Books - दूसरों के दोष-दुर्गुण ही न देखा करें
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Language: HINDI
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परदोष दर्शन की कुत्सा त्यागिये
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यह सारा संसार गुण-दोषमय है। संसार की कोई भी वस्तु अथवा प्राणी सर्वथा गुणसम्पन्न अथवा दोषमुक्त नहीं है। सभी में कुछ न कुछ गुण और कुछ न कुछ दोष मिलेगा। परमात्मा ही अकेले पूर्ण एवं दोषरहित है। अन्य सब कुछ गुण दोषमय एवं अपूर्ण है।
सामान्यतः मनुष्यों में दोष-दर्शन का भाव रहा करता है। इसी दोष के कारण वे अच्छी से अच्छी वस्तु में यहां तक कि परमात्मा तक में भी दोष निकाल लेते हैं। दोष-दर्शन करते रहने वाला व्यक्ति संसार में किसी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकता। उसकी सारी शक्ति और सारा समय दूसरों के दोष देखने तथा उनकी खोज करने में लगे रहते हैं। दूसरों की आलोचना करना, उनके कार्यों तथा व्यक्तित्व पर टीका-टिप्पणी करना, उनके दोषों की गणना करना उनका एक व्यसन बन जाता है। दोषदर्शी व्यक्ति निःसन्देह बड़े घाटे में रहता है।
छिद्रान्वेषक व्यक्ति को संसार में कुरूपता के सिवाय और कुछ दीखता ही नहीं। किसी बात में सौंदर्य देख सकना उसके भाग्य में होता ही नहीं। उसे अच्छी से अच्छी पुस्तक पढ़ने को दीजिये और उसके बारे में पूछिये तो वह बड़े अनमने मन से यही कहेगा कि—हां, पुस्तक को अच्छा कह लीजिये किन्तु वास्तव में वह श्रेष्ठ पुस्तकों की सूची में रखने योग्य नहीं है। इसकी भाषा अच्छी है पर विचार निम्न कोटि के हैं। विचार अच्छे हैं तो भाषा शिथिल है। भाषा तथा विचार दोनों अच्छे हैं तो विषय योग्य नहीं है और यदि यह तीनों बातें अच्छी हैं तो पुस्तक बड़ी है, उसका मेकअप गेटअप अच्छा नहीं है। छपाई साफ-सुथरी तथा सुन्दर नहीं है। यदि और कुछ दोष नहीं तो उसका मूल्य उचित नहीं है। इस प्रकार दोषदर्शी अच्छी से अच्छी पुस्तक में कोई न कोई दोष निकाल ही लेगा।
दोषदर्शी की दृष्टि में संसार की हर वस्तु तथा बात दोषपूर्ण होती है। उसे किसी महापुरुष समाज सेवी अथवा लोकनायक के दर्शन कराइये और उनकी विशेषताओं, योग्यताओं तथा सेवाओं की चर्चा कीजिए तो वह बड़े अधैर्य से सुनेगा और मौका पाते ही दोष वर्णन करना शुरू कर देगा—‘‘हां! यह गुणी हो सकते हैं किन्तु इनमें अहंकार की मात्रा बहुत है। यह कहते ज्यादा और करते कम हैं। समाजसेवा और लोकरंजन तो एक बहाना है, ये सभी इस आड़ से अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। यह तो अवसर की बात है कि इनको इस प्रकार की प्रतिष्ठा मिल गई है। आदर सम्मान पाकर तो सभी वक्ता एवं उपदेशक बन जाते हैं। इस विषय में इनको श्रेय देने का क्या लाभ?’’ दोषदर्शी व्यक्ति इस प्रकार के न जाने कितने दोष निःस्वार्थ एवं निस्पृह महापुरुषों में निकाल कर रख देगा।
