने आपको पहले दिन ही कहा था कि हम आपको देवता बनाना चाहते हैं। हम आपको महान बनाना चाहते हैं। हम आपको इनसान के जीवन तक सीमित नहीं रहने देना चाहते। हम आपको भगवान के दरजे तक पहुँचाना चाहते थे, सो वह हमने आपको इन दिनों बनाने का प्रयास किया और आप सफल हो गए।
हमने कहा- गुरुदेव आप हमारे पास ही क्यों आए और हमें क्यों परेशान किया हैं? उन्होंने बतलाया कि हम बहुत दिनों से एक शिकारी कुत्ते की तरह से घूमते रहे और तुम्हें खोजते रहे। जब तुम मिल गए तो हमने पकड़ लिया। इसी तरह हम बिना बुलाए सूँघते- सूँघते आपके घर जा पहुँचे। शिकारी कुत्ते इसी प्रकार सूँघते- सूँघते घर पर पहुँच जाते हैं और हत्यारों को, चोरों को पकड़ लेते हैं तथा पुलिस के हवाले कर देते हैं। हमने पूछा कि आपने क्या चीज सूँघी है? उन्होंने कहा कि हमने आपके अंदर एक चीज सूँघी है और वह है आपकी श्रद्धा। श्रद्धा से रहित आदमी के पास भगवान कहाँ से आ जाएगा? देवता कहाँ से आ जाएगा? मंत्र कहाँ से आएगा। श्रद्धा के बिना पूजा- पाठ एवं सारे कर्मकाण्ड प्राणहीन,खोखले जीवन की तरह हैं। इससे मनुष्य को कोई लाभ कदापि नहीं मिल सकता है। श्रद्धा नहीं है तो यह सब ढकोसला है। यह सब मन बहलाव है। श्रद्धा के बिना सब बेकार है।
हमारे गुरुदेव ने कहा कि ढूँढ़ते- ढूँढ़ते हमने एक ऐसे इनसान की तलाश की जिसके अन्दर श्रद्धा जीवंत थी। उन्होंने बतलाया कि जहाँ श्रद्धा जीवंत है उसके लिए सारी मंजिल खुली हुई है। अगर किसी व्यक्ति की श्रद्धा खतम हो गई तो उस आदमी में कोई जान नहीं है। उसके आध्यात्मिक विकास का फिर कोई रास्ता नहीं है। हमने आपके अंदर देख लिया कि आपके अंदर श्रद्धा का बीज विद्यमान है और अगर उसे ठीक ढंग से उगाया जा सका तो बहुत बड़ा काम हो सकता है। हमने आपकी श्रद्धा को देख लिया था, इसलिए आपको साधना सिखा दी थी।
हमने अपने गुरु के आदेश पर अपने अंदर विद्यमान श्रद्धा के बीज को आगे बढ़ाने के लिए उनके दो आदेशों का पालन किया है। पहला यह कि योगी, तपस्वी को हर काम में हर बात में 'यस' नहीं कहना चाहिए, बल्कि पहले सोचना चाहिए उसके बाद कार्य करना चाहिए। अगर आपने बीबी से कहा- 'यस' तथा मित्र से कहा- 'यस' तो ये लोग आपको तबाह कर देंगे। अतः आप दूसरा काम यह कीजिए कि 'ना' करना भी सीखिए। यह भी आदेश हमारे गुरु ने दिया। हमने उनके हर आदेश का पालन किया। हमने कभी भी अपने रिश्तेदारों, मित्रों, दोस्तों की बातों को 'यस' नहीं किया है। अरे भाई, साला है और यह कहता है कि चलिए सिनेमा दिखाकर लाएँगे, तो आप 'यस' न करें। हमारे गुरु ने कहा कि योगी तपस्वी हर परिस्थितियों में 'यस' नहीं करते है। वे तप करने के लिए धूप में, गरमी मे, अग्नि में खड़े हो जाते हैं तथा अपने को तपाते हैं। यह तितिक्षा होती है। अध्यात्मवादी उसे कहते हैं जो अपने भीतर वाली गलती को, भीतर वाली कमियों को निकाल बाहर करते रहते हैं। उनसे हमेशा लड़ते रहते हैं, अन्यथा ये सारी चीजें आदमी को खा जाती हैं। अतः इसे अवश्य रोकने का प्रयास करना चाहिए।
