Books - चेतना का सहज स्वभाव स्नेह सहयोग
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Language: HINDI
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सहयोग सहकार प्रगति के मूल आधार
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प्रकृति का प्रत्येक घटक अपने एक निश्चित नियम के अनुसार जन्म लेता और विकास करता है। यह नियम व्यवस्था किन्हीं विशिष्ट क्षेत्रों के लिए ही लागू नहीं होती बल्कि जहां कहीं भी प्रगति, विकास और गतिशीलता दिखाई देती है वहां यही नियम काम करते दिखाई देते हैं।
समझा जाता है कि मनुष्य ने इस प्रकृति में अन्य सभी प्राणियों से अधिक उन्नति तथा विकास किया है। उस उन्नति और विकास के श्रेय उसकी बुद्धिमत्ता को दिया जाता है। मनुष्य की बुद्धिमत्ता को उसकी प्रगति का आधार मानने में कोई हर्ज भी नहीं है क्योंकि उसने बुद्धिबल से ही अन्य प्राणियों की तुलना में इतनी अधिक उन्नति की है जिससे सृष्टि का मुकुटमणि बन सकने का श्रेय उसे प्राप्त हो सका। इस मान्यता में यदि कुछ तथ्य है तो उसमें एक संशोधन यह और करना पड़ेगा कि बुद्धिमत्ता उसे सहकारिता के आधार पर ही उपलब्ध हुई है। क्या मनुष्य ने उन्नति अपनी मस्तिष्कीय विशेषता के कारण की है? मोटी बुद्धि ही इस मान्यता का अन्ध समर्थन कर सकती है। सूक्ष्म चिन्तन का निष्कर्ष यही होता है कि कोई न कोई आत्मिक सद्गुण ही उसके मस्तिष्क समेत अनेक क्षमताओं को विकसित करने का आधार हो सकता है। महत्वपूर्ण प्रगति न हो तो शरीर की संरचना के आधार पर सम्भव होती है और न मस्तिष्कीय तीक्ष्णता पर अवलंबित रहती है। उसका प्रधान कारण अन्तःकरण के कुछ भावनात्मक तत्व ही होते हैं। उन निष्ठाओं की प्रेरणा से इच्छा शक्ति जगती है, सक्रियता एवं तत्परता उत्पन्न होती हे, मस्तिष्क तथा शरीर के कलपुर्जे एक जुट होकर काम करते हैं और निष्ठा के अनुरूप दिशा में कदम तेजी से बढ़ाते चले जाते हैं। व्यक्ति सदा से इसी आधार पर ऊंचे उठते और नीचे गिरते रहे हैं।
मनुष्य की बुद्धिमत्ता, शारीरिक चेष्टा और प्रयत्न परायणता के मूल में जो अत्यन्त प्रेरक दिव्य प्रवृत्ति झांकती है उसे सहकारिता कह सकते हैं। वस्तुतः यही मानव प्राणी की सबसे बड़ी विशेषता है। अन्य प्राणियों में यह वृत्ति यत्किंचित् पाई तो जाती है, पर प्रायः वह शरीर समीपता तक ही सीमित रहती है। मानसिक आदान-प्रदान कर सकने योग्य उनकी स्थिति नहीं है। कुछ पशु-पक्षी, जोड़े बनाकर समूह में साथ-साथ रहने के अभ्यस्त तो होते हैं, इससे उन्हें सुरक्षा में सहायता मिलती है, कुछ और छोटे-मोटे शारीरिक आदान-प्रदान कर लेते हैं, पर मानसिक और भावनात्मक आदान-प्रदान उनसे बन नहीं पड़ता। सहकारिता वृत्ति का सीमित प्रयोग कर सकने के कारण ही अन्य प्राणी सृष्टि के आदि से लेकर अब तक जहां के तहां पड़े हैं, जबकि मनुष्य उस दिव्य प्रवृत्ति को अधिकाधिक विकसित करते हुये उन्नति के उच्च शिखर तक पहुंच सकने में सफल हो गया।
दो जड़ पदार्थ अथवा अविकसित प्राणी मिलकर दो की संख्या ही बनाते हैं। दो बैल मिलकर एक की अपेक्षा दूना वजन भी खींच सकते हैं। एक की अपेक्षा दो रुपये हों तो दूना सामान खरीदा जा सकता है। किन्तु भाव प्रधान मनुष्य प्राणी का जहां सघन सहयोग आरम्भ होगा वहां यह नियम बदल जायेगा और एक एक मिलकर ग्यारह की संख्या बन जायेगी। 1 और 1 के अंग नीचे ऊपर रहें तो उनका जोड़ 1 होगा किन्तु उन्हीं अंकों को बराबर लिख दें तो संख्या 11 बन जायेगी। अंग गणित का यही सिद्धान्त भाव प्रधान मनुष्य पर लागू होता है। दो बुद्धिमान चीते मिलकर वन की सुव्यवस्था बिगाड़ तो सकते हैं, पर बना नहीं पाते, क्योंकि भावनात्मक सहयोग के अभाव में वे एक दूसरे को नीचा दिखाने का ताना-बाना बुनने के अतिरिक्त कुछ कर नहीं सकते एक दूसरे से आत्म-रक्षा करने और आक्रमण का अवसर ढूंढ़ने के अतिरिक्त और वे कुछ सोच ही नहीं सकते। यदि सिंहों में—हाथियों में भावनात्मक एकता की—सहकारिता की वृत्ति रही होती और मनुष्य उस दिव्य अनुदान से वंचित रहा होता, तो निश्चित ही वे बलिष्ठ प्राणी संसार का शासन कर रहे होते और मनुष्य उनकी कृपा पाने के लिये लालायित रहता हुआ किसी प्रकार जिन्दगी के दिन पूरे कर रहा होता।
मानवी विकास के इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट है कि आदिम काल में वह अनगढ़ वानरों की तरह-सा पशु मात्र था। उनकी बुद्धि कुछ पैनी तो थी, पर उतने तीखे मस्तिष्क तो अन्य अनेक प्रार्थियों के भी पाये जाते हैं। चमगादड़, कुत्ता, चींटी, मधुमक्खी, मकड़ी जैसे प्रांतियों की इन्द्रिय शक्ति मनुष्य की तुलना में कहीं अधिक विकसित है और ऋतु परिवर्तन जैसी सूक्ष्म सम्भावनाओं को समझने की दृष्टि से कितने ही जी मनुष्य से आगे हैं। पर वे कोई खास विकास नहीं कर सके जबकि मनुष्य दिन-दूनी रात-चौगुनी प्रगति करता चला जाता है। तथ्यों की गहराई में प्रवेश करते हुए मनुष्य की एक ही सर्वोपरि विशेषता उभर कर आती है—सहकारिता की प्रवृत्ति। एक दूसरे के प्रति आत्मीयता की, ममता की सहायता की जो सद्भावनाएं उमड़ती हैं उसके समन्वय को सहकारिता कहते हैं उसमें आदान-प्रदान का—परस्पर मिल-जुलकर रहने का, मिल बांटकर खाने का व्यवहार अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है। यही है मानवी प्रगति का मूलमन्त्र। जहां भी इस प्रवृत्ति का जितना अधिक उपयोग हुआ है वहां उसी अनुपात से सर्वतोमुखी प्रगति का गति तीव्र हुई है। जहां इसकी जितनी न्यूनता रही है वहां उतनी ही मात्रा में जड़ता छाई रही है। संसार के अनेक क्षेत्रों में मनुष्य अभी भी आदिम अवस्था में पाये जाते हैं उनकी अवगति में भावनात्मक सहकारिता की न्यूनता ही प्रधान अवरोध बनकर खड़ी दृष्टिगोचर होती है।
आदिम काल में मनुष्य भी बन्दरों की तरह ही चीं-चीं बोलता था। उसने अपने मुंह से निकलने वाले कई शब्दों को अलग किया और हर उच्चारण के साथ एक जानकारी जोड़ी। यह उसकी बुद्धिमत्ता कहीं जा सकती है। इसमें चार चांद तब लगे जब उसने उच्चारण के साथ जुड़े हुए संकेतों की जानकारी दूसरे साथियों को कराई। यहां से शब्द विज्ञान का प्रवाह चल पड़ा। पीढ़ियों तक—सहस्राब्दियों तक इस दशा में प्रगति होती रही और आज हम उच्चारण क्षमता का पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं। आरम्भिक लिपि भी आड़ी-टेड़ी लकीरों के साथ अमुक जानकारियां जोड़ने के रूप में आरम्भ हुई पीछे अक्षरों का—स्वर-व्यंजनों का—अंक विद्या तथा रेखागणित का आविर्भाव हुआ और क्रमशः सर्वांगपूर्ण शिक्षा विज्ञान बनकर खड़ा हो गया। आज हमारी लेखनी और वाणी इतनी विकसित है कि उसके सुहाते अति महत्वपूर्ण जानकारियों का विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक आदान-प्रदान अति सरल हो गया है।
कृषि, पशुपालन, चिकित्सा, विज्ञान, शिक्षा, शिल्प, कला, व्यवसाय, उद्योग, परिवार, समाज, शासन आदि ज्ञान-विज्ञान की अगणित उपलब्धियां हमारे सामने प्रस्तुत हैं और हम देवोपम साधन सम्पन्नता का उपभोग कर रहे हैं। यह सारा वैभव-चमत्कार सहकारिता की सत्प्रवृत्ति का है। एक आदमी दूसरे के साथ सघन आत्मीयता स्थापित न करता—दूसरों के सुख-दुख में भागीदारी करने में उत्साह न रहता तो सहयोग की इच्छा ही न उठती और आदान-प्रदान का सिलसिला न चलता। इस स्थिति से उस प्रगति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है जिनके कारण मनुष्य जीवन को सुरदुर्लभ अनुभूतियों से भरा-पूरा माना जाता है। यथार्थता यह है कि सहयोग और उत्कर्ष एक दूसरे पर पूरी तरह निर्भर हैं। एक के बिना दूसरे की न आशा की जा सकती है और न सम्भावना ही बनती है।
एकाकी मनुष्य जीवित भर रह सकता है। उल्लास एवं उत्कर्ष के लिये उसे साथी ढूंढ़ने पड़ते हैं और समूह में रहने की व्यवस्था जुटानी पड़ती है। इसके अतिरिक्त स्नेह, सद्भावना, आत्मीयता एवं घनिष्ठता के इतने गहरे पुट लगाने पड़ते हैं कि एक दूसरे के लिये तत्पर रहें। दूसरे के दुःख उत्सर्ग हेतु बंटाने और अपने सुख को दे डालने में प्रसन्नता अनुभव करें। ऐसी स्थिति जो जितनी अधिक और जितने अच्छे स्तर की बना सकता है वह उतना ही सुखी, समुन्नत एवं सुसंस्कृत पाया जाता है। अनेकानेक सद्गुण इसी सहयोग रूपी कल्पवृक्ष के पत्र-पल्लव समझे जा सकते हैं। जिनका जितना ध्यान इस प्रवृत्ति को विकसित करने वाले आधार खड़े करने की ओर है वे अपनी, अपने सम्पर्क परिकर की उतनी ही महत्वपूर्ण सेवा कर रहे होते हैं।
मनुष्य जन्मजात रूप से बुद्धिमान नहीं होता। पशुओं के बच्चे बिना सिखाये माता के थन और अपनी खुराक आप ढूंढ़ लेते हैं जबकि मनुष्य का बच्चा कई वर्ष का होने तक पेट भरने तक में पराश्रित रहता है। भेड़ियों की मांद में पाया गया तीन वर्षीय रामू भेड़ियों की तरह ही चलता, बोलता, खाता सोता है। शिकारियों ने उसे पकड़ा और लखनऊ मेडीकल कॉलेज में उसके सुधार का उपक्रम हुआ तो भी वह मनुष्य सभ्यता को बहुत थोड़ा ही अपना सका। यदि जन्म-जात बुद्धिमत्ता मनुष्य को मिली होती तो घने जंगलों में रहने वाले पिछड़े हुये आदिवासी अपनी सहज वृत्ति से अन्य लोगों की तरह सभ्य हो गये होते। वस्तुतः मनुष्य को बुद्धिमत्ता सहित जितनी भी उपलब्धियां मिली हैं उन सबकी जननी सहकार प्रवृत्ति ही है।
धर्म और अध्यात्म का सारा कलेवर वैयक्तिक और सामाजिक नैतिकता को अधिकाधिक परिष्कृत करने के लिये खड़ा किया गया है। नीतिशास्त्र की मर्यादाओं में बंध कर ही वैयक्तिक और सामूहिक सुख-शान्ति का—प्रगति-समृद्धि का पथ-प्रशस्त होता है, यह तथ्य सर्वमान्य है। आचार संहित में व्यतिरेक पड़ते हैं तो सर्वत्र असुरक्षा, आशंका और आतंक का वातावरण छा जाता है। इतना समझ लेने के बाद गहराई की एक सीढ़ी और उतरा जाय तो पता चलेगा कि यह सब कुछ मात्र सहयोग की वृत्ति को सुदृढ़ बनाने और उसके मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाने भर के लिये है। धर्मशास्त्र, अध्यात्म शास्त्र, आचार शास्त्र, समाज शास्त्र, दर्शन शास्त्र आदि मानवी चेतना को प्रभावित करने वाली सभी चिन्तन धाराएं मिल-जुलकर एक ही घेराबन्दी करती हैं कि मनुष्य पारस्परिक सहयोग की दिशा में अधिक उत्साह के साथ अग्रसर हो और इस मार्ग में जितने भी व्यवधान आते हैं, उन्हें हटाने के लिये पूरी तरह सचेष्ट रहे।
सारा विश्व एक शरीर
