Books - धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं पूरक हैं
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Language: HINDI
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विज्ञान की अपूर्णता और अस्थिरता
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भौतिक तथ्यों की जानकारी देना और पदार्थ की शक्ति का सुविधाजनक उपयोग सिखाना विज्ञान का क्षेत्र इतना ही है। हर बात की एक सीमा होती है। विज्ञान की सीमा भी इतनी ही है। इस परिधि को किसी प्रकार कम महत्व का नहीं माना जा सकता। अन्य सभी प्राणी अपनी शारीरिक क्षमता भार से निर्वाह के साधन जुटाते रहने भर में सक्षम होते हैं। पर मनुष्य अगणित सुख सुविधाओं का उपभोग करता है। उसे विज्ञान की उपलब्धि ही कहनी चाहिए। अग्नि का जलाना और उसका उपयोग करना जिस दिन मनुष्य ने जाना उस दिन उसने प्रगति के एक नये लोक में प्रवेश किया। शक्ति का बहुत बड़ा द्वार उसके लिए यही से खुला। नोकदार औजार, पहिया, कृषि, पशु-पालन, आच्छादन जैसी वैज्ञानिक उपलब्धियों ने उसे नर-वानर के वर्ग से निकाल कर प्राणियों का मुकुटमणि ही बना दिया। चेतनात्मक प्रगति के अगले चरण उसके लिए भाषा और लिपि के अद्भुत आयाम प्रस्तुत करते हैं। इस वैज्ञानिक प्रगति क्रम में बढ़ते हुए आज हम अणु शक्ति और अन्तर्ग्रही क्षेत्र में परिभ्रमण कर रहे हैं। प्रकृति के रहस्यों पर से एक के बाद परत उठाते चलने में जो सफलता मिल रही है। उसके लिए मानवी प्रतिभा की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम है। बुद्धि, श्रम और साधनों के समन्वय से चल रही वैज्ञानिक प्रगति ने हमें असीम सुख साधन दिये हैं और भविष्य में इससे भी अधिक देने दिलाने का आश्वासन दिया है।
इतने पर भी एक बात पूरी तरह समझली जानी चाहिए कि विज्ञान का क्षेत्र भौतिक है। उसका पूरा नाम भी भौतिक विज्ञान एवं पदार्थ विज्ञान ही है। अपने कार्य क्षेत्र में वह सफलता प्राप्त कर रहा है और करेगा। यहां एक बात की ही भूल हो जाती है कि चेतना का क्षेत्र भी विज्ञान ने अपनी परिधि में सम्मिलित करना आरम्भ कर दिया है और चेतन को भी जड़ सिद्ध करने का दुस्साहस किया है। यह भूल है। चेतना पदार्थ नहीं है। उस पर पदार्थ स्तर के नियम सिद्धान्त भी लागू नहीं होते। फिर उसे प्रयोगशाला में देखा भी नहीं जा सकता। ऐसे उपकरण बन सकने कठिन हैं जो आत्मा का स्वरूप समझने और उसे अभीष्ट प्रयोजनों के लिए पदार्थ की तरह प्रयुक्त करने में सफल हो सकें। शरीर और मस्तिष्क की हलचलों के बारे में विज्ञान ने बहुत कुछ कहा और बताया है। पर यह बताना उसके लिए सम्भव न हो सका कि इन दोनों संस्थानों के सही रहने पर भी मरण क्यों हो जाता है? चेतना न रहने पर शरीर और मस्तिष्क अपना काम करना क्यों बन्द कर देते हैं? जिसके रहने से शरीर जीवित रहता और न रहने पर मर जाता है उस चेतना की उत्पत्ति, प्रगति और स्थिरता के लिए क्या किया जा सकता है, इसके सम्बन्ध में कोई समाधान खोजा नहीं जा सका।
पदार्थों के पीछे एक स्थिर नियम काम करता है। उस के आधार पर भौतिक जगत की समस्त हलचलें चलती हैं फिर चेतना पर एक नियम क्यों लागू नहीं होता। वृक्ष वनस्पतियों की तरह मनुष्यों की प्रकृति एक जैसी क्यों नहीं होती? शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों की प्रतिक्रिया होना समझ आता है, पर भावनाएं क्या हैं? विशिष्ट आकांक्षाएं क्यों उत्पन्न होती हैं? मान-अपमान क्या है? दया, धर्म की उत्पत्ति तथा त्याग, बलिदान की प्रवृत्ति का—भौतिक आधार क्या हो सकता है? इस तथ्य तक पहुंचना विज्ञान के लिए सम्भव न हो सका है और न भविष्य में भी वैसा हो सकने की सम्भावना है। तो भौतिक उपकरणों से भौतिक पदार्थ की स्थिति की खोज हो सकती है। चेतना के पर्यवेक्षण के लिए चेतनात्मक उपकरण चाहिए। यह उपकरण अन्तःकरण के रूप में विद्यमान है। चेतनात्मक प्रयोगों के अन्वेषण का यही क्षेत्र है। अन्तःकरण और प्रयोगशाला को एक मानने या बनाने का प्रयत्न करना बुद्धि संगत है और न व्यवहार सम्मत। वह विज्ञान के क्षेत्र बाहर है। चेतना के नियम और भौतिक नियमों के बीच समानता तो पाई जाती है, पर उन्हें एक नहीं माना जा सकता।
मानवी विशिष्टताओं को पदार्थ से तो क्या दूसरे प्राणि तक से समतुल्य नहीं माना जा सकता है। क्षुद्र प्राणियों में यों सदाचार नाम की कोई मर्यादा नहीं है। वे माता, पुत्री, भगिनी और पत्नी में कोई अन्तर नहीं करते। मनुष्यों के पिछड़े वर्ग में भी इस सम्बन्ध में भेद बुद्धि पाई जाती है। शरीर के पूर्ण नग्न रखने में वनवासी मनुष्य भी संकोच करते हैं। नीति और परम्पराओं की कितनी ही मान्यताएं उन लोगों में भी पाई जाती हैं जिन्हें सभ्यता से सर्वथा अपरिचित कहा जाता है। यह मानवी अन्तःकरण है जिसकी मित्रताएं, क्षमताएं, विशेषताएं असीम हैं। सम्भावनाओं पर विचार करते हैं तब तो आश्चर्य से चकित ही रह जाना पड़ता है। उच्च स्तर तक पहुंचे हुए अति मानवी की विशेषताएं उनके अन्तःकरण की उत्कृष्टता पर ही निर्भर नहीं है। उस भावनात्मक विशिष्टता का कोई कारण एवं आधार प्रतीत नहीं हो सका है। चेतना के क्षेत्र में प्रवेश करने पर उसके अनधिकारी प्रयास न केवल उपहासास्पद बनेंगे वरन् अनेकों ऐसी विकृतियां उत्पन्न करेंगे जिन्हें अनावश्यक एवं अवांछनीय ही माना जायेगा।
विज्ञान ने चेतना का पृथक् अस्तित्व प्रयोगशालाओं में परीक्षण करके प्रत्यक्ष नहीं पाया। इतने भर से उसके लिए यह कहना अनुचित था कि चेतना का अस्तित्व ही नहीं है। अथवा उसके साथ अन्तःकरण के रूप में जुड़े हुए धर्म की कोई सत्ता ही नहीं है। इस आतुर प्रतिपादन से अनास्था फैली और इन आदर्शों को क्षति पहुंची जिनके सहारे मानवी प्रगति का क्रम आरम्भ हुआ और अब तक बढ़ता चला आया है। ईश्वर, आत्मा, धर्म, कर्मफल, परमार्थ, संयम जैसी सभी उपयोगी मान्यताएं आस्तिकता के साथ जुड़ी हुई हैं। धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता के सिद्धान्त कट जाने पर उस स्वार्थान्धता पर अंकुश न हो सकेगा, जिसके दबाव में रहने के कारण अन्य प्राणी न पारस्परिक स्नेह, सहयोग का अभ्यास कर सके और न आत्म-निर्माण की दिशा में कुछ सोचने अथवा करने में ही समर्थ हो सके। विज्ञान यदि धर्म को काटता है तो तर्क की दृष्टि से उसकी विजय मान लेने पर भी एक नया संकट यह खड़ा हो जायेगा कि मानवी गरिमा को बनाने और बढ़ाने वाली शालीनता से पूरी तरह हाथ धोना पड़ेगा। तब हम क्रमशः पीछे की ओर लौटना आरम्भ करेंगे और प्रकृति पुत्र वानुष के अपने उद्गम केन्द्र पर जा पहुंचेंगे। प्रगति जहां से आरम्भ हुई थी अगति हमें वहीं लौटाकर वापिस पहुंचा देगी। प्रगति क्रम में मनुष्य को अन्य प्राणियों से जूझना और उन पर वर्चस्व स्थापित करना पड़ता है। अगति एवं दुर्गति की ओर लौटते समय हमें अपने ही वर्ग पर आक्रमण करना पड़ेगा। अन्य प्राणियों के पास मांस, दूध श्रम के अतिरिक्त और कुछ बचा नहीं है, पर मनुष्य की तृष्णा इससे कहीं अधिक बढ़ गई है। मत्स्य न्याय के अनुसार बड़े-छोटे का शोषण करते हैं। बड़े अपनों से बड़ों के पथ पर चलेंगे। फिर अन्ततः वे सबसे बड़े भी आपस में उसी नीति को अपनाकर परस्पर मर खप कर समाप्त होकर रहेंगे। यदि आदिमकाल से भी बुरी स्थिति होगी। आदिम मनुष्य मूर्ख था। उसकी दुष्टता भी थोड़े क्षेत्र में थोड़ी ही हानि पहुंचा सकती थी। पर आज बुद्धिमान और साधन सम्पन्न मनुष्य तो वापिस लौटते-लौटते भी सभ्यता और प्रगति का सर्वनाश ही करता चलेगा। ऐसी-ऐसी विभीषिकाएं उस प्रतिपादन के पीछे स्पष्ट झांकती देखी जा सकती हैं जो विज्ञान ने धर्म के अस्तित्व को अस्वीकार करने के रूप में आरम्भ की है। मौलिक सुख-सुविधा की दृष्टि से विज्ञान ने मनुष्य जाति को जो अनुदान प्रस्तुत किये हैं। अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण करके वह उस श्रेय को नष्ट ही कर देगा जो अब तक की उपलब्धियों के कारण उसने प्राप्त किया है। अनुपयुक्त अतिक्रमण के दुष्परिणाम सदा भयावह ही होते रहे हैं, विज्ञान ने यथार्थ की शोध करके अपनी प्रामाणिकता की छाप छोड़ी है। अतिक्रमण के कारण उसकी ख्याति और प्रतिष्ठा को तो आघात पहुंचेगा ही। उपयोगिता भी संदिग्ध बन जायगी।
विज्ञान का जन्म तो बहुत पहले हो चुका किन्तु विश्व इतिहास की लम्बाई को देखते हुए पिछली शताब्दियों से उनकी अति उत्साही प्रगति का समय बहुत थोड़ा-सा ही गुजरा है। इन दिनों की उपलब्धियों को बाल विकास के समतुल्य ही माना जा सकता है। बच्चे रोज भूल करते और रोज संभलते हैं। यही इन दिनों वैज्ञानिक शोध प्रक्रिया के सम्बन्ध में भी चल रहा है। आज एक सिद्धान्त बनता है। उसे मान्यता मिलती है। कल सन्देह उत्पन्न होता है। परसों उसकी काट-छांट शुरू होती है और अगले दिन उसे अप्रामाणिक ठहरा कर अमान्य कर दिया जाता है। जो आज माना जा रहा है वह कल भी उसी रूप में स्वीकार किया जायेगा। इसका कोई विश्वास नहीं। सत्य की शोध के मार्ग पर प्रयत्न तो भरपूर होने चाहिए, पर साथ ही नम्र रहने और धैर्य रखने की भी आवश्यकता है। विशेषतया ऐसे प्रसंगों पर तो समझ-सोचकर ही कुछ कहा जाना चाहिए जिनका व्यापक असर मानवी नीति, निष्ठा और समाज-व्यवस्था पर पड़ता है। धर्म ऐसा ही विषय है। उसका सीधा सम्बन्ध मनुष्य की चरित्र-निष्ठा और समाज-निष्ठा से है यदि उन आदर्श को बनाये रहना है तो उन नींव के पत्थरों को खिसकाना नहीं चाहिए जिन पर कि स्थिरता और प्रगति का समूचा महल ही खड़ा हुआ है। पिछली शताब्दियों की वैज्ञानिक प्रगति की यों सराहना ही की जा सकती है। किन्तु यह नहीं मान बैठना चाहिए कि पूर्णता की स्थिति आ गई और ऐसी स्थिति बन गई जिसके आधार पर चेतना के अस्तित्व और उसके चिन्तन एवं कर्तृत्व में उत्कृष्टता का समावेश करने वाले ‘धर्म’ को ही अवास्तविक एवं अनावश्यक ठहराया जाने लगे। विज्ञान को अपने बालकपन का ध्यान रखना अधिक और धर्म की अस्वीकृति जैसे प्रसंग पर समझ-सोचकर ही अपने आप मत व्यक्त करना चाहिए।
प्रगति के नाम पर जो दुर्गति हुई है उसको भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। यन्त्र औजारों के उपकरण की बात अलग है, पर यदि किन्हीं ऐसे प्रयोगों के सम्बन्ध में बहुत ही सतर्कता बरतनी चाहिए जो आरम्भ में तो बड़े लाभदायक प्रतीत होते है, पर परीक्षण के उपरान्त हानिकारक सिद्ध होते हैं। ऐसे प्रयोगों में अतिवादी उतावली से वह अपेक्षित लाभ तो मिलता नहीं, उलटे बेहिसाब हानि उठानी पड़ती है। अच्छा होता कि धैर्य रखा जाता। छोटे क्षेत्र में प्रयोग किया जाता है और लाभ हानि का भली प्रकार लेखा-जोखा लेने के उपरान्त उसका व्यापक प्रयोग आरम्भ किया जाता। अनेक क्षेत्रों में अत्युत्साह के कारण जो हानि उठानी पड़ी है उसे यदि ध्यान में रखा जा सके तो चेतना के स्वतन्त्र अस्तित्व और उसके अविच्छिन्न आधार धर्म को अस्वीकार करने में जो उतावली बरती जा रही है उसे थोड़े लोगों पर प्रयोग करके और उसके निष्कर्ष देखकर व्यापक प्रतिपादन का कदम बढ़ाया जाय। आज जो विज्ञान अपनी अपरिपक्व भिन्न स्थिति को नजर अन्दाज करे, अधूरी जानकारी के आधार पर धार्मिकता पर आक्रमण करता है तो उसे अनुचित ही कहा जायेगा।
विज्ञान की अपूर्णतायें
विज्ञान की अधिकांश उपलब्धियां जड़ प्रकृति के क्षेत्र में हैं। पृथ्वी में पाये जाने वाले सभी कार्बनिक (आर्गेनिक) और अकार्बनिक (इन आर्गेनिक) धातुओं, खनिजों, गैसों और इन सबके द्वारा बनने वाले यन्त्रों, प्रकाश, विद्युत, ताप, चुम्बक आदि से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां विज्ञान देता है, उसमें कामवासना की तरह का क्षणिक आकर्षण भी है, क्योंकि हम उससे कुछ शक्ति सुविधा पाते और प्रसन्नता अनुभव करते हैं, किन्तु जब हम जीव विज्ञान की ओर चलते हैं तो पता चलता है कि यह जानकारियां नितान्त एकांगी और भ्रमपूर्ण हैं। वह जीव चेतना के मल उद्देश्य के बारे में कुछ नहीं बता पातीं।
उदाहरण के लिए जीवाणु (लिविंग आर्गनिज्म) को विज्ञान पूर्ण मानता है, चेतना सूक्ष्म से सूक्ष्म कण में भी विद्यमान है, यह एक महत्वपूर्ण जानकारी हुई, किन्तु विज्ञान उसे शाश्वत नहीं मानता। जीवाणु के प्राकृतिक अंश (नेचुरल पार्ट्स साइटोप्लाज्मा) के बारे में जीव-विज्ञान (बायोलॉजी) की जानकारियां बहुत कुछ सत्य और उपयोगी होती हैं, किन्तु जब यह पूछा जाता है कि इसमें रह रही चेतना का मूलभूत स्वरूप क्या है? तो विज्ञान चुप हो जाता है, जबकि उसके अस्तित्व और मूल महत्व को वह स्वीकार भी करता है। जीव-विज्ञान अधिक से अधिक यह कल्पना कर सका है कि चेतना प्राकृतिक पदार्थों की रासायनिक चेतना मात्र है। प्रो. ह्वाइट हेड स्वयं एक महान् वैज्ञानिक थे, उन्होंने विज्ञान के इस तर्क का खण्डन करते हुए पूछा—‘‘एक अमीबा (प्रकृति का सबसे छोटा जीव) जिसमें साइटोप्लाज्मा ही उसका शरीर और एक नाभिक (न्यूक्लियस) ही उसकी चेतना होती है, क्योंकि ऐसा होता है कि नाभिक के निकल जाते ही शेष भाग मृत हो जाता है, जब कि नाभिक पुनः एक स्वतन्त्र अमीबा का रूप ले लेता है। इससे मालूम पड़ता है कि चेतना प्राकृतिक संरचना से स्वतन्त्र है, वह स्वयं प्रकृति को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रखता है। विज्ञान इस सम्बन्ध में पूर्णतया डांवा-डोल है। यदि चेतना का स्वरूप रासायनिक होता तो प्रयोगशालाओं में अनेक प्रयोग करके कई तरह की रासायनिक शक्तियां पैदा करते हैं, पर उनमें उपयोगितावाद (सरवाइवल आफ फिटेस्ट) देखने में नहीं आता। उपयोगितावाद के अनुसार बड़ी रासायनिक शक्ति को चाहिए था कि वह छोटी रासायनिक शक्ति को दबोचती, पर वैसा आज तक कहीं नहीं हुआ, रासायनिक शक्तियां और मूल चेतन सत्ता में कोई सामंजस्य नहीं है।