मित्रों, हम देख रहे हैं कि इन दो हजार आदमियों में गाँधी बनने की क्षमता वाले कम से कम दो भी आदमी बैठे हैं। इसमें से कई आदमी सरदार पटेल, नेहरू एवं शास्त्री बन सकते थे, परंतु केवल दो सूराखों ने इनको क्या खा लिया। इनमें बहुत से आदमी हमें ऐसे दिखाई पड़ रहे हैं जिन्हें हम यदि मोर्चे पर खड़े कर दें तो वे इन्हें न जाने कहाँ से कहाँ ले जा सकते हैं। आप में से हमें ऐसे व्यक्ति दिखलाई पड़ रहे हैं जिन्हें गुरु गोविंद सिंह होना चाहिए था, परंतु ये नहीं हो सके। इसके लिए दो ही सुराख जिम्मेदार हैं, एक है- भीतरवाली कमजोरियाँ जिसे हम हमेशा बतलाते रहते हैं। वह है हमारी इंद्रियाँ जिससे हमने कभी 'नो' कहना ही नहीं सीखा। दूसरे वाले हैं- हमारे कुटुंबी, जिनसे भी हमने 'नो' कहना ही नहीं सीखा, आप उन्हें 'नो' कहिए। आप कहिए कि हम आपकी सलाह को नहीं मान सकते। आप हमें मजबूर न करें कि हम उस रास्ते पर चलने के लिए तैयार हो जाएँ।
मित्रो, पंद्रह वर्ष की आयु से ही बराबर चौबीस साल तक हमें अकेले हो खड़े रहना पड़ा। हमारे रिश्तेदारों ने इसका बहुत विरोध किया,पुरातनपंथियों ने तो हमारा विरोध बाद में किया। नारियों के गायत्री अधिकार के बारे में उन्होंने विरोध बाद में किया। गायत्री का अधिकार केवल ब्राह्मणों को है, ऐसे शब्दों का प्रयोग प्रतिगामी लोगों ने बाद में किया परंतु असली विरोधी तो हमारे संबंधी, रिश्तेदार पहले थे, जिन्होंने हमेशा बरगलाने को कोशिश की, हमारी हिम्मत तोड़ने की कोशिश की है। उन्होंने ऐसे ऐसे कटाक्ष कसे, आक्षेप लगाए, सलूक किया था जिससे हमारी हिम्मत टूट जानी चाहिए थी, परंतु हम हमेशा उनके आदेशों को 'नो' करते रहे।
गुरु किसी व्यक्ति को नहीं कहते हैं। गुरु एक शक्ति है, गुरु एक फिलॉसफी दर्शन है। गुरु के बारे में शास्त्र कहते हैं- "गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुगुरुर्देवो महेश्वरः। गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नम: ।" तो क्या आप ब्रह्मा हो सकते हैं? नहीं। क्यों? अच्छा तो आप एक बच्चे को बना दीजिए। चलिए बच्चा नहीं बन सकता तो एक लूँ बनाकर दिखा दीजिए। ब्रह्मा ने तो सारी सृष्टि बना दी है, पर आप कुछ नहीं बना सकते हैं। हमने गुरुतत्त्व को समझने की कोशिश की है, आपको भी समझने का प्रयास करना चाहिए। अध्यात्म की जितनी भी सामर्थ्य है, सिद्धियाँ हैं, वह एक व्यक्ति के मार्गदर्शन पर टिकी हुईं है और उसका नाम गुरु है, जो व्यक्ति की चतुर्मुखी प्रतिभा को विकसित कर देता है। सारा चमत्कार श्रद्धा का ही है। हमने जो कुछ भी पाया है, वह केवल श्रद्धा का ही है।
