Books - आत्म-शक्ति से युग-शक्ति का उद्भव
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उपासना प्रामाणिक हो
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उपासना का शब्दार्थ है—समीप बैठना। ईश्वर और जीव के बीच रहने वाली दूरी को समाप्त करके जिस प्रक्रिया से निकटता बनती हो उसे उपासना कहा जा सकता है। समीपता से विशेषताओं का आदान-प्रदान होता है। एक के गुण दूसरे को प्राप्त होते हैं। सत्संग के लाभ और कुसंग के दुष्परिणाम सर्व विदित हैं अधिक प्रभावशाली तत्व कम सामर्थ्यवानों को अपने प्रभाव से प्रभावित करते हुए सर्वत्र देखे जाते हैं। आग के निकट आने वाले पदार्थ गरम होते हैं और जलने लगते हैं। बर्फ के स्पर्श में जो भी पदार्थ आता है ठण्डा होता जाता है। सुगन्धित और दुर्गन्धि पदार्थों के सम्पर्क में आने वाली वस्तुओं में भी वैसी ही भली या बुरी गन्ध आने लगती है। हरी घास पर पलने वाले टिड्डे हरे रंग के होते हैं ओर हिम प्रदेश में पाये जाने वाले भालू, सफेद रंग के होते हैं। दर्पण के समीप जो भी वस्तु पहुंचती है उसका प्रतिबिम्ब उस पर दीखता है। इसे संगति की समीपता का प्रभाव कह सकते हैं।
उपासना में भी ऐसा ही होता है। ईश्वर के समीप बैठने से उसकी विशेषतायें बैठने वाले के व्यक्तित्व में अवतरित होने लगती हैं। ईश्वर महान है। उसकी समीपता महानता की वृद्धि करती है। ईश्वर अनेकों श्रेष्ठताओं का पुंज है, पास बैठने में वे श्रेष्ठतायें प्रवेश करती हैं। ईश्वर विभूतिवान् है, साधक में विभूतियों की अभिवृद्धि होती है। राजा के अर्दली का भी मान बढ़ जाता है, उसके पास बैठने वाले दरबारियों का रुतबा बढ़ता है। फिर कोई कारण नहीं कि ईश्वर की समीपता यदि वास्तविक हो तो उसका प्रभाव उपासनारत व्यक्ति पर न पड़े।
यह समीपता जब घनिष्ठता में परिणित होती जाती है तो फिर आदान-प्रदान का सिलसिला और भी अधिक अच्छी तरह चल पड़ता है। उपासना में प्रमुख भावना आत्म समर्पण की मानी गई है। घनिष्ठता बढ़ते-बढ़ते एकता में परिणत हो जाती है। उपासना के विधि-विधान का आधार यह है कि उपासक अपने आपको ईश्वर के अति निकट अनुभव करे उसे स्वजन सम्बन्धी माने। आत्मीय जनों के प्रति असामान्य ममता होती है। उनके लिए कुछ विशेष सोचना और विशेष करना पड़ता है। उनके प्रति कर्तव्य और उत्तरदायित्व भी अधिक होते हैं। ऐसी ही मनोभूमि उपासक को विकसित करनी पड़ती है। उसे निकटतम सम्बन्धियों में से एक के स्तर पर सम्बन्ध सूत्र में बांधना पड़ता है। पितु, मातु, सहायक, स्वामी, सखा, जैसे किसी सम्बन्ध को मान लेने से सहज ही कौटुम्बिक घनिष्ठता बढ़ती है, सघन सम्बन्ध सूत्र में बंधे होने की अनुभूति होती है। मीरा ने भगवान को पति रूप में—सूरदास ने पुत्र रूप में माना था। और भी कई कोमल, मृदुल, उत्कृष्टता की भावनाओं से भरे पूरे सम्बन्ध भगवान के साकार उपासक निर्धारित करते हैं इस मान्यता में अपनत्व का—घनिष्ठ सम्पर्क साधने का ही भाव है।
निराकार उपासक भी ध्यान धारण के लिए कोई न कोई प्रतीक नियत करते हैं। इस मान्यता वाले प्रकाश पुंज के रूप में उसका चिन्तन करते हैं। साथ ही यह भी धारणा करते हैं कि वह प्रकाश आत्म सत्ता के कण-कण में प्रवेश करके विभूतियों का अनुग्रह प्रदान करते हैं। साकार उपासना में भी स्वजनों की समीपता से जिस-जिस प्रकार की सुखद भाव संवेदनायें उभरती हैं उनका अनुभव किया जाता है। पूजा उपचार के समस्त क्रिया कलापों में यह भाव रहता है मानो कोई अति श्रद्धास्पद अतिथि सामने उपस्थित हो और उसका श्रद्धा सिक्त सत्कार किया जा रहा हो। धूप, दीप, नैवेद्य, चन्दन, पुष्प, जल, आरती आदि भारतीय शिष्टाचार में सम्माननीय अतिथियों के सत्कार विधान हैं। गुरुजनों का समय-समय पर पूजन अभिवादन इसी प्रकार होता है। इन उपचार कृत्यों को करते हुए उपासक अपने मनः क्षेत्र में यह मान्यता परिपक्व करता है कि ईश्वरीय देव सत्ता उसके सम्मुख विद्यमान है। उपस्थिति की यह मान्यता जितनी गहरी—जितनी ही वास्तविक होगी उतना ही उपचार में आनन्द आवेगा और प्रभाव परिणाम परिलक्षित होगा।
