Books - आत्म-शक्ति से युग-शक्ति का उद्भव
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Language: HINDI
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उपासना से अन्तःकरण एवं वातावरण का परिष्कार सम्भव
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मनुष्य समाज में वांछित परिस्थितियों का निर्माण दो आधारों पर ही सम्भव है। एक है मानवीय अन्तःकरण तथा दूसरा है सूक्ष्म वातावरण। स्थूल साधन, सुविधायें, एवं परिस्थितियों में भी परिवर्तन लाना तो होगा किन्तु वह वस्तुतः उपर्युक्त दोनों तथ्यों पर आधारित है। मूल आधारों में परिवर्तन या तो सम्भव ही नहीं, यदि हो भी जाय तो टिकाऊ नहीं रह सकता। मनुष्य के अन्तःकरण के अनुसार ही उसकी गतिविधियां बनती हैं तथा उसी के अनुसार परिणाम उत्पन्न होने लगते हैं।
व्यक्तियों की गतिविधियां जब श्रेष्ठता से समन्वित रहती हैं तो उनके श्रम, समय, मनोयोग एवं साधनों का उपयोग सत्प्रयोजनों में होता है, फलतः सुखद परिस्थितियां बढ़ती जाती हैं। निरर्थक कार्यों में लगने से पिछड़ेपन की और अनर्थ कार्यों से अधःपतन की परिस्थितियां बनती हैं। जब जन प्रवाह पतनोन्मुख होता है तो स्वभावतः अभाव, संकट एवं विद्रोह बढ़ते हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया का कुचक्र चलता है और बुरे युग के—पाप युग, नरक युग के समस्त लक्षण सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। सत्प्रयत्नों के सत्परिणाम तो स्पष्ट ही हैं। धर्मराज्य, रामराज्य, सतयुग आदि ऐसे ही समय को कहा जाता है। युग कैसा है? कैसा होगा? इन प्रश्नों का उत्तर पर्यवेक्षण करके दिया जा सकता है कि लोग क्या कर रहे हैं और क्या करने की तैयारियों में लग रहे हैं।
कल कारखाने जब विषैला धुंआ छोड़ते हैं तो वायु मंडल में प्रदूषण भर जाता है। उससे सांस लेने में घुटन अनुभव होती है, और स्वास्थ्य बिगड़ता है। मोटरों का धुंआ और शोर वायुमण्डल को विषैला करता है और उससे जन स्वास्थ्य को ही नहीं इमारतों को भी क्षति पहुंचती है। इस तथ्य को सभी जानते हैं। मनुष्यों को भी मोटरों और कारखानों के समतुल्य समझा जा सकता है। उनके कुविचार और कुकर्म बढ़ने लगें तो वातावरण में भावनात्मक विषाक्तता उत्पन्न होना स्वाभाविक है। उसका प्रतिफल व्यापक रूप से दुखद दुर्घटनाओं के रूप में परिलक्षित होता है। यही कलियुग है। चन्दन वृक्ष सुगन्धित होते हैं, उन्हें छूकर जो पवन चलता है वह दूर-दूर तक सुवास बखेरता है। पुष्प वाटिकायें भी अपने समीपवर्ती क्षेत्र में सुगन्धित और जीवन दायिनी प्राण वायु बखेरती हैं। सज्जनों को चन्दन वृक्ष और पुष्प पादपों की संज्ञा दी जा सकती है। वे स्वयं तो आन्तरिक प्रसन्नता और साथियों की सद्भावना से सुखी सन्तुष्ट रहते ही हैं, अपनी गरिमा का उपहार सारे वातावरण को प्रदान करते हैं। कीचड़ और कूड़े के ढेर से—सड़े नाले से बदबू उठती है, विषाणु बढ़ते हैं, कुरुचिपूर्ण वातावरण बनता है और बीमारियां फैलती हैं। मनुष्यों के व्यक्तित्व यदि सड़े नाले और कूड़े के ढेर जैसे बने रहें तो उनकी विकृतियां उन अकेले को ही कष्ट नहीं देंगी वरन् समूचे वातावरण में अवांछनीय विक्षोभ उत्पन्न करेंगी, यही कलियुग का—पाप युग का स्वरूप है। युगों के भले बुरे होने में व्यक्तियों का स्तर ही प्रधान कारण होता है। उनका दृष्टिकोण और क्रिया कलाप यदि हेय स्तर का होगा तो न केवल मनुष्यकृत संकट बढ़ेंगे, वरन् प्रकृति प्रदत्त विपत्तियां भी बरसेंगी। अणु विस्फोट की धूलि आकाश में छा जाती है और वह जैसे-जैसे जहां-जहां जितनी जितनी मात्रा में नीचे गिरती है, वैसे वैसे वहां वहां उस विष वर्षा से असंख्य प्रकार से संकट उत्पन्न होते हैं। ठीक इसी प्रकार जन समूह के द्वारा अपनाई गई दुष्प्रवृत्तियां अपनी प्रतिक्रिया से समूचे वातावरण में ऐसे ही विषाक्तता उत्पन्न करती हैं जो सब के लिए सब प्रकार दुखदायी परिस्थितियां ही उत्पन्न करती चली जाती है।
विषाक्तता से वायुमण्डल का दूषित होना पदार्थ विज्ञान के आधार पर स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। अध्यात्म विज्ञान के आधार पर यह जानने में भी कठिनाई न होनी चाहिए कि दुष्प्रवृत्तियों के कारण प्रकृति का सूक्ष्म अन्तराल विक्षुब्ध होता है और उसकी प्रतिक्रिया ऐसी व्यापक परिस्थितियों के रूप में बरसती है जिनसे संसार को संकटों का सामना करना पड़े। प्रकृति प्रकोप की दुर्घटनाएं ऐसे ही विक्षुब्ध वातावरण की देन हैं। आवश्यक नहीं कि जहां के लोगों की दुष्प्रवृत्तियां हों वहीं बरसें। सूर्य की गर्मी से समुद्र में बादल उत्पन्न होते हैं, आवश्यक नहीं कि वे समुद्र में ही बरसे। वे कहीं भी जाकर बरस सकते हैं। जब सारी धरती और सारा आसमान एक है तो बादलों को कभी भी बरसने की छूट रहती है। मनुष्य समुदाय एक समाज सूत्र में बंधा है। वह सामाजिक प्राणी है। उसके कर्तव्य और उत्तरदायित्व अपने आप तक ही सीमित नहीं वरन् व्यापक क्षेत्र में विस्तृत हैं। देश, समाज, धर्म, संस्कृति के प्रति भी उसे बहुत कुछ करना होता है। करना भी चाहिए। व्यक्तिगत उत्तरदायित्वों की तरह सामाजिक कर्तव्यों का भी उसे पालन करना चाहिए। इसमें संकीर्णता बरतना—सामाजिक उत्तरदायित्वों से हाथ खींचना भी मनुष्य के लिए एक अपराध है। पशु-पक्षियों के लिए भले ही वैसा अनुबंध न हो।
प्रकृति प्रकोप के रूप में सामूहिक दंड व्यवस्था ही चलती है। अति वृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, बाढ़, तूफान, महामारी, भूमि कीटक आदि के रूप में कई प्रकार की विकृतियां आये दिन दरवाजे पर खड़ी रहने की घटनाएं पाप-युग में होती हैं। सतयुग के सम्बन्ध में लिखा मिलता है कि तब मनुष्य दीर्घजीवी होते थे। बाप के सामने बेटा नहीं मरता था। वृक्ष मन चाहे फल देते थे। भूमि से प्रचुर अन्न उपजता था। गौएं बहुत घी दूध देती थीं। वर्षा उपयुक्त समय पर उपयुक्त मात्रा में होती थी। प्रकृति प्रकोप कभी नहीं होता था। यह प्रकृति की अनुकूलता मनुष्य की सत्प्रवृत्तियों के साथ जुड़ी हुई है। इकालौजी विज्ञान के अनुसार प्रकृति की विचार शीलता, सन्तुलन व्यवस्था, दूरदर्शिता एवं न्याय प्रियता का क्रमशः अधिकाधिक परिचय मिलता जा रहा है। सामूहिक दुष्प्रवृत्तियों का सामूहिक दंड भी इसी व्यवस्था के अन्तर्गत आता है।
व्यक्ति के कर्म का दण्ड व्यक्ति को मिलना चाहिए। यह व्यवस्था तो चलती ही है पर सामूहिक उत्तरदायित्वों से बंधा रहने के कारण मनुष्य को सामूहिक दुष्प्रवृत्तियों की रोक थाम करने का भी जिम्मेदार माना है। उसकी उपेक्षा की जाय तो वह भी एक पाप बनता है। स्वयं अच्छा रहना तो उचित ही है—पर उतना ही आवश्यक यह भी है कि जिस समाज में रहा जा रहा है उसे परिष्कृत बनाये रहने की जिम्मेदारी निवाहने में भी उतनी ही तत्परता बरती जाय। अपने आप के हित साधन में लगे रहने वाले—दूसरों की उपेक्षा करने वाले स्वार्थी कहलाते हैं और निन्दा के पात्र बनते हैं। यद्यपि स्वार्थ साधन कोई प्रत्यक्ष अपराध नहीं है और न उससे किसी मर्यादा का प्रत्यक्षतः उल्लंघन ही होता है। फिर भी व्यक्तिवादी, स्वार्थ परायण व्यक्ति निन्दित ठहराये जाते हैं, उसका एक ही कारण है कि मनुष्य के लिए सामाजिक सुव्यवस्था के प्रति भी उतना ही जागरूक रहना आवश्यक माना गया है जितना कि अपने निर्वाह और सुरक्षा का प्रबन्ध करना। इसकी उपेक्षा करने वाले—मनुष्य समाज के सदस्य होने के नाते उन अपराधों के लिए भी दण्डनीय ठहरते हैं जो अन्यान्य लोगों द्वारा किये जाते रहे, किन्तु उन्हें रोकने के लिए जटायु की तरह, रीछ बानरों की तरह, आगे बढ़कर प्रयत्न नहीं किया गया।
सरकार कई अपराधों के लिए सामूहिक जुर्माना करती है। समीपवर्ती क्षेत्र में अपराध होता रहे और हमसे सीधा सम्बन्ध नहीं, यह सोचकर उसे रोका न जाय तो इस उपेक्षा को भी मानवी कर्तव्य शास्त्र में दंडनीय अपराध माना गया है। सामूहिक जुर्माना ऐसे ही अपराधों में किये जाने की दंड व्यवस्था है। पड़ोस के गांव में डकैती पड़ती रहे और जिसके पास बन्दूक का लाइसेन्स है वह डाकुओं का सामना करने न गया तो उस कायर को अपराधी माना जायगा और उसकी बन्दूक जब्त कर ली जायेगी। सामूहिक प्रकृति प्रकोप भी ऐसे ही सामूहिक दण्ड विधान के रूप में समूची मनुष्य जाति पर बरसते हैं। आवश्यक नहीं कि जिन्हें कष्ट भुगतना पड़ा है मात्र उन्हीं का अपराध हो। मुहल्ले में गन्दगी के ढेर जमा हों तो जमा करने वाले भी और उसे न रोकने वाले भी उस सड़न से हानि उठावेंगे। पड़ौस का छप्पर जलता रहे और अपने घर शान्ति पूर्वक बैठे रहा जाय तो बढ़ती हुई आग अपने को भी लपेटने लगेगी। मुहल्ले में गुण्डागर्दी बढ़ती रहे तो अनेक सौम्य प्रकृति के बालक भी उस कुचक्र के शिकार किसी न किसी प्रकार बनकर ही रहेंगे। एक व्यक्ति दुष्ट कर्म करता है, बदनामी सारे परिवार या गांव की होती है।
यही बात प्रशंसनीय कार्य करने के सम्बन्ध में भी है। सत्कर्म करने वाला अपने वंश, परिवार, क्षेत्र देश, युग सभी को प्रतिष्ठित करता है। यह सामूहिकता का उत्तरदायित्व जिन दिनों ठीक तरह निवाहा जाता है उन दिनों प्रकृति के अनुग्रह की वर्षा सभी पर होती है और जिन दिनों संकीर्ण स्वार्थपरता का बोलवाला होता है, दुष्प्रवृत्तियां पनपती हैं—वातावरण बिगड़ता है तो दण्ड उनको भी भुगतना पड़ता है जो प्रत्यक्षतः तो निर्दोष दिखाई पड़ते हैं, पर समूचे मानव समाज की दुष्प्रवृत्तियों को रोकने और सत्प्रवृत्तियों में संलग्न होने के प्रयास की जिम्मेदारी न निभाने से अनायास ही अपराधी वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं।
युग परिवर्तन के लिए व्यक्ति और समाज में उत्कृष्टता के तत्वों का अधिकाधिक समावेश करने के लिए प्रबल प्रयत्नों का किया जाना आवश्यक है। व्यक्ति को चरित्र निष्ठ ही नहीं समाजनिष्ठ भी होना चाहिए। मात्र अपने आपको अच्छा रखना ही पर्याप्त नहीं। अपनापन विस्तृत होना चाहिए और अपने शरीर अवयवों-परिवार सदस्यों की तरह ही समूचे समाज की श्रेष्ठता को सुरक्षित रखने और बढ़ाने के लिए भी प्रयत्न चलाने चाहिए।
आस्थाओं का स्पर्श आवश्यक
आस्थाओं की पृष्ठभूमि वस्तुतः एक अलग धरातल है। उसका निर्माण मस्तिष्कीय संरचना की तुलना में कहीं अधिक जटिल और कहीं अधिक कठोर है। अन्तःकरण की अपनी स्वतंत्र रचना है। उस पर बुद्धि का थोड़ा बहुत ही प्रभाव पड़ता है। सच तो यह है कि अन्तःकरण ही बुद्धि की कठपुतली को अपने इशारे से नचाता है। आन्तरिक आस्थाओं और आकांक्षाओं की जो अभिरुचि होती है उसी को पूरा करने के लिए चतुर राजदरबारी की भूमिका मस्तिष्क को निभानी पड़ती है। उसका अपना अभिमत जो भी हो, उसे करना वही पड़ता है जो अधिपति का निर्देश है। हो सकता है कि मस्तिष्क वस्तुतः भौतिकता का पक्षधर हो—किन्तु उसे व्यवहार में लाते समय वह तब तक समर्थ न हो सकेगा जब तक अन्तःकरण भी अनुकूल न हो जाये। किसी भी नशेबाज से वार्तालाप किया जाय तो वह समझाने वाले से भी अधिक ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर देगा जिससे नशा पीने की हानियों का प्रतिपादन होता है। इतनी जानकारी होते हुए भी वह उस लत को छोड़ने के लिए तत्पर न हो सकेगा। उसका कारण एक ही है कि नशे के पक्ष में उसके अन्तःकरण में इतनी गहरी अभिरुचि जम गयी है जिसे विचारशीलता मात्र के सहारे पलट सकना सम्भव नहीं हो पाता। शराबी आये दिन अपने को धिक्कारता है—शपथें लेता है। किन्तु जब अन्दर से लत भड़कती है तो असहाय की तरह शराब खाने की ओर इस प्रकार घिसटता चला जाता है मानो कोई बल पूर्वक उसे अपनी पीठ पर लाद कर लिये जा रहा हो। रास्ते में संकल्प विकल्प भी उठते हैं। लौटने को मन भी करता है। पर सारे तर्क एक कोने पर रखे रह जाते हैं। आदत अपनी जगह स्थिर रहती है। उसका दबाव इतना अधिक होता है कि विचारों का कुछ वश नहीं चलता है और अन्ततः शराब घर पहुंचने और पीकर ही लौटने की बात बनकर रहती है।
मस्तिष्क की यहां निरर्थकता नहीं बताई जा रही है और न तर्क, प्रभाव अध्ययन का—विचार साधन का—महत्व कम किया जा रहा है। उसकी उपयोगिता तो है ही और रहेगी ही। बात इतनी भर है कि मस्तिष्क भौतिक जीवन में अत्यन्त पेचीदा समस्याओं को सुलझाने और महत्वपूर्ण फैसले करने और पेचीदगियों को सरल बनाने में अद्भुत सूझ-बूझ का परिचय दे सकने में समर्थ होते हुए भी अन्तःकरण में जमे हुए संचित संस्कारों को प्रभावित करने में यत्किंचित ही सहायक हो पाता है। कारण कि वह गहरी परत मस्तिष्क के प्रभाव क्षेत्र में पूरी तरह है नहीं, वरन् उलटे मस्तिष्क को ही अपने इच्छानुकूल चलने के लिए विवश करती है।