मनुष्य ही क्यों समस्त विश्व की अन्य इकाइयां भी आपस में और एक दूसरे से सहयोग सहकार बरत कर ही अपने अस्तित्व की रक्षा तथा उसका विकास करती हैं। एक शरीर में विद्यमान भिन्न-भिन्न अंगों का महत्व और उपयोगिता उनके सामर्थ्यगत स्वरूप के कारण है। उंगली, हथेली, हाथ-पैर, पेट, छाती, गर्दन, सिर आदि अंग अलग-अलग कट पीट कर बेजान अंग ही रह जायेंगे उनसे न कोई काम किया जा सकता है तथा न उनकी कोई महत्ता सिद्ध होती है।
इन तमाम अंगों की महत्ता तभी तक है जब तक कि वह शरीर में जुड़े रहें। समस्त विश्व को यदि एक शरीर कहा जाय तो उसमें मनुष्य का स्थान एक उंगली के बराबर ही समझा जा सकता है। उंगली का महत्व तभी तक है जब तक कि वह शरीर के साथ जुड़ी हुई है।
असंख्य आत्माओं में जगमगाने वाली चेतना की ज्योति का केन्द्र एक ही है। पानी की प्रत्येक लहर पर एक अलग सूर्य चमकता है, पर वस्तुतः वह एक ही सूर्य की अनेक प्रतिच्छवियां हैं। समुद्र की हर लहर का अस्तित्व भिन्न दिखाई पड़ने पर भी वस्तुतः वे विशाल सागर की हिलोरें ही हैं। इस समस्त विश्व में केवल एक ही समष्टि आत्मा है—जिसे परमात्मा के नाम से पुकारते हैं। सबमें वही प्रतिभाषित हो रहा है। माला की मणियों के मध्य पिरोये हुए धागे की तरह प्रथक दीखने वाले प्राणियों को परस्पर एक सूत्र में बांधे हुए है।
इस बन्धन में बंधे रहना ही श्रेयस्कर है। समग्र का परित्याग कर जब हम प्रथक होते हैं, अपने अहंकार की पूर्ति के लिए अपना वर्चस्व प्रकट करने और अलग रहकर अधिक सुविधा प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं तब हम भारी भूल करते हैं। पाते कुछ नहीं खोते बहुत हैं। समग्रता के वैभव से लाभान्वित होनक की सुविधा खो बैठते हैं और एकाकीपन के साथ मिलने वाली तुच्छता—हर दृष्टि से अपर्याप्त सिद्ध होती है।
उंगली हाथ से अलग कट कर रहने की तैयारी करते समय यह सोचती है कि मैं क्यों सारे दिन हाथ का आदाब बजाऊं, क्यों उसके इशारे पर नाचूं। इसमें मेरा क्या लाभ? मेरे परिश्रम और वर्चस्व का लाभ मुझे क्यों न मिले? यह अलग रहकर ही हो सकता है। इसलिए अलग ही रहना चाहिए। अपने श्रम और उपार्जन का लाभ स्वयं ही उठाना चाहिए। यह सोच कर हाथ से कटकर अलग रहने वाली उंगली कुछ ही समय में देखती है कि उसका अनुमान गलत था। शरीर के साथ जुड़े रहने पर उसे जो जीवनदाता रक्त मिलता था वह मिलना बन्द हो गया। उसके अभाव में वह सूख कर सड़ गई। उस सड़े टुकड़े को दूने में भी लोगों ने परहेज किया जब कि हाथ के साथ जुड़े रहने पर वह भगवान का पूजन करती थी। हाथ मिलाते समय बड़ों के स्पर्श का आनन्द लेती थी। महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखती थी। बड़े काम करने का श्रेय प्राप्त करती थी। पृथक होने के साथ-साथ वह सारी सुविधायें भी समाप्त हो गईं। उंगली नफे में नहीं घाटे में रही।
फूल का अपना अलग भी महत्व है पर वह नहीं जो माला में गुंथे रहने पर होता है। एकाकी फूल किसी महापुरुष या देवता के गले में नहीं लिपट सकता। यह आकांक्षा तो सूत्रात्मा को आत्म समर्पण कर माला में गुंथने के बाद ही पूरी हो सकती है। व्यक्तिवादी, एकाकी स्वार्थी—संकीर्ण मनुष्य समूह गत चेतना से अपने को अलग रखने की सोच सकता है। अपने ही लाभ में निमग्न रह सकता है—दूसरों की उपेक्षा कर सकता है—उन्हें क्षति पहुंचा सकता है और इस प्रकार अपने उपार्जन को—शोषणात्मक उपलब्धियों को अपने लिए अधिक मात्रा में संग्रह कर सकता है। पर अन्ततः यह दृष्टिकोण अदूरदर्शिता पूर्ण सिद्ध होता है। प्रथकता के साथ जुड़ी हुई दुर्बलता उसे उन सब लाभों से वंचित कर देती है, जो समूह का अंग बनकर रहने से ही मिल सकते थे।
समुद्र की हर लहर अपना सरंजाम अलग खड़ा करें तो वे तनिक जल के रूप में बिखर जायेंगी और ज्वार-भाटे के समय जो उनका गौरव देखकर लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे उससे उन्हें वंचित ही रहना पड़ेगा। नौकाओं को पलट देने की शक्ति—गरजती हुई ध्वनि फिर उनमें कहां रहेगी। किसी गड्ढे में पड़ी सूख जायेंगी। अपने स्वरूप को भी स्थिर न रख सकेंगी। सूखने के बाद उनका अस्तित्व उनकी सरसता की चर्चा का अस्तित्व भी मिटा देगा। वहां सूखा नमक भर श्मशान की राख की तरह पड़ा होगा? लहरें समुद्र से पृथक अपने अस्तित्व का स्वतन्त्र निर्माण करने की—एषणा महत्वाकांक्षा के आवेश में भटकने का ही उपक्रम करती हैं। लाभ के लोभ में घाटा ही वरण करती हैं। ईंटों के समन्वय से भवन बनते हैं। बूंदों के मिश्रण से बादल बनते हैं। परमाणुओं का सहयोग पदार्थ की रचना करता है। अवयवों का संगठित स्वरूप शरीर है। पुर्जों की घनिष्ठता मशीन के रूप में परिणत होती है। पंच तत्वों से मिलकर यह विश्व सृजा है। पंच प्राण इस काया को जीवित रख रहे हैं। दलबद्ध योद्धा ही समर्थ सेना है। कर्मचारियों का गठित स्वरूप ही सरकार चलाता है। यदि इन संघटकों में पृथकतावादी प्रवृत्ति पनपे और डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग अलग पकने लगे तो जो कुछ महान दिखाई पड़ता है तुच्छ में बदल जायगा।
तुच्छता अपना अस्तित्व तक बनाये रख सकने में असमर्थ है। प्रगति भी पारस्परिक सहयोग पर निर्भर है। दूसरों को पीछे छोड़कर एकाकी आगे बढ़ जाने की बात सोचने वाले—उन संकटों से अपरिचित रहते हैं जो एकाकी के अस्तित्व को ही संकट में डाल सकते हैं। उंगली हाथ से कटकर अलग से अपने बलबूते पर प्रगति करने की कल्पना भर कर सकती है। व्यावहारिक क्षेत्र में उतरने पर कड़ुई सच्चाई सामने आती है कि पृथकता लाभदायक दीखती भर है वस्तुतः लाभदायक तो सामूहिकता ही है।
एक ही आत्मा सबमें समाया हुआ है। इस तथ्य को गम्भीरता पूर्वक समझना चाहिए और एक ही सूर्य की असंख्य लहरों पर चमकने के पीछे सन्निहित वस्तुस्थिति पर ध्यान देना चाहिए। हम सब परस्पर सघनता पूर्वक एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। मानवीय प्रगति का गौरवशाली इतिहास उसकी सामूहिक प्रवृत्ति का ही सत्परिणाम है। बुद्धि का विकास भी सामूहिक चेतना के फलस्वरूप ही सम्भव हुआ है। बुद्धि ने सामूहिकता विकसित नहीं की, सहयोग की वृत्ति ने बुद्धि का विकास सम्भव किया है। सामूहिकता का अर्थ है सहयोग। यों उसका मखौल तो कागजी संस्थाएं खड़ी करके भी लोग उड़ाते रहते हैं, उससे विनोद कौतूहल भर होता है, कोई बड़ा प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। शक्ति तो सहयोग के बल पर उत्पन्न होती है। बिजली के ठण्डे गर्म तार अलग-अलग पड़े रहें तो वे व्यर्थ हैं, पर जब वे मिल जाते हैं तो ‘करेन्ट’ चालू हो जाता है। एकाकी व्यक्ति की अपनी थोड़ी-सी सीमा मर्यादा है, अपने बलबूते पर भी कुछ तो हो ही सकता है, पर वह होगा नगण्य ही। बड़ी सम्भावना तो सम्मिलित शक्ति के द्वारा ही मूर्तिमान होती है। एक-एक सैनिक अलग-अलग फिरे तो उनके छुट-पुट कार्य एक सुगठित सैन्य टोली जैसे नहीं हो सकते।
विकास ही नहीं आनन्द का भी आधार
कई तरह की योग्यताएं मिल-जुलकर अपूर्णता को पूर्ण करती हैं। परिवार को ही लें उसमें कई स्तर के—कई विशेषताओं के मनुष्य मिल-जुलकर रहते हैं तो एक अनोखे आनन्द का सृजन करते हैं। पति-पत्नी की योग्यताएं भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं, जब वे मिल जुलकर एक हो जाते हैं तो दोनों को ही लाभ होता है, दोनों ही अपने अभावों की पूर्ति करते हैं। वृद्धों का अनुभव, बालकों का विनोद, उपार्जनकर्त्ताओं का धन आदि मिलकर ऐसा सन्तुलन बनता है जिसमें परिवार के सभी सदस्यों का हित साधन होता है। सभी एक दूसरे का—सहयोग का लाभ उठाते हुए आनन्द में रहते और उत्साह पाते हैं किन्तु यदि परिवार के सदस्यों में सहयोग न हो, मात्र एक सराय में रहने वाले अजनबी मुसाफिरों की तरह निर्वाह करें, तो उनका असहयोग और मनोमालिन्य उस समूह को आनन्द रहित, नीरस और समस्याओं से भरा हुआ बना देंगे और उसका बिखर जाना ही श्रेयस्कर प्रतीत होगा।
पारस्परिक सहयोग की अविच्छिन्न प्रक्रिया ही विकास का ही नहीं आनन्द का भी आधार है। भौतिक जगत में पग पग पर इस तथ्य को अनुभव किया जा सकता है। परमाणु जिसे सबसे छोटी इकाई माना जाता है एकाकी नहीं है वरन् न्यूट्रोन प्रोटोन आदि अपने सहयोगियों के आधार पर ही सृष्टि का क्रिया कलाप संचालित किये रह सकने में समर्थ होता है। आकाश में ग्रह नक्षत्र पारस्परिक आकर्षण में जकड़े रहने के कारण ही आकाश में अधर लटके हुए हैं। पंच तत्वों का सम्मिश्रण यदि न हो तो इस विश्व का अस्तित्व ही प्रकाश में न आये। हर कोई जानता है कि विवाह बंधन के साथ कितने उत्तरदायित्व, बन्धन और कर्त्तव्य जुड़े हुए हैं। उन्हें निबाहते निबाहते आदमी का कचूमर निकल जाता है। नारी को प्रसव की विकट पीड़ा, शिशु पालन का कठिनतम कार्य और पति तथा ससुराल वालों को प्रसन्न रखने में लगभग आत्म समर्पण जैसी तपस्या करनी पड़ती है। नर को भी कम भार वहन नहीं करना पड़ता। इन कठिनाइयों से परिचित होते हुए भी हर कोई विवाह की आशा लगाये बैठा रहता है और वैसा अवसर आते ही हर्षोल्लास अनुभव करता है। जिन दाम्पत्य जीवन में सघन आत्मीयता विकसित होती है उन्हें वह पारस्परिक सान्निध्य स्वर्गोपम प्रतीत होता है अगणित कठिनाइयों को वहन करते हुए भी हर घड़ी आनन्द उमड़ता रहता है। यह सब देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि व्यक्तियों की आत्मिक घनिष्ठता कितनी तृप्ति और कितनी शांति प्रदान करती है।
पति पत्नी का तो ऊपर उदाहरण मात्र दिया गया है। रिश्ते कुछ भी क्यों न हों-पुरुष पुरुष-और नारी नारी के बीच भी ऐसी आंतरिक सघनता हो सकती है। उस मित्रता को किसी भी रिश्ते का नाम दिया जा सकता है। यही ‘प्रेम’ है। प्रकृति के अनुरूप व्यक्तियों से आरम्भ होकर यह मनुष्य समाज—प्राणि मात्र और तदन्तर विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त जड़ चेतन में प्रेम फैलता विकसित होता चला जाता है। आनन्द का उद्भव और विस्तार वही से होता है। अन्तःकरण की कोमलता, मृदुलता, सरलता और सरसता ही वस्तुतः मानव जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा हैं, जो स्नेह सिक्त हैं, जो प्रेमी है, जो सहृदय और उदार है उसे ही आत्मिक विभूतियों से सुसम्पन्न सिद्ध पुरुष कहना चाहिए। ऐसा व्यक्ति ही महा मानव, देवदूत और दिव्य सत्ता सम्पन्न कहलाता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग जिसे प्राप्त हो गया, समझना चाहिए कि उसने पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर लिया। अभाव तो एकाकीपन में ही है।
