Books - एनी वेसेन्ट
Language: HINDI
तत्त्वज्ञान की संदेशवाहिका- श्रीमति एनीबेसेंट
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पर इसके बाद जब निजी संपत्ति और जायदाद की प्रणाली बढ़ने लगी और उसके संरक्षण के लिए शक्ति के प्रयोग और संघर्ष की आवश्यकता बढ़ गई, तो घर और समाज की बागडोर विशेष रूप से पुरुषों के हाथ में आने लग गई। स्त्री स्वभाव से निर्माणकर्त्री थी, लड़ने- भिड़ने का संहारक कृत्य उसकी प्रकृति के अनुकूल न था। इससे पुरुष के अधिकार और उसका नियंत्रण दिन पर दिन बढ़ने लगा और कुछ काल पश्चात् ऐसी परिस्थिति आ गई जब स्त्री को एक प्रकार से पुरुष की संपत्ति बना लिया गया। हमारे देश के बडे़ पुरुष, खासकर राजा- महाराजा अनेकों रानियाँ, दासियाँ रखने लगे। इसका परिणाम समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ। स्त्री बौद्धिक और व्यवहारिक दृष्टि से हीन मानी जाने लगी और घर की चहारदीवारी में आबद्ध हो जाने से उसका सांसारिक ज्ञान घटने लगा। इस प्रकार पुरुषों ने आधी मानव जाति की शक्ति और उपयोगिता को बहुत कुछ नष्ट कर डाला। उच्च श्रेणी के समाज में तो स्त्री की स्थिति उपयोगिता के बजाय केवल शोभा की रह गई और वे एक भारस्वरूप बन गई, जिसकी हमेशा रक्षा करते रहना आवश्यक हो गया।
यह स्थिति मानव- जाति की प्रगति की दृष्टि से अंत में हानिकारक ही सिद्ध हुई। इससे करोड़ों स्त्रियों की उपार्जन- क्षमता नष्ट हो जाने के साथ ही संतान के लालन- पालन में भी दुष्परिणाम दिखलाई पड़ने लगा। घर में आबद्ध हो जाने के कारण स्त्री में जो संकीर्णता की भावना उत्पन्न हो गई थी, वही उसकी संतान को भी प्रभावित करने लगी और मनुष्यों में सामूहिक हित और सामाजिक एकता के बजाय व्यक्तिगत लाभ और पार्थक्य की वृत्तियाँ पनपने लगीं। इससे समाज, देश, राष्ट्र, संसार अनगिनत टुकड़ों में बँट गया और उनमें सहयोग के बजाय संघर्ष की प्रवृत्ति ने उचित से अधिक स्थान पा लिया।
अब पिछले सौ- डेढ़ सौ वर्षों से जब विचारकों और समाज- हितैषियों ने इस अवस्था की हानियों को अनुभव किया, तो उन्होंने नारी- स्वाधीनता की आवाज उठाई, जिससे स्त्रियों में कुछ जागृति के लक्षण प्रकट होने लगे और अनेक महिलाएँ आगे बढ़कर समाज, देश, राष्ट्र संबंधी मामलों में भाग लेने लगीं। उनमें से अनेक विद्या, बुद्धि, कर्तृव्य शक्ति की दृष्टि से उच्च स्थान पर पहुँच गई और उन्होंने मानव- समाज को मार्गदर्शन कराने में प्रशंसनीय कार्य कर दिखाया। श्रीमती एनीबेसेंट की गणना ऐसी ही महिमामयी नारियों में की जाती है।
श्रीमती एनीबेसेंट की सबसे बडी़ विशेषता यह थी कि संकीर्णता की जो भावना बहुत काल से नारी- जाति की प्रधान त्रुटि हो गई थी, वे उससे सर्वथा पृथक् थीं और इस दृष्टि से उनका उदाहरण नारी- समाज के लिए बहुत बडा़ प्रेरक है। वे इंग्लैंड में पैदा हुईं, पर उन्होंने भारतवर्ष को अपना घर बना लिया और उनका उनका कार्य- क्षेत्र संसार के दूर- दूर के देशों तक फैला हुआ था। इसी प्रकार जन्म से वे ईसाई थीं, आरंभ में उनको उस धर्म की शिक्षा भी दी गई, पर आगे चलकर वे हिंदू- धर्म के नियमों का पालन करने लग गईं। अपने उद्योग से ही वे संसार के सब धर्मों की ज्ञाता बन गईं और उन्होंने एक ऐसे सार्वभौम धार्मिक- समाज कासंचलान किया जिसने सभी मजहबों और देशों के व्यक्तियों में एकता और प्रेम की भावना उत्पन्न करने में बडा़काम किया।
श्रीमती बेसेंट का जन्म १८४७ में इंग्लैंड के एक मध्य श्रेणी के गृहस्थ के घर में हुआ था, उनके पितागणितशास्त्र के विद्वान् थे और डॉक्टरी में भी उनको बडी़ रुचि थी। उनकी माता भी एक प्रसिद्ध वंश में से थी, जिससे उनको अपने परिवार के सम्मान का सदा ध्यान रहता था। वे आगे चलकर अनेक प्रकार की विपत्तियों में भी इसीलिये यथासंभव स्वावलंबिनी बनीं रहीं और श्रीमती बेसेंट ने भी उनसे स्वावलंबन का जो पाठ सीखा- उसके सहारे बिना किसी बडे़ साधन के वे अपने ही उद्योग से इतना आगे बढ़ सकीं कि संसार भर में एक सम्माननीय धार्मिक और राजनीतिक नेता के रूप में उन्होंने ख्याति प्राप्त कर ली।
जब श्रीमती बेसेंट पाँच वर्ष की हुईं तो इनके पिता का देहांत हो गया। इससे उनकी माता के ऊपर बडा़भार आ पडा़। घर में कोई बडी़ संपत्ति अथवा जायदाद न थी और ये अपने बच्चों को ऊँची शिक्षा दिलाकर सभ्य समाज के योग्य बनाना चाहती थीं। इसलिए वे 'हैरो' नामक स्थान में जाकर रहने लगीं, जो छोटा होने से कम खर्च का था, पर जहाँ एक ऐसा स्कूल था, जिसका नाम शिक्षा- जगत् में दूर- दूर तक प्रसिद्ध था। यहाँ उनकोंएक ऐसा व्यक्ति मिल गया, जिसने इन्हें अपने लड़के की देखभाल और शिक्षा की व्यवस्था करने को नियुक्त कर दिया। इस प्रकार उसके लड़के के साथ इनके बच्चों की शिक्षा होने लगी। इसके पश्चात् हैरो स्कूल केहैडमास्टर डॉ॰ बोथम और उनकी पत्नी से इनका परिचय हो गया और उनकी सहायता से उनको एक ऐसे मकान में रहने को स्थान मिल गया, जिसमें कुछ लड़के रहते थे। बेसेंट की माता उस 'होस्टल' की व्यवस्थापिका बन दी गई। उसी मकान में एक अध्यापक भी रहने लगे। इस तरह उनको जीवन निर्वाह का एक कार्य मिल गया और बच्चों की शिक्षा भी अधिक नियमित रूप से होने लगी।
माता- पिता का संतान के प्रति सबसे बडा़ कर्तव्य यही है कि वह उसको शिक्षित और कर्मठ बना दें। यदि बच्चों में ये दो गुण आ गये तो आगे चलकर वे अपना रास्ता आप बना लेगें। पर अभी तक हमारे देश कीमातायें इस तरफ बहुत कम ध्यान देती हैं। वे स्वयं अशिक्षित होती हैं और इसलिए अपनी संतान की शिक्षा को भी बहुत कम महत्त्व देती हैं। वे बचपन में संतान का लाड़- दुलार करना और जहाँ तक बन पडे़ उनके खाने- पहनने की अच्छी व्यवस्था करना ही अपना कर्तव्य समझती हैं। पर इस प्रकार के व्यवहार से बच्चों का अहित ही होता है। उनको आराम से, फैशन से रहने की आदत पड़ जाती है और परिश्रम तथा काम से वे जी चुराने लगते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनको आगामी जीवन में तरह- तरह की कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ती हैं और वे समाज का हित करने के बजाय उसमें प्रायः विकृतियाँ उत्पन्न करने के ही निमित्त बन जाते हैं।
शिक्षा और देश भ्रमण- इस समय संयोग से कुमारी मेरियट नाम की एक धनी वृद्ध महिला हैरो में आई और एनीबेसेंट की माता का उनसे परिचय हो गया। कुमारी मेरियट ने आजन्म विवाह नहीं किया था और अपना समस्त जीवन अपने परिचितों, कुटुंबियों, दीन- दुःखियों की सहायता में ही लगाया था। उन्होंने जब ऐनीबेसेंट को देखा तो वे उनकी तरफ आकर्षित हो गई और उनकी माता से कहा कि- "इस लड़की को मेरे साथ रख दो, जिससे इसकी शिक्षा- दीक्षा की उचित व्यवस्था हो सके।" पहले तो माता को अपनी पुत्री का वियोग कठिन जान पडा़, पर जब उन्होंने उसके भविष्य पर विचार किया तो वे राजी हो गईं।
आरंभिक जीवन में एनी को धार्मिक शिक्षा दी गई और 'पिलीग्रिम्ज प्रोग्रेस' और 'पैरेडाइज लास्ट' जैसी पुस्तकें पढ़ने से उनमें धर्म- कार्यों के लिए बडा़ उत्साह उत्पन्न हो गया। परिवार की धार्मिक सभा में सबको अलग- अलग खडे़ होकर प्रभु ईसा की प्रार्थना करनी पड़ती थी। पाँच वर्ष की एनी को जब कहा जाता, तो पहले तो उनको भय लगता, पर जब मुँह खुल जाता तो ऐसे मधुर ढंग से बोलतीं कि सभी सराहना करने लग जाते। इस प्रकार उसी समय से उनमें भाषण कला का गुण विकसित होने लगा, जिसके बल से आगे चलकर उन्होंने जीवन में बहुत बडी़ सफलता पाई और संसार भर में लाखों अनुयायी बना लिये।
कुमारी मेरियट स्वयं बडी़ समझदार और परोपकारी महिला थीं, अगर कोई भूखा गरीब मनुष्य उनके पास आता तो वे उसे पैसा न देकर स्वयं भोजन करातीं। यदि वह स्वस्थ और कार्य करने लायक होता तो उसके लिये स्वयं दौड़- धूप करके कोई रोजगार तलाश कर देती थी। उनके इन गुणों का प्रभाव एनी तथा अन्य लड़कियों पर भी पडा़। जब वे लोग किसी दीन- दुःखी को देखकर उसकी सहायता की प्रार्थन करतीं, तो कुमारी मेरियट उनको समझाती कि "तुम लोग एक सप्ताह तक चीनी न खाकर या कोई दूसरी आराम की चीज छोड़कर पैसा बचाओ और उससे इसकी सहायता करो।" इस प्रकार वे उनको स्वयं त्याग करके दूसरों का उपकार करने की शिक्षा देती थीं।
