Books - गायत्री अनुष्ठान का विज्ञान और विधान
Language: HINDI
महासिद्धि दाता- गायत्री अनुष्ठान
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‘गायत्री की दैनिक साधना’ में यह बताया गया है कि प्रतिदिन गायत्री मंत्र का जप किस प्रकार करना चाहिए। उस विधि के अनुसार यथा संख्या में नित्य जप करने से शरीर का स्वास्थ्य, चेहरे का तेज और वाणी का ओज बढ़ता जाता है। बुद्धि में तीक्ष्णता और सूक्ष्मदर्शिता की मात्रा में वृद्धि होती है एवं अनेक मानसिक सद्गुणों का विकास होता है, यह लाभ ऐसे हैं जिनके द्वारा जीवन यापन में सहायता मिलती है।
विशेष अनुष्ठान पूर्वक गायत्री मंत्र को सिद्ध करने से उपयुक्त लाभों के अतिरिक्त कुछ अन्य विशिष्ट लाभ भी प्राप्त होते हैं जिनको चमत्कार या सिद्धि भी कहा जा सकता है। गायत्री अनुष्ठान की अनेक विधियाँ हैं, विभिन्न आचार्यों द्वारा पृथक् रीति से विधान बताये गये हैं इनमें से कुछ विधान ऐसी तान्त्रिक प्रक्रियाओं से परिपूर्ण हैं कि उनका तिल- तिल विधान यथा नियम पुनः किया जाना चाहिए, यदि उसमें जरा भी गड़बड़ हो तो लाभ के स्थान पर हानि की आशंका अधिक रहती है। ऐसे अनुष्ठान गुरू की आज्ञा से उनकी उपस्थिति में करने चाहिए तभी उनके द्वारा समुचित लाभ प्राप्त होता है।
किन्तु कुछ ऐसे भी राजमार्गी साधन हैं जिनमें हानि की कोई आशंका नहीं जितना है लाभ ही है। जैसे राम नाम अवधि पूर्वक जपा जाय तो भी कुछ हानि नहीं हर हालत में कुछ न कुछ लाभ ही है। इसी प्रकार राजमार्ग के अनुष्ठान ऐसे होते हैं जिनमें हानि की किसी दशा में कुछ सम्भावना है। हां लाभ के सम्बन्ध में यह बात अवश्य है कि जितनी श्रद्धा, निष्ठा और तत्परता से साधन किया जायगा उतना ही लाभ होगा। आगे हम ऐसे ही अनुष्ठान का वर्णन करते हैं यह गायत्री की सिद्धि का अनुष्ठान हमारा अनुभूत है और भी कितने ही हमारे अनुयायियों ने इसकी साधना को सिद्ध करके आशातीत लाभ उठाया है।
देवशयनी एकादशी (आषाढ़ सुदी ११) से लेकर देव उठनी एकादशी (कार्तिक सुदी ११) के चार महीनों को छोड़कर अन्य आठ महीनों में गायत्री की सवालक्ष सिद्धि का अनुष्ठान करना चाहिए। शुक्ल पक्ष की दौज इसके लिए शुभ मुहूर्त है। जब चित्त स्थिर और शरीर स्वस्थ्य हो तभी अनुष्ठान करना चाहिए। डाँवाडोल मन और बीमार शरीर से अनुष्ठान तो क्या कोई भी काम ठीक तरह नहीं हो सकता।
प्रातःकाल सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व उठकर शौच स्नान से निवृत्त होना चाहिए। फिर किसी एकान्त स्वच्छ, हवादार कमरे में जप के लिए जाना चाहिए। भूमि को जल से छिड़ककर दाभ का आसन फिर उसके ऊपर कपड़ा बिछाना चाहिए। पास में घी का दीपक जलता रहे तथा जल से भरा हुआ एक पात्र हो। जप के लिए तुलसी या चन्दन की माला होनी चाहिए। गंगाजल और खड़िया मिट्टी मिलाकर मालाओं की संख्या गिनने के लिए छोटी- छोटी गोलियां बना लेनी चाहिए। यह सब वस्तुएँ पास में रख कर आसन पर पूर्व की ओर मुख करके जप करने लिए बैठना चाहिये। शरीर पर धुली हुई धोती हो, और कन्धे के नीचे खद्दर का चादर या ऊनी कम्बल ओढ़ लेना चाहिए। गरदन और सिर खुला रहे।