माता के उदर में रखे बिना, अपना रक्त, मांस दिये बिना, दूध पिलाये और पालन किये बिना भ्रूण की जीवन प्रक्रिया गतिशील नहीं हो सकती। बालक भोजन, वस्त्र आदि की सुविधायें स्वयं उपार्जित नहीं कर सकता उसे इसके लिए अभिभावकों की सहायता अभीष्ट होती है। छात्र अपने आप पढ़ तो सकता है पर उसे पुस्तक, फीस आदि का खर्च पिता से और शिक्षण सहयोग अध्यापक से प्राप्त करना पड़ता है इसके बिना उसका शिक्षा क्रम मात्र एकाकी पुरुषार्थ से नहीं चल सकता। माता-पिता अपनी सन्तान का पालन-पोषण करते हैं वे बच्चे बड़े हो जाने पर अपने बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी उठाते हैं। यही क्रमानुगत परम्परा चलती रहती है। अध्यात्म मार्ग की प्रगति प्रक्रिया भी इसी प्रकार चलती है। गुरु अपने शिष्य को अपनी तप पूंजी प्रदान करता है तदुपरान्त शिष्य भी उसे अपने लिये दाबकर नहीं बैठ जाता वरन् उस परम्परा को अग्रगामी रखते हुए अपने छात्रों की सहायता करता है।
प्रकृति के विभिन्न क्रिया-कलापों को देखें तो उनमें भी सहयोग और सहकार के आधार पर ही सामंजस्य स्थिर हुआ दिखाई देता है। समुद्र बादलों को देता है—बादल जमीन को देता है—जमीन नदियों के द्वारा उस जल को पुनः समुद्र में पहुंचा देती है। यही काम विश्व की स्थिरता और हरीतिमा—शांति और शीतलता का आधार है।
संघर्ष नहीं सहयोग ही आगे बढ़ाता है
वर्तमान मनुष्य की सभी आवश्यकतायें आकांक्षायें यह अपेक्षा करती हैं कि दूसरों का समुचित सहयोग प्राप्त हो। यदि वह उपलब्ध न होगा तो कोई कितना ही बुद्धिमान या साधन सम्पन्न क्यों न हो एक कोने में ही पड़ा सड़ा रहेगा। संघ शक्ति को इस युग की सबसे बड़ी शक्ति माना गया है। पारस्परिक सहयोग के आधार पर मिलजुल कर किये गये काम चाहे वैयक्तिक लाभ के हों अथवा सामूहिक लाभ के क्रमशः सफल होते चले जायेंगे।
इसके विपरीत जहां सहकारिता का—सहयोग सद्भाव का अभाव होगा वहां प्रगति का चक्र उतना ही लड़खड़ाता जायेगा। दुर्भाग्य से इन दिनों यह समझा जाने लगा है कि संघर्ष के द्वारा ही अभीष्ट लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है। उपयोगिता पर आधारित अपनी आवश्यकताओं-लक्ष्यों को प्राप्त करने की मान्यता के कारण संघर्ष को इन दिनों बहुत महत्व दिया जाता है। लड़ झगड़कर अपना अभीष्ट लाभ प्राप्त करने की बात सोची जाती है। गुण्डागर्दी और आतंकवाद के आधार पर जल्दी अधिक लाभ मिलने की बात सूझती है और लड़ाकूपन का परिचय देकर शूर-वीर कहलाने की इच्छा रहती है। यहां ध्यान रखने की बात इतनी ही है कि लड़ाई अपवाद है आवश्यकता नहीं। उसकी उपयोगिता उतनी ही है जितनी आटे में नमक। अवांछनीय परिस्थितियों से निपटने के लिए उसे कभी-कभी ही काम में लाने की आवश्यकता पड़ती है और पड़नी भी चाहिए। यदि यह मात्रा बढ़ेगी तो यह संघर्षशीलता सामने वाले की अपेक्षा आक्रमणकर्त्ता का ही अधिक अहित करेगी।
अलबर्ट का मनोविज्ञान वस्तुतः मानवीय चेतना का मनोविज्ञान न होकर पाशविक वृत्तियों का तोड़ा-मरोड़ा इतिहास मात्र है। वह कहता है—‘‘मनुष्य श्रेष्ठ पशु है (मैन इज दि सुपर एनिमल) अर्थात् मनुष्यों में जो पाशविक वृत्तियां हैं वह कोई दोष-दुर्गुण नहीं वरन् प्राकृतिक हैं।’’ और इस दृष्टि से उसकी जो भी स्वाभाविक आकांक्षायें हैं वह अनुचित नहीं हैं भले ही उसे उसके लिए अन्य प्राणियों का भी शोषण और उत्पीड़न करना पड़ता है। जो जितना उपयोगी है वह उतने ही अधिक अधिकारों का पात्र है भले ही इस स्वायत्ता का उपयोग वह अपने निजी सुख और स्वार्थों के लिए करता हो। उपयोगितावाद की यह संक्षिप्त व्याख्या हुई। आज योरोप ही नहीं संसार के प्रायः सभी देशों के पढ़े-लिखे लोग इसी मान्यता का आचरण व्यवहार कर रहे हैं, भले ही कहने सुनने को उनके सिद्धान्त चाहे कितने ही आदर्शवादी क्यों न हों।
उपयोगिता का समर्थन भी जिस ढंग से किया गया है वह कम हास्यास्पद नहीं। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है इसलिये कम शक्ति वालों का शोषण कोई पाप नहीं, एक प्राकृतिक प्रक्रिया हुई। जीव-हिंसा, पशु-उत्पीड़न और बढ़ता हुआ मांसाहार इसी दुष्ट सिद्धान्त की देन है। इस मान्यता का प्रतिपादन है कि—‘‘जो अधिक ताकतवर होता है वही बन्दर अपने समूह का मुखिया होता है।’’ खरगोश, हिरन, भेड़ और बकरियों की शक्ति न्यूनतम है उन्हें भेड़िये, बाघ, शेर और चीते आदि शक्तिशाली जन्तु खा जाते हैं। यदि सहयोग, सादगी, सहानुभूति और सदाचार ईश्वरीय आदेश हुये होते तो शाकाहारी भेड़ें और बकरियां कमजोर न होतीं और न ही वह हिंसक जन्तुओं द्वारा भक्षण कर ली जातीं। बड़ा वृक्ष अपने घेरे में दूसरे वृक्ष को पनपने नहीं देता। हर शक्तिशाली, कम शक्ति वाले को खा जाता है तो यह कोई दोष नहीं।
उपयोगितावाद सच पूछा जाये तो शक्तिवाद—‘‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’’ और सामन्तवाद का ही दूसरा नाम है। इस सिद्धान्त ने ही संसार को नास्तिक और स्वच्छन्दतावादी बनाया है। भावनाओं का अन्त इस सिद्धान्त ने ही किया है। ठीक भी है जहां केवल शक्ति और उपयोगिता को ही महत्व देना हुआ वहां परस्पर प्रेम, उदारता, सहयोग, सौजन्य, स्नेह, सामूहिकता का क्या मूल्य रहा? जहां उत्कृष्टता की भावनायें न होंगी वहां क्यों तो व्यवस्था रहेगी और क्यों विश्व-शान्ति जिन्दा रहेगी। आज उपर्युक्त प्रकार की मान्यताओं के कारण ही सारा विश्व अशान्ति-असन्तोष, कलह-क्लेश और शोषण के जाल में उलझता चला जा रहा है।
वस्तुतः संघर्ष एक दुर्घटना मात्र है। जो अनावश्यक विकृतियां अथवा अवांछनीय असावधानियां एकत्रित होने के फलस्वरूप ही प्रस्तुत होती है। अनौचित्य की प्रतिक्रिया को संघर्ष कहा जा सकता है। यह प्रकृति नहीं विकृति है। सृष्टि संचालन प्रकृति करती है, विकृतियां तो केवल अवरोध उत्पन्न करती हैं। इसलिए उन्हें हटाने के लिये संघर्ष की आवश्यकता पड़ती है। इन्हें अपवाद कह सकते हैं। अवरोध सामान्य प्रवाह में व्यतिरेक उत्पन्न होने का काम है। व्यतिरेक सृजनात्मक उद्देश्य पूरा नहीं करते, उनसे सतर्कता की तीक्ष्णता भर पैदा होती है। शान चढ़ाने वाला पत्थर तलवार का प्रयोजन पूरा नहीं करता। तलवार तो मजबूत लोहे से बनती है। पत्थर तो धार तेज करने के काम भर आता है। संघर्ष को अधिक से अधिक धार तेज करने वाले पत्थर की संज्ञा दी जा सकती है।
सहयोग वह तथ्य है जिस पर प्रगति की समस्त सम्भावनायें आधारित हैं। मानव जाति की प्रगति का इतिहास यदि एक शब्द में कहना हो तो उसे पारस्परिक सहयोग ही कह सकते हैं। दुर्बलकाय एक बन्दर वंशीय नगण्य से प्राणी को सृष्टि का मुकुट मणि बना देने का श्रेय उसकी सहकारी मनोवृत्ति को ही दिया जा सकता है। यों लोगों को यह कहते भी सुना जाता है कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता मननशीलता ने उसे प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाया है, पर यह बात सही नहीं है। तथ्य यह है कि सहयोग के आधार पर एक दूसरे के सहयोग के साथ घनिष्ठता स्थापित करते हुए पारस्परिक आदान-प्रदान का क्रम चला और उससे मस्तिष्कीय विकास का द्वार खुला।
बोलना, सोचना, पढ़ना लिखना, कृषि, पशुपालन, अग्नि उपयोग उपकरण निर्माण, वस्त्राच्छादन आदि उपलब्धियों को प्रगति का आरम्भिक चरण माना जाता है, इन्हीं सीढ़ियों पर चढ़ते हुए मनुष्य ने आगे बढ़ने और ऊंचे उठने की राह पाई है। यह सब किसी एक मनुष्य के प्रयास का फल नहीं है। इसमें सहस्रों वर्ष लगे हैं और एक के अनुभव का दूसरे ने लाभ उठाया है। एक की उपलब्धियां दूसरे ने सीखी हैं और जो मार्ग मिला उस पर क्रमशः आगे कदम बढ़ाया है। आज हम जहां हैं वहां तक पहुंचने की लम्बी मंजिल इसी प्रकार पार हुई है।
परिवार निर्माण की सारी आधार शिला पारस्परिक सहयोग पर रखी हुई है। पति-पत्नी के बीच सन्तान, अभिभावक के बीच, बाई-बहिन के बीच जो घनिष्ठता पाई जाती है, उसमें स्वार्थ साधन की मात्रा स्वल्प और एक दूसरे के साथ उदार सहयोग करने की मात्रा अधिक रहती है। यदि स्वार्थ सिद्धि की ही प्रधानता रहती तो वे सम्बन्ध क्षणिक रहते तात्कालिक स्वार्थ सिद्धि होते ही बिखर जाते। निम्नकोटि के प्राणियों में ऐसा ही होता है। उनका पारिवारिक सहयोग अत्यन्त स्वल्प रहता है। कामोन्माद के कारण नर मादा कुछ ही क्षणों के लिए पति-पत्नी बनते हैं और वह आवेश उतरने ही दोनों अपरिचित बन जाते हैं। तनिक सा स्वार्थ व्यवधान पड़ने पर इस क्षण के पति-पत्नी अगले ही क्षण एक दूसरे पर प्राण घातक आक्रमण करने में नहीं चूकते। सन्तान को मादा सम्भालती है और वह भी तब तक जब तक वह अपने पैरों खड़ा नहीं हो जाता है। इसके बाद जब बच्चा स्वावलम्बी हो जाता है तो न माता को सन्तान से स्नेह रहता है और न सन्तान माता से कोई रिश्ता रखती है। बाप सन्तान पालन में यत्किंचित् ही सहयोग देता है। माता को प्रकृति ने यह क्षणिक वात्सल्य इसलिए दिया है कि उस प्राणी का वंश नष्ट न होने पावे। विवेकपूर्ण सहयोग के आधार पर इन प्राणियों का परिवार नहीं बनता यदि बना होता तो उसमें स्थिरता और सघनता का क्रम आगे भी चलता रहता। पर वैसा प्रायः देखने में नहीं आता। प्रायः इसलिये कहा गया है कि कुछ प्राणी सहयोग भावना से युक्त भी पाये जाते हैं। और उससे अपनी सुरक्षा का लाभ लेते हैं। किन्तु इन्हें अपवाद ही कहना चाहिए।
मनुष्य की विशेषता उसकी सहयोग परक सत्प्रवृत्ति ही है। उसी ने परिवार बसाये। उनमें सरसता और उदारता का समावेश किया। इससे कुटुम्ब का छोटा बड़ा हर सदस्य लाभान्वित हुआ। यह प्रवृत्ति आगे चलकर सामाजिकता के रूप में विकसित हुई। समाज व्यवस्था—शासन व्यवस्था की संरचना परिवार पद्धति की आचार संहिता के आधार पर ही बन सकी है। अर्थ तन्त्र का पूरा ढांचा सहकारिता ही है। वस्तुओं का उत्पादन और विनिमय वितरण क्रम ही धीरे-धीरे वर्तमान अर्थव्यवस्था तक बढ़ता आया है। शिल्प, चिकित्सा शिक्षा, कला-कौशल और विज्ञान के चरण यकायक नहीं उठे हैं। अमुक आविष्कार का श्रेय अमुक व्यक्ति को मिला यह दूसरी बात है, पर वस्तुतः सफल आविष्कार की पृष्ठभूमि बहुत पहले से ही बनने लगी थी और उसमें से अनेकों का चिन्तन एवं प्रयास जुड़ते हुए वह आधार बन सका था, जिसके सहारे उसे अन्तिम रूप से उद्घोषित किया गया। धर्म, दर्शन, अध्यात्म जैसी उच्चस्तरीय भावनात्मक चेतनाएं किसी एक व्यक्ति की कृति नहीं हैं। इनके क्रमिक विकास में अनेकानेक पीढ़ियों की सहस्राब्दियां नियोजित हुई हैं। यह सब सहयोग का ही परिणाम है।