साथियों! हमसे जो २४ साल तक अनुष्ठान करने को कहा गया था, उसमें डर था कि हम उसे कैसे कर पाएँगे, परंतु यह हमारी श्रद्धा का ही फल है, जो हम उसे पूरा कर पाए। इतना ही नहीं, आगे भी हमारी श्रद्धा बढ़ती ही गई। हमारे गुरु ने जब गायत्री वह मंदिर बनाने के लिए कहा तो उसके लिए हमने जो जमीन ली, वह एक बगीची थी। उसे खरीदने से लेकर बनाने तक का सारा काम हमारी श्रद्धा के द्वारा ही पूरा हो सका। देश के कोने- कोने से हमें इस कार्य हेतु सहयोग मिलना शुरू हो गया। पहले हमारी हैसियत क्या थी, परंतु गुरु के साथ जुड़ जाने पर हमारी हैसियत हमारे मार्गदर्शक के कारण बढ़ गई। हमने अपने गुरु से कहा कि हमारा बजट इतना नहीं है। हमारे बॉस ने कहा कि आपका बजट नहीं है तो क्या हुआ, हमारा बजट तो है। आप काम शुरू करें। हमने वह बगीची ६०००/- में खरीद ली, जिसमें एक इमारत भी थी। मंदिर की तरह भी कुछ बना था। एक कुआँ भी था। उन्होंने कहा कि एक आयोजन भी करना होगा। जिसमें चार लाख व्यक्तियों के ठहरने एवं भोजन की व्यवस्था बनानी होगी। हमने कहा कि आप तो कहते ही चले जाते है, पर बजट का क्या होगा? उन्होंने कहा कि आपके बजट से कोई मतलब नहीं है। यह हमारा बजट है, जिसमें पाँच दिनों तक चार लाख आदमियों को भोजन कराना होगा। इतने लोगों में एक रुपए के हिसाब से बीस लाख रुपए खरच होंगे। दूसरे समय के भोजन में २० लाख। इस तरह ४० लाख भोजन में और यज्ञ एवं अन्य व्यवस्था में करोड़ों रुपए खरच करने होंगे। पर आप इसकी चिंता मत कीजिए। हमने अपने बॉस से कहा कि हम तो ब्राह्मण हैं। हमारे बाप- दादों ने दक्षिणा में इक्कीस रुपए माँगे हैं, परंतु हमने कसम खाई है कि हम इनसान के आगे कमी भी नहीं माँगेंगे और न हाथ फैलाएँगे। इस संबंध में हम अपनी जबान नहीं खोलेंगे। अगर आपने हमसे कहा कि आप रसीदबुक लेकर के जाइए और दुकान- दुकान जाकर अठन्नी माँगकर लाइए, तो यह हमसे नहीं हो सकता है। उन्होंने कहा कि आप तो काम चलने दीजिए।
बेटे, सन् १९५८ के विराट यज्ञ का सारा काम हो गया। उस दिन से हमारा स्थान भी बन गया। हमारा मनोबल भी बढ़ गया। हमें विश्वास हो गया कि हमारे साथ एक समर्थ सत्ता है। यह है हमारी श्रद्धा, गुरु के प्रति! गुरु श्रद्धा है, विश्वास है। इसमें हम एक व्यक्ति के प्रति श्रद्धा जाग्रत करते हैं। कमजोरियों किसमें नहीं होती हैं? हमारा गुरु? एक व्यक्ति है, एक पत्थर है, किंतु एकलव्य के तरीके से हमने उसे भगवान बना दिया है। यह है हमारी श्रद्धा। हमारे लिए गोबर गणेश ही महान हैं।
आपने तो देवी की पूजा की, चाय पिलाया, दूध चढ़ाया, परंतु आपकी देवी ने कभी भी- थैंक यू वेरी मच नहीं कहा। कम से कम थैंक यू ही कह देती पर वह भी नहीं कहा उसने। वह तो चुपचाप बैठी रहती है। हम नमस्कार करते रहते हैं, परंतु वह जवाब तक नहीं देती है। अगर आप एक आदमी को नमस्कार करें तो वह जवाब दे देता है। कोई व्यक्ति लेखन भी कर रहा हो, तो वह यदि हाथ नहीं उठा सकता तो कम से कम अपना सिर तो हिला देता है, परंतु देवी कभी भी कुछ नहीं कहती है। वह खाना खाती रहती हैं, तो यह भी नहीं कहती हैं कि आप भी आ जाइए और थोड़ा सा भोजन कर लीजिए। वह देवी केला खिलाने पर भी कुछ नहीं कहती। यह तो आपकी श्रद्धा है जो आप खिलाते रहते हैं और वह आपकी भावना को उसी प्रकार स्वीकार करती रहती है। किंतु हमने अपनी श्रद्धा को कायम रखा है, जिसके कारण देवी ने हमें दर्शन- लाभ देना शुरू कर दिया है। हमने जो दीपक जलाया है, वह क्या है ?