Books - चेतना का सहज स्वभाव स्नेह सहयोग
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Language: HINDI
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स्नेह सद्भाव के वश में संसार
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बाहुबल और साधन शक्ति के द्वारा दूसरे व्यक्तियों को जितना प्रभावित किया जा सकता है, उससे असंख्य गुना अधिक स्नेह सद्भाव से प्रभावित किया जा सकता है और उन्हें वशवर्ती बनाया जा सकता है। उसका यही कारण है कि सारा संसार और उसका एक एक घटक संघर्ष व टकराव के आधार पर नहीं, सद्भाव और घनिष्ठता के आधार पर ही परस्पर सुसम्बद्ध सुसंचालित है।
सद्भावनाओं को बढ़ाकर—स्नेह और आत्मीयता का क्षेत्र विकसित कर दूसरों को प्रभावित करने में जितनी सफलता पायी गयी है उतनी संघर्ष, शक्ति प्रयोग और आक्रमण द्वारा कहीं भी नहीं मिली है। स्नेह, सद्भाव अर्थात् प्रेमपूर्ण अन्तःकरण का प्रभाव केवल मनुष्यों पर ही नहीं पशु पक्षियों पर भी पड़ता है।
इस तथ्य को प्रतिपादित करने में इंग्लैण्ड के एक सामान्य व्यक्ति ने न केवल तर्क प्रस्तुत किये वरन् प्रामाणिकता की प्रतिमा बनकर स्वयं ही खड़ा हो गया। उसने न केवल सामान्य पशुओं पर प्रेम की प्रतिक्रिया का प्रदर्शन किया वरन् यह भी साबित कर दिया कि खूंखार, उद्दण्ड और जंगली जानवरों को भी सभ्य और मृदुल बनाया जा सकता है। इस व्यक्ति का नाम है—जान सोलेमन रेरी।
उसके पिता ओहियो प्रदेश के फ्रेंकलिन गांव में रहते थे। नाम था एडम रेरी। उनने एक घोड़ा खरीदा। घोड़ा जितना शानदार था उतना ही सस्ता था। एडम ने सोचा इसे सधा लेंगे। पर था वह बहुत ही खूंखार। उसे सिखाने सधाने के लिये दूर-दूर से क्रमशः एक दर्जन से भी अधिक घुड़ सवार बुलाये गये पर वे सभी असफल रहे। घोड़ा किसी के काबू में न आया। एडम ने स्वयं उसे काबू में लाने की कोशिश की और कोड़े मारे। क्रुद्ध घोड़े ने रस्सों से बंधे होते हुए भी उन्हें ऐसा पछाड़ा कि टांग टूट गई। उन्हें अस्पताल भिजवाया गया। घोड़ा छूट निकला। उसे खतरनाक समझकर पुलिस द्वारा उसे मरवा देने का निश्चय किया गया।
बालक जान रेरी उन दिनों सिर्फ 12 वर्ष का था। उसने सारी स्थिति समझी और सीधा उस जंगल में चला गया जहां घोड़ा चौकड़ियां भर रहा था। लोगों को अपनी आंखों पर विश्वास न हुआ जब उन्होंने देखा कि लड़का बिना लगाम और जीन के उस घोड़े की पीठ पर बैठा हुआ घर आ रहा है। पूछने पर उसने बताया यह कोई जादू नहीं है। मुहब्बत यदि गहरी और सच्ची हो तो किसी की भी—यहां तक कि खूंखार पशुओं को भी वशवर्ती बनाया जा सकता है।
बालक की ख्याति घोड़ों के शिक्षक के रूप में फैल गई। लोग अपने-अपने उद्दण्ड घोड़े ठीक कराने उसके पास लाने लगे। सिलसिला घोड़ों का चल पड़ा तो उसने वही काम हाथ में ले लिया। कई वर्ष तक उसे यही काम करना पड़ा। बीस वर्ष का होते होते वह सरकस के लिये घोड़े सधाने की कला में निष्णात हो गया। उसने उन्हें ऐसे ऐसे विचित्र खेल सिखाये जो उससे पहले सरकसों में कहीं भी नहीं दिखाये जाते थे। इससे पहले घोड़े सधाने की कला उन्हें पीटने, भूखा रखने, पैरों में कीलें ठोकने जैसे निर्दय तरीकों पर अवलम्बित थी। रेरी ने सिद्ध किया कि उससे कहीं अधिक कारगर प्यार-मुहब्बत का तरीका है। वह कहता था कि यदि जानवरों को प्यार मिले तो न केवल पालतू प्रकृति के पशु वरन् नितान्त जंगली और मनुष्य से सर्वथा अपरिचित जानवर भी वशवर्ती, सहयोगी एवं सरल प्रकृति के बन सकते हैं। यह उसने सिर्फ कहा ही नहीं वरन् करके भी दिखाया।
जब घोड़े ही उसके पल्ले बंधने लगे तो उसने उनकी आदतें समझने के लिए कई महीने जंगली घोड़ों के साथ रहने की व्यवस्था बनाई। उनकी रुचि और प्रकृति को समझा। उन्हें बदलने एवं सधाने के आधार ढूंढ़े और अपने विषय में पारंगत हो गया। रेरी ने चुनौती दी कि कोई कितना ही भयंकर घोड़ा क्यों न हो वह उसे कुछ ही दिनों में कुछ ही घण्टों में वशवर्ती बना सकता है। पत्रों में छपी इस चुनौती ने घोड़े वालों में भारी दिलचस्पी पैदा कर दी।
छपी चुनौती से प्रभावित होकर लार्ड डारचेस्टर ने रेरी का द्वार खटखटाया। उसने 15 हजार डालर में एक बलिष्ठ घोड़ा—घुड़दौड़ में बाजी जीतने की दृष्टि से खरीदा था। कुछ दिन तक तो वह ठीक रहा पर पीछे वह बेकाबू हो गया। लोहे की जंजीरें तोड़ देता, जंगले उखाड़ देता और कभी-कभी गुस्से से अपनी ही अगली टांगें काट लेता। उसके लिये ईंटों की काल कोठरी बनानी पड़ी। उसी में चारा दाना दिया जाता। पूरे चार वर्ष उसी कोठरी में बन्द रहते हो गये थे।
लार्ड डारचेस्टर ने उस घोड़े को ठीक करने की चुनौती दी। रेरी ने उसे स्वीकार कर लिया। घोड़ा लन्दन तो आ नहीं सकता था इसलिए उसे ही यूरेल्स ग्रीन पहुंचना पड़ा। उस समय घोड़ा अत्यन्त क्रुद्ध था। कोठरी के दरवाजे तोड़ने में लगा हुआ था। उसकी भयंकर स्थिति देखकर लोगों ने समझाया कि वह इसे सुधारने के झंझट में न पड़े और वापिस चला जाय पर रेरी अपनी बात पर अड़ा ही रहा। उसे विश्वास था कि वह किसी भी भयंकर जानवर को—इस घोड़े को भी—अनुशासित कर सकता है। रेरी सीधा घोड़े की कोठरी में निहत्था घुस गया। उसने पीठ और गरदन सहलाई और तीन घण्टे तक उसके साथ बातें करते हुए दुलारता रहा। जब वह घोड़े के साथ उसकी गरदन के बाल पकड़े कोठरी से बाहर आया तो दर्शकों ने उसे जादूगर कहा—पर वह यही कहता रहा यदि प्रेम को जादू कहा जाय तो ही उसे जादूगर कहलाना मंजूर है उसके पास कोई मन्त्र तन्त्र नहीं है।
लार्ड डारचेस्टर इस सफलता पर भाव विभोर हो गये। उनने घोड़े को उपहार स्वरूप रेरी को भेंट किया और साथ ही एक बड़ी धन राशि भी दी।
महारानी विक्टोरिया ने रेरी की ख्याति सुनी तो उनने भी उसकी कला देखने की इच्छा प्रकट की। शाही निमन्त्रण देकर उसे बुलाया गया। प्रदर्शन में रेरी के सामने एक ऐसा घोड़ा प्रस्तुत किया गया जो पहले तीन घुड़सवारों का कचूमर निकाल चुका था। रेरी उसकी कोठरी में निर्भयता पूर्वक घुस गया और सोलह मिनट बाद उस पर सवार होकर बाहर आया। दूसरे घोड़े को तो उसने दस मिनट में ही वंशवर्ती कर लिया।
अब उसे एक अत्यन्त खतरनाक ऐसे घोड़े का सामना करना था जिसने दो घुड़सवारों की पहले ही जान ले ली थी। रेरी घुड़साल में भीतर गया और भीतर से कुंडी बन्द कर ली। साथ ही यह भी निर्देश किया कि जब तक वह कहे नहीं तब तक कोई उसे छेड़ने या दरवाजा खोलने की कोशिश न करे।
घोड़ा अत्यधिक भयंकर था। महारानी सहित प्रतिष्ठित दर्शन रेरी के निहत्थे और एकाकी भीतर घुसने से बहुत चिन्तित थे। पर वह घुसा सो घुसा ही रहा। जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था अधीरता बढ़ती जा रही थी, जब पूरे तीन घण्टे बीत गये और भीतर से कोई हलचल सुनाई न दी तो यही समझ लिया गया कि घोड़े ने रेरी को मार डाला। निदान दरवाजा तोड़ने का आदेश हुआ। भीतर जो कुछ देखा गया उससे सभी स्तब्ध रह गये। घोड़ा फूंस के ढेर पर सोया हुआ था और उसकी टांग का तकिया लगाये रेरी भी खर्राटे भर रहा था। दोनों की नींद खुली। वे परम मित्र की तरह साथ-साथ अस्तबल से बाहर आये तो महारानी विक्टोरिया को अपनी आंखों पर विश्वास न हुआ। वे यह न समझ सकीं कि इतना खूंखार घोड़ा किस प्रकार इतनी जल्दी इतना नम्र बन सकता है।