विज्ञान की सीमितता (लिमिटेशन आफ साइन्स) नामक पुस्तक के लेखक डा. जे.डब्ल्यू.एन. सुलीवान ने एक स्थान पर लिखा है—‘‘मानव जीवन की उत्पत्ति के बारे में प्रचलित डारविन का विकासवाद (इस मत के अनुसार मनुष्य अमीबा, अमीबा से दूसरे समर्पणशील जीवों से विकसित होता हुआ बन्दर बना, बन्दर से मनुष्य बन गया) और रेन्डम के सिद्धान्त (इस मत के अनुसार मनुष्य उसी प्रकार परिपूर्ण जन्मा, जिस प्रकार अन्य जीव) में से कौन सत्य है, कौन असत्य है। इस सम्बन्ध में विज्ञान कुछ भी स्पष्ट कर सकने में असमर्थ है। यहां बड़े से बड़े वैज्ञानिकों को भी भ्रम हो जाता है कि वस्तुतः कोई ऐसी महान् सत्ता संसार में काम कर रही हो सकती है, जिसकी इच्छा से बलवान् और कोई शक्ति संसार में न हो।
यदि हम जानवरों के अंगों की कार्य-प्रणाली का ही भौतिक और रासायनिक अध्ययन करें, तब भी निष्कर्ष वहीं के वहीं रह जाते हैं। शरीर में इच्छाओं का रासायनिक क्रम विज्ञान बता सकता है, किन्तु विज्ञान यह नहीं बता पाता कि इच्छायें क्यों उत्पन्न होती हैं। पशु भी अपनी इच्छायें रोक नहीं पाते। मार खाते हैं तो भी खेतों में चोरी से घुसकर फसल खाने की अपनी इच्छा को रोक सकना उनके लिए भी असम्भव ही होता है। रासायनिक परिवर्तनों के कारण इच्छाओं के स्वरूप परिवर्तन के बारे में विज्ञान बता सकता है, पर परिवर्तनों के उद्देश्य (परपजिव आर्डस) के बारे में वह कुछ भी व्यक्त करने में असमर्थ ही रहा है।
भौतिक विज्ञान (फिजिक्स) और मनोविज्ञान (साइकोलॉजी) दोनों में पृथ्वी और आकाश का अन्तर है। मनोविज्ञान के विश्लेषण से मिला व्यवहारवाद और भौतिक विज्ञान से मिले यन्त्रों की कार्य-प्रणाली में बड़ा फर्क है, भौतिक विज्ञान की धारणाएं स्पष्ट होती हैं, हमें पता रहता है कि अमुक यन्त्र काम न करेगा तो मशीन बन्द हो जायेगी, मशीन में फिर यह शक्ति नहीं होगी कि वह अपनी इच्छा से थोड़ी देर आराम करने के बाद फिर चलने लगे। जीवन के बारे में यह धारणायें बहुत अस्पष्ट होती हैं, हम अपने ही सम्बन्ध में नहीं कह सकते कि आधे घन्टे पीछे हमारी मनःस्थिति क्या होगी, हम कहां और क्या होंगे? विज्ञान द्वारा मानवीय व्यवहार को स्पष्ट किया जाना बिलकुल असम्भव है। इसलिए यह मानना स्वाभाविक है कि आत्म-चेतना विज्ञान की सीमा से पृथक वस्तु है।
डॉक्टर भी एक वैज्ञानिक ही है। उसे शरीर रचना और उसके रासायनिक परिवर्तनों की जानकारी होती है, इसलिए उसे पूरी बीमारी का पता बिना रोगी से पूछे लगा लेना चाहिए था। उसे यह भी बता देना चाहिए था कि शरीर के अमुक भाग में इस तरह की पीड़ा होती है, पर वह ऐसा करने में असमर्थ होता है। वहम (मीनिया) और बिना किसी भौतिक सम्पर्क के किरकिराना या सिहरन (एलर्जी) का आभास क्यों होता है। डॉक्टर इसका पता लगाने में असमर्थ है।
मनुष्य के मर जाने का चिह्न (इन्डीकेशन) भी विज्ञान नहीं समझा सका। कभी वह हृदय की धड़कन (पल्पिटेशन) रुक जाने को मृत्यु कहता है, कभी श्वांस क्रिया रुक जाने को, कभी वह मस्तिष्क की मृत्यु से जीवन की मृत्यु घोषित करता है, पर अन्तिम रूप से मृत्यु और जीवन के अन्तर को विज्ञान समझा नहीं सका।
अब हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि विज्ञान के द्वारा निर्जीव पदार्थों की बहुत-सी जानकारियां देने के बाद भी अनेक जानकारियों का पता लगाना शेष रह जाता है। सापेक्षवाद के सिद्धान्त (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) और क्वान्टम सिद्धान्त की बहुत-सी बातें लोगों की समझ में इसीलिए नहीं आतीं, क्योंकि उनका सम्बन्ध आत्म-चेतनता से है। धर्म और अध्यात्म से है, जो विज्ञान से परे की सत्ता है। इसलिए यदि धर्म को विज्ञान का विकल्प कहा जाये, अथवा यह माना जाये कि जहां विज्ञान रुक जाता है, वहां से आगे का लक्ष्य ‘धर्म’ पूरा कर सकता है तो किसी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं मानना चाहिए।
प्रयोग और अध्ययन के प्रारम्भिक दिनों में गैलीलियो का कहना था कि दिखाई देने वाले प्राकृतिक परिणामों (नेचुरल फेनामेना) को गणितीय सिद्धान्तों से (मैथेमेटिकली) जाना जा सकता है। प्रकृति के बारे में यह कहना बिलकुल ठीक है। एक वर्ष बाद ठीक आज के दिन सूर्य किस राशि में होगा, गुणा भाग के द्वारा इसे जाना जा सकता है। चन्द्र, बुध, शुक्र, बृहस्पति मार्शल, सेंटर्न प्लूटो उस दिन कहां किस दिशा में होगे, यह रेखागणित से हल किया जा सकता है, ब्रह्माण्ड के और भी अनेक गुह्य रहस्यों का पता पदार्थों पर पड़ने वाले प्रभावों को देखकर जाना जा सकता है, किन्तु कुछ दिन बाद जब कैपलर ने कहा कि वस्तुओं में अगणितीय गुण भी विद्यमान है, उदाहरण के लिए इलेक्ट्रान का पतन होने पर पदार्थ का पतन हो जाता है। इलेक्ट्रान अपनी कक्षा में घूमते हुए आगे वाली या पीछे वाली कक्षा में टूट गिरेगा, इस सम्बन्ध में कोई गणितीय नियम काम नहीं करता। मानव व्यवहार भी किसी गणितीय नियम पर आधारित नहीं है।
कुछ दिन बाद गैलीलियो ने भी स्वीकार किया कि अगणितीय गुण अन्तर्वर्ती (सब्जेक्टिव) होते हैं, उनका हमारे ज्ञान (सेन्टोसन) के अतिरिक्त कहीं भी अस्तित्व नहीं है। मस्तिष्क न हो, ज्ञान न हो तो ब्रह्माण्ड का कोई आकार-प्रकार होगा, न भार समझ में आयेगा, रंग, ध्वनि, गन्ध, स्थान और समय भी हमारे लिए कुछ भी न रह जायेगा, क्योंकि यह सारी बातें मस्तिष्क की उपज है, मस्तिष्क न हो तो इन विविधताओं का कोई रूप ही न हो।
मस्तिष्क ही चेतना है, चेतना का इतिहास और उसका भविष्य ही धर्म है, इसलिए जब तक चेतना का अस्तित्व है, तब तक धर्म की अनिवार्यता भी बनी रहेगी। गैलीलियो ने इन अगणितीय नियमों के आधार पर ही यह माना था कि संसार में व्यवस्था और गणित है, वह किसी महाशक्ति के हाथों का विधान है, उसे समझ पाना मनुष्य के लिए तब तक कठिन है, जब तक वह धर्म और दर्शन (रिलीजन एन्ड फिलॉसफी) को अपने जीवन में स्थान नहीं देता।
न्यूटन का भी मत था कि विज्ञान वास्तविकता का आंशिक ज्ञान देता है, पूर्णता का विकल्प तो धर्म ही है। एडिन्ग्टन और प्रसिद्ध वैज्ञानिक जेम्स जीन्स भी एक ही निष्कर्ष पर पहुंचे कि ब्रह्माण्ड का अन्तिम स्वभाव (अल्टीमेट नेचर) गणितीय नहीं, मानसिक (मेन्टल) है, अर्थात् मस्तिष्क की तरह की किसी सूक्ष्म चेतना में ही यह संसार चल रहा है, यदि मानसिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त कर हम कुछ सत्य बात जानने की इच्छा करें तो हमें धर्म को मानने के अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं रह जाता।
विज्ञान और उसकी अस्थिरता
ईसा से 200 वर्ष पूर्व नीसिया के वैज्ञानिक हिप्पार्कस ने बताया कि ब्रह्माण्ड का केन्द्र पृथ्वी है, अन्य ग्रह-उपग्रह उसके चारों ओर केन्द्रीय शक्ति (एक्सेंट्रिक) कक्षाओं में अधिचक्रों (एपिसाइकिल्स) में घूमते हैं। प्रसिद्ध यूनानी वैज्ञानिक टालेमियस (संक्षिप्त नाम टालेमी) ने इसी सिद्धान्त को स्वीकार कर सौर-मण्डल की शोध की और 1028 ग्रह-नक्षत्रों को पृथ्वी के क्रम से इस तरह स्थापित किया कि बीच में पृथ्वी, दूसरे वृत्त में चन्द्रमा, तीसरे में बुध, चौथे में शुक्र, पांचवें में सूर्य, छठवें में मंगल, सातवें में बृहस्पति, आठवें में शनि, नवें में स्फटिकीय पिण्ड व तारे और दंसवें में प्राइमममोबाल्स रखे। इसी आधार पर ही ज्योतिष शास्त्र का बहु-चर्चित ग्रन्थ ‘अलमागेस्ट’ तैयार किया गया था। 1400 वर्षों तक यह सिद्धान्त अकाट्य माना गया। यही नहीं उसके आधार पर की जाने वाली अधिकांश भविष्यवाणियां सत्य भी होती थीं। लोग अलमोगेस्ट को पूजते थे। एक प्रमाणिक वैज्ञानिक ग्रन्थ मानते थे। टालेमी ने इसे पुस्तक में वृत्त (सर्किल) को 360 भाग (ग्रेजुएशन्स) में विभक्त कर पाई (वृत्त की परिधि और अर्द्ध व्यास के अनुपात को रोमन अक्षर में व्यक्त किया जाता है, उसे पाई कहते हैं) का मूल्य 3.1416 निकाला था, वर्तमान पाई का मूल्य 3.1428 है, अन्तर .0012 का नगण्य सा है, किन्तु इसी अन्तर को यदि करोड़ों प्रकाश की दूरी पर आरोपित किया जायेगा तो जो ग्रह यहां से 10 करोड़ मील की दूरी पर होगा वह लाखों मील आगे-पीछे हो जायेगा। उस समय भी यदि विज्ञान को लोग इसी तरह मानते रहे हों जैसे आज तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि विज्ञान झूठा क्यों हो गया। पृथ्वी से थोड़ी दूर तक सीमित रहने वाले तत्वों की भविष्यवाणियां सही उतरीं तो भी फलितार्थ गलत। यही तो है विज्ञान की परिमितता। हम जिसे कल तक अकाट्य माने बैठे थे, वही आज गलत साबित हो गया, ऐसे विज्ञान को कौन पूर्ण कहेगा? कौन यह दावा करेगा कि विज्ञान सत्य है। धर्म नहीं। विज्ञान मनुष्य के सीमित ज्ञान के सीमित निष्कर्ष हैं, उनको ही सब कुछ बिलकुल सत्य मान लेना मनुष्य के लिए कभी भी हितकारक न होगा। शाश्वत और सनातन नियम जो भी हैं, धर्म के हैं। सारे संसार का एक ही नियामक है, यह मान लेने में किसकी हानि है? परस्पर प्रेम, न्याय, ईमानदारी का व्यवहार करना चाहिए, हम सब भाई-भाई हैं, यह मान लेने पर किसका बुरा हो गया? धर्म, सुख और शान्ति प्राप्त करने का अकाट्य सिद्धान्त है, यदि कोई सिद्धान्त इसके विपरीत जाते हैं तो वह धर्म नहीं हो सकते, जबकि विज्ञान की सत्यता को कभी भी अन्तिम नहीं कहा जा सकता।
कोपार्निकस ने अलमोगेस्ट से असहमति प्रकट न की होती तो आज जो ग्रह गणित का इतना सुधरा रूप सामने आ रहा है, वह न आया होता। कोपार्निकस ने पहली बार बताया कि वैज्ञानिक धारणाओं को कभी अन्तिम सत्य नहीं मान लिया जाना चाहिए, उसने सूर्य को ब्रह्माण्ड का केन्द्र बताया। यह धारणायें बहुत वर्षों तक चलती रहीं। अब 19 वहीं शताब्दी में तो अन्तरिक्ष एक ऐसा आश्चर्य बन गया है कि उसमें यही तय नहीं किया जा सकता है कि विराट् ब्रह्माण्ड का केन्द्र (न्यूक्लियस) कहां पर है। ‘सूर्य’—सौर जगत् का केन्द्रक हो सकता है, ब्रह्माण्ड का नहीं। अकेली हमारी आकाश गंगा से ही प्रकाश पाने वाले अनेक सूर्य और उनके सौर-मंडल विद्यमान हैं, फिर ऐसी-ऐसी करोड़ों आकाश गंगायें और हैं, उनमें कितने सौर जगत् हैं, उसकी कुछ कल्पना ही नहीं की जा सकती। 50 करोड़ प्रकाश वर्ष और 10 करोड़ नीहारिकाओं का अनुमान लगाने वाले आज के वैज्ञानिक भी इस जानकारी को आंशिक सत्य मानते हैं, पूर्ण सत्य नहीं। क्या उस विज्ञान पर भरोसा किया जा सकता है।
जिस विज्ञान को लोग प्रत्यक्षदर्शी और सर्वमान्य कहते हैं, क्या उसका प्रत्यक्ष दर्शन और प्रस्तुत प्रतिपादन सत्य है? इस पर नई पीढ़ी को नये सिरे से विचार करना पड़ेगा और उन सार्वभौमिक सिद्धान्तों का अन्वेषण करना पड़ेगा, जो मानव प्रकृति और चेतन के सम्बन्ध में सही जानकारी दे सकते हों। जब भी ऐसी आवश्यकता उठेगी, हमें अपने अन्दर से हल खोजना पड़ेगा अपने अहंभाव का विश्लेषण और विकास करना पड़ेगा, इसी का नाम धर्म है, इसी का नाम अध्यात्म है।
ब्रह्माण्ड सम्बन्धी उपरोक्त सिद्धान्तों के साथ अब सैकड़ों वर्ष तक काम करने वाला न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त भी हवा में उड़ने लगा। एक दिन महाशय न्यूटन एक बगीचे में बैठे थे। उन्होंने देखा एक फल टूटकर नीचे जमीन पर आ गिरा। प्रश्न उठा—फल नीचे ही क्यों आया वह आकाश में क्यों नहीं चला गया। इस घटना के बाद न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया। उन्होंने बताया कणों के परिमाण के अनुपात से संसार के सभी कण दूसरे कणों को आकर्षित करते हैं। न्यूटन के अनुसार कणों की दूरी बढ़ने के साथ यह आकर्षण बल घटने लगता है। न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त पर अनेकों मशीनें बनी हैं, जो काम भी करती हैं, किन्तु 1916 में आइन्स्टीन ने बताया कि ब्रह्माण्ड के कण स्थान और समय में एक सीधी रेखा में चलते हैं, यही बात ग्रह-नक्षत्रों के बारे में भी है। वह भी सीधे चलते हैं, किन्तु द्रव्य (मास) की उपस्थिति के कारण स्थान और समय का रूप बदल जाता है और ऐसा लगने लगता है कि कण या ग्रह-नक्षत्र वक्राकार पथ पर चलते हैं, इस नये सिद्धान्त को आइन्स्टाइन ने ‘सामान्य आपेक्षिकता सिद्धान्त’ (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) नाम दिया और बताया कि गुरुत्वाकर्षण द्रव्य का गुण न होकर स्थान और समय का गुण है।
आइन्स्टीन उन वैज्ञानिकों में से हैं, जिनके सिद्धान्त इतने गम्भीर और क्लिष्ट है कि उनकी सतह तक पहुंचना हर व्यक्ति के वश की बात नहीं। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक दिन उनके सिद्धान्त को भी गलत किया जा सकता है, पर हुआ यही। 1964 में प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डा. जयन्त विष्णु नार्लिकर तथा प्रोफेसर फ्रेड हायल ने एक गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त को जन्म दिया और बताया कि गुरुत्वाकर्षण न तो स्थान और समय का गुण है न कणों का। वह तो ब्रह्माण्ड का गुण है। हायल ने अपने मत की पुष्टि में ‘समतुलित अवस्था का सिद्धान्त’ प्रकाशित किया और बताया कि आकाश की पुरानी आकाश गंगायें मरती और नई जन्म लेती रहती हैं। ब्रह्माण्ड फैल रहा है और उसी के फलस्वरूप ऊर्जा द्रव्य (मास) में बदलती रहती है। जहां इस तरह की क्रियायें चलती हैं, उसे हायल ने सृजन क्षेत्र (क्रियेशन फील्ड) का नाम दिया। इन तथ्यों से ब्रह्माण्ड की कल्पना और गुरुत्वाकर्षण की अब तक चली आ रही मान्यतायें ध्वस्त हो जाती हैं, तब क्या न्यूटन टामस, गोल्ड हर्मन बांडो और आइन्स्टीन की बातें सच थीं। इस पर विचार करें तो लगता है कि यह बुद्धिमान वैज्ञानिक भी यथार्थ की दृष्टि में अपरिपक्व बुद्धि वाले बच्चों जैसे थे और जो बच्चे आज का विज्ञान पढ़ते हैं, उनकी अपरिपक्वता के बारे में तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता। सामान्य बातों को छोड़ कर 10 वर्ष पूर्व एक विद्यार्थी ने जो कुछ पढ़ा था, आज उसका प्रायः 3 प्रतिशत गलत हो गया, जिसकी उसे जानकारी तक नहीं और वह अपने विद्यार्थी को, अपने मित्रों को वही बातें बता रहा होगा, अब जिनको अमान्य कर दिया गया है। क्या इस स्थिति में विज्ञान को सत्य कहा जा सकता है?
