Books - दूसरों के दोष-दुर्गुण ही न देखा करें
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Language: HINDI
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ईर्ष्या की आग में मत जल मरिये
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ईर्ष्या विष भरी घूंट है जिसके पीने पर कोई भी मनुष्य, अपने जीवन के सौन्दर्य और आनन्द को अपने हाथों नष्ट कर देता है और उसमें अन्दर ही अन्दर एक भयंकर आग सुलगती है जो उसे निरन्तर जलाये रहती है और एक दिन भस्मीभूत कर देती है। ईर्ष्या एक वह तलवार है जो स्वयं चलाने वाले का ही नाश कर देती है। ईर्ष्या वह मानसिक दुर्बलता एवं संकीर्णता का परिणाम है जिसके कारण मनुष्य लोगों की दृष्टि में गिर जाता है। मनुष्य की प्रतिभा एवं शक्ति आदि ईर्ष्या की आग में समाप्त हो जाते हैं। इतनी भयंकर है यह ईर्ष्या।
मनुष्य के अवगुणों में ईर्ष्या का प्रमुख स्थान है। अधिकांश मनुष्य किसी न किसी मात्रा में इस भयंकर दुर्गुण से ग्रसित देखे जाते हैं। ईर्ष्या द्वेष से पूर्णतया मुक्त विरले ही मिलते हैं। आज की परिस्थिति पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो पता चलता है कि मानव-समाज को ईर्ष्या ने बुरी तरह जकड़ लिया है और उसी के फल स्वरूप झगड़े, द्वेष, कलह, प्रतिहिंसा, घृणा आदि का वातावरण फैलता जा रहा है। भाई-भाई को देख कर जलता है, पड़ौसी-पड़ौसी को। इसी प्रकार राष्ट्रों, सम्प्रदायों, जातियों संगठनों, दलों में परस्पर ईर्ष्या एक नवीन आग सुलगा रही है जिसके भयंकर परिणामों को उन्हें भोगना पड़ रहा है।
ईर्ष्या के इस विष वृक्ष को, जो अपनी शाखायें धीरे-धीरे मनः क्षेत्रों में फैला रहा है, समाप्त करने की आज बड़ी आवश्यकता है। परस्पर कटुता की इस कठोर चट्टान को तोड़ देना आवश्यक है। ताकि मानवता पुनः एक नवीन स्वर्गीय साज-सजा सके, उसके पद प्रगति, उत्थान के पथ की ओर अग्रसर हो सकें।
ईर्ष्या पैदा होने के मुख्य कारण अपनी असफलता और निराशा है। जब मनुष्य को असफलताओं के कड़ुवे घूंट पीने पड़ते हैं और अपने दूसरे साथियों को सफलता की मंजिल पर खड़े देखता है तो उसके अहंभाव को ठेस पहुंचती है। वह अपने आपको दूसरों की तुलना में हीन समझता है और उसके साथ ही उसमें निराशा की भावना पैदा हो जाती है और जब इसका विस्तृत रूप हो जाता है तो वह ईर्ष्या के रूप में प्रस्फुटित हो पड़ा है जो जीवन के व्यवहार, विचार तथा कार्य को प्रभावित करके बाह्य-जगत् में फूट पड़ती है।