किसी समर्थ सत्ता के साथ अपने आपको जोड़ देने सजा देने से दुर्बल तत्व भी सबल और समर्थ बन जाते हैं। उसका स्तर एवं गौरव भी प्रायः उतना ही ऊंचा उठ जाता है जितना कि समर्थ सत्ता का होता है। बच्चे के हाथ में डोरी रहने पर उसके इशारे से पतंग आसमान में तैरती और तरह तरह की उछल कूद दिखाकर दर्शकों का मनोरंजन करती है। पतंग और उड़ाने वाले का सम्बन्ध टूट जाय तो वह कागज का टुकड़ा आसपास में उड़ना तो दूर जमीन पर पड़ा पड़ा ही नष्ट हो जायगा। अपने बलबूते उठ कर कहीं सुरक्षित स्थान तक न जा सकेगा। कठपुतली और मदारी के पारस्परिक सम्बन्ध सुदृढ़ रहें तो वे लकड़ी के टुकड़े मनमोहक अभिनय करते हैं। यह करामात इस कारण सम्भव हुई कि कठपुतलियों ने अपने को पूरी तरह चलते धागे के सहारे मदारी की उंगलियों में जोड़ दिया। इस घनिष्ठता से ही यह सम्भव हुआ कि मदारी की अदृश्य कलाकारिता का श्रेय कठपुतली के खिलौने को प्राप्त है। यदि सम्बन्ध सूत्र टूट जाय तो खिलौने निष्क्रिय बने एक कोने में उपेक्षित पड़े होंगे तब उनमें न तो कोई हलचल दिखाई देगी और न आकर्षण प्रतीत होगा।
बांसुरी से राग-रागनियां तभी निकलती है जब वह पोली होती हैं और अपने आपको वादक के होठों में पूरी तरह सटा देती हैं। उसके संकेतों पर अपनी सांसें लेती छोड़ती हैं। यदि बांसुरी में मिट्टी भरी हो अथवा होठों से दूर रहे तो यह सम्भव नहीं कि उसमें से मधुर ध्वनि प्रवाह निकल कर सुनने वालों का मन मोहित कर सके।
बेल अपने बलबूते जमीन पर फैल सकती है पर कमर पतली होने के कारण ऊपर नहीं उठ सकती। किन्तु जब वह पेड़ से लिपटकर चलती है तो उतनी ही ऊंची उठ जाती है जितना कि पेड़ होता है। बांसुरी और बेल के उदाहरण समर्पण की उस भावना को व्यक्त करते हैं जो उपासना में ईश्वर के साथ सटने और उसमें तदात्म्य होने से सम्बन्धित हैं। तदात्म्य होने का अर्थ है अपनी कामनाओं को ईश्वर की प्रेरणाओं के अनुरूप ढालना, उसके संकेत निर्देशों के आधार पर अपनी गतिविधियों का निर्धारण करना। यह स्थिति जब भी जहां भी बन रही हो, समझना चाहिए कि वहां सच्ची उपासना का मर्म समझ लिया गया और उसका परम श्रेयस्कर परिणाम उत्पन्न होना सुनिश्चित हो गया।
नाला जब तक अपना स्वतन्त्र नाम रूप बनाये रहता है तब तक वह नाला ही कहलाता है और उफनता भटकता है किन्तु जब वह गंगा में मिल जाता है तो उसका पानी गंगाजल माना जाता है उसे भी इतना ही मान महत्व मिलता है जितना असली गंगाजल को। बूंद जब समुद्र में मिलती है तो उसकी क्षुद्रता सदा सर्वदा के लिए समाप्त हो जाती है। तब वह अपने में समस्त समुद्र को और समुद्र में अपने आपको समाया हुआ देखकर गर्वोन्नत शिर उठाती है। दूध और पानी जब परस्पर मिल जाते हैं तो दोनों का नाम रूप और भाव एक ही हो जाता है। जीव जब परमेश्वर के समीप पहुंचता है तो उसकी विशेषताओं को अपने में धारण करता है और जब एक कदम आगे बढ़कर समर्पण की स्थिति में पहुंचता है तो आत्मा और परमात्मा में अन्तर इतना ही रह जाता है कि एक ससीम होता है और दूसरा असीम। कटोरे में और भगौने में भरा पानी मात्रा में ही न्यूनाधिक होता है दोनों में विशेषतायें एक जैसी ही रहती हैं।