रेरी ने अपनी कला का प्रदर्शन टैक्सास में किया जिसमें दूर-दूर के दर्शक और पत्रकार आये थे। उसके सामने चार ऐसे घोड़े पेश किये गये जो जंजीरों से कसे रहते थे और चारों ही अपने मालिकों का खून कर चुके थे। रेरी पौन घण्टे सींखचे वाली कोठरियों में अकेला उनके साथ रहा और फिर चारों को अपने साथ खुले मैदान में ले आया। उसने घोड़ों को लेटने का आदेश दिया तो वे बिल्ली की तरह लेट गये। दर्शकों ने भारी हर्ष ध्वनि की।
एक बार तो उसने जंगली बारहसिंगों के एक जोड़े को पालतू कुत्तों जैसा बना लिया और वह उन्हें साथ लेकर प्रेम,दया और आत्मीयता के इस प्रत्यक्ष प्रभाव का प्रदर्शन करता गाँव गाँव घूमा।
फ्रान्स सरकार ने उसके कर्तृत्व की शोध करने और उसका निष्कर्ष निकालने के लिये एक आयोग नियुक्त किया। अमेरिका के राष्ट्रपति बुकेनन ने उसकी शिक्षा पद्धति के नोट्स लेकर ऐसी पुस्तक लिखाई जिससे घोड़ों को सिखाने सधाने में सहायता मिले। अश्व विज्ञान की वह पुस्तक अब भी बड़ी प्रामाणिक मानी जाती है।
खूंखार ह्वेल का स्नेहोपचार
भीमकाय जल दैत्य ह्वेल की चर्चा जन्तु जीवन में अत्यन्त रोमांच और कौतूहल के साथ ही की जाती है, वह कभी उद्धत हो उठे और आक्रमण कर बैठे तो उसके मार्ग में आने वाले बड़े-बड़े जहाज भी सहज ही जलमग्न हो सकते हैं। मामूली नावों को तो उसका एक हलका-सा झटका ही रसातल को पहुंचा सकता है। दुस्साहसी शिकारी ही अपनी जान की बाजी लगाकर उसका पीछा करते हैं। उनका दाब लग गया तो फिर एक ही ह्वेल का तेल, मांस, चमड़ा अस्थि-पंजर आदि की बहुमूल्य सम्पत्ति उन्हें मालों माल कर देती है। कोई-कोई ह्वेल तो एक छोटे मोटे द्वीप जितनी विशालकाय पाई जाती है। उसकी सामर्थ्य का तो कहना ही क्या। सौ हाथियों की सम्मिलित शक्ति भी उसकी तुलना में तुच्छ होती है।
संसार के इतिहास में पहली बार जो घायल ह्वेल जीवित स्थिति में किसी प्रकार पकड़ी गई थी वह मात्र 18 घन्टे जिन्दा रही। दूसरी बार यह विशालकाय ह्वेल 16 जुलाई 1964 में सेटर्ता द्वीप के समीप पकड़ी गई और उसे कैद करके वैक्युओवर सागर तट के निकट ‘ड्राइडाक’ जलयानों की मरम्मत के लिए बनाई गई एक छोटी सी खाड़ी में रखा गया। ड्राईडाक कम्पनी से इसके लिए उस स्थान को जल्दी खाली कर देने में जो शीघ्रता एवं तत्परता बरती और उसे ह्वेल का उपयुक्त कैद खाना बना दिया वह भी एक स्मरणीय सफलता ही कही जायगी।
सैम्युअल व्यूरिख कोई पेशेवर शिकारी नहीं था। वह एक माना हुआ मूर्तिकार, कलाकार था। वैक्यओवर के सार्वजनिक मछली घर की ओर से उसे ह्वेल मछली की मूर्ति बनाने का काम सौंपा गया था। वे मात्र कल्पना के आधार पर नहीं, ह्वेल की यथार्थ आकृति को देखकर तदनुसार कलाकृति, विनिर्मित करने का उसका मन था। इसी प्रयोजन के लिए वे ह्वेल का शिकार करने के लिए आवश्यक नौका सज्जा एवं अस्त्र शस्त्रों के साथ समुद्र में उतरें और जहां ह्वेल रहती थी, उस क्षेत्र की ओर चल पड़े। कई दिनों की ढूंढ़ खोज के बाद आखिर उन्हें सफलता मिल ही गई। एक विशालकाय ह्वेल समुद्र की लहरों को चीरती हुई—मुंह से पानी के ऊंचे फव्वारे उड़ाती हुई तूफानी गति से सामने ही दौड़ती हुई दिखाई दी। स्याह मूसा पत्थर से बनी काली चिकनी मूर्ति की तरह वह मृत्युदूत जैसी लगती थी। खोजी लोग एक बार तो उसे देखकर कांप गये, पर दूसरे ही क्षण उन्होंने साहस बटोरा और हारपून भाला उसे लक्ष्य करके चलाया। हवा में सनसनाता हुआ यह भाला उस जल दैत्य के दाहिने कन्धे में जा घुसा। एक मिनट के लिए श्मशान जैसी निस्तब्धता छाई, फिर थोड़ी ही देर में घायल मछली ऐसा क्रुद्ध कुहराम मचाने लगी मानो वह समुद्र को ही मथ डालेगी। घाव से रक्त की एक नाली सी वह रही थी और उसका बिखराव लहरों पर लाल रंग के झरने की तरह अपना प्रभाव छोड़ रहा था।
नाविकों ने ‘हारपून’ भाले की पूंछ में बंधे हुए रस्से को मजबूती से संभाला। न जाने वह घायल मृत्युदूत इस क्रुद्ध स्थिति में क्या कर गुजरे, इसी आशंका से उस शिकारी नाव में बैठे सभी कर्मचारी कांप रहे थे।
तीन हजार पौण्ड भारी घायल ह्वेल ने आक्रमणकारी नौका पर उलट कर प्रत्याक्रमण किया। अपने विकराल मुख को फाड़कर वह ऐसी झपटी मानो नाव और नाविकों का अस्तित्व इस समुद्र के गर्भ में ही विलीन करके रहेगी। प्रतिशोध और दर्द ने उसे रुद्र रूपधारी बना दिया था। ऐसी भयानकता को देखकर धैर्य भी अधीर हो सकता था। दूसरे नाविक इस जीवन और मृत्यु की संधिबेला में अपने बचाव और आक्रमण को निरस्त करने के सम्भव उपाय बरत रहे थे। पर व्यूरिख ज्यों का त्यों अविचल बैठा रहा। मानो उसकी पुतलियां दत्तचित्त हो ह्वेल का चित्र स्मृतिपटल पर उतारने में कुशल कैमरा मैन की तरह तन्मय हों। यह क्षण बिजली की गति धारण किये हुए थे। आक्रमण का परिणाम कुछ ही मिनटों की अपेक्षा कर सकता था। नाविकों में से एक ने मछली की ओर मशीनगन दागनी आरम्भ की। दूसरे ने हारपून के रस्से को झटका ताकि घाव का दर्द बढ़कर उसे लौटने को विवश करे। तीसरा नाव को आक्रमण की दिशा से हटा रहा था। सभी अपने अपने ढंग के प्रयास कर रहे थे।
पर व्यूरिख को न जाने क्या हुआ। वह किसी भाव प्रवाह में बह रहा था। ह्वेल में न जाने उसने कितना अद्भुत सौन्दर्य देखा और यह उसकी कार्य संरचना कर एक प्रकार से मुग्ध ही हो गया। एक क्षण को उसे लगा कोई मत्स्य कन्या आकाश में उड़ रही है और अपने ऊपर अकारण हुए अन्याय का मर्मस्पर्शी उलाहना दे रही है। कलाकार की करुणा पिघल पड़ी उसकी आंखों में से आंसू ढुलक पड़े उनमें न जाने कितनी आत्म-ग्लानि भरी थी और कितनी मोह ममता। लगा हारपून उसी के कन्धे में चुभा हुआ है। एक बार वह कराह उठा। नाव में बैठे साथी चकित थे कि और नई विपत्ति क्या आई? व्यूरिख को अचानक यह क्या हो गया?
इस हलचल ने एक नया मोड़ लिया। धावमान ह्वेल की गति रुक गई। मानो उसने व्यूरिख की भाव भरी अन्तर्व्यथा को समझा हो और दोष दुर्भाग्य को देती हुई वह इस कलाकार के प्रति अपना प्रेम प्रतिदान प्रस्तुत कर रही हो। हारपून उतना ही गहरा घुसा था। रक्त धारा उसी क्रम से बह रही थी पर उसका प्रत्याक्रमण और क्रोध मानो समाप्त हो गया था। नाविक समझे शायद वह मर रही है। अवसर से लाभ उठाकर वे नये शस्त्र चलाना चाहते थे पर व्यूरिख ने उनका हाथ रोक दिया।
ह्वेल पूर्णतया जीवित और सजग थी, पर वह मन्त्रमुग्ध की तरह नौका के निकट चली आई। पानी में से उसकी चमकीली आंखें उस कलाकार की ओर इस प्रकार टकटकी लगाये टिकी हुई थीं मानो वह अपनी मर्मकथा कवि जैसी संवेदनाओं के साथ व्यक्त कर रही है। व्यूरिख को वस्तुस्थिति समझने में देर न लगी। उसे विश्वास हो गया कि आक्रमण प्रत्याक्रमण का दौर समाप्त होकर भाव भरा आदान-प्रदान चल रहा है। घायल मछली पालतू कुत्ते की तरह नाव के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रही थी। इस स्थिति से डरे और घबराये हुए नाविक को कलाकार यही आश्वासन देता रहा भावना ने आक्रोश को जीत लिया, सद्भावना के प्रवाह में दुर्भावना बहकर चली गई। अब डरने की कोई जरूरत नहीं रह गई। दया ने अब घृणा का स्थान ग्रहण कर लिया है।
व्यूरिकख ने नाव में लगे ट्रान्समीटर द्वारा वैकयूओवर के अधीक्षक न्यूमेन को सूचित किया कि घायल ह्वेल को जीवित पकड़ लिया गया है अब उसके निवास की व्यवस्था की जाय। रेडियो सुनने वाले को विश्वास नहीं हुआ कि यह क्या कहा जा रहा है। कहीं जीवित ह्वेल भी कैद की जा सकती है। बहुत समय पूर्व एक अति घायल मछली को मरणासन्न स्थिति में जीवित पकड़ा गया था वह भी सिर्फ 18 घण्टे जीवित रही। क्या अब ह्वेल को सचमुच ही जीवित पकड़ कर उसे निकट से देखना और उस पर अनुसंधान करना स्वप्न न रहकर एक सच्चाई बनने जा रहा है?
