Books - चेतना का सहज स्वभाव स्नेह सहयोग
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Language: HINDI
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सहयोग और सहकार पर जीवित संसार
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उपयोगितावाद (यूटिलिटेरियनिज्म) सिद्धांत के विश्व-विख्यात प्रवर्तक जान स्टुअर्ट मिल ने अपने सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए लिखा है, ‘संसार में सबको सुख या आनन्द की खोज है। सुख जीवन का लक्ष्य है और यह स्वाभाविक है कि मनुष्य आजीवन उसकी खोज करे। कई बार ऐसी परिस्थिति आती हैं, जब हमें एक सुख दूसरे से अधिक अच्छा लगे तो हमारे लिए वही इष्ट हो जाता है, भले ही उसको प्राप्त करने में अशान्ति का सामना करना पड़े। मनुष्य सुख चाहता है, वस्तुयें चूंकि उन सुखों की माध्यम हैं, इसलिये हम वस्तुओं का संग्रह करते समय भी केवल सुख प्राप्ति का प्रयत्न करते हैं, इससे यह सिद्ध होता है कि आनन्द मनुष्य जीवन में प्रमुख है आचरण अप्रमुख।’
अर्थात् यदि मांस खाने से सुख की वृद्धि हो सकती है तो मांस खाना बुरा नहीं। यदि काम वासना की अधिक तृप्ति के लिए सामाजिक मर्यादायें तोड़ी जा सकती हैं तो वैसा करना पाप नहीं। धन अधिक और अधिक सुख देने में सहायक है, इसलिये अधिक से अधिक धन कमाने में यदि प्रत्यक्ष किसी पर दबाव न पड़ता हो तो वैसा किया जा सकता है अर्थात् झूठ बोलकर, कम तोलकर, मिलावट आदि जितने भी व्यापार के भ्रष्ट नियम हैं, वह पाप नहीं हैं, यदि हमारे सुख की मात्रा उससे बढ़ती हो। बड़ी बलवान शक्तियों द्वारा कमजोर छोटी शक्तियों का शोषण इस सिद्धान्त का ही समर्थित व्यवहार है। जान स्टुअर्ट और उनके सब अनुयायी इसके लिए प्रकृति को प्रत्यक्ष स्वायंभु उदाहरण देते हैं और कहते हैं, बड़ी मछली छोटी को खाकर अपनी शक्ति बढ़ाती है। बड़ा वृक्ष छोटे वृक्ष की भी खुराक हड़प कर लेता है आदि। इन सब बातों को देखकर मनुष्य के लिये भी उपयोगितावाद सिद्धान्त का समर्थन होता है।
जहां तक सुख की चाह का प्रश्न है, जान स्टुअर्ट के सिद्धान्त का कोई भी विचारशील व्यक्ति खण्डन नहीं करेगा।
आनन्द वृद्धि के लिये उपयोगितावादी सिद्धान्त हमें निरन्तर भौतिकता की ओर अग्रसर करते हैं और हमारी आध्यात्मिक आवश्यकताओं को उस तरह भुलावा देते हैं, जैसे रेगिस्तान के शुतुरमुर्ग शिकारी को देखकर अपना मुख बालू में छिपाकर अपनी सुरक्षा अनुभव करते हैं। आज के संसार में बढ़ रही अशान्ति और असुरक्षा इस सिद्धान्त की ही देन है।
प्रकृति में बड़ी शक्तियों द्वारा छोटी शक्तियों के शोषण के सिद्धान्त अपवाद मात्र हैं। अधिकांश संसार तो सहयोग और सामूहिकता के सिद्धान्त पर जीवित है। उस क्षण की कल्पना करें, जब सारे संसार के लोग बुद्धि-भ्रष्ट हो जायें और परस्पर शोषण पर उतर आयें तो सृष्टि का विनाश एक क्षण में हो जाये। हम प्रकृति को सूक्ष्मता से देखें तो पायेंगे कि उसका अन्तर्जीवन कितना करुणाशील है। छोटे-छोटे जीव-जन्तु, वृक्ष, वनस्पतियां भी किस प्रकार परस्पर सहयोग और मैत्री का जीवन-यापन कर रहे हैं। मानवीय सभ्यता तो जीवित ही इसलिये है कि इतने भौतिक विकास के बाद भी हम मनुष्य, मनुष्य के प्रति प्रेम, दया, करुणा, उदारता, सहयोग और सामूहिकता के सम्बन्ध को तोड़ नहीं सकते।
गांवों के किसानों से कोई पूछे कि वे एक खेत में कई फसलें मिलाकर क्यों बोते हैं? तो उपयोगितावाद के सिद्धान्त का खण्डन करने वाले तथ्य ही सामने आयेंगे। ज्वार और अरहर साथ-साथ बोई जाती हैं। मूंग, उड़द और लोबिया आदि दालें भी ज्वार के साथ बोई जाती हैं। ज्वार का पौधा बड़ा होता है, यदि उपयोगितावाद प्रकृतिगत या ईश्वरीय नियम होता तो वह इन दालों को पनपने न देता। होता यह है कि दालों को ज्वार के पौधों से बढ़ने और हृष्ट-पुष्ट होने में सहायता मिलती है। उधर ज्वार को नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है, सो वह काम अरहर पूरा करती है। वह वायु मण्डल से नाइट्रोजन खींच कर कुछ अपने लिये रख लेती है, शेष ज्वार को दे देती है, जिससे वह बढ़ती और अच्छा दाना पैदा करने की शक्ति ग्रहण करती रहती है।
पान की बेल आम के वृक्षों के सहारे ही बड़े अच्छे ढंग से बढ़ती है। उन्हें किसी घने वृक्ष की छाया न मिले तो बेचारी का जीवन ही संकट में पड़ जाये। यहां बड़ा छोटे के हितों की रक्षा करता है। अमर बेल बेचारी जड़ हीन होने से स्वयं सीधे आहार नहीं ले सकती, इसके लिये उसे बड़े वृक्षों का ही संरक्षण मिलता है। जिसके पास भी साधन और सम्पत्तियां हैं, वे उसे अपनी ही न समझकर समस्त वसुधा भी समझकर आवश्यकतानुसार उदारतापूर्वक अल्प विकसितों को बांटते रहें तो विषमता उत्पन्न ही क्यों हो? बड़ी शक्तियां छोटी शक्तियों का शोषण करें, यह प्राकृतिक नियम नहीं। प्रकृति आश्रित को जीवन देने और उसके विकास में सहायता करने का कार्य करती है। ‘छोटी पीपल’ महत्त्वपूर्ण औषधि है, वह अपना विकास किसी घने छायादार वृक्ष के नीचे ही कर सकती है। इलायची नारियल के वृक्ष की छाया में बढ़ती है। बड़ा पेड़ अपने नीचे के छोटे पेड़ों को खा ही जाय यह सार्वभौम नियम नहीं है।
एक गांव में एक अन्धा रहता था, दूसरा लंगड़ा। एक दिन अकस्मात गांव में आग लग गई। समर्थ लोग अपना-अपना सामान लेकर सुरक्षित भाग निकले। लंगड़ा और अन्धा दो व्यक्ति ही ऐसे रहे, जिन बेचारों के लिये बाहर निकलना सम्भव न था। एकाएक अन्धे को एक उपाय सूझा। उसने लंगड़े से कहा—यदि आप मुझे रास्ता बताते चलें तो मैं आपको कन्धे पर बैठाकर यहां से निकल सकता हूं और इस तरह हम दोनों भी यहां से सुरक्षित बच सकते हैं। लंगड़े को योजना पसन्द आ गई। अन्धे ने उसे कन्धों पर बैठाया। लंगड़ा उसे दिशा दिखाता चला और इस तरह दोनों एक रास्ते से आग की लपटों से बचकर बाहर आ गये।
अन्धे और लंगड़े की यह कहानी मनुष्य समाज की सुरक्षा और सुख के सिद्धान्त का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यहां कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं, सब अपूर्ण हैं। डॉक्टर औषधिशास्त्र का पण्डित हो सकता है, कानून-शास्त्र का नहीं। इंजीनियर मशीनों का ज्ञाता होकर भी व्यापार शास्त्र की दृष्टि से निरा बालक रहता है। वैज्ञानिक के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह अपने ही बच्चों का शिक्षण आप कर ले उसके लिये, उसे प्रतीक्षित अध्यापकों वाले कालेज का ही सहयोग लेना पड़ेगा। अपूर्णताओं वाले संसार में यदि उपयोगितावाद को खुला समर्थन दिया जाने लगे तो सबके सब अपने को उपयोगी मानकर छल-कपट, शोषण और अत्याचार करने लगें, ऐसी स्थिति में अशिक्षित किन्तु स्वस्थ और बलिष्ठ भी अपने शरीर की उपयोगिता सिद्ध करना चाहेगा। वह चोरी, डकैती और दूसरी तरह के अपराध करेगा, क्यों कि उसे न्याय और नियन्त्रण में रखने वाली बौद्धिक शक्ति स्वयं पंगु हो चुकी होती है। यदि सब उदारतापूर्वक एक दूसरे से सहयोग का मार्ग अपना लें तो हर कोई स्वल्प साधनों में भी आनन्द की उपलब्धि करले। आज की स्थिति जो गड़बड़ है, उसको दोष इस उपयोगितावाद को ही दिया जा सकता है।
