Books - असामान्य और विलक्षण किंतु संभव और सुलभ
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Language: HINDI
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जो रहस्य है वह इन्द्रिय चेतना से परे
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मनुष्यों में तथा मनुष्येत्तर प्राणियों में दिखाई देने वाली अद्भुत और विलक्षण क्षमताओं का कारण वह केन्द्र जानने के लिए कई स्तर पर प्रयास हुए हैं। वैज्ञानिक अपने ढंग से इनका कारण जानने के लिए प्रयत्नशील हैं। निरीक्षण, परीक्षण, प्रयोग और विश्लेषण ही वैज्ञानिक अध्ययन की पद्धति है। पर अभी तक इन अन्वेषणों से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है। आज एक मान्यता बनती सिद्ध होती है तो कल उसका खण्डन हो जाता है, और दूसरी मान्यताओं की पृष्ठभूमि बन जाती है। वैज्ञानिक अन्वेषणों के अतिरिक्त इन क्षमताओं का कारण व सिद्धि, जानने के प्रयास योग विद्या द्वारा भी किये जाते रहे हैं। योग-विद्या के आचार्यों, योगियों द्वारा भी किये गये हैं। और उन्हें इस क्षेत्र में न केवल सफलता मिली बल्कि अपने प्रयोग और अन्वेषण द्वारा वे विलक्षण सिद्धियां भी प्राप्त कर सके।
इसका कारण है सत्य तक पहुंचने की दृष्टि विज्ञान सिद्धियों और अद्भुत विशेषताओं का कारण स्थूल शरीर में ही खोज रहा है। जबकि योग ने इसके लिए चेतना का क्षेत्र पहिचाना और चुना है। प्राणियों में पायी जाने वाली चेतना का अपना निजी अस्तित्त्व है। वह रासायनिक तत्त्वों के मिलन से जन्मती और बिछुड़न से मर जाती हो ऐसी बात नहीं है। उसका स्वतन्त्र अस्तित्त्व है। वह शरीर पर निर्भर नहीं है। वह रासायनिक पदार्थों और परमाणुओं को अपनी इच्छानुसार खींचती बदलती है एवं प्रयुक्त करती है। इस प्राणि चेतना का अपना आकर्षण और प्रभाव है। अपनी आकांक्षा, अभ्यास, प्रकृति एवं आवश्यकतानुसार वह शरीर धारण करती है। शरीर को ही नहीं वातावरण को भी वह प्रभावित करती है।
वृक्षों की सघनता वर्षा के बादलों को आकर्षित करती है यह सर्वविदित है। पेट कट जाने पर वर्षा घट जाती है। उद्यानों में अभिवृद्धि से मौसम बदलता और बादल खिंचते चले आते हैं। यह वृक्षों में रहने वाली चेतना का आकर्षण एवम् प्रभाव है। सृष्टि के इतिहास से अनेकानेक परिवर्तनों की लम्बी श्रृंखला और उनके पीछे तत्कालीन प्राणियों की आकांक्षाओं का दबाव भारी काम करता रहा है अपने-अपने शरीरों की स्थिति में तथा अपनी इन्द्रिय चेतना में भी उनने भारी परिवर्तन कर लिए हैं।
प्राणि जगत की चेतना अनुभवों का लाभ उठाते हुए, ठोकरों से शिक्षा लेते हुए, भूलों को सुधारते हुए प्रगति के प्रस्तुत स्तर तक पहुंच पाई है। आदिमकाल के डिनो-सोरों जैसे विशालकाय प्राणी पूंछ दांत और पीठ पर आक्रमणकारी शस्त्र साधनों से सुसज्जित थे। तब शायद संघर्ष और विजय का मत्स्य न्याय ही उपयुक्त समझा गया होगा, पर वह प्रयोग सफल न रहा। एक दूसरे की चमड़ी उधेड़ने और अण्डे निगलने की नीति, सार्थक सिद्ध नहीं हुई। कायिक दृष्टि से विशाल और सामर्थ्य की दृष्टि से सबल होते हुए भी आदिमकाल के पशु-पक्षी अपनी हिंस्र आदतों के दुष्परिणाम भुगतते हुए अपना अस्तित्व ही गंवा बैठे।
पीछे नया अध्याय प्रारम्भ हुआ और नीति बदली। प्राणियों की ममता बच्चों के प्रति बढ़ी और उन्होंने अण्डों को घोंसलों में सेने की अपेक्षा पेट में ही पकाने का निश्चय किया इतना ही नहीं उन्हीं शरीर रस निचोड़ कर दूध भी पिलाया। यह प्रकृति परिवर्तन की एक महाक्रान्ति थी। हिंसा की निरर्थकता समझी गई और स्नेह सहयोग भरे अनुदान का आदान-प्रदान क्रम चल पड़ा। मांसाहारी प्राणियों की मूल चेतना ने अपने शारीरिक अवयव अपनी आवश्यकतानुसार उपलब्ध एवं विकसित किये हैं। पेड़ों की छाया में तथा घास की झाड़ियों में अपने को छिपाये रहने की जिनने आवश्यकता समझो, उनकी चमड़ी का रंग तथा दाग धब्बे उसी प्रकार के उत्पन्न हो गये। शाकाहारियों को दांत-आंत की जैसी स्थिति आवश्यक थी उसी के अनुरूप उनने अपने कलेवरों को प्राप्त कर लिया। घोर शीत में आहार प्राप्त कर सकने की कठिनाई देख कर हिम प्रदेश के रीछों ने उन दिनों गहरी निद्रा में पड़े रहने की आदत बनाली। देश काल के अनुरूप विभिन्न प्राणियों ने जहां अपने को बदला है वहां ऐसे प्रमाण भी उपलब्ध हुए हैं कि अमुक क्षेत्र में बहु संख्यक प्रबल चेतना सम्पन्न प्राणियों ने अपनी आवश्यकता के अनुरूप व्यवस्था बदलाव लेने के लिए प्रकृति को सहमत कर लिया।
यह बहुत पुराने जमाने की गई-गुजरी बात हो गई जब प्राणी को रासायनिक पदार्थों का समूह और उसकी चेतना को जीवाणुओं की सम्मिलित स्फुरणा मात्र कहा गया था और उसे चलता-फिरता पौधा घोषित किया गया था। शरीर के साथ ही जीवन का आदि और मरण के साथ अन्त होने की बात भी कभी-कभी विज्ञान क्षेत्र से उठी थी पर अब उस मान्यता में लगभग आमूल चूल परिवर्तन कर लिया गया। मरणोत्तर जीवन के प्रमाण इतने अधिक मिले हैं कि उन्हें झुठलाया जा सकना सम्भव नहीं रहा। पुनर्जन्म की घटनायें आये दिन सामने आती हैं। ऐसे बालक जन्मते रहते हैं जो पूर्व जन्म की अपनी स्थिति को स्मृति के आधार पर प्रामाणिक सिद्ध कर सके। प्रेतात्माएं कैसी होती हैं? कहां रहतीं और क्या करती हैं? इस सम्बन्ध में अभी बहुत जानना शेष है, पर उनके अस्तित्व को अब अप्रामाणिक ठहरा देना सम्भव नहीं। इस सन्दर्भ में भी इतने अधिक प्रमाण मिलते रहते हैं कि इन्हें अन्धविश्वास या भ्रान्ति समुच्चय कह देने से काम नहीं चल सकता।
परमाणुवादी पदार्थ विज्ञान ने आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार किया है और यह प्रयत्न किया है कि उस अस्तित्व की संगति किसी प्रकार प्रकृति की विज्ञान सम्मत व्याख्या के साथ ही बैठ जाय।
आत्म-सत्ता के अस्तित्व सन्दर्भ में अधिक सुबोध प्रकाश टामस ऐडिसन ने डाला है। फोनोग्राफ रोशनी के बल्ब आदि के आविष्कर्त्ता इस प्रख्यात विज्ञानी का कथन है कि ‘‘प्राणी की सत्ता उच्चस्तरीय विद्युत कण गुच्छकों के रूप में रहती है। मरने के बाद भी यह गुच्छक विधिवत नहीं होते और परस्पर सघन सम्बद्ध बने रहते हैं। यह गुच्छक बिखरते नहीं वरन् मरने के उपरान्त अनन्त आकाश में भ्रमण करने के उपरान्त पुनः जीवन-चक्र में प्रवेश करते और नया जन्म धारण करते हैं। यह गुच्छक मधुमक्खियों के झुण्ड की तरह हैं। पुराना छत्ता वे एक साथ छोड़ती और नया छत्ता एक साथ बनाती हैं। इसी प्रकार उच्च स्तरीय विद्युत कणों के गुच्छक अपने साथ स्थूल शरीर की साधन सामग्री और अपनी आस्थाओं और संवेदनाओं को साथ लेकर जन्मते-मरते रहने पर भी अमर बने रहते हैं।’’
क्वान्टम के थ्येरी के परिपूरक सिद्धान्त ने यह सिद्ध किया है कि जड़ और चेतना की सत्ता एक दूसरे से भिन्न स्तर की देखते हुए भी वस्तुतः उनके बीच सघन तादात्म्य मौजूद है। ‘पदार्थ’ एक स्थिति में ठोस रहता है, पर दूसरी स्थिति में वह अपदार्थ बन जाता है। इस प्रकार जड़ चेतन में और चेतन जड़ में परिणित हो सकता है। मन की सत्ता शरीर रूप में पदार्थ रूप में प्रकट हो सकती है और अमुक स्थिति में पहुंच कर पदार्थ भी बन सकती है।
विज्ञानी हाइसन वर्ग का प्रतिपादन है कि अन्तरिक्ष में अमुक स्थिति पर पहुंचने पर परमाणु पदार्थ न रहकर अपदार्थ में—ऊर्जा में परिणत हो जाते हैं। पदार्थ सत्ता परिधि काल और रूप में ढांचे में बंधी है मनःसत्ता में अनुभूतियां, स्मृतियां, विचार और विम्ब के रूप में व्याख्या होती है। इतना अन्तर रहते हुए भी उन दोनों के बीच अत्यधिक घनिष्ठता है यहां तक कि वे दोनों एक दूसरे को प्रभावित ही नहीं वरन् परस्पर रूपांतरित भी होते रहते हैं।
इस तथ्य को नोबुल पुरस्कार विजेता यूजोन विगनर ने और भी अधिक स्पष्ट किया है। वे कहते हैं कि यह जान लेना ही पर्याप्त नहीं कि वस्तुओं की हलचलों से चेतना ही प्रभावित होती है वस्तु स्थिति यह है कि चेतना से पदार्थ भी प्रभावित होता है।
रूस के इलेक्ट्रोनिक विज्ञानी सेमयोन किर्लियान ने एक ऐसी फोटोग्राफी का आविष्कार किया है जो मनुष्य के इर्द-गिर्द होने वाली उसकी विद्युतीय हलचलों का छायांकन करती है। इससे प्रतीत होता है कि स्थूल शरीर के साथ-साथ किसी सूक्ष्म शरीर की भी सत्ता विद्यमान है और वह ऐसे अविज्ञात पदार्थों से बनी है जो इलेक्ट्रानों से बने ठोस पदार्थ की अपेक्षा भिन्न भी है और अधिक गतिशील भी।