ड्राईडाक झील तक नाव के साथ-साथ ह्वेल चली आई। जहां यह अनुभव किया गया कि नाव के साथ जुड़ा हुआ हारपून का रस्सा ह्वेल को किसी प्रकार का कष्ट पहुंचा रहा है उसके सुधार की उचित व्यवस्था की गई। नाव को इसी ख्याल से बहुत धीमे चलाया गया। कुछ ही घण्टों में पूरी हो सकने वाली वह यात्रा 17 घण्टे में पूर्ण हुई। वैक्यूआवर तट पर इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए हजारों व्यक्ति खड़े हर्षध्वनि कर रहे थे। हर किसी को यह एक जादुई घटना प्रतीत हो रही थी।
बन्दी गृह के रूप में बनी हुई उस खाड़ी में ह्वेल आ गई। अब उसके शरीर में गहरे घुसे हुए ‘हारपून’ भाले को निकालने का प्रश्न था ताकि उसे कष्ट मुक्त किया जा सके और जीवित रखा जा सके। इसके लिए एक बहुत बड़ा आपरेशन आवश्यक था। डा. पैट मेकमीर के नेतृत्व में डाक्टरों का एक दल जान हथेली पर रखकर इसके लिए तैयार हुआ। उन्हें लोहे के सन्दूक में बिठाकर ह्वेल तक पहुंचाया गया। उन्होंने बड़ी फुर्ती से वह कई गज चौड़ा आपरेशन किया और गहरे घुसे हुए भाले को निकाला। लोग आश्चर्यचकित थे कि मछली किस शान्त भाव से किसी समझदार रोगी की तरह उस आपरेशन को बिना हिले डुले सम्पन्न करा रही है। घाव बहुत बड़ा था। उसके विषाक्त होने का खतरा था। इस जोखिम से बचने के लिए पेन्सलीन की एक बड़ी मात्रा बारह फीट लम्बे बांस में भरकर उस जख्म में भरी गई।
इतना सब हो चुकने और कई दिन जी चुकने के बाद यह विश्वास कर लिया गया कि उसे ह्वेल जीवन के विशाल अनुसन्धान के लिए बहुत समय तक पालतू रखा जा सकता है। तब यह सोचा गया कि उसका नामकरण किया जाय और यह पता लगाया जाय कि वह नर है या मादा। काफी ढूंढ़ टटोल के बाद उसे मादा पाया गया। तदनुसार उसका नाम ‘मावी डाल’ रखा गया। इस नामकरण के अवसर समारोह पर भारी वर्षा में पन्द्रह हजार लोग अनुमति पत्र पाकर उस मत्स्य कन्या को देखने आये और लाइन लगाकर बहुत समय में इस अपने ढंग की अनोखी विश्व सुन्दरी के दर्शन का लाभ ले सके।
‘मावी डाल’ की गति-विधियों के अनुसन्धान ने मानव जाति को ह्वेल जीवन की दुर्लभ जानकारियां दी हैं। साथ ही एक और भी उच्च स्तर का सत्य सामने प्रस्तुत किया है कि सद्भावनाओं की शक्ति अपार है उनके आधार पर मृत्यु को अनुचरी बनाया जा सकता है और घृणा को ममता में परिवर्तित किया जा सकता है। यह प्रयोग न केवल मनुष्य-मनुष्य के बीच सफल होता है वरन् प्राणि जगत् का कोई भी जीवधारी सद्भावनाओं की पकड़ से बाहर नहीं हो सकता भले ही वह अविकसित मनोभूमि या क्रुद्ध प्रकृति का ही क्यों न हो। जादू की चर्चा बहुत होती रहती है पर स्नेह और सद्भावना से बढ़कर वीरानों को अपना बना सकने का शक्ति सम्पन्न जादू शायद ही और कोई कहीं हो।
प्यार बड़ा है या क्रूरता
प्यार बड़ा है या क्रूरता? मनुष्य बड़ा है या पशु? साहस बड़ा है या भय? इन प्रश्नों का उत्तर दर्शनशास्त्र के आधार पर प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाय तो उलटे उलझन में फंसना पड़ेगा। तर्क कभी इस पक्ष का समर्थन करेगा, कभी उस पक्ष का। प्रमाण कभी इस पलड़े को भारी करेंगे, कभी इस पलड़े को। बुद्धि की अनिश्चयात्मकता प्रसिद्ध है, वह मान्यताओं अभिरुचियों और पूर्वाग्रहों की गुलाम होती है। भीतरी रुझान जिधर ढुलकाता है बुद्धि उसी के समर्थन में जुट जाती है।
तथ्यों के निर्णय का अच्छा तरीका प्रयोग है। कुछ साहसी लोगों ने इस प्रकार के प्रयोग किये हैं कि क्या जन्मजात हिंसा-प्रवृत्ति के क्रूरकर्मा पशुओं को स्नेह और सद्भावना के वातावरण में रखकर सौम्य और स्नेहिल बनाया जा सकता है। क्या वे अपनी मूल प्रवृत्ति को छोड़कर स्नेह सौजन्य के अनुरूप अपने को बदलने के लिए तैयार हो सकते हैं। ऐसे परीक्षण में जो सफलता मिली है उससे यह निष्कर्ष उभर कर आया है कि क्रूरता पर प्यार विजय पा सकता है। भय को साहस परास्त कर सकता है और पशुता को मनुष्यता निरस्त कर सकती है।
वन्य पशु विशेषज्ञ डेसमांड बेकडे ने अपनी पुस्तक ‘गारा याका’ में उस मादा चीता का वर्णन किया है जिसे उन्होंने एक झाड़ी में पाया था और अपनी बेटी की तरह पाला था। घटना क्रम इस प्रकार है कि एक दिन डेस्मांड महोदय वेचुआना लेण्ड की पूर्वी सीमा पर शाशी और लिपोपो के दुआवे पर निरीक्षण के लिये गये। उन दिनों वे नदियों के संरक्षित वन प्रदेश के वार्डन थे और वन्य पशुओं की देख-भाल की जिम्मेदारी उनकी थी। इस प्रयोजन की पूर्ति वे इस क्षेत्र में दौरे कर के ही कर सकते थे।
उस दिन एक मोटे मगरमच्छ ने पानी पीते हुए चीते पर हमला किया और देखते-देखते उसका सिर चबाते हुए पानी में घसीट ले गया। डेस्माण्ड महोदय इस घटना क्रम के मूकदर्शक न रहे उन्होंने गोली चलाई और पानी में धंसे हुए मगरमच्छ का काम तमाम कर दिया, पर बच चीता भी न सका। उसने पानी से बाहर निकलते-निकलते दम तोड़ दिया। यह मादा चीता थी उसके थनों से दूध टपक रहा था, इससे स्पष्ट था कि वह नव-प्रसूता है। डेस्माण्ड महोदय उस के बच्चों का पता लगाने मादा के पैरों के चिन्हों के सहारे उस झाड़ी के पास पहुंचे जिसमें एक दूसरे से सटे तीनों बच्चे बैठे थे। उनकी उम्र मुश्किल से एक दो सप्ताह की ही रही होगी। डेस्माण्ड उन्हें उठाकर घर ले आये। पालने का प्रयत्न भरसक किया पर उनमें से दो तो मर ही गये। एक को ही जीवित रखा जा सका। वह मादा थी। नाम रखा गया ‘गारा याका’ उसकी उछल-कूद और शैतानी को देखते हुए यह नाम उनके नौकरों ने रखा था। जिसका अर्थ होता है ‘भूत चुड़ैलों की मां’। नाम व्यंग्य में रखा गया था पर पीछे वह प्रचलित हो गया। वह उसी नाम में पुकारने पर उत्तर भी देती थी।
झाड़ी में से लाकर डेस्माण्ड ने यह प्रयोग भी किया कि उन को नव-प्रसूता कुतिया रेवस चीते के बच्चों को अपनी दत्तक सन्तान मानने लगे और दूध पिलाने तथा पालने लगे। इसमें आंशिक सफलता मिली। उसने दूध तो नहीं पिलाया पर साथ-साथ रहना और अपने बच्चों के साथ खेलने देना स्वीकार कर लिया। चीता लड़की इन परिस्थितियों में बढ़ती चली गई और अपने बाल सुलभ चापल्य से इस परिवार का विनोद करती हुई प्रौढ़ बन गई। वातावरण ने उसे दूसरी कुतिया ही बना दिया था। वह रेवस के साथ इतनी घुल-मिल गई थी और वैसी ही आदतों में इतनी अधिक बढ़ गई थी कि आकृति से भले ही वह चीता कही जाय प्रकृतितः कुतिया ही बनकर रह रही थी। गारा याका अपने पालक के साथ शिकार करने जाती और कई बार तो बब्बर शेरों तक से उलझ जाती और उनके छक्के छुड़ाती तेंदुए, चीते और बाघों से भी उसकी टक्करें हुई पर हर बार उसकी बहादुरी सराहनीय ही रही। पालतू प्रकृति के कारण लड़ने से डरने की कमजोरी उसमें नहीं ही आने पाई। इतने पर भी मनुष्य के साथ उसका व्यवहार आजीवन सौम्य और सज्जनोचित ही बना रहा।