प्राणायाम- मेरू दंड सीधा रख कर बैठना चाहिए। आरम्भ में दोनों नथुनों से धीरे- धीरे पूरी सांस खींचनी चाहिए। जब छाती और पेट में पूरी हवा भर जाय तो कुछ समय उसे रोकना चाहिए और फिर धीरे- धीरे हवा को पूरी तरह बाहर निकाल देना चाहिए। ‘‘ॐ’’ मंत्र का जप मन ही मन सांस खींचने रोकने और छोड़ने के समय करते रहना चाहिए। इस प्रकार से कम से कम ५ प्राणायाम करने चाहिए। इससे चित्त स्थिर होता है, प्राण शक्ति सतेज होती है और कुवासनाएँ घटती हैं।
प्रतिष्ठा- प्राणायाम के बाद नेत्र बन्द करक सूर्य के समान तेजवान अत्यन्त स्वरूपवती कमल पुष्प पर विराजमान गायत्री माता का ध्यान द्वारा आह्वान करना चाहिए। उनके लिए जगज्जननी, तेजपुंज, सर्वव्यापक, महाशक्ति की भावना करनी चाहिए। मन ही मन उन्हें प्रणाम करना चाहिए और अपने हृदय कमल पर आसन देकर उन्हें प्रीति पूर्वक विराजमान करना चाहिए।
इसके बाद जप आरम्भ करना चाहिए। ‘‘ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ।’’ इस एक मन्त्र के साथ माला का एक मनका फेरना चाहिए। जब एक माला के १०८ दाने पूरे हो जायें तो खड़िया को गंगाजल मिश्रित जो गोलियां बना कर रखी हैं उनमें से एक उठा कर अलग रख देनी चाहिए। इस प्रकार हर एक माला समाप्त होने पर एक गोली रखते जाना चाहिए जिससे मालाओं की संख्या गिनने में भूल न पड़े।
जप के समय नेत्र अधखुले रहने चाहिए। मन्त्र इस तरह का जपना चाहिए कि कण्ठ, जिह्वा, तालु, ओष्ठ आदि स्वर यन्त्र तो काम करते रहें पर शब्द का उच्चारण न हो। दूसरा कोई उन्हें सुन न सके। वेद मंत्र को जब उच्च स्वर से उच्चारण करना हो तो सस्वर ही उच्चारण करना चाहिए। सर्व साधारण पाठकों के लिए स्वर विधि के साथ गायत्री मंत्र का उच्चारण कर सकना कठिन है इसलिए उसे इस प्रकार जपना चाहिए कि स्वर यन्त्र तो काम करें पर आवाज ऐसी न निकले कि उसे कोई दूसरा आदमी सुन सके। जप से उठने के बाद जल पात्र को अर्घ्य रूप में सूर्य के सम्मुख चढ़ाना चाहिए। दीपक की अधजली बत्ती को हटा कर हर बार नई बत्ती डालनी चाहिए।
अनुष्ठान में सवा लक्ष मन्त्र का जप करना है। इसके लिए कम से कम सात दिन और अधिक से अधिक पन्द्रह दिन लगाने चाहिए। सात, नौ, ग्यारह या पन्द्रह दिन में समाप्त करना ठीक है। साधारणतः एक घण्टे में १५ से लेकर २० माला तक जपी जा सकती है। कुल मिला कर ११५८ माला जपनी होती हैं। इसके लिए करीब ६० घण्टे चाहिए। जितने दिन में जप पूरा करना हो उतने दिन में मालाओं की संख्या बाँट लेनी चाहिए यदि एक सप्ताह में करना हो करीब ८- ९ घण्टे प्रतिदिन पड़ेंगे इनमें से आधे से अधिक भाग प्रातःकाल और आधे से कम भाग तीसरे पहर पूरा करना चाहिए। जिन्हें १५ दिन में पूरा करना हो उन्हें करीब ४ घण्टे प्रतिदिन जप करना पड़ेगा जो कि प्रातः काल ही आसानी से हो सकता है।
