Books - असामान्य और विलक्षण किंतु संभव और सुलभ
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Language: HINDI
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मनुष्येत्तर प्राणी भी कम रोचक रहस्यमय नहीं
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कीड़े-मकोड़े हमें अपनी तुलना में दयनीय स्थिति में पड़े हुए दिखाई पड़ते हैं, पर वस्तुस्थिति वैसी है नहीं। हमारी अपनी दुनिया है और कीट-पतंगों की अपनी। हमें अपनी चेतना के अनुरूप जिस दुनिया का ज्ञान एवं अनुभव है वह हमारे लिए विभिन्न प्रकार की अनुभूतियां और परिस्थितियां प्रस्तुत करती रहती है। हम अपनी दुनिया को जानते और समझते हैं, उसे परिपूर्ण मानते हैं, जो उसमें लाभ-हानि हैं उन्हें ही सर्वांगीण मानते हैं; पर यह मान्यता मिथ्या है। वस्तुतः भगवान ने हर प्राणी का एक संसार बनाया है वह उसमें खोया रहता है और अनुभव करता है कि न केवल उसका कार्यक्षेत्र पूर्ण है वरन् उसकी चेतना भी उसके लिए पर्याप्त सुखद है।
कीड़े-मकोड़ों की दुनिया दयनीय नहीं है। उन्हें बेचारे समझना गलत है। अपनी दुनिया में वे अपने ढंग का पूरा-पूरा कौशल दिखाते होंगे और उस स्थिति में सम्भवतः उतने ही रुष्ट-तुष्ट रहते होंगे जितने कि हम मनुष्य अपने कार्य-क्षेत्र में उपलब्ध शरीर और मन के सहारे सुखी-दुःखी रहते हैं।
मकड़ी छोटा-सा घिनौना जीव है पर उसके सम्बन्ध में उपलब्ध तथ्य कम मनोरंजक नहीं है। ब्रिटिश कीट विज्ञानी जोसेफ आरेल्ड ने हिसाब लगाया है कि उस देश के चरागाहों में प्रति एकड़ के पीछे 22 लाख मकड़ियां रहती हैं। इनकी छोटी-बड़ी 550 किस्में गिनी जा चुकी हैं। उनका आधा समय शिकार पकड़ने और खाने में लगता है। वे बहुत खातीं और बहुत पचाती हैं। इंग्लैण्ड की मकड़ियां जितने कीड़े खातीं हैं उनका वजन उससे भी अधिक बैठेगा जितना कि उसे देश में मनुष्यों का वजन है।
तपते हुए रेगिस्तानों में, हिमाच्छादित पर्वत शिखरों पर, कोयले की गहरी खदानों में, मरुस्थलों और दलदलों में, अंधेरी गुफाओं में सर्वत्र मकड़ी को अपने सुरक्षित जाले में विराजमान पाया जा सकता है।
मकड़ी का जाला संसार का सबसे मजबूत किस्म का धागा है। अमेरिका में आंखों के आपरेशन में सिलाई के लिए, इसी प्रकार से अर्जियोपे जाति की मकड़ी के जाले से बना धागा काम में लाया जाता है। आस्ट्रेलिया के आदिवासी एक बड़ी जाति की मकड़ी के जाले से मछलियां और चिड़ियां पकड़ने के कई तरह के मजबूत जाल बुनते हैं वे मुद्दतों चलते हैं और सहज ही नहीं टूटते। इस धागे की मोटाई एक इंच का लाखवां भाग होती है, साधारणतया जो एक धागा हमें दिखाई पड़ता है उसमें दर्जनों पतले धागे होते हैं उनसे मिलकर एक इकाई बनती है। वे परस्पर किस कुशलता के साथ काते और ऐठे गये होते हैं यह देखकर स्तब्ध रह जाना पड़ता है। यह धागे लचकदार होते हैं और अपने आकार से सवाये खिंच कर बढ़ सकते हैं। जब कोई धागा टूट जाता है तो मकड़ी उसमें नया लस लगाकर मरम्मत कर देती है। इस प्रकार वे टूट-फूट के कारण नष्ट होने से बचे रहते हैं।
घरेलू झींगुर रात को जब अपना आरचेस्ट्रा बजाता है तो लगता है स्वर ताल का समग्र ज्ञान रखने वाला कोई कुशल कलावन्त सधे हुए हाथ से वायलिन के स्वर झंकृत कर रहा है और साथ ही उसके सहायक अन्य बाजे बज रहे हैं। उसकी ध्वनि इतनी तीव्र होती है मानो वाद्य यन्त्र के साथ किसी ने शक्तिशाली लाउडस्पीकर फिर कर दिया हो। यह ध्वनि-विस्तार-यन्त्र सहित वायलिन उसकी पीठ पर लदा होता है।
झींगुर की पीठ पर दो चौड़े भूरे रंग के पंख होते हैं। इन्हीं के सहारे वह कुलाचें भरता है। इन पंखों में कुछ धारियां होती हैं, इन्हीं को परस्पर घिसकर वह अपना संगीत प्रवाह निसृत करता है। यही वह उपकरण है जिससे कई प्रकार की स्वर धारायें निकलती हैं। मोटे रूप से एक जैसी ध्वनि सुनाई पड़ती है, पर ध्यान देने पर प्रतीत होता है कि इसमें एक नहीं कितने ही उतार-चढ़ाव भरे स्वर हैं। उनमें मुख्यतया तीन और विशेषतया सत्रह स्वर सुने जा सकते हैं। कभी धीमी, कभी तीव्र आवाजें निकलती हैं और वे सदा एक जैसी नहीं होतीं वरन् राग-रागनियों की तरह अपने धारा प्रवाह में हेर-फेर उत्पन्न करती हैं।
भारतीय संगीत में शास्त्र ऋतु एवं समय के अनुरूप राग-रागनियां गाये-बजाये जाने का अनुशासन है। अब वह परम्परा संगीतज्ञों ने छोड़ना शुरू कर दिया है पर झींगुर अपने लिये प्रकृति द्वारा निर्धारित संगीत परम्परा का पूरी तरह पालन करते हैं। उनके गीत वातावरण के तापमान का प्रतिनिधित्व करते हैं। 55 अंश फारेनहाइट से कम तापमान पर झींगुर मौन साधे रहते हैं। 100 से ऊपर यह गर्मी निकल जाये तो भी वे चुप हो जाते हैं। 55 और 100 डिग्री के बीच का तापक्रम रहेगा तो ही वे अपना वायलिन बजायेंगे। उनका संगीत न निरुद्देश्य होता है और न स्वर, ताल से रहित। इस गायन में उनकी प्रसन्नता, कठिनाई, क्षुधा, भय, आक्रोश, प्रणय, निमन्त्रण आदि के भाव भरे रहते हैं। स्वर, ताल में ऐसी क्रमबद्धता रहती है कि वे संगीत शास्त्र की परीक्षा में शत-प्रतिशत नम्बरों से उत्तीर्ण हो सकते हैं। उनकी झंकार एक मील की दूरी तक टेप की गई है।
प्रकृति की संरचना में एक से एक अद्भुत आकार-प्रकार और क्षमताओं के प्राणी भरे पड़े हैं। बारीकी से उन्हें समझा-देखा जाय तो प्रतीत होता है कि अपने बुद्धि बल मात्र पर अहंकार करने वाला मनुष्य, अन्य प्राणियों की तुलना में कितना असमर्थ-अक्षम है।
चीता सबसे तेज दौड़ने वाला जानवर है। वह एक मिनट में एक मील दौड़ सकता है—घण्टे में साठ मील। आस्ट्रेलिया का कंगारू ऊंची कूद में अद्वितीय है। उसकी उछाल 40 फुट तक ऊंची होती है। मात्र पांच इंच शरीर का अफ्रीका में पाया जाने वाला जेंवोंआ 15 फुट तक ऊंचा उछल सकता है।
पक्षियों में गरुड़ की उड़ान सबसे तेज है। वह 200 मील प्रति घण्टे की लम्बी उड़ान भर सकता है। तेज रफ्तार से हवा में गोता खाने वाला और फिर सीधे ऊपर उड़ जाने के करतब में गोशात्क जाति के बाज से आगे बढ़कर बाजी मारने वाला और कोई नहीं।
उल्लू रात को आसानी से देख सकता है। उसकी आंखों में मनुष्य की अपेक्षा दस गुनी अधिक रोशनी है। बाज की आंखें लाखों रुपये में मिलने वाली दूरबीन से भी बेहतर होती हैं। एक हजार फुट ऊंचाई पर उड़ते हुए भी वह घास या झाड़ी में छिपे मेंढक, चूहों, या सांपों को आसानी से देख सकता है। खरगोश की आंखों की बनावट ऐसी है कि सामने की ही तरह पीछे भी साथ-साथ देख सकता है। बिना सिर घुमाये आगे-पीछे दोनों तरफ के दृश्य देखते चलना थलचरों में सचमुच अद्भुत है। यह विलक्षणता मछलियों में भी पाई जाती है वे पानी में नीचे और ऊपर दोनों ओर देखती हैं।
हाथी की सूंड़ में 40 हजार मांसपेशियां होती हैं। इसी से उसमें इतनी लचक रहती है कि जमीन पर पड़ी सुई तक को पकड़ सके। विशालकाय प्राणियों में सबसे बड़ी ह्वेल मछली होती है। उसकी लम्बाई 110 फुट और वजन 140 टन तक होता है। प्रसव काल में माता और बच्चे के अनुपात का रिकार्ड भी ह्वेल ही तोड़ती है। नवजात बच्चा प्रायः मां से लगभग आधा होता है।
शेर का पंजा और ह्वेल का दुम इतने सशक्त होते हैं कि प्राणधारियों में से किसी का भी एक अंश उसके अन्य अंगों की तुलना में इतना अधिक मजबूत नहीं होता। गहरे समुद्रों में पाया जाने वाला ‘अष्ट पद’ का जरा सा धड़ सिर बीच में होता है और हाथी की सूंड़ जैसी विशाल आठ भुजायें इतनी मजबूत होती हैं कि उनकी पकड़ में आया हुआ बड़े से बड़ा प्राणी जीवित निकल ही नहीं सकता। अमेरिका में पाया जाने वाला एक समुद्री घोंघा—अटलांटिक में पाये जाने वाली सीपियां और कुछ किस्म की मछलियां प्रजनन की प्रतियोगिता में चैंपियन ठहरती हैं वे प्रायः 40 से 50 करोड़ तक अण्डे हर वर्ष देती हैं।