अन्तःकरण ही मानवी सत्ता का केन्द्रबिन्दु है। यह जितना महत्वपूर्ण है उतना ही अद्भुत भी। महत्वपूर्ण इस अर्थ में कि उसमें तनिक-सा अन्तर आते ही मनुष्य का सारा स्वरूप बदल जाता है। अद्भुत इस अर्थ में कि भावनाओं संवेदनाओं की दृष्टि से अति सरल होते हुए भी अपनी स्थिति के सम्बन्ध में इतना दुराग्रही है कि बदलने में अत्यन्त कठोरता का परिचय देता है। परिवर्तन के लिए किये जाने वाले साधारण प्रयत्नों को तो ऐसे ही उपहास में उड़ा देता है। ईश्वर से मिलने की, सूक्ष्म जगत से सम्पर्क साधने की क्षमताएं इसी मर्म स्थल में सन्निहित हैं। ऋद्धियों और सिद्धियों की समस्त रत्न राशियां इसी तिजोरी में भरी हुई हैं। इतने पर भी इसका खोल सकना अत्यन्त कठिन है। जानकार लोग भी अपने आपको असहाय पाते हैं। आत्म बोध की आवश्यकता समझने—समझाने वाले—उसके द्वारा मिलने वाले चमत्कारों का स्वरूप समझने वाले भी इतना संकल्प नहीं जुटा पाते कि आत्म जागृति का लाभ उठा सकें—और साक्षात्कार कर सकें। अपनी जानकारी से स्वयं लाभान्वित न हुआ जा सके तो समझना चाहिए कि कोई बहुत बड़ा कारण या अवरोध काम करता है।
अन्तःकरण की स्थिति में थोड़ा सा परिवर्तन होते ही जीवन के स्वरूप में असाधारण परिवर्तन प्रस्तुत होता है। वाल्मीकि, अजामिल, अम्बपाली, अंगुलिमाल, विल्वमंगल आदि अनेकों के दुष्ट जीवनों ने पलटा खाया और देखते देखते कायाकल्प कर लिया। बोधि वृक्ष के नीचे एक दिन गौतम राजकुमार के अन्तःकरण ने पलटा खाया और वे दूसरे दिन ही भगवान बुद्ध बन गये। समर्थ गुरु रामदास का विवाह मुहूर्त निकट था, उनके भीतर वाला दुस्साहस पूर्वक दूसरे प्रकार का निश्चय कर बैठा। देखते-देखते सारी दिशा धारा ही उलट गई। गृहस्थों जैसा सामान्य जीवन क्रम दूसरे ही दिन महामानवों की, ऋषियों की पंक्ति में जा विराजा। ऐसे चमत्कार अन्तःकरण के परिवर्तन से ही होते रहे हैं।
उत्थान से पतन और पतन से उत्थान के अचानक परिवर्तनों के अगणित प्रमाण—उदाहरण इतिहास के पृष्ठों पर विद्यमान हैं। आरम्भिक परिस्थितियों से अन्तिम उपलब्धि तक क्रमिक गति से चलते हुए आकाश-पाताल जितना अन्तर उत्पन्न करने वाली घटनाएं तो अपनी आंखों के सामने ही असंख्यों देखी जा सकती हैं। इनका मूल कारण एक ही है—अन्तः क्षेत्र की प्रबल आस्था और प्रचण्ड आकांक्षा। इतना भर सार तत्व जहां भी होगा वहां विपरीत स्थितियां काई की तरह फटती चली जायेंगी। और टिड्डी दल की तरह परामर्शों, सहयोगों और अनुकूलताओं का समूह एकत्रित होता चला जायगा। पतित, सामान्य और महान जीवनों के अन्तरों में परिस्थिति नहीं मनःस्थिति ही आधारभूत कारण रही है। जीवन का स्वरूप इसी मर्म स्थल में निर्मित होता है और वहीं पर उगा बीज बड़ा होने पर जीवन के प्रस्तुत स्वरूप की तरह दिखाई पड़ता है।
अन्तःकरण के कठोर क्षेत्र को प्रभावित करने के लिए अध्यात्म विज्ञान का तत्व दर्शन और साधना उपचार ही प्रभावी सिद्ध होता है। योग साधना और तपश्चर्या का समूचा कलेवर इसी प्रयोजन के लिए विनिर्मित हुआ है। कठोर चट्टानें हीरे की नोंक वाले बरमे के अतिरिक्त और किसी औजार से छेदी नहीं जातीं। अन्तःकरण में जमी अवांछनीयता को निरस्त करके उत्कृष्टता की प्रतिष्ठापना के लिए अध्यात्म विज्ञान का ही सहारा लेना पड़ेगा। उसी विद्या में पारंगत इन्जीनियर अध्यात्मवेत्ता इस क्षेत्र की समस्याओं का समाधान कर सकेगा। विकृति विपन्नताओं के स्थान पर परिष्कृत परिस्थितियों की स्थापना यदि सचमुच ही अभीष्ट हो तो उसका हल अध्यात्म विद्या का अवलम्बन लिये बिना और किसी प्रकार निकलेगा नहीं। इस तथ्य को जितनी जल्दी समझा जा सके उतना ही दिशा निर्धारण और सार्थक श्रम करने में सुविधा रहेगी।
व्यक्ति निर्माण के लिए भौतिक उपायों की सार्थकता तभी है जब अन्तः कारण के स्तर में परिवर्तन हो—दृष्टिकोण सुधरे। यह कार्य प्रशिक्षण मात्र से नहीं हो सकेगा। आस्थाओं का स्पर्श आस्थाएं करती हैं। भावनाओं को भावनाओं से छुआ जाता है। कांटा कांटे से निकलता है, विष, विष से मारा जाता है। आस्था अन्तःकरण की अत्यन्त गहरी परतों में अपनी जड़ जमाये बैठी रहती हैं। उन तक पहुंचना और सुधार परिवर्तन करना सामान्य प्रयासों से सम्भव नहीं, उसके लिए उसी स्तर के प्रयत्न करने पड़ते हैं। इन में उपासनात्मक उपचारों के अतिरिक्त अन्य प्रयत्न अभीष्ट परिणाम उत्पन्न नहीं करते।
उपासना की प्रक्रिया को अन्तःकरण की वरिष्ठ चिकित्सा समझा जाना चाहिए। कुसंस्कारों की—कषाय कल्मषों की महा व्याधि से छुटकारा पाने के लिए यही रामबाण औषधि है। उच्चस्तरीय श्रद्धा का जागरण और वरिष्ठ निष्ठा का प्रतिपादन भगवद् भक्ति के सहारे ही सम्भव है। रक्त की शिराओं में दवा का प्रवेश कराने के लिए इन्जेक्शन की पोली सुई की जो भूमिका है वही कार्य उत्कृष्टता को अन्तःकरण की गहराई तक पहुंचाने में उपासना करती है।
पिछले दिनों उपासना के नाम पर भोंड़ा जाल जंजाल ही जनसाधारण के गले में बांध दिया गया है। देवताओं को फुसलाकर उचित अनुचित मनोकामनाएं पूरी कर लेने की आशा से ही ओछी बुद्धि के लोग पूजा पाठ करते पाये जाते हैं। यदि उन्हें उपासना का तत्वज्ञान और प्रतिफल ठीक तरह समझने का अवसर मिला होता और आत्म परिष्कार के उद्देश्य से जन साधारण को इस पुण्य प्रयोजन में लगाया गया होता तो स्थिति दूसरी ही होती। उपासना के माध्यम से आस्थाओं के उत्कर्ष का उद्देश्य ध्यान में रखा गया होता तो व्यक्तित्व निखरते परिष्कृत होते और प्रखर बनते। तब उपासना करने वाला भिक्षुक की नहीं वरन् दानी की स्थिति में होता। स्वयं पार होता और असंख्यों को अपनी नाव में बिठाकर पार करता। देवताओं के सामने उसे नाक रगड़ने की आवश्यकता न पड़ती वरन् स्वयं अपने आप में देवत्व का उदय-अवतरण देखता सम्पर्क क्षेत्र में स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न करता। प्राचीन काल में आत्म विज्ञान का यही स्वरूप था। ऐसी ही प्रखर उपासना का अभ्यास किया जाता था। आज फिर उसी तथ्य पूर्ण उपासना पद्धति से जन-जन को अवगत और अभ्यस्त कराने की आवश्यकता है।
वातावरण भी बदले
इसी प्रकार वातावरण के परिष्कार की बात भी ध्यान में रखनी होगी। व्यक्ति और परिवार दोनों में से किसी को गौण नहीं माना जा सकता। मुर्गी में से अण्डा उत्पन्न हुआ या अण्डे में से मुर्गी? इस प्रश्न का उत्तर क्या दिया जाय? बीज से पेड़ उपजा या पेड़ ने बीज पैदा किया? इसका भी कोई सीधा उत्तर नहीं है। नर से मादा की उत्पत्ति या मादा से नर की? इसका भी कोई सीधा समाधान नहीं हो सकता। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का युग्म एक दूसरे के साथ इस कदर गुंथा हुआ है कि दोनों को एक दूसरे का पूरक मानकर ही चलना पड़ता है। किसी को प्रमुख किसी को गौण कहने से व्यर्थ ही वितंडा बढ़ेगा। कौन प्रथम, कौन द्वितीय के झंझट में न पड़कर हमें इतना ही मान लेना चाहिए कि गाड़ी के दो पहियों की तरह एक दूसरे पर आश्रित हैं। अकेले दोनों ही अपूर्ण हैं। परस्पर संयुक्त होकर एक इकाई बनते हैं। पानी भी तो गैसों का सम्मिश्रण ही है। वे दोनों न मिलें तो पानी की उत्पत्ति ही न हो सकेगी।
वातावरण व्यक्ति को प्रभावित करता है या व्यक्ति से वातावरण बनता है यह प्रश्न भी लगभग इसी प्रकार का है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों से दोनों ही प्रभावित होते हैं। एक के निर्माण में दूसरे का इतना योगदान है कि दोनों को अन्योन्याश्रित ही कह सकते हैं। भले और बुरे व्यक्तियों के बाहुल्य से प्रशंसनीय और निन्दनीय युग-वातावरण बनता है, यह सत्य है, किन्तु यह भी मिथ्या नहीं कि वातावरण के प्रवाह में अधिकांश व्यक्ति जल-धारा में पड़े हुए तिनके की तरह बहते चले जाते हैं। मनस्वी प्रतिभाओं ने युग को बदला और पलटा है, यह सही है पर यह भी मिथ्या नहीं है कि वातावरण के सांचे में व्यक्तियों का समूह खिलौने की तरह ढलता चला जाता है। अनेक देशों क्षेत्र की—परिस्थितियां प्रथाएं मान्यताएं, रुचियां और संस्कृतियां भिन्न हैं। उनमें जो बालक उत्पन्न होते हैं वे वातावरण के प्रभाव से उसी प्रकार की मनोवृत्ति और प्रकृति अपनाते चले जाते हैं। उनके चिन्तन, स्वभाव और क्रिया कलाप लगभग वैसे ही होते हैं जैसे कि उस प्रदेश में रहने वाले लोगो के। बहुमत का दबाव पड़ता है। अल्प मत अनायास ही बहुतों का अनुकरण करने लगता है। समय का प्रभाव—युग का प्रवाह—इसी को कहते हैं। सर्दी गर्मी का मौसम बदलने पर प्राणियों के, वनस्पतियों के तथा पदार्थों के रंग ढंग ही बदल जाते हैं। गतिविधियों में ऋतु के अनुकूल बहुत कुछ परिवर्तन होते हैं।
विज्ञान वेत्ता जानते हैं कि पृथ्वी पर जो कुछ विद्यमान है और उत्पन्न उपलब्ध होता है, वह सब अनायास ही नहीं है और न उस सबको मानवी उपार्जन कह सकते हैं। यहां ऐसा बहुत कुछ होता रहता है जिसमें मनुष्य का नहीं वरन् सूक्ष्म शक्तियों का हाथ होता है। सूर्य पर दीखने वाले धब्बे उसकी स्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। उस परिवर्तन का पृथ्वी पर भारी असर पड़ता है। उनसे पदार्थों की स्थिति और प्राणियों की परिस्थिति में आश्चर्यजनक हेर फेर होते हैं विकरण चुम्बकीय, तूफान अन्धड़, चक्रवात किस प्रकार सामान्य परिस्थितियों को असामान्य बनाते हैं, यह सभी जानते हैं। अन्तरिक्षीय अदृश्य शक्ति वर्षा से कई बार धरती पर हिम-युग आये हैं जलप्लावन, समुद्री परिवर्तन और खण्ड प्रलय के दृश्य उपस्थित हुए हैं। भविष्य में पृथ्वी के पदार्थों अथवा प्राणियों की स्थिति में कोई असाधारण परिवर्तन हुआ तो उसका निमित्त कारण सामान्य घटना क्रमों में नहीं वरन् अन्तरिक्षीय अदृश्य हलचलों में ही पाया जायगा। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, शीत आधिक्य, महामारी आदि आधिदैविक विपत्तियों में मनुष्य अपने आपको निर्दोष एवं असहाय ही अनुभव करता है।
व्यक्ति अपने निजी जीवन में सर्वथा स्वतन्त्र और सशक्त है। इतना होते हुए भी विशाल ब्रह्माण्ड में गतिशील हलचलों और परिस्थितियों में उसका स्थान नगण्य है। सिर पर खड़े पानी से लदे बादल तक को वह बरसा नहीं सकता, मौत और बुढ़ापे को रोकने तक में असमर्थ है। परिस्थितियों पर उसका अधिकार नगण्य है। प्रवाहों में वह अपना यत्किंचित बचाव ही कर पाता है। सर्दी उसके बूते रुकती नहीं, कपड़े लाद कर आग ताप कर आत्म रक्षा भर में आंशिक सफलता पा लेता है।
स्पष्ट है कि वातावरण से मनुष्य प्रभावित होता है। अलग देशों के निवासी अपनी-अपनी परम्पराओं से प्रभावित होते हैं। प्रचलित ढर्रे के अन्तर्गत सोचते और जीवन यापन करते हैं। उसमें उनकी भौतिक प्रतिभा का नहीं वातावरण का प्रभाव ही प्रधान रूप से काम करता है।
यहां एक प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या मनुष्य वातावरण के सामने सर्वथा असहाय, असमर्थ है! उसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि सूक्ष्म प्रवाहों को प्रभावित करने—बदलने और अनुकूल करने की क्षमता मानवी चेतना में विद्यमान है। जीव ईश्वर का अंश है। मानवी चेतना, ब्रह्माण्डव्यापी चेतना का एक भाग है। अंश में अंशी की सारी विशेषताएं मूल रूप से विद्यमान रहती हैं और प्रयत्न पूर्वक वे मूल सत्ता के समान स्तर तक विकसित हो सकती हैं। बीज तुच्छ है किन्तु वह जिस पेड़ का अंश है उसी स्तर तक विकसित होने की संभावनाएं उसमें पूरी तरह विद्यमान हैं। बीज को अवसर मिले तो वह अपने मूल सत्ता वृक्ष के समान फिर विकसित हो सकता है। जीवात्मा की प्रखरता बढ़ती रहे तो उसकी विकास प्रक्रिया उसे महात्मा, व्यापकात्मा एवं परमात्मा बनने की स्थिति तक पहुंचा सकती है।
जड़ प्रकृति का वैभव विस्तार बहुत है। फिर भी उस पर नियन्त्रण चेतना का ही है। शरीर का अस्तित्व एवं क्रियाकलाप तभी तक है जब तक कि उसमें प्राण की सत्ता काम करती है। यह दृश्य संसार ब्राह्मी चेतना का कलेवर है। प्रकृति ब्रह्म की छाया मात्र है। ब्रह्म जगत ही वास्तविक जगत है। प्रकृति जगत की जड़ता पर चेतना की ब्रह्म सत्ता का ही नियंत्रण है। विकसित जीवात्मा ब्रह्म जगत से अपने आपको सम्बद्ध ही नहीं करते वरन् उसके साथ एकाकार होकर इतने सक्षम भी बन जाते हैं कि प्रकृति प्रवाह में आवश्यक हेर फेर कर सकें। वातावरण को प्रतिकूलता की अनुकूलता में बदल सकें। योगी और तपस्वी क्रमशः उसी स्थिति की ओर बढ़ने के लिए तप साधना का पुरुषार्थ करते हैं।
चेतना के संघात से वातावरण में वांछित परिवर्तन किये जाने संभव हैं। अदृश्य जगत में कई बार ऐसी प्रेरणाएं उभरती हैं जिनके आंधी तूफानों में मनुष्यों के मस्तिष्क पत्तों और तिनकों की तरह उड़ने लगते हैं। युद्धोन्माद ऐसे ही उभरते हैं। उन दिनों अधिकांश लोग लड़ने की आवश्यकता अनुभव करते और उसके लिए उतारू से दिखते है। एक अजीब सा आवेश छाया रहता है। कहने की आवश्यकता पड़ती है, न समझाने की। हवा में तेजी और गर्मी ही कुछ ऐसी होती है जिसके कारण सामान्य मस्तिष्क एक प्रकार से सम्मोहक स्थिति में रहता और प्रवाह में बहता दिखाई पड़ता है। बड़े युद्धोन्माद एवं स्थानीय दंगे फिसादों में वातावरण किस प्रकार उत्तेजित आतंकित होता है उसे जन मनोवृत्ति शास्त्र के अध्येता भली प्रकार जानते है। युद्धोन्माद की तरह ही समय समय पर दूसरे सूक्ष्म प्रवाह भी अपने अपने समय पर उभारते रहे हैं और असंख्य मस्तिष्कों को अपने साथ बहा ले जाने में आंधी तूफान का काम करते रहे हैं।