एनी जब पंद्रह वर्ष की हुई तो कुमारी मेरियट इनको अन्य परिवार वालों के साथ विदेश यात्रा के लिए ले गई। इससे इनका व्यावहारिक ज्ञान बहुत बढ़ गया और जर्मन तथा फ्रांसीसी भाषा का अभ्यास भी हो गया। पर अब कुमारी मेरियट ने धीरे- धीरे इनको पढा़ना बंद कर दिया। जब इन्होंने कहा कि- "मैं सदैव तुम्हारे साथ नहीं रहूँगी, इसलिए अब तुमको स्वयं अपने पैरों पर खडे़ होने का अभ्यास भी करना चाहिए। जो लोग अंत तक शिक्षकों और अभिभावकों के सहारे ही रहते हैं, उनको शिक्षा समाप्त करने पर एकाएक मालूम पड़ता है कि अब क्या करें? इसलिए तुमको अभी से स्वावलंबन का अभ्यास करना चाहिए। तुमको आरंभिक शिक्षा अच्छी तरह मिल चुकी है। अब उद्योग करोगी तो स्वयं इसको बढा़कर जो कार्य करना चाहो उसके योग्य बन सकती हो।" इस प्रकार कुमारी मेरियट ने इनके जीवन की सफलता का मार्ग खोल दिया, जिससे आगे चलकर वे हर तरह के संघर्ष में साहस रखकर आगे बढ़ सकीं और अपने लिए ही नहीं, समाज के लिए भी बहुत कुछ करने में समर्थ हो सकीं।
समाज- सेवा का श्रीगणेश-
इंग्लैंड वापस आकर एनी और उसकी माता मैंचेस्टर में रहने लगीं। उद्योग धंधों का नगर था और यहाँ मजदूरों की बहुत बडी़ बस्ती थी। इन लोगों की इस समय बहुत खराब हालत थी और उनको उद्योगपतियों केबडे़- बडे़ अन्याय सहने पड़ते थे। एनी को यह सब बहुत बुरा लगता था और वह इनकी सहायता, सेवा करने का मार्ग ढूँढने लगी। उस समय वहाँ 'राबर्ट' नाम का वकील इन अन्याय पीडि़तों की सेवा में संलग्न था। उन दिनों कोयले की खानों में काम करने वाली स्त्रियों की बडी़ बुरी हालत थी। दिन भर कठोर परिश्रम करने पर भी उन बेचारियों को न पूरा खाना मिलता था, न तन ढकने को साबुत कपडा़। वे ठंड सहती हुईं, अपने दूध- पीते बच्चों को गोद में संभाले, किसी प्रकार काम करतीं रहतीं। पाँच- सात वर्ष के बच्चों को दरवाजे पर रखवाली के लिए बैठा दिया जाता और जब वे सो जाते, तो ठोकर मारकर उनको उठाया जाता।
'दरिद्रों के वकील राबर्ट' और उसके कुछ अन्य सहकारियों ने इन अन्यायों के विरुद्ध आंदोलन उठाया। एनी भी उसमें शामिल हो गईं। राबर्ट कहा करता था- "मजदूर- गरीब ही काम करने वाली शहद मक्खियाँ हैं, वे ही समस्त धन को पैदा करने वाले हैं। इनके साथ न्यायोचित व्यवहार होना चाहिए, स्वतंत्र जीवन व्यतीत करने का अवसर दिया जाना चाहिए।" एनी पर ऐसे उपदेशों का बडा़ प्रभाव पड़ता था और वहबडे़ उत्साह से मजदूर- आंदोलन का कार्य करती थी। यहीं से उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों में भाग लेने की प्रेरणा प्राप्त की।
एनी को राजनीति की तरफ आकर्षित करने वाला एक और कारण उसी समय पैदा हो गया। उस समयआयरलैंड में जोरों से स्वतंत्रता- आंदोलन चल रहा था और अंग्रेज सरकार बडी़ क्रूरता के साथ उसका दमन कर रही थी। एनी का माता आयरिश ही थी और इसलिये इनकी सहानुभूति आयरलैंड के साथ थी।
आयरलैंड के दो नेता कर्नल केली और कप्तान डीजे मैंचेस्टर में गिरफ्तार कर लिये गये और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। इससे इंग्लैंड में रहने वाले आयरिश लोगों में बडा़ जोश फैल गया और एक दिन उन्होंने इकट्ठे होकर जेलखाने की गाडी़ पर, जिसमें दोनों नेताओं को अदालत से लाया जा रहा था, हमला कर दिया, यद्यपि उस समय एक कांस्टेबिल को मारकर दोनों कैदी छुडा़ लिये गये, पर बाद में पुलिस ने आकर भीड़ पर हमला किया और चार व्यक्तियों को हत्या के अपराध में गिरफ्तार कर लिया। एनी भी इनका मुकदमा देखने जाती थी और जब उनको प्राण दंड दिया गया, तब वह बडी़ दुःखी हुईं। उसने बाद में इस संबंध में लिखा कि "यदि इन वीरों ने किसी अन्य देश की स्वाधीनता के लिए इसी प्रकार युद्ध किया होता, तो इंग्लैंडवाले उनका स्वागत और सम्मान करते। परंतु इन आयरलैंड की स्वाधीनता के लिये प्राण देने वालों को मामूली अपराधियों की तरह उनको कब्रिस्तान में गाड़ दिया गया। यह मनोवृत्ति स्वार्थपरता और संकीर्णता की ही परिचायक है।"
विवाह और तलाक-
सन् १८६६ में इनकी माता ने इनके जीवन का मार्ग बदलने के उद्देश्य से इनका विवाह रेवरेंड फ्रेंकबेसेंट नामक पादरी से कर दिया। ये उस समय यद्यपि धार्मिक स्वतंत्रता की अनुयायी बनती जा रही थी और 'ईसाई धर्म ही सच्चा है' इस विचार से हटती जा रही थीं, पर एक पादरी के साहचर्य में रहने से गरीबों की सेवा करने का अधिक अवसर मिलेगा, यह सोचकर इन्होंने इस संबंध को स्वीकार कर लिया। पर यहाँ तो मामला उलटा निकला। पादरी बेसेंट परंपरावादी पंडित- पुजारियों की तरह केवल अपने धार्मिक- कृत्यों से संबंध रखने वाला व्यक्ति था, जबकि ये सत्य की दृढ़ जिज्ञासु थीं। इनका पति एकमात्र बाइबिल पर विश्वास रखने वाला था, पर ये संसार के सभी तरह के दार्शनिक और धार्मिक मतों के समीक्षा करके सत्य का निर्णय करना चाहती थीं। इनका कायक्षेत्र भी समाज सुधार तथा राजनीतिक आंदोलन में भाग लेने के कारण दूर- दूर तक फैला हुआ था। इससे विवाह के कुछ महीने बाद ही दोनों में मतभेद प्रकट होने लागा। पर धीरे- धीरे ये इसगाडी़ को खींचती रहीं और इस बीच में इनके दो संतान- एक लड़का और एक लड़की भी गईं। इनको लेखों और व्याख्यानों आदि से जो आय होती थीं, उसको भी ये पति को ही देती थी, इससे भी कुछ शांति बनी रहती थी।
पर इनके धार्मिक- स्वतंत्रता के विचार दिन पर दिन बढ़ते जाते थे और सभाओं में प्रायः बाइबिल और ईसाई धर्म के विरुद्ध बातें कह देती थीं। इस पर अन्य पादरी इनके पति पर आक्षेप करते थे और बदले में वह इनको जली- कटी सुनाता था। इसी बीच में इनके दोनों बच्चे बीमार हो गये और उनके बचने की आशा न रही। इससे इनके मन को बडा़ धक्का लगा। वह कहने लगीं कि भगवान् को इतना दयालु कहा जाता है तो कहाँ गई उसकी दया कि वह इन अबोध बच्चों को इतना कष्ट पाते देख रहा है और कोई ध्यान नहीं देता। फिर उनको ध्यान आया कि "स्वयं वे और उनकी माता आरंभ से पूर्ण धार्मिक जीवन बिताती रहीं, ईसा मसीह में दृढ़ श्रद्धा रखती रहीं, पर उनके ऊपर एक के बाद एक विपत्ति आती रही। असमय में पिता का देहांत हो जाने से दरिद्रता की चक्की में पिसना पडा़। दरिद्र माता को अकारण ही वकील ने ठग लिया, जिससे उनकी इज्जत मुश्किल से बच सकी। अब इनके प्राण प्यारे बच्चे भी मृत्यु के मुख में पडे़ हैं।"
इस प्रकार के विचारों से इनके धार्मिक विश्वासों को और भी धक्का लगा और ये नास्तिकता की ओर झुकने लगीं। इन्होंने मजदूर आंदोलन में भी परिश्रम की कमाई खाने वाले ईमानदार मजदूरों को भूखों मरते और हर तरह के अत्याचार सहते देखा था। एक बार अपने पति के साथ देहात में रहने गईं। वहाँ देखा कि खेतों में काम करने वाले मजदूरों की और भी बुरी दशा है। एक छोटी कोठरी में परदादा से लेकर नाती, पंती तक आठ मनुष्य रहते थे। जगह इतनी कम थी कि एक पुरुष, उसकी स्त्री और दो बच्चे एक ही चारपाई पर सोते थे। एक दिन जब एक बच्चा रात के समय मर गया, तो इतना भी स्थान न था कि उस मृतक को कहीं रख भी दिया जाय। उसकी माँ को रात भर मरे बच्चे के पास ही सोना पडा़।
एक तरफ तो गरीब लोगों की यह बुरी दशा थी और दूसरी ओर धनी लोग सब तरह की बेईमानी से रुपया कमाते हुए भोग- विलास और दुराचारों में खर्च कर रहे थे। श्रीमती बेसेंट के चित्त में बार- बार यही प्रश्न उठता कि अगर ईश्वर होता तो संसार में इस प्रकार का अंधेरखाता कैसे चल पाता? और भाई ईश्वर है भी तो ऐसे अन्यायी ईश्वर को मानने से क्या फायदा जो ईमानदारों को ऐसे कष्ट देता है और जिसके राज्य में बेईमान और शोषण करने वाले मौज करते हैं। ऐसे विचारों के बढ़ने से ये दिन पर दिन धर्म से विमुख होती जाती थीं और इस कारण पति से सदा खट- पट होती रहती थी। जब इनकी मानसिक पीडा़ बहुत बढ़ गई तो एक दिन बहुत दुःखी होकर इन्होंने आत्महत्या का निश्चय कर लिया। पर जैसे ही जहर को मुँह से लगाया कि अंतरात्मा ने कहा-