जब मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या का उदय हो जाता है तो वह दूसरों के प्रति हानि, छिद्रान्वेषण, कुतर्क पर आरूढ़ हो जाता है और येन−केन प्रकारेण उस ईर्ष्यालु व्यक्ति में वह स्वाभाविक प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है जिससे वह दूसरों की सफलता, समृद्धि व उन्नति को देख कर अन्दर ही अन्दर ईर्ष्या की आग में जलने लगता है और उनको हानि पहुंचा कर उन्नति की ओर अग्रसर होने में अपनी शक्ति, सामर्थ्य के अनुसार रुकावट डालता है। किन्तु यह स्मरण रखिये इससे आप दूसरों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। ईर्ष्या-वश आप किसी को गर्त में गिराना चाहेंगे तो आप स्वयं ही उसमें गिर जायेंगे। यदि आप दूसरों को रुलाना चाहेंगे तो आपको ही रोना पड़ेगा। ईर्ष्या से आपके जीवन में कटुता पैदा हो जायेगी जो दूसरों की निगाह में आपको गिरा देगी। आपका व्यक्तित्व गिर जायगा। आप अपने सम्मान और आदर को खो बैठेंगे। यदि आप दूसरों को पीड़ित देखना चाहेंगे तो आपको ही पीड़ा की विषमता का सामना करना पड़ेगा। अपने हाथों से लगाये ईर्ष्या के विषवृक्ष के नीचे आपको कभी सुख-शान्ति, सफलता, उन्नति नहीं मिल सकती, यह कटु सत्य है।
यदि आप में परिस्थिति एवं वातावरण के कारण ईर्ष्या किसी भी रूप में घुस गई है तो उसे निकाल फेंकिये। अच्छा है सर्वप्रथम आप इसे पैदा ही न होने दें इसके लिये आप अपनी असफलता, निराशा और हीनता की स्थिति पर विचार करें। मनुष्य के जीवन में सफलता एक असफलता दोनों का होना स्वाभाविक ही है फिर आप असफलताओं से इतने क्यों अधीर हो जाते हैं? और उससे जीवन में निराशा और हीनता को क्यों अपना लेते हैं? यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि असफलता ही सफलता की कुंजी है। जो व्यक्ति असफलता की आग में जितना तपता है वह उतना ही निखर कर एक दिन एक चिरस्थायी सफलता प्राप्त करता जो उसे क्या से क्या बना देती है और उसमें स्थायित्व होता है; किन्तु इसके लिये धैर्य और साहस की आवश्यकता है। आप अपनी असफलताओं को दूसरों पर मत थोपिये वरन् स्वयं पुनः प्रयत्न, परिश्रम एवं लगन के साथ अग्रसर हूजिये। दूसरों की सफलता एवं प्रगति से ईर्ष्या न करके अपनी सफलता प्राप्ति के लिये अनवरत प्रयत्न करना ही श्रेयस्कर होता है।
दूसरों की उन्नति, सफलता आदि से ईर्ष्या करने की जगह आप उनकी सफलता से प्रसन्न हूजिए और उन्हें बधाई दीजिये इसमें आपका कुछ भी नहीं बिगड़ेगा। वरन् आपके कई नए मित्र, प्रेमी एवं सहायक बढ़ जायेंगे जो आपको भी सफलता एवं उन्नति की ओर अग्रसर होने में मदद करेंगे। साथ ही आप उन लोगों की सफलता के आधारों को भी जान सकेंगे और उनको अपनाकर स्वयं भी सफलता के पथ पर अग्रसर हो सकेंगे।