एक समय था जब डाल्टन के परमाणुवाद को एक सर्वमान्य सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया गया था। डाल्टन का कहना था परमाणु अजन्मा, अविनाशी और अविभाज्य है। इस सिद्धान्त को 120 वर्ष तक अकाट्य माना जाता रहा। इस सिद्धान्त ने ही डाल्टन को मूर्धन्य वैज्ञानिक का सम्मान दिलाया था।
किन्तु क्या डाल्टन सत्य था। वही सिद्धान्त जो 120 वर्ष तक वैज्ञानिकों की अन्य शोधों का माध्यम बना रहा, एक दिन खण्ड-खण्ड कर दिया। सन् 1897 में जे.जे. थाम्प्सन नामक वैज्ञानिक ने कैथोड किरणों (कैथोड रेज) का आविष्कार करके डाल्टन के परमाणुवाद सिद्धान्त को खण्डित कर दिया और बताया कि परमाणु भी विभाज्य है। एक दिन उन्होंने न्यूनतम वायु दबाव की एक नली में ऋण ध्रुव (कैथोड) से विद्युत धारा प्रवाहित की उससे एक प्रकार की किरण कैथोड से निकलती हुई दिखाई दी, जिनके अध्ययन से सिद्ध हो गया कि परमाणु के भीतर भी आवेश या शक्ति कण होते हैं, इन किरणों के मार्ग में ऋण पोल (निगेटिव पोल) लाने से विकर्षण (रिपल्सन) की क्रिया हुई और उन किरणों ने अपना मार्ग बदल दिया, इससे यह सिद्ध हुआ कि परमाणु के भीतर ऋण विद्युत आवेश विद्यमान है, उसे इलेक्ट्रान्स कहा गया। इलेक्ट्रान्स का भार हाइड्रोजन परमाणु के भार का 1/2850 होता है। इसलिए वैज्ञानिकों को इसकी खोज के बाद भी अनिश्चय सा रहा कि परमाणु की अभी अन्तिम जानकारी नहीं हो रही।
सन् 1911 में रदरफोर्ड सोने की पत्तर पर अल्फा किरणों का बम्बार्डमेंट कर रहे थे। कुछ किरणें तो पत्तर को पार कर गई, कुछ दाहिने बायें मुड़ गईं। पर रदफोर्ड ने देखा कि कुछ किरणें जिस मार्ग से जा रही थीं, उसी मार्ग से लौट आईं। चुम्बक विज्ञान का एक सिद्धान्त है, समाज ध्रुव एक दूसरे को विपरीत दिशा में धकेलते हैं, असमान ध्रुव आकर्षित (एट्राक्ट) होकर जुड़ जाते हैं, अल्फा किरणें जो वापिस लौट रही थीं, वे धनावेश युक्त थीं, इसलिए यह निश्चित किया गया कि सोने के परमाणु में वैसा ही धन आवेश होना चाहिए। तब परमाणु में दो कणों का अस्तित्व सामने आया जिन्हें इलेक्ट्रान और प्रोट्रॉन नाम दिया गया।
इस सिद्धान्त ने बहुत दिन तक वैज्ञानिकों का मार्ग-दर्शन किया और उस युग में उसे ही सत्य माना जाता रहा। विज्ञान की भाषा तो तोतली है, जो मीठी भले ही लगती हो, पर होती निरर्थक है, उसे मानने वाले उस बालक की तरह हैं, जिन्हें अबोध कहा जा सकता है, पर उनकी बात को सत्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आने वाला प्रत्येक नया वैज्ञानिक उस सिद्धान्त को काटता हुआ या संशोधन करता हुआ आता है, जो सिद्धान्त अब तक अकाट्य समझे जाते थे, वह एक नये पैसे के गुब्बारे की तरह अगले ही दिन फूस हो जाते हैं।
महाशय नील्स बोहर ने परमाणु के सिद्धान्त को एक नया मोड़ दिया। उन्होंने कहा परमाणु में इलेक्ट्रान (ऋण आवेश) और प्रोट्रॉन (धन आवेश) है तो, पर वह एक साथ रह नहीं सकते। असमान विद्युत आवेश होने के कारण उन्हें एक दूसरे में मिल जाना चाहिए तथा नष्ट हो जाना चाहिए। उनके नष्ट होने का अर्थ था परमाणु का नष्ट हो जाना, पर ऐसा होता नहीं। इसलिए उसने एक नये सिद्धान्त को जन्म दिया और बताया कि इलेक्ट्रान नाभिक के चारों ओर चक्कर लगाता है। नाभिक उन्हें सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स से उसे साधे हुए है और इलेक्ट्रान स्वयं भी सेन्ट्रीपीटल फोर्स से नाभिक की ओर खिंचते रहते हैं कक्षा छोड़कर बाहर नहीं जाते।
बाद में अपने सिद्धान्त को उसी ने फिर सुधारा और कहा कि इलेक्ट्रान एक बन्द कक्षा में घूमते हैं, अन्यथा इलेक्ट्रॉन को घुमाने वाली शक्ति का ह्रास होने पर वह केन्द्रक में गिर जाता और परमाणु नष्ट हो जाता। परमाणु के नष्ट होने का अर्थ था संसार का नष्ट हो जाना। अपने इस सिद्धान्त की पुष्टि इन्हीं महोदय ने नागासाकी और हिरोशिमा में बम गिराकर की तो भी वह परमाणु के अन्तिम सत्य को स्थिर नहीं कर सके।
आंशिक जानकारियां विषयों का पूर्ण प्रतिपादन नहीं कर सकतीं। मनुष्य के उलझाव वाले प्रश्न हैं, उसका ‘अहं’ और अहं से सम्बन्धित सैकड़ों प्रश्न। हमारी चेतना का वास्तविक स्वरूप क्या है? विज्ञान के पास इसका कोई उत्तर नहीं? मृत्यु के बाद हमारा क्या होता है? विज्ञान चुप। प्राणि मात्र के साथ हमारे क्या सम्बन्ध हैं? हम क्यों अस्थिर हैं? चिर शान्ति के उपाय क्या हैं, क्यों हम जीते और मर जाते हैं, जब तक इनका स्पष्ट उत्तर नहीं मिलता, मनुष्य भटकता रहेगा, जबकि विज्ञान के पास इन भवरोगों का कोई इलाज नहीं।
इलेक्ट्रान और प्रोट्रॉन का सम्मिलित भार भी परमाणु भार से कम था, इसलिए यह सोचा गया कि नाभिक (न्यूक्लियस) में कोई ऐसा कण है, जिसमें भार तो है, पर विद्युत आवेश नहीं। उससे न्यूट्रॉन का अस्तित्व सामने आया। इसके बाद एक और कण पाजिट्रान की खोज की गई। अभी तक यह कहा जाता था कि इलेक्ट्रान वृत्ताकार कक्ष (सरकुलर आरबिट) में चक्कर लगाते हैं, किन्तु समर फोल्ड ने उसे भी संशोधित कर दिया और बताया कि इलेक्ट्रान वृत्ताकार कक्ष में नहीं अण्डाकार कक्ष (इलिप्टिकल आरबिट) में चक्कर लगाते हैं।
अब एक और सिद्धान्त—क्लाउड थ्योरी—का सृजन हो रहा है। उसके अनुसार इलेक्ट्रान्स की कोई कक्षा नहीं बल्कि वे न्यूक्लियस के चारों ओर घिरे सघन बादलों में कुछ विचित्र प्रकार से इस तरह घूमते हैं, जैसे आकाश में ग्रह-नक्षत्र। अभी भी अन्तिम सत्य की खोज नहीं की गई। वैज्ञानिक ‘पदार्थों’ के अतिरिक्त किसी शक्ति को नहीं मानते, पर उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि प्राकृतिक नियमों (लाज आफ नेचर) को तोड़कर शाप, वरदान, पूर्वाभास, स्वप्नाभास वाली शक्ति कौन-सी है और क्या उसका परमाणु या विराट् ब्रह्माण्ड से भी कोई सम्बन्ध है। मस्तिष्क में विचार कहां से आते हैं, भावनाओं का अस्तित्व क्या है, जब तक विज्ञान इनकी जानकारी नहीं दे देता क्या उसे सत्य रूप में स्वीकार किया जा सकता है? जबकि वे अभी परमाणु के बारे में ही यह अनिश्चित है कि उसमें इतनी शक्ति कहां से आती है।
मानवीय जीवन के इन प्रश्नों को हल करना तो दूर वैज्ञानिक अपने ही सिद्धान्तों के प्रति आश्वस्त नहीं। अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिकों के सिद्धान्तों को भी अब केले के पत्तों की तरह जगह-जगह से काट दिया जाता है। कल तक जो औषधि रोगनाशक समझी जाती थी आज उसे विष उत्पादक और रोग-वर्द्धक कहकर रोक दिया जाता है। इन्जेक्शन बदलते चले जा रहे हैं, तो भी स्वास्थ्य की समस्या हल नहीं हुई। पहले नींद के लिए लेसरजिक एसिड डाइ इथाइल एमाइड (एल.एस.डी.) दी जाती थी, उससे अनेकों लोग बहरे हो गये, अनेकों मस्तिष्क सम्बन्धी बीमारियां खड़ी हो गईं, एक 42 वर्षीय बुढ़िया ने उक्त दवा का सेवन किया और पीने के 36 घण्टे बाद मर गई। उसके दुष्फल देखकर उसे बदला गया फिर पैरानोइया दी जाने लगी। वह भी खतरनाक सिद्ध हुई इसके बाद और कई तरह के मिश्रण बदले, सोनेरिल लारजेक्टिल, एलेविजर वेलेरियन, ब्रोमाइड मिक्स्चर और मर्फिया आदि बदलती चली आईं, पर इनमें से ऐसी एक भी नहीं जो विषोत्पादक न हो।
विज्ञान तो सत्य इष्ट है—पर वह स्वयं सत्य नहीं। क्रमशः विकसित होने वाला विज्ञान सत्य तक पहुंच भी सकता है और सारे संसार को नष्ट-भ्रष्ट भी कर डाल सकता है। नागासाकी जैसा कोई विस्फोट प्रयोगशाला में ही हो सकता है।
विज्ञान ने समस्यायें सुलझाईं कम, उलझाईं अधिक
विज्ञान की एक शाखा रसायनशास्त्र ने लाखों, करोड़ों कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थों की खोज कर ली। इतनी औषधियां बन चुकी हैं कि एक डॉक्टर उन सबको याद भी नहीं रख सकता। जीव विज्ञान ने यहां तक पहल की सूक्ष्मतम जीवाणु (बैक्टीरिया) और विषाणु (वायरस) की सैकड़ों जातियों तक का पता लगा लिया। एनाटॉमी और फिजियोलॉजी ने मनुष्य शरीर की, एक एक हड्डी, एक-एक नस की बनावट और उनके कार्यों का पता लगाने में सफलता प्राप्त की। वनस्पति विज्ञान ने वृक्ष-वनस्पतियों में भी जीवन के अंश की शोध कर ली। भौतिक विज्ञान का तो कहना क्या? चन्द्रमा, मंगल शुक्र और बृहस्पति की दूरियां अब पृथ्वी में बसे पड़ौसी देशों की तरह होने जा रही है। वैज्ञानिक प्रगति के पीछे मानवीय पुरुषार्थ और पराक्रम की जो गाथायें छिपी पड़ी हैं, उन्हें जितना सराहा जाये कम है।
किन्तु एक प्रश्न पीछे से उठ रहा है, वह भी वैज्ञानिक प्रगति के समान ही तीव्र और विस्मयबोधक है। प्रश्न है—‘‘क्या विज्ञान मनुष्य के व्यवहार को समझा सकता है?’’ क्या विज्ञान मानवीय चेतना की अथ-इति के दार्शनिक और तात्विक पहलू को भी समझा कर, मानव मात्र को सन्तोष और भयमुक्ति प्रदान कर सकता है? अरबों रुपये खर्च करके एक अन्तरिक्षयान (सेटेलाइट) की सफलता के पीछे हजारों लाखों आदमियों को भूखा-नंगा बना देने की वैज्ञानिक कुत्सा को क्या हर व्यक्ति समर्थन प्रदान करेगा। जब तक विज्ञान मानव के व्यवहार की समस्या को हल नहीं करता, तब तक विश्वात्मा को शान्ति कहां संसार के प्राणी शान्ति और सन्तोष से न रह सकें तो विज्ञान की क्या सार्थकता?
आधी शताब्दी में दो महायुद्ध हो चुके। उनमें करोड़ों व्यक्तियों की निर्मम हत्यायें की गईं। मारे गयों के पीछे उनके असहाय बच्चों, धर्मपत्नियों और आश्रितों के करुण क्रन्दन को क्या विज्ञान ने सुना और समझा? युद्धोन्माद के साथ प्रारम्भ हुए मानवता के विज्ञान के साथ अन्त होने वाली चरित्र भ्रष्टता का समझाये और निराकरण किये बिना क्या विज्ञान हमें ऊंची और उन्नत सभ्यता का विश्वास दिला सकता है।
विज्ञान निर्जीव प्रकृति को नियन्त्रित करने में लगा है और सजीव प्रकृति भूख-प्यास की पीड़ा से अपनी आन्तरिक आवश्यकताओं की आपूर्ति के कारण छटपटाहट से बेचैन है। हम अपनी कठिन सामाजिक समस्याओं के बारे में, जब भी प्रश्न करते हैं, वह मौन हो जाता है। ऐसी विडम्बना मानव इतिहास में उसी प्रकार कभी नहीं देखी गई जैसे चन्द्रमा पर मानव के चरण इससे पूर्व कभी नहीं देखे गये।
एक ओर औषधियां बनाने का पुण्य दर्शाता है विज्ञान, दूसरी ओर परमाणविक विस्फोटों के द्वारा—यन्त्रीकरण से उत्पन्न आलस्य द्वारा—अधिक इन्द्रिय-भोग और असंयम के द्वारा—नित्य नई बीमारियां फैलाने का पाप भी वही करता है। पुण्य एक तोला और पाप एक मन—कैसे बैठेगा बैलेंस? मानवता बेचारी आधी छटांक अन्न खाकर एक मन वजन पत्थर के नीचे दबी जा रही है। संसार के कुछ लोग अभावग्रस्त जीवन से ही ऊपर नहीं उठ पाते हैं।
जनसंख्या मानव ने नहीं बढ़ाई, विज्ञान ने बढ़ाई है। उसने मानव को सैकड़ों-हजारों दिशायें देकर मूल उद्देश्य से दिग्भ्रांत कर दिया है। भ्रमित मनुष्य को सुख का एकमात्र साधन कर्मेन्द्रियां रह गई हैं। पिता से उसे प्रेम नहीं मिलता, मां से वात्सल्य नहीं, भाई अपना विश्वास और स्नेह प्रदान करने के लिए तैयार नहीं, पड़ौसी उसके साथ हंसने-बोलने और सदाशयता का व्यवहार करने के लिए तैयार नहीं। नौकर को मालिक से दिक्कत, मालिक को नौकर से शिकायत। मानव को तो आनन्द चाहिए। आखिर वह कहां से मिले। कामवासना—कामवासना, जनसंख्या—जनसंख्या बढ़ाने का दोष मानव को नहीं—आलस्य अकर्मण्यता, अहंवाद की शिक्षा देने वाले विज्ञान को है। अपने दोष को स्वीकार कर उसे 3 अरब पृथ्वी की जनता को अन्न देना चाहिए था, पर मिल रही है चन्द्रमा की मिट्टी, जिसे न खाया जा सकता है न पकाया। मानव के अस्तित्व को और भी संकट बढ़ा है।
अकाल, महामारी और आर्थिक विषमता का कारण है—विज्ञान। मानव की आवश्यकतायें खाना, कपड़ा पहनने, स्वस्थ रहने और शिक्षित रहने भर की थी, उसके लिए इतने व्यापक बखेड़ों की क्या आवश्यकता थी? आज की पृथ्वी के कितने लोग हैं जो अन्तरिक्ष यात्रायें कर सकेंगे? आने वाली पीढ़ी में कितने होंगे जो विश्व को अकाल, महामारी और आर्थिक विषमता से बचा सकेंगे?