विज्ञान-विश्लेषण के अनुसार मनुष्य विद्युत आवेगों से सम्पन्न एक विशेष प्राणी है। वह अदृश्य ऊर्जाओं के समुद्र में तैरता है। हर मनुष्य में अपने स्तर के कुछ विशेष चुम्बकीय प्रवाह उठते रहते हैं और वे अपने सजातीय ऊर्जा तत्वों को इस निखिल आकाश में से खिंचकर अपने में धारण करते रहते हैं। साथ ही मनुष्य अपनी इन चुम्बकीय विशेषताओं को अन्तरिक्ष में बिखेरता भी रहता है। उसका यह गृहण और प्रक्षेपण क्रिया कलाप निरन्तर चलता रहता है। अदृश्य ऊर्जाओं से वह प्रभावित होता है और उनमें अपना योगदान सम्मिलित करता है। इसी आकर्षण-विकर्षण में मृत आत्माओं के साथ सम्पर्क स्थापित करना और आदान प्रदान का क्रम चल पड़ना भी सम्भव हो सकता है।
ख्याति नामा वैज्ञानिक यू.ई. बर्नार्ड का कथन है कि अभी मनः तत्त्व के बारे में हमारी जानकारी बहुत स्वल्प है पर वह दिन दूर नहीं जब चेतना के उन रहस्यों का उद्घाटन होगा जो उपलब्ध भौतिक शक्तियों की तुलना में कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। निकट भविष्य में यह सम्भव हो सकेगा कि मनः तत्त्व की शक्ति से पदार्थों का गठन, विगठन एवं रूपान्तरण हो सके। इसी प्रकार यह भी सम्भावना है कि संकल्प शक्ति के सहारे मनुष्य अपने शरीर में अभीष्ट परिवर्तन प्रस्तुत कर सके।
मनुष्य शरीर के सम्बन्ध में अध्यात्म की वैज्ञानिक व्याख्या यह है कि थ्री डाइमेन्शस ऑव स्पेस और वन डाइमेन्शन आवट्यून के समन्वय से यह अद्भुत निर्माण सम्भव हुआ है। इनमें जो अनुपात है वही मनुष्य की वर्तमान स्थिति का आधार है। यदि इस अनुपात में थोड़ा-सा हेर-फेर सम्भव हो सके तो स्थिति में इतना अन्तर हो सकता है कि आज का सामान्य मनुष्य कल अनेक कसौटियों पर असामान्य सिद्ध हो सके।
प्राणियों को चेतन का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार कर लेने और उसका प्रभाव पदार्थों पर पड़ने के वैज्ञानिक निष्कर्ष ने उस बचपन से छुटकारा पा लिया जिसमें आत्मा का अस्तित्व ही अस्वीकार कर दिया गया था और प्राणियों के जन्म-मरण को रासायनिक पदार्थों की एक विशेष हलचल ठहराया गया था। अब प्राणि सत्ता को चेतना घटक के रूप में जाना-माना जा रहा है। आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करने में अब वैज्ञानिक आना-कानी बहानेबाजी मात्र कही जा सकती है। वह दिन दूर नहीं जब इस संदर्भ में आड़े आ रहा असमंजस भी समाप्त होकर रहेगा।
अब दूसरा प्रश्न है परमात्म सत्ता का—उसे विज्ञान ने ब्रह्माण्डीय चेतना के रूप में स्वीकार किया है। आत्मा को अर्ध चेतन और अर्ध-जड़ के रूप में ही अभी विज्ञान ने मान्यता दी है। इसी अनुपात से परमात्मा को भी अर्ध ब्रह्म और अर्ध प्रकृति के रूप में स्वीकारा है। काम इतने से भी चल सकता है। अध्यात्मवाद को यह स्थिति भी स्वीकार है। अर्धनारी नटेश्वर की प्रतिमाओं में इस मान्यता की स्वीकृति है। ब्रह्म और प्रकृति का युग्म ब्रह्म विद्या के तत्त्व दर्शन ने स्वीकार किया है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश अपनी अपनी पत्नियों को साथ लेकर ही चलते हैं। अन्य देवताओं में से भी कदाचित ही कोई कुमार या विधुर हो। प्रकृति और परमात्मा के समन्वय से जीवात्मा की उत्पत्ति हुई है ऐसे प्रतिपादन ब्रह्मविद्या की अनेक व्याख्याओं में उपलब्ध हैं।
विज्ञान अपनी भाषा में परब्रह्म को परमात्मा को ‘ब्रह्माण्डीय चेतना’ के रूप में स्वीकार करने लगा है और उसका घनिष्ठ सम्बन्ध जीव चेतना के साथ जोड़ने में उसे अब विशेष संकोच नहीं रह गया है। यह मान्यता जीव और ब्रह्म को अंश और अंशी के रूप में मानने की वेदान्त व्याख्या से बहुत भिन्न नहीं है।
अब विज्ञान वेत्ताओं ने एक ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का अस्तित्व स्वीकार किया है। इससे पूर्व पृथ्वी पर चल रही भौतिकी को ही पदार्थ विज्ञान की सीमा माना जाता था, पर अब एक ऐसी व्यापक सूक्ष्म सत्ता का अनुभव किया गया है जो अनेक ग्रह-नक्षत्रों के बीच ताल-मेल बिठाती है। पृथ्वी पर इकोलॉजी का सिद्धान्त प्रकृति की एक विशेष व्यवस्था के रूप में अनुभव कर लिया गया है। वनस्पति प्राणी, भूमि, वर्षा, रासायनिक पदार्थ आदि के बीच एक संतुलन काम कर रहा है और वे सब एक दूसरे के पूरक बनकर रह रहे हैं। जड़ समझी जाने वाली प्रकृति की वह अति दूरदर्शिता पूर्ण चेतन व्यवस्था उन भौतिक विज्ञानियों के लिए सिर-दर्द थी जो पदार्थ के ऊपर किसी ईश्वर जैसी चेतना का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। अब ब्रह्माण्डीय ऊर्जा उससे भी बड़ी बात है। ग्रह पिण्डों के बीच एक दूसरे के साथ आदान-प्रदान की—सहयोग संतुलन की जो ‘इकोलॉजी’ से भी अधिक बुद्धिमत्ता पूर्ण व्यवस्था दृष्टिगोचर हो रही है उसे क्या कहा जाय?
परा मनोविज्ञान की नवीनतम शोधें भी इसी निष्कर्ष पर पहुंची हैं कि मनुष्य चेतना ब्रह्माण्ड चेतना की अविच्छिन्न इकाई है। अस्तु प्राण सत्ता शरीर में सीमित रहते हुए भी असीम के साथ अपना सम्बन्ध बनाये हुए हैं। व्यष्टि और समष्टि की मूल सत्ता में इतनी सघन एकता है कि एक व्यक्ति समूची ब्रह्म चेतना का प्रतिनिधित्व कर सकता है।
परमाणुसत्ता की सूक्ष्म प्रकृति का विश्लेषण करते हुए विज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि दो इलेक्ट्रानों को पृथक दिशा में खदेड़ दिया जाय तो भी उनके बीच पूर्व सम्बन्ध बना रहता है। वे कितनी ही दूर रहें एक दूसरे की स्थिति का परिचय अपने में दर्पण की तरह प्रतिबिम्बित करते-रहते हैं। एक की स्थिति को देखकर दूसरे के बारे में बहुत कुछ पता मिल सकता है। एक को किसी प्रकार से प्रभावित किया जाय तो उसका दूसरा साथी भी अनायास ही प्रभावित हो जाता है। इस प्रतिपादन पर आइन्स्टाइन रोजेन पोटोल्स्की जैसे विश्व-विख्यात विज्ञान वेत्ताओं की मुहर है। इस सिद्धान्त से एक व्यापक सत्ता और उसके सदस्य रूप में छोटे घटकों की सिद्धि तथा पृथक रहते हुए भी एकता का तारतम्य बने होने की पुष्टि होती है।
विज्ञान की मान्यता के अनुसार पूर्ण को जानने के लिए उसका अंश जानने का और अंश के अस्तित्व को समझने के लिए उसके पूर्ण रूप को समझने की आवश्यकता पड़ती है। इसके बिना यथार्थता को पूरी तरह समझा नहीं जा सकता। मूर्धन्य विज्ञान वेत्ता डा. एफ. केफ्रा ने अंश या अंशी के बीच अविच्छिन्न सम्बन्ध होने की बात का विस्तार पूर्वक प्रतिपादन किया है और कहा है कि परमाणु का प्रत्येक घटक विश्व-ब्रह्माण्ड का परिपूर्ण सदस्य है इस सदस्यता को किसी भी प्रकार निरस्त नहीं किया जा सकता। दोनों एक दूसरे के पूरक होकर ही आदि काल से रहे हैं और अनन्त काल तक अपना सघन सम्बन्ध यथावत बनाये रहेंगे।
गेटे ने कहा था ब्रह्माण्डीय चेतना का अस्तित्व सिद्ध कर सकने योग्य ठोस आधार मौजूद है। रुडोल्फ स्टीनर ने अपने ग्रन्थ में गेटे के प्रतिपादन को और भी अच्छी तरह सिद्ध करने के लिए आधार प्रस्तुत किये हैं।
जीव-विज्ञानी टामस हक्सले ने ब्रह्माण्डीय चेतना के अस्तित्व और उसके कार्य क्षेत्र पर और भी अधिक प्रकाश डाला है वे उसे जीवाणुओं में अपने ढंग से और परमाणुओं में अपने ढंग से काम करती हुई बताते हैं और भारतीय दर्शन की परा और अपरा प्रकृति को ब्रह्म पत्नी के रूप में प्रस्तुत करने वाली मान्यता के समीप ही जा पहुंचते हैं। इस संदर्भ में उन्होंने विस्तृत प्रकाश अपनी हेवेन एण्ड हेल पुस्तक में डाला है।
परमाणु की इलेक्ट्रोन प्रक्रिया को मात्र मन्त्रों से नहीं जाना जा सकता है। उसके अस्तित्व का दर्शन और निरूपण करने वाला एक ही यन्त्र है मानवी मस्तिष्क। अन्य उपकरण तो इस संदर्भ में थोड़ी-सी सहायता मात्र करके रह जाते हैं। परमाणु की विवेचना नेत्र का नहीं गणित का विषय है। उसकी हलचलों से उत्पन्न प्रतिक्रिया के आधार पर गणित करके यह पता लगाया जाता है कि परमाणु और उसके उदर में हलचल कर रहे घटकों का स्वरूप, स्तर एवं क्रिया-कलाप क्या होना चाहिए। विज्ञानी लुडबिग ने इसे और भी अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है कि क्वान्टाम शास्त्र यन्त्रों पर नहीं वैज्ञानिकों की मानसिक चेतना पर अवलम्बित है।