संघर्ष और विघटन से अंततः विनाश
यदि पिछली पीढ़ी वाले अपनी ज्ञान सम्पदा अगली पीढ़ी को सौंप न जाते तो ज्ञान और सभ्यता का विकास वर्तमान शिखर को छू नहीं सकता था। क्योंकि संघर्ष दो व्यक्तियों—घटकों के आपसी सम्बन्ध सूत्रों को तोड़ता और उन्हें दूर हटाता है। इस विघटन के पीछे सर्वनाश ही जुड़ा रहता जबकि जीवन का उत्कर्ष और सौन्दर्य का आधार संगठन—सहयोग की दिव्य प्रवृत्तियों से जुड़ा है। छोटे-छोटे जीवकोषों से मिलकर यह शरीर बना है और नगण्य जितने नन्हे परमाणुओं का एकत्रीकरण विभिन्न वस्तुओं की संरचना कर सकने में समर्थ हुआ है।
ब्रह्माण्ड के ग्रह-नक्षत्र और उपग्रह परस्पर मिल-जुलकर ही इस अनन्त अन्तरिक्ष में अपनी सत्ता बनाये हुए हैं। यदि उनका विघटन हो जाय—एकाकी रहने के स्थिति आ जाय तो पारस्परिक आदान-प्रदान के आधार पर खड़ा हुआ संसार का सारा ढांचा ही चरमरा जाय। फिर ग्रह-नक्षत्रों की वह स्थिति न रहेगी जो आज है। एकाकी भटकने वाले उल्कापिण्ड अपनी सीमित शक्ति, सीमित स्थिति एवं सीमित कक्षा में किसी प्रकार जीवित रह भी सकें तो भी उनकी सारी विशेषता तो नष्ट ही हो जायेगी। वे मृतक पिण्ड मात्र बनकर रह जायेंगे। पारस्परिक आकर्षण की सघन श्रृंखला में बंधकर ही वे अपनी धुरी और अपनी कक्षा में भ्रमण कर रहे हैं। उनकी विशेषताओं का विनिमय ही उनमें हलचलें बनाये हुए है, अन्यथा वे हर दृष्टि से स्तब्ध हो जायेंगे उनका सारा पदार्थ अनन्त अन्तरिक्ष में धूलि बनकर बिखर जाएगा।
जीवाणुओं का विघटन ही मृत्यु है। जब तक शरीर के यह छोटे घटक मिल-जुलकर काम करते हैं—एक दूसरे के पूरक एवं सहयोगी बनकर रहते हैं तभी तक जीवन की सत्ता है। विघटन आरम्भ हो तो उसका परिणाम मृत्यु के रूप में सामने आ खड़ा होगा। पदार्थ कोई भी क्यों न हो परमाणुओं की अमुक स्थिति के ऊपर ही उनका अस्तित्व निर्भर है। संगठन क्रम में अव्यवस्था उत्पन्न होते ही वस्तुएं सड़ने-टूटने या नष्ट होने लगती हैं उनका स्वरूप देखते-देखते विकृत हो जाता है।
मनुष्य समाज की विकासोन्मुख स्थिति का एकमात्र आधार संगठन है। दाम्पत्य-जीवन में दो व्यक्तियों का सघन सहयोग कुटुम्ब का निर्माण करता है। मिल-जुलकर कई छोटे-बड़े व्यक्ति साथ-साथ रहें, इसी का नाम तो परिवार है। परिवारों का एक दूसरे के साथ सहयोग करना और पारस्परिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक आदान-प्रदान करना यही है समाज में विविध-विधि क्रिया-कलापों के संचालन की धुरी। सारा अर्थ तन्त्र इसी आधार पर खड़ा हुआ है। उत्पादन वितरण और विनिमय की पद्धति अपनाकर ही अनेकानेक उद्योगों का आविर्भाव हुआ है।
समाज के नियमोपनियम पालन करने की प्रवृत्ति ने स्थिरता एवं सुव्यवस्था को जन्म दिया है। भाषा, कला, संस्कृति, धर्म, अध्यात्म, शिक्षा, शासन, न्याय, विज्ञान, शिल्प उद्योग, चिकित्सा, यातायात आदि उस संसार को सुविकसित बनाने वाली स्थापनाएं ही मानवी प्रगति की आधार शिलाएं हैं। इनका आविष्कार और विकास तभी सम्भव हुआ जब मनुष्यों ने परस्पर मिल-जुलकर इस दिशा में अनवरत प्रयास करने का संकल्प किया और अपनी उपलब्धियों का लाभ अपने सहकालीन तथा उत्तराधिकारी अन्यान्य व्यक्तियों के हाथ में थमाया। यदि यह सम्भव न होता तो जिस बुद्धिमत्ता पर गर्व किया जाता है उसे प्राप्त कर सकना मनुष्य के लिए कदापि सम्भव न हुआ होता। अविकसित स्थिति में वन्य पशुओं की स्थिति में ही हमें रहना पड़ता यदि सहकारिता की प्रवृत्ति का दैवी वरदान साथ लेकर मानव प्राणी जन्मा न होता।
जो जातियां, जो देश, जो समाज, जो परिवार, जो वर्ग जिस हद तक संगठित होते हैं वे उसी अनुपात से समर्थ बनते, सफल होते और प्रगति करते देखते जाते हैं, प्रसन्न भी वे ही रहते हैं और श्रेय सम्मान भी उन्हीं को मिलता है। एकाकी व्यक्ति कितना ही समर्थ या सुयोग्य क्यों न हो आखिर रहेगा तो एक ही। एक की क्षमता निश्चित रूप से स्वल्प होती है। मेल-मिलाप से बनने वाला समूह ही विशिष्ट एवं समर्थ शक्ति के रूप में उन्नतिशील बनता है और बड़े प्रयोजनों को सिद्ध कर सकने में सफल होता है। इस तथ्य को मानवकाल के अद्यावधि इतिहास का कोई पृष्ठ उलटकर भली प्रकार जाना समझा जा सकता है। उत्थान और पतन के अगणित घटनाक्रमों में अन्य तथ्य भी अपना कार्य करते दिखाई पड़ेंगे, पर सर्वोपरि आधार यही रहा होगा कि लोगों में सहयोग की प्रवृत्ति किस सीमा तक रही। असहयोग की विषाक्तता पतन और पराजय के रूप में उभरी हुई कहीं भी देखी जा सकती है।
भगवान राम और कृष्ण ने अवतार लेकर लोक-शिक्षण के अनेकानेक आधार जन-साधारण के सम्मुख प्रस्तुत किये हैं। उनका प्राथमिक प्रतिपादन संगठन का ही है। भगवान राम ने लंका विजय की। उसमें प्रमुख योगदान रीछ, वानरों का उपलब्ध किया गया। इस क्रिया-कलाप में बताया गया कि न्याय पक्ष यदि संगठित हो जाय तो साधन और सामर्थ्य की मात्रा स्वल्प रहने पर भी विशालकाय विभीषिकाओं पर विजय प्राप्त की जा सकेगी। ठीक इसी प्रकार भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाते समय ग्वाल-बालों को लाठी लगाकर उस प्रयोजन में भाव भरा योगदान करने के लिए तैयार किया। महान प्रयोजन पूरा कर सकने में कोई अकेला व्यक्ति सफल नहीं हो सकता उसके पीछे संगठित जन-शक्ति होनी ही चाहिए। यही है गोवर्धन उठाने के प्रकरण का सारभूत निष्कर्ष।
पाण्डव पूर्ण समर्थ थे, कृष्ण भी कम बलवान नहीं थे। फिर भी महाभारत में कौरवों की विशाल सेना के समकक्ष प्रतिद्वन्दी सेना जुटाने के लिए भागीरथ प्रयत्न किये गये। संसार भर के भावनाशील लोगों को न्याय पक्ष का साथ देने के लिए सहमत किया गया। अनीति पक्ष के मुकाबले में लगभग उतनी ही बड़ी नीति समर्थक सेना खड़ी कर लेने से ही महाभारत सम्भव हुआ। यदि मात्र कृष्ण और पाण्डव लड़ने लगते तो सम्भव है युद्ध जीत जाते, पर महाभारत के माध्यम से संगठन की शक्ति को समझने-समझाने का महत्वपूर्ण प्रयोजन तो पूरा हो ही न पाता। असुर संहार से भी बढ़कर आवश्यकता देव संगठन की रहती है। उसके बिना शान्ति और प्रगति के स्वप्न साकार हो ही नहीं सकते।
विनोद भी एकांगी नहीं हो सकता, भावनात्मक उल्लास की अनुभूति भी छोटे वर्ग में सीमित रहकर नहीं हो सकती। रासलीला में गोप-गोपियों का सामूहिक हास-विलास यह बताया है कि ममता और आत्मीयता का क्षेत्र अधिकाधिक विस्तृत होना चाहिए। ‘‘अधिक लोगों का अधिक लाभ’’ वाला सिद्धान्त अध्यात्म, धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी प्रधानता प्राप्त है। सब में अपने को और अपने में सबको देखने समझने की दृष्टि रखकर मनुष्य का व्यक्तित्व अधिकाधिक विकसित एवं परिष्कृत बनता चला जाता है। आत्म-विस्तार की चरम अवधि तक जा पहुंचने का नाम ही आत्म-साक्षात्कार, ईश्वर दर्शन, जीवन-मुक्ति अथवा लक्ष्य प्राप्ति के आकर्षक नामों में अलंकारिक प्रतिपादनों के साथ प्रस्तुत किया गया है। संगठन का महत्व जितना अधिक और जितनी जल्दी समझा जा सके उतना ही लाभ है। ‘संघ-शक्ति कलौयुगे’ सूत्र में सार रूप में यही बताया गया है कि इस युग में संसार का सबसे बड़ा, मनुष्य का सबसे प्रखर बल संगठन ही है। जो उसके लिए प्रयत्नशील रहेगा वह सुखी बनेगा और जिसने इसकी अवज्ञा-उपेक्षा की उसे उसी की प्रतिगामिता चूर्ण-विचूर्ण करके रख देगी। संकीर्णता रत, विगठनवादी न पशुओं को सृष्टि के अवांछनीय तत्वों की तरह नियति का कोपभाजन ही बनना पड़ेगा। उन्हें पतन और पराभाव के गर्त में गिरकर न भ्रष्ट ही होना पड़ेगा।
संगठन के शाश्वत सत्य को इन दिनों तो और भी अधिक प्राथमिकता मिलनी चाहिये। मानव समाज की प्रस्तुत विश्व-व्यापी जटिल समस्याओं एवं विभीषिकाओं को हल करने के लिए जिन साधनों या उपायों की खोज की जा रही है वे अपर्याप्त हैं। अभी सफलता तो केवल मानवी एकता की समस्या का हल करने से ही सम्भव होगी। ज्ञान और विज्ञान की प्रगति ने दुनिया को इतना छोटा बना दिया है जितनी कि वह पहले कभी भी नहीं रही। अब विश्व के किसी भी कोने में घटित होने वाली घटनाएं समस्त संसार को प्रभावित करती है। द्रुतगामी वाहनों ने वर्षों की पैदल यात्रा को कुछ घण्टों की बनाकर रख दिया है। उद्योग, व्यवसाय, शिक्षा, कला, शिल्प आदि क्षेत्रों में देश एक दूसरे पर निर्भर होते चले जाते हैं। अरब देशों का तेल दूसरे देश न खरीदें अथवा बेचने वाले अपना विक्रय बन्द कर दें तो इसका परिणाम दोनों ही पक्षों के लिये भयंकर होगा। यही बात अन्यान्य आदान-प्रदानों के सम्बन्ध में लागू होती है।
साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, अधिनायकवाद के दिन अब लद गये। जन-चेतना इतनी प्रबल हो गई है कि निहित स्वार्थों द्वारा इन अनाचारों को थोपा जाना जनता द्वारा सहन नहीं किया जायगा। इसी प्रकार अनीति के विरुद्ध भड़कने वाले विद्रोह को भी अब सैन्य बल से दबाया जा सकना सम्भव नहीं रहा। यह प्रयोग तभी तक सफल होते हैं जब तक जन-जागृति नहीं होती और जनशक्ति नहीं उभरती। इन दिनों पिछड़े हुये और समुन्नत वर्गों के बीच खाइयां इतनी चौड़ी हो गई हैं कि उनके गर्त में अब तक की मानवी प्रगति को डूबते देन नहीं लगेगी।
रक्त विकृत हो जाने पर शरीर में खाज-खुजली, फोड़े-फुन्सी दाग-चिकत्ते ढेरों की संख्या में उगते हैं। एक-एक फुन्सी की दवादारू करते रहने से कुछ काम नहीं चलता। एक के अच्छे होने से पहले ही दूसरी नयी फुन्सियां उठ आती हैं। संसार के सामने प्रस्तुत अनेकानेक विभीषिकाओं को इन दिनों अलग-अलग उपायों से हल करने के प्रयत्न किये जा रहे हैं। स्वास्थ्य सुधार, शिक्षा संवर्धन, आजीविका उत्पादन, शस्त्र सैन्य आदि आधारों पर सर्वत्र ध्यान दिया जा रहा है। कई तरह की योजनाएं सोची, बनाई और चलाई जा रही हैं, पर परिणाम नहीं के बराबर ही निकलता है। गुत्थियां जितनी सुलझती हैं उससे कहीं अधिक उलझ जाती हैं। विभीषिकाएं हलकी होने के स्थान पर और भी अधिक ऊपर उभर आती हैं। रक्त की विकृति का निराकरण किये बिना फुन्सियों का उठना रुकेगा नहीं। विपत्तियों के मूल कारण को देखे, सम्भाले बिना विपत्तियां क्रमशः और भी अधिक सघन होती चली जायेंगी।