ईर्ष्या का एक प्रधान कारण यह भी है कि आप जिससे किसी कारणवश भी ईर्ष्या करते हैं उसे दूसरा समझते हैं, तात्पर्य यह है कि उससे अपनत्व का नाता नहीं रखते वरन् स्वयं तथा उसके बीच परायेपन की दीवार खड़ी रखते हैं। इस संकीर्णता को निकाल दीजिए और ईर्ष्या के सुलगते हुए अंगारों को बुझा दीजिये। आप दूसरे लोगों की सफलता पर उन्हें अपना समझ कर प्रसन्न हूजिये। आप दूसरों को अपना इसलिये समझिये कि वे आपके ही घर वाले, पड़ौसी, रिश्तेदार, मित्र और आपके ही स्वजन हैं। आप दूसरों को अपना इसलिए समझें कि वे आपके ही जाति, व मुल्क के हैं। आप दूसरे लोगों से अपनत्व का सम्बन्ध स्थापित कीजिए इसलिए कि आप और वे विस्तृत मानव-समाज की एक इकाई हैं, परस्पर भाई भाई हैं, एक ही माला में बंधे हुए मोती हैं, एक ही पेड़ के फल हैं, एक ही नदी की लहरें हैं। इस सत्य को अपनाने अनुभव क्षेत्र में, मस्तिष्क में, जीवन में और अन्तःस्तल में, उतारिये, आप देखेंगे ईर्ष्या आपसे कोसों दूर खड़ी है। दूसरों की सफलता, उन्नति पर खुश हूजिए क्योंकि वे सब आपके ही छोटे-बड़े भाई-बहिन रिश्तेदार एवं आदरणीय हैं।
सामाजिक प्राणी होते हुए आपका निर्वाह समाज से दूर रहकर नहीं हो सकता। ईर्ष्या बाधकत्व के दायरे में आबद्ध करती हैं अतः यह स्मरण रखिये कि ईर्ष्या से दूसरों का कुछ नहीं बिगाड़ा जा सकता इससे स्वयं अपनी ही हानि का मार्ग बनता है। समाज में रहकर दूसरों से अच्छे सम्बन्ध स्थापित कीजिए, अपने आप को उनका शुभ-चिन्तक बनाइये।
यदि आप बड़े हैं, उन्नतिशील हैं और दूसरे लोग जो अब तक पिछड़े हुए थे, उन्नति करते हुए आगे बढ़ते हैं तो उन्हें अपनी बराबर श्रेणी में आते देखकर उनसे कुढ़ना व्यर्थ है। छोटे लोग बढ़ेंगे और उन्हें मान मिलेगा तो अपना सम्मान घट जायगा ऐसा सोचना उचित नहीं क्योंकि हर व्यक्ति अपनी विशेषताओं के कारण ही आदर पाता है। जब तक आपमें अच्छाइयां मौजूद हैं तब तक आपके सम्मान एवं मूल्य में कोई कमी नहीं आ सकती। एक ही बगीचे में अनेकों पेड़ होते हैं, सभी अपने-अपने ढंग में बढ़ते और विकसित होते हैं, हर एक की प्रशंसा उनके गुणों के कारण होती है। यदि कोई पेड़ यह सोचे कि अन्य सारे पेड़ सूख जायं और मैं अकेला ही खड़ा रहूं तो मेरा खूब आदर होगा, तो विज्ञ व्यक्ति उसकी इस धारणा पर हसेंगे। यदि गेहूं या चने का एक पौधा यह सोचे कि सारी फसल बर्बाद हो जाय और मैं अकेला ही खेत में खड़ा रह कर किसान का प्रियपात्र बनूं तो उसका यह स्वप्न निरर्थक ही सिद्ध होगा। उन्नतिशील समाज में ही किसी प्रतिभावान् व्यक्ति का आदर हो सकता है, जहां अन्य साथी पिछड़े हैं वहां एक का बढ़ना कुछ महत्त्व नहीं रखता।
इसलिये अपने से छोटों को बढ़ने दीजिये। उन्हें बढ़ते देखकर ईर्ष्या मत कीजिये उन्नति के मार्ग में बाधा भी मत पहुंचाइये। वरन् यथाशक्ति उनकी सहायता एवं प्रशंसा कीजिये, इससे वे आपके कृतज्ञ रहेंगे और दूसरे लोग भी आपकी उदारता का गुणगान करेंगे। यही सत्पुरुषों एवं विवेकशील लोगों का मार्ग है।
आग जहां रखी जाती है उसी जगह को पहले जलाती है। ईर्ष्या से दूसरों का कितना अहित किया जा सकता है यह अनिश्चित है पर यह पूर्ण निश्चित है कि कुढ़न के कारण अपना शरीर और मस्तिष्क विकृत होता रहेगा और इस आग में अपना स्वास्थ्य एवं मानसिक सन्तुलन धीरे-धीरे घटने लगेगा। यह हानि धीरे-धीरे एक दिन अपनी बर्बादी के रूप में आकर के खड़ी होगी।
