Books - धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं पूरक हैं
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Language: HINDI
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सम्प्रदाय कलेवर है—धर्म आत्मा
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धर्म और विज्ञान दोनों ही मानव जाति की अपने-अपने स्तर की आवश्यकता है। दोनों एक दूसरे को अधिक उपयोगी बनाने में भारी योगदान दे सकते हैं। जितना सहयोग एवं आदान-प्रदान सम्भव हो उसके लिए द्वार खुला रखा जाय किन्तु साथ ही यह भी ध्यान रखा जाय कि दोनों का स्वरूप और कार्य क्षेत्र एक दूसरे से भिन्न है। इसलिए वे एक दूसरे पर अवलंबित नहीं रह सकते हैं और नहीं ऐसा हो सकता है कि एक का समर्थन पाये बिना दूसरा अपनी उपयोगिता में कमी अनुभव करे।
शरीर भौतिक है उसके सुविधा साधन भौतिक विज्ञान के सहारे जुटाये जा सकते हैं आत्मा चेतन है उसकी आवश्यकता धर्म के सहारे उपलब्ध हो सकेगी। यह एक तथ्य और ध्यान रखने योग्य है कि परिष्कृत धर्म का नाम अध्यात्म भी है और आत्मा के विज्ञान अध्यात्म का उल्लेख अनेक स्थानों पर धर्म के रूप में भी होता रहा है, अस्तु उन्हें पर्यायवाचक भी माना जा सकता है।
पिछले दिनों भ्रान्तियों का दौर रहा है और उसमें कुछ ऐसे भी प्रसंग आये हैं जिनमें मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र मान लिया गया है। धर्म और विज्ञान के परस्पर विरोधी होने का विवाद भी उसी स्तर का है। धार्मिक क्षेत्र में समझा जाता रहा है कि—विज्ञान धर्म विरोधी है। वह श्रद्धा को काटता है, परोक्ष जीवन पर अविश्वास व्यक्त करता है। मनुष्य को यन्त्र समझता है और उसके सुसंचालन के लिए भौतिक सुविधाओं का सम्वर्धन ही पर्याप्त मानता है। प्रकृति ही उसके लिए सब कुछ है। आत्मा और परमार्थ के प्रति उसका अविश्वास है। अस्तु उसका उपार्जन भर ग्राह्य हो सकता है। प्रतिपादन को तो निरस्त ही करना चाहिए। अन्यथा मनुष्य आस्था रहित बन जायेगा। विज्ञान क्षेत्र से धर्म पर यह आक्षेप लगाया जाता रहा है कि वह कपोल कल्पनाओं और अन्ध-विश्वासों पर आधारित है। किम्वदंतियों को इतिहास और उक्तियों को प्रमाण मानता है। तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने से कतराता है। अस्तु उसकी नींव खोखली है। धर्म, श्रद्धा एक ऐसा ढकोसला है जिसकी आड़ में धूर्त ठगते और मूर्ख ठगाते रहते हैं। धर्म सम्प्रदायों ने मानवी एकता पर भारी आघात पहुंचाया है। पूर्वाग्रह, हठवाद, एवं पक्षपात का ऐसा वातावरण उत्पन्न किया है जिसमें अपनी मान्यता सही और दूसरों की गलत सिद्ध करने का अहंकारी आग्रह भरा रहता है। अपनी श्रेष्ठता दूसरे की निकृष्टता ठहराने, अपनी बात दूसरों से बलपूर्वक मनवाने के लिए धर्म के नाम पर रक्त की नदियां बहाई जाती रही हैं। अस्तु उससे दूर ही रहना चाहिए।