प्रजातन्त्र की लहर एक समय चली और उसने राजतन्त्र को संसार भर से उखाड़ फेंकने और उसके स्थान पर जनवादी सरकार बनाने का चमत्कार ही उत्पन्न कर दिया। एक लहर साम्यवाद की उठी। उसने रूस के नेतृत्व में से एशिया और योरोप के अनेक देशों को देखते देखते अपना अनुचर बना लिया। इन दिनों संसार भर के मनुष्यों में से प्रायः आधे लोग साम्यवादी विचारधारा के पक्ष में सोचते और उसको पूरा या अधूरा समर्थन देते हैं। इन प्रजातन्त्र और साम्यवाद के विचार प्रवाह को अपने युग की प्रचण्ड लहरों में गिन सकते हैं। अनुपयोगी लहरों में से अधिनायक वाद, जाति वाद, पूंजी वाद, साम्राज्य वाद, सामन्त बाद आदि भी समय समय पर अपना सिर उठाते और विग्रह उत्पन्न करते रहे हैं। लहर लहर ही है। ज्वार भाटा की भयंकरता समुद्र तट वासी समय समय पर देखते रहते हैं। कई तरह के विचार प्रवाह भी कई बार ऐसे आते हैं जो अपने साथ असंख्यों को समेटते घसीटते कहीं उठा कर उड़ा कर ले जाते हैं।
भगवान बुद्ध का धर्म चक्र प्रवर्तन साधन प्रधान नहीं प्रवाह प्रधान था। साधनों से प्रवाह उत्पन्न नहीं किया था। प्रवाह ने साधन खड़े कर दिये थे। हर्षवर्धन अशोक आदि राजाओं ने मिलकर बुद्ध को धर्म प्रचारक नियुक्त नहीं किया था। बुद्ध ने ही हवा गरम की थी और उसकी गर्मी से लाखों सुविज्ञ सुयोग्य और सुसम्पन्न व्यक्ति अपनी आत्माहुति देते हुए चीवर धारी धर्म सैनिकों की पंक्ति में अनायास ही आ खड़े हुए थे। धर्म प्रवर्तकों में से प्रत्येक ने अपने अपने समय में अपने अपने ढंग से वातावरण को गरम करके अपने समर्थन को भाव तरंगें उत्पन्न की हैं और उस प्रवाह में असंख्य व्यक्ति बहते चले गये हैं। पराधीनता पाश से मुक्त होने वाले देशों में भी आजादी की लहर बही और उसके कारण अनगढ़ ढंग से आन्दोलन फूटे तथा अपने लक्ष्य पर पहुंच कर रहे। अदृश्य और सूक्ष्म वातावरण के तथ्य तथा रहस्य को जो लोग जानते हैं वे समझते हैं कि इस प्रकार के प्रवाह कितने सामर्थ्यवान होते हैं। उनकी तूफानी शक्ति की तुलना संसार की और किसी शक्ति से नहीं हो सकती। रामायण काल के वानरों द्वारा जान हथेली पर रख कर जलती आग में कूद पड़ना जिस प्रवाह की प्रेरणा से संभव हुआ, उसका स्वरूप और महत्व यदि समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि जन समुदाय को किसी दिशा विशेष में घसीट ले जाने की सामर्थ्य सूक्ष्म वातावरण में भी इतनी है जिसे साधनों के सहारे खड़े किये गये आन्दोलनों से कम नहीं, अधिक शक्तिवान ही माना जा सकता है।
युग निर्माण योजना का एक पक्ष आन्दोलन परक है, जो एक शब्द में विचार क्रान्ति अभियान का वह स्वरूप है जिसकी रूपरेखा, जानकारी और प्रेरणा सर्व साधारण को बहुत समय से दी जाती रही है। जिसके लिए अपने परिवार द्वारा सामर्थ्य भर प्रयत्न किया जाता रहता है। दूसरा पक्ष प्रस्तुत प्रयोजन के लिए सूक्ष्म वातावरण में आवश्यक गर्मी और तेजी उत्पन्न करना है। जन समर्थन और जन सहयोग के लिए प्रचार साधनों पर उतना निर्भर नहीं रहा जा सकता जितना कि वातावरण के अनुकूलन पर। सूक्ष्म जगत का प्रवाह यदि सहयोगी बन रहा हो तो अभीष्ट प्रयोजन में सफलता प्राप्त करने की संभावना कहीं अधिक बढ़ जाती है। हवा का रुख पीठ पीछे से हो तो जलयानों वायुयानों से लेकर पैदल यात्रा तक में कितनी सुविधा होती है और मार्ग कितनी जल्दी कितनी सरलता से पूरा हो जाता है। वातावरण में विषाक्तता छा जाती है तो भयंकर महामारियों का प्रकोप होता है और देखते-देखते असंख्यों उससे आक्रांत होते मरते देखे जाते हैं। वातावरण में सर्दी गर्मी होने से प्राणियों को कांपते-हांफते देखा जाता है। घर में शोक का वातावरण हो तो असम्बद्ध लोग भी उससे प्रभावित होते है। मन्दिरों और कसाई घरों के वातावरण का अन्तर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। अध्यात्म विद्या में सूक्ष्म जगत का, सूक्ष्म वातावरण का महत्व इस संसार के समस्त साधनों में सर्वोपरि माना गया है। युग परिवर्तन के लिए हमें वातावरण के अनुकूलन के लिए अध्यात्म विज्ञान के अनुरूप प्रचण्ड प्रयास करने होंगे। इतना बड़ा कार्य उसी दिव्य शक्ति के माध्यम से सम्पन्न हो सकेगा।
विशिष्ट आध्यात्मिक उपचारों की प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न करके भी वातावरण बदला जा सकता है। प्रखर प्रतिभाएं अपनी प्राण शक्ति से युग को बदलती हैं। अवतारी महा मानव समय के प्रवाह को उलटते हैं। ठीक इसी प्रकार तप साधना की चेतनात्मक प्रचण्ड ऊर्जा सूक्ष्म जगत् को परिष्कृत करके उसे इस योग्य बना सकती है कि सुख शान्ति की परिस्थितियां उत्पन्न होने लगें और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएं दैवी अनुग्रह की तरह उमड़ती उभरती चली आयें। व्यक्ति विशेष की तपश्चर्या और सामूहिक अध्यात्म साधना के यदि प्रबल प्रयास हो सकें तो वातावरण बदलने के चमत्कार उत्पन्न हो सकते हैं।
सूक्ष्म वातावरण का परिशोधन करने के लिए अध्यात्म विज्ञानियों द्वारा कतिपय दिव्य उपचार समय-समय पर किये गये हैं। इसके प्रमाण शास्त्रों में मिलते हैं। रावण काल के विक्षुब्ध वातावरण को समाहित करने का कार्य लंका विजय के उपरान्त भी शेष रह गया था। भगवान राम ने दशाश्वमेध घाट पर दश अश्वमेधों की संकल्प शृंखला पूरी की थी। कंस, दुर्योधन, जरासन्ध जैसे असुरों के न रहने पर भी महाभारत काल के विक्षोभ वातावरण में भरे रहे। भगवान कृष्ण ने उनका समाधान आवश्यक समझा और पाण्डवों से राजसूय यज्ञ कराया। महर्षि विश्वामित्र अपने समय की असुरता को दुर्बल बनाने के लिए जो वृहद यज्ञ रच रहे थे उसका पता असुरों को चल गया और वे ताड़का, सुबाहु, मारीच के नेतृत्व में उसे नष्ट करने के लिए आक्रमण करने लगे। राम और लक्ष्मण को यज्ञ की रक्षा के लिए जाना पड़ा था। ऐसे समाधान उपचारों में यज्ञ प्रक्रिया का बहुत महत्व रहा है। यज्ञों में अग्निहोत्र की तरह ही जप यज्ञ भी है अग्निहोत्र में साधन चाहिए पर जप यज्ञ व्यक्तिगत साधना से भी सम्पन्न हो सकता है। यज्ञ तो सामूहिक होते ही हैं। उससे होताओं को सम्मिलित साधना का चमत्कार देखने को मिलता है। जप यज्ञ को जब अनेक जपकर्ता संकल्प पूर्वक समाहित होकर करते हैं तो उससे भी सम्मिलित शक्ति उत्पन्न होती है। ऐसी सामूहिक साधनाएं पुरश्चरण कहलाती हैं। तपश्चर्या युक्त सामूहिक संकल्पों के द्वारा विशिष्ट उद्देश्य के लिए किये गये पुरश्चरण भी वातावरण में अभीष्ट अनुकूलता उत्पन्न करते हैं।
वैयक्तिक विशिष्ट तपश्चर्याएं अपना कर आत्म विकास और व्यापक परिस्थितियों में उपयोगी परिवर्तन करने का प्रयत्न करते हैं। हिमालय पर अभी भी ऐसी दिव्य आत्माएं विशिष्ट तप साधना में संलग्न हैं और समय समय पर अपनी आत्मिक क्षमता से वातावरण के अनुकूलन का यथा संभव प्रयत्न करती हैं। हम समझ भले ही न पावें पर उसका उपयोगी लाभ मिलता है। यदि ऐसा न होता तो वातावरण की विकृति बढ़ते बढ़ते इस स्थिति पर पहुंच गयी होती कि महा विनाश के अतिरिक्त यहां कुछ भी दिखाई न देता। श्रेष्ठता का जो प्रकाश इन दिनों दिखाई देता है वह आसुरी आक्रमणों से कब का विलुप्त हो गया होता। विविध साधकों को उनकी सामर्थ्य के अनुरूप अतिरिक्त रूप से भागीरथ तप साधन के संकल्प सौंपे गये हैं। ब्रह्मवर्चस आरण्यक का हिमालय और गंगा के संगम पर बना विशिष्ट संस्थान तो ऐसे ही व्यापक तप साधना के सूत्र संचालन का केन्द्र बिन्दु है जहां से असंख्यों तपस्वी प्रकाश, प्रोत्साहन, मार्ग दर्शन एवं सहयोग प्राप्त करेंगे। इस व्यापक तप साधना को रावण काल में ऋषियों के रक्त घट एकत्रित करके सीता की असुर निकन्दिनी शक्ति के समतुल्य समझा जा सकता है। देवताओं की संयुक्त शक्ति से सम्पन्न हुए दुर्गावतरण की इसे पुनरावृत्ति कह सकते हैं। भागीरथ, ध्रुव, च्यवन और प्रह्लाद की परम्परा को पुनर्जीवित करने का इसे आधुनिक प्रयत्न कह सकते हैं।
सामूहिक उपासना की शक्ति भी असामान्य है। वैयक्तिक एकांकी प्रयत्नों की अपेक्षा सम्मिलित प्रयत्नों का प्रतिफल कितना चमत्कारी होता है इसका परिचय हर किसी को है। संसार में समस्त प्रगति प्रयास मिल जुल कर किये जाने वाले परिश्रम के फलस्वरूप ही सफल हो पा रहे हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यही लक्ष्य पूरी तरह काम करता है। एक समय पर एक विधि से एक लक्ष्य के लिए एक जैसी मनःस्थिति के व्यक्ति यदि मिल जुल कर किसी विशिष्ट उपासना में संलग्न हों तो उस प्रयास के आकार विस्तार के अनुपात में ऐसे प्रभाव परिणाम उत्पन्न होते हैं जो वातावरण के अनुकूलन में महत्वपूर्ण योगदान कर सकें।
इस प्रकार के अनेक सफल प्रयोग विशाल स्तर पर युग निर्माण योजना के अन्तर्गत किये जा चुके हैं। जन मानस के परिष्कार के लिए जहां विचार क्रान्ति अभियान एवं रचनात्मक सत्-प्रवृत्तियों के सम्वर्धन के प्रयास किये जाते रहे हैं वहां सामूहिक साधना उपासना का क्रम भी चलता रहा है। सामान्य रूप से चलने वाली उपासनात्मक प्रक्रिया भी कम प्रभावकारी नहीं है, उसे भी प्रत्यक्ष अनुभव किया जा रहा है। फिर जब-जब समय-समय पर विशेष उपासना अभियान चलाए गये हैं, तब तब उनका जादू सिर चढ़कर बोलने लगा तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। उनमें से कुछ प्रसंग, जिनका प्रभाव पुराने सम्पर्क के परिजन भली प्रकार देख चुके हैं, इस प्रकार है :—
रूढ़िवादी प्रतिगामी मान्यताओं के बीच गायत्री साधना एवं यज्ञ प्रक्रिया को जन सुलभ बनाने के लिए किया गया ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान एवं 2400 करोड़ मन्त्र लेखन की साधना। विदेशी आक्रमणों के समय तथा बंगला देश गृह युद्ध के अवसर पर जन मनोबल जागरण के महा पुरश्चरण। साधना स्वर्ण जयन्ती के संदर्भ में हुए 2400 करोड़ गायत्री जप का महा अनुष्ठान। उन सभी के प्रत्यक्ष प्रभाव मिशन से सम्बद्ध व्यक्ति भली प्रकार देख चुके हैं। अस्तु नवयुग अवतरण के लिए सामूहिक उपासना प्रक्रिया को गतिशील बनाना हर प्रकार उचित एवं आवश्यक है।
युग निर्माण परिवार के संगठन इस दिशा में प्रयासरत रहते हैं—फलस्वरूप उसके परिणाम भी उत्साह-जनक रूप से सामने आ रहे हैं। उपासना का व्यवस्थित क्रम हर जगह सदस्य चालू रखते ही हैं। प्रति सप्ताह, प्रति माह एवं पर्वों पर सामूहिक उपासना का क्रम विशेष रूप से चलाया जाता है। यह क्रम कितना लोकप्रिय हो गया है इसका अनुमान इसी से लग जाता है, कि केवल 77 आश्विन की नवरात्रि में ही 240 करोड़ गायत्री जाप का पूरा लक्ष्य पूरा कर लिया गया। जन साधारण को इस दिशा में और अधिक प्रोत्साहन देकर दिव्य चेतना का वह प्रखर प्रवाह पैदा किया जा सकता है जिसके द्वारा नवयुग का अवतरण सम्भव हो सके।
उपासना का महत्व और दर्शन
मानवी सत्ता के दो पक्ष हैं एक भौतिक दूसरा आत्मिक। भौतिक पक्ष में शरीर और उसकी विभिन्न आवश्यकताएं जुटाने वाला परिवार आता है। इसकी निर्वाह व्यवस्था के लिए सुविधा साधनों का उपार्जन करना पड़ता है। इस संदर्भ में अनेकों से सम्पर्क हो सकता है। यह सम्पर्क सरलता पूर्वक चलता रहे, टकरावों का समाधान निकलता रहे इस उद्देश्य के लिए बनी व्यवस्थायें समाज मर्यादाएं कहलाती हैं। इनका पालन किये बिना सहयोग सम्बन्ध टिक नहीं सकते। असहयोग के वातावरण में उपार्जन व्यवहार कठिन हो जाता है, उपार्जन न हो तो परिवार का निर्वाह कैसे बने? परिवार न हो तो शरीर यात्रा की सरलता कैसे रहे? इसी ताने बाने को बुनने में, उलझनों को सुलझाने में, सुविधा संवर्धन का सरंजाम जुटाने में लगने वाले प्रयासों को भौतिक जीवन कहा जाता है। जीवन में शरीर पक्ष का अपना महत्व है। शरीर रखना है तो उसके साथ जुड़ी भौतिक आवश्यकताएं भी किसी न किसी रीति से जुटानी पड़ती हैं। शरीर की संरचना पंच तत्वों से हुई है। इसलिए उसका निर्वाह भौतिक पदार्थों से अन्य प्राणियों के शरीर सहयोग से ही सम्भव होता है। इस क्षेत्र की समस्याओं को समझना और आवश्यकताओं को जुटाना आवश्यक है। इस आवश्यकता को सभी समझते हैं और उसकी पूर्ति के लिए अहर्निश प्रयत्न भी करते हैं।
जीवन का दूसरा पक्ष है—आत्मिक। जीव चेतना का अपना अस्तित्व है। शरीर उसका वाहन उपकरण निवास गृह है। मनुष्य आत्मा है। उसे यह जीवन आत्मिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ईश्वर के विशेष अनुग्रह के रूप में मिला है विशेष अनुग्रह इसलिए कि सृष्टि के अन्य किसी प्राणी को वे सुविधाएं नहीं मिली हैं जो मनुष्य को प्राप्त है। मोटी दृष्टि से देखने में इसमें पक्षपात और अन्याय प्रत्यक्ष ही दिखाई पड़ता है। जब सभी प्राणी ईश्वर के पुत्र हैं तो सभी को एक जैसी सुविधायें मिलनी चाहिए थी। फिर अन्य जीवों को शरीर यात्रा भर की सुविधा देकर पीछा छुड़ा लिया गया और मनुष्य को इतनी सुविधाओं से लाद दिया गया जिन्हें इन प्राणियों की दृष्टि से वैसी ही ठहराया जा सकता है जैसा कि हम स्वर्ग में रहने वाले देवताओं की विभूतियों के सम्बन्ध में कल्पना करते हैं। निश्चय ही मनुष्य जीवन को दिव्य अनुदान ईश्वर ने विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विशुद्ध धरोहर के रूप में प्रदान किया है।