दोषदर्शी का वास्तव में यह बड़ा भारी दुर्भाग्य है कि वह किसी व्यक्ति अथवा वस्तु में गुण देख ही नहीं पाता। यह उसके स्वभाव की एक बड़ी कमी होती है। उसका हृदय इतना कलुषित एवं ईर्ष्यापूर्ण होता है कि वह किसी के वास्तविक गुणों को भी स्वीकार नहीं कर पाता। यदि वह ऐसा करता है तो उसका क्षुद्र हृदय डाह की आग से जलने लगता है। उसे संतोष तो दूसरों की आलोचना, निन्दा तथा टीका टिप्पणी करने में ही आता है। यही उसका सुख और यही उसकी शान्ति होती है।
दूसरों के दोष देखते रहने वाले व्यक्ति स्वभावतः दोषग्राही भी होते हैं। दृष्टिदोष के कारण जब उन्हें संसार में गुण दिखाई ही नहीं देते, तब वह उनके प्रति आकर्षित भी किस प्रकार हो सकते हैं? दोष देखते-देखते उनका दुर्भाग्य यहां तक बढ़ जाता है कि वे उन्नति एवं विकास का कारण दोषों को मानने लगते हैं। जब वे उन्नतिशील व्यक्तियों में छल-कपट, ढोंग, प्रदर्शन एवं आडम्बर के दोषों का आरोप कर विचार करते हैं तो यही विश्वास कर बैठते हैं कि उनकी उन्नति का विशेष कारण यह आडम्बर ही है। दोषदर्शी की दृष्टि महान व्यक्तियों के परिश्रम, पुरुषार्थ, त्याग, बलिदान, निःस्वार्थ एवं सच्चे सेवा भाव की ओर जाती ही नहीं जोकि उन्नति के वास्तविक हेतु होते हैं। अपने वंचक विश्वास के कारण दोषदर्शी व्यक्ति बहुधा इन्हीं हीनताओं को आधार बनाकर उन्नति का प्रयत्न करने लगते हैं और जब दुर्गुणों के निश्चित परिणाम के रूप में वे लांछना, अपवादों तथा कलंकों के आखेट बनकर धूल में मिल जाते हैं तब भी अपने को दोष नहीं दे पाते। वे अपनी इस दुर्दशा का दोष भी दूसरों को ही दिया करते हैं।
यह सारी सृष्टि गुण-दोषमय है। सभी में कुछ न कुछ दोष और गुण रहा करते हैं। दुष्ट व्यक्ति ही दूसरों के दोष देखा करते हैं, जब कि साधु पुरुष दूसरों के गुणों पर ही दृष्टि डाला करते हैं। उन्हें अपनी निष्कलंक भावना और गुण पूर्ण दृष्टि के कारण दूसरों के दोष दिखाई ही नहीं देते। साधु पुरुष दुष्ट में भी गुणों की खोज कर लिया करते हैं। यह मनुष्य के अपने ही गुण-दोषों का प्रतिबिम्ब हुआ करता है जो दूसरों में दिखाई देता है। जिस व्यक्ति में जिस प्रकार के गुण−दोष छिपे रहते हैं वह दूसरों के उन्हीं गुण−दोषों को आगे रखकर सोचता है, उन्हीं को महत्व देता है। दोषदर्शी व्यक्ति जब भी किसी के विषय में चर्चा करेगा तो उसकी चर्चा का विषय उसके दोष ही होंगे। इसके विपरित जब कोई गुणी व्यक्ति किसी के विषय में बात करेगा तो वह उसके गुणों को ही चर्चा का विषय बनायेगा। दूसरों के विषय में वार्तालाप के आधार पर कोई भी व्यक्ति अपने विषय में आसानी से जान सकता है कि वह दोषदर्शी है अथवा गुणदर्शी। जो व्यक्ति इस कसौटी पर अपने को परदोषदर्शी पाये, उसे चाहिए कि वह अपनी इस दुर्बलता को दूर करके अपना दृष्टिकोण गुणदर्शी बनाये। क्योंकि दोष-दर्शन की दुर्बलता एक ऐसा अभिशाप है जो मनुष्य का लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार का पतन कर देता है।
दोष-दर्शन से मनुष्य में दूसरों के ऐसे अनेक दोष भी घर कर जाते हैं जो उसमें पहले से नहीं थे। जिस विषय में रुचि रखकर उसकी चर्चा एवं चिन्तन किया जाता है वह मनुष्य के स्वभाव का चित्र बन जाता है और धीरे-धीरे कितनों पर छा जाया करता है।