आग है, परंतु हमारी श्रद्धा दूसरे प्रकार की है। हमने उसे कभी भी आग के रूप में नहीं, प्रकाश के रूप मे, एक ज्योति के रूप में दर्शन किया है। वह है हमारी श्रद्धा। यह श्रद्धा ही है जो न जाने क्या से क्या कराती और क्या से क्या बना देती है। हमारा वह दीपक चमत्कार दिखाता है। वह दीपक हमारी सिद्धि का प्रतीक है। वह दीपक हमारी प्रगति का प्रतीक है और न जाने क्या- क्या है।
मित्रों, आज गुरुपूर्णिमा का पर्व है। यह पर्व केवल श्रद्धा का है। हमारे मार्गदर्शक ने कहा था कि हम तुम्हें देवता बनाएँगे। यह हम अपने मुख से क्या कहें, ये बैठे हुए लोग स्वयं समझते हैं। हमने समाज को दिया है, यह हम अपने मुख से क्या कह सकते है? हमारे शरीर छोड़ने के याद आप लोग याद करेंगे कि हमने क्या किया है और किसको क्या दिया है। हमारे जाने के बाद आप सब याद करेंगे कि एक ऐसा भी इनसान इस धरती पर आया था जिसने संसार के हर व्यक्ति को प्यार दिया था। मोहब्बत दी थी। लोगों को दिशाएँ दी थी, प्रेरणाएँ दी और लोगों के मामले एक उदाहरण प्रस्तुत किया था। आप कहेंगे कि उसका सबूत क्या है? सबूत यही है कि हमारा प्यार लौटकर हमारे पास आ जाता है। आप विश्वास करें या न करें, पर हमारा ही प्यार हजारों- लाखों आदमियों में 'रिफ्लेक्ट' होता है और वह इस कदर वापस हमारे ऊपर आ जाता है जिसे देखकर लगता है कि हम इस बेकार की दुनिया में नहीं रहते हैं, वरन हम प्यार की दुनिया में रहते हैं, हम मोहब्बत की दुनिया में रहते हैं। हमें लगता है कि हम श्रेय की दुनिया में, सद्भावना की दुनिया में रहते हैं। हमारी दुनिया ऐसी है कि उसका क्या कहना। हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि ऐसी दुनिया भगवान हर किसी भाग्यवान को दे।
आप लोग इतनी दूर से हमारे पास आते है। आप क्या लेकर आते हैं? मोहब्बत लेकर आते हैं, प्यार लेकर आते हैं और पैसा खरच करके आते हैं। आप अपनी पत्नी के जेवर तक बेचकर आते हैं और न जाने कितनी परेशानी उठाकर हमारे पास आते हैं। यह क्यों होता है? बेटे हमारी मोहब्बत और प्यार तुम्हें खींचकर यहाँ ले आता है। गुरुजी! मेरा तो एकदम मन नहीं था, परंतु एक व्यक्ति ने कहा कि गुरुपूर्णिमा में तो चलना ही चाहिए और हम खिंचते हुए आपके पास चले आए, हम यहाँ पर अपनी मोहब्बत आपके ऊपर बिखेरते हैं और वह आपके दिलों पर हावी हो जाता है। हमने मोहब्बत दो है, उत्साह दिया है और आप लोगों की उछाल दिया है। ऊपर से नीचे आना पानी का नैसर्गिक गुण है। आज लोग इसी प्रकार मनुष्य को नीचे गिरा देते हैं, परंतु हमने हर व्यक्ति की नीचे से ऊपर उठाया है। उसे उछाल दिया है।