"ऐ कायर, अभी कल तक तो तू गरीबों के हितार्थ, अन्याय के प्रतिकारार्थ शहीद बनने का सपना देख रही थी और आज थोडे़ से मानसिक कष्ट से व्याकुल होकर व्यर्थ में प्राण देने को प्रस्तुत हो गई। जब तू घरेलूझगडे़ को बरदाश्त नहीं कर सकती, तब अन्यायियों का विरोध करते हुए जिस अपमान, यातना, अमानुषी यंत्रणा का सामना करना पडे़गा, उसे तू कैसे सहन करेगी? इसलिये हिम्मत रख और अपने कर्तव्य- मार्ग पर अग्रसर होती जा। इसका जो परिणाम सहन करना पडे़, उसे अनासक्त भाव से सहन कर। ऐसा करने पर ही तू संसार की सेवा का कुछ श्रेय प्राप्त कर सकेगी।
अब श्रीमती बेसेंट ने निश्चय कर लिया कि वे अपने विश्वास, सिद्धांतों के अनुसार ही कार्य करेंगी, फिर इसका परिणाम कैसा भी क्यों न निकले? उन्होंने विचार किया कि जब एकाएक पिता की मृत्यु हो जाने और माता की संपत्ति के डूब जान पर भी निर्वाह होने पर और आगे बढ़ने का मार्ग निकल आया, तो गृहस्थी अथवा जीवन- निर्वाह के कारण अंतरात्मा के विरुद्ध अंध विश्वास के सामने सर झुका देना कदापि उचित नहीं। जिस तरह अन्य दुनियादार मनुष्य सांसारिक- वैभव, संपत्ति के लिए सब प्रकार भय और आशंकाओं को त्यागकर परिस्थितियों से संघर्ष करने, लड़ने- मरने को तैयार हो जाते हैं, उसी प्रकार सत्य के खोजी को भी उसके लिए हर अवस्था संघर्ष करने और सब प्रकार के कष्टों, विघ्न- बाधाओं को सहन करने को तैयार रहना चाहिये। संसार के अधिकांश व्यक्ति तो रुपया- पैसा, आराम, शान- शौकत आदि को महत्त्व देते हैं, पर सत्य के अन्वेषक को इन बातों की चिंता छोड़कर उसी मार्ग को अपनाना चाहिए जिसका आदेश अंतरात्मा दे।
अब श्रीमति बेसेंट ने अपने विचारों को खुले तौर पर प्रचार करना आरंभ कर दिया। वे ईसामसीह को एक महापुरुष मानती थी, वह 'ईश्वर का पुत्र था' अथवा 'मानवों का मुक्तिदाता' था, इस पर इनका विश्वास न था। इसके बजाय ये गरीबों, कष्ट- पीडि़तों की सेवा को, उन पर होने वाले अन्यायों का विरोध करने को ही सच्चा धर्म बतलाती थीं और जहाँ तक बन पड़ता था दीन- हीन मजदूरों तथा अन्य गरीब मनुष्यों की सहायता के लिए प्रचार करती थीं।
सन् १८७३ में इन विचारों के कारण अपने पति से मतभेद चरम सीमा पर पहुँच गया। उसको संगी साथियों ने समझाया कि ऐसी स्त्री को रखने से क्या फायदा, जो गिर्जाघर नहीं जाती और ईसा को 'पवित्र ईश्वरीय पुत्र' अस्वीकार करती है। इस प्रकार के विचारों के प्रकट होने से अपने साथियों में पादरी बेसेंट की बदनामी होती थी। अंत में उसने श्रीमती एनी बेसेंट से कह दिया कि "या तो तुम अपने विचारों को बदलकरगिर्जाघर जाना और ईसाई धर्म के विश्वासों को स्वीकार करना आरंभ करो, अन्यथा इस घर को छोड़ दो।"
उस समय इनकी आयु २६ वर्ष की थी और मन में अपने सिद्धांतों के लिये कोई विशेष कार्य कर दिखाने का उत्साह भरा हुआ था। इसलिये इन्होंने पति को छोड़ने का ही निश्चय किया। इस समाचार से इनकी माता को बडा़ दुःख हुआ और उसने समझा- बुझाकर पति के रहने का आग्रह किया। पर इन्होंने सिद्धांतों के विरुद्ध आचरण करना स्वीकार न किया।
जीवन- निर्वाह की समस्या-
मानसिक आवेश और युवावस्था के उत्साह के फलस्वरूप इन्होंने पति से तलाक तो मंजूर कर ली, पर जब जीवन- निर्वाह की समस्या सामने आई तो दिमाग चक्कर खाने लगा। अदालत ने छोटी लड़की को इनके साथ रहने का आदेश दे दिया था। अब अपनी बुड्ढी माता का और छोटी बच्ची का खर्च किस प्रकार चलायें? यह एक बडी़ कठिन समस्या थी।
अब ये कोई नौकरी तलाश करने लगीं। इसमें इनको कितनी दौड़- धूप करनी पडी़? तकलीफ उठानीपडी़ और मान- अपमान सहने पडे़, उन सबका वर्णन यहाँ कर सकना संभव नहीं। कई महीने तो सप्ताह में केवल तीन- चार रुपया का काम करके ही गुजारा करना पडा़। फिर एक बडे़ पादरी के घर में भोजन बनाने का काम मिल गया, पर वेतन में दोनों ही समय का भोजन और रहने का स्थान दिया गया। कुछ समय बाद पादरी का लड़का बीमार हो गया तो इनको खान बनाने से हटाकर उसकी देखभाल करने को नियुक्त कर दिया गया। एक बच्चा ठीक हुआ तो दूसरे को ज्वर आ गया। उसकी देखभाल भी ये करने लगी। इन्होंने परिश्रम करके दोनों की प्राण रक्षा की।
एक साल बाद इनकी माता बीमार पडी़, पर गरीबी के कारण इलाज की ठीक व्यवस्था नहीं हो सकी। मई १८७४ में उसका देहांत हो गया और श्रीमती बेसेंट का एकमात्र सहारा जाता रहा। अब इनका आधार छोटी बच्ची मैबेल ही थी। इस समय दरिद्रता का संकट भी बहुत बढ़ गया था। मकान का किराया काफी चढ़ गया था, इसलिये ये केवल एक बार भोजन करके उसे चुकाने का प्रयत्न करती थीं।
सामयिक पत्रों में लेखन- कार्य-
श्रीमति बेसेंट सामयिक पत्रों में अपने वैवाहिक- जीवन से ही लिखने लग गई थीं। सबसे पहले इनकी एक छोटी- सी कहानी "फैमिली- हेराल्ड" नामक पत्र में छपी, कुछ समय बाद उसका पत्र आया, जिसमें से लेख के पारिश्रमिक का ३० शिलिंग (२१ रु॰) का चैक निकला। एक लेखक की हैसियत से यह इनकी पहली कमाई थी। इसके बाद इन्होंने और भी कई छोटी- छोटी सुंदर कहानियाँ लिखकर उस अखबार में भेजीं और वे सब छप गईं। एक उपन्यास भी लिखकर भेजा, पर वह यह कहकर लौटा दिया गया कि इसमें राजनीति की चर्चा बहुत अधिक है।
अब जीविका की समस्या उपस्थित होने पर उन्होंने फिर लिखने की तरफ ध्यान दिया और मि॰स्काट नामक सज्जन के आश्रय से कई लेख लिखे, जिनमें से प्रत्येक के लिये २१ रु॰ के हिसाब से पारिश्रमिक मिल गया। श्रमती स्काट भी इनका बहुत ख्याल रखती थीं और जब बहुत कठिन अवस्था आती थी, तब वे उनको भोजन भी करा देतीं थी। कई साधारण अवस्थाओं की पूर्ति के लिए इन्होंने अपने आभूषण और बढि़याकपडे़ पहले ही बेच दिये थे। अब पेट भरने का एकमात्र साधन लेखन- कार्य ही था। पर इस क्षेत्र में नवीन होने के कारण सदैव उसमें सफलता नहीं मिलती थी। तब भी यह साहस करके अपने मार्ग पर दृढ़ रही और इस स्थिति को अपनी एक परीक्षा समझकर परिश्रम करके और कठिनाइयाँ सहन करके अपने सिद्धांतो के अनुसार अग्रसर होती रहीं। श्रीमती बेसेंट की जीवन घटनायें इस दृष्टि से बडी़ शिक्षाप्रद और रोचक हैं कि स्वावलंबी व्यक्ति किस प्रकर आपत्तियों का मुकाबला करके बडी़ से बडी़ सफलता प्राप्त कर सकता है? क्या यह बात कम प्रेरणाप्रद है कि जिन श्रीमति बेसेंट को लेखन- कार्य से सूखी रोटी खाने लायक भी आमदनी नहीं होती थी, फिर भी उन्होंने इसी के द्वारा लाखों रुपये कमाये और सैकडों़ अन्य व्यक्तियों की रचनाओं को भी प्रकाशित करके उनको साहित्य- क्षेत्र में ठहर सकने में हर तरह से सहायता दी।
श्री ब्रैडला से भेंट और मजदूर आंदोलन-
सन् १८७४ में इनकी इंग्लैंड के प्रसिद्ध अनीश्वरवादी प्रचारक चार्ल्स ब्रैडला से हो गई। ब्रैडला अपने स्वतंत्र विचारों और ईसाई धर्म का जोरों से खंडन करते रहने के कारण बहुत बदनाम हो चुके थे। वे किसी प्राचीन रूढि़ और परंपरा को नहीं मानते थे और प्रत्येक सिद्धांत को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसकर स्वीकार करते थे। इसलिये कट्टर ईसाई उनका बहुत अधिक विरोध करते थे और उन पर तरह- तरह के झूठे- सच्चे आरोप लगाकर हमेशा उन्हें जनता की निगाह में गिराने की चेष्टा करते थे। जब श्रीमति बेसेंट ने इनको अपने घर पर बुलाया, तो उन्होंने साफ कह दिया कि खूब सोच- समझकर ऐसा काम करना। मैं तो काँटों पर चलने वाला आदमी हूँ। स्वयं मेरे भाई- बंधु मुझसे घृणा करते हैं और जनता में भी मैं तरह- तरह से बदनाम किया जाता हूँ। मेरे साथ रहने से तुम्हारे विषय में भी लोग हर तरह की अफवाहें उडा़ने लगेंगे और उपेक्षा करेंगे। बाद में इससे घबडा़कर तुम पछताने लगो या मुझे दोष देने लगो, तो यह उचित नहीं। इस तरह के मार्ग पर चलने के पहले ही उसकी समस्त कठिनाइयों को समझ लेना चाहिए और यह भी विचार कर लेना चाहिए कि इतना आगे बढ़ सकने की शक्ति हमारे भीतर है या नहीं?