दोषदर्शी व्यक्ति दूसरों की निन्दा करने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकता। निन्दा की वृत्ति समाज में घृणा तथा वैमनस्य को जन्म देती है। निन्दा करने वाले व्यक्ति को बदले में स्वयं भी निन्दा का लक्ष्य बनना पड़ता है। निन्दक एवं निन्दित दोनों ही घृणा के पात्र होते हैं। उनसे न तो कोई सहयोग करता है और न किसी प्रकार की सहानुभूति रखता है। वे समाज में अकेले पड़कर जीवन में प्राणान्तक असफलता के भागी बनते हैं।
परदोषदर्शी निन्दक अपने मित्रों की संख्या कम कर लेता है और शत्रुओं की संख्या बढ़ा लेता है। जो दिन-रात दूसरों के दोष देखता, उनकी आलोचना, टीका-टिप्पणी और निन्दा करता रहेगा, वह किस प्रकार आशा कर सकता है, दूसरे उससे स्नेह अथवा मित्रभाव रख सकेंगे? पर-दोष दर्शन एवं निन्दा जीवन के विकास, उन्नति तथा सफलता के प्रामाणिक शत्रु हैं। संसार में कदाचित ही कोई ऐसा प्रमाण अथवा उदाहरण मिले कि किसी व्यक्ति ने दूषित दृष्टिकोण तथा परनिन्दा की वृत्ति रख कर भी जीवन में कोई विशेषता अथवा सफलता प्राप्त की हो। संसार का इतिहास इस बात के उदाहरणों से अवश्य भरा पड़ा है कि घोरतम निन्दा, आलोचना एवं विरोध होने पर भी जिन सत्पुरुषों ने किसी की निन्दा नहीं की, दोष नहीं दिया और अपनी गुण ग्राहिका वृत्ति में विश्वास बनाये रहे उनकी संसार में पूजा हुई है और दोषदर्शी निन्दक जहां के तहां कीचड़ में पड़े रहकर कीड़ों-मकोड़ों की मौत मरे हैं। जो दूसरे के दोष देखने, उनकी खिल्ली उड़ाने तथा आलोचना करने में ही अपने समय एवं शक्तियों का दुरुपयोग करते रहेंगे, उन्हें अपनी उन्नति के विषय में विचार करने का अवकाश अथवा अवसर ही कब मिलेगा? समय तो उतना ही है और शक्तियां भी वही, उन्हें चाहे परदोषदर्शन और निन्दा में लगा लीजिए अथवा अपने गुणों के विकास में लगा कर उन्नति कर लीजिये। बुद्धिमान व्यक्ति समय एवं शक्तियों की सदुपयोगिता एवं दुरुपयोगिता का मूल्य महत्व तथा परिणाम अच्छी प्रकार से जानते और उसमें विश्वास करते हैं, इसलिये वे इन दोनों सम्पदाओं का अपव्यय किसी परिस्थिति में परदोष दर्शन अथवा निन्दा में नहीं करते। उन्हें जीवन में उन्नति करने की आकांक्षा होती है, आत्मा का उद्धार और लोक-परलोक की चारु चिन्ता उनका अपना प्यारा तथा पुण्यपूर्ण विषय होता है। वे संसार में सम्मान एवं परलोक में स्थान पाने के अपने मानवीय लक्ष्य को परदोष-दर्शन अथवा निन्दा की कुत्सित वृत्ति पर बलिदान नहीं करते। वे सब में गुण देखते, उन्हें ग्रहण करके अपने गुणों की संख्या बढ़ाते और शक्ति को द्विगुणित करते और अपने महान् लक्ष्यों को पा लिया करते हैं। धन्य हैं, ऐसे परगुणदर्शी एवं ग्राहक सत्पुरुष। संसार उन्हें नतमस्तक क्यों न होगा? ऐसे ही साधु पुरुष मानवता के मान एवं पुरुषत्व के प्रहरी हुआ करते हैं।