आकाश की तरह पानी के भीतर भी उड़ सकने में समर्थ ‘आरेव्डक’ नामक वाटर प्रूफ पक्षी अनोखा है। वह तैरता उड़ता महीनों समुद्र में ही गुजारा करता रहता है। आर्कटिक सागर के उत्तरी छोर पर बर्फीले प्रदेश में रहने वाले कुछ पक्षी बिना रुके 22 हजार मील की लम्बी यात्रा करके दक्षिण ध्रुव पर जा पहुंचते हैं।
कितने ही पक्षी ऋतु परिवर्तन के लिए झुण्ड बनाकर सहस्रों मील लम्बी उड़ानें भरते हैं। वे धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा पहुंचते हैं। इनकी उड़ाने प्रायः रात में होती हैं। उस समय प्रकाश जैसी कोई इस प्रकार की सुविधा भी नहीं मिलती जिससे वे यात्रा लक्ष्य की दिशा जान सकें। यह कार्य उनकी अन्तःचेतना पृथ्वी के इर्द-गिर्द फैले हुए चुम्बकीय घेरे में चल रही हलचलों के आधार पर ही पूरा करती है। इस धारा के सहारे वे इस तरह उड़ते हैं मानों किसी सुनिश्चित सड़क पर चल रहे हों।
राजाओं, सेनापतियों के घोड़े, हाथी उनका इशारा समझते थे और सम्मान करते थे। बिगड़े हुए हाथी को राजा स्वयं जाकर संभाल लेते थे। राणाप्रताप, नेपोलियन झांसी की रानी के घोड़े मालिकों के इशारे ही नहीं उनकी इच्छा को भी समझते थे और उनका पालन करते थे। यह उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का अल्प विकसित बुद्धि वाले घोड़े हाथी आदि पशुओं पर पड़ा हुआ प्रत्यक्ष प्रभाव ही था।
मधुमक्खियों की नेत्र रचना देखकर विज्ञानवेत्ता पोलारायड ओरिसन्टेशन इन्डिकेटर नामक यन्त्र बनाने में समर्थ हुए हैं। यह ध्रुव प्रदेश में दिशा ज्ञान का सही माध्यम है। उस क्षेत्र में साधारण कुतुबनुमा अपनी उत्तर, दक्षिण दिशा बताने वाली विशेषता खो बैठते हैं तब इसी यन्त्र के सहारे, उस क्षेत्र के यात्री अपना काम चलाते हैं।
समुद्री तूफान आने से बहुत पहले ही समुद्री बतखें आकाश में उड़ जाती हैं और तूफान की परिधि के क्षेत्र से बाहर निकल जाती हैं। डालफिन मछलियां चट्टानों में जा छिपती हैं, तारा मछली गहरी डुबकी लगा लेती हैं और ह्वेल उस दिशा में भाग जाती हैं, जिसमें तूफान न पहुंचे। यह पूर्व ज्ञान इन जल-जन्तुओं का जितना सही होता है उतना ऋतु विशेषज्ञों के बहुमूल्य उपकरणों को भी नहीं होता। मास्को विश्व विद्यालय ने इन्हीं जल-जन्तुओं के अत्यन्त सूक्ष्म सूचना ग्राहक कानों की नकल पर ऐसे यन्त्र बनाये हैं जो अन्तरिक्ष में होने वाली अविज्ञात हलचलों की पूर्व सूचना संग्रह कर सकें। ऐसा अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि प्रवाहों को सुन समझ लेने से ही सम्भव होता है।
जीव-जन्तुओं की विशिष्ट क्षमताओं का आधार उनकी ऐसी संरचना में सन्निहित है जो मनुष्यों के हिस्से में नहीं आई है। अब विज्ञान मनुष्येत्तर विभिन्न प्राणियों की शारीरिक एवं मानसिक संरचना में जुड़ी हुई अद्भुत विशेषताओं को खोजने में संलग्न है। इसका एक स्वतन्त्र शास्त्र ही बन गया है जिसका नाम है ‘वायोनिक्स’। इसे स्पेशल पर्पस मैकेनिज्म-विशेषोद्देश्य व्यवस्थाएं भी कहा जाता है। किसी अंधेरे कमरे में बहुत पतले ढेरों तार बंधे हों उसमें चमगादड़ छोड़ दी जाय तो वह बिना तारों से टकराये रात भर उड़ती रहेंगी। ऐसा इसलिए होता है कि उसके शरीर से निकलने वाले कम्पन तारों से टकरा कर जो ध्वनि उत्पन्न करते हैं उन्हें उसके संवेदनशील कान सुन लेते हैं और यह बता देते हैं कि तार कहां बिखरे पड़े हैं। बिना आंखों के ही उसे इस ध्वनि माध्यम से अपने क्षेत्र में बिखरी पड़ी वस्तुएं दीखती रहती हैं।
मेढ़क केवल जिन्दा कीड़े खाता है। उसके सामने मरी और जिंदा मक्खियों का ढेर लगा दिया जाय तो उनमें से वह चुन-चुनकर केवल जिन्दा मक्खियां ही खायेगा। इसका कारण मृतक या जीवित मांस का अन्तर नहीं वरन् यह है कि उसकी विचित्र नेत्र संरचना केवल हलचल करती वस्तुएं ही देख पाती है स्थिर वस्तुएं उसे दीखती ही नहीं। मरी मक्खी को किसी तार से लटका कर हिलाया जाय तो वह उसे खाने के लिए सहज ही तैयार हो जायगा।
उल्लू की ध्वनि सम्वेदना उसके शिकार का आभास ही नहीं कराती ठीक दिशा दूरी और स्थिति भी बता देती है। फलतः वह पत्तों के ढेर के नीचे हलचल करते चूहों पर जा टूटता है और एक ही झपट्टे में उसे ले उड़ता है।
गहरी डूबी हुई पनडुब्बियों में रेडियो सम्पर्क निरन्तर कायम रखना कई बार बड़ा कठिन होता है क्योंकि प्रेषित रेडियो तरंगों का बहुत बड़ा भाग समुद्र का जल ही सोख लेता है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए मछली में सन्निहित उन विशेषताओं को तलाश किया जा रहा है, जिसके आधार पर वह जलराशि में होने वाली जीव-जन्तुओं की छोटी-छोटी हलचलों को जान लेती हैं और आत्मरक्षा तथा भोजन व्यवस्था के प्रयोजन पूरे करती हैं।
रैटलसांप तापमान के अत्यन्त न्यून अन्तर को जान लेता है। चूहे, चिड़िया आदि के रक्त का तापमान अत्यन्त नगण्य मात्रा में ही भिन्न होता है, पर यह सांप उस तापमान के अन्तर को जानकर अपना प्रिय आहार चुनता है। यह कार्य वह गन्ध के आधार पर नहीं अपने ताप मापक शरीर अवयवों द्वारा पूरा करता है वैज्ञानिकों ने इसी संरचना को ध्यान में रखते हुए इन्फ्रा रेड किरणों का उपयोग करके तापमान के उतार-चढ़ावों का सही मूल्यांकन कर सकने में सफलता प्राप्त की है।
पनडुब्बियों को पानी के भीतर देर तक ठहरने के लिए ऑक्सीजन की अधिक मात्रा अभीष्ट होती है और बनने वाली कार्बन-डाइ-ऑक्साइड को बाहर फेंकने की जरूरत पड़ती है। यह दोनों कार्य पानी के भीतर ही होते रहें तभी उसका अधिक समय समुद्र में रह सकना सम्भव हो सकता है। मछली पानी से ही ऑक्सीजन खींचती है और उसी में अपने शरीर की कार्बन गैस खपा देती है। यह पनडुब्बियों के लिए भी सम्भव हो सके इसका रास्ता मछलियों की संरचना का गहन अध्ययन करने के उपरान्त ही प्राप्त किया जा सकता है।
हवाई जहाजों की बनावट में पिछले चालीस वर्षों में अनेकों उपयोगी सुधार किये गये हैं। उसके लिए विभिन्न पक्षियों की संरचना और क्षमता का गहरा अध्ययन करने में विशेषज्ञों को संलग्न रहना पड़ा है। भुनगों की शरीर रचना के आधार पर वायुयानों में दूर-दर्शन के लिए प्रयुक्त होने वाला एक विशेष यंत्र ग्राउण्ड स्पीड मीटर बनाया गया है। भुनगों के आंखें नहीं होतीं वे अपना काम विशेष फोटो सेलों से चलाते हैं। वही प्रयोग इस यन्त्र में हुआ है।
अटलांटिक सागर के आर-पार रेडियो प्रसारणों को ठीक तरह पहुंचाने का रास्ता बतलाने में जिन कम्प्यूटरों का प्रयोग होता है वे कई बार असफल हो जाते हैं क्योंकि मौसम की प्रतिकूलता रेडियो तरंगों में व्यवधान उत्पन्न करती है, अस्तु ध्वनि प्रवाह के लिए नये रास्ते ढूंढ़ने पड़ते हैं। इस कार्य के लिए चींटी की मस्तिष्कीय संरचना अधिक उपयुक्त समझी गई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि चींटी के मस्तिष्क की तुलना में हमारे वर्तमान कम्प्यूटर अनपढ़ बालकों की तरह पिछड़े हुए हैं।
कीड़ों की विलक्षण क्षमता
विलक्षणताओंकी दृष्टि से देखा जाय तो छोटे-छोटे जीव-जन्तु भी असाधारण सूक्ष्म चेतना से सम्पन्न पाये जाते हैं और वे ऐसे होते हैं जिन्हें विलक्षण कहा जा सके।
कैरियन कीड़े की घ्राण शक्ति सबसे अधिक मानी जाती है। वह मीलों दूर के मुर्दा मांस का पता लगा लेता है और उड़ता फुदकता हुआ उस खाद्य भण्डार तक पहुंचकर तृप्तिपूर्वक भोजन करता है। समुद्र में हल्के ज्वार-भाटे प्रतिदिन 50 मिनट के अन्तर से आते हैं। केकड़े का रंग परिवर्तन भी ठीक 50 मिनट के ही अन्तर से होता है।
