Books - दुनिया नष्ट नहीं होगी, श्रेष्ठतर बनेगी
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Language: HINDI
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आदर्श सामाजिक व्यवस्था
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मनुष्य की संरचना सामाजिक प्राणी के रूप में हुई है। उसे जो कुछ मिला है समाज के सहयोग एवं अनुदान द्वारा ही उपलब्ध हुआ है। अस्तु समाज को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने में भी उसका योगदान होना चाहिए। यह कार्य परिवार रूपी छोटे समाज से आरम्भ किया जाना चाहिए। आवश्यक नहीं कि अपने स्त्री-बच्चों को ही परिवार माना जाय। जिस समुदाय में खाने, सोने एवं मिलजुल कर रहने का प्रसंग बनता है, वह परिवार ही है।
इस समुदाय को अपने अवयवों की तरह माना जाय और उसे समाज का एक छोटा रूप मानकर उद्यान के माली की तरह सेवारत रहा जाय। हिलमिलकर रहने मिल बाँट-बाँटकर खाने तथा हँसती-हँसाती जिन्दगी जीने की नीति ही पारिवारिकता है। प्रज्ञा युग का हर मनुष्य शरीर निर्वाह की तरह पारिवारिकता में भी पूरा रस लेगा और प्रयत्नरत रहेगा।
धरती के उपार्जन शक्ति से कहीं अधिक इन दिनों जनसंख्या का भार बढ़ गया है। अब सन्तान भार बढ़ाने की कहीं कोई गुंजाइश नहीं रही। पिता पर अर्थ-संकट, माता पर रुग्णता और अकाल मृत्यु का आक्रमण, अभाव-ग्रस्त बालकों का दयनीय भविष्य, प्रस्तुत परिवार का हक बँटाना-राष्ट्रीय प्रगति और विश्व व्यवस्था में भयानक गतिरोध जैसे अनेकों अभिशाप इन दिनों सन्तान बढ़ाने की मूर्खता के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं।
कभी प्रजनन को सैभाग्य कहा और प्रोत्साहन दिया जाता रहा होगा, पर आज तो उसे विपत्ति को प्रत्यक्ष आमन्त्रण देना ही कहा जा सकता है। प्रज्ञायुग का हर विचारशील सन्तानोत्पादन से बचेगा और यदि वात्सल्य आनन्द लेने का मन होगा, तो किसी को गोद लेने की अपेक्षा अनेकों असहाय बालकों को पालने और सुयोग्य बनाने का भार ग्रहण करेगा।
त्रिवेणी संगम की तरह सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की समग्र साधना व्यक्ति, परिवार और समाज की त्रिविधि संरचना से ही सम्भव होती है। तीनों के बीच सघन तालमेल रहने और परस्पर सहयोगी बने रहने से ही सुख, शान्ति और प्रगति की भूमिका बनती है। इस तथ्य से अवगत होने के कारण प्रज्ञा युग का मनुष्य आज की तरह संकीर्ण स्वार्थपरता में ही निरत न रहेगा। वरन् व्यक्तित्व को प्रखर, प्रामाणिक एवं परिवार को सुसंस्कारी, स्वावलम्बी बनाने के लिए गम्भीरतापूर्वक ध्यान देगा। और उसके लिए भावभरी तत्परता के साथ प्रयत्न करेगा।
आधार बनेंगे श्रेष्ठ परिवार -
परिवार निर्माण के माध्यम से संचालक लोग संयमी, दूरदर्शी एवं उदारमना बनते हैं, साथ ही उस वातावरण में पलने वाले को नर-रत्न बनने का अवसर मिलेगा। व्यक्तित्व और परिवार को एक-दूसरे का अगले दिनों पूरक माना जाएगा और संयुक्त परिवार की वैज्ञानिक आचार संहिता विकसित होगी।