पर श्रीमती बेसेंट भी कुछ ऐसी ही प्रकृति की थी। केवल सिद्धांत के कारण उन्होंने पति- गृह का त्यागकरके रोटी- कपडे़ के लिए भी बहुत अधिक कष्ट सहन किये थे। अपनी और अनेक लोगों की दुर्दशा तथा अकारण सहन किये जाने वाले अन्यायों को देखकर उनका ईश्वर और धर्म पर से विश्वास बिल्कुल हट गया था। इसलिये उनको श्री ब्रैडला की बातों से किसी प्रकार का भय नहीं जान पडा़ और वे भी उनके साथ स्वतंत्र विचारों का प्रचार करने में सम्मिलित हो गई।
श्री ब्रैडला ने इनको अपने सामयिक पत्र 'नेशनल रिफार्मर' में कुछ लिखने का काम दे दिया। यह गरीबों के लिए आंदोलन करने वाला पत्रकार स्वयं भी बहुत गरीब था, इसलिए श्रीमती बेसेंट को उससे थोडा़ सा ही पारिश्रमिक मिलता था। थोडा़ लेखन- कार्य ये श्री स्काट के सहयोग से करती थीं। दोनों की आमदनी से किसी तरह स्वावलंबी जीवन की गाडी़ चलती रहती थी।
बारह वर्ष तक स्वतंत्र विचारों के आंदोलन के संबंध में इन्होंने बहुत बडा़ काम किया। पादरी और पुराने विचारों के लोग इनका हर तरह विरोध किया करते थे, खरी- खोटी सुनाया करते थे, पर नये विचारों की लहर उनके रोके न रुक सकी। परिणाम यह हुआ कि धीरे- धीरे सर्व साधारण पर इसका प्रभाव पड़ने लगा और उनकी धर्म संबंधी धारणाओं में पहले की अपेक्षा बहुत परिवर्तन हो गया। अब वे धार्मिक पाखंड और ढो़ग के बजाय चरित्र और नैतिकता की वृद्धि करने वाले सिद्धांतों का आदर करने लगे थे। लाचार होकर धर्माध्यक्षोंऔर धर्म- प्रचारकों को भी बदलना पडा़ और इंग्लैंड का ईसाई धर्म बहुत कुछ निर्मल हो गया और अंध- विश्वास घट गया। इस संबंध में अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए श्रीमती बेसेंट ने लिखा था- "जबर्दस्ती कानूनी अथवा सामाजिक दंड का भय दिखाकर धर्म में विश्वास पैदा करने की चेष्टा करना निरर्थक है। विश्वास अपने आप असलियत को देखकर उत्पन्न होता है, दंड से नहीं। ज्यादती और जुल्म करने से तो दृढ़ इच्छा शक्ति वाले पहले अधिक धर्म- विरोधी बन जाते हैं और जो कमजोर होते हैं, वे पाखंडी हो जाते हैं। मुझे एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिला कि जोर- जबरदस्ती से कभी कोई ईमानदार विश्वास करने वाला बन सका हो।"
राजनीति में भी स्वतंत्र विचारों का प्रचार-
अभी तक श्रीमती बेसेंट का अधिक ध्यान धार्मिक मामलों की तरफ था। पर इंग्लैंड में धर्म और राजनीति में विशेष संबंध है। वहाँ उस समय तक राजा ही धर्म का भी सबसे बडा़ संरक्षक और सहायक माना जाता था। इसलिए स्वभावतः इनको राजनीतिक विषयों पर भी अपनी सम्मति प्रकट करनी पडी़ और आवश्यकता होने पर उसकी बुराइयों के विरुद्ध प्रचार करना पडा़। इससे ईसाई धार्मिक जगत् के साथ ही सरकार की कोपदृष्टि भी इन पर हो गई।
इन्होंने देखा कि अंग्रेजी साम्राज्य जितना बढ़ता जाता है, उतना ही आधीन देशों और उपनिवेशों के साथ उसका व्यवहार कठोरता और दमन का होता जाता है। आयरलैंड के स्वाधीनता आंदोलन को तो वह खूब कुचल ही रहा था और उसके कारण श्रीमति बेसेंट के मन में पहले से ही विद्रोह की भवना उत्पन्न हो चुकी थी। अफगानिस्तान और मिश्र जैसे स्वाधीन कहे जाने वाले देशों में भी वह अपना प्रभाव कायम रखने के लिए समय- समय पर बल प्रयोग करता रहता था। दक्षिण अफ्रीका में भारतीय तथा स्थानीय निवासियों पर मनमाने अत्याचार किये जा रहे थे। भारतवर्ष की स्वाधीनता की जंजीरे बराबर मजबूत की जा रही थीं और यहाँ की जनता विवश और निराश होती जाती थी।
स्वयं इंग्लैंड में भी मजदूरों तथा अन्य गरीब श्रेणी के लोगों की दशा बडी़ दयनीय थी। सरकार और बडे़लोगों की शान- शौकत बढ़ती जाती थी, उनका व्यय सामान्य जनता पर टैक्स बढा़कर पूरा किया जाता था। अमीरों की शासन सभा (हाउस ऑफ लार्डस) सुधार के प्रत्येक काम में भरसक रोडा़ अटकाती थी। शिक्षा और गरीबों की आर्थिक सुधार संबंधी योजनाओं को भूलकर युद्धों की तैयरी में करोडों रुपया लगाया जा रहा था। जो कोई इसके विरुद्ध आवाज उठाता था तो वह सरकार और समाज का द्रोही बतलाया जाता था।
इन विचारों से प्रेरित होकर उन्होंने अपनी समस्त शक्ति इन अन्यायों का विरोध करने में लगा दी। जगह- जगह सभाएँ करके वे सरकार के दोषों का पर्दाफाश करने लगी। ईश्वर तथा धर्म के नाम पर ढो़ग फैलाने वालों का खड़न वे पहले से ही कर रही थीं। इस प्रकार वह इस जमाने में सरकार और ईसाई धर्म को अकाट्य मनाने वाले मूढ़ व्यक्तियों की निगाहों में तो समाज के ऊपर एक काले धब्बे की तरह थीं। अंध- विश्वासी समाज में उनकी निंदा का बाजार गर्म हो उठा और उनके नाम पर तरह- तरह के लांछन लगाने लगे। पर श्रीमती बेसेंटइन बातों की तरफ से कान और आँखें बंद करके अपने मार्ग पर चलती गईं। जो लोग किसी सिद्धांत के लिये शहीद होने का निश्चय कर लेते हैं, वे ऐसी लोक- चर्चा, निंदा- कुत्सा की परवाह कब करते हैं?
श्री ब्रैडला का चुनाव संघर्ष-
उस समय उच्च वर्ग के 'सभ्य' और 'विद्वान्' कहलाने वाले श्रीमती बेसेंट के सहायक श्री ब्रैडला की कितनी भी निंदा क्यों न करते हों, पर गरीब लोगों की बहुत बडी़ संख्या उनकी समर्थक थी। वे गरीबों के सच्चे मित्र थे और जहाँ कहीं अन्याय होता देखते थे, वहीं उसका विरोध करते थे। गरीब लोगों को तो वे अपने आत्मीय की तरह समझते थे और तम- मन से जिस प्रकार हो सकता है उनकी सहायता करने को तत्पर रहते थे। केवल इंग्लैंड ही नहीं, संसार भर के पीडि़तों को अपना बंधु मानते थे और जिस प्रकार बन पड़ता उनकी सहायता करते थे। भारतवर्ष पर भी उस समय अंग्रेजों का दमन चक्र चल रहा था और हर प्रकार से भारतीय जनता का शोषण किया जाता था। श्री ब्रैडला ने पार्लियामेंट में भारतवर्ष का पक्ष लेकर सरकार के अनुचित कार्यों की तीव्र आलोचना की, जिससे बडी़ खलबली मची। सन् १८९० में उनको निमंत्रित करके बुलाया गया और उन्होंने भारत की राष्ट्रीय कांग्रेस में इस देश की माँगों और अधिकारों क डंके की चोट पर समर्थन किया। उस अवसर पर हिंदी के देशभक्त कवि स्वर्गीय प्रतापनारायण मिश्र ने उनके स्वागत में एक बडी़ कविता पढ़कर सुनाई थी, जिसमें उनके उपरोक्त गुणों का परिचय मिलता है। उसकी कुछ पंक्तियाँ नीचे दी जाती हैं-
स्वागत श्रीयुत ब्रैडला ! प्रेम प्रतिष्ठा पात्र।
पलक पाँवडे़ करि रहे तब हित देशी मात्र ।।
स्वागत ! स्वागत ! स्वागत ! श्रीभारत हितकारी।
आवहु निभ्रमन्याय निरत नित सत पथ धारी।।
जदपि अनीश्वरवाद दोष सब तुमहिं लगावें।
पै प्यारे तव मुख्य मर्म विरले कोउ पावें ।।
लाखन जन मुखते ति ईश्वर - ईश्वर करहीं।
पै स्वारथ सनि पर- सरवस कहें हरतहि रहहीं।।
तुम सम पर- दुःख देख द्रवहिं सोई हरि कहें प्यारे।
का जानहि या परम धरम लघु मति मतिवारे ।।
जिन छलियन के हाथ सुमिरिनी बगल कतरनी।
कछु न हानि जो शतधा निन्दहि तव करनी ।।
पै हमरे विश्वास माँहि तुम परम सुजाना।
दीन दया विस्तरन वपुष श्री बुध भगवाना।
वास्तव में श्री ब्रैडला उन व्यक्तियों में से थे, जो धर्म का आडंबर न करके उसके सार को ग्रहण करते हैं। यद्यपि वे गिर्जाघर, मंदिर- मस्जिद में जाकर ईश्वर को नहीं पुकारते, पर जिन दीन- दुःखियों के भीतर आत्मा रूपी परमात्मा को व्यथित होता देखते हैं, वही उसकी सेवा- सहायता को दौड़ते हैं। इसके विपरीत जो मुकुट- तिलकधारी ईश्वर की पूजा के लिए बडे़ आयोजन, उत्सव आदि करते हैं, वे उलटा उन दीन- जनों को चूसते हैं, ठोकरें लगाते हैं। उनको थोडे़ से धर्म- व्यवसायों के अतिरिक्त और कौन 'धर्म- मूरत' कहेगा?