कीड़ों के कान नहीं होते, यह कार्य वे अगली टांगों के जोड़ों में रहने वाली ध्वनि गृहण शक्ति द्वारा पूरा कर सकते हैं। तितलियों के पंखों में श्रवण शक्ति पाई जाती है, झींगुर आदि जो आवाज करते हैं वह उनके मुंह से नहीं बल्कि टांगों की रगड़ से उत्पन्न होती है। कीड़ों की अपनी विशेषता है, उनके फेफड़े नहीं होते पर सांस लेते हैं। वे सुन सकते हैं पर कान नहीं होते, वे सूंघते हैं पर नाक नहीं होती। दिल उनके भी होता है पर उसकी बनावट हमारे दिल से सर्वथा भिन्न प्रकार की होती है।
. नेस, सलामैसीना, आईस्टर, स्नेल (घोंघा) फ्रेसवाटर मसल (सम्बूक) साइलिस, चैटोगेस्टर स्लग (मन्थर) पाइनोगोनाड (समुद्री मकड़ी) आदि कृमियों में भी यह गुण होता है कि उनके शरीर का कोई अंग टूट जाने पर ही नहीं वरन् मार दिये जाने पर भी वह अंग या पूरा शरीर उसी प्रोटोलाज्म से फिर नया तैयार कर लेते हैं। केकड़ा तो इन सबमें विचित्र है। टैंक की-सी आकृति वाले इस जीव की विशेषता यह है कि अपने किसी अंग को तुरन्त कर लेने की प्रकृति दत्त सामर्थ्य रखता है।
एन्ग्रालिश मछली बसन्त ऋतु में अपनी ही चैनेल में पाई जाती है, किन्तु अण्डे देने के लिये वह ‘ज्वाइडर जा’ के बाहरी हिस्से में पहुंच जाती हैं। सारडिना मछली जुलाई से दिसम्बर तक कार्नवेल में रहती है पर जाड़ा प्रारम्भ होते ही वह गरम स्थानों की ओर चल देती है। सामो मछली समुद्र में पाई जाती है, पर उसे गंगा और यमुना नदी के जल से अपार प्रेम है। अपने इस अपार प्रेम को प्रदर्शित करने और अच्छे वातावरण में अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिये वह हजारों मील की यात्रा के गंगा, यमुना पहुंचती है। अण्डे-बच्चे सेने के बाद भोजन के लिये वह फिर अपने मूल निवास को लौट आती है। कहा जाता है कि इसी सामों दीर्घजीवी और बड़ी चतुर मछली होती है।
यों तो संसार की अधिकांश सभी जातियों की मछलियां उल्टी दिशा में चलती हैं, पर योरोप में पाई जाने वाली एन्ग्युला बहाब की उल्टी दिशा में चलकर लम्बी यात्रा करने वाली उल्लेखनीय मछली है। ज्ञान और सत्य की शोध में हिमालय की चोटियों तक पहुंचने वाले भारतीय योगियों के समान यह एन्ग्युला मछली अटलांटिक महासागर पार करके गहरे पानी की खोज में बरमुदा के दक्षिण में जा पहुंचती है। बरमुदा अमेरिका के उत्तरी कैरोलाइन राज्य से 600 मील पूर्व में स्थित 350 छोटे-छोटे द्वीपों का एक समूह है।
वहां अंडे-बच्चे देकर यह अपने घर लौट आती है। उनके प्रवासी बच्चों में अपना माता-पिता पूर्वजों और संस्कृति के प्रति इतनी प्रगाढ़ निष्ठा होती है कि ढाई-तीन साल के होते ही वे वहां से चल पड़ते हैं और 5-6 महीने की यात्रा करते हुए अपने जाति भाइयों से जा मिलते हैं।
मनुष्य जिन सिद्धियों और क्षमताओं को लम्बी योग साधनाओं के द्वारा प्राप्त करता है उनमें से कई जीव-जन्तुओं की सहज ही प्राप्त होती हैं। इन्हें प्रकृति के योगी कहा जा सकता है। न जाने क्यों और कैसे मनुष्य में सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने की अहंमन्यता विकसित हो गयी जबकि होना यह चाहिये था कि मनुष्य सभी प्राणियों की भी जिज्ञासा भरी दृष्टि से देखता और उनकी अनन्त क्षमताओं से कुछ सीखने का प्रयत्न करता यदि ऐसा हुआ होता तो स्थिति कुछ और ही होती।
इन जीवों की जिन्हें अभागे और बेचारे कहा जाता है, वस्तुतः वे ऐसे हैं नहीं। इन जीवों को भी प्रकृति ने इतने उपहार दिये हैं कि उन्हें मनुष्य से कुछ कम नहीं अधिक ही कहा जाना चाहिए। पक्षियों की तरह अकेले किसी भी दिशा और ऊंचाई में उड़ने के लिए सम्भव है मनुष्य को कई सदियां लग जायें, मछलियों की तरह दिन-दिन भर पानी में तैरना मनुष्य के वश की बात नहीं। मनुष्य को गगनचुम्बी इमारतें और बड़े-बड़े पुल तथा बांध बांधने पर गर्व हो सकता है; पर इस कला में तो दीमक-चींटियां और मधु-मक्खियों की कुशलता कतई कम नहीं। बीवर जैसा चतुर इंजीनियर तो बिना प्रशिक्षण प्राप्त किये अपनी क्षमता प्रदर्शित कर सकता है; ‘मनुष्यों’ में कहां मिलेगा। बीवर या ऊदबिलाव अपनी आवश्यकता के लिए बहुत सुदृढ़ बांध बनाते पाये गये हैं।
चींटी अपने भार से 70 गुना अधिक भार सहज ढो सकती है। चींटी की तुलना में मनुष्य का जितना अधिक वजन है; उस हिसाब से उसे बिना पहिये की माल गाड़ी का इंजिन जमीन में खींच लेना चाहिए पर मनुष्य में उतनी क्षमता है क्या, पिस्सू मेढ़क अपनी ऊंचाई से 250 गुना ऊंचा उछल सकते हैं मनुष्य इसी तुलना में उछले तो उसे 4500 फुट आसानी से उछल जाना चाहिए जब कि वह 10 फुट ऊंची दीवार भी फांद नहीं सकता। मधुमक्खी छत्ता बनाती है। तो ऊपर की डाल पर यदि 20 मधुमक्खियां हो तो उन पर नीचे 10000 मधुमक्खियों का लगभग 7 किलो भार होगा इस औसत से एक मनुष्य की टांगें पकड़ कर 2000 व्यक्तियों को लटक जाना चाहिए, पर कल्पना कीजिये दुनिया का बड़े से बड़ा पहलवान भी ऐसा कर सकेगा क्या? चील की जितनी तेज आंख होती है उसी अनुपात से कहीं मनुष्य की दृष्टि रही होती तो वह प्लूटो ग्रह में चल रही गति-विधियां धरती से ही देख लेता। चमगादड़ जैसी सूक्ष्म श्रव्य शक्ति इन्सान को मिल सकी होती तो वह धरती के किसी भाग की किसी कोठरी के अन्दर बैठकर भी सौर मण्डल की धूर्णन की आवाज—सौर घोष आसानी से सुन लेता। जैसी घ्राण शक्ति यदि मनुष्य को मिल जाती तो मंगल से उठ रही अमोनिया गैस का अनुभव उसे हरिद्वार में बैठे-बैठे मिल जाता। एक तितली दिन में जितना उड़ती है यदि वह एक सीध में लगातार उड़े तो वह दिन भर में 10 मील उड़ सकती है। मनुष्य का भार उसकी तुलना में कई हजार गुना है इस तुलना में तो उसे एक दिन में अधिक नहीं तो पृथ्वी की एक परिक्रमा तो आसानी से कर ही लेनी चाहिये थी।
किसी को कुत्ता कहना मानवीय संस्कृति में सबसे बुरी गाली है किन्तु इस प्रकृति के योगी में ऐसी अतीन्द्रिय क्षमतायें परमात्मा ने विकसित की हैं कि वह आने वाली प्राकृतिक विपदाओं, दैवी आपत्तियों की काफी समय पूर्व सूचना दें देने में सक्षम है। इटली का विसूसियस ज्वालामुखी पहली बार फटा उससे सात दिन पूर्व तक कुत्ते भयानक आवाज में रोने-चिल्लाने और मानवीय विनाश की चेतावनी देने लगे थे, किन्तु किसी ने उनकी सम्वेदना को परखा नहीं और लाखों व्यक्ति ज्वालामुखी के लावे में जल मरे। 1961 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध की चेतावनी कुत्तों ने पहले ही कर दी थी। गांवों, शहरों में किसी की मृत्यु की सूचना उस मुहल्ले के कुत्ते पहले ही दें देते हैं।
वर्षा आने से पूर्व दीमकों के झुण्ड एकाएक विलुप्त हो जाते, मकड़ियां जाला समेटने लगतीं, चींटियां अपने खाद्यान्न व्यवस्था सुरक्षित करने लगती हैं। असामयिक वृष्टि की सूचना गौरिया, मिट्टी स्नान द्वारा पहले ही दें देती है। इस अनुपात से मनुष्य को जैसी सूक्ष्म बुद्धि प्राप्त है, उसके अनुसार तो उसे त्रिकालदर्शी से कम नहीं होना चाहिए; पर ऐसे अवसरों पर उसकी दयनीयता देखते ही बनती है। कारण स्पष्ट है वह अपनी इन दैव-प्रदत्त क्षमताओं के विकास की बात तो दूर उन्हें पहचानने और अनुभव करने तक का प्रयास नहीं करता। उसकी सम्पूर्ण चेष्टायें मात्र इन्द्रियों की क्षणिक खुजली को ही शान्त करने में लगी रहती हैं।