आप पूछ सकते हैं कि क्यों गुरुजी हमें भी ऐसा गुरु मिल सकता है? हम कहते हैं कि आप में से हर एक आदमी को ऐसा गुरु मिल सकता है, परंतु शर्त एक है- आपकी श्रद्धा। आप इसे न पैदा करना चाहते हैं और न आपको इस पर विश्वास है। आपको चालबाजी और जालसाजी पर विश्वास है श्रद्धा पर विश्वास नहीं है। हमने श्रद्धा पर विश्वास किया है। हमारे लिए हमारा गुरु पत्थर का हो या हिमालयवासी हो, हमने उसे श्रद्धा के रूप में देखा है और पाया है। वह हमारे आगे- आगे चलता है, बातें करता रहता है। हमारी हर समस्या को हल करता है। हम आपको यह बताना चाहते है कि किस प्रकार हमारा बॉस हमको सामर्थ्यवान बनाता चला जा रहा है। हम चाहते हैं कि आपको भी हम सामर्थ्यवान बना दे, परंतु आप में श्रद्धा ही नहीं है। स्वामी विवेकानन्द को अपनी सत्ता और शक्ति रामकृष्ण परमहंस ने स्वयं सौंप दी थी। हम भी यही चाहते हैं कि आप सभी हमारे बच्चे बड़े हो गए हैं और अपनी जिम्मेदारी संभालने योग्य हो गए हैं। अतः हम अपनी सारी शक्ति आपको देकर निश्चित हो जाएँ।
हमारे गुरु ने हमसे कहा था कि आप अगर श्रद्धा कायम रखेंगे तो हमारा अनुमान कभी खाली नहीं जाता। आज गुरुपूर्णिमा के इस पावन पर्व पर हम आपको एक बात बतलाना चाहते हैं कि आपकी आध्यात्मिक उन्नति, चमत्कार इसके बिना अर्थात श्रद्धा के विना कदापि संभव नहीं है। ऐसे बहुत से श्रद्धावान शिष्य हुए हैं, जिनने अपने एक बूँद दवा के- द्वारा हजारों लोगों की बीमारियों को ठीक कर दिया है। उन्हें लाभ पहुँचाया है। यह श्रद्धा का भी चमत्कार हैं ।। हमारी दवा में श्रद्धा है जो अमृत है। हमारे जीवन में सफलता की यही कहानी है। हमने श्रद्धा के साथ अपने मार्गदर्शक को अपनाया है। हमें अपने गुरु के प्रति, आचार्यों के प्रति भगवान के प्रति, आस्तिकता के प्रति अटूट श्रद्धा है। हम कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखते। अकेले चलते हैं। हमारे साथ हमारी श्रद्धा और विश्वास चलता है और हम सफल होते हैं।
साथियो, हम हर काम में सफल होते चले जाते हैं। हमने नैष्ठिक साधक बनाने का संकल्प लिया है और वह पूरा हो रहा है। हमने अपने छह हजार गायत्री परिवार की शाखाओं के अंतर्गत गायत्री चरणपीठ बनाने का संकल्प लिया है। पहले हमने चौबीस गायत्री शक्तिपीठ बनाने का संकल्प लिया था जो अब २४०० के निर्माण के रूप में बदल गया है। हम अपने मरने तक एक लाख चरणपीठ बना लेंगे। आप नहीं जानते हैं कि हमारे पीछे कौन भी शक्ति है? आपको मालूम नहीं है कि हमारा कोई काम, कोई संकल्प अधूरा नहीं रहा है। हमारी श्रद्धा ने उन्हें जकड़ रखा है। यह हमारे साधु- ब्राह्मण जीवन का फल है। आज इसका संसार में अभाव है। आज संतों का अभाव है। कहीं भी कोई संत दिखलाई नहीं पड़ रहा है। आज वे रहते तो हमें चरणपीठ बनाने की क्यों आवश्यकता पड़ती। वे गाँवों में अशिक्षा को समस्या दूर कर देते। सामाजिक कुरीतियों को निकालने में सफल हो जाते। हम अगले दिनों संतों की, ब्राह्मणों की एक नई मीही का निर्माण करेंगे उन्हें हम निर्माण की और अग्रसर करेंगे।