कुल मिलाकर यह कि इस संसार की समस्त गतिविधियां सुव्यवस्थित रीति से चल रही हैं। प्रकृति के नियम ऐसे हैं जिनमें व्यतिरेक की तनिक भी गुंजाइश नहीं है। जिन नियमों को हम जानते हैं जिनका पता अभी तक चल नहीं पाया है उन्हें रहस्य कहते हैं। रहस्य का तात्पर्य उन घटनाक्रमों से है जो असामान्य होते हैं और जिनके घटित होने के कारणों का पता नहीं है।
इस संसार में रहस्य कुछ नहीं
ऐसे घटनाक्रमों को दैवी कहकर सन्तोष कर लिया जाता है। अभी भी सूर्य और चन्द्रग्रहण को असाधारणतः कोई दैवी प्रकोप समझा जाता है। बिजली का कड़कना पिछले इलाकों में देवता दैत्यों के विग्रह का प्रतीक है। विज्ञान के विद्यार्थी इन्हें प्रकृति क्रम की एक नियत विधि व्यवस्था के अन्तर्गत प्रकट होने वाले सामयिक घटना क्रम मात्र मानते हैं। उन्हें ऐसे कारणों में आश्चर्य जैसी कोई बात प्रतीत नहीं होती।
मिश्र के पिरामिडों को जादुई माना जाता है और उनके निर्माण की अलौकिकताओं का सम्बन्ध किन्हीं देवी-देवताओं के साथ जोड़ा जाता है। अब उन आधारों का पता लगाया जा रहा है जिनके सहारे इन निर्माणों में कई प्रकार के ‘अद्भुत’ दृष्टिगोचर होते हैं।
इलेक्ट्रानिक विज्ञानी ऐरिक मेहलोइन ने यह सिद्ध किया है कि पिरामिडों में पाई जाने वाली सभी अलौकिकताएं आज भी उन्हीं वैज्ञानिक नियमों के आधार पर खड़ी की जा सकती हैं, जिनके सहारे कि वे प्राचीन काल में की गई थीं। उनने अठारह इंच ऊंचा एक पिरामिड मॉडल प्लेक्सीग्लास का बनाया है उसके भीतर मांस के टुकड़े तथा अन्य पदार्थ उसी स्थिति में रखे गये जैसे कि पिरामिडों में रखे हुए हैं। प्रायः सभी पदार्थ वही प्रतिक्रिया उत्पन्न करने लगे जो उन प्राचीन निर्माणों में पाई जाती और जादुई कही जाती है।
ताबूतों में बन्द ‘सभी’ हजारों वर्ष बाद भी क्यों सुरक्षित है। पिछले लोग भूत-प्रेतों की चौकीदारी मानते थे, पर अब प्रतीत हुआ है कि जैसा वातावरण पिरामिडों के बाहर और भीतर है वैसा ही बना लेने पर मांस की सड़न रुक सकती और वैसे ही रहस्य दृष्टिगोचर हो सकते हैं जैसे कि पिरामिडों की कथा-गाथाओं के साथ जुड़े हुए हैं।
आग के बारे में यह मान्यता सर्वविदित है कि उनके जलने के लिए ईंधन और ऑक्सीजन दोनों की आवश्यकता है। वे दोनों जब तक उपलब्ध रहेंगे तब तक आग जलेगी एक भी समाप्त हो जाने पर वह बुझ जायगी, किन्तु ऐसे प्रमाण भी मिले हैं जिनमें इस सर्वविदित मान्यता का खण्डन होता है। मामूली आकार के दीपकों में भरी हुई चिकनाई कुछ घण्टों ही जल सकती है, पर यदि कोई छोटा दीपक सैकड़ों वर्षों तक जलता रहे तो ईंधन के आधार पर अग्नि प्रज्ज्वलन का सिद्धान्त कट जाता है। यही बात ऑक्सीजन के सम्बन्ध में भी है एक बन्द सन्दूक के भीतर की हवा दो चार दिन ही काम दें सकती है उतने से घेरे की हवा सैकड़ों वर्षों तक किसी दीपक का काम दें सकती है इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। तो भी ऐसे प्रमाण पाये गये हैं जो अग्नि विज्ञान को प्रचलित मान्यताओं के सही गलत होने के सम्बन्ध में प्रश्न चिह्न लगाते हैं।
इतिहासकार विलियम कैमडन ने अपनी पुस्तक ‘ब्रिटेन’ में पुराने खण्डहरों में खुदाई में मिले ऐसे जलते दीपकों का वर्णन किया है जो सैकड़ों वर्षों से बन्द खिड़की के भीतर जलते चले आ रहे थे। कैमडन ने इस आश्चर्य का समाधान यह लिखकर किया है कि प्राचीन काल के रसायन वेत्ता सोने को पिघलाकर तेल जैसा बना देते थे उसी से यह दीपक सैकड़ों वर्षों तक जलते थे। सेन्ट अमास्टाइन ने अपनी संस्मरण पुस्तक में लिखा है कि देवी वीनस के मन्दिर में एक ऐसा अखण्ड दीपक खुली जगह में जलता था, जिस पर वर्षा और तेज हवा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। पुरातत्व विभाग ने सन् 1840 में स्पेन के कुर्तण क्षेत्र की एक कब्र को खोदकर जलता दीपक उपलब्ध किया था। उस ज्योति को कई सौ वर्षों से जलती आ रही माना गया है। इटली के नसीदा द्वीप में एक किसान ने अपने खेत में एक कब्र पाई थी। उसे खोदकर देखा गया तो कांच के बरतन में बन्द एक ऐसा दीपक पाया जो मुद्दतों से उसी में बन्द जल रहा था। इतिहासकार ऐसेलाईस ने ऐस्टेनाग की खुदाई में निकला एक कब्र का वर्णन किया है, जिसमें जलता हुआ दीपक पाया गया। उसके पास ही अभिलेख पाया गया जिसमें लिखा था—खबरदार—कोई दीपक को छुए नहीं यह देवता पलोटी का उपहार है। ऐसेलाईस ने इस दीपक को चौथी शताब्दी में जलाया गया माना है।
अनुसन्धान कर्त्ता ओडोपेन्सी रोलेस ने सम्राट् कान्स्टेट क्लोर्स के राज्य महल का वर्णन किया है और लिखा है उसमें कभी न बुझने वाले दीपक जला करते थे उनमें मामूली तेल नहीं वरन् कोई विशेष रासायनिक पदार्थ जलता था। सिसरो की बेटी टोल्या की कब्र में भी एक ऐसा ही दीपक पाया गया था जो बिना तेल और हवा के जल रहा था। उसे हवा में निकाला गया तो तुरन्त ही बुझ गया। उड़न तश्तरियों के सम्बन्ध में पिछले 30 वर्षों से बहुत चर्चा चली है। उनके आंखों देखे विवरण इतने अधिक छपे और रिकार्ड किये गये हैं कि उन्हें कपोल कल्पनाएं मनगढ़न्त कहकर झुठलाया नहीं जा सकता। आंखों से देखा गया जो काण्डरों और कमरों ने उन्हें क्यों अंकित किया? अप्रैल 77 में उड़न तश्तरियों के सन्दर्भ में विचार करने के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस अमेरिका में सम्पन्न हुई। उनमें अनुसन्धानकर्त्ताओं ने अपने विभिन्न निष्कर्ष बताये। उनमें से एक शोधकर्त्ता सालवाडोर फ्रीक्सेडी ने कहा—अच्छा हो यह शोध भौतिक विज्ञान तक सीमित न रहे इसमें आत्म-विद्या विशारद भी भाग ले और तलाश करे कि क्या इसमें किन्हीं प्रत्यक्ष या अदृश्य प्राणियों की हलचलें तो जुड़ी हुई नहीं हैं?
अन्तरिक्ष विज्ञानी एलन हाईनेक का कथन है—वे भौतिक क्षेत्र की ही इकाइयां हैं। अभी बहुत से प्रकृति रहस्य जाने के लिए शेष हैं। उन्हें में से एक उड़न तश्तरियों का प्रसंग भी सम्मिलित रखा जाना चाहिए और उस सन्दर्भ में धैर्य और प्रयत्न पूर्वक प्रयत्न किया जाना चाहिए।
अमेरिका वायु सेना के एक जांच कमीशन ने अपने देश वासियों को आश्वस्त किया था कि वे जो भी हों सार्वजनिक सुरक्षा के लिए उनसे कोई खतरा नहीं है। इतने पर भी जनता को कोई समाधान न हो सका और यह भय बना ही रहा कि यदि वे कभी नीचे उतर आईं तो न जाने क्या कहर बरसाने लगेंगी।
मानसिक रोग और स्नायविक दुर्बलता से उत्पन्न ज्ञान तन्तुओं की विकृतियां भूत-पलीतों का सृजन करती हैं। किम्वदन्तियों और अन्धविश्वासों का जाल-जंजाल उन्हें इस प्रकार धुंऐ से बादल गठ देता है मानो वे सचमुच ही चोर उचक्कों की तरह हर किसी को परेशान करने पर उतारू हो रहे हों।
जादूगरी, बाजीगरी के अनेकों खेल लोगों को अचम्भे में डाल देते हैं और लगता है वह किसी जिन्न दैत्य की करामात है। इसका खण्डन प्रायः भले बाजीगर करते भी रहते हैं और यही बताते हैं कि यह केवल हाथ की सफाई है फिर भी कितने ही अन्धविश्वासी उन्हें चमत्कार ही कहते रहते हैं।
स्मरण रखने योग्य यही है कि विश्व ब्रह्माण्ड अपने आप में रहस्य है उसके नियम विधान भी रहस्य जैसे हैं उनके अतिरिक्त वैसा कोई रहस्य नहीं है जैसा कि अन्ध-विश्वासी क्षेत्र में फैला हुआ है। इन रहस्यों को इन्द्रियों चेतना से परे कहा जाता है। शरीर और मस्तिष्क की शक्तियां प्रत्यक्ष और सर्वविदित है। शरीर में श्रम और मस्तिष्क में सोचने समझने की विचार करने की शक्तियों को भी सभी कोई जानते, मानते और विश्वास करते हैं। विज्ञान ने इन शक्तियों को अपनी भाषा में अद्भुत और विलक्षण कहा है तथा इन प्रत्यक्ष शक्तियों को ही देखकर प्रकृति के कौशल को अद्वितीय बताया है। भौतिक विज्ञान इतना ही जानता है, परन्तु वह इस बात को नहीं जान पाया है कि मनुष्य और अन्य प्राणियों में अतीन्द्रिय चेतना भी विद्यमान है। भौतिक शक्तियां तो स्थूल नियमों से परिचालित होती हैं। विज्ञान उन नियमों की परिभाषा करने में भी सफल हुआ है; पर अतीन्द्रिय शक्तियां जिन सूक्ष्म नियमों के अनुसार काम करती हैं, उनकी व्याख्या कर पाना अभी सम्भव नहीं हो सकता है।