मनुष्य शरीर जटिल रसायनों का विलक्षण भाण्डागार है। ‘‘हारमोन्स’’ के रूप में अब जिन स्रावों का वैज्ञानिकों और शरीर-शास्त्रियों को ज्ञान हुआ है, उससे तो पुराण युग की कपोल-कल्पनायें भी साकार सत्य होने जा रही हैं। आकार वृद्धि में सुरसा एक उदाहरण बन गई है तो हनुमान के ‘‘मशक-समान’’—तथा ‘‘तब कपि भयउ पर्वतकारा’’ की कहानियां आये दिन सुनने में आती हैं। हारमोन्स ने इन सम्भावनाओं पर अपनी स्पष्ट मुहर लगा दी है। किन्तु आज इन क्षमताओं का कोई उपयोग कर पाता है क्या? इस दृष्टि से छोटा-सा ‘मिक’ ही भला जो अपने से कई गुने शक्तिशाली शत्रु को भी अपने शरीर से इच्छानुसार कम या अधिक मात्रा में एक विशेष प्रकार की रासायनिक दुर्गन्ध निकालकर भगा देता है। यह मिक वही है जिनकी खाल के कोट पहनने के लिए पश्चिमी लोग लालायित रहते और प्रचुर धन व्यय करते हैं। मनुष्य शरीर में जबर्दस्त रोग-निरोधक शक्ति है; पर वह बिगाड़ मच्छर तक का कुछ नहीं पाता।
यह नहीं सोचना चाहिए कि परमात्मा ने मनुष्य को ही विशेष प्यार-दुलार दिया है तथा उसे विशेष महत्त्व दिया है। प्रकृति ने अपने सभी पुत्रों को परिस्थिति और आवश्यकता के अनुरूप विशेष सामर्थ्य दी है ताकि वे अपना जीवन अस्तित्त्व बनाये रखे। पिछले कई वर्षों से हिमालय पर हिम मानव के अस्तित्त्व की चर्चा होती रही है। उसके सम्बन्ध में जीव-शास्त्री, विकासवादी, अध्यात्मवादी, भिन्न भिन्न प्रकार की कल्पनायें करते और मान्यतायें व्यक्त करते हैं। सच क्या है यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, पर यह तो ध्रुव सत्य है कि अनेक प्रकार की कल्पना और मान्यता का यह जीव न केवल भारत वरन् सारे संसार के लिये ज्ञान-विज्ञान की एक नई पहेली के रूप में उभरा। उसके अस्तित्व के बारे में किसी को शंका नहीं है पर बर्फ में रहने वाला यह हिम मानव कौन है? क्या करता है? और उस क्षेत्र में जहां जीवन के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती, किस प्रकार नग्न शरीर विचरण करता है? यह प्रश्न आज तक भी कोई हल नहीं कर पाया। पहले तो लोग उसके अस्तित्व पर भी शंका करते थे। पर वह वर्णन जो किंवदन्तियों के रूप में चिरकाल से चले आ रहे थे पहली बार उस समय सत्य प्रमाणिक हुये जब सुप्रसिद्ध पर्वतोरोही तेनसिंह और एडमण्ड हिलेरी ने 1954 में हिमालय की चढ़ाई की एडमण्ड हिलेरी ने 19 हजार फुट की ऊंची चोयांग घाटी पर अपना खेमा गाड़ रखा था उस समय की बात है। एक दिन जब वे उस क्षेत्र के निरीक्षण के लिए बाहर निकले और बर्फ पर चलते हुये काफी दूर निकल गये तब एकाएक उन्हें बर्फ पर बने हाल ही के पदचिह्नों ने चौंका दिया। हिम मानव की लोक कथायें उनने सुनी अवश्य थीं, यह भी सुना था कि यह प्राणी उस दुर्गम क्षेत्र में रहता है जहां मनुष्य पहुंच भी नहीं सकता था, पर जहां पहुंचने के लिये उन्हें स्वयं अपने जीवन रक्षार्थ करोड़ों रुपयों की लागत के उपकरण ले जाने पड़ते थे फिर भी मौत हर क्षण छाया की तरह घूमती रहती उस बीहड़ हिमस्थली में मनुष्य के निवास की तो बात वे सोच भी नहीं सकते थे। पद चिह्नों का पीछा करते हुए वे काफी दूर तक गये पर कहीं न कुछ दिखा न कुछ मिला। अपनी यात्रा के संस्मरणों में पहली बार उन्होंने इस हिम मानव का विस्तार से उल्लेख किया तब विज्ञान को अनेक नई धारणायें मिलीं कि जीवन के अस्तित्व के लिये अति शीत और उच्चतम ताप भी बाधक नहीं है। मनुष्य शरीर संसार की हर परिस्थिति में रखने योग्य बनाया जा सकता है। भले ही भारतीय योग दर्शन और सिद्धियों जैसे वे आधार आज लोगों की समझ में न आयें, पर यह निर्विवाद सत्य है कि मनुष्य उन अभूतपूर्व शक्तियों और सिद्धियों का समन्वय है जिन्हें विकसित कर वह शरीर से ही परमात्मा की कल्पना को सार्थक कर सकता है।
पीछे हिम मानवों की खोज का सिलसिला चल पड़ा। हर पर्वतारोही उनकी टोह लेने लगा। उससे उनके बारे में नई-नई विस्मय बोधक जानकारियां मिलीं। हिम मानव एक नहीं अनेक हैं। उन्हें देखा भी गया है पर अब तक उनका फोटो शायद ही कोई ले पाया हो क्योंकि वह शरीर से असाधारण क्षमता वाले होते हैं कुछ लोगों का तो कहना है कि किसी भी स्थान में अन्तर्ध्यान भी हो सकते हैं और जिस तरह कोई मनुष्य पानी में डुबकी लगाकर दूसरे किसी स्थान पर जा निकलता है उसी प्रकार कहीं भी लुप्त हो जाने के बाद वे कहीं जाकर प्रकट भी हो सकते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो हिमालय की निचली तराइयों में जहां आबादी रहती है वहां वे कैसे उतर आते और एक रात के अन्तर से ही जो यात्रा कई महीनों में सम्पन्न हो सकती है उसे पूरा करके तुरन्त ही 20 हजार से अधिक ऊंचाई पर कैसे भाग जाते?
चेहरा लम्बा और पतला होता है, आंखें लाल और दांत बड़े-बड़े 7 से 8 इंच लम्बी जीभ और बीसियों आदमियों के बराबर की ताकत तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति नितान्त ब्रह्मचारी और प्राकृतिक जीवन जीता हो या फिर योग सिद्ध हो। डा. ईजार्ड का कहना है कि वे मांसाहारी होते हैं इसके प्रमाण में वे बताते हैं कि मैंने उसके मल (यतीज ड्रापिंग्स) का रासायनिक विश्लेषण कर लिया है पर अन्य लोगों का कथन है कि वे पूर्ण शाकाहारी होते हैं और उनके शरीर में मल बनता ही नहीं। उनके शाकाहारी होने का प्रमाण तराई क्षेत्रों में प्रचलित लोक गीत और कथाओं में मिलता है। रात को जब स्त्रियां सोने की तैयारी करती हैं तो बड़ी-बूढ़ी मातायें वधुओं को हिदायत देती हैं कि देखो बहू चक्की में आटा या गेहूं पड़ा न रह जाये नहीं तो हिम मानव आयेगा और उसे खा जायेगा। सोचने वाली बात है कि केवल आटा और चक्की में बचे हुये दानों के लालच में हिम मानव 20 फुट की दुर्गम पहाड़ियां क्यों कर उतरेगा। इससे पूर्व उसे हजारों किस्म के जंगली जानवर मिल सकते हैं, आदमखोर हो तो वह गांव के बच्चों को उठाकर ले जा सकता है दाने ही क्यों चुराने लगा? उसके स्वभाव से पता चलता है कि वह शाकाहारी है उसके व्यवहार और क्रिया कलापों से पता चलता है कि वह शाकाहारी है उसके व्यवहार और क्रिया कलापों से पता चलता है कि वह कोई अति मानवीय शक्तियों का पुंज कोई सिद्ध योगी ही होना चाहिये। कुछ तो उस क्षेत्र का जलवायु ही सहायक होता है कुछ योगाभ्यास द्वारा विकसित शक्तियां हो सकती हैं जिनके कारण वह उस एक क्षण में बर्फ कर देने वाले दुर्गम क्षेत्र में भी सानन्द जीवन जीता है।
काठमाण्डू के लामा श्री पुण्य वज्र ने बहुत समय तक हिमालय के इस प्रदेश में बिताये हैं एक यती-योगी सन्त-संन्यासी के ढंग पर उन्होंने हिम मानव की खोज की उनका कहना है कि मैं बहुत समय तक उनके साथ रहा और पाया कि उनकी क्षमतायें बहुत ही विलक्षण हैं। यद्यपि उनकी बातों को पाश्चात्य लोग प्रमाणिक नहीं मानते तो भी यह बात तो अमरीका के सुप्रसिद्ध जीव विशेषज्ञ श्री कैरोल वायमैन ने भी स्वीकार की है कि हिम मानव की सामर्थ्य विलक्षण है। उदाहरणार्थ वह बहुत दूर की गन्ध से ही पहचान सकता है कि इस क्षेत्र में किधर से मनुष्य या कोई दूसरा जीव जा रहा है। वे मुख को देखकर ही भावों को भांप जाते हैं उसकी ताकत 15 व्यक्तियों की ताकत से बढ़कर होती है। वह अधिकांश बच्चों को ही दीखता है इससे यह भी तय है कि वह मनुष्यों के स्वभाव से परिचित होता है, और उसके विश्वासघात का उसे भय अवश्य रहता है तभी तो वह उसकी परछांई भी देखना नहीं चाहता। एक बार काठमाण्डू के एक बहन भाई ने उसे देखा। डा. सिल्कि जॉनसन ने उन दोनों बच्चों को मनुष्य से मिलती आकृतियों वाले कुछ बन्दरों और गुरिल्लाओं के चित्र दिखाकर पूछा तुमने जिस आकृति को देखा वह इनमें से किससे मिलता जुलता था। अलग-अलग ले जाकर चित्र दिखाने और पूछे जाने पर दोनों ही बालकों ने गुरिल्लों और ओरांग ओटान के चित्र चुनकर कहा—वह इसी शक्ल से मिलता-जुलता था, पर यह नहीं इससे भिन्न था।
