Books - देव संस्कृति व्यापक बनेगी सीमित न रहेगी
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Language: MARATHI
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कुछ व्यावहारिक समस्यायें और उनका समाधान
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विश्वव्यापी सम्पर्क सूत्र साधने के लिए सबसे प्रथम आवश्यकता ऐसे सूचना संग्रह के निमित्त बनाए गये कार्यालय की है जो विभिन्न सूत्रों से यह पता लगाये कि किस देश में, किन स्थानों, किस व्यवसाय में लगे, किस भाषा के जानकार, किस रुचि, रुझान एवं स्तर के भारतीय मूल के लोक कितनी-कितनी संख्या में हैं, उनमें से कितनों ने स्थायी नागरिकता स्वीकार करली और कितने वापस लौटने की तैयारी में हैं। किनकी स्थिति सुविधा युक्त और किनकी कठिनाइयों से घिरी उलझी है। यह जानकारियां उपलब्ध होने के उपरान्त ही इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकेगा कि उनके भौतिक स्थायित्व और सांस्कृतिक उत्कर्ष के संदर्भ में क्या कुछ कर सकना उचित एवं शक्य है?
इनमें से कितनों को ही यह असुविधा होती है कि बालकों की शादी विवाह में उपयुक्त जोड़े ढूंढ़ने में अत्यधिक कठिनाई अनुभव करते हैं। इस समस्या को सुलझाने में सहायता दे सकने वाला तंत्र यों पूरी तरह सफल तो तभी हो सकता है जब उसी देश या समीपवर्ती देशों का मिला-जुला कर एक स्वरूप बनाया गया हो। जब तक वह स्थिति न आये तब तक यह कार्य इस तन्त्र के अन्तर्गत भी चल सकता है जो भारत में प्रवासी भारतियों की सुख सुविधा के लिए खड़ा किया गया है।
दूसरी कठिनाई है मातृभाषा के शिक्षण तथा सांस्कृतिक शिक्षा की। उन-उन देशों की सरकारें अपनी-अपनी मान्य भाषाओं के माध्यम से शिक्षा व्यवस्था चलाती हैं। भारतीय भाषाओं की न वहां उचित व्यवस्था है और न मान्यता। अपने-अपने धंधों में लगे अभिभावक न तो स्वयं पढ़ा पाते हैं और न कोई ऐसी व्यवस्था कर सकते हैं कि उनके बच्चे मातृ भाषा भी सीख सकें। सांस्कृतिक जानकारी का भी कोई प्रबन्ध नहीं। पाद्या पंडित होते तो हैं पर वे देव पूजा कराने और दक्षिणा बटोरने के अतिरिक्त और कुछ जानते ही नहीं। जो जानते बताते हैं वह लाल बुझक्कड़ों जैसा बेतुका और असमाधान-कारक होता है। फलतः उसे जानने मानने पर उल्टी सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति अश्रद्धा ही बढ़ती है। ऐसी दशा में यह आवश्यक है कि भारतीय भाषाओं का एक संक्षिप्त किन्तु सुनियोजित पाठ्यक्रम हो साथ ही एक कोर्स ऐसा भी हो जिससे उन्हें ऐसी धार्मिक जानकारी मिल सके जिसके आधार पर उन्हें किसी अन्य संस्कृति की तुलना में अपनी परंपरा को हेय या हीन अनुभव न करना पड़े। इन पाठ्यक्रमों को पत्राचार विद्यालयों की तरह भी चलाया जा सकता है और उसकी परीक्षा लेने प्रमाणपत्र देने जैसा प्रबन्ध भी हो सकता है। ‘बाईबिल सोसाइटी’ ऐसा ही उपक्रम चलाती है। इसी आधार पर सारे विश्व में उन्होंने नैष्ठिक कार्यकर्ताओं का एक विशाल संगठित तंत्र खड़ा भी किया है।
इनमें से कितनों को ही यह असुविधा होती है कि बालकों की शादी विवाह में उपयुक्त जोड़े ढूंढ़ने में अत्यधिक कठिनाई अनुभव करते हैं। इस समस्या को सुलझाने में सहायता दे सकने वाला तंत्र यों पूरी तरह सफल तो तभी हो सकता है जब उसी देश या समीपवर्ती देशों का मिला-जुला कर एक स्वरूप बनाया गया हो। जब तक वह स्थिति न आये तब तक यह कार्य इस तन्त्र के अन्तर्गत भी चल सकता है जो भारत में प्रवासी भारतियों की सुख सुविधा के लिए खड़ा किया गया है।
दूसरी कठिनाई है मातृभाषा के शिक्षण तथा सांस्कृतिक शिक्षा की। उन-उन देशों की सरकारें अपनी-अपनी मान्य भाषाओं के माध्यम से शिक्षा व्यवस्था चलाती हैं। भारतीय भाषाओं की न वहां उचित व्यवस्था है और न मान्यता। अपने-अपने धंधों में लगे अभिभावक न तो स्वयं पढ़ा पाते हैं और न कोई ऐसी व्यवस्था कर सकते हैं कि उनके बच्चे मातृ भाषा भी सीख सकें। सांस्कृतिक जानकारी का भी कोई प्रबन्ध नहीं। पाद्या पंडित होते तो हैं पर वे देव पूजा कराने और दक्षिणा बटोरने के अतिरिक्त और कुछ जानते ही नहीं। जो जानते बताते हैं वह लाल बुझक्कड़ों जैसा बेतुका और असमाधान-कारक होता है। फलतः उसे जानने मानने पर उल्टी सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति अश्रद्धा ही बढ़ती है। ऐसी दशा में यह आवश्यक है कि भारतीय भाषाओं का एक संक्षिप्त किन्तु सुनियोजित पाठ्यक्रम हो साथ ही एक कोर्स ऐसा भी हो जिससे उन्हें ऐसी धार्मिक जानकारी मिल सके जिसके आधार पर उन्हें किसी अन्य संस्कृति की तुलना में अपनी परंपरा को हेय या हीन अनुभव न करना पड़े। इन पाठ्यक्रमों को पत्राचार विद्यालयों की तरह भी चलाया जा सकता है और उसकी परीक्षा लेने प्रमाणपत्र देने जैसा प्रबन्ध भी हो सकता है। ‘बाईबिल सोसाइटी’ ऐसा ही उपक्रम चलाती है। इसी आधार पर सारे विश्व में उन्होंने नैष्ठिक कार्यकर्ताओं का एक विशाल संगठित तंत्र खड़ा भी किया है।