मनुष्य जीवन के दो लक्ष्य हैं (1) संग्रहीत कुसंस्कारों और कषाय कल्मषों से छुटकारा पाना और परिष्कृत दृष्टिकोण अपनाकर विश्व उद्यान का परिपूर्ण आनन्द उपलब्ध करना। परिष्कृत जीवन के साथ जुड़ी हुई आनन्द भरी उपलब्धियां स्वर्ग कहलाती हैं और दुर्बुद्धि से दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने को मुक्ति कहते हैं। जीवन का एक लक्ष्य यह है।
(2) दूसरा है भगवान के विश्व उद्यान को अधिक सुरम्य, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने में संलग्न होकर अपनी गरिमा को विकसित करना। मनुष्य को ईश्वर का राजकुमार उत्तराधिकारी एवं पार्षद कहा गया है और उसके कन्धों पर यह उत्तरदायित्व डाला गया है कि सृष्टा के विश्व उद्यान का सौन्दर्य बढ़ाने में हाथ बटाये और सच्चे मित्र-भक्त की भूमिका सम्पन्न करें।
इन दोनों प्रयोजनों को जो जितनी मात्रा में पूरा करता है वह उतना ही बड़ा ईश्वर भक्त कहलाता है। उस मार्ग पर चलने वाले महा मानव सन्त, ब्राह्मण, ऋषि, देवात्मा, अवतारी आदि नामों से पुकारे जाते हैं। उन्हें असीम आत्म सन्तोष प्राप्त होता है और लोक सम्मान एवं सहयोग की वर्षा होने से उन्हें अपने उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति में असाधारण सफलता भी मिलती है। उनके क्रिया कृत्य ऐतिहासिक होते हैं और उनके प्रभाव से असंख्यों को ऊंचा उठने का आगे बढ़ने का असाधारण सहयोग मिलता है। धन सम्पत्ति कमाना जब लक्ष्य ही नहीं वैयक्तिक तृष्णाओं से जब उपराम ही पा लिया गया तो फिर उनका संचय न होना स्वाभाविक ही है। वैभव की दृष्टि से सम्पन्न होने की जब वे इच्छा ही नहीं करते तो फिर धनवान वे बनेंगे भी कैसे? इतने पर भी उनकी आन्तरिक सम्पन्नता इतनी बढ़ी चढ़ी होती है कि अपनी नाव पार लगाने के साथ असंख्यों को उस पर बिठा कर पार लगा सकें। ईश्वर का असीम अनुग्रह और अनुदान ऐसे ही लोगों के लिए सुरक्षित रहा है। लोक और परलोक का बनाना इसी को कहते हैं। मनुष्य जीवन इसी स्थिति को प्राप्त करने के लिए मिला है। जो इसके लिए प्रयत्न करते हैं उन्हीं का नरजन्म धारण धन्य एवं सार्थक बनता है वे ही इस सुर दुर्लभ उपलब्धि का रसास्वादन करते हुए कृत कृत्य होते हैं। जो इस मार्ग पर जितना बढ़ सका समझना चाहिए कि उसने उतनी ही मात्रा में लक्ष्य को प्राप्त करने में सफलता पा ली।
हम बुद्धिमान सिद्ध हों
बुद्धिमत्ता इस बात में थी कि आत्मा और शरीर दोनों की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता। श्रम और बुद्धि की जो सामर्थ्य प्राप्त है उनका उपयोग दोनों क्षेत्रों के लिए इस प्रकार किया जाता कि शरीर की सुरक्षा बनी रहती और आत्मा अपने महान लक्ष्य को प्राप्त कर सकने में सफल हो जाती। किन्तु होता विचित्र है। जो बुद्धि आये दिन अनेक समस्याओं के सुलझाने में सम्पदाओं और उपलब्धियों के उपार्जन में पग पग पर चमत्कार दिखाती है वह मौलिक नीति निर्धारण में भारी चूक करती है। सारे का सारा कौशल शारीरिक सुख सुविधाओं के संचय सम्वर्धन में लग जाता है। यहां तक कि अपने आपको पूरी तरह शरीर ही मान लिया जाता है। आत्मा के अस्तित्व एवं लक्ष्य का ध्यान ही नहीं रहता है, आत्म कल्याण के लिए कुछ सोचते करते बन ही नहीं पड़ता। बुद्धि का यह एक पक्षीय असंतुलन ही जीवात्मा का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। उसी से छुटकारा पाने के लिए ब्रह्म-ज्ञान, आत्म-ज्ञान, तत्व-ज्ञान के विशालकाय कलेवर की संरचना की गयी है। बुद्धि को आत्मा का स्वरूप और लक्ष्य समझने का अवसर देना ही उपासना का मूल भूत उद्देश्य है। चौबीसों घण्टे मात्र शरीर के लिए ही शत प्रतिशत दौड़ धूप करने वाली भौतिकता में पूरी तरह रंगी हुई और लगी हुई बुद्धि को कुछ समय उस भगदड़ से विश्राम देकर आत्मा की स्थिति और आवश्यकता समझने के लिए सहमत किया जाता है। उस अति महत्व पूर्ण पक्ष की उपेक्षा न करने उस सन्दर्भ में भी कुछ करने के लिए बुद्धि पर दबाव दिया जाना उपासना का तात्विक उद्देश्य है। मन को तदनुसार कल्पनायें और बुद्धि को तद् विषयक धारणायें करने के लिए उपासना पद्धति के आधार पर प्रशिक्षित किया जाता है। वह एक बहुत बड़ा काम है। सांसारिक-जीवन के सबसे बड़े और सबसे महत्वपूर्ण कामों में से यह एक है। मोटी समझ से तो उसकी तात्कालिक उपयोगिता प्रतीत नहीं होती और कोई आकर्षण न होने से मन भी नहीं लगता पर विवेक दृष्टि से देखने पर जब उस कार्य की महत्ता समझ आ जाती है तब प्रतीत होता है कि यह इतना लाभदायक, उत्पादक, आकर्षक और महत्वपूर्ण कार्य है जिसकी तुलना संसार के अन्य किसी कार्य से हो नहीं सकती।
शरीर को सुख साधन मिलते रहे, उसे पद और यश का लाभ मिला सो सही, पर शरीर ही तो सब कुछ नहीं है। आत्मा तो उससे भिन्न है। आत्मा के उपेक्षित स्थिति में पड़े रहने की दयनीय स्थिति ही बनी रही तो यह तो ऐसा ही हुआ जैसा मालिक को भूखा रखकर मोटर की साज सज्जा में ही सारा समय, धन और मनोयोग लगा दिया जाय। इस भूल का दुष्परिणाम आज तो पता नहीं चलता पर तब समझ में आता है तब जीवन सम्पदा छिन जाती है। भगवान के दरबार में उपस्थित होकर यह जवाब देना पड़ता है कि इस सुर दुर्लभ उपहार को जिन दो प्रयोजनों के लिए दिया गया वे पूरे किये गये या नहीं। यदि नहीं तो इसका दण्ड एक ही हो सकता है कि फिर भविष्य में वह उत्तरदायित्व पूर्ण अवसर न दिया जाय और पहले की ही तरह तुच्छ योनियों के लम्बे चक्र में भटकने दिया जाय। मनुष्यों में से अनेकों को इसी लम्बी दुर्गति में फंसना पड़ता है और अपनी भूल पर पश्चाताप करना पड़ता है कि जब अवसर था तब हम गहरी नींद में पड़े रहे—इन्द्रियों की वासना और मन की तृष्णा के नशे में इस कदर छाये रहे कि लोभ और मोह के अतिरिक्त और कुछ सूझ ही नहीं पड़ा। यदि समय रहते आंख खुली होती तो कृमि कीटकों का सा पेट और प्रजनन के लिए समर्पित जीवन जीने की भूल न की गयी होती। शरीर के अतिरिक्त आत्मा भी जीवन का एक पक्ष है और उसकी भी कुछ आवश्यकताएं हैं जिस पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने के लिए जो समय निकाला जाता है—प्रयत्न किया जाता है उसी को उपासना प्रक्रिया कहते हैं। आत्मा का स्वार्थ ही वास्तविक स्वार्थ है। उसी को परमार्थ कहते हैं। परमार्थ का चिन्तन उसके लिए बुद्धि का उद्बोधन प्रशिक्षण जिन क्षणों में किया जाता है वस्तुतः वे ही सौभाग्य भरे और सराहनीय क्षण हैं। यदि इस दृष्टि का उदय हो सके तो उपासना को नित्य कर्मों से सबसे अधिक आवश्यक अनिवार्य स्तर का कार्य माना जायगा। वास्तविक स्वार्थ साधना के क्षण वही तो होते हैं।
भौतिक जगत में शरीर के लिए आवश्यक सुविधा साधन भरे पड़े हैं उन्हें उपलब्ध कराने के लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है। ठीक उसी प्रकार एक चेतन जगत भी है। उसमें भरी हुई सम्पदा आत्मिक आवश्यकताओं को पूरा करती है। शरीर पंच तत्वों का बना है उसकी आवश्यकता भौतिक पदार्थों की होती है। सम्बन्धियों के शरीर भी भौतिक हैं। पदार्थों की तरह प्राणियों के शरीर भी जड़ तत्वों से ही बने हैं। जड़ का काम जड़ से चलता है किन्तु चेतना की आवश्यकता पूरी करने वाली वस्तु इस प्रत्यक्ष जगत में कहीं भी नहीं है। उसे उपलब्ध करने के लिए चेतन जगत को सूक्ष्म जगत से ही सम्बन्ध साधना पड़ता है। उपासना के क्षणों में इसी के लिए पुरुषार्थ किया जाता है।
प्रत्यक्ष जगत में जड़ पदार्थ भरा पड़ा है। इसमें एक भाग वह है जो स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। दूसरा वह जो बिजली, विकरण, ईश्वर ऊर्जा तरंग आदि के रूप में अदृश्य रूप से विद्यमान है। परोक्ष जगत में चेतना का महा समुद्र भरा पड़ा है। उसमें प्रवेश कर सकें डुबकी मारकर रत्नराशि खोज सकना संभव हो सके तो उससे इतनी विभूतियों का संचय किया जा सकता है, जिसकी तुलना में जड़ जगत की संपदाएं नितान्त तुच्छ ठहरती हैं। महा मानवों और आत्म बल सम्पन्न महात्माओं का आन्तरिक वैभव इतना बढ़ा चढ़ा होता है कि वे अपनी नाव पार लगाने के साथ-साथ असंख्यों को अपने प्रकाश एवं सहयोग से पार करते हैं। आत्म शक्ति सम्पन्न व्यक्ति अपनी विभूतियों को लोक हित में लगाने का विवेक जागृत रहने के कारण स्वयं संयम बरतते देखे जाते हैं, इतने पर भी वे दरिद्र नहीं होते। उनके उपार्जन-वैभव का लाभ समस्त संसार उठाता है। स्वयं भी लक्ष्य प्राप्त करते हुए कृत्य कृत्य बनते ही हैं।
सूक्ष्म जगत ब्राह्मी चेतना से भरा हुआ है। जिस प्रकार पदार्थ का आकार भार और गुण होता है उसी प्रकार विश्व व्यापी ब्रह्म चेतना में सत् चित् और आनन्द का भण्डार भरा पड़ा है। जीव का साधारणतया ब्रह्म के साथ इतना ही सम्बन्ध रहता है कि किये हुए कर्मों की प्रतिक्रिया सुख और दुख के रूप में प्राप्त होती रहे। उत्पादन अभिवर्धन और परिवर्तन का क्रम चलता रहे। ईश्वर का प्राणियों के साथ सामान्य तथा इतना ही सम्बन्ध रहता है जिससे सृष्टि का स्वाभाविक क्रम चलता रहे और मर्यादा पालन का—सन्तुलन की व्यवस्था में व्यतिरेक न होने पाये। इससे अतिरिक्त अधिक गहरा संबन्ध बनाना हो तो उसके लिए कुछ विशेष प्रयत्न पुरुषार्थ करने पड़ते हैं। उपासना को इसी स्तर की चेष्टा कह सकते हैं।
नागरिक कर्तव्यों के नाते सब मनुष्य सभी के साथ कर्तव्य पालन की सामान्य श्रृंखला में बंधे हुए हैं किन्तु मैत्री के आधार पर जिनसे घनिष्ठता के बन्धन बंध जाते हैं उनमें आदान प्रदान का अधिक गहरा क्रम चल पड़ता है। सरकार के साथ प्रत्येक प्रजाजन राष्ट्रीय कर्तव्यों की सूत्र-शृंखला में बंधा है पर जब सरकार के कामों में उसके अभीष्ट प्रयोजनों में जब अधिक सहयोग दिया जाता है तो शासन की ओर से भी अधिक सहयोग अनुदान एवं पुरस्कार मिलता है। ब्रह्म तत्व के साथ सघनता स्थापित कर लेने पर उस क्षेत्र में भरी पड़ी उन मंगलमयी विभूतियों का लाभ मिलता है, जिन्हें व्यक्ति में देवत्व के उदय के रूप में देखा जा सकता है। उसके सम्पर्क में स्वर्गीय परिस्थितियां बिखरी दृष्टिगोचर होती हैं।
आत्मिक सम्पदा का अर्जन
भौतिक सम्पदाओं का हर व्यक्ति सीमित मात्रा में ही उपयोग कर सकता है चाहे वे कितनी ही बड़ी मात्रा में संचित क्यों न कर ली जायें। वे दूसरों को ही चमत्कृत करती हैं पर अपने लिये तो उपार्जन और संरक्षण के दबाव को देखते हुए भारी ही पड़ती हैं। आत्मिक सम्पदाओं के बारे में ऐसी बात नहीं है। वे चिरस्थायी होती हैं व्यक्तित्व का अंग बनती हैं जन्म-जन्मान्तरों तक साथ जाती हैं। ब्रह्म चेतना के साथ सम्पर्क साधकर मनुष्य जिन विभूतियों को प्राप्त करता है उनसे व्यक्तित्व का स्तर बहुत ऊंचा उठ जाता है। गुण कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता बढ़ती है दृष्टिकोण व व्यवहार में श्रेष्ठता की मात्रा बढ़ती है। फलतः सम्पर्क क्षेत्र में स्नेह, सम्मान और सहयोग की असाधारण वर्षा होने लगती है। जन सहयोग से भौतिक सफलताओं का द्वार खुलता है। आत्म संतोष और आत्म गौरव का अनुभव भी इन्हीं परिस्थितियों में होता है। उपासना यदि सही सिद्धान्तों को समझते हुए सही आधार को अपनाते हुए की जा सके तो उसके प्रत्यक्ष सत्परिणाम हर किसी को मिल सकते हैं। आत्मिक विभूतियों की और मौलिक सम्पदाओं की कमी नहीं रहती। इस दिशा में कदम बढ़ाने वाले के लोक और परलोक दोनों ही बनते हैं।
सृष्टि में परमार्थ की मात्रा प्रचुर परिमाण में विद्यमान है पर उसे प्राप्त करने के लिए उपायों-उपकरणों की आवश्यकता होती है। जमीन से अन्न उपजाने, पशुओं से दूध निकालने, धातु से औजार बनाने, कुंए से जल निकालने, अन्न से भोजन बनाने के लिये श्रम साधन और बुद्धि तीनों का उपयोग करना पड़ता है। इनके बिना सारे साधन सामने प्रस्तुत रहने पर भी कोई लाभ न उठाया जा सकेगा। ब्रह्म सत्ता सर्वत्र विद्यमान है पर उसकी अभीष्ट मात्रा पकड़ने, भीतर धारण करने और प्रयोग में लाने के लिए भी पुरुषार्थ करना पड़ता है। उसी प्रयत्न पुरुषार्थ को उपासना कहा गया है। बिजली घर में बिजली बनती है। वहां से अपने घर के बल्ब तक उस धारा को जोड़ने के लिए तारों का फिटिंग करना पड़ता है, खम्भे, इन्सुलेटर, स्विच प्लग लगाने पड़ते हैं। यदि संबन्ध कटा रहे तो बल्ब को बिजली की शक्ति का लाभ मिलने और प्रकाशित होने का अवसर ही न मिलेगा। उपासना प्रक्रिया को ईश्वर और जीव के बीच विशिष्ट आदान प्रदान का द्वार खोल देना कह सकते हैं।
चुम्बकत्व जहां होता है वहां सजातीय पदार्थ खिंचते चले आते हैं। वृक्षों का चुम्बकत्व बादलों को बरसने के लिए बाध्य करता है। धातुओं में काम करने वाला चुम्बकत्व दूर-दूर तक रेत में बिखरे पड़े धातु कणों को घसीट कर अपने पास बुलाने और जमा करने का काम करता है। फूल का आकर्षण मधुमक्खियों तितलियों को जमा कर लेता है। उपासना से अन्तः चेतना में उच्चस्तरीय आकर्षण उत्पन्न होता है। उससे ब्रह्म चेतना के महा समुद्र में से अपने लिए आवश्यक विभूतियों को आकर्षित कर लेने में सफलता मिलती है। उपासना प्रक्रिया का तात्विक रहस्य अन्तःचेतना को परिष्कृत करना है। भजन के साबुन से अन्तःकरण पर जमे हुए कषाय-कल्मषों दोष दुर्गुण कुसंस्कारों का परिशोधन होता है। स्वच्छ वस्त्र पर रंगाई करने में कुछ कठिनाई नहीं होती। स्वच्छ दर्पण सामने होने से आकृति स्पष्ट दीखती है। उपासना से आन्तरिक स्वच्छता का उद्देश्य पूरा होता है और उस पर आराध्य परब्रह्म का प्रतिबिम्ब स्पष्ट दीखने लगता है।