हाड़-मांस की बनी काया उन्हीं नियमों का पालन करेगी जो उसके लिए निर्धारित हैं। इसी प्रकार मस्तिष्क भी उतना ही सोचेगा जो उसने सीखा है। परन्तु सामान्य लौकिक ज्ञान की सीमा से परे कई बार ऐसा कुछ भी देखने को मिलता है, जिससे विदित होता है कि स्थूल शरीर और ज्ञात मस्तिष्क से अलग भी शरीर के भीतर अन्तरंग चेतना में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो शारीरिक मर्यादाओं से प्राप्त न हो सकने वाली जानकारी प्राप्त कर लेती हैं। इस जानकारी का आधार मनुष्य और जीव-धारियों में विद्यमान उस चेतना को बताया जाता है, जिसे अतीन्द्रिय कहते हैं। उसे झुठलाया नहीं जा सकता।
यदि भौतिक विज्ञान के अनुसार जीवधारी को जड़ प्रकृति का ही एक स्थूल उत्पादन कहा जाय तो अतीन्द्रिय चेतना का कोई आधार नहीं मिल सकेगा। क्योंकि तब तो प्राणी एक चलता-फिरता वृक्ष ही ठहरा और उसकी शारीरिक मानसिक हलचलें शरीर के नियमों से बाहर कैसे जा सकती हैं। लेकिन विज्ञान की यह मान्यता भी ध्वस्त होने लगी है। जार्जिया विज्ञान एकेडमी के शरीर शास्त्री डा. आई.एस. बेकेताश्विली ने एक काकेशियी कुत्ते ‘त्साव्ला’ की गतिविधियों और क्रियाकलापों का अध्ययन करने के बाद कहा कि प्राणधारियों में एक ऐसी चेतनसत्ता भी है जो शरीर के नियमों से बंधी हुई नहीं है और वह इन्द्रियों का प्रत्यक्ष सहारा लिए बिना भी काम कर सकती है। ऐसे काम, जो आंख-कान के बिना सम्भव नहीं होते, वे भी उस चेतन सत्ता के द्वारा सम्पन्न हो जाते हैं। ‘त्स्वाला’ की कथा जार्जिया (रूस) निवासियों के घर-घर में प्रचलित है। वह इतना स्वामिभक्त और कर्त्तव्यपरायण था कि लोग उसकी तुलना वफादार घरेलू नौकरों से किया करते थे। त्स्वाला कुत्ता अपने मालिक के जानवरों को चराने प्रायः जंगल में अकेला ही जाया करता था। जानवरों को कहां चरना है, कहां बैठना है, कहां पानी पीना है, कोई जानवर झुंड से बाहर निकलकर इधर-उधर बिछुड़ न जाय इस बात का वह पूरा ध्यान रखता। जिस क्षेत्र में वह अपने मालिक के साथ रहता था उसमें भेड़िये और तेंदुए भेड़-बकरियों की घात लगाये रहते थे। त्स्वाला उनसे जूझने के लिए सदैव मुस्तैद रहता था और जब भी ऐसा अवसर आता तो वह आक्रमणकारी हिंस्र पशु का डटकर मुकाबला करके या तो उसे भगा देता अथवा मार गिराता।
एकबार किसी दूर के पशु फार्म पर ‘त्स्वाला’ की जरूरत पड़ी। मालिक ने उसे वहां भेज दिया। त्स्वाला वहां जाने में अड़ियलपने से काम ले रहा था इसलिए उसे एक ट्रंक में बन्द कर सैकड़ों मील दूर स्थित उस नये फार्म में ले जाया गया। वहां उसे बांधकर रखा गया लेकिन त्स्वाला का बुरा हाल था। न उसने खाना खाया न कुछ पिया केवल रोता रहा और एक दिन मौका देखकर रस्सी तुड़ाकर भाग निकला। यद्यपि उसे आंखें बांधकर एक ट्रक में डालकर लाया गया था फिर भी उसने अन्तःप्रेरणा के आधार पर दौड़ लगायी और सैकड़ों मील दूर अपने मालिक के पास तिब्लिसी क्षेत्र में आ गया।
कुत्ते ने न रास्ता देखा था न वह मार्ग के चिह्नों को ही पहचानता था फिर किस प्रकार वह इतनी दूर आ गया। डा. बेकेताश्विली को किसी प्रकार इस घटना का पता चला तो उन्हें लगा कि प्राणधारियों में कोई ऐसी अतीन्द्रिय चेतना भी होती है जिसके सहारे वे प्रधान ज्ञानेन्द्रिय आंख का काम बिना आंख के भी कर लेते हैं। इस घटना से तो स्पष्ट ही यह निष्कर्ष निकलता है। फिर भी इसकी पुष्टि के लिए डा. बेकेताश्विली ने एक बिल्ली पाली और उसका नाम रखा ‘ल्योवा’।
ल्योबा को नियत समय पर खाना दिया जाता। उसके खाने की तश्तरी कमरे के एक कोने पर दूर रख दी जाती। आंख बांधकर ल्योबा उस कमरे में छोड़ दी जाती। शुरू में तो उसे गन्ध के आधार पर भोजन तक पहुंचने में कुछ कठिनाई होती। पीछे वह बिना किसी कठिनाई के अपने भोजन तक पहुंच जाती थी।
गन्ध के आधार पर ही वह ऐसा कर रही है। यह बात वैज्ञानिक जानते थे। अतः उन्होंने ल्योबा के अतीन्द्रिय ज्ञान की परीक्षा के लिए तश्तरी में कुछ पत्थर के टुकड़े भी रखे। आंखें बांध दी गयी थीं और सोचा यह गया था कि गन्ध तो सारे प्लेट में से उठती थीं, इसलिए बिल्ली उसमें रखी हुई किसी भी चीज को मुंह मार सकती है लेकिन देखा गया कि ल्योबा ने बहुत ही सम्हलकर अपना खाना खाया और पत्थर के टुकड़ों को चाटा तक नहीं। इसी प्रकार कुछ दिन में ही वह रास्ते में रखी हुई कुर्सी, सन्दूक आदि को बचाकर इस तरह अपना रास्ता निकालने लगी कि उसमें से किसी के गिरकर टूटने या चोट पहुंचने का डर न रहे। स्मरण रहे इन प्रयोगों में भोजन की तश्तरी अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग कमरों में रखी गयी। बिल्ली सभी स्थानों पर पहुंच जाती। बेकेताश्विली ने यही प्रयोग ‘जिल्डा’ नामक एक कुत्ते पर और किया। जिल्डा की आंखों पर भी पट्टी बांध दी जाती और उसे प्रयोगशाला में छोड़ दिया जाता। जिल्डा कुछ ही दिनों में सारी बातें ताड़ गया और बिना किसी वस्तु से टकराये बुलाई गयी, आवाज पर पहुंचने लगा।
इन सब प्रयोगों से एक ही निष्कर्ष प्रतिपादित किया जा सकता है कि प्राणधारियों में विद्यमान चेतन सत्ता इन्द्रियों की दास नहीं है। इन्द्रियां तो उसके लिए उपकरण मात्र का काम करती हैं, वह उन पर निर्भर नहीं है। सामान्य जीवन में भी देखा जा सकता है कि अन्धे व्यक्ति छड़ी के सहारे नेत्रवालों की ही तरह चलने लगते हैं, लंगड़े या अपंग व्यक्तियों की भुजाएं और लोगों की अपेक्षा बलिष्ठ होती हैं और वे उनके द्वारा लाठी या बैसाखियों का सहारा बड़ी आसानी से लेकर चल लेते हैं। जन्मजात गूंगे बहरे व्यक्ति किसी के चेहरे और हाव-भाव को देखकर ही उसके मन्तव्य को समझने लगते हैं। यह सब इस बात का प्रतीक है कि चेतना इन्द्रियों की दास या उन पर आश्रित नहीं है। बल्कि इन्द्रियां उसके उपकरण हैं जिनका अभाव होने पर चेतना ज्ञान के लिए दूसरी वैकल्पिक व्यवस्था भी कर लेती है। अतीन्द्रिय ज्ञान का यही आधार भूत सिद्धान्त है। डा. वेकेताश्विली ने लिखा है कि—यह क्षमता हर प्राणी में विद्यमान रहती है। किसी में कुछ कम तो किसी में कुछ अधिक। कुछ लोग इस तरह की क्षमताएं जन्म-जात लेकर आते हैं और कुछ प्रयत्न करके उन्हें जगा या बढ़ा लेते हैं।
इन क्षमताओं की जन्म जात विद्यमानता के कई उदाहरण देखने को मिलते हैं। सन् 1976 में अमेरिकी पत्रिका ‘डेनवर’ ने किसी पाठक की लिखी हुई एक भविष्यवाणी प्रकाशिक की थी कि 1977 के अगस्त महीने में सानफ्रान्सिस्को नगर तथा पश्चिमी घाट में भूकम्प आयेगा। स्मरणीय है आज तक ऐसी कोई मशीन नहीं बन सकी है जो एक वर्ष पूर्व भूकम्प की भविष्यवाणी कर सके। लोगों ने इस भविष्यवाणी को कोई खास महत्त्व नहीं दिया; परन्तु 13 अगस्त 1977 को सानफ्रान्सिस्को के नगर और पश्चिमी तट वाले क्षेत्र में भूकम्प के तेज झटके लगे।
कई व्यक्तियों में इस प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के पूर्वाभास की क्षमता होती है। वैज्ञानिक भले ही इन्हें स्वीकार न करें, परन्तु ऐसी अनेक घटनाएं पश्चिमी देशों में घटी हैं जिनमें साधारण लोगों ने भूस्खलन की भविष्य वाणी कर दी और प्रयोगशालाएं कुछ न कह सकीं। नवम्बर 1974 में अमेरिका के डा. डेविड एम. स्टूवार्ड ने कैलिफोर्निया रेडियो पर घोषणा की थी कि पिछले दिनों हुए विलक्षण आभास के आधार पर वे यह कह रहे हैं कि इस महीने के चौथे बृहस्पतिवार को समुद्र तट पर भूकम्प आयेगा। भूकम्प तेज होगा किन्तु उससे जन धन की कोई विशेष क्षति नहीं होगी। 28 नवम्बर 1974—उस माह का चौथा गुरुवार था। उसी दिन शाम को रेडियो ने समाचार प्रसारित किया कि आज शाम तीन बजे कैलिफोर्निया के मध्य समुद्री तट पर हेलिस्टर के पास भूकम्प के तेज झटके लगे हैं। परन्तु उससे कोई विशेष क्षति नहीं हुई है। इस प्रकार के और भी कई प्रसंग हैं। प्राकृतिक घटनाओं के पूर्वाभास की क्षमता यद्यपि किन्हीं-किन्हीं मनुष्यों को होती है, किन्तु पशु-पक्षियों की कई जातियां तो इन घटनाओं को तुरन्त ताड़ लेती हैं और अपना व्यवहार बदल लेती हैं।
अमेरिका के विख्यात मौसम विशेषज्ञ डा. लागन इस दिशा में वर्षों से परिश्रम कर रहे हैं। उनका कहना है कि भूकम्प से पहले पशु-पक्षियों के व्यवहार में आये परिवर्तनों को सही ढंग से पहचान लिया जाय तो घण्टों नहीं दिनों पहले उससे होने वाले नुकसान से बचाव के प्रयास किये जा सकते हैं?