ईर्ष्या को मिलाकर उसके स्थान में अपनी त्रुटियों, कमजोरियों पर ध्यान देकर उन्हें दूर किया जाय। यह निश्चित है कि मनुष्य को दूसरों से ईर्ष्या होती है तो इसका प्रमुख कारण अपनी कमजोरियां, त्रुटियां एवं सामर्थ्य हीनता ही है। इनकी वजह से लोग असफल होते हैं और दूसरों से ईर्ष्या करते हैं। अतः सदैव अपनी कमजोरियों, त्रुटियों को समझ कर उनका निराकरण कीजिये। साथ ही अपने स्वाभाविक गुणों को बढ़ाइये। प्रत्येक कार्य में रुचि लीजिये और अपने कर्तव्य का, उत्तरदायित्व का जिम्मेदारी के साथ पालन कीजिये।
पुरुषों की अपेक्षा ईर्ष्या की जड़ स्त्रियों में अधिक जमी होती है और चूंकि स्त्रियां ही भावी पीढ़ियों की निर्माणकर्त्री हैं अतः उनके ईर्ष्यामय प्रभाव और वातावरण से बचना भावी सन्तान के लिये असम्भव है। इसलिये उस दिव्य एवम् पवित्र श्रद्धामूर्ति मातृशक्ति से हमारा निवेदन है कि वे इससे बचें और इसके कुसंस्कारों को अपनी सन्तान में घर न करने दें ताकि भावी पीढ़ी ईर्ष्या की आग से बचकर सफल जीवन बना सके।
हां तो ईर्ष्या की दावानल से बच कर अपना तथा अपने समाज, राष्ट्र, मानवता के हित के लिये हमें अभी से सचेत हो जाना है। जहां व्यक्ति और समाज, राष्ट्र एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में यह ईर्ष्या की दावानल तेजी से फैली जा रही है और मानवता के विनाश की लीला रच रही है वहां अभी से इसे शान्त करने के प्रयत्न शुरू कर देने आवश्यक हैं, तभी मानव और मानवता की रक्षा हो सकेगी। हमारा कर्तव्य है कि ईर्ष्या की जो औषधि बहुत पूर्व हमारे पूर्वजों ने, मानवता के संरक्षकों, शुभ-चिन्तकों ने बताई थी उसका अनुसरण करके आत्म-रक्षा का प्रयत्न करें
मनुष्य के अवगुणों में ईर्ष्या का प्रमुख स्थान है। अधिकांश मनुष्य किसी न किसी मात्रा में इस भयंकर दुर्गुण से ग्रसित देखे जाते हैं। ईर्ष्या द्वेष से पूर्णतया मुक्त विरले ही मिलते हैं। आज की परिस्थिति पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो पता चलता है कि मानव-समाज को ईर्ष्या ने बुरी तरह जकड़ लिया है और उसी के फल स्वरूप झगड़े, द्वेष, कलह, प्रतिहिंसा, घृणा आदि का वातावरण फैलता जा रहा है। भाई-भाई को देख कर जलता है, पड़ौसी-पड़ौसी को। इसी प्रकार राष्ट्रों, सम्प्रदायों, जातियों संगठनों, दलों में परस्पर ईर्ष्या एक नवीन आग सुलगा रही है जिसके भयंकर परिणामों को उन्हें भोगना पड़ रहा है।
ईर्ष्या के इस विष वृक्ष को, जो अपनी शाखायें धीरे-धीरे मनः क्षेत्रों में फैला रहा है, समाप्त करने की आज बड़ी आवश्यकता है। परस्पर कटुता की इस कठोर चट्टान को तोड़ देना आवश्यक है। ताकि मानवता पुनः एक नवीन स्वर्गीय साज-सजा सके, उसके पद प्रगति, उत्थान के पथ की ओर अग्रसर हो सकें।