पति और पत्नी के दाम्पत्य जीवन की सफलता इस समर्पण भाव पर ही निर्भर रहती है। पत्नी अपना शील, श्रम मन, व्यवहार, पति की मर्जी पर छोड़कर निश्चिन्त हो जाती है। लगता है इसमें उसने गंवाया ही गंवाया है। पर ध्यान पूर्वक देखने से एक और पहलू सामने आता है कि उसने बिना कीमत दिये एक सुयोग्य साथी को—उसके शरीर मन को—सारे धन वैभव को खरीद लिया। पत्नी पति की आज्ञानुवर्ती बनती है तो पति भी पत्नी का बेपैसे का गुलाम बन जाता है। उस पर प्राण निछावर करता है और छाया की तरह साथ देता है। पति के वंश, पद, यश आदि में पत्नी समान रूप से भागीदार हो जाती है, पति की मृत्यु हो जाने पर वह, उसके बच्चे ही उसके जीवन भर का उपार्जन उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं भक्त और भगवान का रिश्ता भी इसी प्रकार का है। समीपवर्तियों का ध्यान हर कोई रखता है फिर आश्रितों की तो पूरी ही चिन्ता करनी पड़ती है। अपने पास-पड़ौस में कोई रहता है—समीप वाली मेज पर काम करता है तो स्वभावतः उसके दुःख दर्द में अपनी पूरी सहानुभूति होती है और आवश्यक सहायता के लिए सहज ही प्रयत्न होते हैं। ईश्वर के समीप जो भी है, उपासना के माध्यम से जिसने निकटवर्ती स्थान प्राप्त कर लिया है उन्हें अभीष्ट दैवी सहकार निश्चित रूप में मिलता है। फिर जो उसके आज्ञानुवर्ती हैं, समर्पित आश्रित एवं शरणागत हैं, उनके लिए दिया गया वह वचन कभी मिथ्या नहीं होगा जिसमें भक्तों के योग और क्षेम के वहन करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर उठाया है। मनुष्य अपने आश्रित परिवार के भरण-पोषण का—विकास एवं सुरक्षा की व्यवस्था पूरी जिम्मेदारी के साथ निवाहता है। ईश्वर ने भी सदा यह उत्तरदायित्व निबाहा है कि जो उसके निर्देशों का अनुसरण करता है—अनुशासन मानता है और उसकी इच्छा से अपनी इच्छा मिलाकर प्रभु समर्पित जीवन जीता है, उसके आन्तरिक स्तर को निरन्तर ऊंचा उठाया जाय। स्पष्ट है कि व्यक्तित्व ऊंचा उठेगा तो सम्पर्क क्षेत्र में प्रामाणिकता और सद् भावना बढ़ेगी। फलतः सहयोग और सम्मान मिलेगा। ऐसे विश्वस्त समझे जाने वाले लोकप्रिय व्यक्ति अपनी चारित्रिक विशिष्टता के बल पर जन समर्थन से उच्च पदों पर जा पहुंचते हैं। वे जिस भी काम को हाथ में लेते हैं सफल होते चले जाते हैं। यही वे सिद्धियां हैं जो ईश्वर के अनुग्रह से प्राप्त हुई समझी जा सकती हैं। इन्हें उपासना का प्रतिफल कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी।
निस्सन्देह ब्रह्माण्ड—व्यापी ब्रह्म चेतना निराकार है। व्यापक शक्ति एक देशीय नहीं हो सकती। किन्तु उससे सम्पर्क साधने के लिए कोई प्रतीक मानकर ही उससे सम्बन्ध बन सकता है। निराकार इतना व्यापक है कि उसका समग्र ध्यान हमारी कल्पना के छोटे से क्षेत्र में सीमा-बद्ध नहीं हो सकता। भावभरा ध्यान ही एक मात्र वह आधार है जिसके सहारे चेतना खण्डों के बीच सघनता स्थापित हो सकती है। भाव भरा ध्यान करने की क्षमता विकसित किये बिना जीव और ब्रह्म के बीच तादात्म्य स्थापित नहीं हो सकता। व्यापक ब्रह्म का ध्यान कैसे किया जाय और जो निस्पृह है उसके साथ भावों का आरोपण कैसे हो? इस प्रश्न के समाधान में तत्वदर्शियों को एक मात्र उपाय यही हाथ लगा है कि उसकी प्रतीक प्रतिमा बनाई जाय और उसके साथ आत्मीयता भरा कोई सम्बन्ध स्थापित किया जाय। किसी व्यक्ति को पकड़ना होता है तो उसका सारा शरीर नहीं पकड़ा जाता हाथ पकड़ लेने से भी वह पकड़ में आ जाता है। निराकारवादी प्रकाश ज्योति को और साकारवादी अमुक देवता या अवतार को आकृति को ईश्वर की प्रतिमा मानकर उसकी समीपता का अभ्यास करते हैं। उपासना अवधि में ऐसी धारणा की जाती है कि परमेश्वर की सत्ता का प्रतीक इष्टदेव सामने