युग ने भौतिक क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति की है यह एक सर्वमान्य तथ्य है। पर यह हुई ऐसी ही है जैसा कि एक हाथ एक पैर का मोटा होना और दूसरे का पतला रह जाना। संगति के आध्यात्म तत्व को भी इसी क्रम से विकसित किया जाना चाहिए। आत्मीयता का—एकता का क्षेत्र इसी अनुपात से बढ़ाया जाना चाहिये। सन्तुलित प्रगति का लाभ उसी स्थिति में प्राप्त किया जा सकेगा।
समझा जाता है कि मनुष्य ने इस प्रकृति में अन्य सभी प्राणियों से अधिक उन्नति तथा विकास किया है। उस उन्नति और विकास के श्रेय उसकी बुद्धिमत्ता को दिया जाता है। मनुष्य की बुद्धिमत्ता को उसकी प्रगति का आधार मानने में कोई हर्ज भी नहीं है क्योंकि उसने बुद्धिबल से ही अन्य प्राणियों की तुलना में इतनी अधिक उन्नति की है जिससे सृष्टि का मुकुटमणि बन सकने का श्रेय उसे प्राप्त हो सका। इस मान्यता में यदि कुछ तथ्य है तो उसमें एक संशोधन यह और करना पड़ेगा कि बुद्धिमत्ता उसे सहकारिता के आधार पर ही उपलब्ध हुई है। क्या मनुष्य ने उन्नति अपनी मस्तिष्कीय विशेषता के कारण की है? मोटी बुद्धि ही इस मान्यता का अन्ध समर्थन कर सकती है। सूक्ष्म चिन्तन का निष्कर्ष यही होता है कि कोई न कोई आत्मिक सद्गुण ही उसके मस्तिष्क समेत अनेक क्षमताओं को विकसित करने का आधार हो सकता है। महत्वपूर्ण प्रगति न हो तो शरीर की संरचना के आधार पर सम्भव होती है और न मस्तिष्कीय तीक्ष्णता पर अवलंबित रहती है। उसका प्रधान कारण अन्तःकरण के कुछ भावनात्मक तत्व ही होते हैं। उन निष्ठाओं की प्रेरणा से इच्छा शक्ति जगती है, सक्रियता एवं तत्परता उत्पन्न होती हे, मस्तिष्क तथा शरीर के कलपुर्जे एक जुट होकर काम करते हैं और निष्ठा के अनुरूप दिशा में कदम तेजी से बढ़ाते चले जाते हैं। व्यक्ति सदा से इसी आधार पर ऊंचे उठते और नीचे गिरते रहे हैं।
मनुष्य की बुद्धिमत्ता, शारीरिक चेष्टा और प्रयत्न परायणता के मूल में जो अत्यन्त प्रेरक दिव्य प्रवृत्ति झांकती है उसे सहकारिता कह सकते हैं। वस्तुतः यही मानव प्राणी की सबसे बड़ी विशेषता है। अन्य प्राणियों में यह वृत्ति यत्किंचित् पाई तो जाती है, पर प्रायः वह शरीर समीपता तक ही सीमित रहती है। मानसिक आदान-प्रदान कर सकने योग्य उनकी स्थिति नहीं है। कुछ पशु-पक्षी, जोड़े बनाकर समूह में साथ-साथ रहने के अभ्यस्त तो होते हैं, इससे उन्हें सुरक्षा में सहायता मिलती है, कुछ और छोटे-मोटे शारीरिक आदान-प्रदान कर लेते हैं, पर मानसिक और भावनात्मक आदान-प्रदान उनसे बन नहीं पड़ता। सहकारिता वृत्ति का सीमित प्रयोग कर सकने के कारण ही अन्य प्राणी सृष्टि के आदि से लेकर अब तक जहां के तहां पड़े हैं, जबकि मनुष्य उस दिव्य प्रवृत्ति को अधिकाधिक विकसित करते हुये उन्नति के उच्च शिखर तक पहुंच सकने में सफल हो गया।
दो जड़ पदार्थ अथवा अविकसित प्राणी मिलकर दो की संख्या ही बनाते हैं। दो बैल मिलकर एक की अपेक्षा दूना वजन भी खींच सकते हैं। एक की अपेक्षा दो रुपये हों तो दूना सामान खरीदा जा सकता है। किन्तु भाव प्रधान मनुष्य प्राणी का जहां सघन सहयोग आरम्भ होगा वहां यह नियम बदल जायेगा और एक एक मिलकर ग्यारह की संख्या बन जायेगी। 1 और 1 के अंग नीचे ऊपर रहें तो उनका जोड़ 1 होगा किन्तु उन्हीं अंकों को बराबर लिख दें तो संख्या 11 बन जायेगी। अंग गणित का यही सिद्धान्त भाव प्रधान मनुष्य पर लागू होता है। दो बुद्धिमान चीते मिलकर वन की सुव्यवस्था बिगाड़ तो सकते हैं, पर बना नहीं पाते, क्योंकि भावनात्मक सहयोग के अभाव में वे एक दूसरे को नीचा दिखाने का ताना-बाना बुनने के अतिरिक्त कुछ कर नहीं सकते एक दूसरे से आत्म-रक्षा करने और आक्रमण का अवसर ढूंढ़ने के अतिरिक्त और वे कुछ सोच ही नहीं सकते। यदि सिंहों में—हाथियों में भावनात्मक एकता की—सहकारिता की वृत्ति रही होती और मनुष्य उस दिव्य अनुदान से वंचित रहा होता, तो निश्चित ही वे बलिष्ठ प्राणी संसार का शासन कर रहे होते और मनुष्य उनकी कृपा पाने के लिये लालायित रहता हुआ किसी प्रकार जिन्दगी के दिन पूरे कर रहा होता।
मानवी विकास के इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट है कि आदिम काल में वह अनगढ़ वानरों की तरह-सा पशु मात्र था। उनकी बुद्धि कुछ पैनी तो थी, पर उतने तीखे मस्तिष्क तो अन्य अनेक प्रार्थियों के भी पाये जाते हैं। चमगादड़, कुत्ता, चींटी, मधुमक्खी, मकड़ी जैसे प्रांतियों की इन्द्रिय शक्ति मनुष्य की तुलना में कहीं अधिक विकसित है और ऋतु परिवर्तन जैसी सूक्ष्म सम्भावनाओं को समझने की दृष्टि से कितने ही जी मनुष्य से आगे हैं। पर वे कोई खास विकास नहीं कर सके जबकि मनुष्य दिन-दूनी रात-चौगुनी प्रगति करता चला जाता है। तथ्यों की गहराई में प्रवेश करते हुए मनुष्य की एक ही सर्वोपरि विशेषता उभर कर आती है—सहकारिता की प्रवृत्ति। एक दूसरे के प्रति आत्मीयता की, ममता की सहायता की जो सद्भावनाएं उमड़ती हैं उसके समन्वय को सहकारिता कहते हैं उसमें आदान-प्रदान का—परस्पर मिल-जुलकर रहने का, मिल बांटकर खाने का व्यवहार अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है। यही है मानवी प्रगति का मूलमन्त्र। जहां भी इस प्रवृत्ति का जितना अधिक उपयोग हुआ है वहां उसी अनुपात से सर्वतोमुखी प्रगति का गति तीव्र हुई है। जहां इसकी जितनी न्यूनता रही है वहां उतनी ही मात्रा में जड़ता छाई रही है। संसार के अनेक क्षेत्रों में मनुष्य अभी भी आदिम अवस्था में पाये जाते हैं उनकी अवगति में भावनात्मक सहकारिता की न्यूनता ही प्रधान अवरोध बनकर खड़ी दृष्टिगोचर होती है।
आदिम काल में मनुष्य भी बन्दरों की तरह ही चीं-चीं बोलता था। उसने अपने मुंह से निकलने वाले कई शब्दों को अलग किया और हर उच्चारण के साथ एक जानकारी जोड़ी। यह उसकी बुद्धिमत्ता कहीं जा सकती है। इसमें चार चांद तब लगे जब उसने उच्चारण के साथ जुड़े हुए संकेतों की जानकारी दूसरे साथियों को कराई। यहां से शब्द विज्ञान का प्रवाह चल पड़ा। पीढ़ियों तक—सहस्राब्दियों तक इस दशा में प्रगति होती रही और आज हम उच्चारण क्षमता का पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं। आरम्भिक लिपि भी आड़ी-टेड़ी लकीरों के साथ अमुक जानकारियां जोड़ने के रूप में आरम्भ हुई पीछे अक्षरों का—स्वर-व्यंजनों का—अंक विद्या तथा रेखागणित का आविर्भाव हुआ और क्रमशः सर्वांगपूर्ण शिक्षा विज्ञान बनकर खड़ा हो गया। आज हमारी लेखनी और वाणी इतनी विकसित है कि उसके सुहाते अति महत्वपूर्ण जानकारियों का विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक आदान-प्रदान अति सरल हो गया है।
कृषि, पशुपालन, चिकित्सा, विज्ञान, शिक्षा, शिल्प, कला, व्यवसाय, उद्योग, परिवार, समाज, शासन आदि ज्ञान-विज्ञान की अगणित उपलब्धियां हमारे सामने प्रस्तुत हैं और हम देवोपम साधन सम्पन्नता का उपभोग कर रहे हैं। यह सारा वैभव-चमत्कार सहकारिता की सत्प्रवृत्ति का है। एक आदमी दूसरे के साथ सघन आत्मीयता स्थापित न करता—दूसरों के सुख-दुख में भागीदारी करने में उत्साह न रहता तो सहयोग की इच्छा ही न उठती और आदान-प्रदान का सिलसिला न चलता। इस स्थिति से उस प्रगति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है जिनके कारण मनुष्य जीवन को सुरदुर्लभ अनुभूतियों से भरा-पूरा माना जाता है। यथार्थता यह है कि सहयोग और उत्कर्ष एक दूसरे पर पूरी तरह निर्भर हैं। एक के बिना दूसरे की न आशा की जा सकती है और न सम्भावना ही बनती है।
एकाकी मनुष्य जीवित भर रह सकता है। उल्लास एवं उत्कर्ष के लिये उसे साथी ढूंढ़ने पड़ते हैं और समूह में रहने की व्यवस्था जुटानी पड़ती है। इसके अतिरिक्त स्नेह, सद्भावना, आत्मीयता एवं घनिष्ठता के इतने गहरे पुट लगाने पड़ते हैं कि एक दूसरे के लिये तत्पर रहें। दूसरे के दुःख उत्सर्ग हेतु बंटाने और अपने सुख को दे डालने में प्रसन्नता अनुभव करें। ऐसी स्थिति जो जितनी अधिक और जितने अच्छे स्तर की बना सकता है वह उतना ही सुखी, समुन्नत एवं सुसंस्कृत पाया जाता है। अनेकानेक सद्गुण इसी सहयोग रूपी कल्पवृक्ष के पत्र-पल्लव समझे जा सकते हैं। जिनका जितना ध्यान इस प्रवृत्ति को विकसित करने वाले आधार खड़े करने की ओर है वे अपनी, अपने सम्पर्क परिकर की उतनी ही महत्वपूर्ण सेवा कर रहे होते हैं।
मनुष्य जन्मजात रूप से बुद्धिमान नहीं होता। पशुओं के बच्चे बिना सिखाये माता के थन और अपनी खुराक आप ढूंढ़ लेते हैं जबकि मनुष्य का बच्चा कई वर्ष का होने तक पेट भरने तक में पराश्रित रहता है। भेड़ियों की मांद में पाया गया तीन वर्षीय रामू भेड़ियों की तरह ही चलता, बोलता, खाता सोता है। शिकारियों ने उसे पकड़ा और लखनऊ मेडीकल कॉलेज में उसके सुधार का उपक्रम हुआ तो भी वह मनुष्य सभ्यता को बहुत थोड़ा ही अपना सका। यदि जन्म-जात बुद्धिमत्ता मनुष्य को मिली होती तो घने जंगलों में रहने वाले पिछड़े हुये आदिवासी अपनी सहज वृत्ति से अन्य लोगों की तरह सभ्य हो गये होते। वस्तुतः मनुष्य को बुद्धिमत्ता सहित जितनी भी उपलब्धियां मिली हैं उन सबकी जननी सहकार प्रवृत्ति ही है।
धर्म और अध्यात्म का सारा कलेवर वैयक्तिक और सामाजिक नैतिकता को अधिकाधिक परिष्कृत करने के लिये खड़ा किया गया है। नीतिशास्त्र की मर्यादाओं में बंध कर ही वैयक्तिक और सामूहिक सुख-शान्ति का—प्रगति-समृद्धि का पथ-प्रशस्त होता है, यह तथ्य सर्वमान्य है। आचार संहित में व्यतिरेक पड़ते हैं तो सर्वत्र असुरक्षा, आशंका और आतंक का वातावरण छा जाता है। इतना समझ लेने के बाद गहराई की एक सीढ़ी और उतरा जाय तो पता चलेगा कि यह सब कुछ मात्र सहयोग की वृत्ति को सुदृढ़ बनाने और उसके मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाने भर के लिये है। धर्मशास्त्र, अध्यात्म शास्त्र, आचार शास्त्र, समाज शास्त्र, दर्शन शास्त्र आदि मानवी चेतना को प्रभावित करने वाली सभी चिन्तन धाराएं मिल-जुलकर एक ही घेराबन्दी करती हैं कि मनुष्य पारस्परिक सहयोग की दिशा में अधिक उत्साह के साथ अग्रसर हो और इस मार्ग में जितने भी व्यवधान आते हैं, उन्हें हटाने के लिये पूरी तरह सचेष्ट रहे।
सारा विश्व एक शरीर
मनुष्य ही क्यों समस्त विश्व की अन्य इकाइयां भी आपस में और एक दूसरे से सहयोग सहकार बरत कर ही अपने अस्तित्व की रक्षा तथा उसका विकास करती हैं। एक शरीर में विद्यमान भिन्न-भिन्न अंगों का महत्व और उपयोगिता उनके सामर्थ्यगत स्वरूप के कारण है। उंगली, हथेली, हाथ-पैर, पेट, छाती, गर्दन, सिर आदि अंग अलग-अलग कट पीट कर बेजान अंग ही रह जायेंगे उनसे न कोई काम किया जा सकता है तथा न उनकी कोई महत्ता सिद्ध होती है।