इन आक्षेपों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि विवाद आक्रोश का कारण गहरा नहीं उथला है। विज्ञान ने धर्म का तात्पर्य साम्प्रदायिक कट्टरता को लिया जिसमें अपने पक्ष की परम्पराओं को ही सब कुछ माना गया है। इसी प्रकार धर्म ने विज्ञान का एक ही पक्ष देखा है जिसमें उसे आस्थाओं का उपहास उड़ाते पाया जाता है। यह दोनों पक्षों के अधूरे और उथले रूप हैं। वस्तुतः उन दोनों की उपयोगिता असंदिग्ध है। दोनों मनुष्य जाति के लिए समान रूप से उपयोगी और ठोस तथ्यों पर आधारित हैं। ऐसी दशा में उनमें परस्पर सहयोग और आदान-प्रदान होना चाहिए था। ऐसे विवाद को कोई गुंजाइश है नहीं जिसमें दोनों एक दूसरे को जन-कल्याण के पथ पर चलने वाले मित्र सहयोगी के स्थान पर विरोधी और प्रति पक्षी प्रतिद्वन्दी मानने लगें।
विज्ञान चाहता है कि—धार्मिकता को प्रमाणिकता और उपयोगिता की कसौटी पर कसा जाना और खरा सिद्ध होना आवश्यक है। तभी उसको मान्यता मिले। इसी प्रकार धर्म चाहता है कि विज्ञान को अपनी सीमा समझनी चाहिए और जो उसकी पहुंच से बाहर है उसमें दखल नहीं देना चाहिए। दोनों की मांगें सही हैं। धर्म को अपनी उपयोगिता सिद्ध करने का पूरा-पूरा अवसर है। यह तथ्य पूर्ण है। अपने पक्ष समर्थन में उसके पास इतने तर्क और प्रमाण है कि उसकी गरिमा और स्थिरता को कोई चुनौती नहीं दे सकता। साथ ही यह भी स्वीकार किये जाने की आवश्यकता है कि धर्म की मूल नीति से सर्वथा भिन्न जो भ्रान्तियां और विकृतियां इस क्षेत्र में घुस पड़ी है उन्हें सुधारा और हटाया जाना आवश्यक है। ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्’ की नीति अपनाना और जो चल रहा है उसी को पत्थर की लकीर मानकर अड़े रहना अनुचित है। धर्म का तथ्य शाश्वत है किन्तु प्रथा परम्पराओं के जिस प्रकार समय-समय पर सुधार होते रहे हैं, वैसे ही इन दिनों भी उसमें बहुत कुछ सुधार परिवर्तन होने की गुंजाइश है।
विज्ञान को समझना चाहिए कि धर्म शब्द सम्प्रदाय के अर्थ में ही न लिया जाय। साम्प्रदायिक कट्टरता और निहित स्वार्थों द्वारा फैलाई गई मूढ़मान्यता का सुधार विरोध किया जाय। धर्म के उस पक्ष को विवाद से बचा दिया जाय जो नीति एवं आदर्श के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जिसके सहारे मनुष्य आदिमकाल से बढ़ते-बढ़ते इस भाव सम्पन्नता का महत्व समझ सकने की स्थिति में आ पाया है।
सन्त विनोवा का कथन है—धर्म और राजनीति का युग बीत गया अब उनका स्थान अध्यात्म और विज्ञान ग्रहण करेगा।’’ इस भविष्य कथन में यथार्थता है। संसार का सदा से यही नियम रहा है कि हर वस्तु, हर स्थिति और हर मान्यता तभी तक जीवित रहती है जब वह अपने को उपयोगिता की दृष्टि से खरी बनाये रखे। विकृतियां बढ़ जाने पर किसी समय की अच्छी वस्तु भी बिगड़ कर अनुपयोगी बन जाती है तब उसे हटाकर—उठाकर किसी कूड़े के ढेर में सड़ने-मरने के लिए पटक दिया जाता है।
विनोवा का धर्म शब्द से अभिप्राय सम्प्रदाय से है। धर्म और सम्प्रदाय का अन्तर स्पष्ट है। नीति और सदाचरण को धर्म कहा जाता है वह सदा से शाश्वत एवं सनातन है। उसकी उपयोगिता पर न उंगली उठाने की गुंजाइश है और न सन्देह करने की। वह न सड़ता है और न बिगाड़ने से बिगड़ता है। चोर भी अपने यहां ईमानदार नौकर रखना चाहते हैं। निष्ठुर भी अपने साथ उदार व्यवहार की अपेक्षा करता है। व्यभिचारी को भी अपनी पुत्री के लिए सदाचारी वर चाहिए। झूठा मनुष्य भी सचाई का समर्थन