विद्यमान है। उसके साथ अपना अत्यन्त घनिष्ठ कौटुम्बिक सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। दोनों के बीच असीम आत्मीयता है। भक्त भगवान को प्राणप्रिय मानता है और उसके अति निकट सटकर बैठा है। भक्त अपना समर्पण भगवान में करता है और बदले में उसे अनुग्रह उपलब्ध होता है। भक्त की इच्छायें, कामनायें समाप्त हो जाती हैं और उसके स्थान पर भगवान का अनुशासन भक्त के अन्तरंग पर—चिन्तन क्षेत्र पर स्थापित होता है। क्रिया क्षेत्र पर उन्हीं के बताये आदर्शों का परिपालन होता है। यही शरणागति की भावना है। इसी को समर्पण योग कहते हैं। भक्ति का सारा तत्वज्ञान इसी भावना में समाविष्ट है।
ईश्वर सद्गुणों का पुंज है। सत्यं, शिवं, सुन्दरम् के रूप में उसकी दिव्य विभूतियों का संकेत है। समीप बैठने वाले में प्रभावी सत्ता की विशेषताओं का अवतरण होना ही चाहिए। समदर्शी, न्याय निष्ठ, उदार, व्यवस्थापक, परमार्थ परायण, सौन्दर्य संयोजक, कर्मरत, जैसी ईश्वरीय सत्प्रवृत्तियों को परिचय दृष्टि से दृष्टि पसार कर कहीं भी पाया जा सकता है। ईश्वर भक्त यदि सच्चे मन से उपासना करता है तो उसमें इन विशेषताओं का भी उदय अभिवर्धन होना चाहिए।
भक्त जनों का इतिहास यही है उसकी निष्ठा जैसे-जैसे ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ परिपक्व होती गई है वैसे-वैसे ही उसके गुण, कर्म, स्वभाव में श्रेष्ठता का अभिवर्धन होता चला गया है। गिलास में यदि पानी भरा जाये तो उसमें पहले की हवा बाहर निकल जायगी। ईश्वर का देवत्व यदि साधक की आत्म सत्ता में प्रवेश करेगा तो फिर वहां असुरक्षा के लिए कोई स्थान नहीं रह जायगा। स्वार्थान्धता, और निष्ठुरता का निर्वाह भक्ति भावना के साथ हो नहीं सकता। प्रकाश और अन्धकार दोनों एक साथ किस तरह ठहर सकेंगे।
ईश्वर का अवतार धर्म की स्थापना और अधर्म का विनाश करने के लिए होता है। अवतारों के समस्त क्रिया-कलाप इन्हीं दो प्रयोजनों पर केन्द्रीभूत रहे हैं। मनुष्य की अन्तरात्मा में उपासना के फलस्वरूप यदि ईश्वरत्व का अवतरण होगा तो फिर निश्चित रूप में यही दो उमगें प्रबल होती चली जायेंगी। निज जीवन में और सम्पर्क क्षेत्र में इन्हीं दो प्रवृत्तियों के लिए अदम्य उत्साह उठने लगेगा। दोष-दुर्गुणों की असुरता हटाने और सद्भावनाओं-सत्प्रवृत्तियों की दिव्यता बढ़ाने के लिए उपासनारत व्यक्ति को निरन्तर प्रयत्नशील पाया जाएगा। जिसमें यह दोनों उमंगें जिस मात्रा में उठती पाई जायं, समझना चाहिए कि उनकी भक्ति भावना—उपासना— उतनी ही सच्ची और सार्थक है।
भावनाओं में श्रद्धा तत्व का गहरा समावेश करके, परमेश्वर के साथ एकात्म भाव की अभिवृद्धि के लिए उपासना प्रक्रिया के अन्तर्गत अभ्यास किया जाता है। यह भाव संवेदनायें ही भक्ति कहलाती हैं। भगवान का भक्त के वशवर्ती होने का तथ्य सर्वविदित है। इन्हीं सुदृढ़ ध्यान धारणाओं को श्रद्धा कहा गया है। इसी की सघनता के आधार पर जीव और ब्रह्म के बीच वे आदान-प्रदान सम्भव होते हैं जिनकी ईश्वर उपासना के माध्यम से आशा अपेक्षा की जाती है।
आत्मीयता, श्रद्धा और तन्मयता की भाव भूमिका कितनी प्रखर होती है इसका विवरण इतिहास के पन्नों पर विद्यमान है। असाधारण सफलतायें पाने वाले, निराशा में आशा का संचार करने वाले—असम्भव को सम्भव करने वाले मनस्वी लोगों में यही तीन विशेषतायें होती हैं। आत्मिक प्रगति के लिए भी ऐसी ही भावभरी मनःस्थिति बनानी है। इसके लिए इष्टदेव का निर्धारण और उनके साथ एकात्म भाव का संस्थापन ऐसा अभ्यास है जिसके फल स्वरूप अभीष्ट सफलता मिलती है। ब्रह्मचेतना के साथ जीव का सम्बन्ध इसी श्रद्धा-विश्वास की सहायता से