जप पूरा हो जाय तब दूसरे दिन एक हजार मन्त्रों का जप के साथ हवन करना चाहिए। गायत्री हवन में वैदिक कर्मकाण्ड की रीतियाँ न बरती जा सकें तो कोई हानि नहीं। स्वच्छ भूमि पर मृत्तिका की वेदी बनाकर, पीपल, गूलर या आम की समिधाएँ जलाकर शुद्ध हवन सामग्री से हवन करना चाहिए। एक मन्त्र का जप पूरा हो जाय तब ‘‘स्वाहा’’ के साथ हवन में और बिठाना चाहिए जो आहुति के साथ घी चढ़ाता जाय। जब दस मालाएँ मन्त्र जप के साथ हवन समाप्त हो जाय तो अग्नि की चार प्रदक्षिणा करनी चाहिए। तत्पश्चात भजन, कीर्तन, प्रार्थना, स्तुति करके प्रसाद का मिष्ठान्न बांटकर कार्य समाप्त करना चाहिए।
जिन्हें गायत्री मन्त्र ठीक रीति याद न हो सके वे ‘‘ॐ भूर्भुवः स्वः’’ केवल इतना ही जाप करें। जिन दिनों अनुष्ठान चल रहा हो, उन दिनों एक समय ही सात्विक भोजन करना चाहिए, सन्ध्या को आवश्यकता पड़ने पर दूध या फल लिया जा सकता है। भूमि पर सोना चाहिए, हजामत नहीं बनवानी चाहिए, ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए। चित्त को चंचल क्षुब्ध या कुपित करने वाला कोई काम नहीं करना चाहिए। कम बोलना, शुद्ध वस्त्र पहिनना, भजन, सत्संग में रहना, स्वाध्याय करना, तथा प्रसन्न चित्त रहना चाहिए। अनुष्ठान पूरा होने पर सत्पात्रों को अन्न धन का दान देना चाहिए।
इस प्रकार सवा लक्ष जप द्वारा गायत्री मन्त्र सिद्ध कर लेने पर वह चमत्कार पूर्ण लाभ करने वाला हो जाता है। बीमारी, शत्रु का आक्रमण, राज दरबार का कोप, मानसिक भ्रान्ति, बुद्धि या स्मरण शक्ति की कमी, ग्रह जन्य अनिष्ट, भूत बाधा, सन्तान सम्बन्धी चिन्ता, धन हानि व्यापारिक विघ्न, बेरोजगारी, चित्त की अस्थिरता, वियोग, द्वेष, भाव, असफलता आदि अनेक प्रकार की आपत्तियां और विघ्न बाधाएँ दूर होती हैं। यह अनुष्ठान सिद्धि प्रदान करने वाला, अपनी और दूसरों की विपत्ति टालने में बहुत हद तक दूर करने हर प्रकार समर्थ होता है। गायत्री संहिता में इसे विघ्न विदारक अनुष्ठान कहा गया है। इस अनुष्ठान से अनेक बुद्धिमानों न अब तक गुप्त आध्यात्मिक शक्तियां प्राप्त की हैं और उनके चमत्कार पूर्ण लाभों का रसास्वादन किया है। जिस मनोरथ के लिए अनुष्ठान किया जाता है उस मार्ग की प्रधान बाधाएँ दूर हो जाती हैं और कोई न कोई ऐसा साधन बन जाता है कि जो कठिनाई पहाड़ सी प्रतीत होती थी वह छोटा ढेला मात्र रह जाती है, जो बादल प्रलय वर्षाने वाले प्रतीत होते थे वे थोड़ी सी बूँदें छिड़क कर विलीन हो जाते हैं। प्रारब्ध कर्मों के कठिन भोग बहुत हलके होकर, नामा मात्र का कष्ट देकर अपना कार्य समाप्त कर जाते हैं। जिन भोगों को भोगने में साधारणतः मृत्यु तुल्य कष्ट होने की संभावना थी वे गायत्री की