श्री ब्रैडला की जनप्रियता की परीक्षा उस समय हुई, जब एक बार पार्लियामेंट के 'लिबरल' (उदार) और 'कंजरवेटिव' (अनुदार) दोनों दलों ने मिलकर तरह- तरह की चालें चलकर, झूठे आक्षेप लगाकर श्रीब्रैडला को चुनाव में हरा दिया। इससे वहाँ की गरीब जनता इतनी उत्तेजित हो गई कि उसने विरोधी दल वालों के मकानों पर हमला कर दिया। खून- खराबी को रोकने के लिए श्री ब्रैडला बहुत थके होने पर भी वहाँ आये और अपने अनुयायियों को बहुत डाट- डपटकर बदमाशी करने से रोका। पर उसी रात को अमेरिका के लिये रवाना हो गये। इसके पश्चात् क्रोधित जनता ने 'मरकरी' नामक एक लिबरल पार्टी के समाचार पत्र के दफ्तर पर हमला करके उसे पूर्णतः नष्ट- भ्रष्ट कर डाला। इस पत्र में श्री ब्रैडला के विरुद्ध बडा़ जहर उगला जाता था और उन पर ऐसे जघन्य आरोप लगाये जाते थे, जिन्हें पढ़कर एक निष्पक्ष व्यक्ति को भी रोष आ जाता था, इस घटना के समय श्रीमती बेसेंट भी वहाँ मौजूद थी। उन्होंने यही पहला बलवा अपनी आँखों से देखा और अनुभव किया कि प्रजातंत्र के नाम पर होने वाले चुनावों में कितनी उत्तेजना और दलबंदी हो सकती है?
जब दूसरी बार सन् १८८० में ही श्री ब्रैडला मेंबर चुन लिये गये तो जनता प्रसन्नता के मारे नाचने लगी। पर अमीर लोग फिर भी कोई ऐसी चाल सोच रहे थे, जिससे इस 'अनीश्वरवादी' और धनी लोगों के शत्रु को जड़ से उखाड़ डाला जाय। उनको ऐसा मौका शीघ्र ही मिल गया। 'पार्लियामेंट' की सदस्या ग्रहण करते समय ईश्वर के नाम पर शपथ खानी पड़ती थी। पर ब्रैडला ईश्वर के नाम पर शपथ को तैयार न हुए। वे अदालत में भी ऐसा ही करते थे और केवल प्रतिज्ञा कर लेते थे। पर यहाँ उनके विरोधियों ने इस बहाने से लाभ उठाकर ऐसी कानूनी अड़चनें डालीं कि श्री ब्रैडला को सारजेंट द्वारा बाहर निकलवा दिया और दो दिन तक कैद रखा। यद्यपि इस अन्याय के विरुद्ध कानून बन चुका था, पर उनके विरोधियों ने जो बडे़- बडे़ लार्ड थे, धींगाधींगीकरके उनके चुनाव को रद्द कर ही दिया। फिर दुबारा चुनाव कराया गया, पर उसमें ब्रैडला को पहले से भी ज्यादा 'वोट' मिले। अंत में बडे़ संघर्ष के पश्चात् उनको पार्लियामेंट में स्थान मिल सका। वहाँ भी वे गरीब और अन्याय- पीडि़तों के पक्ष में ही भाषण करते रहते थे। भारतवर्ष को उचित अधिकार दिये जाने के लिये इन्होंने वहाँ बहुत प्रयत्न किया।
सार्वजनिक क्षेत्र में श्री ब्रैडला के साथ कार्य करने से श्रीमती बेसेंट को भी लोगों के द्वारा समय- समय पर अनादर, अपमान, अप्रतिष्ठा, का व्यवहार सहन करना पडा़। यह विरोध इतना अधिक बढ़ गया था कि अनेक बार प्राणों पर खतरा जान पड़ता था। स्त्री होने के कारण इनको और भी कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ती थीं। एक बार ये रेलगाडी़ में यात्रा कर रही थीं। इनको अकेला देखकर एक शराबी डिब्बे में घुस आया। उसने पहले तो खिड़की बंद कर दीं और फिर हँसता हुआ इनकी ओर बढा़। इस विपत्ति को देखकर ये बहुत घबडा़ईऔर कोई उपाय न देखकर एक छोटा चाकू, जो इनके पास था, खोलकर हाथ में ले लिया। इतने में सिगनल न होने से रेल खडी़ हो गई। इन्होंने गार्ड को सारा हाल कहा और उसी समय उस डिब्बे से उतरकर दूसरे में चली गईं।
मैडम ब्लैवटस्की से भेंट-
कुछ समय पश्चात् संयोगवश इनके विचारों में परिवर्तन होने लगा। घटना इस प्रकार हुई कि इनके पास एक पुस्तक समालोचनार्थ आई, जिसमें अध्यात्म, सिद्धांत और 'थियोसोफी' समाज का वर्णन था। 'थोयोसोफी' का अर्थ है "दैवीज्ञान"। इस पुस्तक में बतलाया गया था कि "मनुष्य परमात्मा का अंश है और उसके भीतर एक दैवी- तत्त्व विद्यमान है, जो लाखों योनियों में अनुभव प्राप्त करके और विकसित होकर वर्तमान अवस्था को पहुँची है। यह तत्त्व भौतिक पदार्थों से अलग है और इसी की वृद्धि करते- करते मनुष्य एक दिन नर से नारायण बन जाता है। हमारा यह पंच भौतिक शरीर भी उसी तत्त्व के विकास के अनुसार आकृति और गुण ग्रहण करता है। जिस प्रकार चित्रकार पहले अपने दिमाग में किसी चित्र की रूपरेखा खींचकर फिर उसे कागज पर उतार लेता है, इसी प्रकार हमारी आत्मा के जैसे विचार, भावनायें, होती हैं, वैसा ही शरीर भी उसे मिल जाता है। जब किसी प्राणी की पर्याप्त उन्नति जो जाती है तभी उसको मनुष्य योनि प्राप्त होती है।
दूसरी बात जो इस पुस्तक में श्रीमती बेसेंट को विशेष महत्त्व की जान पडी़, वन थी ब्रह्मचर्य। अभी तक वह इसे शारीरिक दृष्टि से ही मानती थी। पर इस पुस्तक में ब्रह्मचर्ययुक्त जीवन पर एक नया प्रकाश डाला गया था। उसमें कहा गया था कि यदि किसी व्यक्ति में इसका अभाव है तो इसका कारण यही है कि पिछले जन्म में उसके विचार पशुतुल्य थे और इस जन्म में भी उनके शेष रह जाने से उसमें कामुकता की अधिकता पाई जाती है। भोग के लिए उसने मानो अपने विवेक को बेच दिया है और संसार की मुख्य- मुख्य खराबियों की यही जड़ है। इस दैवी गुण को खो देना मनुष्य के लिए महान् कष्टों का कारण होत है। इस कष्ट को मिटाने के लिए नकली उपायों का आश्रय लेना अनुचित है, इसका वास्तविक उपाय आत्मा को शुद्ध कर लेना ही है। हमको समझ लेना चाहिए कि वास्तविक चिकित्सा मन की होनी चाहिए, न कि शरीर की।"
श्रीमती बेसेंट को ये बातें बहुत सारयुक्त जान पड़ीं, जिससे उनके विचारों में बडा़ परिवर्तन हो गया, वे अभी तक 'माल्थस- संघ' नामक संतान निग्रह का प्रचार करने वाली संस्था की सदस्य थीं और इसके कृत्रिम उपायों के संबंध में इन्होंने एक पुस्तक भी लिखी थी। पर अब मैडम ब्लैवटस्की के आध्यात्मिक उपदेशों को पढ़कर इन्होंने इन सब कार्यों को त्याग दिया। उस पुस्तक के दूसरे संस्करण को प्रकाशित करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए कई प्रकाशक इनको हजारों रुपये दे रहे थे, पर अब जब इन्होंने उस रास्ते को ही गलत समझ लिया तो उसके प्रचार में कैसे सहयोग दे सकती थीं?