दूसरों की दोष-गणना, छिद्रान्वेषण एवं निन्दा करने का कुप्रभाव अपने पर ही पड़ता है। हर समझदार व्यक्ति अपनी निन्दा सुनकर, छिद्रान्वेषण देखकर अपनी कमी दूर करने का प्रयत्न किया करता है। धीरे-धीरे दोष उसे छोड़कर चले जाते हैं। किन्तु वे जाते कहां हैं? वे सीधे निन्दक के ही हृदय में प्रवेश कर अपना स्थान बना लिया करते हैं। इसीलिये तो अनेक अनुभवी एवं बुद्धिमान व्यक्तियों ने ‘निन्दक नियरे राखिये’ का उपदेश किया है। क्योंकि वे जानते थे कि ऐसा करने से अपना तो सुधार होगा और संक्रामक रोगों की तरह निन्दक ही दोषों का शिकार हो जायेगा, जिससे आगे चलकर उसकी आंखें खुलेंगी और वह अपनी भूल समझकर स्वभाव में सुधार करने का प्रयत्न करेगा। इस प्रकार अपना और उसका दोनों का हित होगा।
परदोष-दर्शन की दुर्बलता त्यागकर आत्मदोष दर्शन का साहस विकसित कीजिये। जब दृष्टि देखने में समर्थ है तो वह गुण भी देखेगी और दोष भी। गुण दूसरों के और दोष अपने देखिये। जीवन में गुणों का विकास करने का यही तरीका है। जब आप स्वयं ही अपने दोष देखने लग जायेंगे तो दूसरों द्वारा इंगित करने पर आप में कोई अप्रिय अथवा प्रतिकूल प्रतिक्रिया न होगी। ऐसा होने से आप ईर्ष्या-द्वेष, वाद-विवाद, लड़ाई-झगड़ा, कुण्ठा एवं कुढ़न के विकारों से बच जायेंगे। अपनी बुराई सुनकर आपको क्रोध न होगा बल्कि आप उसे सचाई समझकर ग्रहण करने का हितकर साहस दिखा सकेंगे। क्रोध अथवा प्रत्यालोचना न करने से आपकी दोषवृत्ति दबेगी, गुणों का विकास होगा और धीरे-धीरे आपके निन्दक भी प्रशंसक बन जायेंगे। अस्तु लोक एवं परलोक के कल्याण के लिये परगुण एवं आत्मदोषदर्शी बनिये। दूसरों के दोष देखना, छिद्र खोजना, निन्दा तथा आलोचना करने में अपने अमूल्य समय एवं अनमोल शक्ति का अपव्यय न करके उन्हें सत्कर्मों में लगाइये और संसार में सम्मान एवं सफलतापूर्वक जीकर परलोक के पावन पथ को प्रशस्त कर लीजिये।
सामान्यतः मनुष्यों में दोष-दर्शन का भाव रहा करता है। इसी दोष के कारण वे अच्छी से अच्छी वस्तु में यहां तक कि परमात्मा तक में भी दोष निकाल लेते हैं। दोष-दर्शन करते रहने वाला व्यक्ति संसार में किसी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकता। उसकी सारी शक्ति और सारा समय दूसरों के दोष देखने तथा उनकी खोज करने में लगे रहते हैं। दूसरों की आलोचना करना, उनके कार्यों तथा व्यक्तित्व पर टीका-टिप्पणी करना, उनके दोषों की गणना करना उनका एक व्यसन बन जाता है। दोषदर्शी व्यक्ति निःसन्देह बड़े घाटे में रहता है।
छिद्रान्वेषक व्यक्ति को संसार में कुरूपता के सिवाय और कुछ दीखता ही नहीं। किसी बात में सौंदर्य देख सकना उसके भाग्य में होता ही नहीं। उसे अच्छी से अच्छी पुस्तक पढ़ने को दीजिये और उसके बारे में पूछिये तो वह बड़े अनमने मन से यही कहेगा कि—हां, पुस्तक को अच्छा कह लीजिये किन्तु वास्तव में वह श्रेष्ठ पुस्तकों की सूची में रखने योग्य नहीं है। इसकी भाषा अच्छी है पर विचार निम्न कोटि के हैं। विचार अच्छे हैं तो भाषा शिथिल है। भाषा तथा विचार दोनों अच्छे हैं तो विषय योग्य नहीं है और यदि यह तीनों बातें अच्छी हैं तो पुस्तक बड़ी है, उसका मेकअप गेटअप अच्छा नहीं है। छपाई साफ-सुथरी तथा सुन्दर नहीं है। यदि और कुछ दोष नहीं तो उसका मूल्य उचित नहीं है। इस प्रकार दोषदर्शी अच्छी से अच्छी पुस्तक में कोई न कोई दोष निकाल ही लेगा।