विज्ञान कुछ सीमा तक ही मानव जाति के लिए उपयोगी हो सकता है। उससे आगे उसे तब तक नहीं बढ़ना चाहिए, जब तक आत्म-चेतना की प्रगति भी उसके समानान्तर नहीं हो जाती। विज्ञान आंशिक सत्य है—एक सीमा निर्धारित है उसके आगे विज्ञान की नहीं, विश्वास और श्रद्धा की आवश्यकता हो जाती है। पदार्थ परमाणुओं से बने हैं। परमाणु इलेक्ट्रान, प्रोट्रॉन, न्यूट्रॉन, पाजिट्रान और नाभिपिण्ड (न्यूक्लियस) से बने हैं—विज्ञान ने इतना बता दिया। उसने यह भी बता दिया कि परमाणु में अकूत शक्ति भण्डार छिपा है। इलेक्ट्रान चक्कर काटते हैं। परमाणु एक पूरा सौर-मण्डल है। पर ऐसा क्यों है? शक्ति कहां से आई परमाणु में गति क्यों है?—विज्ञान इस सम्बन्ध में क्यों नहीं बताता? वह परमाणु का मानव-जीवन से सम्बन्ध जोड़कर हमारे लिए कभी न समाप्त होने वाले आनन्द का दिग्दर्शन क्यों नहीं करता? जबकि हम जानते हैं कि आनन्द ही हमारे लिए अंतिम सत्य है। वह क्यों नहीं मानवीय स्वभाव को भावनात्मक विकास की दिशा देता। उसे समझना चाहिए कि मनुष्य जब तक अपनी भावनाओं की गहराई में नहीं उतरता, तब तक वह वस्तुतः आनन्द की प्राप्ति नहीं कर सकता, क्योंकि आनन्द भी तो एक भावना ही है। इस दर्शन से विमुख होने वाला मनुष्य केवल विज्ञान से उसी प्रकार सन्तुष्ट नहीं हो सकता, जिस प्रकार भरपेट भोजन मिल जाने पर पानी न मिलने से सन्तोष नहीं मिलता, वरन् मृत्यु की विभीषिका और उठ खड़ी होती है। व्यक्तिगत प्रेरणायें (इनडिविजुअल इनीशिएटिव) शिक्षा, न्याय या आदर्शवादी युद्ध (आइडियोलोजीकल वारफेयर), आर्थिक दृढ़ता आदि का सम्बन्ध मानवीय व्यवहार की मूलभूत प्रकृति से है। इन समस्याओं को हम तब तक हल नहीं कर सकेंगे जब तक अपना लक्ष्य और दृष्टिकोण नहीं निश्चित कर लेते। हमारा लक्ष्य और दृष्टिकोण हमारे भीतर हमारी चेतना में है। विज्ञान की खोजें इसी दिशा में सार्थक और सफल हो सकती हैं। बाह्य प्रकृति की विस्तृत गवेषणा में तो वह आप ही आप भटकेगा और मानव जाति को भी भटकाता रहेगा।
धर्म व विज्ञान में सामंजस्य अनिवार्य
धर्म और विज्ञान में क्या सम्बन्ध है? अथवा क्या विरोध है? इस विषय पर जब भी कुछ सोचते हैं तो ऐसा लगता है कि शताब्दी के प्रारम्भ से ही विज्ञान के परिणाम और धार्मिक विश्वासों में परस्पर स्पष्ट असहमति रही है। तुलना में, परिणामों में पूर्णतया विरोधाभास पाया गया। हम इस बात को सोचने के लिए विवश हैं कि या तो विज्ञान का पढ़ना-पढ़ाना छोड़ा जाये अथवा धार्मिक विश्वासों को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाये?
यह दोनों ही क्षेत्र अपने आपमें बड़े जबर्दस्त हैं। इसलिए गम्भीरतापूर्वक विचार किये बिना, इस प्रश्न को अधूरा छोड़ा जाना, मानव-जाति के लिए अहितकारक हो सकता है। धर्म और विज्ञान में क्या सम्बन्ध हों इस विषय में अन्तिम निर्णय ढूंढ़ना आवश्यक हो गया है।
धर्म और विज्ञान के पारस्परिक सम्बन्ध जानने के लिए यह आवश्यक है कि हम दोनों का सही-सही वास्तविक और पर्याप्त अर्थ जानें। दोनों के क्षेत्र जानना आवश्यक है। उनमें सम्बन्ध क्या है यह भी जानना आवश्यक है तभी धर्म और विज्ञान के सम्बन्ध का निर्णय दिया जाना सम्भव होगा।
सबसे पहले धर्म को लेते हैं। मनुष्य जीवन के आधारभूत अनुभवों का वर्णन ही सम्भवतः धर्म है। धार्मिक विचार हमें अपने जीवन की शुद्धता बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। यह निर्णय अतीत के लम्बे इतिहास का निष्कर्ष होता है। इसलिए उसमें कुछ भी सत्य न हो यह कहना भारी मूर्खता ही होगी।
‘‘धर्म मानव प्रकृति की वह क्रिया है जो ईश्वर की निरन्तर खोज करती है। जीवन को सुव्यवस्थित रूप देने के लिए भी धर्म आवश्यक है। व्यवहार कुशलता भी धर्म है’’ यह शब्द प्रसिद्ध दार्शनिक श्री प्रो. हृाहट हेड के हैं। भारतीय धर्म-दर्शन के अनुसार भी—‘‘वह सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान जो मानवीय आत्मा को धारण करता अर्थात् ऊपर उठाता है’’ उसमें अपने व्यावहारिक जीवन को शुद्ध सत्य और नैतिक बनाने से लेकर ईश्वर प्राप्त तक की सब विधायें आ जाती हैं।
विज्ञान पदार्थों के क्रमबद्ध ज्ञान को कहते हैं। हमारी मूल चेतना के बाद शरीर से लेकर आकाश और विराट् ग्रहपिण्डों तक यह जो प्रकृति दिखाई दे रही है वह क्या है और उसकी विविधता में परस्पर क्या सम्बन्ध है इस ज्ञान और प्रयोग का नाम ही विज्ञान है। मानव जीवन के लिए इसके उपयोग और आवश्यकता की बात पर हम अलग से विचार करेंगे।
धर्म और विज्ञान में मतभेद इसलिए दिखाई दे रहा है कि परिष्कृत ज्ञान को चाहे वह किसी भी क्षेत्र का रहा हो दोनों के सम्बन्ध ज्ञात करने के लिए उपयोग नहीं किया गया। दोनों अपने-अपने क्षेत्र बढ़ाने के इच्छुक अवश्य रहे हैं। बहुत समय पहले ईसाइयों, सन्तों में यह भावना घर कर गई थी कि उनके इस जीवन काल में ही संसार का नाश हो जायेगा। किन्तु ऐसा नहीं हुआ इस तरह उनका विश्वास गलत हो गया। इसके बाद ईसाई धर्म ने अपनी इस धारणा को सुधार लिया। ईसाई धर्म पृथ्वी को चपटी बताता था, सूर्य को स्थिर और नक्षत्रों को गतिमान बताता था किन्तु यह दोनों ही बातें गलत सिद्ध हुईं। पृथ्वी गोल सिद्ध हुई और सूर्य भी घूमता है यह भी सिद्ध हो गया। फिर भी बाइबिल की उपयोगिता और दृढ़ता अभी भी वैसी ही बनी हुई है, क्योंकि धर्म के नैतिक और आध्यात्मिक पहलू तो मनुष्य जीवन को हर घड़ी छूते रहते हैं। उनकी आवश्यकता और उपयोग को जब तक लोग मानते और ग्रहण करते रहेंगे तब तक धर्म के कुछ प्रतिपादन गलत सिद्ध हो जाने पर उसकी उपयोगिता नष्ट थोड़े ही हो जायेगी।
विज्ञान तो धर्म से भी अधिक परिवर्तनशील है। उसमें भी विचारों में परिवर्तन और नये तथ्यों का प्रवेश होता रहा है। दोनों ही परिवर्तनशील हैं। तर्कवादियों के अनुसार कोई भी विश्वास या तो बिलकुल सत्य होगा या झूठ। बीच की कोई बात सम्भव नहीं। किन्तु दैनिक जीवन के व्यवहार में यह आग्रह सच नहीं है। विशाल ब्रह्माण्ड में फैले हुए ज्ञान की तुलना में हमारी योग्यता अभी बहुत कम है। यदि ऋषियों की तरह हम भी असामान्य स्थिति में होते तो किसी बात के सत्य या असत्य का सीधे निर्णय ले सकते थे, किन्तु आज की स्थिति में यह सम्भव नहीं है, इसलिए जब तक हम मानव जीवन के उद्देश्य, यथार्थ तत्वदर्शन को नहीं जान लेते तब तक दोनों में समझौता रखना ही पड़ेगा। यह भी सम्भव है कि जिस प्रकार प्रकृति और परमेश्वर की सत्ता से इन शरीरों का निर्माण सदैव से ही रहा है, उसी प्रकार आत्मा के उभयपक्षीय विकास के लिए धर्म और विज्ञान हमेशा-हमेशा के लिए हमारे लिए उपयोगी और आवश्यक बने रहें।
विज्ञान और अध्यात्म को साथ-साथ चलना होगा
विज्ञान और अध्यात्म अन्योन्याश्रित हैं। एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की गति नहीं। विज्ञान हमारे साधनों को बढ़ाता है और अध्यात्म आत्मा को। आत्मा को खोकर साधनों की मात्रा कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो उनसे मनुष्य भोगी, व्यसनी, अहंकारी और स्वार्थी ही बनेगा। महत्वाकांक्षाएं मनुष्य को नीति तक सीमित नहीं रहने देतीं। आकुल-व्याकुल व्यक्ति कुछ भी कर गुजरता है, उसे अनीति अपनाने और कुकर्म करने में भी कोई झिझक नहीं होती। अध्यात्म चिन्तन को, आकांक्षाओं को क्रिया को उन मर्यादाओं की परिधि में बांधकर रखता है जिसमें व्यक्ति का चरित्र और समाज का व्यवस्था क्रम अक्षुण्ण बना रह सके। अस्तु दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में समान रूप से उपयोगी हैं।
ईसा कहते थे—मनुष्य केवल रोटी के सहारे नहीं जी सकता। साथ ही यह भी सही है कि मनुष्य रोटी के बिना नहीं जी सकता। इसलिए रोटी की व्यवस्था भी होनी चाहिए और उन तत्वों की भी जिनके बिना, मात्र रोटी की वह उपयोगिता नहीं रह जाती जिसके सहारे मनुष्य की आत्मा को जीवित रखा जा सके। रोटी केवल शरीर को जिन्दा रख सकती है जैसा कि खुराक के सहारे मक्खी, मच्छर आदि अन्य प्राणी जीवित रहते हैं।
भौतिक पदार्थों की विवेचना एवं उपलब्धि प्रस्तुत करने वाला विज्ञान मिथ्या नहीं हो सकता। वह सत्य है। सत्य के नियम होते हैं—झूठ के नहीं। विज्ञान नियमों पर आधारित है। स्वप्न का—मिथ्या का कोई नियम नहीं। यदि यह संसार मिथ्या होता तो उसमें कोई नियम क्रम दिखाई न पड़ता।
वैज्ञानिक दृष्टि का अर्थ है—मान्यताओं, आग्रहों, आस्थाओं की गुलामी से छुटकारा पाकर यथार्थता को समझ सकने योग्य विवेक का अवलम्बन। उसमें अन्ध-विश्वासों और परम्पराओं के लिए कोई स्थान नहीं। तथ्यों और प्रमाणों की कसौटी पर जो खरा उतरे उसी को अपनाना वस्तुतः सत्य की खोज है। इसे हटा देने पर अध्यात्म निष्प्राण ही नहीं, भ्रमोत्पादक और भय सम्वर्धक बन जाता है। हम निष्ठावान बनें, श्रद्धालु रहें, पर वह सब विवेक युक्त होना चाहिए। बुद्धि बेच कर मात्र परम्परावादी आग्रह अपनायें रहने से अध्यात्म का उद्देश्य और लाभ प्राप्त न हो सकेगा।
विज्ञान एवं धर्म अध्यात्म को एक दूसरे का विरोधी तक कहा जाता है, जब यथार्थ चिन्तन की अवज्ञा करके किन्हीं पूर्वाग्रहों के साथ ही चिपटे रहने पर बल दिया जा रहा हो। हम यह भूल जाते हैं कि प्रगति की ओर हम क्रमशः ही बढ़े हैं और यह अनादि काल से चला आ रहा क्रम अनन्त काल तक चलता रहेगा। जो पिछले लोगों ने सोचा या किया था वह अन्तिम था उसमें सुधार की गुंजाइश नहीं यह मान बैठने से प्रगति पथ अवरुद्ध हो जाता है और सत्य की खोज के लिए बढ़ते चलने वाले हमारे कदम रुक जाते हैं। विज्ञान ने अपने को भूत पूजा से मुक्त रखा है और पिछली जानकारियों से लाभ उठा कर आगे की उपलब्धियों के लिए प्रयास जारी रखा है। अस्तु वह क्रमशः अधिकाधिक सफल समुन्नत होता चला गया। अध्यात्म ने ऐसा नहीं किया उसने ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्’ की नीति अपनाई। समय आगे बढ़ गया, पर आग्रह शीलता की बेड़ियों ने मनुष्य को उन्हीं मान्यताओं के साथ जकड़े रखा जो भूत काल की तरह अब उपयोगी नहीं समझी जातीं। पूर्वजों से आगे की बात सोचना उनका अपमान करना है ऐसा सोचना क्रमशः आगे बढ़ते चले आने के सार्वभौम नियम को झुठला देना है।
इस पृथ्वी के जन्म के समय क्या परिस्थितियां थीं और आदिम काल का मनुष्य कैसा था, इसे जानने के उपरान्त आज की परिस्थितियों के साथ तुलना करने पर मध्यवर्ती इतिहास देखना पड़ता है। उस निरीक्षण से स्पष्ट हो जाता है कि यह प्रगति क्रमशः ही सम्भव हुई है। आगे कदम बढ़ाने के लिए पैर को वह स्थान छोड़ना पड़ता है जहां वह पहले जमा हुआ था। पिछले स्थान से पैर न उठाया जाय तो वह आगे कैसे बढ़ सकेगा? विज्ञान ने इस तथ्य को स्वीकारा और अपनाया है किन्तु अध्यात्म को न जाने क्यों इस प्रकार का साहस संचय करने में हिचकिचाहट रही है।
पिछले दिनों विज्ञान में अपनी पूर्व निर्धारित ऐसी मान्यताओं को बहिष्कृत कर दिया जो किसी समय सर्वमान्य रही हैं, पर नवीनतम खोजों ने उन्हें झुठला दिया है। इन बहिष्कृत मान्यताओं में कुछ इस प्रकार हैं—(1) सौर-मंडल का केन्द्र पृथ्वी है। (2) तारक का आकार विस्तार और उनकी एक दूसरे से दूरी सम्बन्धी मान्यताएं (3) ग्रह तारक व्यक्ति विशेष पर अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। (4) पृथ्वी चपटी है। (5) पृथ्वी कुछ हजार वर्ष ही पुरानी है। (6) ऊपर से गिराने पर हल्की की अपेक्षा भारी वस्तु जल्दी नीचे गिरेगी। (7) वस्तुएं तभी गति करती हैं जब उनमें बल लगाया जाय (8) पदार्थ को ऊर्जा में नहीं बदला जा सकता। (9) ब्रह्माण्ड स्थिर है। (10) प्रकृति रिक्तता (बैकुम) से घृणा करती है और कहीं पोल नहीं रखना चाहती। (11) जीव विज्ञान की किस्में अपरिवर्तनीय हैं। (12) जीव उत्पत्ति के लिए अमुक जीव कोष ही उत्तरदायी है। (13) पानी और हवा मूल तत्व है। (14) परमाणु पदार्थ की अन्तिम न्यूनतम और अखंडित इकाई है। आदि ऐसी अगणित मान्यताएं ऐसी हैं जिन्हें अवास्तविक ठहरा दिया गया है फिर भी उनके प्रतिपादनकर्ताओं का सम्मान यथावत् बनाये रखा गया है। कारण कि जिस समय उन्होंने यह मान्यताएं प्रचलित की थीं उस समय की प्रचलित मान्यताएं और भी अधिक पिछड़ी हुई थीं। उन दिनों उस प्रतिपादनों को भी क्रान्तिकारी माना गया है। प्रगति के पथ पर चलते हुए सत्य की दिशा में जो कुछ इस समय जाना माना गया है आवश्यक नहीं कि वह भविष्य में भी इसी तरह माना जाता रहे। इस बात की पूरी सम्भावना है कि अब की अपेक्षा भावी प्रतिपादन और भी अधिक क्रान्तिकारी माने जायं। ऐसी स्थिति का आज के वैज्ञानिक सहर्ष स्वागत करने के लिए तैयार हैं।
धर्म की व्यावहारिक मान्यताओं में भी क्रमशः परिवर्तन होता आया है यद्यपि कहा यही जाता है कि धर्म सनातन और शाश्वत है। बारीकी से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म न तो अनादि और न अनन्त। वह स्थिर भी नहीं है और अपरिवर्तनशील भी नहीं। उसका जाने-अनजाने क्रमिक विकास होता रहा है। इस स्थिति को सुधारवाद कहा जा सकता है। धर्मवेत्ता, मनीषी, अवतारी, देवदूत समय-समय पर इसी प्रयोजन के लिए अवतरित होते रहे हैं कि न केवल परिस्थिति को वरन् तत्कालीन लोक मनःस्थिति को भी बदलें। उनने अपने से पूर्व के प्रचलनों के स्थान पर ऐसे प्रतिपादन प्रस्तुत किये जिन्हें उस समय निश्चित रूप से क्रान्तिकारी समझा गया है और तत्कालीन पुरातन पंथियों ने उसका घोर विरोध भी किया था।