मजदूर आंदोलन में सक्रिय भाग-
उस समय इंग्लैंड के मजदूरों की हालत बहुत खराब थी। पूँजीवाद उस समय यौवनास्था पर था और कारखाने वाले अधिक से अधिक माल बनाकर संसार के बाजरों पर अपना कब्जा करने की धुन में बहुत अधिक स्वार्थपरता से काम ले रहे थे। आज भारतवर्ष में भी नौ- दस घंटे से अधिक किसी मजदूर से काम लेने का नियम नहीं है, पर उस समय इंग्लैंड में उनसे १४ घंटे काम कराया जाता था और उसके बदले में जो मजदूरी मिलती थी, उसमें पेट भर भोजन भी मुश्किल से मिल पाता था।
इस अवस्था को देखकर अनेक न्यायपरायण और मानवतावादी व्यक्ति इसका विरोध करने वाले निकल आये थे। उनका कहना था कि जब अमीर लोग मजदूरों का खून चूसकर मौज उडा़ते हैं और करोड़पति बनते जाते हैं, तो मजदूर भी संगठन करके अपने अधिकार प्राप्त करने की चेष्टा क्यों न करें? उनको आंदोलन करके राज्य से अपनी रक्षा और न्यायोचित माँगों की पूर्ति कराने का प्रयत्न करना चाहिए।
जस्ता के कारखाने में स्त्री- मजदूरों की हालत बडी़ दयनीय थी। उनको वहाँ चौदह घंटे तक कठिन काम करके थककर चकनाचूर हो जाना पड़ता था। फिर वहाँ से आकर घर का काम भी करना पड़ता था। वेबडी़ दुःखी थीं और कारखाने के प्रबंधकर्ताओं के व्यवहार की शिकायत करतीं थीं। उनको सलाह दी गई कि अपना एक संगठन बनाकर एक साथ अपनी माँग मालिकों के सामने रखनी चाहिए। अगर वे उस पर ध्यान न दें, तो हड़ताल कर देनी चाहिए जब उनका नुकसान होगा तो झक मारकर मजदूरों की माँगें स्वीकार करेंगे।
इस प्रकार उदार और मानवीय अधिकारों से प्रेरित विचार उस समय अनेक न्यायपरायण और समतावादी सज्जन प्रकट करने लगे थे। इनमें हाइंडमैन, बर्नार्डशा, विलियम मारिस आदि जैसे महानुभाव थे, जिनका नाम आज समाजवाद की जड़ जमाने वालों के रूप में लिया जाता है। इन्होंने इंग्लैंड में 'फेबियनसोसायटी' नाम की संस्था खोल रखी थी, जो जनता में साम्यवादी सिद्धांतों क प्रचार करती थी और मजदूरों में आंदोलन करती रहती थी।
श्रीमती बेसेंट भी गरीब मजदूरों की दुर्दशा को देखकर बडी़ दुःखी होती थीं और उनके लिए श्री ब्रैडलाके साथ हर तरह का प्रयत्न करती रहती थीं। उन्होंने जब 'फैबियन सोसायटी' के कामों को देखा, तो उसको मजदूरों के लिए अधिक हितकारी और दृढ़ता- पूर्वक काम करने वाला पाया। यद्यपि श्री ब्रैडला और उनके स्वतंत्र दल वाले भी मदूरों के हितैषी थे और समाज सेवा के रूप में उनकी अनेक प्रकार से सहायता करते रहते, पर 'फेबियन सोसायटी' वाले सोशलिस्ट (समाजवादी) इस कार्य को एक राजनैतिक आंदोलन के रूप में करते थे और उनका मुख्य 'शस्त्र' हड़ताल था। इन लोगों में कई अराजकतावादी भी थे, जो मौजूदा सरकार को बिल्कुल हटाकर गरीब और अमीरों को समान अधिकार दिये जाने का प्रतिपादन करते थे। इस प्रकार 'स्वतंत्र दल' वाले और सोशलिस्ट' दोनों ही मजदूरों की दशा सुधारने के लिए प्रयत्नशील थे, पर कार्य- प्राणाली की भिन्नता के कारण एक- दूसरे के विरोधी बन गये थे।
सन् १८८३ में श्रीमती बेसेंट का इस आंदोलन से विशेष रूप से परिचय हुआ और उन्होंने निश्चय किया कि इसमें सम्मिलित होकर गरीबों की दशा सुधारने का प्रयत्न अधिक जोरों से करना चाहिए। पर जब तक ये जिन श्री ब्रैडला के साथ काम कर रही थीं, वे 'सोशलिस्ट' नहीं थे, वरन् अनेक बातों में उनका साम्यवादियों के साथ बहुत कुछ मतभेद था, इसलिए सोशलिस्टों के साथ मिलकर काम करने पर श्री ब्रैडला छोड़ना पड़ता था। आरंभ में तो उनको यह परिस्थिति बडी़ कष्टकर जान पडी़, पर गरीबों का उनके हृदय पर इतना धार्मिक स्थान था कि अंत में ये श्री ब्रैडला से पृथक् होने को भी तैयार हो गईं। 'फेबियन समाज' में जिस मनोभाव को लेकर आईं और उसका वर्णन करते हुए उन्होंने स्वयं एक स्थान पर लिखा है-
"औरों के समान मैं भी इन दुर्दशाग्रस्त और अपेक्षित मजदूरों की सहायता करने लगी। इन आभागों के नाले- नालियों के समान गंदे घरों में घुसकर मैं सोचती कि क्या इस रोग की कोई औषधि नहीं है? क्या यह गरीब- अमीर का भेद सदा ऐसा ही बना रहेगा? मेरा विश्वास था कि ऐसा हर्गिज नहीं होना चाहिए। दरिद्रता का मुख्य कारण अज्ञान और दूषित समाजिक संगठन है। यदि मजदूरों के बच्चों को रहने के लिए अच्छा स्थान मिले, शारीरिक व्यायाम, खेल- कूद, पढ़ने- लिखने की ठीक व्यवस्था की जाए, तो आगे चलकर ये भी सभ्य और सुशिक्षित नागरिक बन सकते हैं। पर इनको अपने माता- पिता के साथ ऐसी अत्यंत गरीबी और गंदगी में रहना पड़ता है कि उन्नति के सब रास्ते रुक जाते हैं और जो थोडी़ बहुत शिक्षायें प्राप्त कर लेते हैं, वह भी प्रभावहीन हो जाती हैं।"
पर 'फेबियन सोसायटी' के आंदोलन का सफल होना भी सहज न था। उस समय सरकार में पूरी तरह अमीरों का बोलबाला था और सारा संसार उनकी मुट्ठी में रहता था। इसलिए मजदूर- आंदोलन में भाग लेने वाले राजद्रोही समझे जाते थे और उनके साथ बडा़ नादरपूर्ण व्यवहार किया जाता था।
फिर श्रीमती बेसेंट ने इस नये संगठन में शामिल होकर जोर- शोर से मजदूरों में काम करना शुरू किया। इनको आंदोलन संबंधी अनुभव पहले से ही था, इसलिए सभा- समाजों में इनके भाषण का प्रभाव बहुत अच्छा पड़ता था। उन्होंने मजदूरों को समझाया कि वे पार्लियामेंट के चुनावों में अपने साथ सहानुभूति रखने वाले व्यक्तियों को ही 'वोट' दें। जब कभी ऐसा अवसर आए, तो भाषणकर्ता से यही प्रश्न करें कि वह गरीबों की दशा सुधारने में क्या काम करेंगे? मजदूरों को अपने हितैषियों को ही पार्लियामेंट में अधिकाधिक संख्या में भेजना चाहिए, जिससे वहाँ वे उनकी दशा में सुधार करने वाले कानून बनवा सकें।
उन दिनों रूस में भी मजदूर- आंदोलन बहुत जोरों पर था और वहाँ की निरंकुश सरकार न्याय की माँग करने वालों का घोर दमन कर रही थी। रूस राजनीतिक कैदियों पर राक्षसी अत्याचार किये जाते थे और उनको साइबेरिया के रेगिस्तान में ठंड में गलने के लिए भेज दिया जाता था। बहुतों को देश निकाला भी दे दिया गया था। इन अत्याचारों का समाचार फैलने पर इंग्लैंड में सहायता के लिए एक कमेटी बनाई। इस प्रकार के आंदोलन में भाग लेना उस समय बडे़ साहस का काम था। यह सभा श्रीमती बेसेंट के मकान पर ही की गई।
मजदूर आंदोलन में सहायता देने के लिये श्रीमती बेसेंट ने 'अवर कार्नर'नाम का अखबार निकालना आरंभ किया, जिसमें कारखाने वालों के अन्यायपूर्ण कार्यों और सरकारी दमन के समाचार रहते थे। इसमें इन्होंने मालिकों की दुरभिसंधियों का भंडाफोड़ करते हुए बतलाया कि 'कारखाने वाले जिस प्रकार बन पड़ता है, मजदूरों की मजदूरी घटाने की चेष्टा करते रहते हैं। जो कोई उनका विरोध करने की हिम्मत करता है, उसे उसी दम निकाल दिया जाता है। इससे देश में बेकारों की संख्या बढ़ रही है और देश भर में अशांति का वातावरण तैयार हो रहा है।" उस समय एक मजदूर ने निराशा के भाव से इनसे कहा था- "अब हम इस दशा को सहन नहीं कर सकते। हम काम करते हुए भूखों मरते हैं, तो काम किये बिना ही क्यों न भूखों मर जाएँ?"
सरकार भी इस काम में मालिकों का साथ देती थी, क्योंकि उस समय अमीरों की ही सरकार थी। 'फेबियन सोसायटी' इस संबंध में मजदूरों में पहले से ही आंदोलन कर रही थी। परिणाम यह हुआ कि जब मजदूरों में ज्यादा जोश बढ़ गया, तो पुलिस ने सोशलिस्टों की सभाओं को सार्वजनिक स्थानों में होना रोक दिया। ऐसी सभाओं में पुलिस ड़डा का प्रयोग करके दर्शकों को तितर- बितर कर देती थी।
इस अवसर पर श्रीमती बेसेंट अद्भुत साहस का परिचय दे रही थीं। सरकार और 'स्वतंत्र विचार- दल' दोनों उनके विरोधी हो रहे थे। फिर भी वे निरंतर मजदूर- संगठन का काम बढा़ती रहीं। उन्होंने प्रत्येक शहर के कुछ लोगों की एक ऐसी नामावली तैयार की जिनका काम गिरफ्तार होने वाले मजदूर- नेताओं की जमानत देकर छुडा़ लाना था। इसके साथ ही मुकदमा लड़ने के लिए एक दूसरी कमेटी बनाई गई। इस प्रकार की व्यवस्था हो जाने से मजदूरों में तेजी के साथ आंदोलन बढ़ने लगा।
इसी वर्ष (सन् १८८७) लंदन में 'खूनी रविवार' की प्रसिद्ध घटना हुई। इंग्लैंड के गृह- विभाग के मंत्री के यह आश्वासन देने पर कि मजदूर खुले स्थानों में सभा कर सकते हैं।१३ नवंबर को ट्रैफलगार स्क्वायर में एक बहुत बडी़ सभा का आयोजन किया गया। यह निश्चय किया गया कि शहर की सभी मजदूर संस्थायें अपना अलग- अलग जलूस बनाकर सभा स्थल पर आवें और अगर पुलिस इस कार्य में हस्तक्षेप करे तो उसके विरोध में सत्याग्रह करें। पर जब सभा स्थल पर भीड़ इकट्ठी हो गई तो एकाएक पुलिस के घुड़सवारों ने हमला कर दिया। अनेक व्यक्ति घोड़ों से कुचले और भालों से मारे गये। यह देखकर श्रीमती बेसेंट ने लोगों को लौट जाने की घोषणा कर दी तो भी कितने ही लोग मारे गये और सैकड़ों अन्य घायल हो गये।
इस घटना का सभी न्यायशील लोगों ने 'जनता के साधारण न्याय' का युद्ध बतलाया और चारों तरफ सरकार और पुलिस की निंदा होने लगी। जनता ने पुलिस का बहिष्कार करना आरंभ कर दिया। पुलिस भी इनके साहस को देख दंग रह गई। अब सरकार को भी अनुभव होने लगा कि यदि यही दशा अधिक समय तक बनी रही तो स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जायगी। इसलिये कुछ दमदिलासा की बातें कहकर उस घटना के जिम्मेदार पुलिस अफसर का तबादला कर दिया गया।
अब 'फेबियन- समाज' ने अपने आंदोलन को क्रियात्मक रूप देना आरंभ कर दिया। उसकी एक सदस्या ने अपने भाषण में यह सुझाव पेश किया कि "हम सबको उन्हीं दुकानों से माल खरीदना चाहिए, जहाँ मजदूरों को उचित वेतन देने वाले कारखानों को बेचा जाता हो।" इसके पश्चात् दूसरे वक्ता ने बतलाया कि दियासलाई बनाने वाले 'ब्रिवोट एंड में' कारखाने में इतना अधिक मुनाफा होता है कि उसके ७५ रु॰ का शेयर इस समय २७० रु॰ का मिल रहा है। पर मजदूरों की ऐसी खराब हालत है कि एक मजदूर लड़की को सप्ताह में३ रु॰ दिया जाता है, जिसमें डेढ़ रु॰ कमरे का किराया दे देना पड़ता है। शेष डेढ़ रुपये में वह सात दिन कैसे खाती- पीती होगी, यह विचारणीय विषय है?