प्रज्ञा युग में हर व्यक्ति परिवार बसाने से पहले हजार बार विचार करेगा कि क्या उसमें साथी की प्रगति तथा सुविधा के लिए समुचित साधन जुटाने की सामर्थ्य है। क्या उसमें नये बालकों को सुसंस्कारी, सम्भ्रान्त एवं स्वावलम्बी नागरिक बना सकने की योग्यता है। यदि है तो समय एवं धन की कितनी मात्रा साथी तथा नई पीढ़ी के लिए लगा सकने की स्थिति बन सकती है। इन सभी बातों का गम्भीरतापूर्वक पर्यवेक्षण करने के उपरान्त ही विवाह का साहस किया जाया करेगा और सन्तान उत्पन्न करने से पूर्व हजार बार विचार किया जाया करेगा कि इस नई जिम्मेदारी को वहन करने के लिए पत्नी का स्वास्थ्य, पति का उपार्जन, घर का वातावरण उपयुक्त स्तर का है या नहीं। जितनी निश्चित स्थिति होगी उससे अधिक बड़ा कदम बढ़ाने का कोई दुस्साहस न करेगा। समुचित परिपालन की क्षमता न रहने पर भी बच्चे उत्पन्न करना अपना, पत्नी का, बच्चों का तथा समूचे राष्ट्र का भविष्य अंधकारमय बनाने वाला अभिशाप गिना जाएगा।
विवाह कामुकता की तृप्ति के लिए, रूप सौन्दर्य से खेलने के लिए नहीं-वरन् साथी को स्नेह, सहयोग, सम्मान देकर जीवन की अपूर्णता दूर करने एवं मिलजुलकर अधिक उच्चस्तरीय प्रगति करने की आदर्शवादिता से प्रेरित होकर ही किये जाया करेंगे।
एक दूसरे को निभाएँगे, सहिष्णु रहेंगे। मिलजुलकर किसी निर्णय पर पहुँचेंगे। अधिकार या आग्रह न थोपेंगे। मतभेद सामान्य हो और उनके कारण कोई विग्रह उत्पन्न न हो तो इतनी उदारता भी रहनी चाहिए कि भिन्न प्रकृति की भिन्नताओं को दरगुजर किया जाता रहे। इन दिनों स्त्रियों को दासी की तरह प्रयुक्त किया जाता है, यह प्रथा उलटकर उन्हें समान अधिकार वाली सहयोगिनी का सम्मान भरा स्थान मिलेगा। शृंगार सज्जा को नारी की आन्तरिक हीनता तथा दुर्गति का चिह्न मानकर उसे अनुपयुक्त ठहराया जायेगा।
प्रज्ञा युग में हर गृहस्थ को धरती के स्वर्ग की तरह स्नेह, सद्भाव, एवं उत्साह, उल्लास से भरा-पूरा पाया जायेगा। क्योंकि उसके सभी सदस्य श्रमशीलता, सुव्यवस्था, मितव्ययिता, उदार-सहकारिता और सुसंस्कारी सज्जनता के पंचशीलों को सुख-शांति का आधारभूत कारण होने की बात पर सच्चे मन से विश्वास करेंगे। संयुक्त संस्था के रूप में सभी परिजन उसे समुन्नत बनाने में अपने-अपने हिस्से का अनुदान प्रस्तुत करने की बात सोचेंगे, न कि जिसके पल्ले जो पड़े उतना ले भागने का उचक्कापन बरतें। सभी मिलकर परिवार में सुव्यवस्था एवं सद्भावना का ऐसा वातावरण बनायेंगे जिसके द्वारा वर्तमान से भी अधिक प्रसन्नता का अनुभव करें और उसमें रहते, पलते हुए उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ स्पष्ट रूप में झाँकती अनुभव करेंगे। ऐसे सुसंस्कृत परिवार ही नर-रत्नों की खदान बनते और उसके संचालकों को धन्य बनाते हैं।
परिवार के सदस्यों की शरीर यात्रा, अर्थ व्यवस्था, सुख-सुविधा एवं प्रगति-सुरक्षा का प्रबन्ध तो प्रज्ञा युग में भी चलेगा; पर एक विशेषता अनिवार्य रूप से जुड़ी रहेगी कि अधिकार घटाने और कर्त्तव्य पालन बढ़ाने की दृष्टि से हर सदस्य अपने-अपने ढंग से प्रयास करें और पिछड़ने में लज्जा अनुभव करें। परिवारों को सुसंस्कारिता प्रशिक्षण की पाठशाला बनाया जायेगा और उस कारखाने में ढल-ढलकर नर-रत्न निकला करेंगे। परिवार का सारा ढाँचा, कार्यक्रम एवं विधि-विधान इस प्रकार बनेगा कि उसके सभी सदस्यों को श्रमशीलता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, सज्जनता, सहकारिता जैसी सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव में सम्मिलित करने का अवसर मिलता रहे। परिजन उदात्त दृष्टिकोंण, सघन आत्म-भाव, शालीन-सद्व्यवहार और सघन सहयोग देखकर ही परिवारों की सार्थकता और प्रगति का मूल्यांकन किया करेंगे।