जूलियन हक्सले ने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि विज्ञान की तरह ही अध्यात्म का आधार भी तथ्यों को रखा जाना चाहिए। लोभ और भय से उसे मुक्त किया जाना चाहिए, काल्पनिक मान्यताओं का निराकरण होना चाहिए और चेतना को परिष्कृत कराने की उसकी मूल दिशा एवं क्षमता को प्रभावी बनाया जाना चाहिए।
इतने पर भी एक बात पूरी तरह समझली जानी चाहिए कि विज्ञान का क्षेत्र भौतिक है। उसका पूरा नाम भी भौतिक विज्ञान एवं पदार्थ विज्ञान ही है। अपने कार्य क्षेत्र में वह सफलता प्राप्त कर रहा है और करेगा। यहां एक बात की ही भूल हो जाती है कि चेतना का क्षेत्र भी विज्ञान ने अपनी परिधि में सम्मिलित करना आरम्भ कर दिया है और चेतन को भी जड़ सिद्ध करने का दुस्साहस किया है। यह भूल है। चेतना पदार्थ नहीं है। उस पर पदार्थ स्तर के नियम सिद्धान्त भी लागू नहीं होते। फिर उसे प्रयोगशाला में देखा भी नहीं जा सकता। ऐसे उपकरण बन सकने कठिन हैं जो आत्मा का स्वरूप समझने और उसे अभीष्ट प्रयोजनों के लिए पदार्थ की तरह प्रयुक्त करने में सफल हो सकें। शरीर और मस्तिष्क की हलचलों के बारे में विज्ञान ने बहुत कुछ कहा और बताया है। पर यह बताना उसके लिए सम्भव न हो सका कि इन दोनों संस्थानों के सही रहने पर भी मरण क्यों हो जाता है? चेतना न रहने पर शरीर और मस्तिष्क अपना काम करना क्यों बन्द कर देते हैं? जिसके रहने से शरीर जीवित रहता और न रहने पर मर जाता है उस चेतना की उत्पत्ति, प्रगति और स्थिरता के लिए क्या किया जा सकता है, इसके सम्बन्ध में कोई समाधान खोजा नहीं जा सका।
पदार्थों के पीछे एक स्थिर नियम काम करता है। उस के आधार पर भौतिक जगत की समस्त हलचलें चलती हैं फिर चेतना पर एक नियम क्यों लागू नहीं होता। वृक्ष वनस्पतियों की तरह मनुष्यों की प्रकृति एक जैसी क्यों नहीं होती? शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों की प्रतिक्रिया होना समझ आता है, पर भावनाएं क्या हैं? विशिष्ट आकांक्षाएं क्यों उत्पन्न होती हैं? मान-अपमान क्या है? दया, धर्म की उत्पत्ति तथा त्याग, बलिदान की प्रवृत्ति का—भौतिक आधार क्या हो सकता है? इस तथ्य तक पहुंचना विज्ञान के लिए सम्भव न हो सका है और न भविष्य में भी वैसा हो सकने की सम्भावना है। तो भौतिक उपकरणों से भौतिक पदार्थ की स्थिति की खोज हो सकती है। चेतना के पर्यवेक्षण के लिए चेतनात्मक उपकरण चाहिए। यह उपकरण अन्तःकरण के रूप में विद्यमान है। चेतनात्मक प्रयोगों के अन्वेषण का यही क्षेत्र है। अन्तःकरण और प्रयोगशाला को एक मानने या बनाने का प्रयत्न करना बुद्धि संगत है और न व्यवहार सम्मत। वह विज्ञान के क्षेत्र बाहर है। चेतना के नियम और भौतिक नियमों के बीच समानता तो पाई जाती है, पर उन्हें एक नहीं माना जा सकता।
मानवी विशिष्टताओं को पदार्थ से तो क्या दूसरे प्राणि तक से समतुल्य नहीं माना जा सकता है। क्षुद्र प्राणियों में यों सदाचार नाम की कोई मर्यादा नहीं है। वे माता, पुत्री, भगिनी और पत्नी में कोई अन्तर नहीं करते। मनुष्यों के पिछड़े वर्ग में भी इस सम्बन्ध में भेद बुद्धि पाई जाती है। शरीर के पूर्ण नग्न रखने में वनवासी मनुष्य भी संकोच करते हैं। नीति और परम्पराओं की कितनी ही मान्यताएं उन लोगों में भी पाई जाती हैं जिन्हें सभ्यता से सर्वथा अपरिचित कहा जाता है। यह मानवी अन्तःकरण है जिसकी मित्रताएं, क्षमताएं, विशेषताएं असीम हैं। सम्भावनाओं पर विचार करते हैं तब तो आश्चर्य से चकित ही रह जाना पड़ता है। उच्च स्तर तक पहुंचे हुए अति मानवी की विशेषताएं उनके अन्तःकरण की उत्कृष्टता पर ही निर्भर नहीं है। उस भावनात्मक विशिष्टता का कोई कारण एवं आधार प्रतीत नहीं हो सका है। चेतना के क्षेत्र में प्रवेश करने पर उसके अनधिकारी प्रयास न केवल उपहासास्पद बनेंगे वरन् अनेकों ऐसी विकृतियां उत्पन्न करेंगे जिन्हें अनावश्यक एवं अवांछनीय ही माना जायेगा।
विज्ञान ने चेतना का पृथक् अस्तित्व प्रयोगशालाओं में परीक्षण करके प्रत्यक्ष नहीं पाया। इतने भर से उसके लिए यह कहना अनुचित था कि चेतना का अस्तित्व ही नहीं है। अथवा उसके साथ अन्तःकरण के रूप में जुड़े हुए धर्म की कोई सत्ता ही नहीं है। इस आतुर प्रतिपादन से अनास्था फैली और इन आदर्शों को क्षति पहुंची जिनके सहारे मानवी प्रगति का क्रम आरम्भ हुआ और अब तक बढ़ता चला आया है। ईश्वर, आत्मा, धर्म, कर्मफल, परमार्थ, संयम जैसी सभी उपयोगी मान्यताएं आस्तिकता के साथ जुड़ी हुई हैं। धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता के सिद्धान्त कट जाने पर उस स्वार्थान्धता पर अंकुश न हो सकेगा, जिसके दबाव में रहने के कारण अन्य प्राणी न पारस्परिक स्नेह, सहयोग का अभ्यास कर सके और न आत्म-निर्माण की दिशा में कुछ सोचने अथवा करने में ही समर्थ हो सके। विज्ञान यदि धर्म को काटता है तो तर्क की दृष्टि से उसकी विजय मान लेने पर भी एक नया संकट यह खड़ा हो जायेगा कि मानवी गरिमा को बनाने और बढ़ाने वाली शालीनता से पूरी तरह हाथ धोना पड़ेगा। तब हम क्रमशः पीछे की ओर लौटना आरम्भ करेंगे और प्रकृति पुत्र वानुष के अपने उद्गम केन्द्र पर जा पहुंचेंगे। प्रगति जहां से आरम्भ हुई थी अगति हमें वहीं लौटाकर वापिस पहुंचा देगी। प्रगति क्रम में मनुष्य को अन्य प्राणियों से जूझना और उन पर वर्चस्व स्थापित करना पड़ता है। अगति एवं दुर्गति की ओर लौटते समय हमें अपने ही वर्ग पर आक्रमण करना पड़ेगा। अन्य प्राणियों के पास मांस, दूध श्रम के अतिरिक्त और कुछ बचा नहीं है, पर मनुष्य की तृष्णा इससे कहीं अधिक बढ़ गई है। मत्स्य न्याय के अनुसार बड़े-छोटे का शोषण करते हैं। बड़े अपनों से बड़ों के पथ पर चलेंगे। फिर अन्ततः वे सबसे बड़े भी आपस में उसी नीति को अपनाकर परस्पर मर खप कर समाप्त होकर रहेंगे। यदि आदिमकाल से भी बुरी स्थिति होगी। आदिम मनुष्य मूर्ख था। उसकी दुष्टता भी थोड़े क्षेत्र में थोड़ी ही हानि पहुंचा सकती थी। पर आज बुद्धिमान और साधन सम्पन्न मनुष्य तो वापिस लौटते-लौटते भी सभ्यता और प्रगति का सर्वनाश ही करता चलेगा। ऐसी-ऐसी विभीषिकाएं उस प्रतिपादन के पीछे स्पष्ट झांकती देखी जा सकती हैं जो विज्ञान ने धर्म के अस्तित्व को अस्वीकार करने के रूप में आरम्भ की है। मौलिक सुख-सुविधा की दृष्टि से विज्ञान ने मनुष्य जाति को जो अनुदान प्रस्तुत किये हैं। अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण करके वह उस श्रेय को नष्ट ही कर देगा जो अब तक की उपलब्धियों के कारण उसने प्राप्त किया है। अनुपयुक्त अतिक्रमण के दुष्परिणाम सदा भयावह ही होते रहे हैं, विज्ञान ने यथार्थ की शोध करके अपनी प्रामाणिकता की छाप छोड़ी है। अतिक्रमण के कारण उसकी ख्याति और प्रतिष्ठा को तो आघात पहुंचेगा ही। उपयोगिता भी संदिग्ध बन जायगी।
विज्ञान का जन्म तो बहुत पहले हो चुका किन्तु विश्व इतिहास की लम्बाई को देखते हुए पिछली शताब्दियों से उनकी अति उत्साही प्रगति का समय बहुत थोड़ा-सा ही गुजरा है। इन दिनों की उपलब्धियों को बाल विकास के समतुल्य ही माना जा सकता है। बच्चे रोज भूल करते और रोज संभलते हैं। यही इन दिनों वैज्ञानिक शोध प्रक्रिया के सम्बन्ध में भी चल रहा है। आज एक सिद्धान्त बनता है। उसे मान्यता मिलती है। कल सन्देह उत्पन्न होता है। परसों उसकी काट-छांट शुरू होती है और अगले दिन उसे अप्रामाणिक ठहरा कर अमान्य कर दिया जाता है। जो आज माना जा रहा है वह कल भी उसी रूप में स्वीकार किया जायेगा। इसका कोई विश्वास नहीं। सत्य की शोध के मार्ग पर प्रयत्न तो भरपूर होने चाहिए, पर साथ ही नम्र रहने और धैर्य रखने की भी आवश्यकता है। विशेषतया ऐसे प्रसंगों पर तो समझ-सोचकर ही कुछ कहा जाना चाहिए जिनका व्यापक असर मानवी नीति, निष्ठा और समाज-व्यवस्था पर पड़ता है। धर्म ऐसा ही विषय है। उसका सीधा सम्बन्ध मनुष्य की चरित्र-निष्ठा और समाज-निष्ठा से है यदि उन आदर्श को बनाये रहना है तो उन नींव के पत्थरों को खिसकाना नहीं चाहिए जिन पर कि स्थिरता और प्रगति का समूचा महल ही खड़ा हुआ है। पिछली शताब्दियों की वैज्ञानिक प्रगति की यों सराहना ही की जा सकती है। किन्तु यह नहीं मान बैठना चाहिए कि पूर्णता की स्थिति आ गई और ऐसी स्थिति बन गई जिसके आधार पर चेतना के अस्तित्व और उसके चिन्तन एवं कर्तृत्व में उत्कृष्टता का समावेश करने वाले ‘धर्म’ को ही अवास्तविक एवं अनावश्यक ठहराया जाने लगे। विज्ञान को अपने बालकपन का ध्यान रखना अधिक और धर्म की अस्वीकृति जैसे प्रसंग पर समझ-सोचकर ही अपने आप मत व्यक्त करना चाहिए।
प्रगति के नाम पर जो दुर्गति हुई है उसको भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। यन्त्र औजारों के उपकरण की बात अलग है, पर यदि किन्हीं ऐसे प्रयोगों के सम्बन्ध में बहुत ही सतर्कता बरतनी चाहिए जो आरम्भ में तो बड़े लाभदायक प्रतीत होते है, पर परीक्षण के उपरान्त हानिकारक सिद्ध होते हैं। ऐसे प्रयोगों में अतिवादी उतावली से वह अपेक्षित लाभ तो मिलता नहीं, उलटे बेहिसाब हानि उठानी पड़ती है। अच्छा होता कि धैर्य रखा जाता। छोटे क्षेत्र में प्रयोग किया जाता है और लाभ हानि का भली प्रकार लेखा-जोखा लेने के उपरान्त उसका व्यापक प्रयोग आरम्भ किया जाता। अनेक क्षेत्रों में अत्युत्साह के कारण जो हानि उठानी पड़ी है उसे यदि ध्यान में रखा जा सके तो चेतना के स्वतन्त्र अस्तित्व और उसके अविच्छिन्न आधार धर्म को अस्वीकार करने में जो उतावली बरती जा रही है उसे थोड़े लोगों पर प्रयोग करके और उसके निष्कर्ष देखकर व्यापक प्रतिपादन का कदम बढ़ाया जाय। आज जो विज्ञान अपनी अपरिपक्व भिन्न स्थिति को नजर अन्दाज करे, अधूरी जानकारी के आधार पर धार्मिकता पर आक्रमण करता है तो उसे अनुचित ही कहा जायेगा।
विज्ञान की अपूर्णतायें
विज्ञान की अधिकांश उपलब्धियां जड़ प्रकृति के क्षेत्र में हैं। पृथ्वी में पाये जाने वाले सभी कार्बनिक (आर्गेनिक) और अकार्बनिक (इन आर्गेनिक) धातुओं, खनिजों, गैसों और इन सबके द्वारा बनने वाले यन्त्रों, प्रकाश, विद्युत, ताप, चुम्बक आदि से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां विज्ञान देता है, उसमें कामवासना की तरह का क्षणिक आकर्षण भी है, क्योंकि हम उससे कुछ शक्ति सुविधा पाते और प्रसन्नता अनुभव करते हैं, किन्तु जब हम जीव विज्ञान की ओर चलते हैं तो पता चलता है कि यह जानकारियां नितान्त एकांगी और भ्रमपूर्ण हैं। वह जीव चेतना के मल उद्देश्य के बारे में कुछ नहीं बता पातीं।
उदाहरण के लिए जीवाणु (लिविंग आर्गनिज्म) को विज्ञान पूर्ण मानता है, चेतना सूक्ष्म से सूक्ष्म कण में भी विद्यमान है, यह एक महत्वपूर्ण जानकारी हुई, किन्तु विज्ञान उसे शाश्वत नहीं मानता। जीवाणु के प्राकृतिक अंश (नेचुरल पार्ट्स साइटोप्लाज्मा) के बारे में जीव-विज्ञान (बायोलॉजी) की जानकारियां बहुत कुछ सत्य और उपयोगी होती हैं, किन्तु जब यह पूछा जाता है कि इसमें रह रही चेतना का मूलभूत स्वरूप क्या है? तो विज्ञान चुप हो जाता है, जबकि उसके अस्तित्व और मूल महत्व को वह स्वीकार भी करता है। जीव-विज्ञान अधिक से अधिक यह कल्पना कर सका है कि चेतना प्राकृतिक पदार्थों की रासायनिक चेतना मात्र है। प्रो. ह्वाइट हेड स्वयं एक महान् वैज्ञानिक थे, उन्होंने विज्ञान के इस तर्क का खण्डन करते हुए पूछा—‘‘एक अमीबा (प्रकृति का सबसे छोटा जीव) जिसमें साइटोप्लाज्मा ही उसका शरीर और एक नाभिक (न्यूक्लियस) ही उसकी चेतना होती है, क्योंकि ऐसा होता है कि नाभिक के निकल जाते ही शेष भाग मृत हो जाता है, जब कि नाभिक पुनः एक स्वतन्त्र अमीबा का रूप ले लेता है। इससे मालूम पड़ता है कि चेतना प्राकृतिक संरचना से स्वतन्त्र है, वह स्वयं प्रकृति को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रखता है। विज्ञान इस सम्बन्ध में पूर्णतया डांवा-डोल है। यदि चेतना का स्वरूप रासायनिक होता तो प्रयोगशालाओं में अनेक प्रयोग करके कई तरह की रासायनिक शक्तियां पैदा करते हैं, पर उनमें उपयोगितावाद (सरवाइवल आफ फिटेस्ट) देखने में नहीं आता। उपयोगितावाद के अनुसार बड़ी रासायनिक शक्ति को चाहिए था कि वह छोटी रासायनिक शक्ति को दबोचती, पर वैसा आज तक कहीं नहीं हुआ, रासायनिक शक्तियां और मूल चेतन सत्ता में कोई सामंजस्य नहीं है।
विज्ञान की सीमितता (लिमिटेशन आफ साइन्स) नामक पुस्तक के लेखक डा. जे.डब्ल्यू.एन. सुलीवान ने एक स्थान पर लिखा है—‘‘मानव जीवन की उत्पत्ति के बारे में प्रचलित डारविन का विकासवाद (इस मत के अनुसार मनुष्य अमीबा, अमीबा से दूसरे समर्पणशील जीवों से विकसित होता हुआ बन्दर बना, बन्दर से मनुष्य बन गया) और रेन्डम के सिद्धान्त (इस मत के अनुसार मनुष्य उसी प्रकार परिपूर्ण जन्मा, जिस प्रकार अन्य जीव) में से कौन सत्य है, कौन असत्य है। इस सम्बन्ध में विज्ञान कुछ भी स्पष्ट कर सकने में असमर्थ है। यहां बड़े से बड़े वैज्ञानिकों को भी भ्रम हो जाता है कि वस्तुतः कोई ऐसी महान् सत्ता संसार में काम कर रही हो सकती है, जिसकी इच्छा से बलवान् और कोई शक्ति संसार में न हो।