अनेक बार दिखा है यह हिम मानव और हर बार उसने वैज्ञानिकों की बुद्धि को चमकाया—चौंधाया है। अनेक प्रकार की कल्पनाओं और मान्यताओं के बावजूद यह निश्चित नहीं हो सका कि यह हिम मानव है अथवा कोई जंगली जीव है।
जो भी हो, उपरोक्त विवरण में से तो इतना तो स्पष्ट है कि मनुष्येत्तर प्राणियों का संसार और जीवन भी कभी विलक्षण तथा रहस्यमय नहीं है।
कीड़े-मकोड़ों की दुनिया दयनीय नहीं है। उन्हें बेचारे समझना गलत है। अपनी दुनिया में वे अपने ढंग का पूरा-पूरा कौशल दिखाते होंगे और उस स्थिति में सम्भवतः उतने ही रुष्ट-तुष्ट रहते होंगे जितने कि हम मनुष्य अपने कार्य-क्षेत्र में उपलब्ध शरीर और मन के सहारे सुखी-दुःखी रहते हैं।
मकड़ी छोटा-सा घिनौना जीव है पर उसके सम्बन्ध में उपलब्ध तथ्य कम मनोरंजक नहीं है। ब्रिटिश कीट विज्ञानी जोसेफ आरेल्ड ने हिसाब लगाया है कि उस देश के चरागाहों में प्रति एकड़ के पीछे 22 लाख मकड़ियां रहती हैं। इनकी छोटी-बड़ी 550 किस्में गिनी जा चुकी हैं। उनका आधा समय शिकार पकड़ने और खाने में लगता है। वे बहुत खातीं और बहुत पचाती हैं। इंग्लैण्ड की मकड़ियां जितने कीड़े खातीं हैं उनका वजन उससे भी अधिक बैठेगा जितना कि उसे देश में मनुष्यों का वजन है।
तपते हुए रेगिस्तानों में, हिमाच्छादित पर्वत शिखरों पर, कोयले की गहरी खदानों में, मरुस्थलों और दलदलों में, अंधेरी गुफाओं में सर्वत्र मकड़ी को अपने सुरक्षित जाले में विराजमान पाया जा सकता है।
मकड़ी का जाला संसार का सबसे मजबूत किस्म का धागा है। अमेरिका में आंखों के आपरेशन में सिलाई के लिए, इसी प्रकार से अर्जियोपे जाति की मकड़ी के जाले से बना धागा काम में लाया जाता है। आस्ट्रेलिया के आदिवासी एक बड़ी जाति की मकड़ी के जाले से मछलियां और चिड़ियां पकड़ने के कई तरह के मजबूत जाल बुनते हैं वे मुद्दतों चलते हैं और सहज ही नहीं टूटते। इस धागे की मोटाई एक इंच का लाखवां भाग होती है, साधारणतया जो एक धागा हमें दिखाई पड़ता है उसमें दर्जनों पतले धागे होते हैं उनसे मिलकर एक इकाई बनती है। वे परस्पर किस कुशलता के साथ काते और ऐठे गये होते हैं यह देखकर स्तब्ध रह जाना पड़ता है। यह धागे लचकदार होते हैं और अपने आकार से सवाये खिंच कर बढ़ सकते हैं। जब कोई धागा टूट जाता है तो मकड़ी उसमें नया लस लगाकर मरम्मत कर देती है। इस प्रकार वे टूट-फूट के कारण नष्ट होने से बचे रहते हैं।
घरेलू झींगुर रात को जब अपना आरचेस्ट्रा बजाता है तो लगता है स्वर ताल का समग्र ज्ञान रखने वाला कोई कुशल कलावन्त सधे हुए हाथ से वायलिन के स्वर झंकृत कर रहा है और साथ ही उसके सहायक अन्य बाजे बज रहे हैं। उसकी ध्वनि इतनी तीव्र होती है मानो वाद्य यन्त्र के साथ किसी ने शक्तिशाली लाउडस्पीकर फिर कर दिया हो। यह ध्वनि-विस्तार-यन्त्र सहित वायलिन उसकी पीठ पर लदा होता है।
झींगुर की पीठ पर दो चौड़े भूरे रंग के पंख होते हैं। इन्हीं के सहारे वह कुलाचें भरता है। इन पंखों में कुछ धारियां होती हैं, इन्हीं को परस्पर घिसकर वह अपना संगीत प्रवाह निसृत करता है। यही वह उपकरण है जिससे कई प्रकार की स्वर धारायें निकलती हैं। मोटे रूप से एक जैसी ध्वनि सुनाई पड़ती है, पर ध्यान देने पर प्रतीत होता है कि इसमें एक नहीं कितने ही उतार-चढ़ाव भरे स्वर हैं। उनमें मुख्यतया तीन और विशेषतया सत्रह स्वर सुने जा सकते हैं। कभी धीमी, कभी तीव्र आवाजें निकलती हैं और वे सदा एक जैसी नहीं होतीं वरन् राग-रागनियों की तरह अपने धारा प्रवाह में हेर-फेर उत्पन्न करती हैं।
भारतीय संगीत में शास्त्र ऋतु एवं समय के अनुरूप राग-रागनियां गाये-बजाये जाने का अनुशासन है। अब वह परम्परा संगीतज्ञों ने छोड़ना शुरू कर दिया है पर झींगुर अपने लिये प्रकृति द्वारा निर्धारित संगीत परम्परा का पूरी तरह पालन करते हैं। उनके गीत वातावरण के तापमान का प्रतिनिधित्व करते हैं। 55 अंश फारेनहाइट से कम तापमान पर झींगुर मौन साधे रहते हैं। 100 से ऊपर यह गर्मी निकल जाये तो भी वे चुप हो जाते हैं। 55 और 100 डिग्री के बीच का तापक्रम रहेगा तो ही वे अपना वायलिन बजायेंगे। उनका संगीत न निरुद्देश्य होता है और न स्वर, ताल से रहित। इस गायन में उनकी प्रसन्नता, कठिनाई, क्षुधा, भय, आक्रोश, प्रणय, निमन्त्रण आदि के भाव भरे रहते हैं। स्वर, ताल में ऐसी क्रमबद्धता रहती है कि वे संगीत शास्त्र की परीक्षा में शत-प्रतिशत नम्बरों से उत्तीर्ण हो सकते हैं। उनकी झंकार एक मील की दूरी तक टेप की गई है।
प्रकृति की संरचना में एक से एक अद्भुत आकार-प्रकार और क्षमताओं के प्राणी भरे पड़े हैं। बारीकी से उन्हें समझा-देखा जाय तो प्रतीत होता है कि अपने बुद्धि बल मात्र पर अहंकार करने वाला मनुष्य, अन्य प्राणियों की तुलना में कितना असमर्थ-अक्षम है।
चीता सबसे तेज दौड़ने वाला जानवर है। वह एक मिनट में एक मील दौड़ सकता है—घण्टे में साठ मील। आस्ट्रेलिया का कंगारू ऊंची कूद में अद्वितीय है। उसकी उछाल 40 फुट तक ऊंची होती है। मात्र पांच इंच शरीर का अफ्रीका में पाया जाने वाला जेंवोंआ 15 फुट तक ऊंचा उछल सकता है।
पक्षियों में गरुड़ की उड़ान सबसे तेज है। वह 200 मील प्रति घण्टे की लम्बी उड़ान भर सकता है। तेज रफ्तार से हवा में गोता खाने वाला और फिर सीधे ऊपर उड़ जाने के करतब में गोशात्क जाति के बाज से आगे बढ़कर बाजी मारने वाला और कोई नहीं।
उल्लू रात को आसानी से देख सकता है। उसकी आंखों में मनुष्य की अपेक्षा दस गुनी अधिक रोशनी है। बाज की आंखें लाखों रुपये में मिलने वाली दूरबीन से भी बेहतर होती हैं। एक हजार फुट ऊंचाई पर उड़ते हुए भी वह घास या झाड़ी में छिपे मेंढक, चूहों, या सांपों को आसानी से देख सकता है। खरगोश की आंखों की बनावट ऐसी है कि सामने की ही तरह पीछे भी साथ-साथ देख सकता है। बिना सिर घुमाये आगे-पीछे दोनों तरफ के दृश्य देखते चलना थलचरों में सचमुच अद्भुत है। यह विलक्षणता मछलियों में भी पाई जाती है वे पानी में नीचे और ऊपर दोनों ओर देखती हैं।
हाथी की सूंड़ में 40 हजार मांसपेशियां होती हैं। इसी से उसमें इतनी लचक रहती है कि जमीन पर पड़ी सुई तक को पकड़ सके। विशालकाय प्राणियों में सबसे बड़ी ह्वेल मछली होती है। उसकी लम्बाई 110 फुट और वजन 140 टन तक होता है। प्रसव काल में माता और बच्चे के अनुपात का रिकार्ड भी ह्वेल ही तोड़ती है। नवजात बच्चा प्रायः मां से लगभग आधा होता है।
शेर का पंजा और ह्वेल का दुम इतने सशक्त होते हैं कि प्राणधारियों में से किसी का भी एक अंश उसके अन्य अंगों की तुलना में इतना अधिक मजबूत नहीं होता। गहरे समुद्रों में पाया जाने वाला ‘अष्ट पद’ का जरा सा धड़ सिर बीच में होता है और हाथी की सूंड़ जैसी विशाल आठ भुजायें इतनी मजबूत होती हैं कि उनकी पकड़ में आया हुआ बड़े से बड़ा प्राणी जीवित निकल ही नहीं सकता। अमेरिका में पाया जाने वाला एक समुद्री घोंघा—अटलांटिक में पाये जाने वाली सीपियां और कुछ किस्म की मछलियां प्रजनन की प्रतियोगिता में चैंपियन ठहरती हैं वे प्रायः 40 से 50 करोड़ तक अण्डे हर वर्ष देती हैं।
आकाश की तरह पानी के भीतर भी उड़ सकने में समर्थ ‘आरेव्डक’ नामक वाटर प्रूफ पक्षी अनोखा है। वह तैरता उड़ता महीनों समुद्र में ही गुजारा करता रहता है। आर्कटिक सागर के उत्तरी छोर पर बर्फीले प्रदेश में रहने वाले कुछ पक्षी बिना रुके 22 हजार मील की लम्बी यात्रा करके दक्षिण ध्रुव पर जा पहुंचते हैं।
