Books - देव संस्कृति व्यापक बनेगी सीमित न रहेगी
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Language: MARATHI
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भारतीय संस्कृति—देवसंस्कृति
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भारत एक देश नहीं, मानवी उत्कृष्टता एवं संस्कृति का उद्गम केन्द्र है। हिमालय के शिखरों पर जमी बर्फ जल धारा बनकर बहती है और सुविस्तृत धरातल को सरसता एवं हरीतिमा से भरता है। भारत धर्म और अध्यात्म का उदयाचल है, जहां से सूर्य उगता और समस्त भूमण्डल को आलोक से भरता है। एक तरह से यह आलोक प्रकाश ही जीवन है, जिसके सहारे वनस्पतियां उगतीं, घटाएं बरसतीं और प्राणियों में सजीव हलचलें होती हैं।
बीज में वृक्ष की समस्त विशेषताएं सूक्ष्म रूप में छिपी पड़ी होती हैं। परन्तु ये स्वतः विकसित नहीं हो पातीं। उन्हें अंकुरित विकसित करके विशाल बनाने के लिये प्रयास करने पड़ते हैं। ठीक यही बात मनुष्य के सम्बन्ध में है। सृष्टा ने उसे सृजा तो अपने हाथों से है और उसे असीम संवेदनाओं से परिपूर्ण भी बनाया है पर साथ ही इतनी कमी भी छोड़ी है कि विकास के प्रयत्न बन पड़ें तो ही उसे ऊंचा उठने का अवसर मिलेगा। स्पष्ट है कि जिन्हें सुसंस्कारिता का वातावरण मिला, वे प्रगति पथ पर अग्रसर होते चले गये। जिन्हें उससे वंचित रहना पड़ा वे अभी भी वन्य प्राणियों की तरह रहते और गयी-बीती परिस्थितियों में समय गुजारते हैं। इस प्रगति शीलता के युग में भी ऐसे वनमानुषों की कमी नहीं, जिन्हें बन्दर की औलाद ही नहीं, उसकी प्रत्यक्ष प्रतिकृति भी कहा जा सकता है। यह पिछड़ापन और कुछ नहीं, प्रकारान्तर से संस्कृति का प्रकाश न पहुंच सकने के कारण उत्पन्न हुआ अभिशाप भर है।
यह न तो आत्म प्रशंसा है, न ही अतिशयोक्ति कि देव संस्कृति भारत भूमि से ही प्रभातकालीन सूर्य की तरह उगी और समस्त धरातल को प्रगति, समृद्धि, शक्ति एवं सभ्यता जैसे दिव्य अनुदानों से सराबोर करती चली गई। विश्व इतिहास के पृष्ठ इन प्रमाणों से भरे पड़े हैं कि मानवी गरिमा को उच्चस्तरीय बनाने और सर्वांगीण प्रगति का द्वार खोलने में उस तत्वदर्शन (फिलॉसफी) का असाधारण योगदान रहा है, जिसे धर्म, अध्यात्म या आदर्श निर्धारण कहा जा सकता है। इस भूमि पर जन्मे दिव्यदर्शी, तपस्वी, महामनीषियों ने मानव समुदाय को जिस चिन्तन, चरित्र, रुझान, निर्धारण एवं प्रयास पुरुषार्थ की ओर अग्रसर किया, वह स्वर्गीय वरदान सिद्ध हुआ। प्रगति की दिशा में चल रही क्रमिक गतिशीलता के पीछे जिस दिव्य अनुदान की झांकी मिलती है उसे पर्यवेक्षक एके स्वर से भारत को देवसंस्कृति का अनुदान मानते और कृतज्ञता पूर्वक शतशत नमन करते हैं।
भारत में जन्मने के कारण उसे भारतीय संस्कृति का नाम अनायास ही मिल गया। उसमें किसी क्षेत्र विशेष के प्रति आग्रह या पक्षपात नहीं है, यदि वह सर्वप्रथम कहीं और उगी, उपजी होती तो संभवतः उसे उस क्षेत्र के नाम से पुकारा जाने लगता। उत्पादन वर्ती भूमि के साथ उसके उपार्जनों का नाम भी जुड़ जाता है। इसे प्रचलन ही कहेंगे। नागपुरी सन्तरे, लखनवी आम, असमी चाय, अरबी घोड़े, काश्मीरी सेब, नागौरी बैल, कच्छी गाय, मैसूरी चन्दन का अर्थ यह नहीं कि वे उस क्षेत्र तक ही सीमित रहेंगे। भारतीय संस्कृति को विश्व संस्कृति एवं मानवी संस्कृति के रूप में ही जाना माना गया है। संसार के महामनीषियों ने इसका मूल्यांकन इसी दृष्टि से किया है। इतिहास के पृष्ठों पर इन तथ्यों का विस्तार से उल्लेख है कि देव संस्कृति का प्रवाह मलयज पवन की तरह समस्त संसार में बिखरा और उसने बिना किसी भेदभाव के हर क्षेत्र को समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने में भारी योगदान दिया। किसी समय इस तत्व-दर्शन को सर्वत्र जगद्गुरु, चक्रवर्ती, धरती का स्वर्ग जैसे नामों से कृतज्ञता पूर्वक स्मरण किया जाता था। इसे श्रेष्ठता के प्रति सहज श्रद्धा की स्वतः स्फुरणा ही कहा जा सकता है।