व्यक्तियों की गतिविधियां जब श्रेष्ठता से समन्वित रहती हैं तो उनके श्रम, समय, मनोयोग एवं साधनों का उपयोग सत्प्रयोजनों में होता है, फलतः सुखद परिस्थितियां बढ़ती जाती हैं। निरर्थक कार्यों में लगने से पिछड़ेपन की और अनर्थ कार्यों से अधःपतन की परिस्थितियां बनती हैं। जब जन प्रवाह पतनोन्मुख होता है तो स्वभावतः अभाव, संकट एवं विद्रोह बढ़ते हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया का कुचक्र चलता है और बुरे युग के—पाप युग, नरक युग के समस्त लक्षण सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। सत्प्रयत्नों के सत्परिणाम तो स्पष्ट ही हैं। धर्मराज्य, रामराज्य, सतयुग आदि ऐसे ही समय को कहा जाता है। युग कैसा है? कैसा होगा? इन प्रश्नों का उत्तर पर्यवेक्षण करके दिया जा सकता है कि लोग क्या कर रहे हैं और क्या करने की तैयारियों में लग रहे हैं।
कल कारखाने जब विषैला धुंआ छोड़ते हैं तो वायु मंडल में प्रदूषण भर जाता है। उससे सांस लेने में घुटन अनुभव होती है, और स्वास्थ्य बिगड़ता है। मोटरों का धुंआ और शोर वायुमण्डल को विषैला करता है और उससे जन स्वास्थ्य को ही नहीं इमारतों को भी क्षति पहुंचती है। इस तथ्य को सभी जानते हैं। मनुष्यों को भी मोटरों और कारखानों के समतुल्य समझा जा सकता है। उनके कुविचार और कुकर्म बढ़ने लगें तो वातावरण में भावनात्मक विषाक्तता उत्पन्न होना स्वाभाविक है। उसका प्रतिफल व्यापक रूप से दुखद दुर्घटनाओं के रूप में परिलक्षित होता है। यही कलियुग है। चन्दन वृक्ष सुगन्धित होते हैं, उन्हें छूकर जो पवन चलता है वह दूर-दूर तक सुवास बखेरता है। पुष्प वाटिकायें भी अपने समीपवर्ती क्षेत्र में सुगन्धित और जीवन दायिनी प्राण वायु बखेरती हैं। सज्जनों को चन्दन वृक्ष और पुष्प पादपों की संज्ञा दी जा सकती है। वे स्वयं तो आन्तरिक प्रसन्नता और साथियों की सद्भावना से सुखी सन्तुष्ट रहते ही हैं, अपनी गरिमा का उपहार सारे वातावरण को प्रदान करते हैं। कीचड़ और कूड़े के ढेर से—सड़े नाले से बदबू उठती है, विषाणु बढ़ते हैं, कुरुचिपूर्ण वातावरण बनता है और बीमारियां फैलती हैं। मनुष्यों के व्यक्तित्व यदि सड़े नाले और कूड़े के ढेर जैसे बने रहें तो उनकी विकृतियां उन अकेले को ही कष्ट नहीं देंगी वरन् समूचे वातावरण में अवांछनीय विक्षोभ उत्पन्न करेंगी, यही कलियुग का—पाप युग का स्वरूप है। युगों के भले बुरे होने में व्यक्तियों का स्तर ही प्रधान कारण होता है। उनका दृष्टिकोण और क्रिया कलाप यदि हेय स्तर का होगा तो न केवल मनुष्यकृत संकट बढ़ेंगे, वरन् प्रकृति प्रदत्त विपत्तियां भी बरसेंगी। अणु विस्फोट की धूलि आकाश में छा जाती है और वह जैसे-जैसे जहां-जहां जितनी जितनी मात्रा में नीचे गिरती है, वैसे वैसे वहां वहां उस विष वर्षा से असंख्य प्रकार से संकट उत्पन्न होते हैं। ठीक इसी प्रकार जन समूह के द्वारा अपनाई गई दुष्प्रवृत्तियां अपनी प्रतिक्रिया से समूचे वातावरण में ऐसे ही विषाक्तता उत्पन्न करती हैं जो सब के लिए सब प्रकार दुखदायी परिस्थितियां ही उत्पन्न करती चली जाती है।
विषाक्तता से वायुमण्डल का दूषित होना पदार्थ विज्ञान के आधार पर स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। अध्यात्म विज्ञान के आधार पर यह जानने में भी कठिनाई न होनी चाहिए कि दुष्प्रवृत्तियों के कारण प्रकृति का सूक्ष्म अन्तराल विक्षुब्ध होता है और उसकी प्रतिक्रिया ऐसी व्यापक परिस्थितियों के रूप में बरसती है जिनसे संसार को संकटों का सामना करना पड़े। प्रकृति प्रकोप की दुर्घटनाएं ऐसे ही विक्षुब्ध वातावरण की देन हैं। आवश्यक नहीं कि जहां के लोगों की दुष्प्रवृत्तियां हों वहीं बरसें। सूर्य की गर्मी से समुद्र में बादल उत्पन्न होते हैं, आवश्यक नहीं कि वे समुद्र में ही बरसे। वे कहीं भी जाकर बरस सकते हैं। जब सारी धरती और सारा आसमान एक है तो बादलों को कभी भी बरसने की छूट रहती है। मनुष्य समुदाय एक समाज सूत्र में बंधा है। वह सामाजिक प्राणी है। उसके कर्तव्य और उत्तरदायित्व अपने आप तक ही सीमित नहीं वरन् व्यापक क्षेत्र में विस्तृत हैं। देश, समाज, धर्म, संस्कृति के प्रति भी उसे बहुत कुछ करना होता है। करना भी चाहिए। व्यक्तिगत उत्तरदायित्वों की तरह सामाजिक कर्तव्यों का भी उसे पालन करना चाहिए। इसमें संकीर्णता बरतना—सामाजिक उत्तरदायित्वों से हाथ खींचना भी मनुष्य के लिए एक अपराध है। पशु-पक्षियों के लिए भले ही वैसा अनुबंध न हो।
प्रकृति प्रकोप के रूप में सामूहिक दंड व्यवस्था ही चलती है। अति वृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, बाढ़, तूफान, महामारी, भूमि कीटक आदि के रूप में कई प्रकार की विकृतियां आये दिन दरवाजे पर खड़ी रहने की घटनाएं पाप-युग में होती हैं। सतयुग के सम्बन्ध में लिखा मिलता है कि तब मनुष्य दीर्घजीवी होते थे। बाप के सामने बेटा नहीं मरता था। वृक्ष मन चाहे फल देते थे। भूमि से प्रचुर अन्न उपजता था। गौएं बहुत घी दूध देती थीं। वर्षा उपयुक्त समय पर उपयुक्त मात्रा में होती थी। प्रकृति प्रकोप कभी नहीं होता था। यह प्रकृति की अनुकूलता मनुष्य की सत्प्रवृत्तियों के साथ जुड़ी हुई है। इकालौजी विज्ञान के अनुसार प्रकृति की विचार शीलता, सन्तुलन व्यवस्था, दूरदर्शिता एवं न्याय प्रियता का क्रमशः अधिकाधिक परिचय मिलता जा रहा है। सामूहिक दुष्प्रवृत्तियों का सामूहिक दंड भी इसी व्यवस्था के अन्तर्गत आता है।
व्यक्ति के कर्म का दण्ड व्यक्ति को मिलना चाहिए। यह व्यवस्था तो चलती ही है पर सामूहिक उत्तरदायित्वों से बंधा रहने के कारण मनुष्य को सामूहिक दुष्प्रवृत्तियों की रोक थाम करने का भी जिम्मेदार माना है। उसकी उपेक्षा की जाय तो वह भी एक पाप बनता है। स्वयं अच्छा रहना तो उचित ही है—पर उतना ही आवश्यक यह भी है कि जिस समाज में रहा जा रहा है उसे परिष्कृत बनाये रहने की जिम्मेदारी निवाहने में भी उतनी ही तत्परता बरती जाय। अपने आप के हित साधन में लगे रहने वाले—दूसरों की उपेक्षा करने वाले स्वार्थी कहलाते हैं और निन्दा के पात्र बनते हैं। यद्यपि स्वार्थ साधन कोई प्रत्यक्ष अपराध नहीं है और न उससे किसी मर्यादा का प्रत्यक्षतः उल्लंघन ही होता है। फिर भी व्यक्तिवादी, स्वार्थ परायण व्यक्ति निन्दित ठहराये जाते हैं, उसका एक ही कारण है कि मनुष्य के लिए सामाजिक सुव्यवस्था के प्रति भी उतना ही जागरूक रहना आवश्यक माना गया है जितना कि अपने निर्वाह और सुरक्षा का प्रबन्ध करना। इसकी उपेक्षा करने वाले—मनुष्य समाज के सदस्य होने के नाते उन अपराधों के लिए भी दण्डनीय ठहरते हैं जो अन्यान्य लोगों द्वारा किये जाते रहे, किन्तु उन्हें रोकने के लिए जटायु की तरह, रीछ बानरों की तरह, आगे बढ़कर प्रयत्न नहीं किया गया।
सरकार कई अपराधों के लिए सामूहिक जुर्माना करती है। समीपवर्ती क्षेत्र में अपराध होता रहे और हमसे सीधा सम्बन्ध नहीं, यह सोचकर उसे रोका न जाय तो इस उपेक्षा को भी मानवी कर्तव्य शास्त्र में दंडनीय अपराध माना गया है। सामूहिक जुर्माना ऐसे ही अपराधों में किये जाने की दंड व्यवस्था है। पड़ोस के गांव में डकैती पड़ती रहे और जिसके पास बन्दूक का लाइसेन्स है वह डाकुओं का सामना करने न गया तो उस कायर को अपराधी माना जायगा और उसकी बन्दूक जब्त कर ली जायेगी। सामूहिक प्रकृति प्रकोप भी ऐसे ही सामूहिक दण्ड विधान के रूप में समूची मनुष्य जाति पर बरसते हैं। आवश्यक नहीं कि जिन्हें कष्ट भुगतना पड़ा है मात्र उन्हीं का अपराध हो। मुहल्ले में गन्दगी के ढेर जमा हों तो जमा करने वाले भी और उसे न रोकने वाले भी उस सड़न से हानि उठावेंगे। पड़ौस का छप्पर जलता रहे और अपने घर शान्ति पूर्वक बैठे रहा जाय तो बढ़ती हुई आग अपने को भी लपेटने लगेगी। मुहल्ले में गुण्डागर्दी बढ़ती रहे तो अनेक सौम्य प्रकृति के बालक भी उस कुचक्र के शिकार किसी न किसी प्रकार बनकर ही रहेंगे। एक व्यक्ति दुष्ट कर्म करता है, बदनामी सारे परिवार या गांव की होती है।
यही बात प्रशंसनीय कार्य करने के सम्बन्ध में भी है। सत्कर्म करने वाला अपने वंश, परिवार, क्षेत्र देश, युग सभी को प्रतिष्ठित करता है। यह सामूहिकता का उत्तरदायित्व जिन दिनों ठीक तरह निवाहा जाता है उन दिनों प्रकृति के अनुग्रह की वर्षा सभी पर होती है और जिन दिनों संकीर्ण स्वार्थपरता का बोलवाला होता है, दुष्प्रवृत्तियां पनपती हैं—वातावरण बिगड़ता है तो दण्ड उनको भी भुगतना पड़ता है जो प्रत्यक्षतः तो निर्दोष दिखाई पड़ते हैं, पर समूचे मानव समाज की दुष्प्रवृत्तियों को रोकने और सत्प्रवृत्तियों में संलग्न होने के प्रयास की जिम्मेदारी न निभाने से अनायास ही अपराधी वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं।
युग परिवर्तन के लिए व्यक्ति और समाज में उत्कृष्टता के तत्वों का अधिकाधिक समावेश करने के लिए प्रबल प्रयत्नों का किया जाना आवश्यक है। व्यक्ति को चरित्र निष्ठ ही नहीं समाजनिष्ठ भी होना चाहिए। मात्र अपने आपको अच्छा रखना ही पर्याप्त नहीं। अपनापन विस्तृत होना चाहिए और अपने शरीर अवयवों-परिवार सदस्यों की तरह ही समूचे समाज की श्रेष्ठता को सुरक्षित रखने और बढ़ाने के लिए भी प्रयत्न चलाने चाहिए।
आस्थाओं का स्पर्श आवश्यक
आस्थाओं की पृष्ठभूमि वस्तुतः एक अलग धरातल है। उसका निर्माण मस्तिष्कीय संरचना की तुलना में कहीं अधिक जटिल और कहीं अधिक कठोर है। अन्तःकरण की अपनी स्वतंत्र रचना है। उस पर बुद्धि का थोड़ा बहुत ही प्रभाव पड़ता है। सच तो यह है कि अन्तःकरण ही बुद्धि की कठपुतली को अपने इशारे से नचाता है। आन्तरिक आस्थाओं और आकांक्षाओं की जो अभिरुचि होती है उसी को पूरा करने के लिए चतुर राजदरबारी की भूमिका मस्तिष्क को निभानी पड़ती है। उसका अपना अभिमत जो भी हो, उसे करना वही पड़ता है जो अधिपति का निर्देश है। हो सकता है कि मस्तिष्क वस्तुतः भौतिकता का पक्षधर हो—किन्तु उसे व्यवहार में लाते समय वह तब तक समर्थ न हो सकेगा जब तक अन्तःकरण भी अनुकूल न हो जाये। किसी भी नशेबाज से वार्तालाप किया जाय तो वह समझाने वाले से भी अधिक ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर देगा जिससे नशा पीने की हानियों का प्रतिपादन होता है। इतनी जानकारी होते हुए भी वह उस लत को छोड़ने के लिए तत्पर न हो सकेगा। उसका कारण एक ही है कि नशे के पक्ष में उसके अन्तःकरण में इतनी गहरी अभिरुचि जम गयी है जिसे विचारशीलता मात्र के सहारे पलट सकना सम्भव नहीं हो पाता। शराबी आये दिन अपने को धिक्कारता है—शपथें लेता है। किन्तु जब अन्दर से लत भड़कती है तो असहाय की तरह शराब खाने की ओर इस प्रकार घिसटता चला जाता है मानो कोई बल पूर्वक उसे अपनी पीठ पर लाद कर लिये जा रहा हो। रास्ते में संकल्प विकल्प भी उठते हैं। लौटने को मन भी करता है। पर सारे तर्क एक कोने पर रखे रह जाते हैं। आदत अपनी जगह स्थिर रहती है। उसका दबाव इतना अधिक होता है कि विचारों का कुछ वश नहीं चलता है और अन्ततः शराब घर पहुंचने और पीकर ही लौटने की बात बनकर रहती है।
मस्तिष्क की यहां निरर्थकता नहीं बताई जा रही है और न तर्क, प्रभाव अध्ययन का—विचार साधन का—महत्व कम किया जा रहा है। उसकी उपयोगिता तो है ही और रहेगी ही। बात इतनी भर है कि मस्तिष्क भौतिक जीवन में अत्यन्त पेचीदा समस्याओं को सुलझाने और महत्वपूर्ण फैसले करने और पेचीदगियों को सरल बनाने में अद्भुत सूझ-बूझ का परिचय दे सकने में समर्थ होते हुए भी अन्तःकरण में जमे हुए संचित संस्कारों को प्रभावित करने में यत्किंचित ही सहायक हो पाता है। कारण कि वह गहरी परत मस्तिष्क के प्रभाव क्षेत्र में पूरी तरह है नहीं, वरन् उलटे मस्तिष्क को ही अपने इच्छानुकूल चलने के लिए विवश करती है।
अन्तःकरण ही मानवी सत्ता का केन्द्रबिन्दु है। यह जितना महत्वपूर्ण है उतना ही अद्भुत भी। महत्वपूर्ण इस अर्थ में कि उसमें तनिक-सा अन्तर आते ही मनुष्य का सारा स्वरूप बदल जाता है। अद्भुत इस अर्थ में कि भावनाओं संवेदनाओं की दृष्टि से अति सरल होते हुए भी अपनी स्थिति के सम्बन्ध में इतना दुराग्रही है कि बदलने में अत्यन्त कठोरता का परिचय देता है। परिवर्तन के लिए किये जाने वाले साधारण प्रयत्नों को तो ऐसे ही उपहास में उड़ा देता है। ईश्वर से मिलने की, सूक्ष्म जगत से सम्पर्क साधने की क्षमताएं इसी मर्म स्थल में सन्निहित हैं। ऋद्धियों और सिद्धियों की समस्त रत्न राशियां इसी तिजोरी में भरी हुई हैं। इतने पर भी इसका खोल सकना अत्यन्त कठिन है। जानकार लोग भी अपने आपको असहाय पाते हैं। आत्म बोध की आवश्यकता समझने—समझाने वाले—उसके द्वारा मिलने वाले चमत्कारों का स्वरूप समझने वाले भी इतना संकल्प नहीं जुटा पाते कि आत्म जागृति का लाभ उठा सकें—और साक्षात्कार कर सकें। अपनी जानकारी से स्वयं लाभान्वित न हुआ जा सके तो समझना चाहिए कि कोई बहुत बड़ा कारण या अवरोध काम करता है।