दोषदर्शी की दृष्टि में संसार की हर वस्तु तथा बात दोषपूर्ण होती है। उसे किसी महापुरुष समाज सेवी अथवा लोकनायक के दर्शन कराइये और उनकी विशेषताओं, योग्यताओं तथा सेवाओं की चर्चा कीजिए तो वह बड़े अधैर्य से सुनेगा और मौका पाते ही दोष वर्णन करना शुरू कर देगा—‘‘हां! यह गुणी हो सकते हैं किन्तु इनमें अहंकार की मात्रा बहुत है। यह कहते ज्यादा और करते कम हैं। समाजसेवा और लोकरंजन तो एक बहाना है, ये सभी इस आड़ से अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। यह तो अवसर की बात है कि इनको इस प्रकार की प्रतिष्ठा मिल गई है। आदर सम्मान पाकर तो सभी वक्ता एवं उपदेशक बन जाते हैं। इस विषय में इनको श्रेय देने का क्या लाभ?’’ दोषदर्शी व्यक्ति इस प्रकार के न जाने कितने दोष निःस्वार्थ एवं निस्पृह महापुरुषों में निकाल कर रख देगा।
दोषदर्शी का वास्तव में यह बड़ा भारी दुर्भाग्य है कि वह किसी व्यक्ति अथवा वस्तु में गुण देख ही नहीं पाता। यह उसके स्वभाव की एक बड़ी कमी होती है। उसका हृदय इतना कलुषित एवं ईर्ष्यापूर्ण होता है कि वह किसी के वास्तविक गुणों को भी स्वीकार नहीं कर पाता। यदि वह ऐसा करता है तो उसका क्षुद्र हृदय डाह की आग से जलने लगता है। उसे संतोष तो दूसरों की आलोचना, निन्दा तथा टीका टिप्पणी करने में ही आता है। यही उसका सुख और यही उसकी शान्ति होती है।
दूसरों के दोष देखते रहने वाले व्यक्ति स्वभावतः दोषग्राही भी होते हैं। दृष्टिदोष के कारण जब उन्हें संसार में गुण दिखाई ही नहीं देते, तब वह उनके प्रति आकर्षित भी किस प्रकार हो सकते हैं? दोष देखते-देखते उनका दुर्भाग्य यहां तक बढ़ जाता है कि वे उन्नति एवं विकास का कारण दोषों को मानने लगते हैं। जब वे उन्नतिशील व्यक्तियों में छल-कपट, ढोंग, प्रदर्शन एवं आडम्बर के दोषों का आरोप कर विचार करते हैं तो यही विश्वास कर बैठते हैं कि उनकी उन्नति का विशेष कारण यह आडम्बर ही है। दोषदर्शी की दृष्टि महान व्यक्तियों के परिश्रम, पुरुषार्थ, त्याग, बलिदान, निःस्वार्थ एवं सच्चे सेवा भाव की ओर जाती ही नहीं जोकि उन्नति के वास्तविक हेतु होते हैं। अपने वंचक विश्वास के कारण दोषदर्शी व्यक्ति बहुधा इन्हीं हीनताओं को आधार बनाकर उन्नति का प्रयत्न करने लगते हैं और जब दुर्गुणों के निश्चित परिणाम के रूप में वे लांछना, अपवादों तथा कलंकों के आखेट बनकर धूल में मिल जाते हैं तब भी अपने को दोष नहीं दे पाते। वे अपनी इस दुर्दशा का दोष भी दूसरों को ही दिया करते हैं।