कितने ही पक्षी ऋतु परिवर्तन के लिए झुण्ड बनाकर सहस्रों मील लम्बी उड़ानें भरते हैं। वे धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा पहुंचते हैं। इनकी उड़ाने प्रायः रात में होती हैं। उस समय प्रकाश जैसी कोई इस प्रकार की सुविधा भी नहीं मिलती जिससे वे यात्रा लक्ष्य की दिशा जान सकें। यह कार्य उनकी अन्तःचेतना पृथ्वी के इर्द-गिर्द फैले हुए चुम्बकीय घेरे में चल रही हलचलों के आधार पर ही पूरा करती है। इस धारा के सहारे वे इस तरह उड़ते हैं मानों किसी सुनिश्चित सड़क पर चल रहे हों।
राजाओं, सेनापतियों के घोड़े, हाथी उनका इशारा समझते थे और सम्मान करते थे। बिगड़े हुए हाथी को राजा स्वयं जाकर संभाल लेते थे। राणाप्रताप, नेपोलियन झांसी की रानी के घोड़े मालिकों के इशारे ही नहीं उनकी इच्छा को भी समझते थे और उनका पालन करते थे। यह उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का अल्प विकसित बुद्धि वाले घोड़े हाथी आदि पशुओं पर पड़ा हुआ प्रत्यक्ष प्रभाव ही था।
मधुमक्खियों की नेत्र रचना देखकर विज्ञानवेत्ता पोलारायड ओरिसन्टेशन इन्डिकेटर नामक यन्त्र बनाने में समर्थ हुए हैं। यह ध्रुव प्रदेश में दिशा ज्ञान का सही माध्यम है। उस क्षेत्र में साधारण कुतुबनुमा अपनी उत्तर, दक्षिण दिशा बताने वाली विशेषता खो बैठते हैं तब इसी यन्त्र के सहारे, उस क्षेत्र के यात्री अपना काम चलाते हैं।
समुद्री तूफान आने से बहुत पहले ही समुद्री बतखें आकाश में उड़ जाती हैं और तूफान की परिधि के क्षेत्र से बाहर निकल जाती हैं। डालफिन मछलियां चट्टानों में जा छिपती हैं, तारा मछली गहरी डुबकी लगा लेती हैं और ह्वेल उस दिशा में भाग जाती हैं, जिसमें तूफान न पहुंचे। यह पूर्व ज्ञान इन जल-जन्तुओं का जितना सही होता है उतना ऋतु विशेषज्ञों के बहुमूल्य उपकरणों को भी नहीं होता। मास्को विश्व विद्यालय ने इन्हीं जल-जन्तुओं के अत्यन्त सूक्ष्म सूचना ग्राहक कानों की नकल पर ऐसे यन्त्र बनाये हैं जो अन्तरिक्ष में होने वाली अविज्ञात हलचलों की पूर्व सूचना संग्रह कर सकें। ऐसा अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि प्रवाहों को सुन समझ लेने से ही सम्भव होता है।
जीव-जन्तुओं की विशिष्ट क्षमताओं का आधार उनकी ऐसी संरचना में सन्निहित है जो मनुष्यों के हिस्से में नहीं आई है। अब विज्ञान मनुष्येत्तर विभिन्न प्राणियों की शारीरिक एवं मानसिक संरचना में जुड़ी हुई अद्भुत विशेषताओं को खोजने में संलग्न है। इसका एक स्वतन्त्र शास्त्र ही बन गया है जिसका नाम है ‘वायोनिक्स’। इसे स्पेशल पर्पस मैकेनिज्म-विशेषोद्देश्य व्यवस्थाएं भी कहा जाता है। किसी अंधेरे कमरे में बहुत पतले ढेरों तार बंधे हों उसमें चमगादड़ छोड़ दी जाय तो वह बिना तारों से टकराये रात भर उड़ती रहेंगी। ऐसा इसलिए होता है कि उसके शरीर से निकलने वाले कम्पन तारों से टकरा कर जो ध्वनि उत्पन्न करते हैं उन्हें उसके संवेदनशील कान सुन लेते हैं और यह बता देते हैं कि तार कहां बिखरे पड़े हैं। बिना आंखों के ही उसे इस ध्वनि माध्यम से अपने क्षेत्र में बिखरी पड़ी वस्तुएं दीखती रहती हैं।
मेढ़क केवल जिन्दा कीड़े खाता है। उसके सामने मरी और जिंदा मक्खियों का ढेर लगा दिया जाय तो उनमें से वह चुन-चुनकर केवल जिन्दा मक्खियां ही खायेगा। इसका कारण मृतक या जीवित मांस का अन्तर नहीं वरन् यह है कि उसकी विचित्र नेत्र संरचना केवल हलचल करती वस्तुएं ही देख पाती है स्थिर वस्तुएं उसे दीखती ही नहीं। मरी मक्खी को किसी तार से लटका कर हिलाया जाय तो वह उसे खाने के लिए सहज ही तैयार हो जायगा।
उल्लू की ध्वनि सम्वेदना उसके शिकार का आभास ही नहीं कराती ठीक दिशा दूरी और स्थिति भी बता देती है। फलतः वह पत्तों के ढेर के नीचे हलचल करते चूहों पर जा टूटता है और एक ही झपट्टे में उसे ले उड़ता है।
गहरी डूबी हुई पनडुब्बियों में रेडियो सम्पर्क निरन्तर कायम रखना कई बार बड़ा कठिन होता है क्योंकि प्रेषित रेडियो तरंगों का बहुत बड़ा भाग समुद्र का जल ही सोख लेता है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए मछली में सन्निहित उन विशेषताओं को तलाश किया जा रहा है, जिसके आधार पर वह जलराशि में होने वाली जीव-जन्तुओं की छोटी-छोटी हलचलों को जान लेती हैं और आत्मरक्षा तथा भोजन व्यवस्था के प्रयोजन पूरे करती हैं।
रैटलसांप तापमान के अत्यन्त न्यून अन्तर को जान लेता है। चूहे, चिड़िया आदि के रक्त का तापमान अत्यन्त नगण्य मात्रा में ही भिन्न होता है, पर यह सांप उस तापमान के अन्तर को जानकर अपना प्रिय आहार चुनता है। यह कार्य वह गन्ध के आधार पर नहीं अपने ताप मापक शरीर अवयवों द्वारा पूरा करता है वैज्ञानिकों ने इसी संरचना को ध्यान में रखते हुए इन्फ्रा रेड किरणों का उपयोग करके तापमान के उतार-चढ़ावों का सही मूल्यांकन कर सकने में सफलता प्राप्त की है।
पनडुब्बियों को पानी के भीतर देर तक ठहरने के लिए ऑक्सीजन की अधिक मात्रा अभीष्ट होती है और बनने वाली कार्बन-डाइ-ऑक्साइड को बाहर फेंकने की जरूरत पड़ती है। यह दोनों कार्य पानी के भीतर ही होते रहें तभी उसका अधिक समय समुद्र में रह सकना सम्भव हो सकता है। मछली पानी से ही ऑक्सीजन खींचती है और उसी में अपने शरीर की कार्बन गैस खपा देती है। यह पनडुब्बियों के लिए भी सम्भव हो सके इसका रास्ता मछलियों की संरचना का गहन अध्ययन करने के उपरान्त ही प्राप्त किया जा सकता है।
हवाई जहाजों की बनावट में पिछले चालीस वर्षों में अनेकों उपयोगी सुधार किये गये हैं। उसके लिए विभिन्न पक्षियों की संरचना और क्षमता का गहरा अध्ययन करने में विशेषज्ञों को संलग्न रहना पड़ा है। भुनगों की शरीर रचना के आधार पर वायुयानों में दूर-दर्शन के लिए प्रयुक्त होने वाला एक विशेष यंत्र ग्राउण्ड स्पीड मीटर बनाया गया है। भुनगों के आंखें नहीं होतीं वे अपना काम विशेष फोटो सेलों से चलाते हैं। वही प्रयोग इस यन्त्र में हुआ है।
अटलांटिक सागर के आर-पार रेडियो प्रसारणों को ठीक तरह पहुंचाने का रास्ता बतलाने में जिन कम्प्यूटरों का प्रयोग होता है वे कई बार असफल हो जाते हैं क्योंकि मौसम की प्रतिकूलता रेडियो तरंगों में व्यवधान उत्पन्न करती है, अस्तु ध्वनि प्रवाह के लिए नये रास्ते ढूंढ़ने पड़ते हैं। इस कार्य के लिए चींटी की मस्तिष्कीय संरचना अधिक उपयुक्त समझी गई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि चींटी के मस्तिष्क की तुलना में हमारे वर्तमान कम्प्यूटर अनपढ़ बालकों की तरह पिछड़े हुए हैं।
कीड़ों की विलक्षण क्षमता
विलक्षणताओंकी दृष्टि से देखा जाय तो छोटे-छोटे जीव-जन्तु भी असाधारण सूक्ष्म चेतना से सम्पन्न पाये जाते हैं और वे ऐसे होते हैं जिन्हें विलक्षण कहा जा सके।
कैरियन कीड़े की घ्राण शक्ति सबसे अधिक मानी जाती है। वह मीलों दूर के मुर्दा मांस का पता लगा लेता है और उड़ता फुदकता हुआ उस खाद्य भण्डार तक पहुंचकर तृप्तिपूर्वक भोजन करता है। समुद्र में हल्के ज्वार-भाटे प्रतिदिन 50 मिनट के अन्तर से आते हैं। केकड़े का रंग परिवर्तन भी ठीक 50 मिनट के ही अन्तर से होता है।
कीड़ों के कान नहीं होते, यह कार्य वे अगली टांगों के जोड़ों में रहने वाली ध्वनि गृहण शक्ति द्वारा पूरा कर सकते हैं। तितलियों के पंखों में श्रवण शक्ति पाई जाती है, झींगुर आदि जो आवाज करते हैं वह उनके मुंह से नहीं बल्कि टांगों की रगड़ से उत्पन्न होती है। कीड़ों की अपनी विशेषता है, उनके फेफड़े नहीं होते पर सांस लेते हैं। वे सुन सकते हैं पर कान नहीं होते, वे सूंघते हैं पर नाक नहीं होती। दिल उनके भी होता है पर उसकी बनावट हमारे दिल से सर्वथा भिन्न प्रकार की होती है।