बनता है। चेतना सत्ता के पास इससे बड़ा और कोई बन्धन दूसरे चेतना घटक को पकड़ने के लिए है नहीं। मनुष्यों के बीच सुदृढ़ मैत्री इसी आधार पर बनती, पनपती और परिपक्व होती है। एक व्यक्ति दूसरे के लिए प्राण निछावर करता है, सब कुछ लुटा देता है, और बड़े से बड़े संकट सहने को तैयार रहता है। यह प्रेम तत्व के आधार पर विकसित हुई घनिष्ठता ही है। इसी को श्रद्धा भक्ति कहते हैं। उपासना का समुचित सत्परिणाम प्राप्त करने के लिए मात्र कर्मकाण्ड ही पर्याप्त नहीं। उसके साथ श्रद्धा तत्व का समुचित समन्वय भी होना चाहिए।
उपासना में भी ऐसा ही होता है। ईश्वर के समीप बैठने से उसकी विशेषतायें बैठने वाले के व्यक्तित्व में अवतरित होने लगती हैं। ईश्वर महान है। उसकी समीपता महानता की वृद्धि करती है। ईश्वर अनेकों श्रेष्ठताओं का पुंज है, पास बैठने में वे श्रेष्ठतायें प्रवेश करती हैं। ईश्वर विभूतिवान् है, साधक में विभूतियों की अभिवृद्धि होती है। राजा के अर्दली का भी मान बढ़ जाता है, उसके पास बैठने वाले दरबारियों का रुतबा बढ़ता है। फिर कोई कारण नहीं कि ईश्वर की समीपता यदि वास्तविक हो तो उसका प्रभाव उपासनारत व्यक्ति पर न पड़े।
यह समीपता जब घनिष्ठता में परिणित होती जाती है तो फिर आदान-प्रदान का सिलसिला और भी अधिक अच्छी तरह चल पड़ता है। उपासना में प्रमुख भावना आत्म समर्पण की मानी गई है। घनिष्ठता बढ़ते-बढ़ते एकता में परिणत हो जाती है। उपासना के विधि-विधान का आधार यह है कि उपासक अपने आपको ईश्वर के अति निकट अनुभव करे उसे स्वजन सम्बन्धी माने। आत्मीय जनों के प्रति असामान्य ममता होती है। उनके लिए कुछ विशेष सोचना और विशेष करना पड़ता है। उनके प्रति कर्तव्य और उत्तरदायित्व भी अधिक होते हैं। ऐसी ही मनोभूमि उपासक को विकसित करनी पड़ती है। उसे निकटतम सम्बन्धियों में से एक के स्तर पर सम्बन्ध सूत्र में बांधना पड़ता है। पितु, मातु, सहायक, स्वामी, सखा, जैसे किसी सम्बन्ध को मान लेने से सहज ही कौटुम्बिक घनिष्ठता बढ़ती है, सघन सम्बन्ध सूत्र में बंधे होने की अनुभूति होती है। मीरा ने भगवान को पति रूप में—सूरदास ने पुत्र रूप में माना था। और भी कई कोमल, मृदुल, उत्कृष्टता की भावनाओं से भरे पूरे सम्बन्ध भगवान के साकार उपासक निर्धारित करते हैं इस मान्यता में अपनत्व का—घनिष्ठ सम्पर्क साधने का ही भाव है।
निराकार उपासक भी ध्यान धारण के लिए कोई न कोई प्रतीक नियत करते हैं। इस मान्यता वाले प्रकाश पुंज के रूप में उसका चिन्तन करते हैं। साथ ही यह भी धारणा करते हैं कि वह प्रकाश आत्म सत्ता के कण-कण में प्रवेश करके विभूतियों का अनुग्रह प्रदान करते हैं। साकार उपासना में भी स्वजनों की समीपता से जिस-जिस प्रकार की सुखद भाव संवेदनायें उभरती हैं उनका अनुभव किया जाता है। पूजा उपचार के समस्त क्रिया कलापों में यह भाव रहता है मानो कोई अति श्रद्धास्पद अतिथि सामने उपस्थित हो और उसका श्रद्धा सिक्त सत्कार किया जा रहा हो। धूप, दीप, नैवेद्य, चन्दन, पुष्प, जल, आरती आदि भारतीय शिष्टाचार में सम्माननीय अतिथियों के सत्कार विधान हैं। गुरुजनों का समय-समय पर पूजन अभिवादन इसी प्रकार होता है। इन उपचार कृत्यों को करते हुए उपासक अपने मनः क्षेत्र में यह मान्यता परिपक्व करता है कि ईश्वरीय देव सत्ता उसके सम्मुख विद्यमान है। उपस्थिति की यह मान्यता जितनी गहरी—जितनी ही वास्तविक होगी उतना ही उपचार में आनन्द आवेगा और प्रभाव परिणाम परिलक्षित होगा।