समुद्र में शंख पाया जाता है। उसका कीड़ा निकल जाता है, तब ‘आर्थोपोड़ा वर्ग का हरमिट क्रेब’ नामक जल-जन्तु उसमें जा बैठता है। सोचता तो वह ये था कि यहां वह सुरक्षित रहेगा, किन्तु यहां भी उसे शत्रु का भय बना रहता है। मछलियां उसे कभी भी पकड़कर खा जाती हैं। यदि उपयोगितावाद का सिद्धान्त ही सत्य और व्यावहारिक रहा होता तो इस कीड़े की वंशावली ही समाप्त हो गई होती।
पर प्रकृति ने उसे सहयोग के लिये प्रेरित किया। वहीं पर ‘फाइसेलिया’ नामक एक जानवर पड़ा होता है। बेचारा अपने आहार के लिये चल फिर नहीं सकता। आर्थोपोड़ा उसे अपने शंख की पीठ पर बैठा लेता है और उसे यहां से वहां घुमाता रहता है। प्रत्युपकार में फाइसेलिया उस आर्थोपोड़ा की रक्षा का भार स्वयं वहन करता है। फाइसेलिया अपने शरीर से काई की तरह का एक दुर्गन्धित पदार्थ निकालता रहता है, फलस्वरूप वह जहां भी रहता है, मछलियां भयभीत होकर पास नहीं आतीं और यही द्रव छोटे-छोटे जन्तुओं के मारने के काम आता है और इससे फाइसेलिया और हरमिट क्रेब दोनों को भोजन भी मिल जाता है और इस तरह आर्थोपोड़ा का जीवन सुरक्षित बना रहता है। इससे यह मालूम होता है कि प्रकृति ने यदि सहयोग और सद्भाव की प्रेरणा अन्तरंग से न दी होती तो सृष्टि के संपूर्ण प्राणियों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता। एक कोषीय जीव को प्रोटोजोन्स कहते हैं। इनके हाथ-पैर, मुख आदि कुछ नहीं होते। एक नाभिक (न्यूक्लिस) होता है और उस के आस-पास ‘साइटोप्लाज्म’। अमीबा एक ऐसा ही प्रोटोजीव है। इसी की जाति का ‘पैरामीसियम’ नामक जीव जब थक जाते हैं और जीवन शक्ति बहुत कम पड़ती जाती है या बुढ़ापा अनुभव करते हैं, तब दो पैरामीसियम मिलकर एक दूसरे से साइटोप्लाज्म (एक प्रकार का द्रव सा होता है जिसमें पानी के अतिरिक्त गैसें, खनिज, धातुयें, लवण, पोटेशियम, फास्फोरस आदि विभिन्न तत्व होते हैं। अदल-बदल लेते हैं, इससे उनमें पुनः एक नई शक्ति आ जाती है।
एक समय था जबकि अंजीर केवल अर्जेन्टाइना में पाई जाती थी। वहां से स्माइराना नामक अंजीर के कुछ पौधे कैलीफोर्निया (अमेरिका) में लाये गये। इन पौधों को उगाने के लिए बहुतेरे प्रयत्न किये गये, अच्छी खाद दी गई, पानी दिया गया, मिट्टी दी गई पर सब कुछ निरर्थक गया। अंजीर का पौधा बढ़ तो गया, उसमें फूल भी आ गये, किन्तु बांझ। उन फूलों पर फल उतरे ही नहीं। वैज्ञानिकों ने परागण (पोलीनेशन) के सारे प्रयत्न कर लिये पर उनकी एक न चली।
अन्त में अमेरिका के एक वैज्ञानिक उस देश गये जहां से अंजीर का पौधा आया था। पौधे के विकास का सूक्ष्म अध्ययन करते समय उन्होंने देखा कि एक विशेष जाति की बर्र (मक्खी) ही जब इन पौधों पर आती है, तभी ‘पोलीनेशन’ (पौधों में संयोग) की क्रिया सम्पन्न होती है। इन बर्रों को तब कैलीफोर्निया लाया गया। जैसे ही वह बर्रें इन पौधों के फूलों पर बैठीं ‘पोलीनेशन’ क्रिया प्रारम्भ हो गई और बांझ अंजीर के पौधे खूब फलने लगे। यह बर्र भी इस फूल से अपने लिए पर्याप्त पराग प्राप्त करती रहती है। उसका अधिकांश पोषण इन अंजीर के ही फूलों से होता है।
‘पोलीनेशन’ के लिये सहयोग की क्रिया और भी कई पौधों पर विचित्र ढंग से होती है। मक्खियां, तितलियां तो चाहे जिस पौधे को इस क्रिया में एक फूल का पराग दूसरे फूल में पहुंचाकर करती रहती हैं, किन्तु अमेरिका में एक ऐसा जंगली पौधा पाया जाता है, जो ‘प्रोन्यूबा’ नामक एक सफेद पतंगे के बिना गर्भ ही धारण (फर्टलाइज) नहीं करता।
प्रेम, सहानुभूति और दया एक दूसरे की आत्मिक आवश्यकताओं को पहचान कर सहयोग देने, सहायता देने की पद्धति के पर्याय हैं। उन आवश्यकताओं को अन्तरंग में प्रवेश करके ही जाना जा सकता है। मादा प्रोन्यूबा जब यह पौधा खिलता है तो फूल पर जा बैठती है और अपनी टांगों की सहायता से पराग को इकट्ठा करके छोटी गेंद का आकार बना लेती है और उसे अपने पैरों में ही चिपका लेती है। फिर वह वहां से उड़ती है और दूसरे फूल पर जा बैठती है और गोलाकार बनाये हुए उस पराग को फूल में छोड़ देती है जिससे वह फूल ‘फर्टलाइज’ हो जाता है। प्रोन्यूबा उसी फूल की ‘ओबरी’ (गर्भाशय) में बैठकर फिर यह पतंगा अपने अण्डे दे देती है। यह अण्डे काफी बड़े होने तक उसी फूल में पलते रहते हैं। न तो इस फूल के बिना पतंगे का वंश विकास सम्भव है न इस पतंगे के बिना फूल का। यह तो उदाहरण मात्र है, सच बात तो यह है कि सारा संसार ही प्रेम और सहयोग के द्वारा विकसित हो रहा है। इन गुणों के बिना सृष्टि का चलना एक पल को भी सम्भव नहीं।
‘जूक्वोरेली’ एक प्रकार की वनस्पति है, जो अन्य वनस्पतियों के समान खुले आकाश में नहीं जीवित रह पाती। उसकी कोमल-कोशायें, धूप, शीत और वर्षा के तीव्र आघात सहन करने में वैसे ही असमर्थ होती हैं, जैसे कोमल बच्चे, बीमार और अपाहिज व्यक्ति।
हाइड्रा एक छोटा सा जीव है, उसे भोजन की आवश्यकता होती है पर अपने लिये उपयुक्त भोजन की प्राप्ति कर पाना उसके लिये कठिन होता है। प्रकृति ने उसकी परिस्थितियां ही कुछ ऐसी बनाई है।
एक वनस्पति दूसरा जीव दोनों इस संसार में दिखाई न देते, यदि सचमुच संसार में ‘समर्थ का जीवन’ का ही सिद्धान्त काम कर रहा होता। माना कि जीव-मात्र के सुधार के लिये प्रकृति को कठोर और दण्डात्मक प्रक्रिया का भी कभी-कभी संचालन करना पड़ता है पर वह कोमल और सम्वेदनशील अधिक है। अपने प्रत्येक अणु-अणु को वह परस्पर प्रेम-सहयोग और सहानुभूति पूर्वक जीने की प्रेरणा देती रहती है। उसका उदाहरण जब इन छोटे छोटे जीवों और वनस्पतियों पर भी देखने को मिलता है, तब विश्वास हो जाता है कि निर्माण ही विश्व का सत्य है ध्वंस नहीं, सहयोगी ही सर्वकल्याण का सर्वोत्तम सिद्धान्त है, उपयोगितावाद नहीं।