करता है। इससे स्पष्ट है कि जिस अर्थ में शास्त्रों ने धर्म का प्रतिपादन किया है उसे कोई भी चुनौती नहीं दे सकता। ‘धर्म’ कहकर जिसका उपहास उड़ाया जाता और अनुपयोगी ठहराया जाता है वह विकृत सम्प्रदाय वाद ही है। आरम्भ में सम्प्रदायों की संरचना भी सदुद्देश्य से ही हुई थी और उसमें बदली हुई परिस्थितियों में परिवर्तन की गुंजाइश रखी गई थी। कट्टरतावादी सामयिक सुधारों की उपेक्षा करते रहते हैं और उनके साथ जुड़ जाने वाली विकृतियों को भी धर्म परम्परा मानने लगते हैं। ऐसी ही विकृत साम्प्रदायिकता को लोग ‘धर्म’ की संज्ञा देते हैं। विनोवा ने भी इस तथाकथित ‘धर्म’ के अगले दिनों पदच्युत होने की बात कही हैं। परिष्कृत धर्म को अध्यात्म कहा गया है। धर्म का स्थान अध्यात्म ग्रहण करेगा इस कथन का तात्पर्य इतना ही है कि धर्म के नाम पर चल रही विकृत साम्प्रदायिकता के स्थान पर उस सनातन धर्म की प्रतिष्ठापना होगी जो नीति, सदाचार, न्याय और औचित्य पर अवलंबित है। नवयुग की जागृत विवेकशीलता ऐसा परिवर्तन करके ही रहेगी।
इस प्रकार राजनीति से पदच्युत होने का अर्थ शासन तन्त्र की समाप्ति या अराजकता नहीं, वरन् दलगत सत्तानीति का अवमूल्यन है। यहां कुटिलता की कूटनीति की भर्त्सना का संकेत है। विज्ञान का अर्थ विनोबा की दृष्टि में विशिष्ट ज्ञान—‘विवेक’ है। विज्ञान का लक्ष्य है सत्य की शोध। यथार्थता के साथ दूरदर्शिता एवं सद्भावना के जुड़ जाने में विवेक दृष्टि बनती है। भविष्य में इसी नीति में शासन सत्ता का सूत्र संचालन होगा। विज्ञान से तात्पर्य विनोवा ने भौतिकी नहीं लिया है।
विज्ञान से सन्त विनोवा का जो प्रयोजन है उसे हम आधुनिक मनीषियों की कुछ व्याख्याओं के आधार पर और भी अधिक स्पष्टता के साथ समझ सकते हैं। ‘कामन सेन्स आफ लाइफ’ ग्रंथ के लेखक जेकोव व्रोनोवस्की ने विज्ञान को चिन्तन का एक समग्र दर्शन माना है और कहा है—‘‘जो चीज काम दे उसकी स्वीकृति और जो काम न दे उसकी अस्वीकृति ही विज्ञान है।’’ इस सन्दर्भ में वे अपनी बात को और भी अधिक स्पष्ट करते हैं—विज्ञान की यही प्रेरणा है कि हमारे विचार वास्तविक हों—उनमें नई-नई परिस्थितियों के अनुकूल बनने की क्षमता हो, निष्पक्ष हो—तो वह विचार भले ही जीवन के संसार के किसी भी क्षेत्र का क्यों न हो ‘विज्ञान’ माना जायेगा। ऐसी विचारधारा वैज्ञानिक ही कही जायगी।’’
वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ की तुलना करते हुए—‘प्रिसिशन आफ साइन्स एण्ड कन्फूशन आफ पॉलीटिक्स’ पुस्तक के लेखक जेम्स रस्टन कहते हैं। वैज्ञानिक अपने साधनों की सामर्थ्य जानता है—उन पर नियन्त्रण रखता है। वह अपने साध्य का साधनों का निर्धारण तथ्यों के आधार पर करता है। इसके बाद निर्धारित प्रक्रिया का संचालन कुशल प्रशिक्षित लोगों के हाथ सौंपता है। राजनीतिज्ञ की गतिविधियां इससे उलटी होती हैं—उसे न तो शक्ति की थाह लेना है और न साधनों की। उसके निर्णय न तो तथ्यों पर आधारित होते हैं और न दूरदर्शिता पर। प्रायः दम्भ अहंकार, द्वेष सीमित स्वार्थ और सनक ही राजनीति पर छाये रहते हैं। इसलिए वह जुआरी की तरह अन्धे दाव लगाता है और अन्धे परिणाम ही