किसी समर्थ सत्ता के साथ अपने आपको जोड़ देने सजा देने से दुर्बल तत्व भी सबल और समर्थ बन जाते हैं। उसका स्तर एवं गौरव भी प्रायः उतना ही ऊंचा उठ जाता है जितना कि समर्थ सत्ता का होता है। बच्चे के हाथ में डोरी रहने पर उसके इशारे से पतंग आसमान में तैरती और तरह तरह की उछल कूद दिखाकर दर्शकों का मनोरंजन करती है। पतंग और उड़ाने वाले का सम्बन्ध टूट जाय तो वह कागज का टुकड़ा आसपास में उड़ना तो दूर जमीन पर पड़ा पड़ा ही नष्ट हो जायगा। अपने बलबूते उठ कर कहीं सुरक्षित स्थान तक न जा सकेगा। कठपुतली और मदारी के पारस्परिक सम्बन्ध सुदृढ़ रहें तो वे लकड़ी के टुकड़े मनमोहक अभिनय करते हैं। यह करामात इस कारण सम्भव हुई कि कठपुतलियों ने अपने को पूरी तरह चलते धागे के सहारे मदारी की उंगलियों में जोड़ दिया। इस घनिष्ठता से ही यह सम्भव हुआ कि मदारी की अदृश्य कलाकारिता का श्रेय कठपुतली के खिलौने को प्राप्त है। यदि सम्बन्ध सूत्र टूट जाय तो खिलौने निष्क्रिय बने एक कोने में उपेक्षित पड़े होंगे तब उनमें न तो कोई हलचल दिखाई देगी और न आकर्षण प्रतीत होगा।
बांसुरी से राग-रागनियां तभी निकलती है जब वह पोली होती हैं और अपने आपको वादक के होठों में पूरी तरह सटा देती हैं। उसके संकेतों पर अपनी सांसें लेती छोड़ती हैं। यदि बांसुरी में मिट्टी भरी हो अथवा होठों से दूर रहे तो यह सम्भव नहीं कि उसमें से मधुर ध्वनि प्रवाह निकल कर सुनने वालों का मन मोहित कर सके।
बेल अपने बलबूते जमीन पर फैल सकती है पर कमर पतली होने के कारण ऊपर नहीं उठ सकती। किन्तु जब वह पेड़ से लिपटकर चलती है तो उतनी ही ऊंची उठ जाती है जितना कि पेड़ होता है। बांसुरी और बेल के उदाहरण समर्पण की उस भावना को व्यक्त करते हैं जो उपासना में ईश्वर के साथ सटने और उसमें तदात्म्य होने से सम्बन्धित हैं। तदात्म्य होने का अर्थ है अपनी कामनाओं को ईश्वर की प्रेरणाओं के अनुरूप ढालना, उसके संकेत निर्देशों के आधार पर अपनी गतिविधियों का निर्धारण करना। यह स्थिति जब भी जहां भी बन रही हो, समझना चाहिए कि वहां सच्ची उपासना का मर्म समझ लिया गया और उसका परम श्रेयस्कर परिणाम उत्पन्न होना सुनिश्चित हो गया।
नाला जब तक अपना स्वतन्त्र नाम रूप बनाये रहता है तब तक वह नाला ही कहलाता है और उफनता भटकता है किन्तु जब वह गंगा में मिल जाता है तो उसका पानी गंगाजल माना जाता है उसे भी इतना ही मान महत्व मिलता है जितना असली गंगाजल को। बूंद जब समुद्र में मिलती है तो उसकी क्षुद्रता सदा सर्वदा के लिए समाप्त हो जाती है। तब वह अपने में समस्त समुद्र को और समुद्र में अपने आपको समाया हुआ देखकर गर्वोन्नत शिर उठाती है। दूध और पानी जब परस्पर मिल जाते हैं तो दोनों का नाम रूप और भाव एक ही हो जाता है। जीव जब परमेश्वर के समीप पहुंचता है तो उसकी विशेषताओं को अपने में धारण करता है और जब एक कदम आगे बढ़कर समर्पण की स्थिति में पहुंचता है तो आत्मा और परमात्मा में अन्तर इतना ही रह जाता है कि एक ससीम होता है और दूसरा असीम। कटोरे में और भगौने में भरा पानी मात्रा में ही न्यूनाधिक होता है दोनों में विशेषतायें एक जैसी ही रहती हैं।
पति और पत्नी के दाम्पत्य जीवन की सफलता इस समर्पण भाव पर ही निर्भर रहती है। पत्नी अपना शील, श्रम मन, व्यवहार, पति की मर्जी पर छोड़कर निश्चिन्त हो जाती है। लगता है इसमें उसने गंवाया ही गंवाया है। पर ध्यान पूर्वक देखने से एक और पहलू सामने आता है कि उसने बिना कीमत दिये एक सुयोग्य साथी को—उसके शरीर मन को—सारे धन वैभव को खरीद लिया। पत्नी पति की आज्ञानुवर्ती बनती है तो पति भी पत्नी का बेपैसे का गुलाम बन जाता है। उस पर प्राण निछावर करता है और छाया की तरह साथ देता है। पति के वंश, पद, यश आदि में पत्नी समान रूप से भागीदार हो जाती है, पति की मृत्यु हो जाने पर वह, उसके