उपरोक्त परिस्थितियों में ‘जूक्लोरेली’ पौधा ‘हाइड्रा’ जीव के शरीर में रहने लगता है, वहां वह अपने आपको सुरक्षित अनुभव करता है। पर चूंकि वह वनस्पति है, इसलिये उस भोजन प्रकाश संश्लेषण (फोटो सिंथेसिस अर्थात् सूर्य प्रकाश में होने वाली एक रासायनिक प्रक्रिया) क्रिया से मिल सकता है उसके लिये कार्बन डाई ऑक्साइड गैस मिलना आवश्यक हो जाता है, ताकि आवश्यक क्लोरोफिल (हरा पदार्थ) तैयार करके वह अपने सम्पूर्ण अंगों का सेवन कर सके। इस कार्बन डाई ऑक्साइड की आवश्यकता को हाइड्रा अपनी छोड़ी हुई सांस से पूरी कर देता है और जूक्लोरेली द्वारा छोड़ी हुई ऑक्सीजन आप ग्रहण कर लेता है। इस तरह परस्पर सहयोग से दोनों प्रसन्नतापूर्वक जीते हैं। फोटो सिंथेसिस किया से हाइड्रा को भी शक्ति मिलती रहती है।
जीव और वनस्पति में सहयोग को और अच्छी तरह समझना हो तो हमें कृषि-विज्ञान की ‘लैग्युमिनौसी’ अर्थात् फलियों वाले पौधों जैसे चना, मटर, सेम, सोयाबीन आदि की रचना, जीवन धारण और विकास पद्धति का अध्ययन करना पड़ेगा। इन पौधों की जड़ों में बड़ी बड़ी गांठें होती हैं। स्थूल आंख से तो नहीं पर किसी गांठ को चीड़ कर सूक्ष्मदर्शी यन्त्र (माइक्रोस्कोप) से देखें तो उसके अन्दर अरबों की संख्या में जीवाणु (बैक्टीरिया) हलचल करते हुए दिखाई देंगे। प्रकृति ने सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों की सुरक्षा के कितने सुदृढ़ खोल तैयार किए हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है पर यह सब उसने केवल सुरक्षा के लिये ही नहीं, विश्व में मैत्री और सहयोगी प्रवृत्ति के विकास के लिए किया लगता है, क्योंकि इन गांठों में रहने से जीवाणु सुरक्षित पड़े रहते हों, इतना ही नहीं जीवाणु और यह पौधे दोनों एक दूसरे के विकास में पति-पत्नी की तरह भाई-भाई और पड़ौसी-पड़ौसी के समान महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान करते हैं।
पौधों के अच्छे विकास के लिए आवश्यक है कि मिट्टी से नाइट्रोजन की पर्याप्त मात्रा मिले। जड़ें हलकी होने के कारण यह काम नहीं कर सकतीं, इसलिए मात्र नाइट्रोजन चूसकर देने का किराया लेकर यह पौधे उन जीवाणुओं को आजीवन अपने भीतर सुरक्षित स्थान दिये रहते हैं।
हमारे समाज में बहुत लोग ऐसे हैं, जो शिक्षा, ज्ञान उपार्जन, शरीर, साधन आदि की दृष्टि से अत्यन्त अविकसित स्थिति में पड़े हैं, प्रकृति का यह सहयोग हमें सिखाता और पढ़ाता है कि हमें उन सब के प्रति भी श्रद्धा रखनी चाहिये उनके उत्थान, भरण-पोषण और संरक्षण के लिये जो भी सम्भव सहयोग कर सकते हैं, वह करना चाहिये। सहयोग के सिद्धान्त से समाज के नकारा लोग भी पल जाते हैं और समर्थ लोगों के विकास और सफलता की सम्भावनायें बदलती हैं।
जीव-जन्तु वृक्ष वनस्पतियों में
यह तो छोटे एक कोशीय सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से दिखाई देने वाले जीवों की बात हुई। वह जीव जन्तुओं तथा वृक्ष वनस्पतियों में भी सहयोग सहकार की—अक्षम असमर्थ और कष्टपीड़ितों का सहयोग करने की प्रवृत्ति पायी जाती है तभी तो पृथ्वी पर कमजोर से कमजोर और क्षुद्र से क्षुद्र प्राणियों का अस्तित्व विद्यमान है।
मध्य योरोप की नदियों में एक 'रेडियश’ नामक मछली पाई जाती है। यह मछली इतनी कमजोर और क्षुद्र होती है कि इसके लिए खुले स्थान पर अण्डे देना एक प्रकार की आफत है। जो भी जीव उधर से गुजरता है, वही उन्हें साफ कर जाता है।
कुछ ऐसे वृक्ष होते हैं, जो अपनी सीमा में छोटे-छोटे पौधों को पनपाते हैं। सारे जंगल में दो-चार ऐसे हिंसक जन्तु भी होते हैं, जो छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं को खा डालते हैं, अफ्रीका के कुछ पौधे ऐसे धोखेबाज होते हैं कि उनमें कोई चिड़िया आश्रय के लिए आई और उन्होंने अपने नुकीले पत्तों से उसे जकड़ कर खून पी लिया। समुद्र में एक-दो मछलियां, एक-दो जन्तु जैसे मगर और घड़ियाल ऐसे भी होते हैं, जो किसी का पनपना देख नहीं सकते, अपने से कम शक्ति का जो भी दांव में आ गया, उसी को चट कर लिया।
विविधा-विपुला प्रकृति में ऐसे दुष्ट प्रकृति के जीव-जन्तु हैं तो पर उनकी संख्या, उनका औसत थोड़ा है पर मनुष्य जाति के दृष्टि-दोष को क्या कहा जाये, जो इन दो-चार उदाहरणों को लेकर ‘उपयोगितावाद’ जैसा मूर्खतापूर्ण सिद्धान्त ही तैयार कर दिया। ढूंढ़ें तो अधिकतर संसार ‘आओ हम सब मिलकर जियें’ के सिद्धान्त पर फल-फूल रहा है। यदि छोटों को मारकर खा जाने वाली बात ही सत्य रही होती तो कुछ ही शताब्दियों में विश्व की आबादी दो गुनी से भी अधिक न हो गई होती।
प्रस्तुत प्रसंग यह बताता है कि संसार के अबुद्धिमान जीव-जन्तु भी परस्पर मिलकर रहना कल्याणकारक मानते हैं। यहां रेडियश मछली पाई जाती है, वहीं एक ‘सीप’ नामक जीव भी पाया जाता है। सीप के शरीर को कछुये की सी तरह का एक मोटा और कड़ा आवरण घेरकर रखता है, जिससे वह अपने अण्डों की सेवा नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में रेडियश मछली और सीप दोनों मिलते हैं और ‘आओ हम—आप दोनों मिलकर जियें’ के अनुसार समझौता कर लेते हैं।
रेडियश अपने अण्डे सीप के खोल में प्रविष्ट कर देती है, इसी समय सीप अण्डे देती है, वह रेडियश अपने शरीर से चिपका लेती है। रेडियश घूम-घूमकर अपने लिये भोजन इकट्ठा करती है, उसी के दाने-चारे पर सीप के बच्चे पल जाते हैं, जबकि उसके अपने बच्चों को सीप पाल देती है। लगता है, विभिन्न जातियों में सहयोग और संगठन की आचार संहिता भारतीय समाजशास्त्रियों ने प्रकृति की इस मूक भाषा को पढ़कर ही तैयार की थी। आज भी उसका मूल्य और महत्त्व सामाजिक जीवन में उतना ही है। इस सिद्धान्त के आधार पर ही संसार सुखी रह सकता है। शोषण, छल, कपट, बेईमानी, अनीति और मिलावट पर नहीं। वह यदि दूसरे के साथ यह दुष्टता करेगा तो शेष वातावरण उसके लिए भी वैसा ही तैयार मिलेगा।
यह उदाहरण कोई अपवाद नहीं। अखण्ड-ज्योति के पिछले अंकों में ऐसे सैकड़ों उदाहरण देते चले आ रहे हैं। ‘एलगी’ जाति के ‘प्रोटोकोकश’ पौधे और फसग जाति के ‘एस्कोमाइसिटीज’ पौधे भी आपस में मिलकर एक दूसरे की बहुत सुन्दर ढंग से पोषण की वस्तुएं प्रदान करते हैं। हमें शिक्षक ज्ञान देता है, शिक्षा देता है पर हम अपनी अनपढ़ धर्मपत्नी या अशिक्षित पड़ौसी के लिये एक घण्टा भी नहीं निकाल सकते, हमारे माता-पिता जब हम बच्चे थे, तब आधे पेट, गीले वस्त्रों में सोकर हमारी परवरिश करते थे पर आज जब वे वृद्ध हो गये, तब हम उनकी कितनी अवहेलना करते हैं। नाई, धोबी, तेली, कुम्हार, दुकानदार, रेल वाला, सारा संसार यों कहिये अपनी सेवायें हमें देने को तत्पर है, तब यदि हम दूसरों को धोखा देने की बात सोचें कृतघ्नता दिखायें तो ऐसे व्यक्ति से नीच और घृणित कौन होता?