सामने उपस्थिति पाता है। राज्य सत्ता सदा क्रिया कुशल और दूरदर्शी लोगों के ही हाथ में नहीं होती—वरन् ऐसे लोगों के हाथ में भी होती है—जो उसके सर्वथा अयोग्य होते हैं। आवेश में वह काम तो बड़े-बड़े शुरू कर देते हैं, पर कठिनाइयों और परिस्थितियों पर नियन्त्रण न रख सकने के अभाव में उन्हें अधिकतर असफल ही रहना पड़ता है। वैज्ञानिक अपनी भूलों के खतरे को हर घड़ी समझता देखता रहता है जब कि राजनीतिज्ञ के कदम पद्यपायी की तरह अनिश्चित दिशा में उठते हैं और अनियन्त्रित रहते हैं।
एच.जी. वेल्स प्रभृति अनेक विश्व विख्यात विचारक इसी तरह सोचते रहे हैं कि अन्धी राजनीति के हाथ में जो मानव जाति के भविष्य निर्माण का सूत्र चला गया है वह वापिस लिया जाना चाहिए और शासन का आधार विज्ञान होना चाहिए। विज्ञान अर्थात् सुनिश्चित साधनों का सर्वोत्तम व्यक्तियों द्वारा श्रेष्ठतर आदर्शों के लिए उपयोग। संसार में दो ही शक्तियां मानव जाति के भाग्य का निर्माण निर्धारण करती हैं—एक धर्म दूसरा शासन। धर्म का नियन्त्रण भावनात्मक क्षेत्र पर है इसके आधार पर चिन्तन परिष्कृत होता है इसलिए इस क्षेत्र में भरी हुई विकृतियों को असह्य माना जाना चाहिए और उनका अविलम्ब परिष्कार किया जाना चाहिए। राज सत्ता का नियन्त्रण भौतिक वस्तुओं और परिस्थितियों पर होता है उनके उचित उत्पादन, उपयोग, वितरण एवं मानवी मर्यादाओं के पालन का उत्तरदायित्व शासन पर होता है। वह भ्रष्ट होगा तो संसार में विभीषिकाएं और विकृतियां बढ़ेंगी फलस्वरूप शोक-सन्ताप के दुर्भाग्य पूर्ण संकट आये दिन बरसते रहेंगे।
सम्प्रदाय धर्म को अध्यात्म से परिष्कृत किया जाना चाहिए। राजनीति का सूत्र संचालन सनक एवं अहंता के हाथों में नहीं, तथ्य और सत्य की संगति मिलाकर लोक-मंगल की व्यवस्था कर सकने वाली दूरदर्शिता के हाथों सौंपा जाना चाहिए। यही है सन्त विनोवा का अभिमत—भविष्य कथन। बदलती परिस्थितियों में लोक-मंगल के लिए यह परिवर्तन अभीष्ट भी है और अवश्यम्भावी भी।
शरीर भौतिक है उसके सुविधा साधन भौतिक विज्ञान के सहारे जुटाये जा सकते हैं आत्मा चेतन है उसकी आवश्यकता धर्म के सहारे उपलब्ध हो सकेगी। यह एक तथ्य और ध्यान रखने योग्य है कि परिष्कृत धर्म का नाम अध्यात्म भी है और आत्मा के विज्ञान अध्यात्म का उल्लेख अनेक स्थानों पर धर्म के रूप में भी होता रहा है, अस्तु उन्हें पर्यायवाचक भी माना जा सकता है।
पिछले दिनों भ्रान्तियों का दौर रहा है और उसमें कुछ ऐसे भी प्रसंग आये हैं जिनमें मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र मान लिया गया है। धर्म और विज्ञान के परस्पर विरोधी होने का विवाद भी उसी स्तर का है। धार्मिक क्षेत्र में समझा जाता रहा है कि—विज्ञान धर्म विरोधी है। वह श्रद्धा को काटता है, परोक्ष जीवन पर अविश्वास व्यक्त करता है। मनुष्य को यन्त्र समझता है और उसके सुसंचालन के लिए भौतिक सुविधाओं का सम्वर्धन ही पर्याप्त मानता है। प्रकृति ही उसके लिए सब कुछ है। आत्मा और परमार्थ के प्रति उसका अविश्वास है। अस्तु उसका उपार्जन भर ग्राह्य हो सकता है। प्रतिपादन को तो निरस्त ही करना चाहिए। अन्यथा मनुष्य आस्था रहित