इन सब बातों को श्रीमती बेसेट ने 'लंदन में सफेद गुलामी' शीर्षक लेख में प्रकाशित कर दिया और लोगों से इस कंपनी की दियासलाइयों को काम न लाने की अपील की। इस पर कंपनी ने मानहानि का मुकदमा चलाने की धमकी दी, पर श्रीमती बेसेंट ने इसकी कुछ परवाह नहीं की और अपने आंदोलन को बराबर चलाती रहीं। इस बीच में उस कारखाने की तीन मजदूर औरतों ने आकर खबर दी कि "हमसे कहा जाता है कि तुम एक कागज पर दस्तखत कर दो कि हमारी अवस्था संतोषजनक है, हमको कोई कष्ट नहीं है, श्रीमती बेसेंट की बातें झूठी हैं। आपने हमारे हित के लिए आवाज उठाई है, हम आपके विषय में झूठी बात कैसे कह सकती हैं? कंपनी वाले हमको इसके लिए बार- बार परेशान कर रहे थे। जब हमने उनकी बात मानने से इनकार कर दिया, तो उन्होंने हमारे मुखिया को बरखास्त कर दिया।" इस घटना के बाद यह आंदोलन ऐसे जोर से भड़का कि कंपनी १४०० मजदूर स्त्रियों ने एक साथ हड़ताल कर दी।
इस घटना को लेकर श्रीमती बेसेंट ने ऐसा धुँआधार आंदोलन आरंभ किया कि हड़तालियों की हर तरफ से सहायता की जाने लगी। श्री ब्रैडला ने भी इस संबंध में पार्लियामेंट के अनेक प्रश्न किये। हड़तालियोंका एक प्रतिनिधि मंडल पार्लियामेंट के अन्य उदार मेंबरों से मिला। मजदूरनियाँ भी दृढ़ रही। इससे अंत में कंपनी को झुकना पडा़ और अधिक मजदूरी, काम करने का कम समय, जुर्माने की प्रथा बंद आदि माँगें उसको स्वीकार करनी पड़ीं।
स्वयं अभावग्रस्त स्थिति में रहकर भी गरीब और अन्यायों से पीडि़त व्यक्तियों के लिये दिन- रात परिश्रम करना तथा सत्ताधारी लोगों के विरोध का खतरा भी उठाना, बेसेंट जैसे निःस्वार्थ समाजसेवियों का काम होता है। हम सबको भी सार्वजनिक सेवा के क्षेत्र में इसी प्रकार का मनोभाव रखकर प्रविष्ट होना चाहिए। इसमें लाभ, यश अथवा प्रभाव बढ़ने की भावना रखना स्वार्थयुक्त मनोवृत्ति का प्रमाण है। ऐसे व्यक्ति न तो जनता का विशेष हित कर सकते हैं, न स्वयं कभी इस क्षेत्र में ऊँचा स्थान पा सकते हैं। इसलिये जनता के सेवकों को श्रीमती बेसेंट के चरित्र से यह शिक्षा अवश्य ग्रहण करनी चाहिए कि वे मार्ग कि कठिनाइयों से कभी विचलित न हों और उद्देश्य की पवित्रता का सदैव पूरा ध्यान रखें। इस प्रकार काम करने वालों को अंत में अवश्य सफलता मिलती है।
थियासोफिकल सोसाइटी में प्रवेश-
अब श्रीमती बेसेंट के जीवन में एक नया और बहुत महत्त्वपूर्ण मोड़ आया। इस पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने स्वयं ही लिखा है कि- "मजदूर आंदोलन में काम करते हुए मेरे हृदय में यह भावना दृढ़ होती जाती थी कि सामाजिक बुराइयों को दूर करने की कोई दूसरी औषधि भी होनी चाहिए। समाजवादियों के प्रयत्न से मनुष्य की आर्थिक दशा सुधर सकती है, पर सब लोग आपस में ऐक्य भावना रखने लगें, 'मानव- बंधुत्व' के सिद्धांत को हृदयंगम करके आत्म त्याग और आंतरिक भक्ति के साथ सेवा करने लगें, इसके लिए किसी और बात की भी आवश्यकता है। मैं सोचा करती थी कि इससे अधिक उदार विचारों वाली सामाजिक- संस्था किस प्रकार बनाई जा सकती है? उस समय मैं बहुत निराश हो जाती थी, जब इस असली सुधार का कोई साधन दिखलाई नहीं देता था।"
"धीरे- धीरे मेरी समझ में यह आने लगा कि मैंने संसार और जीवन के विषय में जो प्रत्यक्षवाद के सिद्धांत ग्रहण कर रखे हैं, वे अपूर्ण हैं। इस समय मन की विद्या (मेस्मेरिज्म, हिप्नोटिज्म आदि तेजी से बढ़ती जाती थीं। कृत्रिम निद्रा उत्पन्न करके दिमाग से दूर- दूर की बातें कहला देना, एक आश्चर्यजनक बात जान पड़ती थी। मैं तो अभी तक शरीर को ही असली चीज, समझती थी, इसलिए यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आया। मैंने इस संबंध में पता लगाने का निश्चय किया और इसके साहित्य का अध्ययन और मन करने लगी।"
श्रीमती बेसेंट को यह 'असली ज्ञान' १० मई १८८९ को प्राप्त हुआ, जब उन्होंने मैडम ब्लैवटस्की की 'सीक्रेट डॉक्टरिन' (छिपा सिद्धांत) नामक पुस्तक पढी़। उसी समय से इनके भीतर 'थियोसोफी' या 'दैवी ज्ञान' का प्रकाश फैलने लगा। इसके एक दिन बाद ही इनकी भेंट मैडम ब्लैवटस्की से हुई, जो उन दिनों लंदन आई हुई थीं। उस भेंट के समय इनको ऐसा जान पडा़ कि मैडम के शरीर से एक ज्योति- सी निकलकर मेरे शरीर में प्रवेश कर गई। इनकी समझ में आ गया कि "दुनिया की सभी चीजों के पीछे एक अदृश्य आत्मा बैठी है। यही देवता या ईश्वर है, हम स्वयं भी ईश्वर ही हैं।" इसके बाद ही वे मैडम ब्लैवटस्की की शिष्या बन गई। एक पक्कीनिरीश्वरवादी को आस्तिक बना देने से योरोप भर के लोगों के लोगों को बडा़ आश्चर्य हुआ और इसे मैडमब्लैकवटस्की की एक बहुत बडी़ सफलता मानी गई।
भारत में शिक्षा- प्रचार का कार्य-
इसके कुछ समय पश्चात् १८९३ में श्रीमती बेसेंट इसी खोज में अध्यात्म- विद्या की जन्मभूमी भारत में आ गई और यहीं से उन्होंने अध्यात्म तथा जन- सेवा के समन्वय का कार्यारंभ किया। सबसे पहले उन्होंने शिक्षा की तरफ ध्यान दिया। उन्होंने देखा कि यहाँ पर अंग्रेजी सरकार तथा ईसाइयों की शिक्षा संस्थाओं में जिस ढ़ग से पढा़या- लिखाया जाता है, वह बडा़ त्रुटिपूर्ण है। उसके फल से यहाँ के युवकों का ध्यान अपने धर्म की तरफ से हटता जाता है और अपनी संस्कृति तथा पूर्वजों का सम्मान भी उनकी दृष्टि में कम हो जाता है। श्रीमती बेसेंट स्वयं लंदन में एक स्कूल चला चुकी थीं और हाँ 'स्कूल बोर्ड' नामक संस्था की सदस्या भी रह चुकी थीं और हाँ 'स्कूल बोर्ड' नामक संस्था की सदस्या भी रह चुकी थीं। उस अनुभव के आधार पर इन्होंने इस देश में भी एक ऐसा स्कूल खोलने का विचार किया, जिसमें हिंदू- धर्म तथा संस्कृति की शिक्षा देते हुए ऊँची से ऊँची आधुनिक शिक्षा भी दी जाए। इस उद्देश्य से काशी में 'सेंट्रल हिंदू कॉलेज' की स्थापना की गई। इसके लिए उन्होंने समस्त भारत का दौरा करके चंदा इकट्ठा किया। महाराजा बनारस ने नगर के बीच में एक काफी बडा़ स्थान दे दिया। यह कॉलेज बहुत वर्षों तक भारतीय युवकों को राष्ट्रीय दृष्टि से उपयोगी शिक्षा देता रहा और अंत में इसी को श्री मदनमोहन मालवीय ने अपने संबंध में लेकर 'हिन्दू विश्व विद्यालय' के रूप में परिवर्तित कर दिया।
स्त्री शिक्षा की महत्ता-
लड़को के लिए 'सेंट्रल हिंदू- कॉलेज' की स्थापना करने के बाद आपने लड़कियों की शिक्षा की तरफ ध्यान दिया। उस समय लड़कियों को आधुनिक ढंग की शिक्षा दिलाना तो दूर, साधारण हिंदी पढा़ने की भी व्यवस्था बहुत कम थी। अधिकांश लोग तो स्त्री- शिक्षा के विरोध करने वाले ही थे। श्रीमती बेसेंट ने लोगों की इस हानिकारक मनोवृत्ति की अलोचना करते हुए कहा-
"जब तक तुम लड़कियों को नहीं पढा़ओगे, तब तक भारत का उद्धार नहीं हो सकता। जब तक भारतीय माताएँ अपने पूर्व गौरव को न जानेंगी तथा अपने बच्चों की पुरानी सभ्यता की बातें नहीं बतलायेंगी कि भारत पहले क्या था और अब क्या हो गया, जब तक वे प्राचीन समय की स्त्रियों के समान न हो जाएँ, जब तक वे अपनी मातृभूमी को हृदय से प्यार न करने लगें, तब तक भारत उतना ही कमजोर रहेगा, जितना आज है। जब तक तुम्हारे पुत्रों और पुत्रियों की योग्यता भविष्य में काम करने के लिए नहीं बढ़ जाती, जब तक तुम यह न समझ लो कि भारत के पुरुषों में याज्ञवल्क्य ऋषि जैसे विद्वान थे। स्त्रियों में भी उनकी स्त्री मैत्रेयी जैसी पंडित थी। जब तक तुम यह न जा लो कि प्राचीन काल की भारतीय स्त्रियाँ वेद- मंत्रों की रचना किया करती थीं, जबकि आजकल स्त्रियों को उनके सुनने का भी अधिकार नहीं है- जब तक तुम इन प्राचीन आदर्शों पर ध्यान देकर आगे नहीं बढो़गे तब तक भारत कभी नहीं उठ सकता।"
उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हिंदू- कॉलेज में ही कन्याओं को पढा़ने का एक विभाग खुलवा दिया। कुछ समय बाद थियासोफिकल सोसाइटी की तरफ से एक बडा़ लड़कियों का स्कूल खुलवाया, जो अभी तक एक प्रसिद्ध शिक्षा- संस्था मानी जाती है।