अन्तःकरण की स्थिति में थोड़ा सा परिवर्तन होते ही जीवन के स्वरूप में असाधारण परिवर्तन प्रस्तुत होता है। वाल्मीकि, अजामिल, अम्बपाली, अंगुलिमाल, विल्वमंगल आदि अनेकों के दुष्ट जीवनों ने पलटा खाया और देखते देखते कायाकल्प कर लिया। बोधि वृक्ष के नीचे एक दिन गौतम राजकुमार के अन्तःकरण ने पलटा खाया और वे दूसरे दिन ही भगवान बुद्ध बन गये। समर्थ गुरु रामदास का विवाह मुहूर्त निकट था, उनके भीतर वाला दुस्साहस पूर्वक दूसरे प्रकार का निश्चय कर बैठा। देखते-देखते सारी दिशा धारा ही उलट गई। गृहस्थों जैसा सामान्य जीवन क्रम दूसरे ही दिन महामानवों की, ऋषियों की पंक्ति में जा विराजा। ऐसे चमत्कार अन्तःकरण के परिवर्तन से ही होते रहे हैं।
उत्थान से पतन और पतन से उत्थान के अचानक परिवर्तनों के अगणित प्रमाण—उदाहरण इतिहास के पृष्ठों पर विद्यमान हैं। आरम्भिक परिस्थितियों से अन्तिम उपलब्धि तक क्रमिक गति से चलते हुए आकाश-पाताल जितना अन्तर उत्पन्न करने वाली घटनाएं तो अपनी आंखों के सामने ही असंख्यों देखी जा सकती हैं। इनका मूल कारण एक ही है—अन्तः क्षेत्र की प्रबल आस्था और प्रचण्ड आकांक्षा। इतना भर सार तत्व जहां भी होगा वहां विपरीत स्थितियां काई की तरह फटती चली जायेंगी। और टिड्डी दल की तरह परामर्शों, सहयोगों और अनुकूलताओं का समूह एकत्रित होता चला जायगा। पतित, सामान्य और महान जीवनों के अन्तरों में परिस्थिति नहीं मनःस्थिति ही आधारभूत कारण रही है। जीवन का स्वरूप इसी मर्म स्थल में निर्मित होता है और वहीं पर उगा बीज बड़ा होने पर जीवन के प्रस्तुत स्वरूप की तरह दिखाई पड़ता है।
अन्तःकरण के कठोर क्षेत्र को प्रभावित करने के लिए अध्यात्म विज्ञान का तत्व दर्शन और साधना उपचार ही प्रभावी सिद्ध होता है। योग साधना और तपश्चर्या का समूचा कलेवर इसी प्रयोजन के लिए विनिर्मित हुआ है। कठोर चट्टानें हीरे की नोंक वाले बरमे के अतिरिक्त और किसी औजार से छेदी नहीं जातीं। अन्तःकरण में जमी अवांछनीयता को निरस्त करके उत्कृष्टता की प्रतिष्ठापना के लिए अध्यात्म विज्ञान का ही सहारा लेना पड़ेगा। उसी विद्या में पारंगत इन्जीनियर अध्यात्मवेत्ता इस क्षेत्र की समस्याओं का समाधान कर सकेगा। विकृति विपन्नताओं के स्थान पर परिष्कृत परिस्थितियों की स्थापना यदि सचमुच ही अभीष्ट हो तो उसका हल अध्यात्म विद्या का अवलम्बन लिये बिना और किसी प्रकार निकलेगा नहीं। इस तथ्य को जितनी जल्दी समझा जा सके उतना ही दिशा निर्धारण और सार्थक श्रम करने में सुविधा रहेगी।
व्यक्ति निर्माण के लिए भौतिक उपायों की सार्थकता तभी है जब अन्तः कारण के स्तर में परिवर्तन हो—दृष्टिकोण सुधरे। यह कार्य प्रशिक्षण मात्र से नहीं हो सकेगा। आस्थाओं का स्पर्श आस्थाएं करती हैं। भावनाओं को भावनाओं से छुआ जाता है। कांटा कांटे से निकलता है, विष, विष से मारा जाता है। आस्था अन्तःकरण की अत्यन्त गहरी परतों में अपनी जड़ जमाये बैठी रहती हैं। उन तक पहुंचना और सुधार परिवर्तन करना सामान्य प्रयासों से सम्भव नहीं, उसके लिए उसी स्तर के प्रयत्न करने पड़ते हैं। इन में उपासनात्मक उपचारों के अतिरिक्त अन्य प्रयत्न अभीष्ट परिणाम उत्पन्न नहीं करते।
उपासना की प्रक्रिया को अन्तःकरण की वरिष्ठ चिकित्सा समझा जाना चाहिए। कुसंस्कारों की—कषाय कल्मषों की महा व्याधि से छुटकारा पाने के लिए यही रामबाण औषधि है। उच्चस्तरीय श्रद्धा का जागरण और वरिष्ठ निष्ठा का प्रतिपादन भगवद् भक्ति के सहारे ही सम्भव है। रक्त की शिराओं में दवा का प्रवेश कराने के लिए इन्जेक्शन की पोली सुई की जो भूमिका है वही कार्य उत्कृष्टता को अन्तःकरण की गहराई तक पहुंचाने में उपासना करती है।
पिछले दिनों उपासना के नाम पर भोंड़ा जाल जंजाल ही जनसाधारण के गले में बांध दिया गया है। देवताओं को फुसलाकर उचित अनुचित मनोकामनाएं पूरी कर लेने की आशा से ही ओछी बुद्धि के लोग पूजा पाठ करते पाये जाते हैं। यदि उन्हें उपासना का तत्वज्ञान और प्रतिफल ठीक तरह समझने का अवसर मिला होता और आत्म परिष्कार के उद्देश्य से जन साधारण को इस पुण्य प्रयोजन में लगाया गया होता तो स्थिति दूसरी ही होती। उपासना के माध्यम से आस्थाओं के उत्कर्ष का उद्देश्य ध्यान में रखा गया होता तो व्यक्तित्व निखरते परिष्कृत होते और प्रखर बनते। तब उपासना करने वाला भिक्षुक की नहीं वरन् दानी की स्थिति में होता। स्वयं पार होता और असंख्यों को अपनी नाव में बिठाकर पार करता। देवताओं के सामने उसे नाक रगड़ने की आवश्यकता न पड़ती वरन् स्वयं अपने आप में देवत्व का उदय-अवतरण देखता सम्पर्क क्षेत्र में स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न करता। प्राचीन काल में आत्म विज्ञान का यही स्वरूप था। ऐसी ही प्रखर उपासना का अभ्यास किया जाता था। आज फिर उसी तथ्य पूर्ण उपासना पद्धति से जन-जन को अवगत और अभ्यस्त कराने की आवश्यकता है।
वातावरण भी बदले
इसी प्रकार वातावरण के परिष्कार की बात भी ध्यान में रखनी होगी। व्यक्ति और परिवार दोनों में से किसी को गौण नहीं माना जा सकता। मुर्गी में से अण्डा उत्पन्न हुआ या अण्डे में से मुर्गी? इस प्रश्न का उत्तर क्या दिया जाय? बीज से पेड़ उपजा या पेड़ ने बीज पैदा किया? इसका भी कोई सीधा उत्तर नहीं है। नर से मादा की उत्पत्ति या मादा से नर की? इसका भी कोई सीधा समाधान नहीं हो सकता। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का युग्म एक दूसरे के साथ इस कदर गुंथा हुआ है कि दोनों को एक दूसरे का पूरक मानकर ही चलना पड़ता है। किसी को प्रमुख किसी को गौण कहने से व्यर्थ ही वितंडा बढ़ेगा। कौन प्रथम, कौन द्वितीय के झंझट में न पड़कर हमें इतना ही मान लेना चाहिए कि गाड़ी के दो पहियों की तरह एक दूसरे पर आश्रित हैं। अकेले दोनों ही अपूर्ण हैं। परस्पर संयुक्त होकर एक इकाई बनते हैं। पानी भी तो गैसों का सम्मिश्रण ही है। वे दोनों न मिलें तो पानी की उत्पत्ति ही न हो सकेगी।
वातावरण व्यक्ति को प्रभावित करता है या व्यक्ति से वातावरण बनता है यह प्रश्न भी लगभग इसी प्रकार का है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों से दोनों ही प्रभावित होते हैं। एक के निर्माण में दूसरे का इतना योगदान है कि दोनों को अन्योन्याश्रित ही कह सकते हैं। भले और बुरे व्यक्तियों के बाहुल्य से प्रशंसनीय और निन्दनीय युग-वातावरण बनता है, यह सत्य है, किन्तु यह भी मिथ्या नहीं कि वातावरण के प्रवाह में अधिकांश व्यक्ति जल-धारा में पड़े हुए तिनके की तरह बहते चले जाते हैं। मनस्वी प्रतिभाओं ने युग को बदला और पलटा है, यह सही है पर यह भी मिथ्या नहीं है कि वातावरण के सांचे में व्यक्तियों का समूह खिलौने की तरह ढलता चला जाता है। अनेक देशों क्षेत्र की—परिस्थितियां प्रथाएं मान्यताएं, रुचियां और संस्कृतियां भिन्न हैं। उनमें जो बालक उत्पन्न होते हैं वे वातावरण के प्रभाव से उसी प्रकार की मनोवृत्ति और प्रकृति अपनाते चले जाते हैं। उनके चिन्तन, स्वभाव और क्रिया कलाप लगभग वैसे ही होते हैं जैसे कि उस प्रदेश में रहने वाले लोगो के। बहुमत का दबाव पड़ता है। अल्प मत अनायास ही बहुतों का अनुकरण करने लगता है। समय का प्रभाव—युग का प्रवाह—इसी को कहते हैं। सर्दी गर्मी का मौसम बदलने पर प्राणियों के, वनस्पतियों के तथा पदार्थों के रंग ढंग ही बदल जाते हैं। गतिविधियों में ऋतु के अनुकूल बहुत कुछ परिवर्तन होते हैं।
विज्ञान वेत्ता जानते हैं कि पृथ्वी पर जो कुछ विद्यमान है और उत्पन्न उपलब्ध होता है, वह सब अनायास ही नहीं है और न उस सबको मानवी उपार्जन कह सकते हैं। यहां ऐसा बहुत कुछ होता रहता है जिसमें मनुष्य का नहीं वरन् सूक्ष्म शक्तियों का हाथ होता है। सूर्य पर दीखने वाले धब्बे उसकी स्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। उस परिवर्तन का पृथ्वी पर भारी असर पड़ता है। उनसे पदार्थों की स्थिति और प्राणियों की परिस्थिति में आश्चर्यजनक हेर फेर होते हैं विकरण चुम्बकीय, तूफान अन्धड़, चक्रवात किस प्रकार सामान्य परिस्थितियों को असामान्य बनाते हैं, यह सभी जानते हैं। अन्तरिक्षीय अदृश्य शक्ति वर्षा से कई बार धरती पर हिम-युग आये हैं जलप्लावन, समुद्री परिवर्तन और खण्ड प्रलय के दृश्य उपस्थित हुए हैं। भविष्य में पृथ्वी के पदार्थों अथवा प्राणियों की स्थिति में कोई असाधारण परिवर्तन हुआ तो उसका निमित्त कारण सामान्य घटना क्रमों में नहीं वरन् अन्तरिक्षीय अदृश्य हलचलों में ही पाया जायगा। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, शीत आधिक्य, महामारी आदि आधिदैविक विपत्तियों में मनुष्य अपने आपको निर्दोष एवं असहाय ही अनुभव करता है।
व्यक्ति अपने निजी जीवन में सर्वथा स्वतन्त्र और सशक्त है। इतना होते हुए भी विशाल ब्रह्माण्ड में गतिशील हलचलों और परिस्थितियों में उसका स्थान नगण्य है। सिर पर खड़े पानी से लदे बादल तक को वह बरसा नहीं सकता, मौत और बुढ़ापे को रोकने तक में असमर्थ है। परिस्थितियों पर उसका अधिकार नगण्य है। प्रवाहों में वह अपना यत्किंचित बचाव ही कर पाता है। सर्दी उसके बूते रुकती नहीं, कपड़े लाद कर आग ताप कर आत्म रक्षा भर में आंशिक सफलता पा लेता है।
स्पष्ट है कि वातावरण से मनुष्य प्रभावित होता है। अलग देशों के निवासी अपनी-अपनी परम्पराओं से प्रभावित होते हैं। प्रचलित ढर्रे के अन्तर्गत सोचते और जीवन यापन करते हैं। उसमें उनकी भौतिक प्रतिभा का नहीं वातावरण का प्रभाव ही प्रधान रूप से काम करता है।
यहां एक प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या मनुष्य वातावरण के सामने सर्वथा असहाय, असमर्थ है! उसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि सूक्ष्म प्रवाहों को प्रभावित करने—बदलने और अनुकूल करने की क्षमता मानवी चेतना में विद्यमान है। जीव ईश्वर का अंश है। मानवी चेतना, ब्रह्माण्डव्यापी चेतना का एक भाग है। अंश में अंशी की सारी विशेषताएं मूल रूप से विद्यमान रहती हैं और प्रयत्न पूर्वक वे मूल सत्ता के समान स्तर तक विकसित हो सकती हैं। बीज तुच्छ है किन्तु वह जिस पेड़ का अंश है उसी स्तर तक विकसित होने की संभावनाएं उसमें पूरी तरह विद्यमान हैं। बीज को अवसर मिले तो वह अपने मूल सत्ता वृक्ष के समान फिर विकसित हो सकता है। जीवात्मा की प्रखरता बढ़ती रहे तो उसकी विकास प्रक्रिया उसे महात्मा, व्यापकात्मा एवं परमात्मा बनने की स्थिति तक पहुंचा सकती है।
जड़ प्रकृति का वैभव विस्तार बहुत है। फिर भी उस पर नियन्त्रण चेतना का ही है। शरीर का अस्तित्व एवं क्रियाकलाप तभी तक है जब तक कि उसमें प्राण की सत्ता काम करती है। यह दृश्य संसार ब्राह्मी चेतना का कलेवर है। प्रकृति ब्रह्म की छाया मात्र है। ब्रह्म जगत ही वास्तविक जगत है। प्रकृति जगत की जड़ता पर चेतना की ब्रह्म सत्ता का ही नियंत्रण है। विकसित जीवात्मा ब्रह्म जगत से अपने आपको सम्बद्ध ही नहीं करते वरन् उसके साथ एकाकार होकर इतने सक्षम भी बन जाते हैं कि प्रकृति प्रवाह में आवश्यक हेर फेर कर सकें। वातावरण को प्रतिकूलता की अनुकूलता में बदल सकें। योगी और तपस्वी क्रमशः उसी स्थिति की ओर बढ़ने के लिए तप साधना का पुरुषार्थ करते हैं।
चेतना के संघात से वातावरण में वांछित परिवर्तन किये जाने संभव हैं। अदृश्य जगत में कई बार ऐसी प्रेरणाएं उभरती हैं जिनके आंधी तूफानों में मनुष्यों के मस्तिष्क पत्तों और तिनकों की तरह उड़ने लगते हैं। युद्धोन्माद ऐसे ही उभरते हैं। उन दिनों अधिकांश लोग लड़ने की आवश्यकता अनुभव करते और उसके लिए उतारू से दिखते है। एक अजीब सा आवेश छाया रहता है। कहने की आवश्यकता पड़ती है, न समझाने की। हवा में तेजी और गर्मी ही कुछ ऐसी होती है जिसके कारण सामान्य मस्तिष्क एक प्रकार से सम्मोहक स्थिति में रहता और प्रवाह में बहता दिखाई पड़ता है। बड़े युद्धोन्माद एवं स्थानीय दंगे फिसादों में वातावरण किस प्रकार उत्तेजित आतंकित होता है उसे जन मनोवृत्ति शास्त्र के अध्येता भली प्रकार जानते है। युद्धोन्माद की तरह ही समय समय पर दूसरे सूक्ष्म प्रवाह भी अपने अपने समय पर उभारते रहे हैं और असंख्य मस्तिष्कों को अपने साथ बहा ले जाने में आंधी तूफान का काम करते रहे हैं।