ईर्ष्या पैदा होने के मुख्य कारण अपनी असफलता और निराशा है। जब मनुष्य को असफलताओं के कड़ुवे घूंट पीने पड़ते हैं और अपने दूसरे साथियों को सफलता की मंजिल पर खड़े देखता है तो उसके अहंभाव को ठेस पहुंचती है। वह अपने आपको दूसरों की तुलना में हीन समझता है और उसके साथ ही उसमें निराशा की भावना पैदा हो जाती है और जब इसका विस्तृत रूप हो जाता है तो वह ईर्ष्या के रूप में प्रस्फुटित हो पड़ा है जो जीवन के व्यवहार, विचार तथा कार्य को प्रभावित करके बाह्य-जगत् में फूट पड़ती है।
जब मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या का उदय हो जाता है तो वह दूसरों के प्रति हानि, छिद्रान्वेषण, कुतर्क पर आरूढ़ हो जाता है और येन−केन प्रकारेण उस ईर्ष्यालु व्यक्ति में वह स्वाभाविक प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है जिससे वह दूसरों की सफलता, समृद्धि व उन्नति को देख कर अन्दर ही अन्दर ईर्ष्या की आग में जलने लगता है और उनको हानि पहुंचा कर उन्नति की ओर अग्रसर होने में अपनी शक्ति, सामर्थ्य के अनुसार रुकावट डालता है। किन्तु यह स्मरण रखिये इससे आप दूसरों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। ईर्ष्या-वश आप किसी को गर्त में गिराना चाहेंगे तो आप स्वयं ही उसमें गिर जायेंगे। यदि आप दूसरों को रुलाना चाहेंगे तो आपको ही रोना पड़ेगा। ईर्ष्या से आपके जीवन में कटुता पैदा हो जायेगी जो दूसरों की निगाह में आपको गिरा देगी। आपका व्यक्तित्व गिर जायगा। आप अपने सम्मान और आदर को खो बैठेंगे। यदि आप दूसरों को पीड़ित देखना चाहेंगे तो आपको ही पीड़ा की विषमता का सामना करना पड़ेगा। अपने हाथों से लगाये ईर्ष्या के विषवृक्ष के नीचे आपको कभी सुख-शान्ति, सफलता, उन्नति नहीं मिल सकती, यह कटु सत्य है।
यदि आप में परिस्थिति एवं वातावरण के कारण ईर्ष्या किसी भी रूप में घुस गई है तो उसे निकाल फेंकिये। अच्छा है सर्वप्रथम आप इसे पैदा ही न होने दें इसके लिये आप अपनी असफलता, निराशा और हीनता की स्थिति पर विचार करें। मनुष्य के जीवन में सफलता एक असफलता दोनों का होना स्वाभाविक ही है फिर आप असफलताओं से इतने क्यों अधीर हो जाते हैं? और उससे जीवन में निराशा और हीनता को क्यों अपना लेते हैं? यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि असफलता ही सफलता की कुंजी है। जो व्यक्ति असफलता की आग में जितना तपता है वह उतना ही निखर कर एक दिन एक चिरस्थायी सफलता प्राप्त करता जो उसे क्या से क्या बना देती है और उसमें स्थायित्व होता है; किन्तु इसके लिये धैर्य और साहस की आवश्यकता है। आप अपनी असफलताओं को दूसरों पर मत थोपिये वरन् स्वयं पुनः प्रयत्न, परिश्रम एवं लगन के साथ अग्रसर हूजिये। दूसरों की सफलता एवं प्रगति से ईर्ष्या न करके अपनी सफलता प्राप्ति के लिये अनवरत प्रयत्न करना ही श्रेयस्कर होता है।