दो साल की होने पर गारा याका ने शैशव और किशोरावस्था पार करके यौवन में प्रवेश किया। उसके भाव-भंगिमा और हरकतों में विचित्र प्रकार का परिवर्तन दिखाई पड़ने लगा। तब यही उचित समझा गया कि उसे अपना गृहस्थ बनाने की आजादी दी जाय। अन्ततः उसे चीतों के बाहुल्य वाले जंगल में छोड़ा गया। जहां उसने अपना सहचर ढूंढ़ निकाला और सुहाग-रात मनाने के लिए लगभग दस सप्ताह उधर ही निवास करती रही। इस बीच में समय-समय पर डेस्माण्ड उसकी देख-भाल करने जाते रहे उन्होंने जब भी पुकारा वह अपने प्रेमी को छोड़कर दौड़ आई और जो आमिष उपहार उसे दिये गये उन्हें लेकर अपने साथी के पास वापिस लौट गई।
यह प्रणयकाल दस सप्ताह तक चला। साथी की आवश्यकता पूरी होने पर फिर अपने पुराने घर में उसका आना-जाना आरम्भ हो गया पर यह सब अधिक दिन न चला क्योंकि पशु प्रकृति के अनुसार उसे प्रसव के लिए सघन झाड़ियों वाला एकान्त क्षेत्र ही अनुकूल पड़ता था। प्रसूतिग्रह वह बना ही रही थी कि एक सिंहनी ने उस पर बुरी तरह हमला कर दिया और कई जगह घायल कर डाला। डेस्माण्ड उसकी खोज खबर बराबर रखते थे। घायल होने की बात का जैसे ही पता लगा, वे स्ट्रेचर पर लाद कर उसे घर लाये। जहां उसने दो बच्चों को जन्म दिया उनका पालन भी नाना ने उसी प्रकार किया जैसे कि अपने वनबेटी ‘गारायाका’ का किया था।
उपरोक्त प्रयोग अफ्रीका की जायआडमसन के उस परीक्षण की श्रृंखला में आता है जिसमें उसने सिंहों और चीतों को खुले वातावरण में पाल कर संसार को यह बताया कि स्नेह और विश्वास की शक्ति अपरमित है उन्हें ठीक प्रकार किया जा सके तो बर्बरता को सौजन्य के सम्मुख नतमस्तक ही होना पड़ेगा।
ऐसा ही एक प्रयोग माइकेला का है जिसने हिंस्र पशुओं को स्नेहिल प्रकृति का बनाने का प्रयोग किये उसमें आश्चर्यजनक सफलता पाई।
अमेरिकन युवती माइकेला ने अविवाहित रहने का निश्चय किया था ताकि वह स्वच्छन्दतापूर्वक संसार के वन प्रदेशों और वन जीवों की समीपता का आनन्द ले सके। उसे वनजीवों से बहुत प्यार था, अपने अतृप्त मातृत्व और वात्सल्य की पूर्ति के लिए उसने कितने ही प्राणी पाल रखे थे। जिनमें बहुत जाति के कुत्ते, बिल्लियां, लोमड़ी, नेवले, तोते, बन्दर, चूहे, खरगोश, सांप, गिरगिट आदि सम्मिलित थे। आगे इस दिशा में बहुत कुछ देखने करने की आकांक्षा उसने संजो रखी थी और यथासम्भव प्रकृति के पुत्रों के सान्निध्य में रहने में वह अधिक समय लगाती भी थी।
उसे यह आशा नहीं थी कि इस सनक में कोई पुरुष साथी भी उसे मिल सकता है। पर भाग्य ने सहारा दिया तो वह भी मिल गया। न्यूयार्क में एक भोज में सम्मिलित हो गई तो उसे ठीक ऐसी ही प्रकृति का एक युवक मिल गया। नाम था आर्माण्ड डेनिस। दोनों में घनिष्ठता बड़ी और वह इस समाधान के चरम परिणति पर पहुंची कि दोनों विवाह तो करेंगे किन्तु बच्चे पैदा नहीं करेंगे क्योंकि पहले से ही बहुत बच्चे—विचित्र पालतू जीवों के रूप में मौजूद हैं और भविष्य में उनकी संख्या सहज ही बहुत बढ़ने वाली है। उन का विवाह वस्तुतः प्रकृति निरीक्षण के अनोखे आनन्द को दो साथियों द्वारा मिलकर अधिक हर्षोल्लास युक्त बनाने का एक उद्देश्य पूर्ण समझौता मात्र था। विवाह के बाद दोनों ने और भी अधिक उत्साह के साथ अपना शौक आगे बढ़ाया वे दूर-दूर तक घूमे अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में इस दृष्टि से उन्हें बहुत कुछ देखने के लिये मिला। इस विषय में अंग्रेजी फिल्म भी कम नहीं। शिकार को पकड़ने में उनकी स्फूर्ति जितना काम करती है इससे ज्यादा उनकी वह बुद्धि काम करती है जिसकी सूझ-बूझ शिकार को धोखे में डालकर गफलत का लाभ उठाने में आश्चर्यजनक काम करती है। चीते के बच्चे पालने में उसे रेमण्ड हुक नामक व्यक्ति की सहायता लेनी पड़ी जो हिन्दुस्तान में राजाओं के यहां रहकर चीते पालने की विद्या सीख चुका था।
इन चीते के बच्चों का नाम रखा गया लुनी और मुनी यों वे पल तो गये और तुशुर्द की तरह जंजीर में बंधकर खुली जगह में घूमने के अभ्यासी भी हो गये। झालड रियासत से सम्बद्ध श्री बद्रीप्रसाद जायसवाल को शिकार खेलते समय एक दो महीने का चीते का बच्चा मिल गया, उन्होंने उसे प्रेमपूर्वक पाला। जंजीर से बांधे रखना ही पर्याप्त था, उसे पिंजरे में बन्द करने की कभी जरूरत नहीं पड़ी। जिस वातावरण में उसे पाला गया था उसने आक्रमणकारी प्रकृति में भारी अन्तर ला दिया था। जंजीर में बांधकर नदी स्नान कराने एवं गाड़ी में बिठा कर जायसवाल उसे बाहर ले जाया करते और इस सैर-सपाटे में वह प्रसन्न भी खूब होता। रीछे पालक को अपनी कठिनाइयों के कारण उसे चिड़ियाघर भेजना पड़ा। वहां वे जब कभी उसे देखने जाते तब प्रसन्नता प्रकट करता और कूं-कूं करते हुए, पास आने और चाटने का प्रयत्न करता। डेनिस दम्पत्ति का एक जोरदार सदस्य था अफ्रीकी तेंदुआ, उसका नाम उन्होंने तुशुर्द रखा। यों साधारण लोग उसे चीता ही कहते थे क्योंकि आमतौर से लोग यह फर्क नहीं जानते कि चीते के मुंह पर लम्बी धारियां होती हैं, उसके बाल बड़े और कड़े होते हैं जब कि तेंदुआ के मुंह पर चित्तियां होती हैं और बाल मखमल जैसे मुलायम। तुशुर्द छोटा बच्चा ही मिला था। जिस प्रकार और वातावरण में उस पाला गया उसमें वह इस प्रकार ढल गया मानो कोई पालतू कुत्ता ही हो। माइक्रेला के पीछे वह अक्सर दुम हिलाते हुए घूमते ही देखा जाता। उछल कर अपनी मालकिन की गोद में जा बैठना उसे बहुत भाता था कभी-कभी मस्ती के जोश में आता तो उसके हाथ पैर चबाने का उपक्रम करने लगता पर क्या मजाल दांत या पंजे की कोई खरोंच तक किसी अंग में लग जाय। उसके प्यार भरे व्यवहार ने साथ में पले हुए अन्य प्राणियों को पूर्णतया निर्भर बना दिया था, जब भी उन्हें अवसर मिलता दूर तुशुर्द के साथ खेलने के लिए इकट्ठे हो जाते और एक दूसरे के साथ खेलने का ऐसा आनन्द लेते मानो वे एक ही जाति बिरादरी के परस्पर भाई-बहिन हों।
तेन्दुए पालने में सफलता प्राप्त कर लेने के उपरांत माइकेला ने दो चीते के बच्चे पाले। चीते अपेक्षाकृत अधिक दुष्ट होते हैं जहां उनमें 60 मील प्रति घन्टा की चाल से तेज दौड़ सकने की क्षमता होती है वहां उनकी धूर्तता, प्रेम और सद्भावना, प्राणी की आत्मचेतना को स्पर्श करती और प्रभावित करती है। यही कारण है कि भाषा समझने वाले, अबोध और फूट से चूर पशु-पक्षी भी स्नेह-सद्भाव के वशीभूत हो जाते हैं। उपरोक्त तीन विवरण इस बात के प्रतीक हैं कि स्नेह सद्भाव से मनुष्य को क्या बिगड़े और क्रुद्ध पालतू जानवरों से लेकर ह्वेल तथा शेर, चीते भी पालतू जानवर प्रेमी स्वजन और स्नेही सम्बन्धी हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि कोई व्यक्ति आज्ञाकारी सन्तान, निष्ठावान जीवन साथी की तरह आपस में स्नेह व सद्भाव रखते हैं।
सद्भावनाओं को बढ़ाकर—स्नेह और आत्मीयता का क्षेत्र विकसित कर दूसरों को प्रभावित करने में जितनी सफलता पायी गयी है उतनी संघर्ष, शक्ति प्रयोग और आक्रमण द्वारा कहीं भी नहीं मिली है। स्नेह, सद्भाव अर्थात् प्रेमपूर्ण अन्तःकरण का प्रभाव केवल मनुष्यों पर ही नहीं पशु पक्षियों पर भी पड़ता है।