बच्चे ही उसके जीवन भर का उपार्जन उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं भक्त और भगवान का रिश्ता भी इसी प्रकार का है। समीपवर्तियों का ध्यान हर कोई रखता है फिर आश्रितों की तो पूरी ही चिन्ता करनी पड़ती है। अपने पास-पड़ौस में कोई रहता है—समीप वाली मेज पर काम करता है तो स्वभावतः उसके दुःख दर्द में अपनी पूरी सहानुभूति होती है और आवश्यक सहायता के लिए सहज ही प्रयत्न होते हैं। ईश्वर के समीप जो भी है, उपासना के माध्यम से जिसने निकटवर्ती स्थान प्राप्त कर लिया है उन्हें अभीष्ट दैवी सहकार निश्चित रूप में मिलता है। फिर जो उसके आज्ञानुवर्ती हैं, समर्पित आश्रित एवं शरणागत हैं, उनके लिए दिया गया वह वचन कभी मिथ्या नहीं होगा जिसमें भक्तों के योग और क्षेम के वहन करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर उठाया है। मनुष्य अपने आश्रित परिवार के भरण-पोषण का—विकास एवं सुरक्षा की व्यवस्था पूरी जिम्मेदारी के साथ निवाहता है। ईश्वर ने भी सदा यह उत्तरदायित्व निबाहा है कि जो उसके निर्देशों का अनुसरण करता है—अनुशासन मानता है और उसकी इच्छा से अपनी इच्छा मिलाकर प्रभु समर्पित जीवन जीता है, उसके आन्तरिक स्तर को निरन्तर ऊंचा उठाया जाय। स्पष्ट है कि व्यक्तित्व ऊंचा उठेगा तो सम्पर्क क्षेत्र में प्रामाणिकता और सद् भावना बढ़ेगी। फलतः सहयोग और सम्मान मिलेगा। ऐसे विश्वस्त समझे जाने वाले लोकप्रिय व्यक्ति अपनी चारित्रिक विशिष्टता के बल पर जन समर्थन से उच्च पदों पर जा पहुंचते हैं। वे जिस भी काम को हाथ में लेते हैं सफल होते चले जाते हैं। यही वे सिद्धियां हैं जो ईश्वर के अनुग्रह से प्राप्त हुई समझी जा सकती हैं। इन्हें उपासना का प्रतिफल कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी।
निस्सन्देह ब्रह्माण्ड—व्यापी ब्रह्म चेतना निराकार है। व्यापक शक्ति एक देशीय नहीं हो सकती। किन्तु उससे सम्पर्क साधने के लिए कोई प्रतीक मानकर ही उससे सम्बन्ध बन सकता है। निराकार इतना व्यापक है कि उसका समग्र ध्यान हमारी कल्पना के छोटे से क्षेत्र में सीमा-बद्ध नहीं हो सकता। भावभरा ध्यान ही एक मात्र वह आधार है जिसके सहारे चेतना खण्डों के बीच सघनता स्थापित हो सकती है। भाव भरा ध्यान करने की क्षमता विकसित किये बिना जीव और ब्रह्म के बीच तादात्म्य स्थापित नहीं हो सकता। व्यापक ब्रह्म का ध्यान कैसे किया जाय और जो निस्पृह है उसके साथ भावों का आरोपण कैसे हो? इस प्रश्न के समाधान में तत्वदर्शियों को एक मात्र उपाय यही हाथ लगा है कि उसकी प्रतीक प्रतिमा बनाई जाय और उसके साथ आत्मीयता भरा कोई सम्बन्ध स्थापित किया जाय। किसी व्यक्ति को पकड़ना होता है तो उसका सारा शरीर नहीं पकड़ा जाता हाथ पकड़ लेने से भी वह पकड़ में आ जाता है। निराकारवादी प्रकाश ज्योति को और साकारवादी अमुक देवता या अवतार को आकृति को ईश्वर की प्रतिमा मानकर उसकी समीपता का अभ्यास करते हैं। उपासना अवधि में ऐसी धारणा की जाती है कि परमेश्वर की सत्ता का प्रतीक इष्टदेव सामने विद्यमान है। उसके साथ अपना अत्यन्त घनिष्ठ कौटुम्बिक सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। दोनों के बीच असीम आत्मीयता है। भक्त भगवान को प्राणप्रिय मानता है और उसके अति निकट सटकर बैठा है। भक्त अपना समर्पण भगवान में करता है और बदले में उसे अनुग्रह उपलब्ध होता है। भक्त की इच्छायें, कामनायें समाप्त हो जाती हैं और उसके स्थान पर भगवान का अनुशासन भक्त के अन्तरंग पर—चिन्तन क्षेत्र पर स्थापित होता है। क्रिया क्षेत्र पर उन्हीं के बताये आदर्शों का परिपालन होता है। यही शरणागति की भावना है। इसी को समर्पण योग कहते हैं। भक्ति का सारा तत्वज्ञान इसी भावना में समाविष्ट है।