चीन में भी इस विषय में काफी शोधकार्य हुआ है, क्योंकि वहां के कई क्षेत्रों में एक वर्ष में पांच-पांच, छह-छह बार भूकम्प आते हैं। इन मौसम विशेषज्ञों ने विधिवत् एक चार्ट तैयार किया है जिसमें यह बताया गया है कि कौन-कौन से पशु-पक्षी भूकम्प के समय अपना व्यवहार बदल लेते हैं और उनके व्यवहार में किस प्रकार का परिवर्तन होता है। चार्ट में कहा गया है कि—‘जब भूकम्प आने की सम्भावना होती है तब गाय, भैंस, घोड़े, भेड़, गधे आदि चौपाये बाड़े में नहीं जाते। बाड़े में जाने के स्थान पर वे उल्टे भागने लगते हैं। एकाध तरह का चौपाया तो कभी भी ऐसा कर सकता है, परन्तु जब अधिकांश या सभी चौपाये बाहर भागने लगें तो भूकम्प की सम्भावना रहती है। उस समय चूहे और सांप भी अपना बिल छोड़कर भागने लगते हैं, सहमे हुए कबूतर निरन्तर आकाश में उड़ानें भरने लगते हैं और वापिस अपने घोंसलों में नहीं जाते। मछलियां भयभीत हो जाती हैं तथा पानी की ऊपरी सतह पर तैरने लगती हैं। खरगोश अपनी कान खड़े कर लेते हैं और अकारण उछलने-कूदने लगते हैं।’’
जापान भी भूकम्पों का देश है और वहां किये गये परीक्षणों तथा अध्ययन में भी पशु-पक्षियों के व्यवहार में इसी प्रकार के परिवर्तन नोट किये गये। अमेरिका, इटली तथा ग्वाटेभाला के वैज्ञानिक भी इन परिवर्तनों की पुष्टि करते हैं। उनका कहना है कि भूकम्प आने के पहले पृथ्वी की चुम्बकीय आकर्षण वायु-मण्डल को प्रभावित करने लगता है। हवाओं की गति और तापमान में अन्तर आ जाता है। धरती और आकाश के बीच का दबाव बढ़ जाता है। ये परिवर्तन बहुत सूक्ष्म होते हैं जिन्हें पशु-पक्षी ही पहचान पाते हैं तथा वे अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करने लगते हैं।
यह तो सच है कि बहुत सूक्ष्म परिवर्तन स्थूल परिवर्तनों का बोध इन्द्रियों के माध्यम से नहीं होता या सूक्ष्म तरंगें इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आतीं उन्हें इन्द्रियां पहचानने में असमर्थ होती हैं। इसलिए जिन व्यक्तियों को इनका आभास होता है वे अतीन्द्रिय सामर्थ्य से सम्पन्न कहे जाते हैं। पशु-पक्षियों में यह सामर्थ्य मनुष्यों की तुलना में अधिक बढ़ी-चढ़ी रहती है, क्योंकि वे प्रकृति के समीप रहते हैं, प्राकृतिक जीवन जीते हैं और मनुष्यों की तुलना में कम बुद्धिमान हैं। सम्भवतः इसी कारण प्रकृति ने अपने इन नन्हें लाड़लों को यह विशेष सामर्थ्य दी है। जो भी हो, यह तो मानना ही पड़ेगा कि कुछ है जो इन्द्रिय चेतना से परे, अतीन्द्रिय सामर्थ्य से सम्पन्न है। और वह स्थूल की पकड़ से बाहर है। भारतीय मनीषियों ने इस चेतना को परमात्मा सत्ता की ही एक किरण कहा है। उस सत्ता के सम्पर्क सान्निध्य स्थापित कर लेने पर जो असामान्य तथा विलक्षण लगता है वह भी सहज सम्भव और सुलभ उपलब्ध हो सकता है।
इसका कारण है सत्य तक पहुंचने की दृष्टि विज्ञान सिद्धियों और अद्भुत विशेषताओं का कारण स्थूल शरीर में ही खोज रहा है। जबकि योग ने इसके लिए चेतना का क्षेत्र पहिचाना और चुना है। प्राणियों में पायी जाने वाली चेतना का अपना निजी अस्तित्त्व है। वह रासायनिक तत्त्वों के मिलन से जन्मती और बिछुड़न से मर जाती हो ऐसी बात नहीं है। उसका स्वतन्त्र अस्तित्त्व है। वह शरीर पर निर्भर नहीं है। वह रासायनिक पदार्थों और परमाणुओं को अपनी इच्छानुसार खींचती बदलती है एवं प्रयुक्त करती है। इस प्राणि चेतना का अपना आकर्षण और प्रभाव है। अपनी आकांक्षा, अभ्यास, प्रकृति एवं आवश्यकतानुसार वह शरीर धारण करती है। शरीर को ही नहीं वातावरण को भी वह प्रभावित करती है।
वृक्षों की सघनता वर्षा के बादलों को आकर्षित करती है यह सर्वविदित है। पेट कट जाने पर वर्षा घट जाती है। उद्यानों में अभिवृद्धि से मौसम बदलता और बादल खिंचते चले आते हैं। यह वृक्षों में रहने वाली चेतना का आकर्षण एवम् प्रभाव है। सृष्टि के इतिहास से अनेकानेक परिवर्तनों की लम्बी श्रृंखला और उनके पीछे तत्कालीन प्राणियों की आकांक्षाओं का दबाव भारी काम करता रहा है अपने-अपने शरीरों की स्थिति में तथा अपनी इन्द्रिय चेतना में भी उनने भारी परिवर्तन कर लिए हैं।
प्राणि जगत की चेतना अनुभवों का लाभ उठाते हुए, ठोकरों से शिक्षा लेते हुए, भूलों को सुधारते हुए प्रगति के प्रस्तुत स्तर तक पहुंच पाई है। आदिमकाल के डिनो-सोरों जैसे विशालकाय प्राणी पूंछ दांत और पीठ पर आक्रमणकारी शस्त्र साधनों से सुसज्जित थे। तब शायद संघर्ष और विजय का मत्स्य न्याय ही उपयुक्त समझा गया होगा, पर वह प्रयोग सफल न रहा। एक दूसरे की चमड़ी उधेड़ने और अण्डे निगलने की नीति, सार्थक सिद्ध नहीं हुई। कायिक दृष्टि से विशाल और सामर्थ्य की दृष्टि से सबल होते हुए भी आदिमकाल के पशु-पक्षी अपनी हिंस्र आदतों के दुष्परिणाम भुगतते हुए अपना अस्तित्व ही गंवा बैठे।
पीछे नया अध्याय प्रारम्भ हुआ और नीति बदली। प्राणियों की ममता बच्चों के प्रति बढ़ी और उन्होंने अण्डों को घोंसलों में सेने की अपेक्षा पेट में ही पकाने का निश्चय किया इतना ही नहीं उन्हीं शरीर रस निचोड़ कर दूध भी पिलाया। यह प्रकृति परिवर्तन की एक महाक्रान्ति थी। हिंसा की निरर्थकता समझी गई और स्नेह सहयोग भरे अनुदान का आदान-प्रदान क्रम चल पड़ा। मांसाहारी प्राणियों की मूल चेतना ने अपने शारीरिक अवयव अपनी आवश्यकतानुसार उपलब्ध एवं विकसित किये हैं। पेड़ों की छाया में तथा घास की झाड़ियों में अपने को छिपाये रहने की जिनने आवश्यकता समझो, उनकी चमड़ी का रंग तथा दाग धब्बे उसी प्रकार के उत्पन्न हो गये। शाकाहारियों को दांत-आंत की जैसी स्थिति आवश्यक थी उसी के अनुरूप उनने अपने कलेवरों को प्राप्त कर लिया। घोर शीत में आहार प्राप्त कर सकने की कठिनाई देख कर हिम प्रदेश के रीछों ने उन दिनों गहरी निद्रा में पड़े रहने की आदत बनाली। देश काल के अनुरूप विभिन्न प्राणियों ने जहां अपने को बदला है वहां ऐसे प्रमाण भी उपलब्ध हुए हैं कि अमुक क्षेत्र में बहु संख्यक प्रबल चेतना सम्पन्न प्राणियों ने अपनी आवश्यकता के अनुरूप व्यवस्था बदलाव लेने के लिए प्रकृति को सहमत कर लिया।
यह बहुत पुराने जमाने की गई-गुजरी बात हो गई जब प्राणी को रासायनिक पदार्थों का समूह और उसकी चेतना को जीवाणुओं की सम्मिलित स्फुरणा मात्र कहा गया था और उसे चलता-फिरता पौधा घोषित किया गया था। शरीर के साथ ही जीवन का आदि और मरण के साथ अन्त होने की बात भी कभी-कभी विज्ञान क्षेत्र से उठी थी पर अब उस मान्यता में लगभग आमूल चूल परिवर्तन कर लिया गया। मरणोत्तर जीवन के प्रमाण इतने अधिक मिले हैं कि उन्हें झुठलाया जा सकना सम्भव नहीं रहा। पुनर्जन्म की घटनायें आये दिन सामने आती हैं। ऐसे बालक जन्मते रहते हैं जो पूर्व जन्म की अपनी स्थिति को स्मृति के आधार पर प्रामाणिक सिद्ध कर सके। प्रेतात्माएं कैसी होती हैं? कहां रहतीं और क्या करती हैं? इस सम्बन्ध में अभी बहुत जानना शेष है, पर उनके अस्तित्व को अब अप्रामाणिक ठहरा देना सम्भव नहीं। इस सन्दर्भ में भी इतने अधिक प्रमाण मिलते रहते हैं कि इन्हें अन्धविश्वास या भ्रान्ति समुच्चय कह देने से काम नहीं चल सकता।
परमाणुवादी पदार्थ विज्ञान ने आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार किया है और यह प्रयत्न किया है कि उस अस्तित्व की संगति किसी प्रकार प्रकृति की विज्ञान सम्मत व्याख्या के साथ ही बैठ जाय।
आत्म-सत्ता के अस्तित्व सन्दर्भ में अधिक सुबोध प्रकाश टामस ऐडिसन ने डाला है। फोनोग्राफ रोशनी के बल्ब आदि के आविष्कर्त्ता इस प्रख्यात विज्ञानी का कथन है कि ‘‘प्राणी की सत्ता उच्चस्तरीय विद्युत कण गुच्छकों के रूप में रहती है। मरने के बाद भी यह गुच्छक विधिवत नहीं होते और परस्पर सघन सम्बद्ध बने रहते हैं। यह गुच्छक बिखरते नहीं वरन् मरने के उपरान्त अनन्त आकाश में भ्रमण करने के उपरान्त पुनः जीवन-चक्र में प्रवेश करते और नया जन्म धारण करते हैं। यह गुच्छक मधुमक्खियों के झुण्ड की तरह हैं। पुराना छत्ता वे एक साथ छोड़ती और नया छत्ता एक साथ बनाती हैं। इसी प्रकार उच्च स्तरीय विद्युत कणों के गुच्छक अपने साथ स्थूल शरीर की साधन सामग्री और अपनी आस्थाओं और संवेदनाओं को साथ लेकर जन्मते-मरते रहने पर भी अमर बने रहते हैं।’’
क्वान्टम के थ्येरी के परिपूरक सिद्धान्त ने यह सिद्ध किया है कि जड़ और चेतना की सत्ता एक दूसरे से भिन्न स्तर की देखते हुए भी वस्तुतः उनके बीच सघन तादात्म्य मौजूद है। ‘पदार्थ’ एक स्थिति में ठोस रहता है, पर दूसरी स्थिति में वह अपदार्थ बन जाता है। इस प्रकार जड़ चेतन में और चेतन जड़ में परिणित हो सकता है। मन की सत्ता शरीर रूप में पदार्थ रूप में प्रकट हो सकती है और अमुक स्थिति में पहुंच कर पदार्थ भी बन सकती है।
विज्ञानी हाइसन वर्ग का प्रतिपादन है कि अन्तरिक्ष में अमुक स्थिति पर पहुंचने पर परमाणु पदार्थ न रहकर अपदार्थ में—ऊर्जा में परिणत हो जाते हैं। पदार्थ सत्ता परिधि काल और रूप में ढांचे में बंधी है मनःसत्ता में अनुभूतियां, स्मृतियां, विचार और विम्ब के रूप में व्याख्या होती है। इतना अन्तर रहते हुए भी उन दोनों के बीच अत्यधिक घनिष्ठता है यहां तक कि वे दोनों एक दूसरे को प्रभावित ही नहीं वरन् परस्पर रूपांतरित भी होते रहते हैं।