दूसरों की उन्नति, सफलता आदि से ईर्ष्या करने की जगह आप उनकी सफलता से प्रसन्न हूजिए और उन्हें बधाई दीजिये इसमें आपका कुछ भी नहीं बिगड़ेगा। वरन् आपके कई नए मित्र, प्रेमी एवं सहायक बढ़ जायेंगे जो आपको भी सफलता एवं उन्नति की ओर अग्रसर होने में मदद करेंगे। साथ ही आप उन लोगों की सफलता के आधारों को भी जान सकेंगे और उनको अपनाकर स्वयं भी सफलता के पथ पर अग्रसर हो सकेंगे।
ईर्ष्या का एक प्रधान कारण यह भी है कि आप जिससे किसी कारणवश भी ईर्ष्या करते हैं उसे दूसरा समझते हैं, तात्पर्य यह है कि उससे अपनत्व का नाता नहीं रखते वरन् स्वयं तथा उसके बीच परायेपन की दीवार खड़ी रखते हैं। इस संकीर्णता को निकाल दीजिए और ईर्ष्या के सुलगते हुए अंगारों को बुझा दीजिये। आप दूसरे लोगों की सफलता पर उन्हें अपना समझ कर प्रसन्न हूजिये। आप दूसरों को अपना इसलिये समझिये कि वे आपके ही घर वाले, पड़ौसी, रिश्तेदार, मित्र और आपके ही स्वजन हैं। आप दूसरों को अपना इसलिए समझें कि वे आपके ही जाति, व मुल्क के हैं। आप दूसरे लोगों से अपनत्व का सम्बन्ध स्थापित कीजिए इसलिए कि आप और वे विस्तृत मानव-समाज की एक इकाई हैं, परस्पर भाई भाई हैं, एक ही माला में बंधे हुए मोती हैं, एक ही पेड़ के फल हैं, एक ही नदी की लहरें हैं। इस सत्य को अपनाने अनुभव क्षेत्र में, मस्तिष्क में, जीवन में और अन्तःस्तल में, उतारिये, आप देखेंगे ईर्ष्या आपसे कोसों दूर खड़ी है। दूसरों की सफलता, उन्नति पर खुश हूजिए क्योंकि वे सब आपके ही छोटे-बड़े भाई-बहिन रिश्तेदार एवं आदरणीय हैं।
सामाजिक प्राणी होते हुए आपका निर्वाह समाज से दूर रहकर नहीं हो सकता। ईर्ष्या बाधकत्व के दायरे में आबद्ध करती हैं अतः यह स्मरण रखिये कि ईर्ष्या से दूसरों का कुछ नहीं बिगाड़ा जा सकता इससे स्वयं अपनी ही हानि का मार्ग बनता है। समाज में रहकर दूसरों से अच्छे सम्बन्ध स्थापित कीजिए, अपने आप को उनका शुभ-चिन्तक बनाइये।
यदि आप बड़े हैं, उन्नतिशील हैं और दूसरे लोग जो अब तक पिछड़े हुए थे, उन्नति करते हुए आगे बढ़ते हैं तो उन्हें अपनी बराबर श्रेणी में आते देखकर उनसे कुढ़ना व्यर्थ है। छोटे लोग बढ़ेंगे और उन्हें मान मिलेगा तो अपना सम्मान घट जायगा ऐसा सोचना उचित नहीं क्योंकि हर व्यक्ति अपनी विशेषताओं के कारण ही आदर पाता है। जब तक आपमें अच्छाइयां मौजूद हैं तब तक आपके सम्मान एवं मूल्य में कोई कमी नहीं आ सकती। एक ही बगीचे में अनेकों पेड़ होते हैं, सभी अपने-अपने ढंग में बढ़ते और विकसित होते हैं, हर एक की प्रशंसा उनके गुणों के कारण होती है। यदि कोई पेड़ यह सोचे कि अन्य सारे पेड़ सूख जायं और मैं अकेला ही खड़ा रहूं तो मेरा खूब आदर होगा, तो विज्ञ व्यक्ति उसकी इस धारणा पर हसेंगे। यदि गेहूं या चने का एक पौधा यह सोचे कि सारी फसल बर्बाद हो जाय और मैं अकेला ही खेत में खड़ा रह कर किसान का प्रियपात्र बनूं तो उसका यह स्वप्न निरर्थक ही सिद्ध होगा। उन्नतिशील समाज में ही किसी प्रतिभावान् व्यक्ति का आदर हो सकता है, जहां अन्य साथी पिछड़े हैं वहां एक का बढ़ना कुछ महत्त्व नहीं रखता।