प्रजातन्त्र की लहर एक समय चली और उसने राजतन्त्र को संसार भर से उखाड़ फेंकने और उसके स्थान पर जनवादी सरकार बनाने का चमत्कार ही उत्पन्न कर दिया। एक लहर साम्यवाद की उठी। उसने रूस के नेतृत्व में से एशिया और योरोप के अनेक देशों को देखते देखते अपना अनुचर बना लिया। इन दिनों संसार भर के मनुष्यों में से प्रायः आधे लोग साम्यवादी विचारधारा के पक्ष में सोचते और उसको पूरा या अधूरा समर्थन देते हैं। इन प्रजातन्त्र और साम्यवाद के विचार प्रवाह को अपने युग की प्रचण्ड लहरों में गिन सकते हैं। अनुपयोगी लहरों में से अधिनायक वाद, जाति वाद, पूंजी वाद, साम्राज्य वाद, सामन्त बाद आदि भी समय समय पर अपना सिर उठाते और विग्रह उत्पन्न करते रहे हैं। लहर लहर ही है। ज्वार भाटा की भयंकरता समुद्र तट वासी समय समय पर देखते रहते हैं। कई तरह के विचार प्रवाह भी कई बार ऐसे आते हैं जो अपने साथ असंख्यों को समेटते घसीटते कहीं उठा कर उड़ा कर ले जाते हैं।
भगवान बुद्ध का धर्म चक्र प्रवर्तन साधन प्रधान नहीं प्रवाह प्रधान था। साधनों से प्रवाह उत्पन्न नहीं किया था। प्रवाह ने साधन खड़े कर दिये थे। हर्षवर्धन अशोक आदि राजाओं ने मिलकर बुद्ध को धर्म प्रचारक नियुक्त नहीं किया था। बुद्ध ने ही हवा गरम की थी और उसकी गर्मी से लाखों सुविज्ञ सुयोग्य और सुसम्पन्न व्यक्ति अपनी आत्माहुति देते हुए चीवर धारी धर्म सैनिकों की पंक्ति में अनायास ही आ खड़े हुए थे। धर्म प्रवर्तकों में से प्रत्येक ने अपने अपने समय में अपने अपने ढंग से वातावरण को गरम करके अपने समर्थन को भाव तरंगें उत्पन्न की हैं और उस प्रवाह में असंख्य व्यक्ति बहते चले गये हैं। पराधीनता पाश से मुक्त होने वाले देशों में भी आजादी की लहर बही और उसके कारण अनगढ़ ढंग से आन्दोलन फूटे तथा अपने लक्ष्य पर पहुंच कर रहे। अदृश्य और सूक्ष्म वातावरण के तथ्य तथा रहस्य को जो लोग जानते हैं वे समझते हैं कि इस प्रकार के प्रवाह कितने सामर्थ्यवान होते हैं। उनकी तूफानी शक्ति की तुलना संसार की और किसी शक्ति से नहीं हो सकती। रामायण काल के वानरों द्वारा जान हथेली पर रख कर जलती आग में कूद पड़ना जिस प्रवाह की प्रेरणा से संभव हुआ, उसका स्वरूप और महत्व यदि समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि जन समुदाय को किसी दिशा विशेष में घसीट ले जाने की सामर्थ्य सूक्ष्म वातावरण में भी इतनी है जिसे साधनों के सहारे खड़े किये गये आन्दोलनों से कम नहीं, अधिक शक्तिवान ही माना जा सकता है।
युग निर्माण योजना का एक पक्ष आन्दोलन परक है, जो एक शब्द में विचार क्रान्ति अभियान का वह स्वरूप है जिसकी रूपरेखा, जानकारी और प्रेरणा सर्व साधारण को बहुत समय से दी जाती रही है। जिसके लिए अपने परिवार द्वारा सामर्थ्य भर प्रयत्न किया जाता रहता है। दूसरा पक्ष प्रस्तुत प्रयोजन के लिए सूक्ष्म वातावरण में आवश्यक गर्मी और तेजी उत्पन्न करना है। जन समर्थन और जन सहयोग के लिए प्रचार साधनों पर उतना निर्भर नहीं रहा जा सकता जितना कि वातावरण के अनुकूलन पर। सूक्ष्म जगत का प्रवाह यदि सहयोगी बन रहा हो तो अभीष्ट प्रयोजन में सफलता प्राप्त करने की संभावना कहीं अधिक बढ़ जाती है। हवा का रुख पीठ पीछे से हो तो जलयानों वायुयानों से लेकर पैदल यात्रा तक में कितनी सुविधा होती है और मार्ग कितनी जल्दी कितनी सरलता से पूरा हो जाता है। वातावरण में विषाक्तता छा जाती है तो भयंकर महामारियों का प्रकोप होता है और देखते-देखते असंख्यों उससे आक्रांत होते मरते देखे जाते हैं। वातावरण में सर्दी गर्मी होने से प्राणियों को कांपते-हांफते देखा जाता है। घर में शोक का वातावरण हो तो असम्बद्ध लोग भी उससे प्रभावित होते है। मन्दिरों और कसाई घरों के वातावरण का अन्तर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। अध्यात्म विद्या में सूक्ष्म जगत का, सूक्ष्म वातावरण का महत्व इस संसार के समस्त साधनों में सर्वोपरि माना गया है। युग परिवर्तन के लिए हमें वातावरण के अनुकूलन के लिए अध्यात्म विज्ञान के अनुरूप प्रचण्ड प्रयास करने होंगे। इतना बड़ा कार्य उसी दिव्य शक्ति के माध्यम से सम्पन्न हो सकेगा।
विशिष्ट आध्यात्मिक उपचारों की प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न करके भी वातावरण बदला जा सकता है। प्रखर प्रतिभाएं अपनी प्राण शक्ति से युग को बदलती हैं। अवतारी महा मानव समय के प्रवाह को उलटते हैं। ठीक इसी प्रकार तप साधना की चेतनात्मक प्रचण्ड ऊर्जा सूक्ष्म जगत् को परिष्कृत करके उसे इस योग्य बना सकती है कि सुख शान्ति की परिस्थितियां उत्पन्न होने लगें और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएं दैवी अनुग्रह की तरह उमड़ती उभरती चली आयें। व्यक्ति विशेष की तपश्चर्या और सामूहिक अध्यात्म साधना के यदि प्रबल प्रयास हो सकें तो वातावरण बदलने के चमत्कार उत्पन्न हो सकते हैं।
सूक्ष्म वातावरण का परिशोधन करने के लिए अध्यात्म विज्ञानियों द्वारा कतिपय दिव्य उपचार समय-समय पर किये गये हैं। इसके प्रमाण शास्त्रों में मिलते हैं। रावण काल के विक्षुब्ध वातावरण को समाहित करने का कार्य लंका विजय के उपरान्त भी शेष रह गया था। भगवान राम ने दशाश्वमेध घाट पर दश अश्वमेधों की संकल्प शृंखला पूरी की थी। कंस, दुर्योधन, जरासन्ध जैसे असुरों के न रहने पर भी महाभारत काल के विक्षोभ वातावरण में भरे रहे। भगवान कृष्ण ने उनका समाधान आवश्यक समझा और पाण्डवों से राजसूय यज्ञ कराया। महर्षि विश्वामित्र अपने समय की असुरता को दुर्बल बनाने के लिए जो वृहद यज्ञ रच रहे थे उसका पता असुरों को चल गया और वे ताड़का, सुबाहु, मारीच के नेतृत्व में उसे नष्ट करने के लिए आक्रमण करने लगे। राम और लक्ष्मण को यज्ञ की रक्षा के लिए जाना पड़ा था। ऐसे समाधान उपचारों में यज्ञ प्रक्रिया का बहुत महत्व रहा है। यज्ञों में अग्निहोत्र की तरह ही जप यज्ञ भी है अग्निहोत्र में साधन चाहिए पर जप यज्ञ व्यक्तिगत साधना से भी सम्पन्न हो सकता है। यज्ञ तो सामूहिक होते ही हैं। उससे होताओं को सम्मिलित साधना का चमत्कार देखने को मिलता है। जप यज्ञ को जब अनेक जपकर्ता संकल्प पूर्वक समाहित होकर करते हैं तो उससे भी सम्मिलित शक्ति उत्पन्न होती है। ऐसी सामूहिक साधनाएं पुरश्चरण कहलाती हैं। तपश्चर्या युक्त सामूहिक संकल्पों के द्वारा विशिष्ट उद्देश्य के लिए किये गये पुरश्चरण भी वातावरण में अभीष्ट अनुकूलता उत्पन्न करते हैं।
वैयक्तिक विशिष्ट तपश्चर्याएं अपना कर आत्म विकास और व्यापक परिस्थितियों में उपयोगी परिवर्तन करने का प्रयत्न करते हैं। हिमालय पर अभी भी ऐसी दिव्य आत्माएं विशिष्ट तप साधना में संलग्न हैं और समय समय पर अपनी आत्मिक क्षमता से वातावरण के अनुकूलन का यथा संभव प्रयत्न करती हैं। हम समझ भले ही न पावें पर उसका उपयोगी लाभ मिलता है। यदि ऐसा न होता तो वातावरण की विकृति बढ़ते बढ़ते इस स्थिति पर पहुंच गयी होती कि महा विनाश के अतिरिक्त यहां कुछ भी दिखाई न देता। श्रेष्ठता का जो प्रकाश इन दिनों दिखाई देता है वह आसुरी आक्रमणों से कब का विलुप्त हो गया होता। विविध साधकों को उनकी सामर्थ्य के अनुरूप अतिरिक्त रूप से भागीरथ तप साधन के संकल्प सौंपे गये हैं। ब्रह्मवर्चस आरण्यक का हिमालय और गंगा के संगम पर बना विशिष्ट संस्थान तो ऐसे ही व्यापक तप साधना के सूत्र संचालन का केन्द्र बिन्दु है जहां से असंख्यों तपस्वी प्रकाश, प्रोत्साहन, मार्ग दर्शन एवं सहयोग प्राप्त करेंगे। इस व्यापक तप साधना को रावण काल में ऋषियों के रक्त घट एकत्रित करके सीता की असुर निकन्दिनी शक्ति के समतुल्य समझा जा सकता है। देवताओं की संयुक्त शक्ति से सम्पन्न हुए दुर्गावतरण की इसे पुनरावृत्ति कह सकते हैं। भागीरथ, ध्रुव, च्यवन और प्रह्लाद की परम्परा को पुनर्जीवित करने का इसे आधुनिक प्रयत्न कह सकते हैं।
सामूहिक उपासना की शक्ति भी असामान्य है। वैयक्तिक एकांकी प्रयत्नों की अपेक्षा सम्मिलित प्रयत्नों का प्रतिफल कितना चमत्कारी होता है इसका परिचय हर किसी को है। संसार में समस्त प्रगति प्रयास मिल जुल कर किये जाने वाले परिश्रम के फलस्वरूप ही सफल हो पा रहे हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यही लक्ष्य पूरी तरह काम करता है। एक समय पर एक विधि से एक लक्ष्य के लिए एक जैसी मनःस्थिति के व्यक्ति यदि मिल जुल कर किसी विशिष्ट उपासना में संलग्न हों तो उस प्रयास के आकार विस्तार के अनुपात में ऐसे प्रभाव परिणाम उत्पन्न होते हैं जो वातावरण के अनुकूलन में महत्वपूर्ण योगदान कर सकें।
इस प्रकार के अनेक सफल प्रयोग विशाल स्तर पर युग निर्माण योजना के अन्तर्गत किये जा चुके हैं। जन मानस के परिष्कार के लिए जहां विचार क्रान्ति अभियान एवं रचनात्मक सत्-प्रवृत्तियों के सम्वर्धन के प्रयास किये जाते रहे हैं वहां सामूहिक साधना उपासना का क्रम भी चलता रहा है। सामान्य रूप से चलने वाली उपासनात्मक प्रक्रिया भी कम प्रभावकारी नहीं है, उसे भी प्रत्यक्ष अनुभव किया जा रहा है। फिर जब-जब समय-समय पर विशेष उपासना अभियान चलाए गये हैं, तब तब उनका जादू सिर चढ़कर बोलने लगा तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। उनमें से कुछ प्रसंग, जिनका प्रभाव पुराने सम्पर्क के परिजन भली प्रकार देख चुके हैं, इस प्रकार है :—
रूढ़िवादी प्रतिगामी मान्यताओं के बीच गायत्री साधना एवं यज्ञ प्रक्रिया को जन सुलभ बनाने के लिए किया गया ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान एवं 2400 करोड़ मन्त्र लेखन की साधना। विदेशी आक्रमणों के समय तथा बंगला देश गृह युद्ध के अवसर पर जन मनोबल जागरण के महा पुरश्चरण। साधना स्वर्ण जयन्ती के संदर्भ में हुए 2400 करोड़ गायत्री जप का महा अनुष्ठान। उन सभी के प्रत्यक्ष प्रभाव मिशन से सम्बद्ध व्यक्ति भली प्रकार देख चुके हैं। अस्तु नवयुग अवतरण के लिए सामूहिक उपासना प्रक्रिया को गतिशील बनाना हर प्रकार उचित एवं आवश्यक है।
युग निर्माण परिवार के संगठन इस दिशा में प्रयासरत रहते हैं—फलस्वरूप उसके परिणाम भी उत्साह-जनक रूप से सामने आ रहे हैं। उपासना का व्यवस्थित क्रम हर जगह सदस्य चालू रखते ही हैं। प्रति सप्ताह, प्रति माह एवं पर्वों पर सामूहिक उपासना का क्रम विशेष रूप से चलाया जाता है। यह क्रम कितना लोकप्रिय हो गया है इसका अनुमान इसी से लग जाता है, कि केवल 77 आश्विन की नवरात्रि में ही 240 करोड़ गायत्री जाप का पूरा लक्ष्य पूरा कर लिया गया। जन साधारण को इस दिशा में और अधिक प्रोत्साहन देकर दिव्य चेतना का वह प्रखर प्रवाह पैदा किया जा सकता है जिसके द्वारा नवयुग का अवतरण सम्भव हो सके।
उपासना का महत्व और दर्शन
मानवी सत्ता के दो पक्ष हैं एक भौतिक दूसरा आत्मिक। भौतिक पक्ष में शरीर और उसकी विभिन्न आवश्यकताएं जुटाने वाला परिवार आता है। इसकी निर्वाह व्यवस्था के लिए सुविधा साधनों का उपार्जन करना पड़ता है। इस संदर्भ में अनेकों से सम्पर्क हो सकता है। यह सम्पर्क सरलता पूर्वक चलता रहे, टकरावों का समाधान निकलता रहे इस उद्देश्य के लिए बनी व्यवस्थायें समाज मर्यादाएं कहलाती हैं। इनका पालन किये बिना सहयोग सम्बन्ध टिक नहीं सकते। असहयोग के वातावरण में उपार्जन व्यवहार कठिन हो जाता है, उपार्जन न हो तो परिवार का निर्वाह कैसे बने? परिवार न हो तो शरीर यात्रा की सरलता कैसे रहे? इसी ताने बाने को बुनने में, उलझनों को सुलझाने में, सुविधा संवर्धन का सरंजाम जुटाने में लगने वाले प्रयासों को भौतिक जीवन कहा जाता है। जीवन में शरीर पक्ष का अपना महत्व है। शरीर रखना है तो उसके साथ जुड़ी भौतिक आवश्यकताएं भी किसी न किसी रीति से जुटानी पड़ती हैं। शरीर की संरचना पंच तत्वों से हुई है। इसलिए उसका निर्वाह भौतिक पदार्थों से अन्य प्राणियों के शरीर सहयोग से ही सम्भव होता है। इस क्षेत्र की समस्याओं को समझना और आवश्यकताओं को जुटाना आवश्यक है। इस आवश्यकता को सभी समझते हैं और उसकी पूर्ति के लिए अहर्निश प्रयत्न भी करते हैं।
जीवन का दूसरा पक्ष है—आत्मिक। जीव चेतना का अपना अस्तित्व है। शरीर उसका वाहन उपकरण निवास गृह है। मनुष्य आत्मा है। उसे यह जीवन आत्मिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ईश्वर के विशेष अनुग्रह के रूप में मिला है विशेष अनुग्रह इसलिए कि सृष्टि के अन्य किसी प्राणी को वे सुविधाएं नहीं मिली हैं जो मनुष्य को प्राप्त है। मोटी दृष्टि से देखने में इसमें पक्षपात और अन्याय प्रत्यक्ष ही दिखाई पड़ता है। जब सभी प्राणी ईश्वर के पुत्र हैं तो सभी को एक जैसी सुविधायें मिलनी चाहिए थी। फिर अन्य जीवों को शरीर यात्रा भर की सुविधा देकर पीछा छुड़ा लिया गया और मनुष्य को इतनी सुविधाओं से लाद दिया गया जिन्हें इन प्राणियों की दृष्टि से वैसी ही ठहराया जा सकता है जैसा कि हम स्वर्ग में रहने वाले देवताओं की विभूतियों के सम्बन्ध में कल्पना करते हैं। निश्चय ही मनुष्य जीवन को दिव्य अनुदान ईश्वर ने विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विशुद्ध धरोहर के रूप में प्रदान किया है।
मनुष्य जीवन के दो लक्ष्य हैं (1) संग्रहीत कुसंस्कारों और कषाय कल्मषों से छुटकारा पाना और परिष्कृत दृष्टिकोण अपनाकर विश्व उद्यान का परिपूर्ण आनन्द उपलब्ध करना। परिष्कृत जीवन के साथ जुड़ी हुई आनन्द भरी उपलब्धियां स्वर्ग कहलाती हैं और दुर्बुद्धि से दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने को मुक्ति कहते हैं। जीवन का एक लक्ष्य यह है।