सन् १९०७ में आप 'थियोसोफिकल सोसाइटी' की प्रधान चुन ली गईं। तब से अनेक बार योरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया की यात्रा करके उस समाज का संगठन और प्रचार करती रहीं। इतनी लंबी यात्राएँ करना, साथ ही व्याख्यान देना और संगठन को मजबूत बनाना, बहुसंख्यक पुस्तकें और सामयिक पत्रों के लिए प्रतिदिन घंटों लिखते रहना भारत के राजनीतिक आंदोलन में भी भाग लेते रहना- ये सब काम इतने बडे़ थे कि लोगों को इनकी कार्य- क्षमता पर आश्चर्य होता था। ये अपना सब काम बडी़ फुर्ती से करती थीं और चलती हुई रेल में भी कुछ न कुछ लिखने- पढ़ने का काम करती रहती थीं। इनके नेतृत्व में 'थियोसोफी समाज' ने बहुत उन्नति की। भारत और अन्य देशों में शिक्षा की उन्नति के लिए इन्होंने 'थियोसोफिकल शिक्षण ट्रस्ट' की स्थापना की, जो जगह- जगह नये स्कूल खोलकर शिक्षा का प्रचार करता रहता था।
भारत में 'होमरूल' आंदोलन-
भारतवर्ष में राजनैतिक जागृति उत्पन्न करने के लिए श्रीमती बेसेंट ने सन् १९१३ में 'कामन वीस' नामक साप्ताहिक पत्र अंग्रेजी में निकालना आरंभ किया। इसका उद्देश्य अध्यात्म का समानुकूल रूप में विवेचन करना तथा भारतवासियों में अपने राजनीतिक अधिकारों का ज्ञान फैलाना था। यह पत्र जब तक चला, अपने उच्च विचारों के कारण इसका देश और विदेश में सर्वत्र सम्मान हुआ।
इसके कुछ ही समय बाद आपने 'मद्रास स्टैंडर्ड' नामक पत्र को खरीदकर 'न्यू इंडिया' नामक दैनिक पत्र प्रकाशित किया। श्रीमती बेसेंट स्वयं ही इसकी संपादिका थीं और इसका आदर्श वाक्य (मोटो) था- "देश, नरेश, महेश के लिए संघर्ष।" इसका आशय यह था कि श्रीमती बेसेंट भारतवर्ष को राजनीतिक अधिकार दिये जाने की पूर्ण समर्थक थीं, पर वे यह नहीं चाहती थीं कि भारत का संबंध इंग्लैंड से बिल्कुल ही टूट जाय। इस कारण बहुत से उग्रवादी भारतीय आपके 'होमरूल' आंदोलन से सहमत नहीं थे। पर आज जब हमको 'ब्रिटिशकॉमन वेल्थ' से भारत का संबंध तोडा़ नहीं गया और उसकी कान्फ्रेन्सों में यहाँ के प्रधानमंत्री सदस्य के रूप से भाग लेते रहते हैं। इस दृष्टि से श्रीमती बेसेंट की सम्मति सर्वथा निस्सार नहीं थी। 'न्यू इंडिया' की एक विशेषता यह थी कि अंग्रेजी का दैनिक होने पर भी राष्ट्रीय- भाषा के नाते उसमें एक कालम हिंदी का भी रखा जाता था।
यद्यपि अनेक भारतीय राजनीतिज्ञों ने श्रीमती बेसेंट के आंदोलन से असहमति प्रकट की, पर फिर भी भारतीय राजनीति में उसका काफी प्रभाव पडा़। इनको आंदोलन करने का जो अभ्यास इंग्लैंड में ही हो चुका था, उसी का परिचय उन्होंने यहाँ भी दिया। कुछ ही समय में इन्होंने लेखों और पर्चों की झडी़ लगा दी। लंदन मे भी पर्चें बाँटकर भारतीय जनता की 'माँग' का संदेश प्रचारित किया जाने लगा। "भारत स्वाधीनता के लिए कैसे उद्यत हुआ?" और "भारत एक राष्ट्र" जैसी पुस्तके लिखकर जनता को उत्साहित किया जाने लगा। इसके साथ ही वे देश में चारों तरफ दौरा करके व्याख्यानों द्वारा भारत के राजनीतिक अधिकारों के लिए जोरदार आंदोलन चलाने लगीं।
इनके प्रचार कार्य का प्रभाव सरकार पर शीघ्र ही पडा़ और १० जुलाई १८१६ को बंबई के गर्वनर ने इनको बंबई प्रांत में आने और भाषण करने से रोक दिया। सितंबर १९१६ में मध्य प्रांत की सरकार ने भी उनको अपने प्रांत में आने पर रोक लगा दी। इन घटनाओं से जनता में काफी उत्साह फैला और श्रीमती बेसेंटका प्रभाव बढ़ने लगा।
१६ जून, १९१७ को मद्रास के गवर्नर लार्ड पेंटेलैंड ने आपको बुलाकर कहा- "आप यह राजनैतिक आंदोलन बंद कर दें। इस विषय में हम भारतीय और अंग्रेज किसी में भेद नहीं कर सकते। अगर आपने हमारी सलाह को नहीं माना, तो सरकारी हुक्म से आपके सब काम बंद करा दिये जायेंगे।"
आपने उत्तर दिया- "गवर्नर साहब ! अपको जो शक्ति मिली हुई है, उससे आप जो चाहे कर सकते हैं। मैं तो निराधार हूँ। पर मैं इतना कह देना चाहती हूँ कि ऐसा करके आप ब्रिटिश- राज्य की सेवा नहीं करेंगे, वरन् उसको एक घातक धक्का लगायेंगे।"
श्रीमती बेसेंट ने अपने जीवन में कभी कायरता कभी कायरता नहीं दिखाई थी। उन्होंने गवर्नर साहब का आशय समझ लिया और वे गिरफ्तारी के लिए तैयार हो गई। वहाँ से वापस आते ही इन्होंने देशवासियों के नाम एक विदाई का संदेश लिखा, जिसमें कहा गया था- मैं साफ लिख देना चाहती हूँ, क्योंकि ये मेरे अंतिम शब्द हैं। मैं एक जबर्दस्ती की खामोशी व गिरफ्तारी में भेजी जा रही हूँ। मेरा कसूर यही माना गया है कि मैं भारत को प्यार करती हूँ और उसे जगाने की कोशिश कर रही हूँ। पर मेरा सिद्धांत यह है कि इज्जत खोने से अच्छा आजादी खोना है।"
मैं बूढी़ हूं, पर मुझे विश्वास है कि मरने से पहले मैं भारत को स्वराज्य प्राप्त किये देख सकूँगी। यदि इस शानदार भविष्य को प्राप्त करने में, मैं कुछ भी सहायता कर सकी तो मुझे मुझे पूरा संतोष हो जायेगा। ईश्वर भारत को बचाये। वंदेमातरम्।"
लाट साहब से मिलकर आने के घंटे भर बाद ही इनको दो साथियों सहित नजरबंद कर दिया गया। यह समाचार तुरंत देश भर में बिजली की तरह फैल गया। चारों ओर विरोधी सभाएँ होने लगीं और जो लोग श्रीमतीबेसेंट से सहमत न थे, वे भी सरकार को फटकारने लगे। इस घटना के फल से अंग्रेजी माल के बहिष्कार का आंदोलन जोर पकड़ गया और कितने ही लोग सत्याग्रह की चर्चा भी करने लगे। इसका प्रभाव सरकार पर भी पड़ा और २०अगस्त, १९१७ के भारत मैत्री की तरफ से यह घोषणा की गई कि- "भारत में अंग्रेजी राज्य का उद्देश्य भारत को स्वराज्य अधिकार देना है और इस संबंध में जाँच करने के लिये भारत मंत्री मेंटेगु शीघ्र ही भारत आयेंगे।" इसके कुछ समय पश्चात् सरकार ने श्रीमती बेसेंट को छोड़ दिया और जनता ने भी उनकी सेवाओं का आदर करके भारत का सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान उनको प्रदान किया। सन् १९१७ में कलकत्ता कांग्रेस की अध्यक्षा वे ही बनाई गईं।
श्रीमती बेसेंट हमारे उन देश भाइयों के लिए अत्यंत प्रेरणाप्रद हैं, जो गई- गुजरी परंपराओं के नाम पर अपना और समाज का सुधार करने के महान् उद्देश्य से विमुख रहते हैं। इस प्रकार के लोग बडी़ संकीर्ण मनोवृत्ति के होते है और संसार के अन्य देशों की तो बात ही क्या अपने पड़ोसियों तथा अन्य प्रांत वालों को भी "गैर" या "परदेशी" समझा करते हैं। पर श्रीमती बेसेंट ने सात- आठ हजार मील की दूरी पर बसे हुए और भाषा, वेष, आचार- विचार आदि सब दृष्टियों से भिन्न भारत- देश से आत्मीयता का संबंध स्थापित किया और इसकी इतनी सेवा की कि जितनी 'भारतीय' होने का गर्व रखने वाले भी बहुत कम कर पाते हैं। इसमें जरा भी संदेह नहीं कि संसार में भारतवर्ष और भारतीय धर्म का गौरव बढा़ने में जितना परिश्रम श्रीमती बेसेंट ने किया, उतना शायद ही हममें से किसी ने किया होगा।
वे यद्यपि जन्म से ईसाई थीं और उनका विवाह भी एक पादरी से हुआ था, पर फिर भी उन्होंने अंध- परंपरा पर चलते रहने के बजाय 'सत्य' की खोज की और सब तरह की हानि और कष्ट उठाकर भी जिस सिद्धांत को सत्य समझा, उसी का अनुसरण किया। इस प्रकार की परीक्षा प्रधान प्रवृत्ति और दृढ़ता पुरुषों में भी बहुत कम देखने में आती है।
उन्होंने स्त्री होते हुए भी जो महान् उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। वे भी कम प्रशंसनीय नहीं है। खासकर हमारे देश की महिलायें, जो अब भी अपना कार्यक्षेत्र निज की गृहस्थी को ही मानती है और सार्वजनिक कार्यों में भाग लेना अनावश्यक- अनुपयुक्त बतलाती हैं, उनसे बहुत शिक्षा ग्रहण कर सकती है। श्रीमती बेसेंट ने तर्क और खोज का आश्रय लेकर धर्म और जन- सेवा के संबंध में जो कार्य किया, उसका महत्त्व चिरकाल तक स्थिर रहेगा। अन्य सत्कार्यों के साथ निस्संदेह उन्होंने नारी- जाति के उत्थान में भी अनुपम कार्य किया है।
सन् १९२० से भारत देश के राजनीतिक क्षेत्र में महात्मा गांधी का आविभार्व हुआ। उनके सिद्धांतों से मतभेद होने के कारण श्रीमती बेसेंट का प्रभाव भारतीय राजनीति पर से घटने लग गया, तो भी ये अपने ढंग से जीवन के अंतिम समय तक देश और जन- कल्याण के कार्य करती रहीं और सितंबर सन् १९३३ में ८७ वर्ष की वर्ष की अवस्था में सार्वजनिक सेवा करते हुए ही आपका देहावसान हुआ।