यदि हम जानवरों के अंगों की कार्य-प्रणाली का ही भौतिक और रासायनिक अध्ययन करें, तब भी निष्कर्ष वहीं के वहीं रह जाते हैं। शरीर में इच्छाओं का रासायनिक क्रम विज्ञान बता सकता है, किन्तु विज्ञान यह नहीं बता पाता कि इच्छायें क्यों उत्पन्न होती हैं। पशु भी अपनी इच्छायें रोक नहीं पाते। मार खाते हैं तो भी खेतों में चोरी से घुसकर फसल खाने की अपनी इच्छा को रोक सकना उनके लिए भी असम्भव ही होता है। रासायनिक परिवर्तनों के कारण इच्छाओं के स्वरूप परिवर्तन के बारे में विज्ञान बता सकता है, पर परिवर्तनों के उद्देश्य (परपजिव आर्डस) के बारे में वह कुछ भी व्यक्त करने में असमर्थ ही रहा है।
भौतिक विज्ञान (फिजिक्स) और मनोविज्ञान (साइकोलॉजी) दोनों में पृथ्वी और आकाश का अन्तर है। मनोविज्ञान के विश्लेषण से मिला व्यवहारवाद और भौतिक विज्ञान से मिले यन्त्रों की कार्य-प्रणाली में बड़ा फर्क है, भौतिक विज्ञान की धारणाएं स्पष्ट होती हैं, हमें पता रहता है कि अमुक यन्त्र काम न करेगा तो मशीन बन्द हो जायेगी, मशीन में फिर यह शक्ति नहीं होगी कि वह अपनी इच्छा से थोड़ी देर आराम करने के बाद फिर चलने लगे। जीवन के बारे में यह धारणायें बहुत अस्पष्ट होती हैं, हम अपने ही सम्बन्ध में नहीं कह सकते कि आधे घन्टे पीछे हमारी मनःस्थिति क्या होगी, हम कहां और क्या होंगे? विज्ञान द्वारा मानवीय व्यवहार को स्पष्ट किया जाना बिलकुल असम्भव है। इसलिए यह मानना स्वाभाविक है कि आत्म-चेतना विज्ञान की सीमा से पृथक वस्तु है।
डॉक्टर भी एक वैज्ञानिक ही है। उसे शरीर रचना और उसके रासायनिक परिवर्तनों की जानकारी होती है, इसलिए उसे पूरी बीमारी का पता बिना रोगी से पूछे लगा लेना चाहिए था। उसे यह भी बता देना चाहिए था कि शरीर के अमुक भाग में इस तरह की पीड़ा होती है, पर वह ऐसा करने में असमर्थ होता है। वहम (मीनिया) और बिना किसी भौतिक सम्पर्क के किरकिराना या सिहरन (एलर्जी) का आभास क्यों होता है। डॉक्टर इसका पता लगाने में असमर्थ है।
मनुष्य के मर जाने का चिह्न (इन्डीकेशन) भी विज्ञान नहीं समझा सका। कभी वह हृदय की धड़कन (पल्पिटेशन) रुक जाने को मृत्यु कहता है, कभी श्वांस क्रिया रुक जाने को, कभी वह मस्तिष्क की मृत्यु से जीवन की मृत्यु घोषित करता है, पर अन्तिम रूप से मृत्यु और जीवन के अन्तर को विज्ञान समझा नहीं सका।
अब हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि विज्ञान के द्वारा निर्जीव पदार्थों की बहुत-सी जानकारियां देने के बाद भी अनेक जानकारियों का पता लगाना शेष रह जाता है। सापेक्षवाद के सिद्धान्त (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) और क्वान्टम सिद्धान्त की बहुत-सी बातें लोगों की समझ में इसीलिए नहीं आतीं, क्योंकि उनका सम्बन्ध आत्म-चेतनता से है। धर्म और अध्यात्म से है, जो विज्ञान से परे की सत्ता है। इसलिए यदि धर्म को विज्ञान का विकल्प कहा जाये, अथवा यह माना जाये कि जहां विज्ञान रुक जाता है, वहां से आगे का लक्ष्य ‘धर्म’ पूरा कर सकता है तो किसी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं मानना चाहिए।
प्रयोग और अध्ययन के प्रारम्भिक दिनों में गैलीलियो का कहना था कि दिखाई देने वाले प्राकृतिक परिणामों (नेचुरल फेनामेना) को गणितीय सिद्धान्तों से (मैथेमेटिकली) जाना जा सकता है। प्रकृति के बारे में यह कहना बिलकुल ठीक है। एक वर्ष बाद ठीक आज के दिन सूर्य किस राशि में होगा, गुणा भाग के द्वारा इसे जाना जा सकता है। चन्द्र, बुध, शुक्र, बृहस्पति मार्शल, सेंटर्न प्लूटो उस दिन कहां किस दिशा में होगे, यह रेखागणित से हल किया जा सकता है, ब्रह्माण्ड के और भी अनेक गुह्य रहस्यों का पता पदार्थों पर पड़ने वाले प्रभावों को देखकर जाना जा सकता है, किन्तु कुछ दिन बाद जब कैपलर ने कहा कि वस्तुओं में अगणितीय गुण भी विद्यमान है, उदाहरण के लिए इलेक्ट्रान का पतन होने पर पदार्थ का पतन हो जाता है। इलेक्ट्रान अपनी कक्षा में घूमते हुए आगे वाली या पीछे वाली कक्षा में टूट गिरेगा, इस सम्बन्ध में कोई गणितीय नियम काम नहीं करता। मानव व्यवहार भी किसी गणितीय नियम पर आधारित नहीं है।
कुछ दिन बाद गैलीलियो ने भी स्वीकार किया कि अगणितीय गुण अन्तर्वर्ती (सब्जेक्टिव) होते हैं, उनका हमारे ज्ञान (सेन्टोसन) के अतिरिक्त कहीं भी अस्तित्व नहीं है। मस्तिष्क न हो, ज्ञान न हो तो ब्रह्माण्ड का कोई आकार-प्रकार होगा, न भार समझ में आयेगा, रंग, ध्वनि, गन्ध, स्थान और समय भी हमारे लिए कुछ भी न रह जायेगा, क्योंकि यह सारी बातें मस्तिष्क की उपज है, मस्तिष्क न हो तो इन विविधताओं का कोई रूप ही न हो।
मस्तिष्क ही चेतना है, चेतना का इतिहास और उसका भविष्य ही धर्म है, इसलिए जब तक चेतना का अस्तित्व है, तब तक धर्म की अनिवार्यता भी बनी रहेगी। गैलीलियो ने इन अगणितीय नियमों के आधार पर ही यह माना था कि संसार में व्यवस्था और गणित है, वह किसी महाशक्ति के हाथों का विधान है, उसे समझ पाना मनुष्य के लिए तब तक कठिन है, जब तक वह धर्म और दर्शन (रिलीजन एन्ड फिलॉसफी) को अपने जीवन में स्थान नहीं देता।
न्यूटन का भी मत था कि विज्ञान वास्तविकता का आंशिक ज्ञान देता है, पूर्णता का विकल्प तो धर्म ही है। एडिन्ग्टन और प्रसिद्ध वैज्ञानिक जेम्स जीन्स भी एक ही निष्कर्ष पर पहुंचे कि ब्रह्माण्ड का अन्तिम स्वभाव (अल्टीमेट नेचर) गणितीय नहीं, मानसिक (मेन्टल) है, अर्थात् मस्तिष्क की तरह की किसी सूक्ष्म चेतना में ही यह संसार चल रहा है, यदि मानसिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त कर हम कुछ सत्य बात जानने की इच्छा करें तो हमें धर्म को मानने के अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं रह जाता।
विज्ञान और उसकी अस्थिरता
ईसा से 200 वर्ष पूर्व नीसिया के वैज्ञानिक हिप्पार्कस ने बताया कि ब्रह्माण्ड का केन्द्र पृथ्वी है, अन्य ग्रह-उपग्रह उसके चारों ओर केन्द्रीय शक्ति (एक्सेंट्रिक) कक्षाओं में अधिचक्रों (एपिसाइकिल्स) में घूमते हैं। प्रसिद्ध यूनानी वैज्ञानिक टालेमियस (संक्षिप्त नाम टालेमी) ने इसी सिद्धान्त को स्वीकार कर सौर-मण्डल की शोध की और 1028 ग्रह-नक्षत्रों को पृथ्वी के क्रम से इस तरह स्थापित किया कि बीच में पृथ्वी, दूसरे वृत्त में चन्द्रमा, तीसरे में बुध, चौथे में शुक्र, पांचवें में सूर्य, छठवें में मंगल, सातवें में बृहस्पति, आठवें में शनि, नवें में स्फटिकीय पिण्ड व तारे और दंसवें में प्राइमममोबाल्स रखे। इसी आधार पर ही ज्योतिष शास्त्र का बहु-चर्चित ग्रन्थ ‘अलमागेस्ट’ तैयार किया गया था। 1400 वर्षों तक यह सिद्धान्त अकाट्य माना गया। यही नहीं उसके आधार पर की जाने वाली अधिकांश भविष्यवाणियां सत्य भी होती थीं। लोग अलमोगेस्ट को पूजते थे। एक प्रमाणिक वैज्ञानिक ग्रन्थ मानते थे। टालेमी ने इसे पुस्तक में वृत्त (सर्किल) को 360 भाग (ग्रेजुएशन्स) में विभक्त कर पाई (वृत्त की परिधि और अर्द्ध व्यास के अनुपात को रोमन अक्षर में व्यक्त किया जाता है, उसे पाई कहते हैं) का मूल्य 3.1416 निकाला था, वर्तमान पाई का मूल्य 3.1428 है, अन्तर .0012 का नगण्य सा है, किन्तु इसी अन्तर को यदि करोड़ों प्रकाश की दूरी पर आरोपित किया जायेगा तो जो ग्रह यहां से 10 करोड़ मील की दूरी पर होगा वह लाखों मील आगे-पीछे हो जायेगा। उस समय भी यदि विज्ञान को लोग इसी तरह मानते रहे हों जैसे आज तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि विज्ञान झूठा क्यों हो गया। पृथ्वी से थोड़ी दूर तक सीमित रहने वाले तत्वों की भविष्यवाणियां सही उतरीं तो भी फलितार्थ गलत। यही तो है विज्ञान की परिमितता। हम जिसे कल तक अकाट्य माने बैठे थे, वही आज गलत साबित हो गया, ऐसे विज्ञान को कौन पूर्ण कहेगा? कौन यह दावा करेगा कि विज्ञान सत्य है। धर्म नहीं। विज्ञान मनुष्य के सीमित ज्ञान के सीमित निष्कर्ष हैं, उनको ही सब कुछ बिलकुल सत्य मान लेना मनुष्य के लिए कभी भी हितकारक न होगा। शाश्वत और सनातन नियम जो भी हैं, धर्म के हैं। सारे संसार का एक ही नियामक है, यह मान लेने में किसकी हानि है? परस्पर प्रेम, न्याय, ईमानदारी का व्यवहार करना चाहिए, हम सब भाई-भाई हैं, यह मान लेने पर किसका बुरा हो गया? धर्म, सुख और शान्ति प्राप्त करने का अकाट्य सिद्धान्त है, यदि कोई सिद्धान्त इसके विपरीत जाते हैं तो वह धर्म नहीं हो सकते, जबकि विज्ञान की सत्यता को कभी भी अन्तिम नहीं कहा जा सकता।
कोपार्निकस ने अलमोगेस्ट से असहमति प्रकट न की होती तो आज जो ग्रह गणित का इतना सुधरा रूप सामने आ रहा है, वह न आया होता। कोपार्निकस ने पहली बार बताया कि वैज्ञानिक धारणाओं को कभी अन्तिम सत्य नहीं मान लिया जाना चाहिए, उसने सूर्य को ब्रह्माण्ड का केन्द्र बताया। यह धारणायें बहुत वर्षों तक चलती रहीं। अब 19 वहीं शताब्दी में तो अन्तरिक्ष एक ऐसा आश्चर्य बन गया है कि उसमें यही तय नहीं किया जा सकता है कि विराट् ब्रह्माण्ड का केन्द्र (न्यूक्लियस) कहां पर है। ‘सूर्य’—सौर जगत् का केन्द्रक हो सकता है, ब्रह्माण्ड का नहीं। अकेली हमारी आकाश गंगा से ही प्रकाश पाने वाले अनेक सूर्य और उनके सौर-मंडल विद्यमान हैं, फिर ऐसी-ऐसी करोड़ों आकाश गंगायें और हैं, उनमें कितने सौर जगत् हैं, उसकी कुछ कल्पना ही नहीं की जा सकती। 50 करोड़ प्रकाश वर्ष और 10 करोड़ नीहारिकाओं का अनुमान लगाने वाले आज के वैज्ञानिक भी इस जानकारी को आंशिक सत्य मानते हैं, पूर्ण सत्य नहीं। क्या उस विज्ञान पर भरोसा किया जा सकता है।
जिस विज्ञान को लोग प्रत्यक्षदर्शी और सर्वमान्य कहते हैं, क्या उसका प्रत्यक्ष दर्शन और प्रस्तुत प्रतिपादन सत्य है? इस पर नई पीढ़ी को नये सिरे से विचार करना पड़ेगा और उन सार्वभौमिक सिद्धान्तों का अन्वेषण करना पड़ेगा, जो मानव प्रकृति और चेतन के सम्बन्ध में सही जानकारी दे सकते हों। जब भी ऐसी आवश्यकता उठेगी, हमें अपने अन्दर से हल खोजना पड़ेगा अपने अहंभाव का विश्लेषण और विकास करना पड़ेगा, इसी का नाम धर्म है, इसी का नाम अध्यात्म है।
ब्रह्माण्ड सम्बन्धी उपरोक्त सिद्धान्तों के साथ अब सैकड़ों वर्ष तक काम करने वाला न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त भी हवा में उड़ने लगा। एक दिन महाशय न्यूटन एक बगीचे में बैठे थे। उन्होंने देखा एक फल टूटकर नीचे जमीन पर आ गिरा। प्रश्न उठा—फल नीचे ही क्यों आया वह आकाश में क्यों नहीं चला गया। इस घटना के बाद न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया। उन्होंने बताया कणों के परिमाण के अनुपात से संसार के सभी कण दूसरे कणों को आकर्षित करते हैं। न्यूटन के अनुसार कणों की दूरी बढ़ने के साथ यह आकर्षण बल घटने लगता है। न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त पर अनेकों मशीनें बनी हैं, जो काम भी करती हैं, किन्तु 1916 में आइन्स्टीन ने बताया कि ब्रह्माण्ड के कण स्थान और समय में एक सीधी रेखा में चलते हैं, यही बात ग्रह-नक्षत्रों के बारे में भी है। वह भी सीधे चलते हैं, किन्तु द्रव्य (मास) की उपस्थिति के कारण स्थान और समय का रूप बदल जाता है और ऐसा लगने लगता है कि कण या ग्रह-नक्षत्र वक्राकार पथ पर चलते हैं, इस नये सिद्धान्त को आइन्स्टाइन ने ‘सामान्य आपेक्षिकता सिद्धान्त’ (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) नाम दिया और बताया कि गुरुत्वाकर्षण द्रव्य का गुण न होकर स्थान और समय का गुण है।
आइन्स्टीन उन वैज्ञानिकों में से हैं, जिनके सिद्धान्त इतने गम्भीर और क्लिष्ट है कि उनकी सतह तक पहुंचना हर व्यक्ति के वश की बात नहीं। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक दिन उनके सिद्धान्त को भी गलत किया जा सकता है, पर हुआ यही। 1964 में प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डा. जयन्त विष्णु नार्लिकर तथा प्रोफेसर फ्रेड हायल ने एक गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त को जन्म दिया और बताया कि गुरुत्वाकर्षण न तो स्थान और समय का गुण है न कणों का। वह तो ब्रह्माण्ड का गुण है। हायल ने अपने मत की पुष्टि में ‘समतुलित अवस्था का सिद्धान्त’ प्रकाशित किया और बताया कि आकाश की पुरानी आकाश गंगायें मरती और नई जन्म लेती रहती हैं। ब्रह्माण्ड फैल रहा है और उसी के फलस्वरूप ऊर्जा द्रव्य (मास) में बदलती रहती है। जहां इस तरह की क्रियायें चलती हैं, उसे हायल ने सृजन क्षेत्र (क्रियेशन फील्ड) का नाम दिया। इन तथ्यों से ब्रह्माण्ड की कल्पना और गुरुत्वाकर्षण की अब तक चली आ रही मान्यतायें ध्वस्त हो जाती हैं, तब क्या न्यूटन टामस, गोल्ड हर्मन बांडो और आइन्स्टीन की बातें सच थीं। इस पर विचार करें तो लगता है कि यह बुद्धिमान वैज्ञानिक भी यथार्थ की दृष्टि में अपरिपक्व बुद्धि वाले बच्चों जैसे थे और जो बच्चे आज का विज्ञान पढ़ते हैं, उनकी अपरिपक्वता के बारे में तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता। सामान्य बातों को छोड़ कर 10 वर्ष पूर्व एक विद्यार्थी ने जो कुछ पढ़ा था, आज उसका प्रायः 3 प्रतिशत गलत हो गया, जिसकी उसे जानकारी तक नहीं और वह अपने विद्यार्थी को, अपने मित्रों को वही बातें बता रहा होगा, अब जिनको अमान्य कर दिया गया है। क्या इस स्थिति में विज्ञान को सत्य कहा जा सकता है?
