Books - गौ संरक्षण एवं संवर्द्धन एक राष्ट्रीय कर्तव्य
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Language: HINDI
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गौ-संवर्धन के लिए आवश्यक प्रयास
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गौ-संवर्धन अपने देशवासियों के लिए हर दृष्टि से आवश्यक है। किन्तु देखा जाता है कि गौधन घट भी रहा है और दुर्बल भी बन रहा है। इसका दुष्प्रभाव कई प्रकार से पड़ रहा है। आहार का आवश्यक अंश दूध बच्चों, रोगियों तथा दुर्बलों तक को आवश्यक मात्रा में उपलब्ध नहीं हो रहा है फिर वयस्कों और स्वस्थों के लिए जीवनी शक्ति बढ़ाने वाला यह अनिवार्य पदार्थ कैसे मिल पाये? इसके बिना निरोग और समर्थ रह सकना कैसे संभव हो? जिस देश में गौ धन ही धन माना जाता था, जहां के सम्बन्ध में दूध की नदियां बहने की लोकोक्ति थी, उसे बूंद-बूंद दूध के लिए क्यों तरसना पड़े? गौओं की घटोत्तरी और दुर्बलता का क्रम क्यों चल पड़े? इसका प्रमुख कारण है—गौ-दुग्ध की उपेक्षा। लोग चिकनाई की अधिकता वाला भैंस का दूध खरीदते हैं। अधिक चिकनाई के कारण वह स्वादिष्ट भी लगता है। मट्ठा एवं दही की अधिक मात्रा के कारण वह लाभदायक भी प्रतीत होता है। मोटी दृष्टि इन्हीं प्रत्यक्ष लाभों को देख पाती है। इसकी तुलना में गाय का दूध पतला होता है। उसकी उपेक्षा रहती है, फलस्वरूप कम दाम मिलते हैं। पालने वाले को गाय पालने की तुलना में भैंस पालना अधिक लाभ देता है। जन साधारण ने इस समझ को तो भुला दिया है कि गाय का दूध पोषक तत्वों की दृष्टि से लगभग उतना ही उपयोगी होता है जितना कि मां का दूध। उसमें वे सभी रसायन पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं, जिनकी मनुष्य शरीर को अत्यधिक आवश्यकता रहती है। गाढ़ा या पतला होना गौण बात है। चिकनाई की अधिकता को ही यदि महत्व दिया जाय तो वह तेलों से और भी अधिक मात्रा में कहीं अधिक सस्ती मिल सकती है। चिकनाई की अधिकता होते हुए भी भैंस के दूध में वे गुण नहीं पाये जाते, जो गाय के दूध में भरे पड़े हैं। इसके अतिरिक्त उसकी सात्विकता भी सर्वविदित है। गाय को देव संज्ञा दी गई है और उसे माता कहा गया है। इसका कारण है उसकी प्रकृति। गौ सम्पर्क में आने पर, उसकी सेवा करने पर तथा गौ-रस सेवन करने पर जो लाभ मिलते हैं, वे ऐसे नहीं हैं, जिनकी उपेक्षा की जा सके, मात्र इसलिए कि उसमें चिकनाई कम रहती है। चिकनाई की अधिकता शरीर के लिए लाभदायक नहीं, हानिकारक है। उसके कारण मोटापा बढ़ता है। धमनियों के भीतरी भाग में उस गाढ़ेपन की परत जम जाती है और हृदय रोग होने का भय बना रहता है। पाचन में भी कठिनाई पड़ती है। भोजन में जितना अधिक चिकनाई का अंश होगा, उतना ही वह दुष्पाच्य बनेगा। इस प्रकार भैंस का दूध जहां महंगा पड़ता है वहीं लाभदायक भी उतना नहीं रहता। भले ही वह गाढ़ा हो या स्वादिष्ट लगे, बच्चों या कमजोर पेट वालों के लिए तो गाय का दूध ही सेवन योग्य है। उन्हें यदि भैंस का दूध दिया जाय तो लाभ के स्थान पर घाटा उठाएंगे। सर्व साधारण के मनों पर यह भ्रम गहराई तक जम गया है कि भैंस के दूध की तुलना में गाय का दूध घटिया होता है। पतला देखकर ही उसका महत्व गिरा दिया जाता है और लेने में आना-कानी की जाती है। जो खरीदते हैं वे अपेक्षाकृत कम दाम देते हैं। ऐसी दशा में पालने वाले का लाभ कम हो जाता है। वह भी गाय की उपेक्षा करता है। पालने में, खरीदने में हिचकता है। पालता भी है तो उसे घटिया दाना-चारा देता है। फलस्वरूप जितना दूध मिल सकता था उसमें भी कमी आ जाती है। पालने वाले और दूध खरीदने वाले दोनों की