इस तथ्य को नोबुल पुरस्कार विजेता यूजोन विगनर ने और भी अधिक स्पष्ट किया है। वे कहते हैं कि यह जान लेना ही पर्याप्त नहीं कि वस्तुओं की हलचलों से चेतना ही प्रभावित होती है वस्तु स्थिति यह है कि चेतना से पदार्थ भी प्रभावित होता है।
रूस के इलेक्ट्रोनिक विज्ञानी सेमयोन किर्लियान ने एक ऐसी फोटोग्राफी का आविष्कार किया है जो मनुष्य के इर्द-गिर्द होने वाली उसकी विद्युतीय हलचलों का छायांकन करती है। इससे प्रतीत होता है कि स्थूल शरीर के साथ-साथ किसी सूक्ष्म शरीर की भी सत्ता विद्यमान है और वह ऐसे अविज्ञात पदार्थों से बनी है जो इलेक्ट्रानों से बने ठोस पदार्थ की अपेक्षा भिन्न भी है और अधिक गतिशील भी।
विज्ञान-विश्लेषण के अनुसार मनुष्य विद्युत आवेगों से सम्पन्न एक विशेष प्राणी है। वह अदृश्य ऊर्जाओं के समुद्र में तैरता है। हर मनुष्य में अपने स्तर के कुछ विशेष चुम्बकीय प्रवाह उठते रहते हैं और वे अपने सजातीय ऊर्जा तत्वों को इस निखिल आकाश में से खिंचकर अपने में धारण करते रहते हैं। साथ ही मनुष्य अपनी इन चुम्बकीय विशेषताओं को अन्तरिक्ष में बिखेरता भी रहता है। उसका यह गृहण और प्रक्षेपण क्रिया कलाप निरन्तर चलता रहता है। अदृश्य ऊर्जाओं से वह प्रभावित होता है और उनमें अपना योगदान सम्मिलित करता है। इसी आकर्षण-विकर्षण में मृत आत्माओं के साथ सम्पर्क स्थापित करना और आदान प्रदान का क्रम चल पड़ना भी सम्भव हो सकता है।
ख्याति नामा वैज्ञानिक यू.ई. बर्नार्ड का कथन है कि अभी मनः तत्त्व के बारे में हमारी जानकारी बहुत स्वल्प है पर वह दिन दूर नहीं जब चेतना के उन रहस्यों का उद्घाटन होगा जो उपलब्ध भौतिक शक्तियों की तुलना में कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। निकट भविष्य में यह सम्भव हो सकेगा कि मनः तत्त्व की शक्ति से पदार्थों का गठन, विगठन एवं रूपान्तरण हो सके। इसी प्रकार यह भी सम्भावना है कि संकल्प शक्ति के सहारे मनुष्य अपने शरीर में अभीष्ट परिवर्तन प्रस्तुत कर सके।
मनुष्य शरीर के सम्बन्ध में अध्यात्म की वैज्ञानिक व्याख्या यह है कि थ्री डाइमेन्शस ऑव स्पेस और वन डाइमेन्शन आवट्यून के समन्वय से यह अद्भुत निर्माण सम्भव हुआ है। इनमें जो अनुपात है वही मनुष्य की वर्तमान स्थिति का आधार है। यदि इस अनुपात में थोड़ा-सा हेर-फेर सम्भव हो सके तो स्थिति में इतना अन्तर हो सकता है कि आज का सामान्य मनुष्य कल अनेक कसौटियों पर असामान्य सिद्ध हो सके।
प्राणियों को चेतन का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार कर लेने और उसका प्रभाव पदार्थों पर पड़ने के वैज्ञानिक निष्कर्ष ने उस बचपन से छुटकारा पा लिया जिसमें आत्मा का अस्तित्व ही अस्वीकार कर दिया गया था और प्राणियों के जन्म-मरण को रासायनिक पदार्थों की एक विशेष हलचल ठहराया गया था। अब प्राणि सत्ता को चेतना घटक के रूप में जाना-माना जा रहा है। आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करने में अब वैज्ञानिक आना-कानी बहानेबाजी मात्र कही जा सकती है। वह दिन दूर नहीं जब इस संदर्भ में आड़े आ रहा असमंजस भी समाप्त होकर रहेगा।
अब दूसरा प्रश्न है परमात्म सत्ता का—उसे विज्ञान ने ब्रह्माण्डीय चेतना के रूप में स्वीकार किया है। आत्मा को अर्ध चेतन और अर्ध-जड़ के रूप में ही अभी विज्ञान ने मान्यता दी है। इसी अनुपात से परमात्मा को भी अर्ध ब्रह्म और अर्ध प्रकृति के रूप में स्वीकारा है। काम इतने से भी चल सकता है। अध्यात्मवाद को यह स्थिति भी स्वीकार है। अर्धनारी नटेश्वर की प्रतिमाओं में इस मान्यता की स्वीकृति है। ब्रह्म और प्रकृति का युग्म ब्रह्म विद्या के तत्त्व दर्शन ने स्वीकार किया है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश अपनी अपनी पत्नियों को साथ लेकर ही चलते हैं। अन्य देवताओं में से भी कदाचित ही कोई कुमार या विधुर हो। प्रकृति और परमात्मा के समन्वय से जीवात्मा की उत्पत्ति हुई है ऐसे प्रतिपादन ब्रह्मविद्या की अनेक व्याख्याओं में उपलब्ध हैं।
विज्ञान अपनी भाषा में परब्रह्म को परमात्मा को ‘ब्रह्माण्डीय चेतना’ के रूप में स्वीकार करने लगा है और उसका घनिष्ठ सम्बन्ध जीव चेतना के साथ जोड़ने में उसे अब विशेष संकोच नहीं रह गया है। यह मान्यता जीव और ब्रह्म को अंश और अंशी के रूप में मानने की वेदान्त व्याख्या से बहुत भिन्न नहीं है।
अब विज्ञान वेत्ताओं ने एक ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का अस्तित्व स्वीकार किया है। इससे पूर्व पृथ्वी पर चल रही भौतिकी को ही पदार्थ विज्ञान की सीमा माना जाता था, पर अब एक ऐसी व्यापक सूक्ष्म सत्ता का अनुभव किया गया है जो अनेक ग्रह-नक्षत्रों के बीच ताल-मेल बिठाती है। पृथ्वी पर इकोलॉजी का सिद्धान्त प्रकृति की एक विशेष व्यवस्था के रूप में अनुभव कर लिया गया है। वनस्पति प्राणी, भूमि, वर्षा, रासायनिक पदार्थ आदि के बीच एक संतुलन काम कर रहा है और वे सब एक दूसरे के पूरक बनकर रह रहे हैं। जड़ समझी जाने वाली प्रकृति की वह अति दूरदर्शिता पूर्ण चेतन व्यवस्था उन भौतिक विज्ञानियों के लिए सिर-दर्द थी जो पदार्थ के ऊपर किसी ईश्वर जैसी चेतना का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। अब ब्रह्माण्डीय ऊर्जा उससे भी बड़ी बात है। ग्रह पिण्डों के बीच एक दूसरे के साथ आदान-प्रदान की—सहयोग संतुलन की जो ‘इकोलॉजी’ से भी अधिक बुद्धिमत्ता पूर्ण व्यवस्था दृष्टिगोचर हो रही है उसे क्या कहा जाय?
परा मनोविज्ञान की नवीनतम शोधें भी इसी निष्कर्ष पर पहुंची हैं कि मनुष्य चेतना ब्रह्माण्ड चेतना की अविच्छिन्न इकाई है। अस्तु प्राण सत्ता शरीर में सीमित रहते हुए भी असीम के साथ अपना सम्बन्ध बनाये हुए हैं। व्यष्टि और समष्टि की मूल सत्ता में इतनी सघन एकता है कि एक व्यक्ति समूची ब्रह्म चेतना का प्रतिनिधित्व कर सकता है।
परमाणुसत्ता की सूक्ष्म प्रकृति का विश्लेषण करते हुए विज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि दो इलेक्ट्रानों को पृथक दिशा में खदेड़ दिया जाय तो भी उनके बीच पूर्व सम्बन्ध बना रहता है। वे कितनी ही दूर रहें एक दूसरे की स्थिति का परिचय अपने में दर्पण की तरह प्रतिबिम्बित करते-रहते हैं। एक की स्थिति को देखकर दूसरे के बारे में बहुत कुछ पता मिल सकता है। एक को किसी प्रकार से प्रभावित किया जाय तो उसका दूसरा साथी भी अनायास ही प्रभावित हो जाता है। इस प्रतिपादन पर आइन्स्टाइन रोजेन पोटोल्स्की जैसे विश्व-विख्यात विज्ञान वेत्ताओं की मुहर है। इस सिद्धान्त से एक व्यापक सत्ता और उसके सदस्य रूप में छोटे घटकों की सिद्धि तथा पृथक रहते हुए भी एकता का तारतम्य बने होने की पुष्टि होती है।
विज्ञान की मान्यता के अनुसार पूर्ण को जानने के लिए उसका अंश जानने का और अंश के अस्तित्व को समझने के लिए उसके पूर्ण रूप को समझने की आवश्यकता पड़ती है। इसके बिना यथार्थता को पूरी तरह समझा नहीं जा सकता। मूर्धन्य विज्ञान वेत्ता डा. एफ. केफ्रा ने अंश या अंशी के बीच अविच्छिन्न सम्बन्ध होने की बात का विस्तार पूर्वक प्रतिपादन किया है और कहा है कि परमाणु का प्रत्येक घटक विश्व-ब्रह्माण्ड का परिपूर्ण सदस्य है इस सदस्यता को किसी भी प्रकार निरस्त नहीं किया जा सकता। दोनों एक दूसरे के पूरक होकर ही आदि काल से रहे हैं और अनन्त काल तक अपना सघन सम्बन्ध यथावत बनाये रहेंगे।
गेटे ने कहा था ब्रह्माण्डीय चेतना का अस्तित्व सिद्ध कर सकने योग्य ठोस आधार मौजूद है। रुडोल्फ स्टीनर ने अपने ग्रन्थ में गेटे के प्रतिपादन को और भी अच्छी तरह सिद्ध करने के लिए आधार प्रस्तुत किये हैं।
जीव-विज्ञानी टामस हक्सले ने ब्रह्माण्डीय चेतना के अस्तित्व और उसके कार्य क्षेत्र पर और भी अधिक प्रकाश डाला है वे उसे जीवाणुओं में अपने ढंग से और परमाणुओं में अपने ढंग से काम करती हुई बताते हैं और भारतीय दर्शन की परा और अपरा प्रकृति को ब्रह्म पत्नी के रूप में प्रस्तुत करने वाली मान्यता के समीप ही जा पहुंचते हैं। इस संदर्भ में उन्होंने विस्तृत प्रकाश अपनी हेवेन एण्ड हेल पुस्तक में डाला है।
परमाणु की इलेक्ट्रोन प्रक्रिया को मात्र मन्त्रों से नहीं जाना जा सकता है। उसके अस्तित्व का दर्शन और निरूपण करने वाला एक ही यन्त्र है मानवी मस्तिष्क। अन्य उपकरण तो इस संदर्भ में थोड़ी-सी सहायता मात्र करके रह जाते हैं। परमाणु की विवेचना नेत्र का नहीं गणित का विषय है। उसकी हलचलों से उत्पन्न प्रतिक्रिया के आधार पर गणित करके यह पता लगाया जाता है कि परमाणु और उसके उदर में हलचल कर रहे घटकों का स्वरूप, स्तर एवं क्रिया-कलाप क्या होना चाहिए। विज्ञानी लुडबिग ने इसे और भी अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है कि क्वान्टाम शास्त्र यन्त्रों पर नहीं वैज्ञानिकों की मानसिक चेतना पर अवलम्बित है।
कुल मिलाकर यह कि इस संसार की समस्त गतिविधियां सुव्यवस्थित रीति से चल रही हैं। प्रकृति के नियम ऐसे हैं जिनमें व्यतिरेक की तनिक भी गुंजाइश नहीं है। जिन नियमों को हम जानते हैं जिनका पता अभी तक चल नहीं पाया है उन्हें रहस्य कहते हैं। रहस्य का तात्पर्य उन घटनाक्रमों से है जो असामान्य होते हैं और जिनके घटित होने के कारणों का पता नहीं है।
इस संसार में रहस्य कुछ नहीं