पौधों का क्या अस्तित्व पर वे मनुष्य जाति से अच्छे हैं। ऊपर के दोनों पौधे मिलकर एक चपटे आकार का ढांचा बना लेते हैं, उसे ‘जूलाजी’ में ‘लाइकन’ कहते हैं। इसमें से होकर एलगी की जड़ें फसग के पास पहुंचती हैं और फसग की एलगी के पास। एलगी के पास जिस तत्व की कमी होती है, उसे फंसग पूरा कर देता है और फंगस की कमी को एलगी दोनों के आदान-प्रदान में यह थैला भी विकसित होता रहता है। औरों के कल्याण में अपना कल्याण, सबकी भलाई में अपनी भलाई अनुभव करने वाले समाज इसी तरह विकास और वृद्धि करते हैं और अपने साथ उन छोटे-छोटे दीन-हीन व्यक्तियों को भी पार कर ले जाते हैं, जो सहयोग के अभाव में दबे पड़े पिसते रहते हैं।
‘स्कारपियन’ मछली अपने शरीर के ऊपर छोटे-छोटे हाइड्रा जाति के जीवों को फलने-फूलने देती है, वे छोटे-छोटे जन्तु हजारों की संख्या में एक सिरे से दूसरे सिरे तक पूरी तरह में फैले रहते हैं। देखने में यह हरे रंग के होते हैं। मछली के शरीर के ऊपर इनका पूरी तरह पोषण होता रहता है।
हर कोई लाभान्वित
बेहरिंग के काफिले ध्रुवप्रदेश में चला करते हैं। प्राकृतिक जीवन के अभ्यस्त यह काफिले वहां की सारी कठिनाइयों का मुकाबला बड़ी आसानी से कर लेते हैं किन्तु जो सबसे बड़े आश्चर्य की बात है वह यह कि यह काफिले वहां की छोटी-छोटी लोमड़ियों से मात खा जाते हैं। उनकी इस आप-बीती को सुप्रसिद्ध लेखक स्टेलर ने बेहरिंग के काफिलों का युद्ध कहा है और बताया है कि प्रारम्भ में यह काफिले जिस स्थान पर डेरा डालते वहां की लोमड़ियां आतीं और उनका खाना चुरा ले जातीं निदान खाने को पत्थरों से ढक कर रखा जाने लगा। पत्थर भी इतने वजनदार रखे जाते की बड़ी से बड़ी लोमड़ी भी उन्हें उठाकर अलग न कर सकती। काफिले वाले असमंजस में थे कि तब भी उनका खाना चोरी गया मिलता और पत्थर उस स्थान से दूर फेंका मिलता।
ऐसा लगा कि कोई बड़ा जानवर आता है अतएव ताक की गई। बात बड़ी विचित्र निकली, एक साथ कई लोमड़ियों का झुण्ड आया उनमें से एक ऊंची टेकरी पर खड़ी हो गई, एक दूसरी तरफ। यह थीं चौकीदार उनका काम किसी भी सम्भावित हमने की सूचना अपने साथियों को देना होता था। शेष लोमड़ियां आगे बढ़ीं और एक साथ शक्ति लगाकर वजनदार पत्थर को उठाकर अलग कर दिया और खाना चुरा ले गई।
अब काफिले वालों ने एक के ऊपर एक पत्थर रखकर ऊंचा खम्भा उठाया और उसके ऊपर खाना रखा, पर लोमड़ियों से वह तब भी न बच सका। अब लोमड़ियों ने अपनी पीठ पर चढ़ाकर किसी चुस्त लोमड़ी को ऊपर चढ़ा दिया उसने ऊपर से खाना गिराया। गिरे हुये खाने को सब उठाया और फिर ऊपर चढ़ी लोमड़ी को उतारा और दूर एकान्त में जाकर सारा खाना बांटकर खा लिया।
इस घटना की समीक्षा करते हुए स्टेलर ने लिखा है, ‘यह आश्चर्य की बात है कि लोमड़ी जैसे छोटे जीव ने सहयोग और सहकारिता के महत्व को समझा और उसका लाभ उठाया जबकि मनुष्य जैसा बुद्धिशील प्राणी परस्पर स्पर्द्धा रखता ईर्ष्या, द्वेष और मनोमालिन्य रखता है यह वृत्तियां उसे आगे बढ़ने से रोकती हैं। सुख और शांति, समृद्धि और सम्पन्नता का राजमार्ग यह है कि मनुष्य भी मिल-जुलकर रहना सीखें अपने हित को दूसरे के हित से जुड़ा हुआ मानकर एक दूसरे के साथ सहयोग करना सीखें यही वृत्ति सामाजिक जीवन को व्यवस्थित बना सकती है।
अमरीका के पश्चिमी इलाके लावा, प्रेग्यु लावा, सवान्नाह की चिड़ियों का सामाजिक जीवन मनुष्य को पारस्परिक सहयोग की महत्वपूर्ण प्रेरणा देता है। यह पक्षी अपने भोजन के लिये एकान्त में घूमते हैं पर उदर पोषण की आवश्यकता पूरी हुई कि सामाजिक जीवन का आनन्द लेने के लिये इकट्ठे हो जाते हैं और फिर उनमें तरह-तरह के खेल-कूद होते हैं उसे देखकर ऐसा लगता है कि मनुष्य को क्लबों की प्रेरणा शायद इन पक्षियों ने ही दी हो। सच पूछा जाये तो सारा मनुष्य समाज एक क्लब है यदि लोगों ने पेट और प्रजनन को एक साधारण कर्त्तव्य मानकर उसी के लिये लड़ाई-झगड़े बढ़ाये न होते जीवन को इन पक्षियों की तरह क्रीड़ा समझा होता और हिल-मिल कर खेला होता तो आज जो असंख्य सामाजिक समस्यायें शान्ति और व्यवस्था में संकट उत्पन्न कर रही हैं न होतीं, मनुष्य हंसी-खुशी का जीवन जी रहा होता।
मनुष्य में सहयोग की भावना ही परस्पर श्रद्धा अनुशासन, प्रेम और कर्त्तव्य-निष्ठा के भाव भरती है। सहानुभूति विहीन जीवन कष्ट और उलझन का ही नहीं हिंसा और बर्बरता का भी जीवन बन जाता है। ऐसा तो असभ्य जंगली जानवर तक नहीं पसन्द करते मनुष्यों को क्यों पसन्द करना चाहिये? रूसी प्राणी-विशेषज्ञ श्री साइबर्ट सोफ मैदानी क्षेत्र में रहने वाले जानवरों का अध्ययन कर रहे थे—तब उनके सामने एक विचित्र घटना घटित हुई उन्होंने देखा एक सफेद पूंछ वाला उकाब पक्षी आकाश में मंडरा रहा है। आधे घन्टे तक वैसे ही मंडराते रहने के बाद उसने एक प्रकार की ध्वनि की। यह आवाज तेज थी। लगता था उसने किसी को दौड़कर आने के लिए पुकारा हो। वह आवाज सुनते ही दूसरे उकाब ने आवाज की और दौड़कर उसके पास आ गया। इस तरह दस-बारह उकाब वहां एकत्रित हो गये। फिर जाने क्या बात हुई, वे सब गायब हो गये। दोपहर के लगभग उकाबों का पूरा झुण्ड उसी स्थान पर उतरा। साइबर्ट सोफ ने ऐसी पोजीशन ली जहां से उनकी सारी हरकत देखी जा सकें। सभी उकाब एक घोड़े की लाश के पास पहुंचे। सबसे पहले बूढ़े उकाबों ने उसका मांस खाया। फिर वे हटकर निगरानी करने लगे और तब दूसरे उकाबों ने मांस खाया। उकाबों की—इस सामाजिक भावना ने साइबर्ट सोफ को बहुत प्रभावित किया।
प्रिंस कोपाटिन ने अपना सारा जीवन प्रकृति के अध्ययन में लगाया। उन्होंने जीव-जन्तुओं के व्यवहार से जो निष्कर्ष निकाले हैं उन्हें ‘संघर्ष नहीं सहयोग’ पुस्तक में एकत्रित कर बताया है कि मनुष्य जाति की सुख समुन्नति स्पर्द्धा में नहीं, भावनाओं के विकास में है। भावनाओं के विकास से वह अभावपूर्ण जीवन में आनन्द और उल्लास हंसी और खुशी प्राप्त कर सकता है। उन्होंने लिखा है—ध्रुव प्रदेश के राजहंस परस्पर कितने प्रेम और विश्वास के साथ रहते हैं उसे देखकर मानवीय बुद्धि पर तरस आता है और लगता है कि मनुष्य ने बुद्धिमान होकर भी जीवन की गहराइयां पहचानी नहीं। कई बार कोई राजहंसिनी अपने बच्चों को घमण्ड में या आवेश में ठुकरा देती है तो उन पिता रहित बच्चों को बगल की मादा अपने साथ मिला लेती है, उसके अपने भी बच्चे होते हैं पर वे सब बच्चे इस तरह घुल-मिल जाते हैं मानो वे दो पेट से पैदा हुये न होकर एक ही नर और मादा की सन्तान हों। मादा उन सबको समान दृष्टि से प्यार देती है और उनकी साज-संभाल तब तक रखती है जब तक वे बड़े नहीं हो जाते। बड़ी बत्तखें घर बनाने की अभ्यस्त नहीं होतीं, इसलिये उन्हें अपने अण्डे रखने की दिक्कत आती है। संसार में अभाव न हो तो गति कहां से आये? प्रगति के लिये तो कठिनाइयां आवश्यक भी हैं मनुष्य उसे नहीं समझता जब कि मनुष्येत्तर प्राणी उसे समझकर अपने जीवन को ह्रास—उल्लासमय तथा निर्द्वन्द बनाये रखते हैं। बड़ी बत्तखें अपने अण्डे इकट्ठा एक ही स्थान पर रख देती हैं और क्रम-क्रम से बैठकर उन्हें सेती रहती हैं। इससे कई बत्तखों का परिश्रम बचता है, परेशानी बचती है। संगठित परिवारों की परम्परा भारतीय जीवन पद्धति का ऐसा ही आदर्श है पर आज तो हम लोग उसे भूलते जा रहे हैं और एकान्तवाद की पीड़ाओं से जकड़ते चले जा रहे हैं।