एक समय था जब डाल्टन के परमाणुवाद को एक सर्वमान्य सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया गया था। डाल्टन का कहना था परमाणु अजन्मा, अविनाशी और अविभाज्य है। इस सिद्धान्त को 120 वर्ष तक अकाट्य माना जाता रहा। इस सिद्धान्त ने ही डाल्टन को मूर्धन्य वैज्ञानिक का सम्मान दिलाया था।
किन्तु क्या डाल्टन सत्य था। वही सिद्धान्त जो 120 वर्ष तक वैज्ञानिकों की अन्य शोधों का माध्यम बना रहा, एक दिन खण्ड-खण्ड कर दिया। सन् 1897 में जे.जे. थाम्प्सन नामक वैज्ञानिक ने कैथोड किरणों (कैथोड रेज) का आविष्कार करके डाल्टन के परमाणुवाद सिद्धान्त को खण्डित कर दिया और बताया कि परमाणु भी विभाज्य है। एक दिन उन्होंने न्यूनतम वायु दबाव की एक नली में ऋण ध्रुव (कैथोड) से विद्युत धारा प्रवाहित की उससे एक प्रकार की किरण कैथोड से निकलती हुई दिखाई दी, जिनके अध्ययन से सिद्ध हो गया कि परमाणु के भीतर भी आवेश या शक्ति कण होते हैं, इन किरणों के मार्ग में ऋण पोल (निगेटिव पोल) लाने से विकर्षण (रिपल्सन) की क्रिया हुई और उन किरणों ने अपना मार्ग बदल दिया, इससे यह सिद्ध हुआ कि परमाणु के भीतर ऋण विद्युत आवेश विद्यमान है, उसे इलेक्ट्रान्स कहा गया। इलेक्ट्रान्स का भार हाइड्रोजन परमाणु के भार का 1/2850 होता है। इसलिए वैज्ञानिकों को इसकी खोज के बाद भी अनिश्चय सा रहा कि परमाणु की अभी अन्तिम जानकारी नहीं हो रही।
सन् 1911 में रदरफोर्ड सोने की पत्तर पर अल्फा किरणों का बम्बार्डमेंट कर रहे थे। कुछ किरणें तो पत्तर को पार कर गई, कुछ दाहिने बायें मुड़ गईं। पर रदफोर्ड ने देखा कि कुछ किरणें जिस मार्ग से जा रही थीं, उसी मार्ग से लौट आईं। चुम्बक विज्ञान का एक सिद्धान्त है, समाज ध्रुव एक दूसरे को विपरीत दिशा में धकेलते हैं, असमान ध्रुव आकर्षित (एट्राक्ट) होकर जुड़ जाते हैं, अल्फा किरणें जो वापिस लौट रही थीं, वे धनावेश युक्त थीं, इसलिए यह निश्चित किया गया कि सोने के परमाणु में वैसा ही धन आवेश होना चाहिए। तब परमाणु में दो कणों का अस्तित्व सामने आया जिन्हें इलेक्ट्रान और प्रोट्रॉन नाम दिया गया।
इस सिद्धान्त ने बहुत दिन तक वैज्ञानिकों का मार्ग-दर्शन किया और उस युग में उसे ही सत्य माना जाता रहा। विज्ञान की भाषा तो तोतली है, जो मीठी भले ही लगती हो, पर होती निरर्थक है, उसे मानने वाले उस बालक की तरह हैं, जिन्हें अबोध कहा जा सकता है, पर उनकी बात को सत्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आने वाला प्रत्येक नया वैज्ञानिक उस सिद्धान्त को काटता हुआ या संशोधन करता हुआ आता है, जो सिद्धान्त अब तक अकाट्य समझे जाते थे, वह एक नये पैसे के गुब्बारे की तरह अगले ही दिन फूस हो जाते हैं।
महाशय नील्स बोहर ने परमाणु के सिद्धान्त को एक नया मोड़ दिया। उन्होंने कहा परमाणु में इलेक्ट्रान (ऋण आवेश) और प्रोट्रॉन (धन आवेश) है तो, पर वह एक साथ रह नहीं सकते। असमान विद्युत आवेश होने के कारण उन्हें एक दूसरे में मिल जाना चाहिए तथा नष्ट हो जाना चाहिए। उनके नष्ट होने का अर्थ था परमाणु का नष्ट हो जाना, पर ऐसा होता नहीं। इसलिए उसने एक नये सिद्धान्त को जन्म दिया और बताया कि इलेक्ट्रान नाभिक के चारों ओर चक्कर लगाता है। नाभिक उन्हें सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स से उसे साधे हुए है और इलेक्ट्रान स्वयं भी सेन्ट्रीपीटल फोर्स से नाभिक की ओर खिंचते रहते हैं कक्षा छोड़कर बाहर नहीं जाते।
बाद में अपने सिद्धान्त को उसी ने फिर सुधारा और कहा कि इलेक्ट्रान एक बन्द कक्षा में घूमते हैं, अन्यथा इलेक्ट्रॉन को घुमाने वाली शक्ति का ह्रास होने पर वह केन्द्रक में गिर जाता और परमाणु नष्ट हो जाता। परमाणु के नष्ट होने का अर्थ था संसार का नष्ट हो जाना। अपने इस सिद्धान्त की पुष्टि इन्हीं महोदय ने नागासाकी और हिरोशिमा में बम गिराकर की तो भी वह परमाणु के अन्तिम सत्य को स्थिर नहीं कर सके।
आंशिक जानकारियां विषयों का पूर्ण प्रतिपादन नहीं कर सकतीं। मनुष्य के उलझाव वाले प्रश्न हैं, उसका ‘अहं’ और अहं से सम्बन्धित सैकड़ों प्रश्न। हमारी चेतना का वास्तविक स्वरूप क्या है? विज्ञान के पास इसका कोई उत्तर नहीं? मृत्यु के बाद हमारा क्या होता है? विज्ञान चुप। प्राणि मात्र के साथ हमारे क्या सम्बन्ध हैं? हम क्यों अस्थिर हैं? चिर शान्ति के उपाय क्या हैं, क्यों हम जीते और मर जाते हैं, जब तक इनका स्पष्ट उत्तर नहीं मिलता, मनुष्य भटकता रहेगा, जबकि विज्ञान के पास इन भवरोगों का कोई इलाज नहीं।
इलेक्ट्रान और प्रोट्रॉन का सम्मिलित भार भी परमाणु भार से कम था, इसलिए यह सोचा गया कि नाभिक (न्यूक्लियस) में कोई ऐसा कण है, जिसमें भार तो है, पर विद्युत आवेश नहीं। उससे न्यूट्रॉन का अस्तित्व सामने आया। इसके बाद एक और कण पाजिट्रान की खोज की गई। अभी तक यह कहा जाता था कि इलेक्ट्रान वृत्ताकार कक्ष (सरकुलर आरबिट) में चक्कर लगाते हैं, किन्तु समर फोल्ड ने उसे भी संशोधित कर दिया और बताया कि इलेक्ट्रान वृत्ताकार कक्ष में नहीं अण्डाकार कक्ष (इलिप्टिकल आरबिट) में चक्कर लगाते हैं।
अब एक और सिद्धान्त—क्लाउड थ्योरी—का सृजन हो रहा है। उसके अनुसार इलेक्ट्रान्स की कोई कक्षा नहीं बल्कि वे न्यूक्लियस के चारों ओर घिरे सघन बादलों में कुछ विचित्र प्रकार से इस तरह घूमते हैं, जैसे आकाश में ग्रह-नक्षत्र। अभी भी अन्तिम सत्य की खोज नहीं की गई। वैज्ञानिक ‘पदार्थों’ के अतिरिक्त किसी शक्ति को नहीं मानते, पर उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि प्राकृतिक नियमों (लाज आफ नेचर) को तोड़कर शाप, वरदान, पूर्वाभास, स्वप्नाभास वाली शक्ति कौन-सी है और क्या उसका परमाणु या विराट् ब्रह्माण्ड से भी कोई सम्बन्ध है। मस्तिष्क में विचार कहां से आते हैं, भावनाओं का अस्तित्व क्या है, जब तक विज्ञान इनकी जानकारी नहीं दे देता क्या उसे सत्य रूप में स्वीकार किया जा सकता है? जबकि वे अभी परमाणु के बारे में ही यह अनिश्चित है कि उसमें इतनी शक्ति कहां से आती है।
मानवीय जीवन के इन प्रश्नों को हल करना तो दूर वैज्ञानिक अपने ही सिद्धान्तों के प्रति आश्वस्त नहीं। अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिकों के सिद्धान्तों को भी अब केले के पत्तों की तरह जगह-जगह से काट दिया जाता है। कल तक जो औषधि रोगनाशक समझी जाती थी आज उसे विष उत्पादक और रोग-वर्द्धक कहकर रोक दिया जाता है। इन्जेक्शन बदलते चले जा रहे हैं, तो भी स्वास्थ्य की समस्या हल नहीं हुई। पहले नींद के लिए लेसरजिक एसिड डाइ इथाइल एमाइड (एल.एस.डी.) दी जाती थी, उससे अनेकों लोग बहरे हो गये, अनेकों मस्तिष्क सम्बन्धी बीमारियां खड़ी हो गईं, एक 42 वर्षीय बुढ़िया ने उक्त दवा का सेवन किया और पीने के 36 घण्टे बाद मर गई। उसके दुष्फल देखकर उसे बदला गया फिर पैरानोइया दी जाने लगी। वह भी खतरनाक सिद्ध हुई इसके बाद और कई तरह के मिश्रण बदले, सोनेरिल लारजेक्टिल, एलेविजर वेलेरियन, ब्रोमाइड मिक्स्चर और मर्फिया आदि बदलती चली आईं, पर इनमें से ऐसी एक भी नहीं जो विषोत्पादक न हो।
विज्ञान तो सत्य इष्ट है—पर वह स्वयं सत्य नहीं। क्रमशः विकसित होने वाला विज्ञान सत्य तक पहुंच भी सकता है और सारे संसार को नष्ट-भ्रष्ट भी कर डाल सकता है। नागासाकी जैसा कोई विस्फोट प्रयोगशाला में ही हो सकता है।
विज्ञान ने समस्यायें सुलझाईं कम, उलझाईं अधिक
विज्ञान की एक शाखा रसायनशास्त्र ने लाखों, करोड़ों कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थों की खोज कर ली। इतनी औषधियां बन चुकी हैं कि एक डॉक्टर उन सबको याद भी नहीं रख सकता। जीव विज्ञान ने यहां तक पहल की सूक्ष्मतम जीवाणु (बैक्टीरिया) और विषाणु (वायरस) की सैकड़ों जातियों तक का पता लगा लिया। एनाटॉमी और फिजियोलॉजी ने मनुष्य शरीर की, एक एक हड्डी, एक-एक नस की बनावट और उनके कार्यों का पता लगाने में सफलता प्राप्त की। वनस्पति विज्ञान ने वृक्ष-वनस्पतियों में भी जीवन के अंश की शोध कर ली। भौतिक विज्ञान का तो कहना क्या? चन्द्रमा, मंगल शुक्र और बृहस्पति की दूरियां अब पृथ्वी में बसे पड़ौसी देशों की तरह होने जा रही है। वैज्ञानिक प्रगति के पीछे मानवीय पुरुषार्थ और पराक्रम की जो गाथायें छिपी पड़ी हैं, उन्हें जितना सराहा जाये कम है।
किन्तु एक प्रश्न पीछे से उठ रहा है, वह भी वैज्ञानिक प्रगति के समान ही तीव्र और विस्मयबोधक है। प्रश्न है—‘‘क्या विज्ञान मनुष्य के व्यवहार को समझा सकता है?’’ क्या विज्ञान मानवीय चेतना की अथ-इति के दार्शनिक और तात्विक पहलू को भी समझा कर, मानव मात्र को सन्तोष और भयमुक्ति प्रदान कर सकता है? अरबों रुपये खर्च करके एक अन्तरिक्षयान (सेटेलाइट) की सफलता के पीछे हजारों लाखों आदमियों को भूखा-नंगा बना देने की वैज्ञानिक कुत्सा को क्या हर व्यक्ति समर्थन प्रदान करेगा। जब तक विज्ञान मानव के व्यवहार की समस्या को हल नहीं करता, तब तक विश्वात्मा को शान्ति कहां संसार के प्राणी शान्ति और सन्तोष से न रह सकें तो विज्ञान की क्या सार्थकता?
आधी शताब्दी में दो महायुद्ध हो चुके। उनमें करोड़ों व्यक्तियों की निर्मम हत्यायें की गईं। मारे गयों के पीछे उनके असहाय बच्चों, धर्मपत्नियों और आश्रितों के करुण क्रन्दन को क्या विज्ञान ने सुना और समझा? युद्धोन्माद के साथ प्रारम्भ हुए मानवता के विज्ञान के साथ अन्त होने वाली चरित्र भ्रष्टता का समझाये और निराकरण किये बिना क्या विज्ञान हमें ऊंची और उन्नत सभ्यता का विश्वास दिला सकता है।
विज्ञान निर्जीव प्रकृति को नियन्त्रित करने में लगा है और सजीव प्रकृति भूख-प्यास की पीड़ा से अपनी आन्तरिक आवश्यकताओं की आपूर्ति के कारण छटपटाहट से बेचैन है। हम अपनी कठिन सामाजिक समस्याओं के बारे में, जब भी प्रश्न करते हैं, वह मौन हो जाता है। ऐसी विडम्बना मानव इतिहास में उसी प्रकार कभी नहीं देखी गई जैसे चन्द्रमा पर मानव के चरण इससे पूर्व कभी नहीं देखे गये।
एक ओर औषधियां बनाने का पुण्य दर्शाता है विज्ञान, दूसरी ओर परमाणविक विस्फोटों के द्वारा—यन्त्रीकरण से उत्पन्न आलस्य द्वारा—अधिक इन्द्रिय-भोग और असंयम के द्वारा—नित्य नई बीमारियां फैलाने का पाप भी वही करता है। पुण्य एक तोला और पाप एक मन—कैसे बैठेगा बैलेंस? मानवता बेचारी आधी छटांक अन्न खाकर एक मन वजन पत्थर के नीचे दबी जा रही है। संसार के कुछ लोग अभावग्रस्त जीवन से ही ऊपर नहीं उठ पाते हैं।
जनसंख्या मानव ने नहीं बढ़ाई, विज्ञान ने बढ़ाई है। उसने मानव को सैकड़ों-हजारों दिशायें देकर मूल उद्देश्य से दिग्भ्रांत कर दिया है। भ्रमित मनुष्य को सुख का एकमात्र साधन कर्मेन्द्रियां रह गई हैं। पिता से उसे प्रेम नहीं मिलता, मां से वात्सल्य नहीं, भाई अपना विश्वास और स्नेह प्रदान करने के लिए तैयार नहीं, पड़ौसी उसके साथ हंसने-बोलने और सदाशयता का व्यवहार करने के लिए तैयार नहीं। नौकर को मालिक से दिक्कत, मालिक को नौकर से शिकायत। मानव को तो आनन्द चाहिए। आखिर वह कहां से मिले। कामवासना—कामवासना, जनसंख्या—जनसंख्या बढ़ाने का दोष मानव को नहीं—आलस्य अकर्मण्यता, अहंवाद की शिक्षा देने वाले विज्ञान को है। अपने दोष को स्वीकार कर उसे 3 अरब पृथ्वी की जनता को अन्न देना चाहिए था, पर मिल रही है चन्द्रमा की मिट्टी, जिसे न खाया जा सकता है न पकाया। मानव के अस्तित्व को और भी संकट बढ़ा है।
अकाल, महामारी और आर्थिक विषमता का कारण है—विज्ञान। मानव की आवश्यकतायें खाना, कपड़ा पहनने, स्वस्थ रहने और शिक्षित रहने भर की थी, उसके लिए इतने व्यापक बखेड़ों की क्या आवश्यकता थी? आज की पृथ्वी के कितने लोग हैं जो अन्तरिक्ष यात्रायें कर सकेंगे? आने वाली पीढ़ी में कितने होंगे जो विश्व को अकाल, महामारी और आर्थिक विषमता से बचा सकेंगे?