. नेस, सलामैसीना, आईस्टर, स्नेल (घोंघा) फ्रेसवाटर मसल (सम्बूक) साइलिस, चैटोगेस्टर स्लग (मन्थर) पाइनोगोनाड (समुद्री मकड़ी) आदि कृमियों में भी यह गुण होता है कि उनके शरीर का कोई अंग टूट जाने पर ही नहीं वरन् मार दिये जाने पर भी वह अंग या पूरा शरीर उसी प्रोटोलाज्म से फिर नया तैयार कर लेते हैं। केकड़ा तो इन सबमें विचित्र है। टैंक की-सी आकृति वाले इस जीव की विशेषता यह है कि अपने किसी अंग को तुरन्त कर लेने की प्रकृति दत्त सामर्थ्य रखता है।
एन्ग्रालिश मछली बसन्त ऋतु में अपनी ही चैनेल में पाई जाती है, किन्तु अण्डे देने के लिये वह ‘ज्वाइडर जा’ के बाहरी हिस्से में पहुंच जाती हैं। सारडिना मछली जुलाई से दिसम्बर तक कार्नवेल में रहती है पर जाड़ा प्रारम्भ होते ही वह गरम स्थानों की ओर चल देती है। सामो मछली समुद्र में पाई जाती है, पर उसे गंगा और यमुना नदी के जल से अपार प्रेम है। अपने इस अपार प्रेम को प्रदर्शित करने और अच्छे वातावरण में अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिये वह हजारों मील की यात्रा के गंगा, यमुना पहुंचती है। अण्डे-बच्चे सेने के बाद भोजन के लिये वह फिर अपने मूल निवास को लौट आती है। कहा जाता है कि इसी सामों दीर्घजीवी और बड़ी चतुर मछली होती है।
यों तो संसार की अधिकांश सभी जातियों की मछलियां उल्टी दिशा में चलती हैं, पर योरोप में पाई जाने वाली एन्ग्युला बहाब की उल्टी दिशा में चलकर लम्बी यात्रा करने वाली उल्लेखनीय मछली है। ज्ञान और सत्य की शोध में हिमालय की चोटियों तक पहुंचने वाले भारतीय योगियों के समान यह एन्ग्युला मछली अटलांटिक महासागर पार करके गहरे पानी की खोज में बरमुदा के दक्षिण में जा पहुंचती है। बरमुदा अमेरिका के उत्तरी कैरोलाइन राज्य से 600 मील पूर्व में स्थित 350 छोटे-छोटे द्वीपों का एक समूह है।
वहां अंडे-बच्चे देकर यह अपने घर लौट आती है। उनके प्रवासी बच्चों में अपना माता-पिता पूर्वजों और संस्कृति के प्रति इतनी प्रगाढ़ निष्ठा होती है कि ढाई-तीन साल के होते ही वे वहां से चल पड़ते हैं और 5-6 महीने की यात्रा करते हुए अपने जाति भाइयों से जा मिलते हैं।
मनुष्य जिन सिद्धियों और क्षमताओं को लम्बी योग साधनाओं के द्वारा प्राप्त करता है उनमें से कई जीव-जन्तुओं की सहज ही प्राप्त होती हैं। इन्हें प्रकृति के योगी कहा जा सकता है। न जाने क्यों और कैसे मनुष्य में सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने की अहंमन्यता विकसित हो गयी जबकि होना यह चाहिये था कि मनुष्य सभी प्राणियों की भी जिज्ञासा भरी दृष्टि से देखता और उनकी अनन्त क्षमताओं से कुछ सीखने का प्रयत्न करता यदि ऐसा हुआ होता तो स्थिति कुछ और ही होती।
इन जीवों की जिन्हें अभागे और बेचारे कहा जाता है, वस्तुतः वे ऐसे हैं नहीं। इन जीवों को भी प्रकृति ने इतने उपहार दिये हैं कि उन्हें मनुष्य से कुछ कम नहीं अधिक ही कहा जाना चाहिए। पक्षियों की तरह अकेले किसी भी दिशा और ऊंचाई में उड़ने के लिए सम्भव है मनुष्य को कई सदियां लग जायें, मछलियों की तरह दिन-दिन भर पानी में तैरना मनुष्य के वश की बात नहीं। मनुष्य को गगनचुम्बी इमारतें और बड़े-बड़े पुल तथा बांध बांधने पर गर्व हो सकता है; पर इस कला में तो दीमक-चींटियां और मधु-मक्खियों की कुशलता कतई कम नहीं। बीवर जैसा चतुर इंजीनियर तो बिना प्रशिक्षण प्राप्त किये अपनी क्षमता प्रदर्शित कर सकता है; ‘मनुष्यों’ में कहां मिलेगा। बीवर या ऊदबिलाव अपनी आवश्यकता के लिए बहुत सुदृढ़ बांध बनाते पाये गये हैं।
चींटी अपने भार से 70 गुना अधिक भार सहज ढो सकती है। चींटी की तुलना में मनुष्य का जितना अधिक वजन है; उस हिसाब से उसे बिना पहिये की माल गाड़ी का इंजिन जमीन में खींच लेना चाहिए पर मनुष्य में उतनी क्षमता है क्या, पिस्सू मेढ़क अपनी ऊंचाई से 250 गुना ऊंचा उछल सकते हैं मनुष्य इसी तुलना में उछले तो उसे 4500 फुट आसानी से उछल जाना चाहिए जब कि वह 10 फुट ऊंची दीवार भी फांद नहीं सकता। मधुमक्खी छत्ता बनाती है। तो ऊपर की डाल पर यदि 20 मधुमक्खियां हो तो उन पर नीचे 10000 मधुमक्खियों का लगभग 7 किलो भार होगा इस औसत से एक मनुष्य की टांगें पकड़ कर 2000 व्यक्तियों को लटक जाना चाहिए, पर कल्पना कीजिये दुनिया का बड़े से बड़ा पहलवान भी ऐसा कर सकेगा क्या? चील की जितनी तेज आंख होती है उसी अनुपात से कहीं मनुष्य की दृष्टि रही होती तो वह प्लूटो ग्रह में चल रही गति-विधियां धरती से ही देख लेता। चमगादड़ जैसी सूक्ष्म श्रव्य शक्ति इन्सान को मिल सकी होती तो वह धरती के किसी भाग की किसी कोठरी के अन्दर बैठकर भी सौर मण्डल की धूर्णन की आवाज—सौर घोष आसानी से सुन लेता। जैसी घ्राण शक्ति यदि मनुष्य को मिल जाती तो मंगल से उठ रही अमोनिया गैस का अनुभव उसे हरिद्वार में बैठे-बैठे मिल जाता। एक तितली दिन में जितना उड़ती है यदि वह एक सीध में लगातार उड़े तो वह दिन भर में 10 मील उड़ सकती है। मनुष्य का भार उसकी तुलना में कई हजार गुना है इस तुलना में तो उसे एक दिन में अधिक नहीं तो पृथ्वी की एक परिक्रमा तो आसानी से कर ही लेनी चाहिये थी।
किसी को कुत्ता कहना मानवीय संस्कृति में सबसे बुरी गाली है किन्तु इस प्रकृति के योगी में ऐसी अतीन्द्रिय क्षमतायें परमात्मा ने विकसित की हैं कि वह आने वाली प्राकृतिक विपदाओं, दैवी आपत्तियों की काफी समय पूर्व सूचना दें देने में सक्षम है। इटली का विसूसियस ज्वालामुखी पहली बार फटा उससे सात दिन पूर्व तक कुत्ते भयानक आवाज में रोने-चिल्लाने और मानवीय विनाश की चेतावनी देने लगे थे, किन्तु किसी ने उनकी सम्वेदना को परखा नहीं और लाखों व्यक्ति ज्वालामुखी के लावे में जल मरे। 1961 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध की चेतावनी कुत्तों ने पहले ही कर दी थी। गांवों, शहरों में किसी की मृत्यु की सूचना उस मुहल्ले के कुत्ते पहले ही दें देते हैं।
वर्षा आने से पूर्व दीमकों के झुण्ड एकाएक विलुप्त हो जाते, मकड़ियां जाला समेटने लगतीं, चींटियां अपने खाद्यान्न व्यवस्था सुरक्षित करने लगती हैं। असामयिक वृष्टि की सूचना गौरिया, मिट्टी स्नान द्वारा पहले ही दें देती है। इस अनुपात से मनुष्य को जैसी सूक्ष्म बुद्धि प्राप्त है, उसके अनुसार तो उसे त्रिकालदर्शी से कम नहीं होना चाहिए; पर ऐसे अवसरों पर उसकी दयनीयता देखते ही बनती है। कारण स्पष्ट है वह अपनी इन दैव-प्रदत्त क्षमताओं के विकास की बात तो दूर उन्हें पहचानने और अनुभव करने तक का प्रयास नहीं करता। उसकी सम्पूर्ण चेष्टायें मात्र इन्द्रियों की क्षणिक खुजली को ही शान्त करने में लगी रहती हैं।
मनुष्य शरीर जटिल रसायनों का विलक्षण भाण्डागार है। ‘‘हारमोन्स’’ के रूप में अब जिन स्रावों का वैज्ञानिकों और शरीर-शास्त्रियों को ज्ञान हुआ है, उससे तो पुराण युग की कपोल-कल्पनायें भी साकार सत्य होने जा रही हैं। आकार वृद्धि में सुरसा एक उदाहरण बन गई है तो हनुमान के ‘‘मशक-समान’’—तथा ‘‘तब कपि भयउ पर्वतकारा’’ की कहानियां आये दिन सुनने में आती हैं। हारमोन्स ने इन सम्भावनाओं पर अपनी स्पष्ट मुहर लगा दी है। किन्तु आज इन क्षमताओं का कोई उपयोग कर पाता है क्या? इस दृष्टि से छोटा-सा ‘मिक’ ही भला जो अपने से कई गुने शक्तिशाली शत्रु को भी अपने शरीर से इच्छानुसार कम या अधिक मात्रा में एक विशेष प्रकार की रासायनिक दुर्गन्ध निकालकर भगा देता है। यह मिक वही है जिनकी खाल के कोट पहनने के लिए पश्चिमी लोग लालायित रहते और प्रचुर धन व्यय करते हैं। मनुष्य शरीर में जबर्दस्त रोग-निरोधक शक्ति है; पर वह बिगाड़ मच्छर तक का कुछ नहीं पाता।
