Books - दुनिया नष्ट नहीं होगी, श्रेष्ठतर बनेगी
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Language: HINDI
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परिवर्तन का दैवी चक्र
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दैवी कृतियों को चमत्कार कहा जाता है। वह घोर अन्धेरे के बीच न जाने कहाँ से सूर्य का गरमागरम गोला निकाल देते हैं। चिर अभ्यास में आ जाने के कारण वे अजनबी प्रतीत नहीं होते। पर वस्तुतः है तो सही। आकाश में न जाने कहाँ से बादल आ जाते हैं और न जाने किस प्रकार बरस कर सारा जल जंगल एक कर देते हैं। यह अचम्भा ही अचम्भा है। सर्वनाशी युद्ध की खिंची हुई तलवार यदि म्यान में वापस लौट सकती हों, तो समझदारी को अपनी जानकारी में एक बात और भी सम्मिलित करना चाहिए कि देशों का वर्तमान विभाजन कारणों की दृष्टि से भी और परिणामों की दृष्टि से भी जितना अस्वाभाविक और अहितकर है, उसे बदलना पड़ेगा।
यह बदलाव इस दृष्टि से नहीं होगा कि कौन सा गुट कितना समर्थ है और मांस का कितना बड़ा टुकड़ा उखाड़ ले जाता है। वरन् इस दृष्टि से होगा कि आदमी को आखिर इसी धरती पर रहना है। चैन से रहना है। देर तक रहना है। यदि सचमुच ऐसा ही है तो रोज-रोज की खिच-खिच करने की अपेक्षा यह अधिक अच्छा है कि एक बार बैठकर शान्त चित्त से विचार कर लिया जाय और जो कुछ भी भला-बुरा निश्चित करना हो कर लिया जाय। यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि किश्तों में (एक-एक करके) नहीं एक मुश्त फैसला होना है।
आदमी खण्डित नहीं रहेगा। एक जाति, वर्ग, लिंग की दीवारों में उसे खण्डित नहीं रखा जा सकता। इस प्रकार भूमि के टुकड़े इस दृष्टि से मान्यता प्राप्त नहीं कर सकते कि किस समुदाय ने कितने क्षेत्र पर किस प्रकार कब्जा किया हुआ है। पुरातन की दुहाई देने में अब कोई लाभ नहीं। चिर पुरातन चिर नवीन में परिवर्तित किया जाना है। जब धरती बनी और आदमी उगा तब देश जाति की कोई क्षेत्रीय विभाजन रेखा नहीं थी। आदमी अपनी सुविधानुसार कहीं भी आ जा सकता था। जहाँ जीवनोपयोगी साधन मिलते थे, वहीं पर रम सकता था। आदमी की आदत समेटने की है खदेड़ने की नहीं। इसलिए उसने परिवार मुहल्ले, गाँव बसाना आरम्भ किया। अब क्या ऐसी आफत आ गयी जो आपस में मिलजुलकर नहीं रहा जा सकता, मिल बाँटकर नहीं खाया जा सकता। जो अधिक समेटने की कोशिश करेगा वह ईर्ष्या का भाजन बनेगा और अधिक घाटे में रहेगा। जिसके पास अधिक है वह ईश्वर का अधिक प्यारा है, अधिक पुण्यात्मा या अधिक भाग्यवान् है, यह कथन, प्रतिपादन अब अमान्य ठहरा दिये गये हैं।
बात कठिन है। युद्ध का रुकना भी कठिन है। जिसे इस कठिनाई से सरल हो जाने पर विश्वास हो, उसे उसी मान्यता में एक कड़ी और भी जोड़नी होगी कि संसार का नया नक्शा और नया विधि-विधान बनेगा। यह पुरातन कलेवर तो बहुत पुराना हो गया है। उसकी चिन्दियाँ और धज्जियाँ उड़ गयी हैं। उसे सीं-सिवा कर काम नहीं चल सकता। यह बहुत छोटी दुनियाँ का है। अब वह (दुनिया) तीन वर्ष की (बच्ची) नहीं रही, तेईस वर्ष की (युवती)हो गयी है। इसलिये समूचे आच्छादन को नये सिरे से बदलना पड़ेगा।