न तो अभिभावक सन्तान से वंश चलने, पिण्डदान मिलने, सेवा सहायता पाने की अपेक्षा रखें और न सन्तान अपने अभिभावकों की छोड़ी सम्पदा के सहारे गुलछर्रे उड़ाने की बात सोचें। दोनों के बीच विशुद्ध स्नेह सद्भाव का रिश्ता होगा और एक-दूसरे के प्रति कर्त्तव्य पालन करते हुए अपनी श्रद्धा शालीनता बढ़ाने का अभ्यास करेंगे। कन्या और पुत्र के बीच कहीं कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। दोनों को समान स्नेह सम्मान एवं महत्त्व मिलेगा। सन्तानों के विवाह की तब तक जल्दी न की जायेगी जब तक वे स्वावलम्बी और नये गृहस्थ के अनेकानेक उत्तरदायित्वों का भार उठाने में समर्थ न हो जायें। सन्तान में अमीरों की महत्त्वाकांक्षा न भड़काई जाय। और न आलसी, विलासी,अहंकारी बनने जैसी सुविधा प्रदान की जाय। सुसंस्कारिता प्रदान करना ही सन्तान की सबसे बड़ी सेवा सहायता मानी जायेगी।
कुछ अपवादों को छोड़कर हर काम नियत समय पर पूरा करना,वस्तुओं को यथास्थान सुरक्षित एवं सुसज्जित रखना, फैशन को छछोरपन मानकर उससे बचना, दूर रहना, सादगी और स्वच्छता से सुरुचि का परिचय देना, बजट बनाकर आमदनी से कम खर्च करना और बचत की थोड़ी गुंजाइश रखना, एक-दूसरे का हाथ बँटाना, सहानुभूति और सहयोग का रुख रखना, नम्रता और मिठास भरा व्यवहार करना, चरणस्पर्श और अभिवादन का परिपालन, शिष्टाचार, अनुशासन का निर्वाह, स्वच्छता और सुसज्जा के लिए मिलजुलकर प्रयास करना, टूट-फूट की मरम्मत एक उपयोगी कला-कौशल के रूप में सीखना और प्रयुक्त करना, घर में जहाँ भी स्थान हो पुष्प, बेलें एवं शाक-भाजी उगाना जैसी प्रथा परम्परा घर में डालना जैसे प्रचलन अभ्यास में उतर सकें तो हर घर में स्वर्गीय वातावरण बन सकता है। रात्रि को कथा प्रवचन, प्रातः सायं पूजा आरती, सहगान कीर्तन जैसे धर्म-कृत्यों से भी परिवार को आस्थावान बनने का अवसर मिलता है।
इस समुदाय को अपने अवयवों की तरह माना जाय और उसे समाज का एक छोटा रूप मानकर उद्यान के माली की तरह सेवारत रहा जाय। हिलमिलकर रहने मिल बाँट-बाँटकर खाने तथा हँसती-हँसाती जिन्दगी जीने की नीति ही पारिवारिकता है। प्रज्ञा युग का हर मनुष्य शरीर निर्वाह की तरह पारिवारिकता में भी पूरा रस लेगा और प्रयत्नरत रहेगा।
धरती के उपार्जन शक्ति से कहीं अधिक इन दिनों जनसंख्या का भार बढ़ गया है। अब सन्तान भार बढ़ाने की कहीं कोई गुंजाइश नहीं रही। पिता पर अर्थ-संकट, माता पर रुग्णता और अकाल मृत्यु का आक्रमण, अभाव-ग्रस्त बालकों का दयनीय भविष्य, प्रस्तुत परिवार का हक बँटाना-राष्ट्रीय प्रगति और विश्व व्यवस्था में भयानक गतिरोध जैसे अनेकों अभिशाप इन दिनों सन्तान बढ़ाने की मूर्खता के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं।
कभी प्रजनन को सैभाग्य कहा और प्रोत्साहन दिया जाता रहा होगा, पर आज तो उसे विपत्ति को प्रत्यक्ष आमन्त्रण देना ही कहा जा सकता है। प्रज्ञायुग का हर विचारशील सन्तानोत्पादन से बचेगा और यदि वात्सल्य आनन्द लेने का मन होगा, तो किसी को गोद लेने की अपेक्षा अनेकों असहाय बालकों को पालने और सुयोग्य बनाने का भार ग्रहण करेगा।