परस्पर सहयोग की महत्ता समझने वाले लोग देश और जातियां अपराजेय होती हैं वे कहीं भी चली जायें वहीं अपना प्रभाव स्थापित कर लेती हैं। एक बार फोरल नामक प्राणि विशेषज्ञ ने एक स्थान की चींटियों के झुण्ड को एक थैले में भरा और उसे एक ऐसे स्थान पर लाकर छोड़ दिया जहां बहुत से चींटी भक्षी—ग्रास हापर्स तथा पतिंगे रहते थे, बर्र, मकड़ियां और गुबरैलों की जहां जमाते लगीं थीं। इनमें से एक भी जीव ऐसा न था जो चींटियों से कई गुना बलवान न रहा हो। चींटियों के वहां पहुंचते ही बर्रों ने युद्ध ठान दिया पर संगठित चींटियां घबराई नहीं। उनमें से कितनी ही शहीद हो गईं पर उनके संगठित हमले के आगे बर्रे न टिक सकीं। गुबरैले यह देखकर बिना प्रतिरोध वहां से खिसक गये, पतिंगों और ग्रास हापर्स ने अपने बने बनाये किले चींटियों के लिये खाली कर दिये। निर्वासित चींटियों ने संगठित शक्ति के बल पर वहां भी पहले जैसा ही साम्राज्य स्थापित कर लिया।
यह उदाहरण मनुष्य जाति के, देश और समाज को सुख समुन्नति के आधार हैं। जो भी इसे समझ पाया निहाल हो गया, सर्व समर्थ हो गया जिसने सहयोग के महत्व को भुलाया वह टूट गया, बिखर गया और जीवन के मोर्चे पर हार गया समझना चाहिये।
जहां तक सुख की चाह का प्रश्न है, जान स्टुअर्ट के सिद्धान्त का कोई भी विचारशील व्यक्ति खण्डन नहीं करेगा।
आनन्द वृद्धि के लिये उपयोगितावादी सिद्धान्त हमें निरन्तर भौतिकता की ओर अग्रसर करते हैं और हमारी आध्यात्मिक आवश्यकताओं को उस तरह भुलावा देते हैं, जैसे रेगिस्तान के शुतुरमुर्ग शिकारी को देखकर अपना मुख बालू में छिपाकर अपनी सुरक्षा अनुभव करते हैं। आज के संसार में बढ़ रही अशान्ति और असुरक्षा इस सिद्धान्त की ही देन है।
प्रकृति में बड़ी शक्तियों द्वारा छोटी शक्तियों के शोषण के सिद्धान्त अपवाद मात्र हैं। अधिकांश संसार तो सहयोग और सामूहिकता के सिद्धान्त पर जीवित है। उस क्षण की कल्पना करें, जब सारे संसार के लोग बुद्धि-भ्रष्ट हो जायें और परस्पर शोषण पर उतर आयें तो सृष्टि का विनाश एक क्षण में हो जाये। हम प्रकृति को सूक्ष्मता से देखें तो पायेंगे कि उसका अन्तर्जीवन कितना करुणाशील है। छोटे-छोटे जीव-जन्तु, वृक्ष, वनस्पतियां भी किस प्रकार परस्पर सहयोग और मैत्री का जीवन-यापन कर रहे हैं। मानवीय सभ्यता तो जीवित ही इसलिये है कि इतने भौतिक विकास के बाद भी हम मनुष्य, मनुष्य के प्रति प्रेम, दया, करुणा, उदारता, सहयोग और सामूहिकता के सम्बन्ध को तोड़ नहीं सकते।
गांवों के किसानों से कोई पूछे कि वे एक खेत में कई फसलें मिलाकर क्यों बोते हैं? तो उपयोगितावाद के सिद्धान्त का खण्डन करने वाले तथ्य ही सामने आयेंगे। ज्वार और अरहर साथ-साथ बोई जाती हैं। मूंग, उड़द और लोबिया आदि दालें भी ज्वार के साथ बोई जाती हैं। ज्वार का पौधा बड़ा होता है, यदि उपयोगितावाद प्रकृतिगत या ईश्वरीय नियम होता तो वह इन दालों को पनपने न देता। होता यह है कि दालों को ज्वार के पौधों से बढ़ने और हृष्ट-पुष्ट होने में सहायता मिलती है। उधर ज्वार को नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है, सो वह काम अरहर पूरा करती है। वह वायु मण्डल से नाइट्रोजन खींच कर कुछ अपने लिये रख लेती है, शेष ज्वार को दे देती है, जिससे वह बढ़ती और अच्छा दाना पैदा करने की शक्ति ग्रहण करती रहती है।
पान की बेल आम के वृक्षों के सहारे ही बड़े अच्छे ढंग से बढ़ती है। उन्हें किसी घने वृक्ष की छाया न मिले तो बेचारी का जीवन ही संकट में पड़ जाये। यहां बड़ा छोटे के हितों की रक्षा करता है। अमर बेल बेचारी जड़ हीन होने से स्वयं सीधे आहार नहीं ले सकती, इसके लिये उसे बड़े वृक्षों का ही संरक्षण मिलता है। जिसके पास भी साधन और सम्पत्तियां हैं, वे उसे अपनी ही न समझकर समस्त वसुधा भी समझकर आवश्यकतानुसार उदारतापूर्वक अल्प विकसितों को बांटते रहें तो विषमता उत्पन्न ही क्यों हो? बड़ी शक्तियां छोटी शक्तियों का शोषण करें, यह प्राकृतिक नियम नहीं। प्रकृति आश्रित को जीवन देने और उसके विकास में सहायता करने का कार्य करती है। ‘छोटी पीपल’ महत्त्वपूर्ण औषधि है, वह अपना विकास किसी घने छायादार वृक्ष के नीचे ही कर सकती है। इलायची नारियल के वृक्ष की छाया में बढ़ती है। बड़ा पेड़ अपने नीचे के छोटे पेड़ों को खा ही जाय यह सार्वभौम नियम नहीं है।
एक गांव में एक अन्धा रहता था, दूसरा लंगड़ा। एक दिन अकस्मात गांव में आग लग गई। समर्थ लोग अपना-अपना सामान लेकर सुरक्षित भाग निकले। लंगड़ा और अन्धा दो व्यक्ति ही ऐसे रहे, जिन बेचारों के लिये बाहर निकलना सम्भव न था। एकाएक अन्धे को एक उपाय सूझा। उसने लंगड़े से कहा—यदि आप मुझे रास्ता बताते चलें तो मैं आपको कन्धे पर बैठाकर यहां से निकल सकता हूं और इस तरह हम दोनों भी यहां से सुरक्षित बच सकते हैं। लंगड़े को योजना पसन्द आ गई। अन्धे ने उसे कन्धों पर बैठाया। लंगड़ा उसे दिशा दिखाता चला और इस तरह दोनों एक रास्ते से आग की लपटों से बचकर बाहर आ गये।
अन्धे और लंगड़े की यह कहानी मनुष्य समाज की सुरक्षा और सुख के सिद्धान्त का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यहां कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं, सब अपूर्ण हैं। डॉक्टर औषधिशास्त्र का पण्डित हो सकता है, कानून-शास्त्र का नहीं। इंजीनियर मशीनों का ज्ञाता होकर भी व्यापार शास्त्र की दृष्टि से निरा बालक रहता है। वैज्ञानिक के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह अपने ही बच्चों का शिक्षण आप कर ले उसके लिये, उसे प्रतीक्षित अध्यापकों वाले कालेज का ही सहयोग लेना पड़ेगा। अपूर्णताओं वाले संसार में यदि उपयोगितावाद को खुला समर्थन दिया जाने लगे तो सबके सब अपने को उपयोगी मानकर छल-कपट, शोषण और अत्याचार करने लगें, ऐसी स्थिति में अशिक्षित किन्तु स्वस्थ और बलिष्ठ भी अपने शरीर की उपयोगिता सिद्ध करना चाहेगा। वह चोरी, डकैती और दूसरी तरह के अपराध करेगा, क्यों कि उसे न्याय और नियन्त्रण में रखने वाली बौद्धिक शक्ति स्वयं पंगु हो चुकी होती है। यदि सब उदारतापूर्वक एक दूसरे से सहयोग का मार्ग अपना लें तो हर कोई स्वल्प साधनों में भी आनन्द की उपलब्धि करले। आज की स्थिति जो गड़बड़ है, उसको दोष इस उपयोगितावाद को ही दिया जा सकता है।