इन तमाम अंगों की महत्ता तभी तक है जब तक कि वह शरीर में जुड़े रहें। समस्त विश्व को यदि एक शरीर कहा जाय तो उसमें मनुष्य का स्थान एक उंगली के बराबर ही समझा जा सकता है। उंगली का महत्व तभी तक है जब तक कि वह शरीर के साथ जुड़ी हुई है।
असंख्य आत्माओं में जगमगाने वाली चेतना की ज्योति का केन्द्र एक ही है। पानी की प्रत्येक लहर पर एक अलग सूर्य चमकता है, पर वस्तुतः वह एक ही सूर्य की अनेक प्रतिच्छवियां हैं। समुद्र की हर लहर का अस्तित्व भिन्न दिखाई पड़ने पर भी वस्तुतः वे विशाल सागर की हिलोरें ही हैं। इस समस्त विश्व में केवल एक ही समष्टि आत्मा है—जिसे परमात्मा के नाम से पुकारते हैं। सबमें वही प्रतिभाषित हो रहा है। माला की मणियों के मध्य पिरोये हुए धागे की तरह प्रथक दीखने वाले प्राणियों को परस्पर एक सूत्र में बांधे हुए है।
इस बन्धन में बंधे रहना ही श्रेयस्कर है। समग्र का परित्याग कर जब हम प्रथक होते हैं, अपने अहंकार की पूर्ति के लिए अपना वर्चस्व प्रकट करने और अलग रहकर अधिक सुविधा प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं तब हम भारी भूल करते हैं। पाते कुछ नहीं खोते बहुत हैं। समग्रता के वैभव से लाभान्वित होनक की सुविधा खो बैठते हैं और एकाकीपन के साथ मिलने वाली तुच्छता—हर दृष्टि से अपर्याप्त सिद्ध होती है।
उंगली हाथ से अलग कट कर रहने की तैयारी करते समय यह सोचती है कि मैं क्यों सारे दिन हाथ का आदाब बजाऊं, क्यों उसके इशारे पर नाचूं। इसमें मेरा क्या लाभ? मेरे परिश्रम और वर्चस्व का लाभ मुझे क्यों न मिले? यह अलग रहकर ही हो सकता है। इसलिए अलग ही रहना चाहिए। अपने श्रम और उपार्जन का लाभ स्वयं ही उठाना चाहिए। यह सोच कर हाथ से कटकर अलग रहने वाली उंगली कुछ ही समय में देखती है कि उसका अनुमान गलत था। शरीर के साथ जुड़े रहने पर उसे जो जीवनदाता रक्त मिलता था वह मिलना बन्द हो गया। उसके अभाव में वह सूख कर सड़ गई। उस सड़े टुकड़े को दूने में भी लोगों ने परहेज किया जब कि हाथ के साथ जुड़े रहने पर वह भगवान का पूजन करती थी। हाथ मिलाते समय बड़ों के स्पर्श का आनन्द लेती थी। महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखती थी। बड़े काम करने का श्रेय प्राप्त करती थी। पृथक होने के साथ-साथ वह सारी सुविधायें भी समाप्त हो गईं। उंगली नफे में नहीं घाटे में रही।
फूल का अपना अलग भी महत्व है पर वह नहीं जो माला में गुंथे रहने पर होता है। एकाकी फूल किसी महापुरुष या देवता के गले में नहीं लिपट सकता। यह आकांक्षा तो सूत्रात्मा को आत्म समर्पण कर माला में गुंथने के बाद ही पूरी हो सकती है। व्यक्तिवादी, एकाकी स्वार्थी—संकीर्ण मनुष्य समूह गत चेतना से अपने को अलग रखने की सोच सकता है। अपने ही लाभ में निमग्न रह सकता है—दूसरों की उपेक्षा कर सकता है—उन्हें क्षति पहुंचा सकता है और इस प्रकार अपने उपार्जन को—शोषणात्मक उपलब्धियों को अपने लिए अधिक मात्रा में संग्रह कर सकता है। पर अन्ततः यह दृष्टिकोण अदूरदर्शिता पूर्ण सिद्ध होता है। प्रथकता के साथ जुड़ी हुई दुर्बलता उसे उन सब लाभों से वंचित कर देती है, जो समूह का अंग बनकर रहने से ही मिल सकते थे।
समुद्र की हर लहर अपना सरंजाम अलग खड़ा करें तो वे तनिक जल के रूप में बिखर जायेंगी और ज्वार-भाटे के समय जो उनका गौरव देखकर लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे उससे उन्हें वंचित ही रहना पड़ेगा। नौकाओं को पलट देने की शक्ति—गरजती हुई ध्वनि फिर उनमें कहां रहेगी। किसी गड्ढे में पड़ी सूख जायेंगी। अपने स्वरूप को भी स्थिर न रख सकेंगी। सूखने के बाद उनका अस्तित्व उनकी सरसता की चर्चा का अस्तित्व भी मिटा देगा। वहां सूखा नमक भर श्मशान की राख की तरह पड़ा होगा? लहरें समुद्र से पृथक अपने अस्तित्व का स्वतन्त्र निर्माण करने की—एषणा महत्वाकांक्षा के आवेश में भटकने का ही उपक्रम करती हैं। लाभ के लोभ में घाटा ही वरण करती हैं। ईंटों के समन्वय से भवन बनते हैं। बूंदों के मिश्रण से बादल बनते हैं। परमाणुओं का सहयोग पदार्थ की रचना करता है। अवयवों का संगठित स्वरूप शरीर है। पुर्जों की घनिष्ठता मशीन के रूप में परिणत होती है। पंच तत्वों से मिलकर यह विश्व सृजा है। पंच प्राण इस काया को जीवित रख रहे हैं। दलबद्ध योद्धा ही समर्थ सेना है। कर्मचारियों का गठित स्वरूप ही सरकार चलाता है। यदि इन संघटकों में पृथकतावादी प्रवृत्ति पनपे और डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग अलग पकने लगे तो जो कुछ महान दिखाई पड़ता है तुच्छ में बदल जायगा।
तुच्छता अपना अस्तित्व तक बनाये रख सकने में असमर्थ है। प्रगति भी पारस्परिक सहयोग पर निर्भर है। दूसरों को पीछे छोड़कर एकाकी आगे बढ़ जाने की बात सोचने वाले—उन संकटों से अपरिचित रहते हैं जो एकाकी के अस्तित्व को ही संकट में डाल सकते हैं। उंगली हाथ से कटकर अलग से अपने बलबूते पर प्रगति करने की कल्पना भर कर सकती है। व्यावहारिक क्षेत्र में उतरने पर कड़ुई सच्चाई सामने आती है कि पृथकता लाभदायक दीखती भर है वस्तुतः लाभदायक तो सामूहिकता ही है।
एक ही आत्मा सबमें समाया हुआ है। इस तथ्य को गम्भीरता पूर्वक समझना चाहिए और एक ही सूर्य की असंख्य लहरों पर चमकने के पीछे सन्निहित वस्तुस्थिति पर ध्यान देना चाहिए। हम सब परस्पर सघनता पूर्वक एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। मानवीय प्रगति का गौरवशाली इतिहास उसकी सामूहिक प्रवृत्ति का ही सत्परिणाम है। बुद्धि का विकास भी सामूहिक चेतना के फलस्वरूप ही सम्भव हुआ है। बुद्धि ने सामूहिकता विकसित नहीं की, सहयोग की वृत्ति ने बुद्धि का विकास सम्भव किया है। सामूहिकता का अर्थ है सहयोग। यों उसका मखौल तो कागजी संस्थाएं खड़ी करके भी लोग उड़ाते रहते हैं, उससे विनोद कौतूहल भर होता है, कोई बड़ा प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। शक्ति तो सहयोग के बल पर उत्पन्न होती है। बिजली के ठण्डे गर्म तार अलग-अलग पड़े रहें तो वे व्यर्थ हैं, पर जब वे मिल जाते हैं तो ‘करेन्ट’ चालू हो जाता है। एकाकी व्यक्ति की अपनी थोड़ी-सी सीमा मर्यादा है, अपने बलबूते पर भी कुछ तो हो ही सकता है, पर वह होगा नगण्य ही। बड़ी सम्भावना तो सम्मिलित शक्ति के द्वारा ही मूर्तिमान होती है। एक-एक सैनिक अलग-अलग फिरे तो उनके छुट-पुट कार्य एक सुगठित सैन्य टोली जैसे नहीं हो सकते।
विकास ही नहीं आनन्द का भी आधार
कई तरह की योग्यताएं मिल-जुलकर अपूर्णता को पूर्ण करती हैं। परिवार को ही लें उसमें कई स्तर के—कई विशेषताओं के मनुष्य मिल-जुलकर रहते हैं तो एक अनोखे आनन्द का सृजन करते हैं। पति-पत्नी की योग्यताएं भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं, जब वे मिल जुलकर एक हो जाते हैं तो दोनों को ही लाभ होता है, दोनों ही अपने अभावों की पूर्ति करते हैं। वृद्धों का अनुभव, बालकों का विनोद, उपार्जनकर्त्ताओं का धन आदि मिलकर ऐसा सन्तुलन बनता है जिसमें परिवार के सभी सदस्यों का हित साधन होता है। सभी एक दूसरे का—सहयोग का लाभ उठाते हुए आनन्द में रहते और उत्साह पाते हैं किन्तु यदि परिवार के सदस्यों में सहयोग न हो, मात्र एक सराय में रहने वाले अजनबी मुसाफिरों की तरह निर्वाह करें, तो उनका असहयोग और मनोमालिन्य उस समूह को आनन्द रहित, नीरस और समस्याओं से भरा हुआ बना देंगे और उसका बिखर जाना ही श्रेयस्कर प्रतीत होगा।
पारस्परिक सहयोग की अविच्छिन्न प्रक्रिया ही विकास का ही नहीं आनन्द का भी आधार है। भौतिक जगत में पग पग पर इस तथ्य को अनुभव किया जा सकता है। परमाणु जिसे सबसे छोटी इकाई माना जाता है एकाकी नहीं है वरन् न्यूट्रोन प्रोटोन आदि अपने सहयोगियों के आधार पर ही सृष्टि का क्रिया कलाप संचालित किये रह सकने में समर्थ होता है। आकाश में ग्रह नक्षत्र पारस्परिक आकर्षण में जकड़े रहने के कारण ही आकाश में अधर लटके हुए हैं। पंच तत्वों का सम्मिश्रण यदि न हो तो इस विश्व का अस्तित्व ही प्रकाश में न आये। हर कोई जानता है कि विवाह बंधन के साथ कितने उत्तरदायित्व, बन्धन और कर्त्तव्य जुड़े हुए हैं। उन्हें निबाहते निबाहते आदमी का कचूमर निकल जाता है। नारी को प्रसव की विकट पीड़ा, शिशु पालन का कठिनतम कार्य और पति तथा ससुराल वालों को प्रसन्न रखने में लगभग आत्म समर्पण जैसी तपस्या करनी पड़ती है। नर को भी कम भार वहन नहीं करना पड़ता। इन कठिनाइयों से परिचित होते हुए भी हर कोई विवाह की आशा लगाये बैठा रहता है और वैसा अवसर आते ही हर्षोल्लास अनुभव करता है। जिन दाम्पत्य जीवन में सघन आत्मीयता विकसित होती है उन्हें वह पारस्परिक सान्निध्य स्वर्गोपम प्रतीत होता है अगणित कठिनाइयों को वहन करते हुए भी हर घड़ी आनन्द उमड़ता रहता है। यह सब देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि व्यक्तियों की आत्मिक घनिष्ठता कितनी तृप्ति और कितनी शांति प्रदान करती है।
पति पत्नी का तो ऊपर उदाहरण मात्र दिया गया है। रिश्ते कुछ भी क्यों न हों-पुरुष पुरुष-और नारी नारी के बीच भी ऐसी आंतरिक सघनता हो सकती है। उस मित्रता को किसी भी रिश्ते का नाम दिया जा सकता है। यही ‘प्रेम’ है। प्रकृति के अनुरूप व्यक्तियों से आरम्भ होकर यह मनुष्य समाज—प्राणि मात्र और तदन्तर विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त जड़ चेतन में प्रेम फैलता विकसित होता चला जाता है। आनन्द का उद्भव और विस्तार वही से होता है। अन्तःकरण की कोमलता, मृदुलता, सरलता और सरसता ही वस्तुतः मानव जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा हैं, जो स्नेह सिक्त हैं, जो प्रेमी है, जो सहृदय और उदार है उसे ही आत्मिक विभूतियों से सुसम्पन्न सिद्ध पुरुष कहना चाहिए। ऐसा व्यक्ति ही महा मानव, देवदूत और दिव्य सत्ता सम्पन्न कहलाता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग जिसे प्राप्त हो गया, समझना चाहिए कि उसने पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर लिया। अभाव तो एकाकीपन में ही है।