त्रिवेणी संगम की तरह सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की समग्र साधना व्यक्ति, परिवार और समाज की त्रिविधि संरचना से ही सम्भव होती है। तीनों के बीच सघन तालमेल रहने और परस्पर सहयोगी बने रहने से ही सुख, शान्ति और प्रगति की भूमिका बनती है। इस तथ्य से अवगत होने के कारण प्रज्ञा युग का मनुष्य आज की तरह संकीर्ण स्वार्थपरता में ही निरत न रहेगा। वरन् व्यक्तित्व को प्रखर, प्रामाणिक एवं परिवार को सुसंस्कारी, स्वावलम्बी बनाने के लिए गम्भीरतापूर्वक ध्यान देगा। और उसके लिए भावभरी तत्परता के साथ प्रयत्न करेगा।
आधार बनेंगे श्रेष्ठ परिवार -
परिवार निर्माण के माध्यम से संचालक लोग संयमी, दूरदर्शी एवं उदारमना बनते हैं, साथ ही उस वातावरण में पलने वाले को नर-रत्न बनने का अवसर मिलेगा। व्यक्तित्व और परिवार को एक-दूसरे का अगले दिनों पूरक माना जाएगा और संयुक्त परिवार की वैज्ञानिक आचार संहिता विकसित होगी।
प्रज्ञा युग में हर व्यक्ति परिवार बसाने से पहले हजार बार विचार करेगा कि क्या उसमें साथी की प्रगति तथा सुविधा के लिए समुचित साधन जुटाने की सामर्थ्य है। क्या उसमें नये बालकों को सुसंस्कारी, सम्भ्रान्त एवं स्वावलम्बी नागरिक बना सकने की योग्यता है। यदि है तो समय एवं धन की कितनी मात्रा साथी तथा नई पीढ़ी के लिए लगा सकने की स्थिति बन सकती है। इन सभी बातों का गम्भीरतापूर्वक पर्यवेक्षण करने के उपरान्त ही विवाह का साहस किया जाया करेगा और सन्तान उत्पन्न करने से पूर्व हजार बार विचार किया जाया करेगा कि इस नई जिम्मेदारी को वहन करने के लिए पत्नी का स्वास्थ्य, पति का उपार्जन, घर का वातावरण उपयुक्त स्तर का है या नहीं। जितनी निश्चित स्थिति होगी उससे अधिक बड़ा कदम बढ़ाने का कोई दुस्साहस न करेगा। समुचित परिपालन की क्षमता न रहने पर भी बच्चे उत्पन्न करना अपना, पत्नी का, बच्चों का तथा समूचे राष्ट्र का भविष्य अंधकारमय बनाने वाला अभिशाप गिना जाएगा।
विवाह कामुकता की तृप्ति के लिए, रूप सौन्दर्य से खेलने के लिए नहीं-वरन् साथी को स्नेह, सहयोग, सम्मान देकर जीवन की अपूर्णता दूर करने एवं मिलजुलकर अधिक उच्चस्तरीय प्रगति करने की आदर्शवादिता से प्रेरित होकर ही किये जाया करेंगे।
एक दूसरे को निभाएँगे, सहिष्णु रहेंगे। मिलजुलकर किसी निर्णय पर पहुँचेंगे। अधिकार या आग्रह न थोपेंगे। मतभेद सामान्य हो और उनके कारण कोई विग्रह उत्पन्न न हो तो इतनी उदारता भी रहनी चाहिए कि भिन्न प्रकृति की भिन्नताओं को दरगुजर किया जाता रहे। इन दिनों स्त्रियों को दासी की तरह प्रयुक्त किया जाता है, यह प्रथा उलटकर उन्हें समान अधिकार वाली सहयोगिनी का सम्मान भरा स्थान मिलेगा। शृंगार सज्जा को नारी की आन्तरिक हीनता तथा दुर्गति का चिह्न मानकर उसे अनुपयुक्त ठहराया जायेगा।
प्रज्ञा युग में हर गृहस्थ को धरती के स्वर्ग की तरह स्नेह, सद्भाव, एवं उत्साह, उल्लास से भरा-पूरा पाया जायेगा। क्योंकि उसके सभी सदस्य श्रमशीलता, सुव्यवस्था, मितव्ययिता, उदार-सहकारिता और सुसंस्कारी सज्जनता के पंचशीलों को सुख-शांति का आधारभूत कारण होने की बात पर सच्चे मन से विश्वास करेंगे। संयुक्त संस्था के रूप में सभी परिजन उसे समुन्नत बनाने में अपने-अपने हिस्से का अनुदान प्रस्तुत करने की बात सोचेंगे, न कि जिसके पल्ले जो पड़े उतना ले भागने का उचक्कापन बरतें। सभी मिलकर परिवार में सुव्यवस्था एवं सद्भावना का ऐसा वातावरण बनायेंगे जिसके द्वारा वर्तमान से भी अधिक प्रसन्नता का अनुभव करें और उसमें रहते, पलते हुए उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ स्पष्ट रूप में झाँकती अनुभव करेंगे। ऐसे सुसंस्कृत परिवार ही नर-रत्नों की खदान बनते और उसके संचालकों को धन्य बनाते हैं।