समुद्र में शंख पाया जाता है। उसका कीड़ा निकल जाता है, तब ‘आर्थोपोड़ा वर्ग का हरमिट क्रेब’ नामक जल-जन्तु उसमें जा बैठता है। सोचता तो वह ये था कि यहां वह सुरक्षित रहेगा, किन्तु यहां भी उसे शत्रु का भय बना रहता है। मछलियां उसे कभी भी पकड़कर खा जाती हैं। यदि उपयोगितावाद का सिद्धान्त ही सत्य और व्यावहारिक रहा होता तो इस कीड़े की वंशावली ही समाप्त हो गई होती।
पर प्रकृति ने उसे सहयोग के लिये प्रेरित किया। वहीं पर ‘फाइसेलिया’ नामक एक जानवर पड़ा होता है। बेचारा अपने आहार के लिये चल फिर नहीं सकता। आर्थोपोड़ा उसे अपने शंख की पीठ पर बैठा लेता है और उसे यहां से वहां घुमाता रहता है। प्रत्युपकार में फाइसेलिया उस आर्थोपोड़ा की रक्षा का भार स्वयं वहन करता है। फाइसेलिया अपने शरीर से काई की तरह का एक दुर्गन्धित पदार्थ निकालता रहता है, फलस्वरूप वह जहां भी रहता है, मछलियां भयभीत होकर पास नहीं आतीं और यही द्रव छोटे-छोटे जन्तुओं के मारने के काम आता है और इससे फाइसेलिया और हरमिट क्रेब दोनों को भोजन भी मिल जाता है और इस तरह आर्थोपोड़ा का जीवन सुरक्षित बना रहता है। इससे यह मालूम होता है कि प्रकृति ने यदि सहयोग और सद्भाव की प्रेरणा अन्तरंग से न दी होती तो सृष्टि के संपूर्ण प्राणियों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता। एक कोषीय जीव को प्रोटोजोन्स कहते हैं। इनके हाथ-पैर, मुख आदि कुछ नहीं होते। एक नाभिक (न्यूक्लिस) होता है और उस के आस-पास ‘साइटोप्लाज्म’। अमीबा एक ऐसा ही प्रोटोजीव है। इसी की जाति का ‘पैरामीसियम’ नामक जीव जब थक जाते हैं और जीवन शक्ति बहुत कम पड़ती जाती है या बुढ़ापा अनुभव करते हैं, तब दो पैरामीसियम मिलकर एक दूसरे से साइटोप्लाज्म (एक प्रकार का द्रव सा होता है जिसमें पानी के अतिरिक्त गैसें, खनिज, धातुयें, लवण, पोटेशियम, फास्फोरस आदि विभिन्न तत्व होते हैं। अदल-बदल लेते हैं, इससे उनमें पुनः एक नई शक्ति आ जाती है।
एक समय था जबकि अंजीर केवल अर्जेन्टाइना में पाई जाती थी। वहां से स्माइराना नामक अंजीर के कुछ पौधे कैलीफोर्निया (अमेरिका) में लाये गये। इन पौधों को उगाने के लिए बहुतेरे प्रयत्न किये गये, अच्छी खाद दी गई, पानी दिया गया, मिट्टी दी गई पर सब कुछ निरर्थक गया। अंजीर का पौधा बढ़ तो गया, उसमें फूल भी आ गये, किन्तु बांझ। उन फूलों पर फल उतरे ही नहीं। वैज्ञानिकों ने परागण (पोलीनेशन) के सारे प्रयत्न कर लिये पर उनकी एक न चली।
अन्त में अमेरिका के एक वैज्ञानिक उस देश गये जहां से अंजीर का पौधा आया था। पौधे के विकास का सूक्ष्म अध्ययन करते समय उन्होंने देखा कि एक विशेष जाति की बर्र (मक्खी) ही जब इन पौधों पर आती है, तभी ‘पोलीनेशन’ (पौधों में संयोग) की क्रिया सम्पन्न होती है। इन बर्रों को तब कैलीफोर्निया लाया गया। जैसे ही वह बर्रें इन पौधों के फूलों पर बैठीं ‘पोलीनेशन’ क्रिया प्रारम्भ हो गई और बांझ अंजीर के पौधे खूब फलने लगे। यह बर्र भी इस फूल से अपने लिए पर्याप्त पराग प्राप्त करती रहती है। उसका अधिकांश पोषण इन अंजीर के ही फूलों से होता है।
‘पोलीनेशन’ के लिये सहयोग की क्रिया और भी कई पौधों पर विचित्र ढंग से होती है। मक्खियां, तितलियां तो चाहे जिस पौधे को इस क्रिया में एक फूल का पराग दूसरे फूल में पहुंचाकर करती रहती हैं, किन्तु अमेरिका में एक ऐसा जंगली पौधा पाया जाता है, जो ‘प्रोन्यूबा’ नामक एक सफेद पतंगे के बिना गर्भ ही धारण (फर्टलाइज) नहीं करता।
प्रेम, सहानुभूति और दया एक दूसरे की आत्मिक आवश्यकताओं को पहचान कर सहयोग देने, सहायता देने की पद्धति के पर्याय हैं। उन आवश्यकताओं को अन्तरंग में प्रवेश करके ही जाना जा सकता है। मादा प्रोन्यूबा जब यह पौधा खिलता है तो फूल पर जा बैठती है और अपनी टांगों की सहायता से पराग को इकट्ठा करके छोटी गेंद का आकार बना लेती है और उसे अपने पैरों में ही चिपका लेती है। फिर वह वहां से उड़ती है और दूसरे फूल पर जा बैठती है और गोलाकार बनाये हुए उस पराग को फूल में छोड़ देती है जिससे वह फूल ‘फर्टलाइज’ हो जाता है। प्रोन्यूबा उसी फूल की ‘ओबरी’ (गर्भाशय) में बैठकर फिर यह पतंगा अपने अण्डे दे देती है। यह अण्डे काफी बड़े होने तक उसी फूल में पलते रहते हैं। न तो इस फूल के बिना पतंगे का वंश विकास सम्भव है न इस पतंगे के बिना फूल का। यह तो उदाहरण मात्र है, सच बात तो यह है कि सारा संसार ही प्रेम और सहयोग के द्वारा विकसित हो रहा है। इन गुणों के बिना सृष्टि का चलना एक पल को भी सम्भव नहीं।
‘जूक्वोरेली’ एक प्रकार की वनस्पति है, जो अन्य वनस्पतियों के समान खुले आकाश में नहीं जीवित रह पाती। उसकी कोमल-कोशायें, धूप, शीत और वर्षा के तीव्र आघात सहन करने में वैसे ही असमर्थ होती हैं, जैसे कोमल बच्चे, बीमार और अपाहिज व्यक्ति।
हाइड्रा एक छोटा सा जीव है, उसे भोजन की आवश्यकता होती है पर अपने लिये उपयुक्त भोजन की प्राप्ति कर पाना उसके लिये कठिन होता है। प्रकृति ने उसकी परिस्थितियां ही कुछ ऐसी बनाई है।
एक वनस्पति दूसरा जीव दोनों इस संसार में दिखाई न देते, यदि सचमुच संसार में ‘समर्थ का जीवन’ का ही सिद्धान्त काम कर रहा होता। माना कि जीव-मात्र के सुधार के लिये प्रकृति को कठोर और दण्डात्मक प्रक्रिया का भी कभी-कभी संचालन करना पड़ता है पर वह कोमल और सम्वेदनशील अधिक है। अपने प्रत्येक अणु-अणु को वह परस्पर प्रेम-सहयोग और सहानुभूति पूर्वक जीने की प्रेरणा देती रहती है। उसका उदाहरण जब इन छोटे छोटे जीवों और वनस्पतियों पर भी देखने को मिलता है, तब विश्वास हो जाता है कि निर्माण ही विश्व का सत्य है ध्वंस नहीं, सहयोगी ही सर्वकल्याण का सर्वोत्तम सिद्धान्त है, उपयोगितावाद नहीं।