बन जायेगा। विज्ञान क्षेत्र से धर्म पर यह आक्षेप लगाया जाता रहा है कि वह कपोल कल्पनाओं और अन्ध-विश्वासों पर आधारित है। किम्वदंतियों को इतिहास और उक्तियों को प्रमाण मानता है। तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने से कतराता है। अस्तु उसकी नींव खोखली है। धर्म, श्रद्धा एक ऐसा ढकोसला है जिसकी आड़ में धूर्त ठगते और मूर्ख ठगाते रहते हैं। धर्म सम्प्रदायों ने मानवी एकता पर भारी आघात पहुंचाया है। पूर्वाग्रह, हठवाद, एवं पक्षपात का ऐसा वातावरण उत्पन्न किया है जिसमें अपनी मान्यता सही और दूसरों की गलत सिद्ध करने का अहंकारी आग्रह भरा रहता है। अपनी श्रेष्ठता दूसरे की निकृष्टता ठहराने, अपनी बात दूसरों से बलपूर्वक मनवाने के लिए धर्म के नाम पर रक्त की नदियां बहाई जाती रही हैं। अस्तु उससे दूर ही रहना चाहिए।
इन आक्षेपों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि विवाद आक्रोश का कारण गहरा नहीं उथला है। विज्ञान ने धर्म का तात्पर्य साम्प्रदायिक कट्टरता को लिया जिसमें अपने पक्ष की परम्पराओं को ही सब कुछ माना गया है। इसी प्रकार धर्म ने विज्ञान का एक ही पक्ष देखा है जिसमें उसे आस्थाओं का उपहास उड़ाते पाया जाता है। यह दोनों पक्षों के अधूरे और उथले रूप हैं। वस्तुतः उन दोनों की उपयोगिता असंदिग्ध है। दोनों मनुष्य जाति के लिए समान रूप से उपयोगी और ठोस तथ्यों पर आधारित हैं। ऐसी दशा में उनमें परस्पर सहयोग और आदान-प्रदान होना चाहिए था। ऐसे विवाद को कोई गुंजाइश है नहीं जिसमें दोनों एक दूसरे को जन-कल्याण के पथ पर चलने वाले मित्र सहयोगी के स्थान पर विरोधी और प्रति पक्षी प्रतिद्वन्दी मानने लगें।
विज्ञान चाहता है कि—धार्मिकता को प्रमाणिकता और उपयोगिता की कसौटी पर कसा जाना और खरा सिद्ध होना आवश्यक है। तभी उसको मान्यता मिले। इसी प्रकार धर्म चाहता है कि विज्ञान को अपनी सीमा समझनी चाहिए और जो उसकी पहुंच से बाहर है उसमें दखल नहीं देना चाहिए। दोनों की मांगें सही हैं। धर्म को अपनी उपयोगिता सिद्ध करने का पूरा-पूरा अवसर है। यह तथ्य पूर्ण है। अपने पक्ष समर्थन में उसके पास इतने तर्क और प्रमाण है कि उसकी गरिमा और स्थिरता को कोई चुनौती नहीं दे सकता। साथ ही यह भी स्वीकार किये जाने की आवश्यकता है कि धर्म की मूल नीति से सर्वथा भिन्न जो भ्रान्तियां और विकृतियां इस क्षेत्र में घुस पड़ी है उन्हें सुधारा और हटाया जाना आवश्यक है। ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्’ की नीति अपनाना और जो चल रहा है उसी को पत्थर की लकीर मानकर अड़े रहना अनुचित है। धर्म का तथ्य शाश्वत है किन्तु प्रथा परम्पराओं के जिस प्रकार समय-समय पर सुधार होते रहे हैं, वैसे ही इन दिनों भी उसमें बहुत कुछ सुधार परिवर्तन होने की गुंजाइश है।
विज्ञान को समझना चाहिए कि धर्म शब्द सम्प्रदाय के अर्थ में ही न लिया जाय। साम्प्रदायिक कट्टरता और निहित स्वार्थों द्वारा फैलाई गई मूढ़मान्यता का सुधार विरोध किया जाय। धर्म के उस पक्ष को विवाद से बचा दिया जाय जो नीति एवं आदर्श के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जिसके सहारे मनुष्य आदिमकाल से बढ़ते-बढ़ते इस भाव सम्पन्नता का महत्व समझ सकने की स्थिति में आ पाया है।