इस तथ्य को प्रतिपादित करने में इंग्लैण्ड के एक सामान्य व्यक्ति ने न केवल तर्क प्रस्तुत किये वरन् प्रामाणिकता की प्रतिमा बनकर स्वयं ही खड़ा हो गया। उसने न केवल सामान्य पशुओं पर प्रेम की प्रतिक्रिया का प्रदर्शन किया वरन् यह भी साबित कर दिया कि खूंखार, उद्दण्ड और जंगली जानवरों को भी सभ्य और मृदुल बनाया जा सकता है। इस व्यक्ति का नाम है—जान सोलेमन रेरी।
उसके पिता ओहियो प्रदेश के फ्रेंकलिन गांव में रहते थे। नाम था एडम रेरी। उनने एक घोड़ा खरीदा। घोड़ा जितना शानदार था उतना ही सस्ता था। एडम ने सोचा इसे सधा लेंगे। पर था वह बहुत ही खूंखार। उसे सिखाने सधाने के लिये दूर-दूर से क्रमशः एक दर्जन से भी अधिक घुड़ सवार बुलाये गये पर वे सभी असफल रहे। घोड़ा किसी के काबू में न आया। एडम ने स्वयं उसे काबू में लाने की कोशिश की और कोड़े मारे। क्रुद्ध घोड़े ने रस्सों से बंधे होते हुए भी उन्हें ऐसा पछाड़ा कि टांग टूट गई। उन्हें अस्पताल भिजवाया गया। घोड़ा छूट निकला। उसे खतरनाक समझकर पुलिस द्वारा उसे मरवा देने का निश्चय किया गया।
बालक जान रेरी उन दिनों सिर्फ 12 वर्ष का था। उसने सारी स्थिति समझी और सीधा उस जंगल में चला गया जहां घोड़ा चौकड़ियां भर रहा था। लोगों को अपनी आंखों पर विश्वास न हुआ जब उन्होंने देखा कि लड़का बिना लगाम और जीन के उस घोड़े की पीठ पर बैठा हुआ घर आ रहा है। पूछने पर उसने बताया यह कोई जादू नहीं है। मुहब्बत यदि गहरी और सच्ची हो तो किसी की भी—यहां तक कि खूंखार पशुओं को भी वशवर्ती बनाया जा सकता है।
बालक की ख्याति घोड़ों के शिक्षक के रूप में फैल गई। लोग अपने-अपने उद्दण्ड घोड़े ठीक कराने उसके पास लाने लगे। सिलसिला घोड़ों का चल पड़ा तो उसने वही काम हाथ में ले लिया। कई वर्ष तक उसे यही काम करना पड़ा। बीस वर्ष का होते होते वह सरकस के लिये घोड़े सधाने की कला में निष्णात हो गया। उसने उन्हें ऐसे ऐसे विचित्र खेल सिखाये जो उससे पहले सरकसों में कहीं भी नहीं दिखाये जाते थे। इससे पहले घोड़े सधाने की कला उन्हें पीटने, भूखा रखने, पैरों में कीलें ठोकने जैसे निर्दय तरीकों पर अवलम्बित थी। रेरी ने सिद्ध किया कि उससे कहीं अधिक कारगर प्यार-मुहब्बत का तरीका है। वह कहता था कि यदि जानवरों को प्यार मिले तो न केवल पालतू प्रकृति के पशु वरन् नितान्त जंगली और मनुष्य से सर्वथा अपरिचित जानवर भी वशवर्ती, सहयोगी एवं सरल प्रकृति के बन सकते हैं। यह उसने सिर्फ कहा ही नहीं वरन् करके भी दिखाया।
जब घोड़े ही उसके पल्ले बंधने लगे तो उसने उनकी आदतें समझने के लिए कई महीने जंगली घोड़ों के साथ रहने की व्यवस्था बनाई। उनकी रुचि और प्रकृति को समझा। उन्हें बदलने एवं सधाने के आधार ढूंढ़े और अपने विषय में पारंगत हो गया। रेरी ने चुनौती दी कि कोई कितना ही भयंकर घोड़ा क्यों न हो वह उसे कुछ ही दिनों में कुछ ही घण्टों में वशवर्ती बना सकता है। पत्रों में छपी इस चुनौती ने घोड़े वालों में भारी दिलचस्पी पैदा कर दी।
छपी चुनौती से प्रभावित होकर लार्ड डारचेस्टर ने रेरी का द्वार खटखटाया। उसने 15 हजार डालर में एक बलिष्ठ घोड़ा—घुड़दौड़ में बाजी जीतने की दृष्टि से खरीदा था। कुछ दिन तक तो वह ठीक रहा पर पीछे वह बेकाबू हो गया। लोहे की जंजीरें तोड़ देता, जंगले उखाड़ देता और कभी-कभी गुस्से से अपनी ही अगली टांगें काट लेता। उसके लिये ईंटों की काल कोठरी बनानी पड़ी। उसी में चारा दाना दिया जाता। पूरे चार वर्ष उसी कोठरी में बन्द रहते हो गये थे।
लार्ड डारचेस्टर ने उस घोड़े को ठीक करने की चुनौती दी। रेरी ने उसे स्वीकार कर लिया। घोड़ा लन्दन तो आ नहीं सकता था इसलिए उसे ही यूरेल्स ग्रीन पहुंचना पड़ा। उस समय घोड़ा अत्यन्त क्रुद्ध था। कोठरी के दरवाजे तोड़ने में लगा हुआ था। उसकी भयंकर स्थिति देखकर लोगों ने समझाया कि वह इसे सुधारने के झंझट में न पड़े और वापिस चला जाय पर रेरी अपनी बात पर अड़ा ही रहा। उसे विश्वास था कि वह किसी भी भयंकर जानवर को—इस घोड़े को भी—अनुशासित कर सकता है। रेरी सीधा घोड़े की कोठरी में निहत्था घुस गया। उसने पीठ और गरदन सहलाई और तीन घण्टे तक उसके साथ बातें करते हुए दुलारता रहा। जब वह घोड़े के साथ उसकी गरदन के बाल पकड़े कोठरी से बाहर आया तो दर्शकों ने उसे जादूगर कहा—पर वह यही कहता रहा यदि प्रेम को जादू कहा जाय तो ही उसे जादूगर कहलाना मंजूर है उसके पास कोई मन्त्र तन्त्र नहीं है।
लार्ड डारचेस्टर इस सफलता पर भाव विभोर हो गये। उनने घोड़े को उपहार स्वरूप रेरी को भेंट किया और साथ ही एक बड़ी धन राशि भी दी।
महारानी विक्टोरिया ने रेरी की ख्याति सुनी तो उनने भी उसकी कला देखने की इच्छा प्रकट की। शाही निमन्त्रण देकर उसे बुलाया गया। प्रदर्शन में रेरी के सामने एक ऐसा घोड़ा प्रस्तुत किया गया जो पहले तीन घुड़सवारों का कचूमर निकाल चुका था। रेरी उसकी कोठरी में निर्भयता पूर्वक घुस गया और सोलह मिनट बाद उस पर सवार होकर बाहर आया। दूसरे घोड़े को तो उसने दस मिनट में ही वंशवर्ती कर लिया।
अब उसे एक अत्यन्त खतरनाक ऐसे घोड़े का सामना करना था जिसने दो घुड़सवारों की पहले ही जान ले ली थी। रेरी घुड़साल में भीतर गया और भीतर से कुंडी बन्द कर ली। साथ ही यह भी निर्देश किया कि जब तक वह कहे नहीं तब तक कोई उसे छेड़ने या दरवाजा खोलने की कोशिश न करे।
घोड़ा अत्यधिक भयंकर था। महारानी सहित प्रतिष्ठित दर्शन रेरी के निहत्थे और एकाकी भीतर घुसने से बहुत चिन्तित थे। पर वह घुसा सो घुसा ही रहा। जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था अधीरता बढ़ती जा रही थी, जब पूरे तीन घण्टे बीत गये और भीतर से कोई हलचल सुनाई न दी तो यही समझ लिया गया कि घोड़े ने रेरी को मार डाला। निदान दरवाजा तोड़ने का आदेश हुआ। भीतर जो कुछ देखा गया उससे सभी स्तब्ध रह गये। घोड़ा फूंस के ढेर पर सोया हुआ था और उसकी टांग का तकिया लगाये रेरी भी खर्राटे भर रहा था। दोनों की नींद खुली। वे परम मित्र की तरह साथ-साथ अस्तबल से बाहर आये तो महारानी विक्टोरिया को अपनी आंखों पर विश्वास न हुआ। वे यह न समझ सकीं कि इतना खूंखार घोड़ा किस प्रकार इतनी जल्दी इतना नम्र बन सकता है।
रेरी ने अपनी कला का प्रदर्शन टैक्सास में किया जिसमें दूर-दूर के दर्शक और पत्रकार आये थे। उसके सामने चार ऐसे घोड़े पेश किये गये जो जंजीरों से कसे रहते थे और चारों ही अपने मालिकों का खून कर चुके थे। रेरी पौन घण्टे सींखचे वाली कोठरियों में अकेला उनके साथ रहा और फिर चारों को अपने साथ खुले मैदान में ले आया। उसने घोड़ों को लेटने का आदेश दिया तो वे बिल्ली की तरह लेट गये। दर्शकों ने भारी हर्ष ध्वनि की।
एक बार तो उसने जंगली बारहसिंगों के एक जोड़े को पालतू कुत्तों जैसा बना लिया और वह उन्हें साथ लेकर प्रेम,दया और आत्मीयता के इस प्रत्यक्ष प्रभाव का प्रदर्शन करता गाँव गाँव घूमा।