ऐसे घटनाक्रमों को दैवी कहकर सन्तोष कर लिया जाता है। अभी भी सूर्य और चन्द्रग्रहण को असाधारणतः कोई दैवी प्रकोप समझा जाता है। बिजली का कड़कना पिछले इलाकों में देवता दैत्यों के विग्रह का प्रतीक है। विज्ञान के विद्यार्थी इन्हें प्रकृति क्रम की एक नियत विधि व्यवस्था के अन्तर्गत प्रकट होने वाले सामयिक घटना क्रम मात्र मानते हैं। उन्हें ऐसे कारणों में आश्चर्य जैसी कोई बात प्रतीत नहीं होती।
मिश्र के पिरामिडों को जादुई माना जाता है और उनके निर्माण की अलौकिकताओं का सम्बन्ध किन्हीं देवी-देवताओं के साथ जोड़ा जाता है। अब उन आधारों का पता लगाया जा रहा है जिनके सहारे इन निर्माणों में कई प्रकार के ‘अद्भुत’ दृष्टिगोचर होते हैं।
इलेक्ट्रानिक विज्ञानी ऐरिक मेहलोइन ने यह सिद्ध किया है कि पिरामिडों में पाई जाने वाली सभी अलौकिकताएं आज भी उन्हीं वैज्ञानिक नियमों के आधार पर खड़ी की जा सकती हैं, जिनके सहारे कि वे प्राचीन काल में की गई थीं। उनने अठारह इंच ऊंचा एक पिरामिड मॉडल प्लेक्सीग्लास का बनाया है उसके भीतर मांस के टुकड़े तथा अन्य पदार्थ उसी स्थिति में रखे गये जैसे कि पिरामिडों में रखे हुए हैं। प्रायः सभी पदार्थ वही प्रतिक्रिया उत्पन्न करने लगे जो उन प्राचीन निर्माणों में पाई जाती और जादुई कही जाती है।
ताबूतों में बन्द ‘सभी’ हजारों वर्ष बाद भी क्यों सुरक्षित है। पिछले लोग भूत-प्रेतों की चौकीदारी मानते थे, पर अब प्रतीत हुआ है कि जैसा वातावरण पिरामिडों के बाहर और भीतर है वैसा ही बना लेने पर मांस की सड़न रुक सकती और वैसे ही रहस्य दृष्टिगोचर हो सकते हैं जैसे कि पिरामिडों की कथा-गाथाओं के साथ जुड़े हुए हैं।
आग के बारे में यह मान्यता सर्वविदित है कि उनके जलने के लिए ईंधन और ऑक्सीजन दोनों की आवश्यकता है। वे दोनों जब तक उपलब्ध रहेंगे तब तक आग जलेगी एक भी समाप्त हो जाने पर वह बुझ जायगी, किन्तु ऐसे प्रमाण भी मिले हैं जिनमें इस सर्वविदित मान्यता का खण्डन होता है। मामूली आकार के दीपकों में भरी हुई चिकनाई कुछ घण्टों ही जल सकती है, पर यदि कोई छोटा दीपक सैकड़ों वर्षों तक जलता रहे तो ईंधन के आधार पर अग्नि प्रज्ज्वलन का सिद्धान्त कट जाता है। यही बात ऑक्सीजन के सम्बन्ध में भी है एक बन्द सन्दूक के भीतर की हवा दो चार दिन ही काम दें सकती है उतने से घेरे की हवा सैकड़ों वर्षों तक किसी दीपक का काम दें सकती है इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। तो भी ऐसे प्रमाण पाये गये हैं जो अग्नि विज्ञान को प्रचलित मान्यताओं के सही गलत होने के सम्बन्ध में प्रश्न चिह्न लगाते हैं।
इतिहासकार विलियम कैमडन ने अपनी पुस्तक ‘ब्रिटेन’ में पुराने खण्डहरों में खुदाई में मिले ऐसे जलते दीपकों का वर्णन किया है जो सैकड़ों वर्षों से बन्द खिड़की के भीतर जलते चले आ रहे थे। कैमडन ने इस आश्चर्य का समाधान यह लिखकर किया है कि प्राचीन काल के रसायन वेत्ता सोने को पिघलाकर तेल जैसा बना देते थे उसी से यह दीपक सैकड़ों वर्षों तक जलते थे। सेन्ट अमास्टाइन ने अपनी संस्मरण पुस्तक में लिखा है कि देवी वीनस के मन्दिर में एक ऐसा अखण्ड दीपक खुली जगह में जलता था, जिस पर वर्षा और तेज हवा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। पुरातत्व विभाग ने सन् 1840 में स्पेन के कुर्तण क्षेत्र की एक कब्र को खोदकर जलता दीपक उपलब्ध किया था। उस ज्योति को कई सौ वर्षों से जलती आ रही माना गया है। इटली के नसीदा द्वीप में एक किसान ने अपने खेत में एक कब्र पाई थी। उसे खोदकर देखा गया तो कांच के बरतन में बन्द एक ऐसा दीपक पाया जो मुद्दतों से उसी में बन्द जल रहा था। इतिहासकार ऐसेलाईस ने ऐस्टेनाग की खुदाई में निकला एक कब्र का वर्णन किया है, जिसमें जलता हुआ दीपक पाया गया। उसके पास ही अभिलेख पाया गया जिसमें लिखा था—खबरदार—कोई दीपक को छुए नहीं यह देवता पलोटी का उपहार है। ऐसेलाईस ने इस दीपक को चौथी शताब्दी में जलाया गया माना है।
अनुसन्धान कर्त्ता ओडोपेन्सी रोलेस ने सम्राट् कान्स्टेट क्लोर्स के राज्य महल का वर्णन किया है और लिखा है उसमें कभी न बुझने वाले दीपक जला करते थे उनमें मामूली तेल नहीं वरन् कोई विशेष रासायनिक पदार्थ जलता था। सिसरो की बेटी टोल्या की कब्र में भी एक ऐसा ही दीपक पाया गया था जो बिना तेल और हवा के जल रहा था। उसे हवा में निकाला गया तो तुरन्त ही बुझ गया। उड़न तश्तरियों के सम्बन्ध में पिछले 30 वर्षों से बहुत चर्चा चली है। उनके आंखों देखे विवरण इतने अधिक छपे और रिकार्ड किये गये हैं कि उन्हें कपोल कल्पनाएं मनगढ़न्त कहकर झुठलाया नहीं जा सकता। आंखों से देखा गया जो काण्डरों और कमरों ने उन्हें क्यों अंकित किया? अप्रैल 77 में उड़न तश्तरियों के सन्दर्भ में विचार करने के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस अमेरिका में सम्पन्न हुई। उनमें अनुसन्धानकर्त्ताओं ने अपने विभिन्न निष्कर्ष बताये। उनमें से एक शोधकर्त्ता सालवाडोर फ्रीक्सेडी ने कहा—अच्छा हो यह शोध भौतिक विज्ञान तक सीमित न रहे इसमें आत्म-विद्या विशारद भी भाग ले और तलाश करे कि क्या इसमें किन्हीं प्रत्यक्ष या अदृश्य प्राणियों की हलचलें तो जुड़ी हुई नहीं हैं?
अन्तरिक्ष विज्ञानी एलन हाईनेक का कथन है—वे भौतिक क्षेत्र की ही इकाइयां हैं। अभी बहुत से प्रकृति रहस्य जाने के लिए शेष हैं। उन्हें में से एक उड़न तश्तरियों का प्रसंग भी सम्मिलित रखा जाना चाहिए और उस सन्दर्भ में धैर्य और प्रयत्न पूर्वक प्रयत्न किया जाना चाहिए।
अमेरिका वायु सेना के एक जांच कमीशन ने अपने देश वासियों को आश्वस्त किया था कि वे जो भी हों सार्वजनिक सुरक्षा के लिए उनसे कोई खतरा नहीं है। इतने पर भी जनता को कोई समाधान न हो सका और यह भय बना ही रहा कि यदि वे कभी नीचे उतर आईं तो न जाने क्या कहर बरसाने लगेंगी।
मानसिक रोग और स्नायविक दुर्बलता से उत्पन्न ज्ञान तन्तुओं की विकृतियां भूत-पलीतों का सृजन करती हैं। किम्वदन्तियों और अन्धविश्वासों का जाल-जंजाल उन्हें इस प्रकार धुंऐ से बादल गठ देता है मानो वे सचमुच ही चोर उचक्कों की तरह हर किसी को परेशान करने पर उतारू हो रहे हों।
जादूगरी, बाजीगरी के अनेकों खेल लोगों को अचम्भे में डाल देते हैं और लगता है वह किसी जिन्न दैत्य की करामात है। इसका खण्डन प्रायः भले बाजीगर करते भी रहते हैं और यही बताते हैं कि यह केवल हाथ की सफाई है फिर भी कितने ही अन्धविश्वासी उन्हें चमत्कार ही कहते रहते हैं।
स्मरण रखने योग्य यही है कि विश्व ब्रह्माण्ड अपने आप में रहस्य है उसके नियम विधान भी रहस्य जैसे हैं उनके अतिरिक्त वैसा कोई रहस्य नहीं है जैसा कि अन्ध-विश्वासी क्षेत्र में फैला हुआ है। इन रहस्यों को इन्द्रियों चेतना से परे कहा जाता है। शरीर और मस्तिष्क की शक्तियां प्रत्यक्ष और सर्वविदित है। शरीर में श्रम और मस्तिष्क में सोचने समझने की विचार करने की शक्तियों को भी सभी कोई जानते, मानते और विश्वास करते हैं। विज्ञान ने इन शक्तियों को अपनी भाषा में अद्भुत और विलक्षण कहा है तथा इन प्रत्यक्ष शक्तियों को ही देखकर प्रकृति के कौशल को अद्वितीय बताया है। भौतिक विज्ञान इतना ही जानता है, परन्तु वह इस बात को नहीं जान पाया है कि मनुष्य और अन्य प्राणियों में अतीन्द्रिय चेतना भी विद्यमान है। भौतिक शक्तियां तो स्थूल नियमों से परिचालित होती हैं। विज्ञान उन नियमों की परिभाषा करने में भी सफल हुआ है; पर अतीन्द्रिय शक्तियां जिन सूक्ष्म नियमों के अनुसार काम करती हैं, उनकी व्याख्या कर पाना अभी सम्भव नहीं हो सकता है।
हाड़-मांस की बनी काया उन्हीं नियमों का पालन करेगी जो उसके लिए निर्धारित हैं। इसी प्रकार मस्तिष्क भी उतना ही सोचेगा जो उसने सीखा है। परन्तु सामान्य लौकिक ज्ञान की सीमा से परे कई बार ऐसा कुछ भी देखने को मिलता है, जिससे विदित होता है कि स्थूल शरीर और ज्ञात मस्तिष्क से अलग भी शरीर के भीतर अन्तरंग चेतना में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो शारीरिक मर्यादाओं से प्राप्त न हो सकने वाली जानकारी प्राप्त कर लेती हैं। इस जानकारी का आधार मनुष्य और जीव-धारियों में विद्यमान उस चेतना को बताया जाता है, जिसे अतीन्द्रिय कहते हैं। उसे झुठलाया नहीं जा सकता।
यदि भौतिक विज्ञान के अनुसार जीवधारी को जड़ प्रकृति का ही एक स्थूल उत्पादन कहा जाय तो अतीन्द्रिय चेतना का कोई आधार नहीं मिल सकेगा। क्योंकि तब तो प्राणी एक चलता-फिरता वृक्ष ही ठहरा और उसकी शारीरिक मानसिक हलचलें शरीर के नियमों से बाहर कैसे जा सकती हैं। लेकिन विज्ञान की यह मान्यता भी ध्वस्त होने लगी है। जार्जिया विज्ञान एकेडमी के शरीर शास्त्री डा. आई.एस. बेकेताश्विली ने एक काकेशियी कुत्ते ‘त्साव्ला’ की गतिविधियों और क्रियाकलापों का अध्ययन करने के बाद कहा कि प्राणधारियों में एक ऐसी चेतनसत्ता भी है जो शरीर के नियमों से बंधी हुई नहीं है और वह इन्द्रियों का प्रत्यक्ष सहारा लिए बिना भी काम कर सकती है। ऐसे काम, जो आंख-कान के बिना सम्भव नहीं होते, वे भी उस चेतन सत्ता के द्वारा सम्पन्न हो जाते हैं। ‘त्स्वाला’ की कथा जार्जिया (रूस) निवासियों के घर-घर में प्रचलित है। वह इतना स्वामिभक्त और कर्त्तव्यपरायण था कि लोग उसकी तुलना वफादार घरेलू नौकरों से किया करते थे। त्स्वाला कुत्ता अपने मालिक के जानवरों को चराने प्रायः जंगल में अकेला ही जाया करता था। जानवरों को कहां चरना है, कहां बैठना है, कहां पानी पीना है, कोई जानवर झुंड से बाहर निकलकर इधर-उधर बिछुड़ न जाय इस बात का वह पूरा ध्यान रखता। जिस क्षेत्र में वह अपने मालिक के साथ रहता था उसमें भेड़िये और तेंदुए भेड़-बकरियों की घात लगाये रहते थे। त्स्वाला उनसे जूझने के लिए सदैव मुस्तैद रहता था और जब भी ऐसा अवसर आता तो वह आक्रमणकारी हिंस्र पशु का डटकर मुकाबला करके या तो उसे भगा देता अथवा मार गिराता।