सन्त विनोवा का कथन है—धर्म और राजनीति का युग बीत गया अब उनका स्थान अध्यात्म और विज्ञान ग्रहण करेगा।’’ इस भविष्य कथन में यथार्थता है। संसार का सदा से यही नियम रहा है कि हर वस्तु, हर स्थिति और हर मान्यता तभी तक जीवित रहती है जब वह अपने को उपयोगिता की दृष्टि से खरी बनाये रखे। विकृतियां बढ़ जाने पर किसी समय की अच्छी वस्तु भी बिगड़ कर अनुपयोगी बन जाती है तब उसे हटाकर—उठाकर किसी कूड़े के ढेर में सड़ने-मरने के लिए पटक दिया जाता है।
विनोवा का धर्म शब्द से अभिप्राय सम्प्रदाय से है। धर्म और सम्प्रदाय का अन्तर स्पष्ट है। नीति और सदाचरण को धर्म कहा जाता है वह सदा से शाश्वत एवं सनातन है। उसकी उपयोगिता पर न उंगली उठाने की गुंजाइश है और न सन्देह करने की। वह न सड़ता है और न बिगाड़ने से बिगड़ता है। चोर भी अपने यहां ईमानदार नौकर रखना चाहते हैं। निष्ठुर भी अपने साथ उदार व्यवहार की अपेक्षा करता है। व्यभिचारी को भी अपनी पुत्री के लिए सदाचारी वर चाहिए। झूठा मनुष्य भी सचाई का समर्थन करता है। इससे स्पष्ट है कि जिस अर्थ में शास्त्रों ने धर्म का प्रतिपादन किया है उसे कोई भी चुनौती नहीं दे सकता। ‘धर्म’ कहकर जिसका उपहास उड़ाया जाता और अनुपयोगी ठहराया जाता है वह विकृत सम्प्रदाय वाद ही है। आरम्भ में सम्प्रदायों की संरचना भी सदुद्देश्य से ही हुई थी और उसमें बदली हुई परिस्थितियों में परिवर्तन की गुंजाइश रखी गई थी। कट्टरतावादी सामयिक सुधारों की उपेक्षा करते रहते हैं और उनके साथ जुड़ जाने वाली विकृतियों को भी धर्म परम्परा मानने लगते हैं। ऐसी ही विकृत साम्प्रदायिकता को लोग ‘धर्म’ की संज्ञा देते हैं। विनोवा ने भी इस तथाकथित ‘धर्म’ के अगले दिनों पदच्युत होने की बात कही हैं। परिष्कृत धर्म को अध्यात्म कहा गया है। धर्म का स्थान अध्यात्म ग्रहण करेगा इस कथन का तात्पर्य इतना ही है कि धर्म के नाम पर चल रही विकृत साम्प्रदायिकता के स्थान पर उस सनातन धर्म की प्रतिष्ठापना होगी जो नीति, सदाचार, न्याय और औचित्य पर अवलंबित है। नवयुग की जागृत विवेकशीलता ऐसा परिवर्तन करके ही रहेगी।
इस प्रकार राजनीति से पदच्युत होने का अर्थ शासन तन्त्र की समाप्ति या अराजकता नहीं, वरन् दलगत सत्तानीति का अवमूल्यन है। यहां कुटिलता की कूटनीति की भर्त्सना का संकेत है। विज्ञान का अर्थ विनोबा की दृष्टि में विशिष्ट ज्ञान—‘विवेक’ है। विज्ञान का लक्ष्य है सत्य की शोध। यथार्थता के साथ दूरदर्शिता एवं सद्भावना के जुड़ जाने में विवेक दृष्टि बनती है। भविष्य में इसी नीति में शासन सत्ता का सूत्र संचालन होगा। विज्ञान से तात्पर्य विनोवा ने भौतिकी नहीं लिया है।
विज्ञान से सन्त विनोवा का जो प्रयोजन है उसे हम आधुनिक मनीषियों की कुछ व्याख्याओं के आधार पर और भी अधिक स्पष्टता के साथ समझ सकते हैं। ‘कामन सेन्स आफ लाइफ’ ग्रंथ के लेखक जेकोव व्रोनोवस्की ने विज्ञान को चिन्तन का एक समग्र दर्शन माना है और कहा है—‘‘जो चीज काम दे उसकी स्वीकृति और जो काम न दे उसकी अस्वीकृति ही विज्ञान है।’’ इस सन्दर्भ में वे अपनी बात को और भी अधिक स्पष्ट करते हैं—विज्ञान की यही प्रेरणा है कि हमारे विचार वास्तविक हों—उनमें नई-नई परिस्थितियों के अनुकूल बनने की क्षमता हो, निष्पक्ष हो—तो वह विचार भले ही जीवन के संसार के किसी भी क्षेत्र का क्यों न हो ‘विज्ञान’ माना जायेगा। ऐसी विचारधारा वैज्ञानिक ही कही जायगी।’’
वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ की तुलना करते हुए—‘प्रिसिशन आफ साइन्स एण्ड कन्फूशन आफ पॉलीटिक्स’ पुस्तक के लेखक जेम्स रस्टन कहते हैं। वैज्ञानिक अपने साधनों की सामर्थ्य जानता है—उन पर नियन्त्रण रखता है। वह अपने साध्य का साधनों का निर्धारण तथ्यों के आधार पर करता है। इसके बाद निर्धारित प्रक्रिया का संचालन कुशल प्रशिक्षित लोगों के हाथ सौंपता है। राजनीतिज्ञ की गतिविधियां इससे उलटी होती हैं—उसे न तो शक्ति की थाह लेना है और न साधनों की। उसके निर्णय न तो तथ्यों पर आधारित होते हैं और न दूरदर्शिता पर। प्रायः दम्भ अहंकार, द्वेष सीमित स्वार्थ और सनक ही राजनीति पर छाये रहते हैं। इसलिए वह जुआरी की तरह अन्धे दाव लगाता है और अन्धे परिणाम ही सामने उपस्थिति पाता है। राज्य सत्ता सदा क्रिया कुशल और दूरदर्शी लोगों के ही हाथ में नहीं होती—वरन् ऐसे लोगों के हाथ में भी होती है—जो उसके सर्वथा अयोग्य होते हैं। आवेश में वह काम तो बड़े-बड़े शुरू कर देते हैं, पर कठिनाइयों और परिस्थितियों पर नियन्त्रण न रख सकने के अभाव में उन्हें अधिकतर असफल ही रहना पड़ता है। वैज्ञानिक अपनी भूलों के खतरे को हर घड़ी समझता देखता रहता है जब कि राजनीतिज्ञ के कदम पद्यपायी की तरह अनिश्चित दिशा में उठते हैं और अनियन्त्रित रहते हैं।
एच.जी. वेल्स प्रभृति अनेक विश्व विख्यात विचारक इसी तरह सोचते रहे हैं कि अन्धी राजनीति के हाथ में जो मानव जाति के भविष्य निर्माण का सूत्र चला गया है वह वापिस लिया जाना चाहिए और शासन का आधार विज्ञान होना चाहिए। विज्ञान अर्थात् सुनिश्चित साधनों का सर्वोत्तम व्यक्तियों द्वारा श्रेष्ठतर आदर्शों के लिए उपयोग। संसार में दो ही शक्तियां मानव जाति के भाग्य का निर्माण निर्धारण करती हैं—एक धर्म दूसरा शासन। धर्म का नियन्त्रण भावनात्मक क्षेत्र पर है इसके आधार पर चिन्तन परिष्कृत होता है इसलिए इस क्षेत्र में भरी हुई विकृतियों को असह्य माना जाना चाहिए और उनका अविलम्ब परिष्कार किया जाना चाहिए। राज सत्ता का नियन्त्रण भौतिक वस्तुओं और परिस्थितियों पर होता है उनके उचित उत्पादन, उपयोग, वितरण एवं मानवी मर्यादाओं के पालन का उत्तरदायित्व शासन पर होता है। वह भ्रष्ट होगा तो संसार में विभीषिकाएं और विकृतियां बढ़ेंगी फलस्वरूप शोक-सन्ताप के दुर्भाग्य पूर्ण संकट आये दिन बरसते रहेंगे।
सम्प्रदाय धर्म को अध्यात्म से परिष्कृत किया जाना चाहिए। राजनीति का सूत्र संचालन सनक एवं अहंता के हाथों में नहीं, तथ्य और सत्य की संगति मिलाकर लोक-मंगल की व्यवस्था कर सकने वाली दूरदर्शिता के हाथों सौंपा जाना चाहिए। यही है सन्त विनोवा का अभिमत—भविष्य कथन। बदलती परिस्थितियों में लोक-मंगल के लिए यह परिवर्तन अभीष्ट भी है और अवश्यम्भावी भी।