यह सारी सृष्टि गुण-दोषमय है। सभी में कुछ न कुछ दोष और गुण रहा करते हैं। दुष्ट व्यक्ति ही दूसरों के दोष देखा करते हैं, जब कि साधु पुरुष दूसरों के गुणों पर ही दृष्टि डाला करते हैं। उन्हें अपनी निष्कलंक भावना और गुण पूर्ण दृष्टि के कारण दूसरों के दोष दिखाई ही नहीं देते। साधु पुरुष दुष्ट में भी गुणों की खोज कर लिया करते हैं। यह मनुष्य के अपने ही गुण-दोषों का प्रतिबिम्ब हुआ करता है जो दूसरों में दिखाई देता है। जिस व्यक्ति में जिस प्रकार के गुण−दोष छिपे रहते हैं वह दूसरों के उन्हीं गुण−दोषों को आगे रखकर सोचता है, उन्हीं को महत्व देता है। दोषदर्शी व्यक्ति जब भी किसी के विषय में चर्चा करेगा तो उसकी चर्चा का विषय उसके दोष ही होंगे। इसके विपरित जब कोई गुणी व्यक्ति किसी के विषय में बात करेगा तो वह उसके गुणों को ही चर्चा का विषय बनायेगा। दूसरों के विषय में वार्तालाप के आधार पर कोई भी व्यक्ति अपने विषय में आसानी से जान सकता है कि वह दोषदर्शी है अथवा गुणदर्शी। जो व्यक्ति इस कसौटी पर अपने को परदोषदर्शी पाये, उसे चाहिए कि वह अपनी इस दुर्बलता को दूर करके अपना दृष्टिकोण गुणदर्शी बनाये। क्योंकि दोष-दर्शन की दुर्बलता एक ऐसा अभिशाप है जो मनुष्य का लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार का पतन कर देता है।
दोष-दर्शन से मनुष्य में दूसरों के ऐसे अनेक दोष भी घर कर जाते हैं जो उसमें पहले से नहीं थे। जिस विषय में रुचि रखकर उसकी चर्चा एवं चिन्तन किया जाता है वह मनुष्य के स्वभाव का चित्र बन जाता है और धीरे-धीरे कितनों पर छा जाया करता है।
दोषदर्शी व्यक्ति दूसरों की निन्दा करने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकता। निन्दा की वृत्ति समाज में घृणा तथा वैमनस्य को जन्म देती है। निन्दा करने वाले व्यक्ति को बदले में स्वयं भी निन्दा का लक्ष्य बनना पड़ता है। निन्दक एवं निन्दित दोनों ही घृणा के पात्र होते हैं। उनसे न तो कोई सहयोग करता है और न किसी प्रकार की सहानुभूति रखता है। वे समाज में अकेले पड़कर जीवन में प्राणान्तक असफलता के भागी बनते हैं।
परदोषदर्शी निन्दक अपने मित्रों की संख्या कम कर लेता है और शत्रुओं की संख्या बढ़ा लेता है। जो दिन-रात दूसरों के दोष देखता, उनकी आलोचना, टीका-टिप्पणी और निन्दा करता रहेगा, वह किस प्रकार आशा कर सकता है, दूसरे उससे स्नेह अथवा मित्रभाव रख सकेंगे? पर-दोष दर्शन एवं निन्दा जीवन के विकास, उन्नति तथा सफलता के प्रामाणिक शत्रु हैं। संसार में कदाचित ही कोई ऐसा प्रमाण अथवा उदाहरण मिले कि किसी व्यक्ति ने दूषित दृष्टिकोण तथा परनिन्दा की वृत्ति रख कर भी जीवन में कोई विशेषता अथवा सफलता प्राप्त की हो। संसार का इतिहास इस बात के उदाहरणों से अवश्य भरा पड़ा है कि घोरतम निन्दा, आलोचना एवं विरोध होने पर भी जिन सत्पुरुषों ने किसी की निन्दा नहीं की, दोष नहीं दिया और अपनी गुण ग्राहिका वृत्ति में विश्वास बनाये रहे उनकी संसार में पूजा हुई है और दोषदर्शी निन्दक जहां के तहां कीचड़ में पड़े रहकर कीड़ों-मकोड़ों की मौत मरे हैं। जो दूसरे के दोष देखने, उनकी खिल्ली उड़ाने तथा आलोचना करने में ही अपने समय एवं शक्तियों का दुरुपयोग करते रहेंगे, उन्हें अपनी उन्नति के विषय में विचार करने का अवकाश अथवा अवसर ही कब मिलेगा? समय