उपरोक्त परिस्थितियों में ‘जूक्लोरेली’ पौधा ‘हाइड्रा’ जीव के शरीर में रहने लगता है, वहां वह अपने आपको सुरक्षित अनुभव करता है। पर चूंकि वह वनस्पति है, इसलिये उस भोजन प्रकाश संश्लेषण (फोटो सिंथेसिस अर्थात् सूर्य प्रकाश में होने वाली एक रासायनिक प्रक्रिया) क्रिया से मिल सकता है उसके लिये कार्बन डाई ऑक्साइड गैस मिलना आवश्यक हो जाता है, ताकि आवश्यक क्लोरोफिल (हरा पदार्थ) तैयार करके वह अपने सम्पूर्ण अंगों का सेवन कर सके। इस कार्बन डाई ऑक्साइड की आवश्यकता को हाइड्रा अपनी छोड़ी हुई सांस से पूरी कर देता है और जूक्लोरेली द्वारा छोड़ी हुई ऑक्सीजन आप ग्रहण कर लेता है। इस तरह परस्पर सहयोग से दोनों प्रसन्नतापूर्वक जीते हैं। फोटो सिंथेसिस किया से हाइड्रा को भी शक्ति मिलती रहती है।
जीव और वनस्पति में सहयोग को और अच्छी तरह समझना हो तो हमें कृषि-विज्ञान की ‘लैग्युमिनौसी’ अर्थात् फलियों वाले पौधों जैसे चना, मटर, सेम, सोयाबीन आदि की रचना, जीवन धारण और विकास पद्धति का अध्ययन करना पड़ेगा। इन पौधों की जड़ों में बड़ी बड़ी गांठें होती हैं। स्थूल आंख से तो नहीं पर किसी गांठ को चीड़ कर सूक्ष्मदर्शी यन्त्र (माइक्रोस्कोप) से देखें तो उसके अन्दर अरबों की संख्या में जीवाणु (बैक्टीरिया) हलचल करते हुए दिखाई देंगे। प्रकृति ने सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों की सुरक्षा के कितने सुदृढ़ खोल तैयार किए हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है पर यह सब उसने केवल सुरक्षा के लिये ही नहीं, विश्व में मैत्री और सहयोगी प्रवृत्ति के विकास के लिए किया लगता है, क्योंकि इन गांठों में रहने से जीवाणु सुरक्षित पड़े रहते हों, इतना ही नहीं जीवाणु और यह पौधे दोनों एक दूसरे के विकास में पति-पत्नी की तरह भाई-भाई और पड़ौसी-पड़ौसी के समान महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान करते हैं।
पौधों के अच्छे विकास के लिए आवश्यक है कि मिट्टी से नाइट्रोजन की पर्याप्त मात्रा मिले। जड़ें हलकी होने के कारण यह काम नहीं कर सकतीं, इसलिए मात्र नाइट्रोजन चूसकर देने का किराया लेकर यह पौधे उन जीवाणुओं को आजीवन अपने भीतर सुरक्षित स्थान दिये रहते हैं।
हमारे समाज में बहुत लोग ऐसे हैं, जो शिक्षा, ज्ञान उपार्जन, शरीर, साधन आदि की दृष्टि से अत्यन्त अविकसित स्थिति में पड़े हैं, प्रकृति का यह सहयोग हमें सिखाता और पढ़ाता है कि हमें उन सब के प्रति भी श्रद्धा रखनी चाहिये उनके उत्थान, भरण-पोषण और संरक्षण के लिये जो भी सम्भव सहयोग कर सकते हैं, वह करना चाहिये। सहयोग के सिद्धान्त से समाज के नकारा लोग भी पल जाते हैं और समर्थ लोगों के विकास और सफलता की सम्भावनायें बदलती हैं।
जीव-जन्तु वृक्ष वनस्पतियों में
यह तो छोटे एक कोशीय सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से दिखाई देने वाले जीवों की बात हुई। वह जीव जन्तुओं तथा वृक्ष वनस्पतियों में भी सहयोग सहकार की—अक्षम असमर्थ और कष्टपीड़ितों का सहयोग करने की प्रवृत्ति पायी जाती है तभी तो पृथ्वी पर कमजोर से कमजोर और क्षुद्र से क्षुद्र प्राणियों का अस्तित्व विद्यमान है।
मध्य योरोप की नदियों में एक 'रेडियश’ नामक मछली पाई जाती है। यह मछली इतनी कमजोर और क्षुद्र होती है कि इसके लिए खुले स्थान पर अण्डे देना एक प्रकार की आफत है। जो भी जीव उधर से गुजरता है, वही उन्हें साफ कर जाता है।
कुछ ऐसे वृक्ष होते हैं, जो अपनी सीमा में छोटे-छोटे पौधों को पनपाते हैं। सारे जंगल में दो-चार ऐसे हिंसक जन्तु भी होते हैं, जो छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं को खा डालते हैं, अफ्रीका के कुछ पौधे ऐसे धोखेबाज होते हैं कि उनमें कोई चिड़िया आश्रय के लिए आई और उन्होंने अपने नुकीले पत्तों से उसे जकड़ कर खून पी लिया। समुद्र में एक-दो मछलियां, एक-दो जन्तु जैसे मगर और घड़ियाल ऐसे भी होते हैं, जो किसी का पनपना देख नहीं सकते, अपने से कम शक्ति का जो भी दांव में आ गया, उसी को चट कर लिया।
विविधा-विपुला प्रकृति में ऐसे दुष्ट प्रकृति के जीव-जन्तु हैं तो पर उनकी संख्या, उनका औसत थोड़ा है पर मनुष्य जाति के दृष्टि-दोष को क्या कहा जाये, जो इन दो-चार उदाहरणों को लेकर ‘उपयोगितावाद’ जैसा मूर्खतापूर्ण सिद्धान्त ही तैयार कर दिया। ढूंढ़ें तो अधिकतर संसार ‘आओ हम सब मिलकर जियें’ के सिद्धान्त पर फल-फूल रहा है। यदि छोटों को मारकर खा जाने वाली बात ही सत्य रही होती तो कुछ ही शताब्दियों में विश्व की आबादी दो गुनी से भी अधिक न हो गई होती।
प्रस्तुत प्रसंग यह बताता है कि संसार के अबुद्धिमान जीव-जन्तु भी परस्पर मिलकर रहना कल्याणकारक मानते हैं। यहां रेडियश मछली पाई जाती है, वहीं एक ‘सीप’ नामक जीव भी पाया जाता है। सीप के शरीर को कछुये की सी तरह का एक मोटा और कड़ा आवरण घेरकर रखता है, जिससे वह अपने अण्डों की सेवा नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में रेडियश मछली और सीप दोनों मिलते हैं और ‘आओ हम—आप दोनों मिलकर जियें’ के अनुसार समझौता कर लेते हैं।
रेडियश अपने अण्डे सीप के खोल में प्रविष्ट कर देती है, इसी समय सीप अण्डे देती है, वह रेडियश अपने शरीर से चिपका लेती है। रेडियश घूम-घूमकर अपने लिये भोजन इकट्ठा करती है, उसी के दाने-चारे पर सीप के बच्चे पल जाते हैं, जबकि उसके अपने बच्चों को सीप पाल देती है। लगता है, विभिन्न जातियों में सहयोग और संगठन की आचार संहिता भारतीय समाजशास्त्रियों ने प्रकृति की इस मूक भाषा को पढ़कर ही तैयार की थी। आज भी उसका मूल्य और महत्त्व सामाजिक जीवन में उतना ही है। इस सिद्धान्त के आधार पर ही संसार सुखी रह सकता है। शोषण, छल, कपट, बेईमानी, अनीति और मिलावट पर नहीं। वह यदि दूसरे के साथ यह दुष्टता करेगा तो शेष वातावरण उसके लिए भी वैसा ही तैयार मिलेगा।
यह उदाहरण कोई अपवाद नहीं। अखण्ड-ज्योति के पिछले अंकों में ऐसे सैकड़ों उदाहरण देते चले आ रहे हैं। ‘एलगी’ जाति के ‘प्रोटोकोकश’ पौधे और फसग जाति के ‘एस्कोमाइसिटीज’ पौधे भी आपस में मिलकर एक दूसरे की बहुत सुन्दर ढंग से पोषण की वस्तुएं प्रदान करते हैं। हमें शिक्षक ज्ञान देता है, शिक्षा देता है पर हम अपनी अनपढ़ धर्मपत्नी या अशिक्षित पड़ौसी के लिये एक घण्टा भी नहीं निकाल सकते, हमारे माता-पिता जब हम बच्चे थे, तब आधे पेट, गीले वस्त्रों में सोकर हमारी परवरिश करते थे पर आज जब वे वृद्ध हो गये, तब हम उनकी कितनी अवहेलना करते हैं। नाई, धोबी, तेली, कुम्हार, दुकानदार, रेल वाला, सारा संसार यों कहिये अपनी सेवायें हमें देने को तत्पर है, तब यदि हम दूसरों को धोखा देने की बात सोचें कृतघ्नता दिखायें तो ऐसे व्यक्ति से नीच और घृणित कौन होता?