माता के उदर में रखे बिना, अपना रक्त, मांस दिये बिना, दूध पिलाये और पालन किये बिना भ्रूण की जीवन प्रक्रिया गतिशील नहीं हो सकती। बालक भोजन, वस्त्र आदि की सुविधायें स्वयं उपार्जित नहीं कर सकता उसे इसके लिए अभिभावकों की सहायता अभीष्ट होती है। छात्र अपने आप पढ़ तो सकता है पर उसे पुस्तक, फीस आदि का खर्च पिता से और शिक्षण सहयोग अध्यापक से प्राप्त करना पड़ता है इसके बिना उसका शिक्षा क्रम मात्र एकाकी पुरुषार्थ से नहीं चल सकता। माता-पिता अपनी सन्तान का पालन-पोषण करते हैं वे बच्चे बड़े हो जाने पर अपने बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी उठाते हैं। यही क्रमानुगत परम्परा चलती रहती है। अध्यात्म मार्ग की प्रगति प्रक्रिया भी इसी प्रकार चलती है। गुरु अपने शिष्य को अपनी तप पूंजी प्रदान करता है तदुपरान्त शिष्य भी उसे अपने लिये दाबकर नहीं बैठ जाता वरन् उस परम्परा को अग्रगामी रखते हुए अपने छात्रों की सहायता करता है।
प्रकृति के विभिन्न क्रिया-कलापों को देखें तो उनमें भी सहयोग और सहकार के आधार पर ही सामंजस्य स्थिर हुआ दिखाई देता है। समुद्र बादलों को देता है—बादल जमीन को देता है—जमीन नदियों के द्वारा उस जल को पुनः समुद्र में पहुंचा देती है। यही काम विश्व की स्थिरता और हरीतिमा—शांति और शीतलता का आधार है।
संघर्ष नहीं सहयोग ही आगे बढ़ाता है
वर्तमान मनुष्य की सभी आवश्यकतायें आकांक्षायें यह अपेक्षा करती हैं कि दूसरों का समुचित सहयोग प्राप्त हो। यदि वह उपलब्ध न होगा तो कोई कितना ही बुद्धिमान या साधन सम्पन्न क्यों न हो एक कोने में ही पड़ा सड़ा रहेगा। संघ शक्ति को इस युग की सबसे बड़ी शक्ति माना गया है। पारस्परिक सहयोग के आधार पर मिलजुल कर किये गये काम चाहे वैयक्तिक लाभ के हों अथवा सामूहिक लाभ के क्रमशः सफल होते चले जायेंगे।
इसके विपरीत जहां सहकारिता का—सहयोग सद्भाव का अभाव होगा वहां प्रगति का चक्र उतना ही लड़खड़ाता जायेगा। दुर्भाग्य से इन दिनों यह समझा जाने लगा है कि संघर्ष के द्वारा ही अभीष्ट लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है। उपयोगिता पर आधारित अपनी आवश्यकताओं-लक्ष्यों को प्राप्त करने की मान्यता के कारण संघर्ष को इन दिनों बहुत महत्व दिया जाता है। लड़ झगड़कर अपना अभीष्ट लाभ प्राप्त करने की बात सोची जाती है। गुण्डागर्दी और आतंकवाद के आधार पर जल्दी अधिक लाभ मिलने की बात सूझती है और लड़ाकूपन का परिचय देकर शूर-वीर कहलाने की इच्छा रहती है। यहां ध्यान रखने की बात इतनी ही है कि लड़ाई अपवाद है आवश्यकता नहीं। उसकी उपयोगिता उतनी ही है जितनी आटे में नमक। अवांछनीय परिस्थितियों से निपटने के लिए उसे कभी-कभी ही काम में लाने की आवश्यकता पड़ती है और पड़नी भी चाहिए। यदि यह मात्रा बढ़ेगी तो यह संघर्षशीलता सामने वाले की अपेक्षा आक्रमणकर्त्ता का ही अधिक अहित करेगी।
अलबर्ट का मनोविज्ञान वस्तुतः मानवीय चेतना का मनोविज्ञान न होकर पाशविक वृत्तियों का तोड़ा-मरोड़ा इतिहास मात्र है। वह कहता है—‘‘मनुष्य श्रेष्ठ पशु है (मैन इज दि सुपर एनिमल) अर्थात् मनुष्यों में जो पाशविक वृत्तियां हैं वह कोई दोष-दुर्गुण नहीं वरन् प्राकृतिक हैं।’’ और इस दृष्टि से उसकी जो भी स्वाभाविक आकांक्षायें हैं वह अनुचित नहीं हैं भले ही उसे उसके लिए अन्य प्राणियों का भी शोषण और उत्पीड़न करना पड़ता है। जो जितना उपयोगी है वह उतने ही अधिक अधिकारों का पात्र है भले ही इस स्वायत्ता का उपयोग वह अपने निजी सुख और स्वार्थों के लिए करता हो। उपयोगितावाद की यह संक्षिप्त व्याख्या हुई। आज योरोप ही नहीं संसार के प्रायः सभी देशों के पढ़े-लिखे लोग इसी मान्यता का आचरण व्यवहार कर रहे हैं, भले ही कहने सुनने को उनके सिद्धान्त चाहे कितने ही आदर्शवादी क्यों न हों।
उपयोगिता का समर्थन भी जिस ढंग से किया गया है वह कम हास्यास्पद नहीं। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है इसलिये कम शक्ति वालों का शोषण कोई पाप नहीं, एक प्राकृतिक प्रक्रिया हुई। जीव-हिंसा, पशु-उत्पीड़न और बढ़ता हुआ मांसाहार इसी दुष्ट सिद्धान्त की देन है। इस मान्यता का प्रतिपादन है कि—‘‘जो अधिक ताकतवर होता है वही बन्दर अपने समूह का मुखिया होता है।’’ खरगोश, हिरन, भेड़ और बकरियों की शक्ति न्यूनतम है उन्हें भेड़िये, बाघ, शेर और चीते आदि शक्तिशाली जन्तु खा जाते हैं। यदि सहयोग, सादगी, सहानुभूति और सदाचार ईश्वरीय आदेश हुये होते तो शाकाहारी भेड़ें और बकरियां कमजोर न होतीं और न ही वह हिंसक जन्तुओं द्वारा भक्षण कर ली जातीं। बड़ा वृक्ष अपने घेरे में दूसरे वृक्ष को पनपने नहीं देता। हर शक्तिशाली, कम शक्ति वाले को खा जाता है तो यह कोई दोष नहीं।
उपयोगितावाद सच पूछा जाये तो शक्तिवाद—‘‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’’ और सामन्तवाद का ही दूसरा नाम है। इस सिद्धान्त ने ही संसार को नास्तिक और स्वच्छन्दतावादी बनाया है। भावनाओं का अन्त इस सिद्धान्त ने ही किया है। ठीक भी है जहां केवल शक्ति और उपयोगिता को ही महत्व देना हुआ वहां परस्पर प्रेम, उदारता, सहयोग, सौजन्य, स्नेह, सामूहिकता का क्या मूल्य रहा? जहां उत्कृष्टता की भावनायें न होंगी वहां क्यों तो व्यवस्था रहेगी और क्यों विश्व-शान्ति जिन्दा रहेगी। आज उपर्युक्त प्रकार की मान्यताओं के कारण ही सारा विश्व अशान्ति-असन्तोष, कलह-क्लेश और शोषण के जाल में उलझता चला जा रहा है।
वस्तुतः संघर्ष एक दुर्घटना मात्र है। जो अनावश्यक विकृतियां अथवा अवांछनीय असावधानियां एकत्रित होने के फलस्वरूप ही प्रस्तुत होती है। अनौचित्य की प्रतिक्रिया को संघर्ष कहा जा सकता है। यह प्रकृति नहीं विकृति है। सृष्टि संचालन प्रकृति करती है, विकृतियां तो केवल अवरोध उत्पन्न करती हैं। इसलिए उन्हें हटाने के लिये संघर्ष की आवश्यकता पड़ती है। इन्हें अपवाद कह सकते हैं। अवरोध सामान्य प्रवाह में व्यतिरेक उत्पन्न होने का काम है। व्यतिरेक सृजनात्मक उद्देश्य पूरा नहीं करते, उनसे सतर्कता की तीक्ष्णता भर पैदा होती है। शान चढ़ाने वाला पत्थर तलवार का प्रयोजन पूरा नहीं करता। तलवार तो मजबूत लोहे से बनती है। पत्थर तो धार तेज करने के काम भर आता है। संघर्ष को अधिक से अधिक धार तेज करने वाले पत्थर की संज्ञा दी जा सकती है।
सहयोग वह तथ्य है जिस पर प्रगति की समस्त सम्भावनायें आधारित हैं। मानव जाति की प्रगति का इतिहास यदि एक शब्द में कहना हो तो उसे पारस्परिक सहयोग ही कह सकते हैं। दुर्बलकाय एक बन्दर वंशीय नगण्य से प्राणी को सृष्टि का मुकुट मणि बना देने का श्रेय उसकी सहकारी मनोवृत्ति को ही दिया जा सकता है। यों लोगों को यह कहते भी सुना जाता है कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता मननशीलता ने उसे प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाया है, पर यह बात सही नहीं है। तथ्य यह है कि सहयोग के आधार पर एक दूसरे के सहयोग के साथ घनिष्ठता स्थापित करते हुए पारस्परिक आदान-प्रदान का क्रम चला और उससे मस्तिष्कीय विकास का द्वार खुला।
बोलना, सोचना, पढ़ना लिखना, कृषि, पशुपालन, अग्नि उपयोग उपकरण निर्माण, वस्त्राच्छादन आदि उपलब्धियों को प्रगति का आरम्भिक चरण माना जाता है, इन्हीं सीढ़ियों पर चढ़ते हुए मनुष्य ने आगे बढ़ने और ऊंचे उठने की राह पाई है। यह सब किसी एक मनुष्य के प्रयास का फल नहीं है। इसमें सहस्रों वर्ष लगे हैं और एक के अनुभव का दूसरे ने लाभ उठाया है। एक की उपलब्धियां दूसरे ने सीखी हैं और जो मार्ग मिला उस पर क्रमशः आगे कदम बढ़ाया है। आज हम जहां हैं वहां तक पहुंचने की लम्बी मंजिल इसी प्रकार पार हुई है।
परिवार निर्माण की सारी आधार शिला पारस्परिक सहयोग पर रखी हुई है। पति-पत्नी के बीच सन्तान, अभिभावक के बीच, बाई-बहिन के बीच जो घनिष्ठता पाई जाती है, उसमें स्वार्थ साधन की मात्रा स्वल्प और एक दूसरे के साथ उदार सहयोग करने की मात्रा अधिक रहती है। यदि स्वार्थ सिद्धि की ही प्रधानता रहती तो वे सम्बन्ध क्षणिक रहते तात्कालिक स्वार्थ सिद्धि होते ही बिखर जाते। निम्नकोटि के प्राणियों में ऐसा ही होता है। उनका पारिवारिक सहयोग अत्यन्त स्वल्प रहता है। कामोन्माद के कारण नर मादा कुछ ही क्षणों के लिए पति-पत्नी बनते हैं और वह आवेश उतरने ही दोनों अपरिचित बन जाते हैं। तनिक सा स्वार्थ व्यवधान पड़ने पर इस क्षण के पति-पत्नी अगले ही क्षण एक दूसरे पर प्राण घातक आक्रमण करने में नहीं चूकते। सन्तान को मादा सम्भालती है और वह भी तब तक जब तक वह अपने पैरों खड़ा नहीं हो जाता है। इसके बाद जब बच्चा स्वावलम्बी हो जाता है तो न माता को सन्तान से स्नेह रहता है और न सन्तान माता से कोई रिश्ता रखती है। बाप सन्तान पालन में यत्किंचित् ही सहयोग देता है। माता को प्रकृति ने यह क्षणिक वात्सल्य इसलिए दिया है कि उस प्राणी का वंश नष्ट न होने पावे। विवेकपूर्ण सहयोग के आधार पर इन प्राणियों का परिवार नहीं बनता यदि बना होता तो उसमें स्थिरता और सघनता का क्रम आगे भी चलता रहता। पर वैसा प्रायः देखने में नहीं आता। प्रायः इसलिये कहा गया है कि कुछ प्राणी सहयोग भावना से युक्त भी पाये जाते हैं। और उससे अपनी सुरक्षा का लाभ लेते हैं। किन्तु इन्हें अपवाद ही कहना चाहिए।
मनुष्य की विशेषता उसकी सहयोग परक सत्प्रवृत्ति ही है। उसी ने परिवार बसाये। उनमें सरसता और उदारता का समावेश किया। इससे कुटुम्ब का छोटा बड़ा हर सदस्य लाभान्वित हुआ। यह प्रवृत्ति आगे चलकर सामाजिकता के रूप में विकसित हुई। समाज व्यवस्था—शासन व्यवस्था की संरचना परिवार पद्धति की आचार संहिता के आधार पर ही बन सकी है। अर्थ तन्त्र का पूरा ढांचा सहकारिता ही है। वस्तुओं का उत्पादन और विनिमय वितरण क्रम ही धीरे-धीरे वर्तमान अर्थव्यवस्था तक बढ़ता आया है। शिल्प, चिकित्सा शिक्षा, कला-कौशल और विज्ञान के चरण यकायक नहीं उठे हैं। अमुक आविष्कार का श्रेय अमुक व्यक्ति को मिला यह दूसरी बात है, पर वस्तुतः सफल आविष्कार की पृष्ठभूमि बहुत पहले से ही बनने लगी थी और उसमें से अनेकों का चिन्तन एवं प्रयास जुड़ते हुए वह आधार बन सका था, जिसके सहारे उसे अन्तिम रूप से उद्घोषित किया गया। धर्म, दर्शन, अध्यात्म जैसी उच्चस्तरीय भावनात्मक चेतनाएं किसी एक व्यक्ति की कृति नहीं हैं। इनके क्रमिक विकास में अनेकानेक पीढ़ियों की सहस्राब्दियां नियोजित हुई हैं। यह सब सहयोग का ही परिणाम है।
संघर्ष और विघटन से अंततः विनाश