परिवार के सदस्यों की शरीर यात्रा, अर्थ व्यवस्था, सुख-सुविधा एवं प्रगति-सुरक्षा का प्रबन्ध तो प्रज्ञा युग में भी चलेगा; पर एक विशेषता अनिवार्य रूप से जुड़ी रहेगी कि अधिकार घटाने और कर्त्तव्य पालन बढ़ाने की दृष्टि से हर सदस्य अपने-अपने ढंग से प्रयास करें और पिछड़ने में लज्जा अनुभव करें। परिवारों को सुसंस्कारिता प्रशिक्षण की पाठशाला बनाया जायेगा और उस कारखाने में ढल-ढलकर नर-रत्न निकला करेंगे। परिवार का सारा ढाँचा, कार्यक्रम एवं विधि-विधान इस प्रकार बनेगा कि उसके सभी सदस्यों को श्रमशीलता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, सज्जनता, सहकारिता जैसी सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव में सम्मिलित करने का अवसर मिलता रहे। परिजन उदात्त दृष्टिकोंण, सघन आत्म-भाव, शालीन-सद्व्यवहार और सघन सहयोग देखकर ही परिवारों की सार्थकता और प्रगति का मूल्यांकन किया करेंगे।
न तो अभिभावक सन्तान से वंश चलने, पिण्डदान मिलने, सेवा सहायता पाने की अपेक्षा रखें और न सन्तान अपने अभिभावकों की छोड़ी सम्पदा के सहारे गुलछर्रे उड़ाने की बात सोचें। दोनों के बीच विशुद्ध स्नेह सद्भाव का रिश्ता होगा और एक-दूसरे के प्रति कर्त्तव्य पालन करते हुए अपनी श्रद्धा शालीनता बढ़ाने का अभ्यास करेंगे। कन्या और पुत्र के बीच कहीं कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। दोनों को समान स्नेह सम्मान एवं महत्त्व मिलेगा। सन्तानों के विवाह की तब तक जल्दी न की जायेगी जब तक वे स्वावलम्बी और नये गृहस्थ के अनेकानेक उत्तरदायित्वों का भार उठाने में समर्थ न हो जायें। सन्तान में अमीरों की महत्त्वाकांक्षा न भड़काई जाय। और न आलसी, विलासी,अहंकारी बनने जैसी सुविधा प्रदान की जाय। सुसंस्कारिता प्रदान करना ही सन्तान की सबसे बड़ी सेवा सहायता मानी जायेगी।
कुछ अपवादों को छोड़कर हर काम नियत समय पर पूरा करना,वस्तुओं को यथास्थान सुरक्षित एवं सुसज्जित रखना, फैशन को छछोरपन मानकर उससे बचना, दूर रहना, सादगी और स्वच्छता से सुरुचि का परिचय देना, बजट बनाकर आमदनी से कम खर्च करना और बचत की थोड़ी गुंजाइश रखना, एक-दूसरे का हाथ बँटाना, सहानुभूति और सहयोग का रुख रखना, नम्रता और मिठास भरा व्यवहार करना, चरणस्पर्श और अभिवादन का परिपालन, शिष्टाचार, अनुशासन का निर्वाह, स्वच्छता और सुसज्जा के लिए मिलजुलकर प्रयास करना, टूट-फूट की मरम्मत एक उपयोगी कला-कौशल के रूप में सीखना और प्रयुक्त करना, घर में जहाँ भी स्थान हो पुष्प, बेलें एवं शाक-भाजी उगाना जैसी प्रथा परम्परा घर में डालना जैसे प्रचलन अभ्यास में उतर सकें तो हर घर में स्वर्गीय वातावरण बन सकता है। रात्रि को कथा प्रवचन, प्रातः सायं पूजा आरती, सहगान कीर्तन जैसे धर्म-कृत्यों से भी परिवार को आस्थावान बनने का अवसर मिलता है।