(2) दूसरा है भगवान के विश्व उद्यान को अधिक सुरम्य, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने में संलग्न होकर अपनी गरिमा को विकसित करना। मनुष्य को ईश्वर का राजकुमार उत्तराधिकारी एवं पार्षद कहा गया है और उसके कन्धों पर यह उत्तरदायित्व डाला गया है कि सृष्टा के विश्व उद्यान का सौन्दर्य बढ़ाने में हाथ बटाये और सच्चे मित्र-भक्त की भूमिका सम्पन्न करें।
इन दोनों प्रयोजनों को जो जितनी मात्रा में पूरा करता है वह उतना ही बड़ा ईश्वर भक्त कहलाता है। उस मार्ग पर चलने वाले महा मानव सन्त, ब्राह्मण, ऋषि, देवात्मा, अवतारी आदि नामों से पुकारे जाते हैं। उन्हें असीम आत्म सन्तोष प्राप्त होता है और लोक सम्मान एवं सहयोग की वर्षा होने से उन्हें अपने उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति में असाधारण सफलता भी मिलती है। उनके क्रिया कृत्य ऐतिहासिक होते हैं और उनके प्रभाव से असंख्यों को ऊंचा उठने का आगे बढ़ने का असाधारण सहयोग मिलता है। धन सम्पत्ति कमाना जब लक्ष्य ही नहीं वैयक्तिक तृष्णाओं से जब उपराम ही पा लिया गया तो फिर उनका संचय न होना स्वाभाविक ही है। वैभव की दृष्टि से सम्पन्न होने की जब वे इच्छा ही नहीं करते तो फिर धनवान वे बनेंगे भी कैसे? इतने पर भी उनकी आन्तरिक सम्पन्नता इतनी बढ़ी चढ़ी होती है कि अपनी नाव पार लगाने के साथ असंख्यों को उस पर बिठा कर पार लगा सकें। ईश्वर का असीम अनुग्रह और अनुदान ऐसे ही लोगों के लिए सुरक्षित रहा है। लोक और परलोक का बनाना इसी को कहते हैं। मनुष्य जीवन इसी स्थिति को प्राप्त करने के लिए मिला है। जो इसके लिए प्रयत्न करते हैं उन्हीं का नरजन्म धारण धन्य एवं सार्थक बनता है वे ही इस सुर दुर्लभ उपलब्धि का रसास्वादन करते हुए कृत कृत्य होते हैं। जो इस मार्ग पर जितना बढ़ सका समझना चाहिए कि उसने उतनी ही मात्रा में लक्ष्य को प्राप्त करने में सफलता पा ली।
हम बुद्धिमान सिद्ध हों
बुद्धिमत्ता इस बात में थी कि आत्मा और शरीर दोनों की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता। श्रम और बुद्धि की जो सामर्थ्य प्राप्त है उनका उपयोग दोनों क्षेत्रों के लिए इस प्रकार किया जाता कि शरीर की सुरक्षा बनी रहती और आत्मा अपने महान लक्ष्य को प्राप्त कर सकने में सफल हो जाती। किन्तु होता विचित्र है। जो बुद्धि आये दिन अनेक समस्याओं के सुलझाने में सम्पदाओं और उपलब्धियों के उपार्जन में पग पग पर चमत्कार दिखाती है वह मौलिक नीति निर्धारण में भारी चूक करती है। सारे का सारा कौशल शारीरिक सुख सुविधाओं के संचय सम्वर्धन में लग जाता है। यहां तक कि अपने आपको पूरी तरह शरीर ही मान लिया जाता है। आत्मा के अस्तित्व एवं लक्ष्य का ध्यान ही नहीं रहता है, आत्म कल्याण के लिए कुछ सोचते करते बन ही नहीं पड़ता। बुद्धि का यह एक पक्षीय असंतुलन ही जीवात्मा का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। उसी से छुटकारा पाने के लिए ब्रह्म-ज्ञान, आत्म-ज्ञान, तत्व-ज्ञान के विशालकाय कलेवर की संरचना की गयी है। बुद्धि को आत्मा का स्वरूप और लक्ष्य समझने का अवसर देना ही उपासना का मूल भूत उद्देश्य है। चौबीसों घण्टे मात्र शरीर के लिए ही शत प्रतिशत दौड़ धूप करने वाली भौतिकता में पूरी तरह रंगी हुई और लगी हुई बुद्धि को कुछ समय उस भगदड़ से विश्राम देकर आत्मा की स्थिति और आवश्यकता समझने के लिए सहमत किया जाता है। उस अति महत्व पूर्ण पक्ष की उपेक्षा न करने उस सन्दर्भ में भी कुछ करने के लिए बुद्धि पर दबाव दिया जाना उपासना का तात्विक उद्देश्य है। मन को तदनुसार कल्पनायें और बुद्धि को तद् विषयक धारणायें करने के लिए उपासना पद्धति के आधार पर प्रशिक्षित किया जाता है। वह एक बहुत बड़ा काम है। सांसारिक-जीवन के सबसे बड़े और सबसे महत्वपूर्ण कामों में से यह एक है। मोटी समझ से तो उसकी तात्कालिक उपयोगिता प्रतीत नहीं होती और कोई आकर्षण न होने से मन भी नहीं लगता पर विवेक दृष्टि से देखने पर जब उस कार्य की महत्ता समझ आ जाती है तब प्रतीत होता है कि यह इतना लाभदायक, उत्पादक, आकर्षक और महत्वपूर्ण कार्य है जिसकी तुलना संसार के अन्य किसी कार्य से हो नहीं सकती।
शरीर को सुख साधन मिलते रहे, उसे पद और यश का लाभ मिला सो सही, पर शरीर ही तो सब कुछ नहीं है। आत्मा तो उससे भिन्न है। आत्मा के उपेक्षित स्थिति में पड़े रहने की दयनीय स्थिति ही बनी रही तो यह तो ऐसा ही हुआ जैसा मालिक को भूखा रखकर मोटर की साज सज्जा में ही सारा समय, धन और मनोयोग लगा दिया जाय। इस भूल का दुष्परिणाम आज तो पता नहीं चलता पर तब समझ में आता है तब जीवन सम्पदा छिन जाती है। भगवान के दरबार में उपस्थित होकर यह जवाब देना पड़ता है कि इस सुर दुर्लभ उपहार को जिन दो प्रयोजनों के लिए दिया गया वे पूरे किये गये या नहीं। यदि नहीं तो इसका दण्ड एक ही हो सकता है कि फिर भविष्य में वह उत्तरदायित्व पूर्ण अवसर न दिया जाय और पहले की ही तरह तुच्छ योनियों के लम्बे चक्र में भटकने दिया जाय। मनुष्यों में से अनेकों को इसी लम्बी दुर्गति में फंसना पड़ता है और अपनी भूल पर पश्चाताप करना पड़ता है कि जब अवसर था तब हम गहरी नींद में पड़े रहे—इन्द्रियों की वासना और मन की तृष्णा के नशे में इस कदर छाये रहे कि लोभ और मोह के अतिरिक्त और कुछ सूझ ही नहीं पड़ा। यदि समय रहते आंख खुली होती तो कृमि कीटकों का सा पेट और प्रजनन के लिए समर्पित जीवन जीने की भूल न की गयी होती। शरीर के अतिरिक्त आत्मा भी जीवन का एक पक्ष है और उसकी भी कुछ आवश्यकताएं हैं जिस पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने के लिए जो समय निकाला जाता है—प्रयत्न किया जाता है उसी को उपासना प्रक्रिया कहते हैं। आत्मा का स्वार्थ ही वास्तविक स्वार्थ है। उसी को परमार्थ कहते हैं। परमार्थ का चिन्तन उसके लिए बुद्धि का उद्बोधन प्रशिक्षण जिन क्षणों में किया जाता है वस्तुतः वे ही सौभाग्य भरे और सराहनीय क्षण हैं। यदि इस दृष्टि का उदय हो सके तो उपासना को नित्य कर्मों से सबसे अधिक आवश्यक अनिवार्य स्तर का कार्य माना जायगा। वास्तविक स्वार्थ साधना के क्षण वही तो होते हैं।
भौतिक जगत में शरीर के लिए आवश्यक सुविधा साधन भरे पड़े हैं उन्हें उपलब्ध कराने के लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है। ठीक उसी प्रकार एक चेतन जगत भी है। उसमें भरी हुई सम्पदा आत्मिक आवश्यकताओं को पूरा करती है। शरीर पंच तत्वों का बना है उसकी आवश्यकता भौतिक पदार्थों की होती है। सम्बन्धियों के शरीर भी भौतिक हैं। पदार्थों की तरह प्राणियों के शरीर भी जड़ तत्वों से ही बने हैं। जड़ का काम जड़ से चलता है किन्तु चेतना की आवश्यकता पूरी करने वाली वस्तु इस प्रत्यक्ष जगत में कहीं भी नहीं है। उसे उपलब्ध करने के लिए चेतन जगत को सूक्ष्म जगत से ही सम्बन्ध साधना पड़ता है। उपासना के क्षणों में इसी के लिए पुरुषार्थ किया जाता है।
प्रत्यक्ष जगत में जड़ पदार्थ भरा पड़ा है। इसमें एक भाग वह है जो स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। दूसरा वह जो बिजली, विकरण, ईश्वर ऊर्जा तरंग आदि के रूप में अदृश्य रूप से विद्यमान है। परोक्ष जगत में चेतना का महा समुद्र भरा पड़ा है। उसमें प्रवेश कर सकें डुबकी मारकर रत्नराशि खोज सकना संभव हो सके तो उससे इतनी विभूतियों का संचय किया जा सकता है, जिसकी तुलना में जड़ जगत की संपदाएं नितान्त तुच्छ ठहरती हैं। महा मानवों और आत्म बल सम्पन्न महात्माओं का आन्तरिक वैभव इतना बढ़ा चढ़ा होता है कि वे अपनी नाव पार लगाने के साथ-साथ असंख्यों को अपने प्रकाश एवं सहयोग से पार करते हैं। आत्म शक्ति सम्पन्न व्यक्ति अपनी विभूतियों को लोक हित में लगाने का विवेक जागृत रहने के कारण स्वयं संयम बरतते देखे जाते हैं, इतने पर भी वे दरिद्र नहीं होते। उनके उपार्जन-वैभव का लाभ समस्त संसार उठाता है। स्वयं भी लक्ष्य प्राप्त करते हुए कृत्य कृत्य बनते ही हैं।
सूक्ष्म जगत ब्राह्मी चेतना से भरा हुआ है। जिस प्रकार पदार्थ का आकार भार और गुण होता है उसी प्रकार विश्व व्यापी ब्रह्म चेतना में सत् चित् और आनन्द का भण्डार भरा पड़ा है। जीव का साधारणतया ब्रह्म के साथ इतना ही सम्बन्ध रहता है कि किये हुए कर्मों की प्रतिक्रिया सुख और दुख के रूप में प्राप्त होती रहे। उत्पादन अभिवर्धन और परिवर्तन का क्रम चलता रहे। ईश्वर का प्राणियों के साथ सामान्य तथा इतना ही सम्बन्ध रहता है जिससे सृष्टि का स्वाभाविक क्रम चलता रहे और मर्यादा पालन का—सन्तुलन की व्यवस्था में व्यतिरेक न होने पाये। इससे अतिरिक्त अधिक गहरा संबन्ध बनाना हो तो उसके लिए कुछ विशेष प्रयत्न पुरुषार्थ करने पड़ते हैं। उपासना को इसी स्तर की चेष्टा कह सकते हैं।
नागरिक कर्तव्यों के नाते सब मनुष्य सभी के साथ कर्तव्य पालन की सामान्य श्रृंखला में बंधे हुए हैं किन्तु मैत्री के आधार पर जिनसे घनिष्ठता के बन्धन बंध जाते हैं उनमें आदान प्रदान का अधिक गहरा क्रम चल पड़ता है। सरकार के साथ प्रत्येक प्रजाजन राष्ट्रीय कर्तव्यों की सूत्र-शृंखला में बंधा है पर जब सरकार के कामों में उसके अभीष्ट प्रयोजनों में जब अधिक सहयोग दिया जाता है तो शासन की ओर से भी अधिक सहयोग अनुदान एवं पुरस्कार मिलता है। ब्रह्म तत्व के साथ सघनता स्थापित कर लेने पर उस क्षेत्र में भरी पड़ी उन मंगलमयी विभूतियों का लाभ मिलता है, जिन्हें व्यक्ति में देवत्व के उदय के रूप में देखा जा सकता है। उसके सम्पर्क में स्वर्गीय परिस्थितियां बिखरी दृष्टिगोचर होती हैं।
आत्मिक सम्पदा का अर्जन
भौतिक सम्पदाओं का हर व्यक्ति सीमित मात्रा में ही उपयोग कर सकता है चाहे वे कितनी ही बड़ी मात्रा में संचित क्यों न कर ली जायें। वे दूसरों को ही चमत्कृत करती हैं पर अपने लिये तो उपार्जन और संरक्षण के दबाव को देखते हुए भारी ही पड़ती हैं। आत्मिक सम्पदाओं के बारे में ऐसी बात नहीं है। वे चिरस्थायी होती हैं व्यक्तित्व का अंग बनती हैं जन्म-जन्मान्तरों तक साथ जाती हैं। ब्रह्म चेतना के साथ सम्पर्क साधकर मनुष्य जिन विभूतियों को प्राप्त करता है उनसे व्यक्तित्व का स्तर बहुत ऊंचा उठ जाता है। गुण कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता बढ़ती है दृष्टिकोण व व्यवहार में श्रेष्ठता की मात्रा बढ़ती है। फलतः सम्पर्क क्षेत्र में स्नेह, सम्मान और सहयोग की असाधारण वर्षा होने लगती है। जन सहयोग से भौतिक सफलताओं का द्वार खुलता है। आत्म संतोष और आत्म गौरव का अनुभव भी इन्हीं परिस्थितियों में होता है। उपासना यदि सही सिद्धान्तों को समझते हुए सही आधार को अपनाते हुए की जा सके तो उसके प्रत्यक्ष सत्परिणाम हर किसी को मिल सकते हैं। आत्मिक विभूतियों की और मौलिक सम्पदाओं की कमी नहीं रहती। इस दिशा में कदम बढ़ाने वाले के लोक और परलोक दोनों ही बनते हैं।
सृष्टि में परमार्थ की मात्रा प्रचुर परिमाण में विद्यमान है पर उसे प्राप्त करने के लिए उपायों-उपकरणों की आवश्यकता होती है। जमीन से अन्न उपजाने, पशुओं से दूध निकालने, धातु से औजार बनाने, कुंए से जल निकालने, अन्न से भोजन बनाने के लिये श्रम साधन और बुद्धि तीनों का उपयोग करना पड़ता है। इनके बिना सारे साधन सामने प्रस्तुत रहने पर भी कोई लाभ न उठाया जा सकेगा। ब्रह्म सत्ता सर्वत्र विद्यमान है पर उसकी अभीष्ट मात्रा पकड़ने, भीतर धारण करने और प्रयोग में लाने के लिए भी पुरुषार्थ करना पड़ता है। उसी प्रयत्न पुरुषार्थ को उपासना कहा गया है। बिजली घर में बिजली बनती है। वहां से अपने घर के बल्ब तक उस धारा को जोड़ने के लिए तारों का फिटिंग करना पड़ता है, खम्भे, इन्सुलेटर, स्विच प्लग लगाने पड़ते हैं। यदि संबन्ध कटा रहे तो बल्ब को बिजली की शक्ति का लाभ मिलने और प्रकाशित होने का अवसर ही न मिलेगा। उपासना प्रक्रिया को ईश्वर और जीव के बीच विशिष्ट आदान प्रदान का द्वार खोल देना कह सकते हैं।
चुम्बकत्व जहां होता है वहां सजातीय पदार्थ खिंचते चले आते हैं। वृक्षों का चुम्बकत्व बादलों को बरसने के लिए बाध्य करता है। धातुओं में काम करने वाला चुम्बकत्व दूर-दूर तक रेत में बिखरे पड़े धातु कणों को घसीट कर अपने पास बुलाने और जमा करने का काम करता है। फूल का आकर्षण मधुमक्खियों तितलियों को जमा कर लेता है। उपासना से अन्तः चेतना में उच्चस्तरीय आकर्षण उत्पन्न होता है। उससे ब्रह्म चेतना के महा समुद्र में से अपने लिए आवश्यक विभूतियों को आकर्षित कर लेने में सफलता मिलती है। उपासना प्रक्रिया का तात्विक रहस्य अन्तःचेतना को परिष्कृत करना है। भजन के साबुन से अन्तःकरण पर जमे हुए कषाय-कल्मषों दोष दुर्गुण कुसंस्कारों का परिशोधन होता है। स्वच्छ वस्त्र पर रंगाई करने में कुछ कठिनाई नहीं होती। स्वच्छ दर्पण सामने होने से आकृति स्पष्ट दीखती है। उपासना से आन्तरिक स्वच्छता का उद्देश्य पूरा होता है और उस पर आराध्य परब्रह्म का प्रतिबिम्ब स्पष्ट दीखने लगता है।