तो उतना ही है और शक्तियां भी वही, उन्हें चाहे परदोषदर्शन और निन्दा में लगा लीजिए अथवा अपने गुणों के विकास में लगा कर उन्नति कर लीजिये। बुद्धिमान व्यक्ति समय एवं शक्तियों की सदुपयोगिता एवं दुरुपयोगिता का मूल्य महत्व तथा परिणाम अच्छी प्रकार से जानते और उसमें विश्वास करते हैं, इसलिये वे इन दोनों सम्पदाओं का अपव्यय किसी परिस्थिति में परदोष दर्शन अथवा निन्दा में नहीं करते। उन्हें जीवन में उन्नति करने की आकांक्षा होती है, आत्मा का उद्धार और लोक-परलोक की चारु चिन्ता उनका अपना प्यारा तथा पुण्यपूर्ण विषय होता है। वे संसार में सम्मान एवं परलोक में स्थान पाने के अपने मानवीय लक्ष्य को परदोष-दर्शन अथवा निन्दा की कुत्सित वृत्ति पर बलिदान नहीं करते। वे सब में गुण देखते, उन्हें ग्रहण करके अपने गुणों की संख्या बढ़ाते और शक्ति को द्विगुणित करते और अपने महान् लक्ष्यों को पा लिया करते हैं। धन्य हैं, ऐसे परगुणदर्शी एवं ग्राहक सत्पुरुष। संसार उन्हें नतमस्तक क्यों न होगा? ऐसे ही साधु पुरुष मानवता के मान एवं पुरुषत्व के प्रहरी हुआ करते हैं।
दूसरों की दोष-गणना, छिद्रान्वेषण एवं निन्दा करने का कुप्रभाव अपने पर ही पड़ता है। हर समझदार व्यक्ति अपनी निन्दा सुनकर, छिद्रान्वेषण देखकर अपनी कमी दूर करने का प्रयत्न किया करता है। धीरे-धीरे दोष उसे छोड़कर चले जाते हैं। किन्तु वे जाते कहां हैं? वे सीधे निन्दक के ही हृदय में प्रवेश कर अपना स्थान बना लिया करते हैं। इसीलिये तो अनेक अनुभवी एवं बुद्धिमान व्यक्तियों ने ‘निन्दक नियरे राखिये’ का उपदेश किया है। क्योंकि वे जानते थे कि ऐसा करने से अपना तो सुधार होगा और संक्रामक रोगों की तरह निन्दक ही दोषों का शिकार हो जायेगा, जिससे आगे चलकर उसकी आंखें खुलेंगी और वह अपनी भूल समझकर स्वभाव में सुधार करने का प्रयत्न करेगा। इस प्रकार अपना और उसका दोनों का हित होगा।
परदोष-दर्शन की दुर्बलता त्यागकर आत्मदोष दर्शन का साहस विकसित कीजिये। जब दृष्टि देखने में समर्थ है तो वह गुण भी देखेगी और दोष भी। गुण दूसरों के और दोष अपने देखिये। जीवन में गुणों का विकास करने का यही तरीका है। जब आप स्वयं ही अपने दोष देखने लग जायेंगे तो दूसरों द्वारा इंगित करने पर आप में कोई अप्रिय अथवा प्रतिकूल प्रतिक्रिया न होगी। ऐसा होने से आप ईर्ष्या-द्वेष, वाद-विवाद, लड़ाई-झगड़ा, कुण्ठा एवं कुढ़न के विकारों से बच जायेंगे। अपनी बुराई सुनकर आपको क्रोध न होगा बल्कि आप उसे सचाई समझकर ग्रहण करने का हितकर साहस दिखा सकेंगे। क्रोध अथवा प्रत्यालोचना न करने से आपकी दोषवृत्ति दबेगी, गुणों का विकास होगा और धीरे-धीरे आपके निन्दक भी प्रशंसक बन जायेंगे। अस्तु लोक एवं परलोक के कल्याण के लिये परगुण एवं आत्मदोषदर्शी बनिये। दूसरों के दोष देखना, छिद्र खोजना, निन्दा तथा आलोचना करने में अपने अमूल्य समय एवं अनमोल शक्ति का अपव्यय न करके उन्हें सत्कर्मों में लगाइये और संसार में सम्मान एवं सफलतापूर्वक जीकर परलोक के पावन पथ को प्रशस्त कर लीजिये।