फ्रान्स सरकार ने उसके कर्तृत्व की शोध करने और उसका निष्कर्ष निकालने के लिये एक आयोग नियुक्त किया। अमेरिका के राष्ट्रपति बुकेनन ने उसकी शिक्षा पद्धति के नोट्स लेकर ऐसी पुस्तक लिखाई जिससे घोड़ों को सिखाने सधाने में सहायता मिले। अश्व विज्ञान की वह पुस्तक अब भी बड़ी प्रामाणिक मानी जाती है।
खूंखार ह्वेल का स्नेहोपचार
भीमकाय जल दैत्य ह्वेल की चर्चा जन्तु जीवन में अत्यन्त रोमांच और कौतूहल के साथ ही की जाती है, वह कभी उद्धत हो उठे और आक्रमण कर बैठे तो उसके मार्ग में आने वाले बड़े-बड़े जहाज भी सहज ही जलमग्न हो सकते हैं। मामूली नावों को तो उसका एक हलका-सा झटका ही रसातल को पहुंचा सकता है। दुस्साहसी शिकारी ही अपनी जान की बाजी लगाकर उसका पीछा करते हैं। उनका दाब लग गया तो फिर एक ही ह्वेल का तेल, मांस, चमड़ा अस्थि-पंजर आदि की बहुमूल्य सम्पत्ति उन्हें मालों माल कर देती है। कोई-कोई ह्वेल तो एक छोटे मोटे द्वीप जितनी विशालकाय पाई जाती है। उसकी सामर्थ्य का तो कहना ही क्या। सौ हाथियों की सम्मिलित शक्ति भी उसकी तुलना में तुच्छ होती है।
संसार के इतिहास में पहली बार जो घायल ह्वेल जीवित स्थिति में किसी प्रकार पकड़ी गई थी वह मात्र 18 घन्टे जिन्दा रही। दूसरी बार यह विशालकाय ह्वेल 16 जुलाई 1964 में सेटर्ता द्वीप के समीप पकड़ी गई और उसे कैद करके वैक्युओवर सागर तट के निकट ‘ड्राइडाक’ जलयानों की मरम्मत के लिए बनाई गई एक छोटी सी खाड़ी में रखा गया। ड्राईडाक कम्पनी से इसके लिए उस स्थान को जल्दी खाली कर देने में जो शीघ्रता एवं तत्परता बरती और उसे ह्वेल का उपयुक्त कैद खाना बना दिया वह भी एक स्मरणीय सफलता ही कही जायगी।
सैम्युअल व्यूरिख कोई पेशेवर शिकारी नहीं था। वह एक माना हुआ मूर्तिकार, कलाकार था। वैक्यओवर के सार्वजनिक मछली घर की ओर से उसे ह्वेल मछली की मूर्ति बनाने का काम सौंपा गया था। वे मात्र कल्पना के आधार पर नहीं, ह्वेल की यथार्थ आकृति को देखकर तदनुसार कलाकृति, विनिर्मित करने का उसका मन था। इसी प्रयोजन के लिए वे ह्वेल का शिकार करने के लिए आवश्यक नौका सज्जा एवं अस्त्र शस्त्रों के साथ समुद्र में उतरें और जहां ह्वेल रहती थी, उस क्षेत्र की ओर चल पड़े। कई दिनों की ढूंढ़ खोज के बाद आखिर उन्हें सफलता मिल ही गई। एक विशालकाय ह्वेल समुद्र की लहरों को चीरती हुई—मुंह से पानी के ऊंचे फव्वारे उड़ाती हुई तूफानी गति से सामने ही दौड़ती हुई दिखाई दी। स्याह मूसा पत्थर से बनी काली चिकनी मूर्ति की तरह वह मृत्युदूत जैसी लगती थी। खोजी लोग एक बार तो उसे देखकर कांप गये, पर दूसरे ही क्षण उन्होंने साहस बटोरा और हारपून भाला उसे लक्ष्य करके चलाया। हवा में सनसनाता हुआ यह भाला उस जल दैत्य के दाहिने कन्धे में जा घुसा। एक मिनट के लिए श्मशान जैसी निस्तब्धता छाई, फिर थोड़ी ही देर में घायल मछली ऐसा क्रुद्ध कुहराम मचाने लगी मानो वह समुद्र को ही मथ डालेगी। घाव से रक्त की एक नाली सी वह रही थी और उसका बिखराव लहरों पर लाल रंग के झरने की तरह अपना प्रभाव छोड़ रहा था।
नाविकों ने ‘हारपून’ भाले की पूंछ में बंधे हुए रस्से को मजबूती से संभाला। न जाने वह घायल मृत्युदूत इस क्रुद्ध स्थिति में क्या कर गुजरे, इसी आशंका से उस शिकारी नाव में बैठे सभी कर्मचारी कांप रहे थे।
तीन हजार पौण्ड भारी घायल ह्वेल ने आक्रमणकारी नौका पर उलट कर प्रत्याक्रमण किया। अपने विकराल मुख को फाड़कर वह ऐसी झपटी मानो नाव और नाविकों का अस्तित्व इस समुद्र के गर्भ में ही विलीन करके रहेगी। प्रतिशोध और दर्द ने उसे रुद्र रूपधारी बना दिया था। ऐसी भयानकता को देखकर धैर्य भी अधीर हो सकता था। दूसरे नाविक इस जीवन और मृत्यु की संधिबेला में अपने बचाव और आक्रमण को निरस्त करने के सम्भव उपाय बरत रहे थे। पर व्यूरिख ज्यों का त्यों अविचल बैठा रहा। मानो उसकी पुतलियां दत्तचित्त हो ह्वेल का चित्र स्मृतिपटल पर उतारने में कुशल कैमरा मैन की तरह तन्मय हों। यह क्षण बिजली की गति धारण किये हुए थे। आक्रमण का परिणाम कुछ ही मिनटों की अपेक्षा कर सकता था। नाविकों में से एक ने मछली की ओर मशीनगन दागनी आरम्भ की। दूसरे ने हारपून के रस्से को झटका ताकि घाव का दर्द बढ़कर उसे लौटने को विवश करे। तीसरा नाव को आक्रमण की दिशा से हटा रहा था। सभी अपने अपने ढंग के प्रयास कर रहे थे।
पर व्यूरिख को न जाने क्या हुआ। वह किसी भाव प्रवाह में बह रहा था। ह्वेल में न जाने उसने कितना अद्भुत सौन्दर्य देखा और यह उसकी कार्य संरचना कर एक प्रकार से मुग्ध ही हो गया। एक क्षण को उसे लगा कोई मत्स्य कन्या आकाश में उड़ रही है और अपने ऊपर अकारण हुए अन्याय का मर्मस्पर्शी उलाहना दे रही है। कलाकार की करुणा पिघल पड़ी उसकी आंखों में से आंसू ढुलक पड़े उनमें न जाने कितनी आत्म-ग्लानि भरी थी और कितनी मोह ममता। लगा हारपून उसी के कन्धे में चुभा हुआ है। एक बार वह कराह उठा। नाव में बैठे साथी चकित थे कि और नई विपत्ति क्या आई? व्यूरिख को अचानक यह क्या हो गया?
इस हलचल ने एक नया मोड़ लिया। धावमान ह्वेल की गति रुक गई। मानो उसने व्यूरिख की भाव भरी अन्तर्व्यथा को समझा हो और दोष दुर्भाग्य को देती हुई वह इस कलाकार के प्रति अपना प्रेम प्रतिदान प्रस्तुत कर रही हो। हारपून उतना ही गहरा घुसा था। रक्त धारा उसी क्रम से बह रही थी पर उसका प्रत्याक्रमण और क्रोध मानो समाप्त हो गया था। नाविक समझे शायद वह मर रही है। अवसर से लाभ उठाकर वे नये शस्त्र चलाना चाहते थे पर व्यूरिख ने उनका हाथ रोक दिया।
ह्वेल पूर्णतया जीवित और सजग थी, पर वह मन्त्रमुग्ध की तरह नौका के निकट चली आई। पानी में से उसकी चमकीली आंखें उस कलाकार की ओर इस प्रकार टकटकी लगाये टिकी हुई थीं मानो वह अपनी मर्मकथा कवि जैसी संवेदनाओं के साथ व्यक्त कर रही है। व्यूरिख को वस्तुस्थिति समझने में देर न लगी। उसे विश्वास हो गया कि आक्रमण प्रत्याक्रमण का दौर समाप्त होकर भाव भरा आदान-प्रदान चल रहा है। घायल मछली पालतू कुत्ते की तरह नाव के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रही थी। इस स्थिति से डरे और घबराये हुए नाविक को कलाकार यही आश्वासन देता रहा भावना ने आक्रोश को जीत लिया, सद्भावना के प्रवाह में दुर्भावना बहकर चली गई। अब डरने की कोई जरूरत नहीं रह गई। दया ने अब घृणा का स्थान ग्रहण कर लिया है।
व्यूरिकख ने नाव में लगे ट्रान्समीटर द्वारा वैकयूओवर के अधीक्षक न्यूमेन को सूचित किया कि घायल ह्वेल को जीवित पकड़ लिया गया है अब उसके निवास की व्यवस्था की जाय। रेडियो सुनने वाले को विश्वास नहीं हुआ कि यह क्या कहा जा रहा है। कहीं जीवित ह्वेल भी कैद की जा सकती है। बहुत समय पूर्व एक अति घायल मछली को मरणासन्न स्थिति में जीवित पकड़ा गया था वह भी सिर्फ 18 घण्टे जीवित रही। क्या अब ह्वेल को सचमुच ही जीवित पकड़ कर उसे निकट से देखना और उस पर अनुसंधान करना स्वप्न न रहकर एक सच्चाई बनने जा रहा है?