बीज में वृक्ष की समस्त विशेषताएं सूक्ष्म रूप में छिपी पड़ी होती हैं। परन्तु ये स्वतः विकसित नहीं हो पातीं। उन्हें अंकुरित विकसित करके विशाल बनाने के लिये प्रयास करने पड़ते हैं। ठीक यही बात मनुष्य के सम्बन्ध में है। सृष्टा ने उसे सृजा तो अपने हाथों से है और उसे असीम संवेदनाओं से परिपूर्ण भी बनाया है पर साथ ही इतनी कमी भी छोड़ी है कि विकास के प्रयत्न बन पड़ें तो ही उसे ऊंचा उठने का अवसर मिलेगा। स्पष्ट है कि जिन्हें सुसंस्कारिता का वातावरण मिला, वे प्रगति पथ पर अग्रसर होते चले गये। जिन्हें उससे वंचित रहना पड़ा वे अभी भी वन्य प्राणियों की तरह रहते और गयी-बीती परिस्थितियों में समय गुजारते हैं। इस प्रगति शीलता के युग में भी ऐसे वनमानुषों की कमी नहीं, जिन्हें बन्दर की औलाद ही नहीं, उसकी प्रत्यक्ष प्रतिकृति भी कहा जा सकता है। यह पिछड़ापन और कुछ नहीं, प्रकारान्तर से संस्कृति का प्रकाश न पहुंच सकने के कारण उत्पन्न हुआ अभिशाप भर है।
यह न तो आत्म प्रशंसा है, न ही अतिशयोक्ति कि देव संस्कृति भारत भूमि से ही प्रभातकालीन सूर्य की तरह उगी और समस्त धरातल को प्रगति, समृद्धि, शक्ति एवं सभ्यता जैसे दिव्य अनुदानों से सराबोर करती चली गई। विश्व इतिहास के पृष्ठ इन प्रमाणों से भरे पड़े हैं कि मानवी गरिमा को उच्चस्तरीय बनाने और सर्वांगीण प्रगति का द्वार खोलने में उस तत्वदर्शन (फिलॉसफी) का असाधारण योगदान रहा है, जिसे धर्म, अध्यात्म या आदर्श निर्धारण कहा जा सकता है। इस भूमि पर जन्मे दिव्यदर्शी, तपस्वी, महामनीषियों ने मानव समुदाय को जिस चिन्तन, चरित्र, रुझान, निर्धारण एवं प्रयास पुरुषार्थ की ओर अग्रसर किया, वह स्वर्गीय वरदान सिद्ध हुआ। प्रगति की दिशा में चल रही क्रमिक गतिशीलता के पीछे जिस दिव्य अनुदान की झांकी मिलती है उसे पर्यवेक्षक एके स्वर से भारत को देवसंस्कृति का अनुदान मानते और कृतज्ञता पूर्वक शतशत नमन करते हैं।
भारत में जन्मने के कारण उसे भारतीय संस्कृति का नाम अनायास ही मिल गया। उसमें किसी क्षेत्र विशेष के प्रति आग्रह या पक्षपात नहीं है, यदि वह सर्वप्रथम कहीं और उगी, उपजी होती तो संभवतः उसे उस क्षेत्र के नाम से पुकारा जाने लगता। उत्पादन वर्ती भूमि के साथ उसके उपार्जनों का नाम भी जुड़ जाता है। इसे प्रचलन ही कहेंगे। नागपुरी सन्तरे, लखनवी आम, असमी चाय, अरबी घोड़े, काश्मीरी सेब, नागौरी बैल, कच्छी गाय, मैसूरी चन्दन का अर्थ यह नहीं कि वे उस क्षेत्र तक ही सीमित रहेंगे। भारतीय संस्कृति को विश्व संस्कृति एवं मानवी संस्कृति के रूप में ही जाना माना गया है। संसार के महामनीषियों ने इसका मूल्यांकन इसी दृष्टि से किया है। इतिहास के पृष्ठों पर इन तथ्यों का विस्तार से उल्लेख है कि देव संस्कृति का प्रवाह मलयज पवन की तरह समस्त संसार में बिखरा और उसने बिना किसी भेदभाव के हर क्षेत्र को समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने में भारी योगदान दिया। किसी समय इस तत्व-दर्शन को सर्वत्र जगद्गुरु, चक्रवर्ती, धरती का स्वर्ग जैसे नामों से कृतज्ञता पूर्वक स्मरण किया जाता था। इसे श्रेष्ठता के प्रति सहज श्रद्धा की स्वतः स्फुरणा ही कहा जा सकता है।