पौधों का क्या अस्तित्व पर वे मनुष्य जाति से अच्छे हैं। ऊपर के दोनों पौधे मिलकर एक चपटे आकार का ढांचा बना लेते हैं, उसे ‘जूलाजी’ में ‘लाइकन’ कहते हैं। इसमें से होकर एलगी की जड़ें फसग के पास पहुंचती हैं और फसग की एलगी के पास। एलगी के पास जिस तत्व की कमी होती है, उसे फंसग पूरा कर देता है और फंगस की कमी को एलगी दोनों के आदान-प्रदान में यह थैला भी विकसित होता रहता है। औरों के कल्याण में अपना कल्याण, सबकी भलाई में अपनी भलाई अनुभव करने वाले समाज इसी तरह विकास और वृद्धि करते हैं और अपने साथ उन छोटे-छोटे दीन-हीन व्यक्तियों को भी पार कर ले जाते हैं, जो सहयोग के अभाव में दबे पड़े पिसते रहते हैं।
‘स्कारपियन’ मछली अपने शरीर के ऊपर छोटे-छोटे हाइड्रा जाति के जीवों को फलने-फूलने देती है, वे छोटे-छोटे जन्तु हजारों की संख्या में एक सिरे से दूसरे सिरे तक पूरी तरह में फैले रहते हैं। देखने में यह हरे रंग के होते हैं। मछली के शरीर के ऊपर इनका पूरी तरह पोषण होता रहता है।
हर कोई लाभान्वित
बेहरिंग के काफिले ध्रुवप्रदेश में चला करते हैं। प्राकृतिक जीवन के अभ्यस्त यह काफिले वहां की सारी कठिनाइयों का मुकाबला बड़ी आसानी से कर लेते हैं किन्तु जो सबसे बड़े आश्चर्य की बात है वह यह कि यह काफिले वहां की छोटी-छोटी लोमड़ियों से मात खा जाते हैं। उनकी इस आप-बीती को सुप्रसिद्ध लेखक स्टेलर ने बेहरिंग के काफिलों का युद्ध कहा है और बताया है कि प्रारम्भ में यह काफिले जिस स्थान पर डेरा डालते वहां की लोमड़ियां आतीं और उनका खाना चुरा ले जातीं निदान खाने को पत्थरों से ढक कर रखा जाने लगा। पत्थर भी इतने वजनदार रखे जाते की बड़ी से बड़ी लोमड़ी भी उन्हें उठाकर अलग न कर सकती। काफिले वाले असमंजस में थे कि तब भी उनका खाना चोरी गया मिलता और पत्थर उस स्थान से दूर फेंका मिलता।
ऐसा लगा कि कोई बड़ा जानवर आता है अतएव ताक की गई। बात बड़ी विचित्र निकली, एक साथ कई लोमड़ियों का झुण्ड आया उनमें से एक ऊंची टेकरी पर खड़ी हो गई, एक दूसरी तरफ। यह थीं चौकीदार उनका काम किसी भी सम्भावित हमने की सूचना अपने साथियों को देना होता था। शेष लोमड़ियां आगे बढ़ीं और एक साथ शक्ति लगाकर वजनदार पत्थर को उठाकर अलग कर दिया और खाना चुरा ले गई।
अब काफिले वालों ने एक के ऊपर एक पत्थर रखकर ऊंचा खम्भा उठाया और उसके ऊपर खाना रखा, पर लोमड़ियों से वह तब भी न बच सका। अब लोमड़ियों ने अपनी पीठ पर चढ़ाकर किसी चुस्त लोमड़ी को ऊपर चढ़ा दिया उसने ऊपर से खाना गिराया। गिरे हुये खाने को सब उठाया और फिर ऊपर चढ़ी लोमड़ी को उतारा और दूर एकान्त में जाकर सारा खाना बांटकर खा लिया।
इस घटना की समीक्षा करते हुए स्टेलर ने लिखा है, ‘यह आश्चर्य की बात है कि लोमड़ी जैसे छोटे जीव ने सहयोग और सहकारिता के महत्व को समझा और उसका लाभ उठाया जबकि मनुष्य जैसा बुद्धिशील प्राणी परस्पर स्पर्द्धा रखता ईर्ष्या, द्वेष और मनोमालिन्य रखता है यह वृत्तियां उसे आगे बढ़ने से रोकती हैं। सुख और शांति, समृद्धि और सम्पन्नता का राजमार्ग यह है कि मनुष्य भी मिल-जुलकर रहना सीखें अपने हित को दूसरे के हित से जुड़ा हुआ मानकर एक दूसरे के साथ सहयोग करना सीखें यही वृत्ति सामाजिक जीवन को व्यवस्थित बना सकती है।
अमरीका के पश्चिमी इलाके लावा, प्रेग्यु लावा, सवान्नाह की चिड़ियों का सामाजिक जीवन मनुष्य को पारस्परिक सहयोग की महत्वपूर्ण प्रेरणा देता है। यह पक्षी अपने भोजन के लिये एकान्त में घूमते हैं पर उदर पोषण की आवश्यकता पूरी हुई कि सामाजिक जीवन का आनन्द लेने के लिये इकट्ठे हो जाते हैं और फिर उनमें तरह-तरह के खेल-कूद होते हैं उसे देखकर ऐसा लगता है कि मनुष्य को क्लबों की प्रेरणा शायद इन पक्षियों ने ही दी हो। सच पूछा जाये तो सारा मनुष्य समाज एक क्लब है यदि लोगों ने पेट और प्रजनन को एक साधारण कर्त्तव्य मानकर उसी के लिये लड़ाई-झगड़े बढ़ाये न होते जीवन को इन पक्षियों की तरह क्रीड़ा समझा होता और हिल-मिल कर खेला होता तो आज जो असंख्य सामाजिक समस्यायें शान्ति और व्यवस्था में संकट उत्पन्न कर रही हैं न होतीं, मनुष्य हंसी-खुशी का जीवन जी रहा होता।
मनुष्य में सहयोग की भावना ही परस्पर श्रद्धा अनुशासन, प्रेम और कर्त्तव्य-निष्ठा के भाव भरती है। सहानुभूति विहीन जीवन कष्ट और उलझन का ही नहीं हिंसा और बर्बरता का भी जीवन बन जाता है। ऐसा तो असभ्य जंगली जानवर तक नहीं पसन्द करते मनुष्यों को क्यों पसन्द करना चाहिये? रूसी प्राणी-विशेषज्ञ श्री साइबर्ट सोफ मैदानी क्षेत्र में रहने वाले जानवरों का अध्ययन कर रहे थे—तब उनके सामने एक विचित्र घटना घटित हुई उन्होंने देखा एक सफेद पूंछ वाला उकाब पक्षी आकाश में मंडरा रहा है। आधे घन्टे तक वैसे ही मंडराते रहने के बाद उसने एक प्रकार की ध्वनि की। यह आवाज तेज थी। लगता था उसने किसी को दौड़कर आने के लिए पुकारा हो। वह आवाज सुनते ही दूसरे उकाब ने आवाज की और दौड़कर उसके पास आ गया। इस तरह दस-बारह उकाब वहां एकत्रित हो गये। फिर जाने क्या बात हुई, वे सब गायब हो गये। दोपहर के लगभग उकाबों का पूरा झुण्ड उसी स्थान पर उतरा। साइबर्ट सोफ ने ऐसी पोजीशन ली जहां से उनकी सारी हरकत देखी जा सकें। सभी उकाब एक घोड़े की लाश के पास पहुंचे। सबसे पहले बूढ़े उकाबों ने उसका मांस खाया। फिर वे हटकर निगरानी करने लगे और तब दूसरे उकाबों ने मांस खाया। उकाबों की—इस सामाजिक भावना ने साइबर्ट सोफ को बहुत प्रभावित किया।
प्रिंस कोपाटिन ने अपना सारा जीवन प्रकृति के अध्ययन में लगाया। उन्होंने जीव-जन्तुओं के व्यवहार से जो निष्कर्ष निकाले हैं उन्हें ‘संघर्ष नहीं सहयोग’ पुस्तक में एकत्रित कर बताया है कि मनुष्य जाति की सुख समुन्नति स्पर्द्धा में नहीं, भावनाओं के विकास में है। भावनाओं के विकास से वह अभावपूर्ण जीवन में आनन्द और उल्लास हंसी और खुशी प्राप्त कर सकता है। उन्होंने लिखा है—ध्रुव प्रदेश के राजहंस परस्पर कितने प्रेम और विश्वास के साथ रहते हैं उसे देखकर मानवीय बुद्धि पर तरस आता है और लगता है कि मनुष्य ने बुद्धिमान होकर भी जीवन की गहराइयां पहचानी नहीं। कई बार कोई राजहंसिनी अपने बच्चों को घमण्ड में या आवेश में ठुकरा देती है तो उन पिता रहित बच्चों को बगल की मादा अपने साथ मिला लेती है, उसके अपने भी बच्चे होते हैं पर वे सब बच्चे इस तरह घुल-मिल जाते हैं मानो वे दो पेट से पैदा हुये न होकर एक ही नर और मादा की सन्तान हों। मादा उन सबको समान दृष्टि से प्यार देती है और उनकी साज-संभाल तब तक रखती है जब तक वे बड़े नहीं हो जाते। बड़ी बत्तखें घर बनाने की अभ्यस्त नहीं होतीं, इसलिये उन्हें अपने अण्डे रखने की दिक्कत आती है। संसार में अभाव न हो तो गति कहां से आये? प्रगति के लिये तो कठिनाइयां आवश्यक भी हैं मनुष्य उसे नहीं समझता जब कि मनुष्येत्तर प्राणी उसे समझकर अपने जीवन को ह्रास—उल्लासमय तथा निर्द्वन्द बनाये रखते हैं। बड़ी बत्तखें अपने अण्डे इकट्ठा एक ही स्थान पर रख देती हैं और क्रम-क्रम से बैठकर उन्हें सेती रहती हैं। इससे कई बत्तखों का परिश्रम बचता है, परेशानी बचती है। संगठित परिवारों की परम्परा भारतीय जीवन पद्धति का ऐसा ही आदर्श है पर आज तो हम लोग उसे भूलते जा रहे हैं और एकान्तवाद की पीड़ाओं से जकड़ते चले जा रहे हैं।
परस्पर सहयोग की महत्ता समझने वाले लोग देश और जातियां अपराजेय होती हैं वे कहीं भी चली जायें वहीं अपना प्रभाव स्थापित कर लेती हैं। एक बार फोरल नामक प्राणि विशेषज्ञ ने एक स्थान की चींटियों के झुण्ड को एक थैले में भरा और उसे एक ऐसे स्थान पर लाकर छोड़ दिया जहां बहुत से चींटी भक्षी—ग्रास हापर्स तथा पतिंगे रहते थे, बर्र, मकड़ियां और गुबरैलों की जहां जमाते लगीं थीं। इनमें से एक भी जीव ऐसा न था जो चींटियों से कई गुना बलवान न रहा हो। चींटियों के वहां पहुंचते ही बर्रों ने युद्ध ठान दिया पर संगठित चींटियां घबराई नहीं। उनमें से कितनी ही शहीद हो गईं पर उनके संगठित हमले के आगे बर्रे न टिक सकीं। गुबरैले यह देखकर बिना प्रतिरोध वहां से खिसक गये, पतिंगों और ग्रास हापर्स ने अपने बने बनाये किले चींटियों के लिये खाली कर दिये। निर्वासित चींटियों ने संगठित शक्ति के बल पर वहां भी पहले जैसा ही साम्राज्य स्थापित कर लिया।
यह उदाहरण मनुष्य जाति के, देश और समाज को सुख समुन्नति के आधार हैं। जो भी इसे समझ पाया निहाल हो गया, सर्व समर्थ हो गया जिसने सहयोग के महत्व को भुलाया वह टूट गया, बिखर गया और जीवन के मोर्चे पर हार गया समझना चाहिये।