इसलिये अपने से छोटों को बढ़ने दीजिये। उन्हें बढ़ते देखकर ईर्ष्या मत कीजिये उन्नति के मार्ग में बाधा भी मत पहुंचाइये। वरन् यथाशक्ति उनकी सहायता एवं प्रशंसा कीजिये, इससे वे आपके कृतज्ञ रहेंगे और दूसरे लोग भी आपकी उदारता का गुणगान करेंगे। यही सत्पुरुषों एवं विवेकशील लोगों का मार्ग है।
आग जहां रखी जाती है उसी जगह को पहले जलाती है। ईर्ष्या से दूसरों का कितना अहित किया जा सकता है यह अनिश्चित है पर यह पूर्ण निश्चित है कि कुढ़न के कारण अपना शरीर और मस्तिष्क विकृत होता रहेगा और इस आग में अपना स्वास्थ्य एवं मानसिक सन्तुलन धीरे-धीरे घटने लगेगा। यह हानि धीरे-धीरे एक दिन अपनी बर्बादी के रूप में आकर के खड़ी होगी।
ईर्ष्या को मिलाकर उसके स्थान में अपनी त्रुटियों, कमजोरियों पर ध्यान देकर उन्हें दूर किया जाय। यह निश्चित है कि मनुष्य को दूसरों से ईर्ष्या होती है तो इसका प्रमुख कारण अपनी कमजोरियां, त्रुटियां एवं सामर्थ्य हीनता ही है। इनकी वजह से लोग असफल होते हैं और दूसरों से ईर्ष्या करते हैं। अतः सदैव अपनी कमजोरियों, त्रुटियों को समझ कर उनका निराकरण कीजिये। साथ ही अपने स्वाभाविक गुणों को बढ़ाइये। प्रत्येक कार्य में रुचि लीजिये और अपने कर्तव्य का, उत्तरदायित्व का जिम्मेदारी के साथ पालन कीजिये।
पुरुषों की अपेक्षा ईर्ष्या की जड़ स्त्रियों में अधिक जमी होती है और चूंकि स्त्रियां ही भावी पीढ़ियों की निर्माणकर्त्री हैं अतः उनके ईर्ष्यामय प्रभाव और वातावरण से बचना भावी सन्तान के लिये असम्भव है। इसलिये उस दिव्य एवम् पवित्र श्रद्धामूर्ति मातृशक्ति से हमारा निवेदन है कि वे इससे बचें और इसके कुसंस्कारों को अपनी सन्तान में घर न करने दें ताकि भावी पीढ़ी ईर्ष्या की आग से बचकर सफल जीवन बना सके।
हां तो ईर्ष्या की दावानल से बच कर अपना तथा अपने समाज, राष्ट्र, मानवता के हित के लिये हमें अभी से सचेत हो जाना है। जहां व्यक्ति और समाज, राष्ट्र एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में यह ईर्ष्या की दावानल तेजी से फैली जा रही है और मानवता के विनाश की लीला रच रही है वहां अभी से इसे शान्त करने के प्रयत्न शुरू कर देने आवश्यक हैं, तभी मानव और मानवता की रक्षा हो सकेगी। हमारा कर्तव्य है कि ईर्ष्या की जो औषधि बहुत पूर्व हमारे पूर्वजों ने, मानवता के संरक्षकों, शुभ-चिन्तकों ने बताई थी उसका अनुसरण करके आत्म-रक्षा का प्रयत्न करें