ईश्वर सद्गुणों का पुंज है। सत्यं, शिवं, सुन्दरम् के रूप में उसकी दिव्य विभूतियों का संकेत है। समीप बैठने वाले में प्रभावी सत्ता की विशेषताओं का अवतरण होना ही चाहिए। समदर्शी, न्याय निष्ठ, उदार, व्यवस्थापक, परमार्थ परायण, सौन्दर्य संयोजक, कर्मरत, जैसी ईश्वरीय सत्प्रवृत्तियों को परिचय दृष्टि से दृष्टि पसार कर कहीं भी पाया जा सकता है। ईश्वर भक्त यदि सच्चे मन से उपासना करता है तो उसमें इन विशेषताओं का भी उदय अभिवर्धन होना चाहिए।
भक्त जनों का इतिहास यही है उसकी निष्ठा जैसे-जैसे ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ परिपक्व होती गई है वैसे-वैसे ही उसके गुण, कर्म, स्वभाव में श्रेष्ठता का अभिवर्धन होता चला गया है। गिलास में यदि पानी भरा जाये तो उसमें पहले की हवा बाहर निकल जायगी। ईश्वर का देवत्व यदि साधक की आत्म सत्ता में प्रवेश करेगा तो फिर वहां असुरक्षा के लिए कोई स्थान नहीं रह जायगा। स्वार्थान्धता, और निष्ठुरता का निर्वाह भक्ति भावना के साथ हो नहीं सकता। प्रकाश और अन्धकार दोनों एक साथ किस तरह ठहर सकेंगे।
ईश्वर का अवतार धर्म की स्थापना और अधर्म का विनाश करने के लिए होता है। अवतारों के समस्त क्रिया-कलाप इन्हीं दो प्रयोजनों पर केन्द्रीभूत रहे हैं। मनुष्य की अन्तरात्मा में उपासना के फलस्वरूप यदि ईश्वरत्व का अवतरण होगा तो फिर निश्चित रूप में यही दो उमगें प्रबल होती चली जायेंगी। निज जीवन में और सम्पर्क क्षेत्र में इन्हीं दो प्रवृत्तियों के लिए अदम्य उत्साह उठने लगेगा। दोष-दुर्गुणों की असुरता हटाने और सद्भावनाओं-सत्प्रवृत्तियों की दिव्यता बढ़ाने के लिए उपासनारत व्यक्ति को निरन्तर प्रयत्नशील पाया जाएगा। जिसमें यह दोनों उमंगें जिस मात्रा में उठती पाई जायं, समझना चाहिए कि उनकी भक्ति भावना—उपासना— उतनी ही सच्ची और सार्थक है।
भावनाओं में श्रद्धा तत्व का गहरा समावेश करके, परमेश्वर के साथ एकात्म भाव की अभिवृद्धि के लिए उपासना प्रक्रिया के अन्तर्गत अभ्यास किया जाता है। यह भाव संवेदनायें ही भक्ति कहलाती हैं। भगवान का भक्त के वशवर्ती होने का तथ्य सर्वविदित है। इन्हीं सुदृढ़ ध्यान धारणाओं को श्रद्धा कहा गया है। इसी की सघनता के आधार पर जीव और ब्रह्म के बीच वे आदान-प्रदान सम्भव होते हैं जिनकी ईश्वर उपासना के माध्यम से आशा अपेक्षा की जाती है।
आत्मीयता, श्रद्धा और तन्मयता की भाव भूमिका कितनी प्रखर होती है इसका विवरण इतिहास के पन्नों पर विद्यमान है। असाधारण सफलतायें पाने वाले, निराशा में आशा का संचार करने वाले—असम्भव को सम्भव करने वाले मनस्वी लोगों में यही तीन विशेषतायें होती हैं। आत्मिक प्रगति के लिए भी ऐसी ही भावभरी मनःस्थिति बनानी है। इसके लिए इष्टदेव का निर्धारण और उनके साथ एकात्म भाव का संस्थापन ऐसा अभ्यास है जिसके फल स्वरूप अभीष्ट सफलता मिलती है। ब्रह्मचेतना के साथ जीव का सम्बन्ध इसी श्रद्धा-विश्वास की सहायता से बनता है। चेतना सत्ता के पास इससे बड़ा और कोई बन्धन दूसरे चेतना घटक को पकड़ने के लिए है नहीं। मनुष्यों के बीच सुदृढ़ मैत्री इसी आधार पर बनती, पनपती और परिपक्व होती है। एक व्यक्ति दूसरे के लिए प्राण निछावर करता है, सब कुछ लुटा देता है, और बड़े से बड़े संकट सहने को तैयार रहता है। यह प्रेम तत्व के आधार पर विकसित हुई घनिष्ठता ही है। इसी को श्रद्धा भक्ति कहते हैं। उपासना का समुचित सत्परिणाम प्राप्त करने के लिए मात्र कर्मकाण्ड ही पर्याप्त नहीं। उसके साथ श्रद्धा तत्व का समुचित समन्वय भी होना चाहिए।