एकबार किसी दूर के पशु फार्म पर ‘त्स्वाला’ की जरूरत पड़ी। मालिक ने उसे वहां भेज दिया। त्स्वाला वहां जाने में अड़ियलपने से काम ले रहा था इसलिए उसे एक ट्रंक में बन्द कर सैकड़ों मील दूर स्थित उस नये फार्म में ले जाया गया। वहां उसे बांधकर रखा गया लेकिन त्स्वाला का बुरा हाल था। न उसने खाना खाया न कुछ पिया केवल रोता रहा और एक दिन मौका देखकर रस्सी तुड़ाकर भाग निकला। यद्यपि उसे आंखें बांधकर एक ट्रक में डालकर लाया गया था फिर भी उसने अन्तःप्रेरणा के आधार पर दौड़ लगायी और सैकड़ों मील दूर अपने मालिक के पास तिब्लिसी क्षेत्र में आ गया।
कुत्ते ने न रास्ता देखा था न वह मार्ग के चिह्नों को ही पहचानता था फिर किस प्रकार वह इतनी दूर आ गया। डा. बेकेताश्विली को किसी प्रकार इस घटना का पता चला तो उन्हें लगा कि प्राणधारियों में कोई ऐसी अतीन्द्रिय चेतना भी होती है जिसके सहारे वे प्रधान ज्ञानेन्द्रिय आंख का काम बिना आंख के भी कर लेते हैं। इस घटना से तो स्पष्ट ही यह निष्कर्ष निकलता है। फिर भी इसकी पुष्टि के लिए डा. बेकेताश्विली ने एक बिल्ली पाली और उसका नाम रखा ‘ल्योवा’।
ल्योबा को नियत समय पर खाना दिया जाता। उसके खाने की तश्तरी कमरे के एक कोने पर दूर रख दी जाती। आंख बांधकर ल्योबा उस कमरे में छोड़ दी जाती। शुरू में तो उसे गन्ध के आधार पर भोजन तक पहुंचने में कुछ कठिनाई होती। पीछे वह बिना किसी कठिनाई के अपने भोजन तक पहुंच जाती थी।
गन्ध के आधार पर ही वह ऐसा कर रही है। यह बात वैज्ञानिक जानते थे। अतः उन्होंने ल्योबा के अतीन्द्रिय ज्ञान की परीक्षा के लिए तश्तरी में कुछ पत्थर के टुकड़े भी रखे। आंखें बांध दी गयी थीं और सोचा यह गया था कि गन्ध तो सारे प्लेट में से उठती थीं, इसलिए बिल्ली उसमें रखी हुई किसी भी चीज को मुंह मार सकती है लेकिन देखा गया कि ल्योबा ने बहुत ही सम्हलकर अपना खाना खाया और पत्थर के टुकड़ों को चाटा तक नहीं। इसी प्रकार कुछ दिन में ही वह रास्ते में रखी हुई कुर्सी, सन्दूक आदि को बचाकर इस तरह अपना रास्ता निकालने लगी कि उसमें से किसी के गिरकर टूटने या चोट पहुंचने का डर न रहे। स्मरण रहे इन प्रयोगों में भोजन की तश्तरी अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग कमरों में रखी गयी। बिल्ली सभी स्थानों पर पहुंच जाती। बेकेताश्विली ने यही प्रयोग ‘जिल्डा’ नामक एक कुत्ते पर और किया। जिल्डा की आंखों पर भी पट्टी बांध दी जाती और उसे प्रयोगशाला में छोड़ दिया जाता। जिल्डा कुछ ही दिनों में सारी बातें ताड़ गया और बिना किसी वस्तु से टकराये बुलाई गयी, आवाज पर पहुंचने लगा।
इन सब प्रयोगों से एक ही निष्कर्ष प्रतिपादित किया जा सकता है कि प्राणधारियों में विद्यमान चेतन सत्ता इन्द्रियों की दास नहीं है। इन्द्रियां तो उसके लिए उपकरण मात्र का काम करती हैं, वह उन पर निर्भर नहीं है। सामान्य जीवन में भी देखा जा सकता है कि अन्धे व्यक्ति छड़ी के सहारे नेत्रवालों की ही तरह चलने लगते हैं, लंगड़े या अपंग व्यक्तियों की भुजाएं और लोगों की अपेक्षा बलिष्ठ होती हैं और वे उनके द्वारा लाठी या बैसाखियों का सहारा बड़ी आसानी से लेकर चल लेते हैं। जन्मजात गूंगे बहरे व्यक्ति किसी के चेहरे और हाव-भाव को देखकर ही उसके मन्तव्य को समझने लगते हैं। यह सब इस बात का प्रतीक है कि चेतना इन्द्रियों की दास या उन पर आश्रित नहीं है। बल्कि इन्द्रियां उसके उपकरण हैं जिनका अभाव होने पर चेतना ज्ञान के लिए दूसरी वैकल्पिक व्यवस्था भी कर लेती है। अतीन्द्रिय ज्ञान का यही आधार भूत सिद्धान्त है। डा. वेकेताश्विली ने लिखा है कि—यह क्षमता हर प्राणी में विद्यमान रहती है। किसी में कुछ कम तो किसी में कुछ अधिक। कुछ लोग इस तरह की क्षमताएं जन्म-जात लेकर आते हैं और कुछ प्रयत्न करके उन्हें जगा या बढ़ा लेते हैं।
इन क्षमताओं की जन्म जात विद्यमानता के कई उदाहरण देखने को मिलते हैं। सन् 1976 में अमेरिकी पत्रिका ‘डेनवर’ ने किसी पाठक की लिखी हुई एक भविष्यवाणी प्रकाशिक की थी कि 1977 के अगस्त महीने में सानफ्रान्सिस्को नगर तथा पश्चिमी घाट में भूकम्प आयेगा। स्मरणीय है आज तक ऐसी कोई मशीन नहीं बन सकी है जो एक वर्ष पूर्व भूकम्प की भविष्यवाणी कर सके। लोगों ने इस भविष्यवाणी को कोई खास महत्त्व नहीं दिया; परन्तु 13 अगस्त 1977 को सानफ्रान्सिस्को के नगर और पश्चिमी तट वाले क्षेत्र में भूकम्प के तेज झटके लगे।
कई व्यक्तियों में इस प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के पूर्वाभास की क्षमता होती है। वैज्ञानिक भले ही इन्हें स्वीकार न करें, परन्तु ऐसी अनेक घटनाएं पश्चिमी देशों में घटी हैं जिनमें साधारण लोगों ने भूस्खलन की भविष्य वाणी कर दी और प्रयोगशालाएं कुछ न कह सकीं। नवम्बर 1974 में अमेरिका के डा. डेविड एम. स्टूवार्ड ने कैलिफोर्निया रेडियो पर घोषणा की थी कि पिछले दिनों हुए विलक्षण आभास के आधार पर वे यह कह रहे हैं कि इस महीने के चौथे बृहस्पतिवार को समुद्र तट पर भूकम्प आयेगा। भूकम्प तेज होगा किन्तु उससे जन धन की कोई विशेष क्षति नहीं होगी। 28 नवम्बर 1974—उस माह का चौथा गुरुवार था। उसी दिन शाम को रेडियो ने समाचार प्रसारित किया कि आज शाम तीन बजे कैलिफोर्निया के मध्य समुद्री तट पर हेलिस्टर के पास भूकम्प के तेज झटके लगे हैं। परन्तु उससे कोई विशेष क्षति नहीं हुई है। इस प्रकार के और भी कई प्रसंग हैं। प्राकृतिक घटनाओं के पूर्वाभास की क्षमता यद्यपि किन्हीं-किन्हीं मनुष्यों को होती है, किन्तु पशु-पक्षियों की कई जातियां तो इन घटनाओं को तुरन्त ताड़ लेती हैं और अपना व्यवहार बदल लेती हैं।
अमेरिका के विख्यात मौसम विशेषज्ञ डा. लागन इस दिशा में वर्षों से परिश्रम कर रहे हैं। उनका कहना है कि भूकम्प से पहले पशु-पक्षियों के व्यवहार में आये परिवर्तनों को सही ढंग से पहचान लिया जाय तो घण्टों नहीं दिनों पहले उससे होने वाले नुकसान से बचाव के प्रयास किये जा सकते हैं?
चीन में भी इस विषय में काफी शोधकार्य हुआ है, क्योंकि वहां के कई क्षेत्रों में एक वर्ष में पांच-पांच, छह-छह बार भूकम्प आते हैं। इन मौसम विशेषज्ञों ने विधिवत् एक चार्ट तैयार किया है जिसमें यह बताया गया है कि कौन-कौन से पशु-पक्षी भूकम्प के समय अपना व्यवहार बदल लेते हैं और उनके व्यवहार में किस प्रकार का परिवर्तन होता है। चार्ट में कहा गया है कि—‘जब भूकम्प आने की सम्भावना होती है तब गाय, भैंस, घोड़े, भेड़, गधे आदि चौपाये बाड़े में नहीं जाते। बाड़े में जाने के स्थान पर वे उल्टे भागने लगते हैं। एकाध तरह का चौपाया तो कभी भी ऐसा कर सकता है, परन्तु जब अधिकांश या सभी चौपाये बाहर भागने लगें तो भूकम्प की सम्भावना रहती है। उस समय चूहे और सांप भी अपना बिल छोड़कर भागने लगते हैं, सहमे हुए कबूतर निरन्तर आकाश में उड़ानें भरने लगते हैं और वापिस अपने घोंसलों में नहीं जाते। मछलियां भयभीत हो जाती हैं तथा पानी की ऊपरी सतह पर तैरने लगती हैं। खरगोश अपनी कान खड़े कर लेते हैं और अकारण उछलने-कूदने लगते हैं।’’
जापान भी भूकम्पों का देश है और वहां किये गये परीक्षणों तथा अध्ययन में भी पशु-पक्षियों के व्यवहार में इसी प्रकार के परिवर्तन नोट किये गये। अमेरिका, इटली तथा ग्वाटेभाला के वैज्ञानिक भी इन परिवर्तनों की पुष्टि करते हैं। उनका कहना है कि भूकम्प आने के पहले पृथ्वी की चुम्बकीय आकर्षण वायु-मण्डल को प्रभावित करने लगता है। हवाओं की गति और तापमान में अन्तर आ जाता है। धरती और आकाश के बीच का दबाव बढ़ जाता है। ये परिवर्तन बहुत सूक्ष्म होते हैं जिन्हें पशु-पक्षी ही पहचान पाते हैं तथा वे अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करने लगते हैं।
यह तो सच है कि बहुत सूक्ष्म परिवर्तन स्थूल परिवर्तनों का बोध इन्द्रियों के माध्यम से नहीं होता या सूक्ष्म तरंगें इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आतीं उन्हें इन्द्रियां पहचानने में असमर्थ होती हैं। इसलिए जिन व्यक्तियों को इनका आभास होता है वे अतीन्द्रिय सामर्थ्य से सम्पन्न कहे जाते हैं। पशु-पक्षियों में यह सामर्थ्य मनुष्यों की तुलना में अधिक बढ़ी-चढ़ी रहती है, क्योंकि वे प्रकृति के समीप रहते हैं, प्राकृतिक जीवन जीते हैं और मनुष्यों की तुलना में कम बुद्धिमान हैं। सम्भवतः इसी कारण प्रकृति ने अपने इन नन्हें लाड़लों को यह विशेष सामर्थ्य दी है। जो भी हो, यह तो मानना ही पड़ेगा कि कुछ है जो इन्द्रिय चेतना से परे, अतीन्द्रिय सामर्थ्य से सम्पन्न है। और वह स्थूल की पकड़ से बाहर है। भारतीय मनीषियों ने इस चेतना को परमात्मा सत्ता की ही एक किरण कहा है। उस सत्ता के सम्पर्क सान्निध्य स्थापित कर लेने पर जो असामान्य तथा विलक्षण लगता है वह भी सहज सम्भव और सुलभ उपलब्ध हो सकता है।