आप हमें कभी भी व्यक्ति नहीं समझना, आप हमें एक शक्ति समझना। सारे काम समय पर हो जाएँगे। हम अकेले नहीं काम करते हैं। हमारी पाँच शक्तियाँ काम करती हैं। आदिवासियों की समस्या, हम हल करेंगे। हमने झाबुआ में आदिवासी सम्मेलन बुलाया है। उसमें हम हर समस्या का समाधान करेंगे। आप देखना हम आगे चलकर सामाजिक कुरीतियों का समाधान किस तरह से करते हैं। आप आगामी दिनों हमारा चमत्कार देखना। हमारी सरकार निरक्षरता का समाधान नहीं कर सकी। हमें देश के, मुल्क के लोगों को साक्षर बनाना है। हमें अभी बहुत काम करना है। हम अभी नहीं मरेंगे। हमने तो कह दिया है कि हमें जब चलना होगा तो टेलीफोन करके आपको बुला लेंगे।
बेटे, इन समस्याओं का हल केवल मनुष्य के दिल और दिमागों के बदलने से होगा। हम अगले दिनों असंख्य मनुष्यों के दिल और दिमागों को बदल डालेंगे। हमारे बाँस ने कहा था कि हम तुम्हें भगवान बनाएँगे। इसका मतलब यह नहीं था कि वे मुझे पूजा- उपासना कक्ष तक सीमित कर देंगे, बल्कि वह प्राणऊर्जा हमारे अन्दर भर देंगे जो कि हम भगवान जैसे कार्य, दिल- दिमाग बदलने जैसा कार्य सहज में कर सके। हम भगवान के 'टूल्स' हैं, आप हमें भगवान कहें तो हमें आपत्ति हो सकती है। टूल्स् कहने पर नहीं। आप बुद्ध को और गाँधी को चाहे तो भगवान कह सकते हैं।
हमारा बाँस, हमारा भगवान जब भी हमें आवश्यकता पड़ी है, दोस्त के तरीके से- गुरु के तरीके से आया है, उसने मदद की है। हमने श्रद्धा के बल पर उसे पकड़ लिया है। हो सकता है कि हमारा गुरु सूक्ष्म हो, परंतु माइक्रोस्कोप के माध्यम से देखकर हमने उसे बड़ा बना दिया है। वह महान है, उसकी शक्ति महान है। आप चाहें तो उसी तरीके से अपने अंदर ला सकते हैं तथा लाभ प्राप्त कर सकते है। हम आपको यह बतलाना चाहते है कि आप भगवान के रास्ते पर चलना, भगवान आपके रास्ते पर चलेंगे। अर्जुन भगवान के रास्ते पर चले तो भगवान भी अर्जुन के रास्ते पर चले। हम भगवान के रास्ते पर चले हैं। हमने उनको समर्पित कर दिया। हम दोनो एक दूसरे में समाए हुए हैं। आध्यात्मिक्ता के ऊँचे रास्ते पर चलने का यहीं रास्ता है। अगर आपको बड़ी चीजें मानी हों तो आपको इसी रास्ते पर चलना होगा। अपनी श्रद्धा को विकसित करना होगा। गुरुतत्त्व को हम श्रद्धातत्त्व कहते हैं। इसके द्वारा ही चमत्कार होता है। अगर ये आपके अंदर आ जाता तो आपका जीवन भी हमारी तरह मस्ती का होता, चमत्कारों, ऋद्धि सिद्धियों से भरा होता। इसके द्वारा आपको आत्मशान्ति, आत्मगौरव प्राप्त होता। अगर आप हमारा रास्ता अपना लेते तो आपके बराबर सौभाग्यवान और कोई नहीं होता। भगवान करे, यह दिन आपका सौभाग्य आप पर बरसाए।
आज की बात समाप्त।
।। ॐ शांति: ।।