ड्राईडाक झील तक नाव के साथ-साथ ह्वेल चली आई। जहां यह अनुभव किया गया कि नाव के साथ जुड़ा हुआ हारपून का रस्सा ह्वेल को किसी प्रकार का कष्ट पहुंचा रहा है उसके सुधार की उचित व्यवस्था की गई। नाव को इसी ख्याल से बहुत धीमे चलाया गया। कुछ ही घण्टों में पूरी हो सकने वाली वह यात्रा 17 घण्टे में पूर्ण हुई। वैक्यूआवर तट पर इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए हजारों व्यक्ति खड़े हर्षध्वनि कर रहे थे। हर किसी को यह एक जादुई घटना प्रतीत हो रही थी।
बन्दी गृह के रूप में बनी हुई उस खाड़ी में ह्वेल आ गई। अब उसके शरीर में गहरे घुसे हुए ‘हारपून’ भाले को निकालने का प्रश्न था ताकि उसे कष्ट मुक्त किया जा सके और जीवित रखा जा सके। इसके लिए एक बहुत बड़ा आपरेशन आवश्यक था। डा. पैट मेकमीर के नेतृत्व में डाक्टरों का एक दल जान हथेली पर रखकर इसके लिए तैयार हुआ। उन्हें लोहे के सन्दूक में बिठाकर ह्वेल तक पहुंचाया गया। उन्होंने बड़ी फुर्ती से वह कई गज चौड़ा आपरेशन किया और गहरे घुसे हुए भाले को निकाला। लोग आश्चर्यचकित थे कि मछली किस शान्त भाव से किसी समझदार रोगी की तरह उस आपरेशन को बिना हिले डुले सम्पन्न करा रही है। घाव बहुत बड़ा था। उसके विषाक्त होने का खतरा था। इस जोखिम से बचने के लिए पेन्सलीन की एक बड़ी मात्रा बारह फीट लम्बे बांस में भरकर उस जख्म में भरी गई।
इतना सब हो चुकने और कई दिन जी चुकने के बाद यह विश्वास कर लिया गया कि उसे ह्वेल जीवन के विशाल अनुसन्धान के लिए बहुत समय तक पालतू रखा जा सकता है। तब यह सोचा गया कि उसका नामकरण किया जाय और यह पता लगाया जाय कि वह नर है या मादा। काफी ढूंढ़ टटोल के बाद उसे मादा पाया गया। तदनुसार उसका नाम ‘मावी डाल’ रखा गया। इस नामकरण के अवसर समारोह पर भारी वर्षा में पन्द्रह हजार लोग अनुमति पत्र पाकर उस मत्स्य कन्या को देखने आये और लाइन लगाकर बहुत समय में इस अपने ढंग की अनोखी विश्व सुन्दरी के दर्शन का लाभ ले सके।
‘मावी डाल’ की गति-विधियों के अनुसन्धान ने मानव जाति को ह्वेल जीवन की दुर्लभ जानकारियां दी हैं। साथ ही एक और भी उच्च स्तर का सत्य सामने प्रस्तुत किया है कि सद्भावनाओं की शक्ति अपार है उनके आधार पर मृत्यु को अनुचरी बनाया जा सकता है और घृणा को ममता में परिवर्तित किया जा सकता है। यह प्रयोग न केवल मनुष्य-मनुष्य के बीच सफल होता है वरन् प्राणि जगत् का कोई भी जीवधारी सद्भावनाओं की पकड़ से बाहर नहीं हो सकता भले ही वह अविकसित मनोभूमि या क्रुद्ध प्रकृति का ही क्यों न हो। जादू की चर्चा बहुत होती रहती है पर स्नेह और सद्भावना से बढ़कर वीरानों को अपना बना सकने का शक्ति सम्पन्न जादू शायद ही और कोई कहीं हो।
प्यार बड़ा है या क्रूरता
प्यार बड़ा है या क्रूरता? मनुष्य बड़ा है या पशु? साहस बड़ा है या भय? इन प्रश्नों का उत्तर दर्शनशास्त्र के आधार पर प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाय तो उलटे उलझन में फंसना पड़ेगा। तर्क कभी इस पक्ष का समर्थन करेगा, कभी उस पक्ष का। प्रमाण कभी इस पलड़े को भारी करेंगे, कभी इस पलड़े को। बुद्धि की अनिश्चयात्मकता प्रसिद्ध है, वह मान्यताओं अभिरुचियों और पूर्वाग्रहों की गुलाम होती है। भीतरी रुझान जिधर ढुलकाता है बुद्धि उसी के समर्थन में जुट जाती है।
तथ्यों के निर्णय का अच्छा तरीका प्रयोग है। कुछ साहसी लोगों ने इस प्रकार के प्रयोग किये हैं कि क्या जन्मजात हिंसा-प्रवृत्ति के क्रूरकर्मा पशुओं को स्नेह और सद्भावना के वातावरण में रखकर सौम्य और स्नेहिल बनाया जा सकता है। क्या वे अपनी मूल प्रवृत्ति को छोड़कर स्नेह सौजन्य के अनुरूप अपने को बदलने के लिए तैयार हो सकते हैं। ऐसे परीक्षण में जो सफलता मिली है उससे यह निष्कर्ष उभर कर आया है कि क्रूरता पर प्यार विजय पा सकता है। भय को साहस परास्त कर सकता है और पशुता को मनुष्यता निरस्त कर सकती है।
वन्य पशु विशेषज्ञ डेसमांड बेकडे ने अपनी पुस्तक ‘गारा याका’ में उस मादा चीता का वर्णन किया है जिसे उन्होंने एक झाड़ी में पाया था और अपनी बेटी की तरह पाला था। घटना क्रम इस प्रकार है कि एक दिन डेस्मांड महोदय वेचुआना लेण्ड की पूर्वी सीमा पर शाशी और लिपोपो के दुआवे पर निरीक्षण के लिये गये। उन दिनों वे नदियों के संरक्षित वन प्रदेश के वार्डन थे और वन्य पशुओं की देख-भाल की जिम्मेदारी उनकी थी। इस प्रयोजन की पूर्ति वे इस क्षेत्र में दौरे कर के ही कर सकते थे।
उस दिन एक मोटे मगरमच्छ ने पानी पीते हुए चीते पर हमला किया और देखते-देखते उसका सिर चबाते हुए पानी में घसीट ले गया। डेस्माण्ड महोदय इस घटना क्रम के मूकदर्शक न रहे उन्होंने गोली चलाई और पानी में धंसे हुए मगरमच्छ का काम तमाम कर दिया, पर बच चीता भी न सका। उसने पानी से बाहर निकलते-निकलते दम तोड़ दिया। यह मादा चीता थी उसके थनों से दूध टपक रहा था, इससे स्पष्ट था कि वह नव-प्रसूता है। डेस्माण्ड महोदय उस के बच्चों का पता लगाने मादा के पैरों के चिन्हों के सहारे उस झाड़ी के पास पहुंचे जिसमें एक दूसरे से सटे तीनों बच्चे बैठे थे। उनकी उम्र मुश्किल से एक दो सप्ताह की ही रही होगी। डेस्माण्ड उन्हें उठाकर घर ले आये। पालने का प्रयत्न भरसक किया पर उनमें से दो तो मर ही गये। एक को ही जीवित रखा जा सका। वह मादा थी। नाम रखा गया ‘गारा याका’ उसकी उछल-कूद और शैतानी को देखते हुए यह नाम उनके नौकरों ने रखा था। जिसका अर्थ होता है ‘भूत चुड़ैलों की मां’। नाम व्यंग्य में रखा गया था पर पीछे वह प्रचलित हो गया। वह उसी नाम में पुकारने पर उत्तर भी देती थी।
झाड़ी में से लाकर डेस्माण्ड ने यह प्रयोग भी किया कि उन को नव-प्रसूता कुतिया रेवस चीते के बच्चों को अपनी दत्तक सन्तान मानने लगे और दूध पिलाने तथा पालने लगे। इसमें आंशिक सफलता मिली। उसने दूध तो नहीं पिलाया पर साथ-साथ रहना और अपने बच्चों के साथ खेलने देना स्वीकार कर लिया। चीता लड़की इन परिस्थितियों में बढ़ती चली गई और अपने बाल सुलभ चापल्य से इस परिवार का विनोद करती हुई प्रौढ़ बन गई। वातावरण ने उसे दूसरी कुतिया ही बना दिया था। वह रेवस के साथ इतनी घुल-मिल गई थी और वैसी ही आदतों में इतनी अधिक बढ़ गई थी कि आकृति से भले ही वह चीता कही जाय प्रकृतितः कुतिया ही बनकर रह रही थी। गारा याका अपने पालक के साथ शिकार करने जाती और कई बार तो बब्बर शेरों तक से उलझ जाती और उनके छक्के छुड़ाती तेंदुए, चीते और बाघों से भी उसकी टक्करें हुई पर हर बार उसकी बहादुरी सराहनीय ही रही। पालतू प्रकृति के कारण लड़ने से डरने की कमजोरी उसमें नहीं ही आने पाई। इतने पर भी मनुष्य के साथ उसका व्यवहार आजीवन सौम्य और सज्जनोचित ही बना रहा।