यह नहीं सोचना चाहिए कि परमात्मा ने मनुष्य को ही विशेष प्यार-दुलार दिया है तथा उसे विशेष महत्त्व दिया है। प्रकृति ने अपने सभी पुत्रों को परिस्थिति और आवश्यकता के अनुरूप विशेष सामर्थ्य दी है ताकि वे अपना जीवन अस्तित्त्व बनाये रखे। पिछले कई वर्षों से हिमालय पर हिम मानव के अस्तित्त्व की चर्चा होती रही है। उसके सम्बन्ध में जीव-शास्त्री, विकासवादी, अध्यात्मवादी, भिन्न भिन्न प्रकार की कल्पनायें करते और मान्यतायें व्यक्त करते हैं। सच क्या है यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, पर यह तो ध्रुव सत्य है कि अनेक प्रकार की कल्पना और मान्यता का यह जीव न केवल भारत वरन् सारे संसार के लिये ज्ञान-विज्ञान की एक नई पहेली के रूप में उभरा। उसके अस्तित्व के बारे में किसी को शंका नहीं है पर बर्फ में रहने वाला यह हिम मानव कौन है? क्या करता है? और उस क्षेत्र में जहां जीवन के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती, किस प्रकार नग्न शरीर विचरण करता है? यह प्रश्न आज तक भी कोई हल नहीं कर पाया। पहले तो लोग उसके अस्तित्व पर भी शंका करते थे। पर वह वर्णन जो किंवदन्तियों के रूप में चिरकाल से चले आ रहे थे पहली बार उस समय सत्य प्रमाणिक हुये जब सुप्रसिद्ध पर्वतोरोही तेनसिंह और एडमण्ड हिलेरी ने 1954 में हिमालय की चढ़ाई की एडमण्ड हिलेरी ने 19 हजार फुट की ऊंची चोयांग घाटी पर अपना खेमा गाड़ रखा था उस समय की बात है। एक दिन जब वे उस क्षेत्र के निरीक्षण के लिए बाहर निकले और बर्फ पर चलते हुये काफी दूर निकल गये तब एकाएक उन्हें बर्फ पर बने हाल ही के पदचिह्नों ने चौंका दिया। हिम मानव की लोक कथायें उनने सुनी अवश्य थीं, यह भी सुना था कि यह प्राणी उस दुर्गम क्षेत्र में रहता है जहां मनुष्य पहुंच भी नहीं सकता था, पर जहां पहुंचने के लिये उन्हें स्वयं अपने जीवन रक्षार्थ करोड़ों रुपयों की लागत के उपकरण ले जाने पड़ते थे फिर भी मौत हर क्षण छाया की तरह घूमती रहती उस बीहड़ हिमस्थली में मनुष्य के निवास की तो बात वे सोच भी नहीं सकते थे। पद चिह्नों का पीछा करते हुए वे काफी दूर तक गये पर कहीं न कुछ दिखा न कुछ मिला। अपनी यात्रा के संस्मरणों में पहली बार उन्होंने इस हिम मानव का विस्तार से उल्लेख किया तब विज्ञान को अनेक नई धारणायें मिलीं कि जीवन के अस्तित्व के लिये अति शीत और उच्चतम ताप भी बाधक नहीं है। मनुष्य शरीर संसार की हर परिस्थिति में रखने योग्य बनाया जा सकता है। भले ही भारतीय योग दर्शन और सिद्धियों जैसे वे आधार आज लोगों की समझ में न आयें, पर यह निर्विवाद सत्य है कि मनुष्य उन अभूतपूर्व शक्तियों और सिद्धियों का समन्वय है जिन्हें विकसित कर वह शरीर से ही परमात्मा की कल्पना को सार्थक कर सकता है।
पीछे हिम मानवों की खोज का सिलसिला चल पड़ा। हर पर्वतारोही उनकी टोह लेने लगा। उससे उनके बारे में नई-नई विस्मय बोधक जानकारियां मिलीं। हिम मानव एक नहीं अनेक हैं। उन्हें देखा भी गया है पर अब तक उनका फोटो शायद ही कोई ले पाया हो क्योंकि वह शरीर से असाधारण क्षमता वाले होते हैं कुछ लोगों का तो कहना है कि किसी भी स्थान में अन्तर्ध्यान भी हो सकते हैं और जिस तरह कोई मनुष्य पानी में डुबकी लगाकर दूसरे किसी स्थान पर जा निकलता है उसी प्रकार कहीं भी लुप्त हो जाने के बाद वे कहीं जाकर प्रकट भी हो सकते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो हिमालय की निचली तराइयों में जहां आबादी रहती है वहां वे कैसे उतर आते और एक रात के अन्तर से ही जो यात्रा कई महीनों में सम्पन्न हो सकती है उसे पूरा करके तुरन्त ही 20 हजार से अधिक ऊंचाई पर कैसे भाग जाते?
चेहरा लम्बा और पतला होता है, आंखें लाल और दांत बड़े-बड़े 7 से 8 इंच लम्बी जीभ और बीसियों आदमियों के बराबर की ताकत तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति नितान्त ब्रह्मचारी और प्राकृतिक जीवन जीता हो या फिर योग सिद्ध हो। डा. ईजार्ड का कहना है कि वे मांसाहारी होते हैं इसके प्रमाण में वे बताते हैं कि मैंने उसके मल (यतीज ड्रापिंग्स) का रासायनिक विश्लेषण कर लिया है पर अन्य लोगों का कथन है कि वे पूर्ण शाकाहारी होते हैं और उनके शरीर में मल बनता ही नहीं। उनके शाकाहारी होने का प्रमाण तराई क्षेत्रों में प्रचलित लोक गीत और कथाओं में मिलता है। रात को जब स्त्रियां सोने की तैयारी करती हैं तो बड़ी-बूढ़ी मातायें वधुओं को हिदायत देती हैं कि देखो बहू चक्की में आटा या गेहूं पड़ा न रह जाये नहीं तो हिम मानव आयेगा और उसे खा जायेगा। सोचने वाली बात है कि केवल आटा और चक्की में बचे हुये दानों के लालच में हिम मानव 20 फुट की दुर्गम पहाड़ियां क्यों कर उतरेगा। इससे पूर्व उसे हजारों किस्म के जंगली जानवर मिल सकते हैं, आदमखोर हो तो वह गांव के बच्चों को उठाकर ले जा सकता है दाने ही क्यों चुराने लगा? उसके स्वभाव से पता चलता है कि वह शाकाहारी है उसके व्यवहार और क्रिया कलापों से पता चलता है कि वह शाकाहारी है उसके व्यवहार और क्रिया कलापों से पता चलता है कि वह कोई अति मानवीय शक्तियों का पुंज कोई सिद्ध योगी ही होना चाहिये। कुछ तो उस क्षेत्र का जलवायु ही सहायक होता है कुछ योगाभ्यास द्वारा विकसित शक्तियां हो सकती हैं जिनके कारण वह उस एक क्षण में बर्फ कर देने वाले दुर्गम क्षेत्र में भी सानन्द जीवन जीता है।
काठमाण्डू के लामा श्री पुण्य वज्र ने बहुत समय तक हिमालय के इस प्रदेश में बिताये हैं एक यती-योगी सन्त-संन्यासी के ढंग पर उन्होंने हिम मानव की खोज की उनका कहना है कि मैं बहुत समय तक उनके साथ रहा और पाया कि उनकी क्षमतायें बहुत ही विलक्षण हैं। यद्यपि उनकी बातों को पाश्चात्य लोग प्रमाणिक नहीं मानते तो भी यह बात तो अमरीका के सुप्रसिद्ध जीव विशेषज्ञ श्री कैरोल वायमैन ने भी स्वीकार की है कि हिम मानव की सामर्थ्य विलक्षण है। उदाहरणार्थ वह बहुत दूर की गन्ध से ही पहचान सकता है कि इस क्षेत्र में किधर से मनुष्य या कोई दूसरा जीव जा रहा है। वे मुख को देखकर ही भावों को भांप जाते हैं उसकी ताकत 15 व्यक्तियों की ताकत से बढ़कर होती है। वह अधिकांश बच्चों को ही दीखता है इससे यह भी तय है कि वह मनुष्यों के स्वभाव से परिचित होता है, और उसके विश्वासघात का उसे भय अवश्य रहता है तभी तो वह उसकी परछांई भी देखना नहीं चाहता। एक बार काठमाण्डू के एक बहन भाई ने उसे देखा। डा. सिल्कि जॉनसन ने उन दोनों बच्चों को मनुष्य से मिलती आकृतियों वाले कुछ बन्दरों और गुरिल्लाओं के चित्र दिखाकर पूछा तुमने जिस आकृति को देखा वह इनमें से किससे मिलता जुलता था। अलग-अलग ले जाकर चित्र दिखाने और पूछे जाने पर दोनों ही बालकों ने गुरिल्लों और ओरांग ओटान के चित्र चुनकर कहा—वह इसी शक्ल से मिलता-जुलता था, पर यह नहीं इससे भिन्न था।
अनेक बार दिखा है यह हिम मानव और हर बार उसने वैज्ञानिकों की बुद्धि को चमकाया—चौंधाया है। अनेक प्रकार की कल्पनाओं और मान्यताओं के बावजूद यह निश्चित नहीं हो सका कि यह हिम मानव है अथवा कोई जंगली जीव है।
जो भी हो, उपरोक्त विवरण में से तो इतना तो स्पष्ट है कि मनुष्येत्तर प्राणियों का संसार और जीवन भी कभी विलक्षण तथा रहस्यमय नहीं है।