ही दृष्टि में महत्व घट जाने के कारण गौओं की संख्या घटती जाती है। उपेक्षित रहने के कारण वे दूध भी कम देती हैं। दूध खरीदने वाले नाक-भौं सिकोड़ते हैं और लेते भी हैं तो कम कीमत देते हैं। यही है गौ-वंश के ह्रास का प्रमुख कारण। समुन्नत देशों में गौ-पालन ही अधिक होता है। भैंस तो अफ्रीका को छोड़कर अन्यत्र बहुत ही कम संख्या में पाई जाती हैं। वहां गौ-दुग्ध ही गुणकारी समझा जाता है। चिकनाई को नहीं रासायनिक विशेषता को समझा जाता है। इसलिए उसकी नस्लें भी अच्छी बनाई जाती हैं। चारा-दाना भी ठीक से दिया जाता है। फलस्वरूप गौ-पालन एक अच्छा लाभदायक व्यवसाय बना रहता है। हर नागरिक को पर्याप्त मात्रा में दूध मिलता है। फलतः उनके सामने स्वास्थ्य संकट खड़ा नहीं होता। गौपालन में लोग पूंजी लगाते हैं और अच्छा-खासा नफा भी कमाते हैं। अपने देश में गायें कटती भी अधिक हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि वे अधिक लाभदायक न होने के कारण कसाई द्वारा सस्ते भाव में खरीद ली जाती हैं। समुन्नत देशों में मांस तो खाया जाता है, कसाई खाने भी हैं, पर दुधारू गायों को काटने के लिए खरीदने की किसी की हिम्मत नहीं पड़ती। गौ-वध बन्द करने के लिए प्रयत्न तो किया जाना चाहिए, पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उपयोगिता और अर्थ लाभ की दृष्टि से ही उन्हें सहज और चिरस्थाई सुरक्षा मिल सकती है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए सर्व साधारण के मन में घुसा हुआ यह भ्रम निकालना चाहिए कि भैंस के दूध की तुलना में गाय का दूध घटिया होता है। इसलिए उसका दाम भी कम दिया जाना चाहिए। यदि स्वाद की तुलना में गुणवत्ता समझाने वाला व्यापक प्रचार हो तो लोग अपनी भूल सुधार कर सकते हैं, गाय के दूध को प्रमुखता दे सकते हैं। उसका उचित दाम देने में भी आना-कानी नहीं कर सकते। यदि गाय के दूध की मात्रा अधिक हो, उसके दाम भी भैंस के दूध जितने ही मिलें तो जो गौ-पालन आज घाटे का सौदा समझा जाता है, कल पालने वालों के लिए आकर्षक बन सकता है। मात्रा अधिक होने और लाभ की मात्रा समुचित रहने पर पालने वालों का उत्साह बढ़ेगा। वे इस प्रयोजन के लिए पूंजी भी लगावेंगे और परिश्रम भी करेंगे। जब उपेक्षा हटेगी और उपयोगिता बढ़ेगी तो स्वभावतः लोग एक लाभदायक उद्योग की तरह उस हेतु उन्नति के लिए नये प्रयास करेंगे। नस्लें सुधरेंगी। चारे के लिए कुछ खेती सुरक्षित रखी जाने लगेगी। भूमि में अन्न उगाकर जितना कमाया जाता है उससे अधिक चारा उगाकर लाभ कमाया जा सकेगा। गायें भी स्वस्थ, मजबूत बनेंगी। उनके बच्चे भी मजबूत पैदा होंगे और अधिक दाम में बिकेंगे। ऐसी दशा में हर समझदार आदमी भैंस को तेल निकालने का कोल्हू समझकर उसकी उपेक्षा करेगा और गौ-संवर्धन पर, गौ-रस सेवन पर अधिक ध्यान देगा। गायें संख्या में कम रह जाने और कम दूध देने के कारण उन्हें घरेलू उपयोग के लिए ही काम में लाया जाता है। बड़े पैमाने पर उनके दूध के उत्पादन की यदि व्यवस्था बनाई जा सके तो जो गाय का दूध खरीदना चाहते हैं उन्हें भी उपयुक्त स्थान पर उपयुक्त मात्रा में वह मिल भी सकेगा। गौ-संवर्धन के लिए सर्व साधारण के मन में गौ-दुग्ध की उपयोगिता और महत्ता जमाने की आवश्यकता है, ताकि वे उसी को महत्ता दें और पतलेपन के कारण उचित मूल्य देने में आना-कानी न करें। पालनकर्ताओं को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि नस्ल सुधारने और भरण-पोषण के लिए अच्छी सुविधाएं जुटाने का प्रयत्न करें ताकि वे अधिक दूध दें और पालनकर्ता के लिए लाभदायक बनें। फिर उनका कसाईघर पहुंचना भी बन्द हो जाएगा।