दो साल की होने पर गारा याका ने शैशव और किशोरावस्था पार करके यौवन में प्रवेश किया। उसके भाव-भंगिमा और हरकतों में विचित्र प्रकार का परिवर्तन दिखाई पड़ने लगा। तब यही उचित समझा गया कि उसे अपना गृहस्थ बनाने की आजादी दी जाय। अन्ततः उसे चीतों के बाहुल्य वाले जंगल में छोड़ा गया। जहां उसने अपना सहचर ढूंढ़ निकाला और सुहाग-रात मनाने के लिए लगभग दस सप्ताह उधर ही निवास करती रही। इस बीच में समय-समय पर डेस्माण्ड उसकी देख-भाल करने जाते रहे उन्होंने जब भी पुकारा वह अपने प्रेमी को छोड़कर दौड़ आई और जो आमिष उपहार उसे दिये गये उन्हें लेकर अपने साथी के पास वापिस लौट गई।
यह प्रणयकाल दस सप्ताह तक चला। साथी की आवश्यकता पूरी होने पर फिर अपने पुराने घर में उसका आना-जाना आरम्भ हो गया पर यह सब अधिक दिन न चला क्योंकि पशु प्रकृति के अनुसार उसे प्रसव के लिए सघन झाड़ियों वाला एकान्त क्षेत्र ही अनुकूल पड़ता था। प्रसूतिग्रह वह बना ही रही थी कि एक सिंहनी ने उस पर बुरी तरह हमला कर दिया और कई जगह घायल कर डाला। डेस्माण्ड उसकी खोज खबर बराबर रखते थे। घायल होने की बात का जैसे ही पता लगा, वे स्ट्रेचर पर लाद कर उसे घर लाये। जहां उसने दो बच्चों को जन्म दिया उनका पालन भी नाना ने उसी प्रकार किया जैसे कि अपने वनबेटी ‘गारायाका’ का किया था।
उपरोक्त प्रयोग अफ्रीका की जायआडमसन के उस परीक्षण की श्रृंखला में आता है जिसमें उसने सिंहों और चीतों को खुले वातावरण में पाल कर संसार को यह बताया कि स्नेह और विश्वास की शक्ति अपरमित है उन्हें ठीक प्रकार किया जा सके तो बर्बरता को सौजन्य के सम्मुख नतमस्तक ही होना पड़ेगा।
ऐसा ही एक प्रयोग माइकेला का है जिसने हिंस्र पशुओं को स्नेहिल प्रकृति का बनाने का प्रयोग किये उसमें आश्चर्यजनक सफलता पाई।
अमेरिकन युवती माइकेला ने अविवाहित रहने का निश्चय किया था ताकि वह स्वच्छन्दतापूर्वक संसार के वन प्रदेशों और वन जीवों की समीपता का आनन्द ले सके। उसे वनजीवों से बहुत प्यार था, अपने अतृप्त मातृत्व और वात्सल्य की पूर्ति के लिए उसने कितने ही प्राणी पाल रखे थे। जिनमें बहुत जाति के कुत्ते, बिल्लियां, लोमड़ी, नेवले, तोते, बन्दर, चूहे, खरगोश, सांप, गिरगिट आदि सम्मिलित थे। आगे इस दिशा में बहुत कुछ देखने करने की आकांक्षा उसने संजो रखी थी और यथासम्भव प्रकृति के पुत्रों के सान्निध्य में रहने में वह अधिक समय लगाती भी थी।
उसे यह आशा नहीं थी कि इस सनक में कोई पुरुष साथी भी उसे मिल सकता है। पर भाग्य ने सहारा दिया तो वह भी मिल गया। न्यूयार्क में एक भोज में सम्मिलित हो गई तो उसे ठीक ऐसी ही प्रकृति का एक युवक मिल गया। नाम था आर्माण्ड डेनिस। दोनों में घनिष्ठता बड़ी और वह इस समाधान के चरम परिणति पर पहुंची कि दोनों विवाह तो करेंगे किन्तु बच्चे पैदा नहीं करेंगे क्योंकि पहले से ही बहुत बच्चे—विचित्र पालतू जीवों के रूप में मौजूद हैं और भविष्य में उनकी संख्या सहज ही बहुत बढ़ने वाली है। उन का विवाह वस्तुतः प्रकृति निरीक्षण के अनोखे आनन्द को दो साथियों द्वारा मिलकर अधिक हर्षोल्लास युक्त बनाने का एक उद्देश्य पूर्ण समझौता मात्र था। विवाह के बाद दोनों ने और भी अधिक उत्साह के साथ अपना शौक आगे बढ़ाया वे दूर-दूर तक घूमे अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में इस दृष्टि से उन्हें बहुत कुछ देखने के लिये मिला। इस विषय में अंग्रेजी फिल्म भी कम नहीं। शिकार को पकड़ने में उनकी स्फूर्ति जितना काम करती है इससे ज्यादा उनकी वह बुद्धि काम करती है जिसकी सूझ-बूझ शिकार को धोखे में डालकर गफलत का लाभ उठाने में आश्चर्यजनक काम करती है। चीते के बच्चे पालने में उसे रेमण्ड हुक नामक व्यक्ति की सहायता लेनी पड़ी जो हिन्दुस्तान में राजाओं के यहां रहकर चीते पालने की विद्या सीख चुका था।
इन चीते के बच्चों का नाम रखा गया लुनी और मुनी यों वे पल तो गये और तुशुर्द की तरह जंजीर में बंधकर खुली जगह में घूमने के अभ्यासी भी हो गये। झालड रियासत से सम्बद्ध श्री बद्रीप्रसाद जायसवाल को शिकार खेलते समय एक दो महीने का चीते का बच्चा मिल गया, उन्होंने उसे प्रेमपूर्वक पाला। जंजीर से बांधे रखना ही पर्याप्त था, उसे पिंजरे में बन्द करने की कभी जरूरत नहीं पड़ी। जिस वातावरण में उसे पाला गया था उसने आक्रमणकारी प्रकृति में भारी अन्तर ला दिया था। जंजीर में बांधकर नदी स्नान कराने एवं गाड़ी में बिठा कर जायसवाल उसे बाहर ले जाया करते और इस सैर-सपाटे में वह प्रसन्न भी खूब होता। रीछे पालक को अपनी कठिनाइयों के कारण उसे चिड़ियाघर भेजना पड़ा। वहां वे जब कभी उसे देखने जाते तब प्रसन्नता प्रकट करता और कूं-कूं करते हुए, पास आने और चाटने का प्रयत्न करता। डेनिस दम्पत्ति का एक जोरदार सदस्य था अफ्रीकी तेंदुआ, उसका नाम उन्होंने तुशुर्द रखा। यों साधारण लोग उसे चीता ही कहते थे क्योंकि आमतौर से लोग यह फर्क नहीं जानते कि चीते के मुंह पर लम्बी धारियां होती हैं, उसके बाल बड़े और कड़े होते हैं जब कि तेंदुआ के मुंह पर चित्तियां होती हैं और बाल मखमल जैसे मुलायम। तुशुर्द छोटा बच्चा ही मिला था। जिस प्रकार और वातावरण में उस पाला गया उसमें वह इस प्रकार ढल गया मानो कोई पालतू कुत्ता ही हो। माइक्रेला के पीछे वह अक्सर दुम हिलाते हुए घूमते ही देखा जाता। उछल कर अपनी मालकिन की गोद में जा बैठना उसे बहुत भाता था कभी-कभी मस्ती के जोश में आता तो उसके हाथ पैर चबाने का उपक्रम करने लगता पर क्या मजाल दांत या पंजे की कोई खरोंच तक किसी अंग में लग जाय। उसके प्यार भरे व्यवहार ने साथ में पले हुए अन्य प्राणियों को पूर्णतया निर्भर बना दिया था, जब भी उन्हें अवसर मिलता दूर तुशुर्द के साथ खेलने के लिए इकट्ठे हो जाते और एक दूसरे के साथ खेलने का ऐसा आनन्द लेते मानो वे एक ही जाति बिरादरी के परस्पर भाई-बहिन हों।
तेन्दुए पालने में सफलता प्राप्त कर लेने के उपरांत माइकेला ने दो चीते के बच्चे पाले। चीते अपेक्षाकृत अधिक दुष्ट होते हैं जहां उनमें 60 मील प्रति घन्टा की चाल से तेज दौड़ सकने की क्षमता होती है वहां उनकी धूर्तता, प्रेम और सद्भावना, प्राणी की आत्मचेतना को स्पर्श करती और प्रभावित करती है। यही कारण है कि भाषा समझने वाले, अबोध और फूट से चूर पशु-पक्षी भी स्नेह-सद्भाव के वशीभूत हो जाते हैं। उपरोक्त तीन विवरण इस बात के प्रतीक हैं कि स्नेह सद्भाव से मनुष्य को क्या बिगड़े और क्रुद्ध पालतू जानवरों से लेकर ह्वेल तथा शेर, चीते भी पालतू जानवर प्रेमी स्वजन और स्नेही सम्बन्धी हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि कोई व्यक्ति आज्ञाकारी सन्तान, निष्ठावान जीवन साथी की तरह आपस में स्नेह व सद्भाव रखते हैं।