यदि पिछली पीढ़ी वाले अपनी ज्ञान सम्पदा अगली पीढ़ी को सौंप न जाते तो ज्ञान और सभ्यता का विकास वर्तमान शिखर को छू नहीं सकता था। क्योंकि संघर्ष दो व्यक्तियों—घटकों के आपसी सम्बन्ध सूत्रों को तोड़ता और उन्हें दूर हटाता है। इस विघटन के पीछे सर्वनाश ही जुड़ा रहता जबकि जीवन का उत्कर्ष और सौन्दर्य का आधार संगठन—सहयोग की दिव्य प्रवृत्तियों से जुड़ा है। छोटे-छोटे जीवकोषों से मिलकर यह शरीर बना है और नगण्य जितने नन्हे परमाणुओं का एकत्रीकरण विभिन्न वस्तुओं की संरचना कर सकने में समर्थ हुआ है।
ब्रह्माण्ड के ग्रह-नक्षत्र और उपग्रह परस्पर मिल-जुलकर ही इस अनन्त अन्तरिक्ष में अपनी सत्ता बनाये हुए हैं। यदि उनका विघटन हो जाय—एकाकी रहने के स्थिति आ जाय तो पारस्परिक आदान-प्रदान के आधार पर खड़ा हुआ संसार का सारा ढांचा ही चरमरा जाय। फिर ग्रह-नक्षत्रों की वह स्थिति न रहेगी जो आज है। एकाकी भटकने वाले उल्कापिण्ड अपनी सीमित शक्ति, सीमित स्थिति एवं सीमित कक्षा में किसी प्रकार जीवित रह भी सकें तो भी उनकी सारी विशेषता तो नष्ट ही हो जायेगी। वे मृतक पिण्ड मात्र बनकर रह जायेंगे। पारस्परिक आकर्षण की सघन श्रृंखला में बंधकर ही वे अपनी धुरी और अपनी कक्षा में भ्रमण कर रहे हैं। उनकी विशेषताओं का विनिमय ही उनमें हलचलें बनाये हुए है, अन्यथा वे हर दृष्टि से स्तब्ध हो जायेंगे उनका सारा पदार्थ अनन्त अन्तरिक्ष में धूलि बनकर बिखर जाएगा।
जीवाणुओं का विघटन ही मृत्यु है। जब तक शरीर के यह छोटे घटक मिल-जुलकर काम करते हैं—एक दूसरे के पूरक एवं सहयोगी बनकर रहते हैं तभी तक जीवन की सत्ता है। विघटन आरम्भ हो तो उसका परिणाम मृत्यु के रूप में सामने आ खड़ा होगा। पदार्थ कोई भी क्यों न हो परमाणुओं की अमुक स्थिति के ऊपर ही उनका अस्तित्व निर्भर है। संगठन क्रम में अव्यवस्था उत्पन्न होते ही वस्तुएं सड़ने-टूटने या नष्ट होने लगती हैं उनका स्वरूप देखते-देखते विकृत हो जाता है।
मनुष्य समाज की विकासोन्मुख स्थिति का एकमात्र आधार संगठन है। दाम्पत्य-जीवन में दो व्यक्तियों का सघन सहयोग कुटुम्ब का निर्माण करता है। मिल-जुलकर कई छोटे-बड़े व्यक्ति साथ-साथ रहें, इसी का नाम तो परिवार है। परिवारों का एक दूसरे के साथ सहयोग करना और पारस्परिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक आदान-प्रदान करना यही है समाज में विविध-विधि क्रिया-कलापों के संचालन की धुरी। सारा अर्थ तन्त्र इसी आधार पर खड़ा हुआ है। उत्पादन वितरण और विनिमय की पद्धति अपनाकर ही अनेकानेक उद्योगों का आविर्भाव हुआ है।
समाज के नियमोपनियम पालन करने की प्रवृत्ति ने स्थिरता एवं सुव्यवस्था को जन्म दिया है। भाषा, कला, संस्कृति, धर्म, अध्यात्म, शिक्षा, शासन, न्याय, विज्ञान, शिल्प उद्योग, चिकित्सा, यातायात आदि उस संसार को सुविकसित बनाने वाली स्थापनाएं ही मानवी प्रगति की आधार शिलाएं हैं। इनका आविष्कार और विकास तभी सम्भव हुआ जब मनुष्यों ने परस्पर मिल-जुलकर इस दिशा में अनवरत प्रयास करने का संकल्प किया और अपनी उपलब्धियों का लाभ अपने सहकालीन तथा उत्तराधिकारी अन्यान्य व्यक्तियों के हाथ में थमाया। यदि यह सम्भव न होता तो जिस बुद्धिमत्ता पर गर्व किया जाता है उसे प्राप्त कर सकना मनुष्य के लिए कदापि सम्भव न हुआ होता। अविकसित स्थिति में वन्य पशुओं की स्थिति में ही हमें रहना पड़ता यदि सहकारिता की प्रवृत्ति का दैवी वरदान साथ लेकर मानव प्राणी जन्मा न होता।
जो जातियां, जो देश, जो समाज, जो परिवार, जो वर्ग जिस हद तक संगठित होते हैं वे उसी अनुपात से समर्थ बनते, सफल होते और प्रगति करते देखते जाते हैं, प्रसन्न भी वे ही रहते हैं और श्रेय सम्मान भी उन्हीं को मिलता है। एकाकी व्यक्ति कितना ही समर्थ या सुयोग्य क्यों न हो आखिर रहेगा तो एक ही। एक की क्षमता निश्चित रूप से स्वल्प होती है। मेल-मिलाप से बनने वाला समूह ही विशिष्ट एवं समर्थ शक्ति के रूप में उन्नतिशील बनता है और बड़े प्रयोजनों को सिद्ध कर सकने में सफल होता है। इस तथ्य को मानवकाल के अद्यावधि इतिहास का कोई पृष्ठ उलटकर भली प्रकार जाना समझा जा सकता है। उत्थान और पतन के अगणित घटनाक्रमों में अन्य तथ्य भी अपना कार्य करते दिखाई पड़ेंगे, पर सर्वोपरि आधार यही रहा होगा कि लोगों में सहयोग की प्रवृत्ति किस सीमा तक रही। असहयोग की विषाक्तता पतन और पराजय के रूप में उभरी हुई कहीं भी देखी जा सकती है।
भगवान राम और कृष्ण ने अवतार लेकर लोक-शिक्षण के अनेकानेक आधार जन-साधारण के सम्मुख प्रस्तुत किये हैं। उनका प्राथमिक प्रतिपादन संगठन का ही है। भगवान राम ने लंका विजय की। उसमें प्रमुख योगदान रीछ, वानरों का उपलब्ध किया गया। इस क्रिया-कलाप में बताया गया कि न्याय पक्ष यदि संगठित हो जाय तो साधन और सामर्थ्य की मात्रा स्वल्प रहने पर भी विशालकाय विभीषिकाओं पर विजय प्राप्त की जा सकेगी। ठीक इसी प्रकार भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाते समय ग्वाल-बालों को लाठी लगाकर उस प्रयोजन में भाव भरा योगदान करने के लिए तैयार किया। महान प्रयोजन पूरा कर सकने में कोई अकेला व्यक्ति सफल नहीं हो सकता उसके पीछे संगठित जन-शक्ति होनी ही चाहिए। यही है गोवर्धन उठाने के प्रकरण का सारभूत निष्कर्ष।
पाण्डव पूर्ण समर्थ थे, कृष्ण भी कम बलवान नहीं थे। फिर भी महाभारत में कौरवों की विशाल सेना के समकक्ष प्रतिद्वन्दी सेना जुटाने के लिए भागीरथ प्रयत्न किये गये। संसार भर के भावनाशील लोगों को न्याय पक्ष का साथ देने के लिए सहमत किया गया। अनीति पक्ष के मुकाबले में लगभग उतनी ही बड़ी नीति समर्थक सेना खड़ी कर लेने से ही महाभारत सम्भव हुआ। यदि मात्र कृष्ण और पाण्डव लड़ने लगते तो सम्भव है युद्ध जीत जाते, पर महाभारत के माध्यम से संगठन की शक्ति को समझने-समझाने का महत्वपूर्ण प्रयोजन तो पूरा हो ही न पाता। असुर संहार से भी बढ़कर आवश्यकता देव संगठन की रहती है। उसके बिना शान्ति और प्रगति के स्वप्न साकार हो ही नहीं सकते।
विनोद भी एकांगी नहीं हो सकता, भावनात्मक उल्लास की अनुभूति भी छोटे वर्ग में सीमित रहकर नहीं हो सकती। रासलीला में गोप-गोपियों का सामूहिक हास-विलास यह बताया है कि ममता और आत्मीयता का क्षेत्र अधिकाधिक विस्तृत होना चाहिए। ‘‘अधिक लोगों का अधिक लाभ’’ वाला सिद्धान्त अध्यात्म, धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी प्रधानता प्राप्त है। सब में अपने को और अपने में सबको देखने समझने की दृष्टि रखकर मनुष्य का व्यक्तित्व अधिकाधिक विकसित एवं परिष्कृत बनता चला जाता है। आत्म-विस्तार की चरम अवधि तक जा पहुंचने का नाम ही आत्म-साक्षात्कार, ईश्वर दर्शन, जीवन-मुक्ति अथवा लक्ष्य प्राप्ति के आकर्षक नामों में अलंकारिक प्रतिपादनों के साथ प्रस्तुत किया गया है। संगठन का महत्व जितना अधिक और जितनी जल्दी समझा जा सके उतना ही लाभ है। ‘संघ-शक्ति कलौयुगे’ सूत्र में सार रूप में यही बताया गया है कि इस युग में संसार का सबसे बड़ा, मनुष्य का सबसे प्रखर बल संगठन ही है। जो उसके लिए प्रयत्नशील रहेगा वह सुखी बनेगा और जिसने इसकी अवज्ञा-उपेक्षा की उसे उसी की प्रतिगामिता चूर्ण-विचूर्ण करके रख देगी। संकीर्णता रत, विगठनवादी न पशुओं को सृष्टि के अवांछनीय तत्वों की तरह नियति का कोपभाजन ही बनना पड़ेगा। उन्हें पतन और पराभाव के गर्त में गिरकर न भ्रष्ट ही होना पड़ेगा।
संगठन के शाश्वत सत्य को इन दिनों तो और भी अधिक प्राथमिकता मिलनी चाहिये। मानव समाज की प्रस्तुत विश्व-व्यापी जटिल समस्याओं एवं विभीषिकाओं को हल करने के लिए जिन साधनों या उपायों की खोज की जा रही है वे अपर्याप्त हैं। अभी सफलता तो केवल मानवी एकता की समस्या का हल करने से ही सम्भव होगी। ज्ञान और विज्ञान की प्रगति ने दुनिया को इतना छोटा बना दिया है जितनी कि वह पहले कभी भी नहीं रही। अब विश्व के किसी भी कोने में घटित होने वाली घटनाएं समस्त संसार को प्रभावित करती है। द्रुतगामी वाहनों ने वर्षों की पैदल यात्रा को कुछ घण्टों की बनाकर रख दिया है। उद्योग, व्यवसाय, शिक्षा, कला, शिल्प आदि क्षेत्रों में देश एक दूसरे पर निर्भर होते चले जाते हैं। अरब देशों का तेल दूसरे देश न खरीदें अथवा बेचने वाले अपना विक्रय बन्द कर दें तो इसका परिणाम दोनों ही पक्षों के लिये भयंकर होगा। यही बात अन्यान्य आदान-प्रदानों के सम्बन्ध में लागू होती है।
साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, अधिनायकवाद के दिन अब लद गये। जन-चेतना इतनी प्रबल हो गई है कि निहित स्वार्थों द्वारा इन अनाचारों को थोपा जाना जनता द्वारा सहन नहीं किया जायगा। इसी प्रकार अनीति के विरुद्ध भड़कने वाले विद्रोह को भी अब सैन्य बल से दबाया जा सकना सम्भव नहीं रहा। यह प्रयोग तभी तक सफल होते हैं जब तक जन-जागृति नहीं होती और जनशक्ति नहीं उभरती। इन दिनों पिछड़े हुये और समुन्नत वर्गों के बीच खाइयां इतनी चौड़ी हो गई हैं कि उनके गर्त में अब तक की मानवी प्रगति को डूबते देन नहीं लगेगी।
रक्त विकृत हो जाने पर शरीर में खाज-खुजली, फोड़े-फुन्सी दाग-चिकत्ते ढेरों की संख्या में उगते हैं। एक-एक फुन्सी की दवादारू करते रहने से कुछ काम नहीं चलता। एक के अच्छे होने से पहले ही दूसरी नयी फुन्सियां उठ आती हैं। संसार के सामने प्रस्तुत अनेकानेक विभीषिकाओं को इन दिनों अलग-अलग उपायों से हल करने के प्रयत्न किये जा रहे हैं। स्वास्थ्य सुधार, शिक्षा संवर्धन, आजीविका उत्पादन, शस्त्र सैन्य आदि आधारों पर सर्वत्र ध्यान दिया जा रहा है। कई तरह की योजनाएं सोची, बनाई और चलाई जा रही हैं, पर परिणाम नहीं के बराबर ही निकलता है। गुत्थियां जितनी सुलझती हैं उससे कहीं अधिक उलझ जाती हैं। विभीषिकाएं हलकी होने के स्थान पर और भी अधिक ऊपर उभर आती हैं। रक्त की विकृति का निराकरण किये बिना फुन्सियों का उठना रुकेगा नहीं। विपत्तियों के मूल कारण को देखे, सम्भाले बिना विपत्तियां क्रमशः और भी अधिक सघन होती चली जायेंगी।
युग ने भौतिक क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति की है यह एक सर्वमान्य तथ्य है। पर यह हुई ऐसी ही है जैसा कि एक हाथ एक पैर का मोटा होना और दूसरे का पतला रह जाना। संगति के आध्यात्म तत्व को भी इसी क्रम से विकसित किया जाना चाहिए। आत्मीयता का—एकता का क्षेत्र इसी अनुपात से बढ़ाया जाना चाहिये। सन्तुलित प्रगति का लाभ उसी स्थिति में प्राप्त किया जा सकेगा।