विज्ञान कुछ सीमा तक ही मानव जाति के लिए उपयोगी हो सकता है। उससे आगे उसे तब तक नहीं बढ़ना चाहिए, जब तक आत्म-चेतना की प्रगति भी उसके समानान्तर नहीं हो जाती। विज्ञान आंशिक सत्य है—एक सीमा निर्धारित है उसके आगे विज्ञान की नहीं, विश्वास और श्रद्धा की आवश्यकता हो जाती है। पदार्थ परमाणुओं से बने हैं। परमाणु इलेक्ट्रान, प्रोट्रॉन, न्यूट्रॉन, पाजिट्रान और नाभिपिण्ड (न्यूक्लियस) से बने हैं—विज्ञान ने इतना बता दिया। उसने यह भी बता दिया कि परमाणु में अकूत शक्ति भण्डार छिपा है। इलेक्ट्रान चक्कर काटते हैं। परमाणु एक पूरा सौर-मण्डल है। पर ऐसा क्यों है? शक्ति कहां से आई परमाणु में गति क्यों है?—विज्ञान इस सम्बन्ध में क्यों नहीं बताता? वह परमाणु का मानव-जीवन से सम्बन्ध जोड़कर हमारे लिए कभी न समाप्त होने वाले आनन्द का दिग्दर्शन क्यों नहीं करता? जबकि हम जानते हैं कि आनन्द ही हमारे लिए अंतिम सत्य है। वह क्यों नहीं मानवीय स्वभाव को भावनात्मक विकास की दिशा देता। उसे समझना चाहिए कि मनुष्य जब तक अपनी भावनाओं की गहराई में नहीं उतरता, तब तक वह वस्तुतः आनन्द की प्राप्ति नहीं कर सकता, क्योंकि आनन्द भी तो एक भावना ही है। इस दर्शन से विमुख होने वाला मनुष्य केवल विज्ञान से उसी प्रकार सन्तुष्ट नहीं हो सकता, जिस प्रकार भरपेट भोजन मिल जाने पर पानी न मिलने से सन्तोष नहीं मिलता, वरन् मृत्यु की विभीषिका और उठ खड़ी होती है। व्यक्तिगत प्रेरणायें (इनडिविजुअल इनीशिएटिव) शिक्षा, न्याय या आदर्शवादी युद्ध (आइडियोलोजीकल वारफेयर), आर्थिक दृढ़ता आदि का सम्बन्ध मानवीय व्यवहार की मूलभूत प्रकृति से है। इन समस्याओं को हम तब तक हल नहीं कर सकेंगे जब तक अपना लक्ष्य और दृष्टिकोण नहीं निश्चित कर लेते। हमारा लक्ष्य और दृष्टिकोण हमारे भीतर हमारी चेतना में है। विज्ञान की खोजें इसी दिशा में सार्थक और सफल हो सकती हैं। बाह्य प्रकृति की विस्तृत गवेषणा में तो वह आप ही आप भटकेगा और मानव जाति को भी भटकाता रहेगा।
धर्म व विज्ञान में सामंजस्य अनिवार्य
धर्म और विज्ञान में क्या सम्बन्ध है? अथवा क्या विरोध है? इस विषय पर जब भी कुछ सोचते हैं तो ऐसा लगता है कि शताब्दी के प्रारम्भ से ही विज्ञान के परिणाम और धार्मिक विश्वासों में परस्पर स्पष्ट असहमति रही है। तुलना में, परिणामों में पूर्णतया विरोधाभास पाया गया। हम इस बात को सोचने के लिए विवश हैं कि या तो विज्ञान का पढ़ना-पढ़ाना छोड़ा जाये अथवा धार्मिक विश्वासों को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाये?
यह दोनों ही क्षेत्र अपने आपमें बड़े जबर्दस्त हैं। इसलिए गम्भीरतापूर्वक विचार किये बिना, इस प्रश्न को अधूरा छोड़ा जाना, मानव-जाति के लिए अहितकारक हो सकता है। धर्म और विज्ञान में क्या सम्बन्ध हों इस विषय में अन्तिम निर्णय ढूंढ़ना आवश्यक हो गया है।
धर्म और विज्ञान के पारस्परिक सम्बन्ध जानने के लिए यह आवश्यक है कि हम दोनों का सही-सही वास्तविक और पर्याप्त अर्थ जानें। दोनों के क्षेत्र जानना आवश्यक है। उनमें सम्बन्ध क्या है यह भी जानना आवश्यक है तभी धर्म और विज्ञान के सम्बन्ध का निर्णय दिया जाना सम्भव होगा।
सबसे पहले धर्म को लेते हैं। मनुष्य जीवन के आधारभूत अनुभवों का वर्णन ही सम्भवतः धर्म है। धार्मिक विचार हमें अपने जीवन की शुद्धता बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। यह निर्णय अतीत के लम्बे इतिहास का निष्कर्ष होता है। इसलिए उसमें कुछ भी सत्य न हो यह कहना भारी मूर्खता ही होगी।
‘‘धर्म मानव प्रकृति की वह क्रिया है जो ईश्वर की निरन्तर खोज करती है। जीवन को सुव्यवस्थित रूप देने के लिए भी धर्म आवश्यक है। व्यवहार कुशलता भी धर्म है’’ यह शब्द प्रसिद्ध दार्शनिक श्री प्रो. हृाहट हेड के हैं। भारतीय धर्म-दर्शन के अनुसार भी—‘‘वह सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान जो मानवीय आत्मा को धारण करता अर्थात् ऊपर उठाता है’’ उसमें अपने व्यावहारिक जीवन को शुद्ध सत्य और नैतिक बनाने से लेकर ईश्वर प्राप्त तक की सब विधायें आ जाती हैं।
विज्ञान पदार्थों के क्रमबद्ध ज्ञान को कहते हैं। हमारी मूल चेतना के बाद शरीर से लेकर आकाश और विराट् ग्रहपिण्डों तक यह जो प्रकृति दिखाई दे रही है वह क्या है और उसकी विविधता में परस्पर क्या सम्बन्ध है इस ज्ञान और प्रयोग का नाम ही विज्ञान है। मानव जीवन के लिए इसके उपयोग और आवश्यकता की बात पर हम अलग से विचार करेंगे।
धर्म और विज्ञान में मतभेद इसलिए दिखाई दे रहा है कि परिष्कृत ज्ञान को चाहे वह किसी भी क्षेत्र का रहा हो दोनों के सम्बन्ध ज्ञात करने के लिए उपयोग नहीं किया गया। दोनों अपने-अपने क्षेत्र बढ़ाने के इच्छुक अवश्य रहे हैं। बहुत समय पहले ईसाइयों, सन्तों में यह भावना घर कर गई थी कि उनके इस जीवन काल में ही संसार का नाश हो जायेगा। किन्तु ऐसा नहीं हुआ इस तरह उनका विश्वास गलत हो गया। इसके बाद ईसाई धर्म ने अपनी इस धारणा को सुधार लिया। ईसाई धर्म पृथ्वी को चपटी बताता था, सूर्य को स्थिर और नक्षत्रों को गतिमान बताता था किन्तु यह दोनों ही बातें गलत सिद्ध हुईं। पृथ्वी गोल सिद्ध हुई और सूर्य भी घूमता है यह भी सिद्ध हो गया। फिर भी बाइबिल की उपयोगिता और दृढ़ता अभी भी वैसी ही बनी हुई है, क्योंकि धर्म के नैतिक और आध्यात्मिक पहलू तो मनुष्य जीवन को हर घड़ी छूते रहते हैं। उनकी आवश्यकता और उपयोग को जब तक लोग मानते और ग्रहण करते रहेंगे तब तक धर्म के कुछ प्रतिपादन गलत सिद्ध हो जाने पर उसकी उपयोगिता नष्ट थोड़े ही हो जायेगी।
विज्ञान तो धर्म से भी अधिक परिवर्तनशील है। उसमें भी विचारों में परिवर्तन और नये तथ्यों का प्रवेश होता रहा है। दोनों ही परिवर्तनशील हैं। तर्कवादियों के अनुसार कोई भी विश्वास या तो बिलकुल सत्य होगा या झूठ। बीच की कोई बात सम्भव नहीं। किन्तु दैनिक जीवन के व्यवहार में यह आग्रह सच नहीं है। विशाल ब्रह्माण्ड में फैले हुए ज्ञान की तुलना में हमारी योग्यता अभी बहुत कम है। यदि ऋषियों की तरह हम भी असामान्य स्थिति में होते तो किसी बात के सत्य या असत्य का सीधे निर्णय ले सकते थे, किन्तु आज की स्थिति में यह सम्भव नहीं है, इसलिए जब तक हम मानव जीवन के उद्देश्य, यथार्थ तत्वदर्शन को नहीं जान लेते तब तक दोनों में समझौता रखना ही पड़ेगा। यह भी सम्भव है कि जिस प्रकार प्रकृति और परमेश्वर की सत्ता से इन शरीरों का निर्माण सदैव से ही रहा है, उसी प्रकार आत्मा के उभयपक्षीय विकास के लिए धर्म और विज्ञान हमेशा-हमेशा के लिए हमारे लिए उपयोगी और आवश्यक बने रहें।
विज्ञान और अध्यात्म को साथ-साथ चलना होगा
विज्ञान और अध्यात्म अन्योन्याश्रित हैं। एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की गति नहीं। विज्ञान हमारे साधनों को बढ़ाता है और अध्यात्म आत्मा को। आत्मा को खोकर साधनों की मात्रा कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो उनसे मनुष्य भोगी, व्यसनी, अहंकारी और स्वार्थी ही बनेगा। महत्वाकांक्षाएं मनुष्य को नीति तक सीमित नहीं रहने देतीं। आकुल-व्याकुल व्यक्ति कुछ भी कर गुजरता है, उसे अनीति अपनाने और कुकर्म करने में भी कोई झिझक नहीं होती। अध्यात्म चिन्तन को, आकांक्षाओं को क्रिया को उन मर्यादाओं की परिधि में बांधकर रखता है जिसमें व्यक्ति का चरित्र और समाज का व्यवस्था क्रम अक्षुण्ण बना रह सके। अस्तु दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में समान रूप से उपयोगी हैं।
ईसा कहते थे—मनुष्य केवल रोटी के सहारे नहीं जी सकता। साथ ही यह भी सही है कि मनुष्य रोटी के बिना नहीं जी सकता। इसलिए रोटी की व्यवस्था भी होनी चाहिए और उन तत्वों की भी जिनके बिना, मात्र रोटी की वह उपयोगिता नहीं रह जाती जिसके सहारे मनुष्य की आत्मा को जीवित रखा जा सके। रोटी केवल शरीर को जिन्दा रख सकती है जैसा कि खुराक के सहारे मक्खी, मच्छर आदि अन्य प्राणी जीवित रहते हैं।
भौतिक पदार्थों की विवेचना एवं उपलब्धि प्रस्तुत करने वाला विज्ञान मिथ्या नहीं हो सकता। वह सत्य है। सत्य के नियम होते हैं—झूठ के नहीं। विज्ञान नियमों पर आधारित है। स्वप्न का—मिथ्या का कोई नियम नहीं। यदि यह संसार मिथ्या होता तो उसमें कोई नियम क्रम दिखाई न पड़ता।
वैज्ञानिक दृष्टि का अर्थ है—मान्यताओं, आग्रहों, आस्थाओं की गुलामी से छुटकारा पाकर यथार्थता को समझ सकने योग्य विवेक का अवलम्बन। उसमें अन्ध-विश्वासों और परम्पराओं के लिए कोई स्थान नहीं। तथ्यों और प्रमाणों की कसौटी पर जो खरा उतरे उसी को अपनाना वस्तुतः सत्य की खोज है। इसे हटा देने पर अध्यात्म निष्प्राण ही नहीं, भ्रमोत्पादक और भय सम्वर्धक बन जाता है। हम निष्ठावान बनें, श्रद्धालु रहें, पर वह सब विवेक युक्त होना चाहिए। बुद्धि बेच कर मात्र परम्परावादी आग्रह अपनायें रहने से अध्यात्म का उद्देश्य और लाभ प्राप्त न हो सकेगा।
विज्ञान एवं धर्म अध्यात्म को एक दूसरे का विरोधी तक कहा जाता है, जब यथार्थ चिन्तन की अवज्ञा करके किन्हीं पूर्वाग्रहों के साथ ही चिपटे रहने पर बल दिया जा रहा हो। हम यह भूल जाते हैं कि प्रगति की ओर हम क्रमशः ही बढ़े हैं और यह अनादि काल से चला आ रहा क्रम अनन्त काल तक चलता रहेगा। जो पिछले लोगों ने सोचा या किया था वह अन्तिम था उसमें सुधार की गुंजाइश नहीं यह मान बैठने से प्रगति पथ अवरुद्ध हो जाता है और सत्य की खोज के लिए बढ़ते चलने वाले हमारे कदम रुक जाते हैं। विज्ञान ने अपने को भूत पूजा से मुक्त रखा है और पिछली जानकारियों से लाभ उठा कर आगे की उपलब्धियों के लिए प्रयास जारी रखा है। अस्तु वह क्रमशः अधिकाधिक सफल समुन्नत होता चला गया। अध्यात्म ने ऐसा नहीं किया उसने ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्’ की नीति अपनाई। समय आगे बढ़ गया, पर आग्रह शीलता की बेड़ियों ने मनुष्य को उन्हीं मान्यताओं के साथ जकड़े रखा जो भूत काल की तरह अब उपयोगी नहीं समझी जातीं। पूर्वजों से आगे की बात सोचना उनका अपमान करना है ऐसा सोचना क्रमशः आगे बढ़ते चले आने के सार्वभौम नियम को झुठला देना है।
इस पृथ्वी के जन्म के समय क्या परिस्थितियां थीं और आदिम काल का मनुष्य कैसा था, इसे जानने के उपरान्त आज की परिस्थितियों के साथ तुलना करने पर मध्यवर्ती इतिहास देखना पड़ता है। उस निरीक्षण से स्पष्ट हो जाता है कि यह प्रगति क्रमशः ही सम्भव हुई है। आगे कदम बढ़ाने के लिए पैर को वह स्थान छोड़ना पड़ता है जहां वह पहले जमा हुआ था। पिछले स्थान से पैर न उठाया जाय तो वह आगे कैसे बढ़ सकेगा? विज्ञान ने इस तथ्य को स्वीकारा और अपनाया है किन्तु अध्यात्म को न जाने क्यों इस प्रकार का साहस संचय करने में हिचकिचाहट रही है।
पिछले दिनों विज्ञान में अपनी पूर्व निर्धारित ऐसी मान्यताओं को बहिष्कृत कर दिया जो किसी समय सर्वमान्य रही हैं, पर नवीनतम खोजों ने उन्हें झुठला दिया है। इन बहिष्कृत मान्यताओं में कुछ इस प्रकार हैं—(1) सौर-मंडल का केन्द्र पृथ्वी है। (2) तारक का आकार विस्तार और उनकी एक दूसरे से दूरी सम्बन्धी मान्यताएं (3) ग्रह तारक व्यक्ति विशेष पर अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। (4) पृथ्वी चपटी है। (5) पृथ्वी कुछ हजार वर्ष ही पुरानी है। (6) ऊपर से गिराने पर हल्की की अपेक्षा भारी वस्तु जल्दी नीचे गिरेगी। (7) वस्तुएं तभी गति करती हैं जब उनमें बल लगाया जाय (8) पदार्थ को ऊर्जा में नहीं बदला जा सकता। (9) ब्रह्माण्ड स्थिर है। (10) प्रकृति रिक्तता (बैकुम) से घृणा करती है और कहीं पोल नहीं रखना चाहती। (11) जीव विज्ञान की किस्में अपरिवर्तनीय हैं। (12) जीव उत्पत्ति के लिए अमुक जीव कोष ही उत्तरदायी है। (13) पानी और हवा मूल तत्व है। (14) परमाणु पदार्थ की अन्तिम न्यूनतम और अखंडित इकाई है। आदि ऐसी अगणित मान्यताएं ऐसी हैं जिन्हें अवास्तविक ठहरा दिया गया है फिर भी उनके प्रतिपादनकर्ताओं का सम्मान यथावत् बनाये रखा गया है। कारण कि जिस समय उन्होंने यह मान्यताएं प्रचलित की थीं उस समय की प्रचलित मान्यताएं और भी अधिक पिछड़ी हुई थीं। उन दिनों उस प्रतिपादनों को भी क्रान्तिकारी माना गया है। प्रगति के पथ पर चलते हुए सत्य की दिशा में जो कुछ इस समय जाना माना गया है आवश्यक नहीं कि वह भविष्य में भी इसी तरह माना जाता रहे। इस बात की पूरी सम्भावना है कि अब की अपेक्षा भावी प्रतिपादन और भी अधिक क्रान्तिकारी माने जायं। ऐसी स्थिति का आज के वैज्ञानिक सहर्ष स्वागत करने के लिए तैयार हैं।
धर्म की व्यावहारिक मान्यताओं में भी क्रमशः परिवर्तन होता आया है यद्यपि कहा यही जाता है कि धर्म सनातन और शाश्वत है। बारीकी से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म न तो अनादि और न अनन्त। वह स्थिर भी नहीं है और अपरिवर्तनशील भी नहीं। उसका जाने-अनजाने क्रमिक विकास होता रहा है। इस स्थिति को सुधारवाद कहा जा सकता है। धर्मवेत्ता, मनीषी, अवतारी, देवदूत समय-समय पर इसी प्रयोजन के लिए अवतरित होते रहे हैं कि न केवल परिस्थिति को वरन् तत्कालीन लोक मनःस्थिति को भी बदलें। उनने अपने से पूर्व के प्रचलनों के स्थान पर ऐसे प्रतिपादन प्रस्तुत किये जिन्हें उस समय निश्चित रूप से क्रान्तिकारी समझा गया है और तत्कालीन पुरातन पंथियों ने उसका घोर विरोध भी किया था।
जूलियन हक्सले ने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि विज्ञान की तरह ही अध्यात्म का आधार भी तथ्यों को रखा जाना चाहिए। लोभ और भय से उसे मुक्त किया जाना चाहिए, काल्पनिक मान्यताओं का निराकरण होना चाहिए और चेतना को परिष्कृत कराने की उसकी मूल दिशा एवं क्षमता को प्रभावी बनाया जाना चाहिए।