कृपा से एक छोटा फोड़ा बनकर सामान्य कष्ट के साथ भुगत जाते हैं और अनेकों जन्मों तक भुगती जाने वाली कठिन पीड़ायें हलके- हलके छोटे- छोटे रूप में इसी जन्म से समाप्त होकर आनन्द मय भविष्य का मार्ग साफ कर देती है। इस प्रकार के कष्ट भी गायत्री माता की कृपा ही समझनी चाहिए। कभी- कभी ऐसा ही देखा जाता है कि जिस प्रयोजन के लिए अनुष्ठान किया गया था वह तो पूरा नहीं हुआ पर दूसरे अन्य महत्त्वपूर्ण लाभ प्राप्त हुए। किसी पूर्व संचित प्रारब्ध का फल भोग अनिवार्य हो और उसका पलटा जाना दैवी विधान के अनुसार उचित न हो, तो भी अनुष्ठान का लाभ तो मिलना है ही, वह किसी दूसरे रूप में अपना चमत्कार प्रकट करता है, साधक को कोई न कोई असाधारण लाभ उससे अवश्य होता है। उससे भविष्य में आने वाले संकटों की पूर्व ही अन्त्येष्टि हो जाती है और सौभाग्य के शुभ लक्षण प्रकट होते हैं। आपत्ति निवारण के लिए गायत्री का सवालक्ष अनुष्ठान एक राम बाण जैसा आध्यात्मिक साधन है। किसी वस्तु के पकने के लिए एक नियत काल या तापमान की आवश्यकता होती है। फल, अंडे आदि के पकने में एक नियत अवधि की आवश्यकता होती है और दाल, साग, चाशनी, ईंट कांच आदि की भट्ठी पकने में अमुक श्रेणी का तापमान आवश्यक होता है। गायत्री की साधना पकने का माप दंड सवालक्ष जप है। पकी हुई साधना ही मधुर फल देती है।
साधारणतः सवालक्ष जप की एक मर्यादा समझी जाती है। दूध के नीचे आग जलाने से अमुक मात्रा की गर्मी आ जाने पर एक उफान आता है, इसी प्रकार सवालक्ष जप हो जाने पर एक प्रकार का क्षरण होता है। उसकी शक्ति से सूक्ष्म जगत में एक तेजोमय वातावरण का उफान आता है जिसके द्वारा अभीष्ट कार्य के सफल होने में सहायता मिलती है। दूध को गरम करते रहने से कई बार उफान आते हैं। एक उफान आया वह कुछ देर के लिए उतरा कि फिर थोड़ी देर बाद नया उफान आ जाता है। इसी प्रकार सवालक्ष जप के बाद एक लक्ष जप पर शक्ति मय क्षरण के उफान आते हैं, उनसे निकटवर्ती वातावरण आन्दोलित होता रहता है और सफलता के अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न होती रहती हैं।
नीति का वचन है- ‘अधिकस्य अधिकम् फलम्’ अधिक का अधिक फल होता है। गायत्री की उपासना सवालक्ष जप करने पर बन्द कर देनी चाहिए ऐसी कोई बात नहीं है, वरन् यह है कि जितना अधिक हो सके करते रहना चाहिए, अधिक का अधिक फल है। इच्छा शक्ति श्रद्धा, निष्ठा और व्यवस्था की कमी के कारण अनुष्ठान का पूरा फल दृष्टिगोचर नहीं होता किन्तु यदि अधिक काल तक निरन्तर साधना को जारी रखा जाय तो धीरे- धीरे साधक का ब्रह्मतेज बढ़ता जाता है। यह ब्रह्मतेज आत्मिक उन्नति का मूल है, स्वर्ग मुक्ति और आत्म शांति का पथ निर्माण करता है, इसके अतिरिक्त लौकिक कार्यों की कठिनाइयों का भी समाधान करता है, विपत्ति निवारण और अभीष्ट प्राप्ति में इस ब्रह्म तेज द्वारा असाधारण सहायता मिलती है