शासनाध्यक्षों को नये ढंग से सोचने के लिए हम विवश करेंगे कि वे लड़ाई की बात न सोचें। बढ़े हुये कदम वापस लौटायें। खुली तलवारें वापस म्यान में करें। इसके साथ ही मनीषियों को यह मानने के लिए विवश करेंगे कि दुनिया के वर्तमान गठन को अनुपयुक्त घोषित करें और हर किसी को बतायें कि चिरपुरातन ने दम तोड़ दिया और उसके स्थान पर नित नवीन को अब परिस्थितियों के अनुरूप नूतन कलेवर धारण करना पड़ रहा है। एक दुनिया-एक राष्ट्र की मान्यता अब सिद्धान्त क्षेत्र तक सीमित न रहेगी। उसके अनुरूप ताना-बाना बुना जाएगा और वह बनेगा जिसमें विश्व की एकता-विश्व मानव की एकता का व्यवहार दर्शन न केवल समझा वरन् अपनाया भी जा सके। इसके लिये विश्व चिन्तन में ऐसी उथल-पुथल होगी, जिसे उल्टे को उलट कर सीधा करना कहा जा सके।
यह बदलाव इस दृष्टि से नहीं होगा कि कौन सा गुट कितना समर्थ है और मांस का कितना बड़ा टुकड़ा उखाड़ ले जाता है। वरन् इस दृष्टि से होगा कि आदमी को आखिर इसी धरती पर रहना है। चैन से रहना है। देर तक रहना है। यदि सचमुच ऐसा ही है तो रोज-रोज की खिच-खिच करने की अपेक्षा यह अधिक अच्छा है कि एक बार बैठकर शान्त चित्त से विचार कर लिया जाय और जो कुछ भी भला-बुरा निश्चित करना हो कर लिया जाय। यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि किश्तों में (एक-एक करके) नहीं एक मुश्त फैसला होना है।
आदमी खण्डित नहीं रहेगा। एक जाति, वर्ग, लिंग की दीवारों में उसे खण्डित नहीं रखा जा सकता। इस प्रकार भूमि के टुकड़े इस दृष्टि से मान्यता प्राप्त नहीं कर सकते कि किस समुदाय ने कितने क्षेत्र पर किस प्रकार कब्जा किया हुआ है। पुरातन की दुहाई देने में अब कोई लाभ नहीं। चिर पुरातन चिर नवीन में परिवर्तित किया जाना है। जब धरती बनी और आदमी उगा तब देश जाति की कोई क्षेत्रीय विभाजन रेखा नहीं थी। आदमी अपनी सुविधानुसार कहीं भी आ जा सकता था। जहाँ जीवनोपयोगी साधन मिलते थे, वहीं पर रम सकता था। आदमी की आदत समेटने की है खदेड़ने की नहीं। इसलिए उसने परिवार मुहल्ले, गाँव बसाना आरम्भ किया। अब क्या ऐसी आफत आ गयी जो आपस में मिलजुलकर नहीं रहा जा सकता, मिल बाँटकर नहीं खाया जा सकता। जो अधिक समेटने की कोशिश करेगा वह ईर्ष्या का भाजन बनेगा और अधिक घाटे में रहेगा। जिसके पास अधिक है वह ईश्वर का अधिक प्यारा है, अधिक पुण्यात्मा या अधिक भाग्यवान् है, यह कथन, प्रतिपादन अब अमान्य ठहरा दिये गये हैं।
बात कठिन है। युद्ध का रुकना भी कठिन है। जिसे इस कठिनाई से सरल हो जाने पर विश्वास हो, उसे उसी मान्यता में एक कड़ी और भी जोड़नी होगी कि संसार का नया नक्शा और नया विधि-विधान बनेगा। यह पुरातन कलेवर तो बहुत पुराना हो गया है। उसकी चिन्दियाँ और धज्जियाँ उड़ गयी हैं। उसे सीं-सिवा कर काम नहीं चल सकता। यह बहुत छोटी दुनियाँ का है। अब वह (दुनिया) तीन वर्ष की (बच्ची) नहीं रही, तेईस वर्ष की (युवती)हो गयी है। इसलिये समूचे आच्छादन को नये सिरे से बदलना पड़ेगा।
शासनाध्यक्षों को नये ढंग से सोचने के लिए हम विवश करेंगे कि वे लड़ाई की बात न सोचें। बढ़े हुये कदम वापस लौटायें। खुली तलवारें वापस म्यान में करें। इसके साथ ही मनीषियों को यह मानने के लिए विवश करेंगे कि दुनिया के वर्तमान गठन को अनुपयुक्त घोषित करें और हर किसी को बतायें कि चिरपुरातन ने दम तोड़ दिया और उसके स्थान पर नित नवीन को अब परिस्थितियों के अनुरूप नूतन कलेवर धारण करना पड़ रहा है। एक दुनिया-एक राष्ट्र की मान्यता अब सिद्धान्त क्षेत्र तक सीमित न रहेगी। उसके अनुरूप ताना-बाना बुना जाएगा और वह बनेगा जिसमें विश्व की एकता-विश्व मानव की एकता का व्यवहार दर्शन न केवल समझा वरन् अपनाया भी जा सके। इसके लिये विश्व चिन्तन में ऐसी उथल-पुथल होगी, जिसे उल्टे को उलट कर सीधा करना कहा जा सके।