Books - गायत्री अनुष्ठान का विज्ञान और विधान
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
रविवार का व्रत उपवास
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
अनुष्ठान काल में व्रत उपवास का विशेष महत्व है। यों तो उपवास का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने में बड़ा महत्व
है ही। इससे पेट के पाचन यंत्रों को उपवास से विश्राम मिलता
है, फलस्वरूप वे शक्ति संचय करके और भी अधिक उत्साह से काम करने
लगते हैं। कर्मचारियों को साप्ताहिक छुट्टी मिलती है, नगरों के
बाजार भी सप्ताह में एक दिन बन्द रहते हैं। इससे घाटा किसी को
नहीं वरन् सभी को लाभ है। एक दिन छुट्टी मिलने से छैः दिन की थकान मिटाने और अगले छैः
दिन तक उत्साह पूर्वक काम करने के लिए शक्ति संचय का अवसर
मिल जाता है। दिन में ठीक प्रकार काम तभी हो सकता है जब रात
में सोने की छुट्टी मिले। यदि कोई लोभी इस छुट्टी से हानि की
संभावना समझ कर दिन रात काम ही करता रहे तो इससे उसका कल्पित
अतिरिक्त लाभ तो मिलेगा नहीं, शक्ति के समाप्त हो जाने से उलटी
हानि ही होगी।
पेट को विश्राम देने की समस्या भी ठीक इसी प्रकार की है। इससे पेट की कमजोरी दूर होती है, जो अपच आमाशय एवं आंतों में जमा है वह इस विश्राम के दिन पच जाता है। दफ्तर के जिन बाबुओं के पास बहुत काम रहता है और कागज रोज नहीं निपट पाते वे उस पिछड़े हुए काम को छुट्टी के दिन पूरा कर लेते हैं। पेट के बारे में भी यही बात है। यदि पिछला अपच जमा है तो उसे वह उपवास के दिन पचाकर शरीर को उदर व्याधि से ग्रस्त होने बचा लेता है। सारी बीमारियों की जड़ अपच है। यदि पेट को विश्राम देते रह कर अपच से बचे रहा जाय तो बीमारियों से आसानी के साथ छुटकारा प्राप्त हो सकता है। रोग ग्रस्त होकर लोग बहुत कष्ट पाते हैं और धन व्यय करते हैं। दुर्बलता के कारण उनका उपार्जन कार्य एवं इन्द्रिय बल घट जाता है, इससे दरिद्रता और निराशा की चिन्ताजनक परिस्थितियों में पड़ना पड़ता है। उपवास में कुछ विशेष कष्ट नहीं है पर लाभ बहुत है।
मानसिक चिन्ताओं दुर्गुणों और कुविचारों का समाधान करने में भी उपवास का विशेष महत्त्व है। पापों के प्रायश्चित में उपवास कराया जाता है। इसे आत्म दंड भी माना जाता है पर वास्तविकता यह है कि अन्न दोष के कारण जो विक्षेप मन में उठते रहते हैं वे उपवास के समय नहीं उठते और आत्मा के सतोगुण को विकसित होने का अवसर मिल जाता है। यह अनुभव की बात है कि जिस दिन उपवास रखा जाता है उस दिन कुविचार बहुत कम आते हैं, कुसंस्कार दबे रहते हैं और पाप कर्मों की ओर सहज ही अरूचि होती है। बारबार उपवास करते रहने से यह सत् प्रवृत्तियाँ अभ्यस्त होती जाती हैं और दिन- दिन मनुष्य अधिक सतोगुणी बनता जाता है। आत्म उत्कर्ष और मानसिक सुधार के लिए उपवास का इतना अधिक लाभ है उसे धर्मव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
गायत्री परिवार में साप्ताहिक उपवास रविवार को किया जाता है। गायत्री के देवता सविता अर्थात् सूर्य। सूर्य का दिन रविवार है। इस दिन का कुछ विशेष वैज्ञानिक महत्व है। उपवास करने वाले व्यक्ति की आत्मा सविता देवता से विकीर्ण होने वाली सूक्ष्म आध्यात्मिक तरंगों को अधिक मात्रा में ग्रहण करती है फलस्वरूप उसे शारीरिक और मानसिक ही नहीं, कुछ विशेष आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त होते हैं। इस दृष्टि से अन्य दिनों की अपेक्षा रविवार के दिन उपवास रखने का माहात्म्य इस प्रकार वर्णन किया गया है।
एक समय शौनक ऋषि के आश्रम में अति बुद्धिमान सूतजी ने आगमन किया उस समय शौनक अनेक ऋषियों के सहित स्वयं वहाँ विराजमान थे। शौनक ने सूतजी को आते देख सम्पूर्ण शिष्यों के सहित पृथ्वी पर गिरकर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया एवं बैठने के लिए दिव्य आसन देकर स्वयं सम्पूर्ण मुनियों सहित स्वस्थान में विराजे। मुनियों की श्रद्धा को देखकर सूतजी ने कहा हे मुनियों ! मैं आप लोगों के समक्ष रविवार के व्रत को सविस्तार वर्णन करता हूँ उसे आप लोग ध्यान पूर्वक सुनें। एक समय नारद ऋषि घूमते हुए पृथ्वी के अग्निकोणस्थित कोणार्क नामक पवित्र स्थान में पहुँचे। वह स्थान लवण समुद्र के समीप एक पवित्र भूमि है वहाँ श्री, कृष्णवीर्योत्पन्न जाम्ववती के पुत्र साम्व को कुष्ट रोग से पीड़ित देख उन्होंने पूछा- हे साम्व को आपका रूप इस प्रकार कुरूप क्यों हुआ, उसे आप सविस्तार वर्णन करें।
नारद के उपर्युक्त वचन को सुनकर भक्ति पूर्वक साम्व ने प्रणाम कर कहा- हे प्रभु ! आप तो सर्वज्ञ हैं अतः आपको सर्वविदित ही है मैं औ क्या कहूँ जो आप मुझे पूछ रहे हैं। आपके आदेश पालने हेतु मैं बता रहा हूँ। हे मुनि ! किसी कारण से पिता ने मुझ पर क्रोधित होकर कुष्ठ रोगी होओ कह कर श्राप दिया। हे गुरूदेव ! मुझे इससे मुक्ति का कोई उपाया बतावें, मैं आपसे इतनी विनती करता हूँ।
ऋषि श्रेष्ठ नारद साम्व का वचन सुनकर बोले हे साम्व ! इस रोग से मुक्ति पाने के लिए आप रविवार का व्रत करें जिसे ब्रह्मादि देवताओं ने करके सद्गति प्राप्त की एवं सर्वजनों का मनोरथ पूरक यह व्रत है। इस व्रत को करने वाला अचल सम्पत्ति प्राप्त कर सम्पूर्ण रोगों से मुक्ति प्राप्त करता है। इसी रविवार व्रत के करने से ब्रह्मा ने रचना शक्ति प्राप्त की तथा इन्द्र देव इसी के प्रभाव से हजारों लोक विचरण कर ‘‘सहस्राक्ष’’ कहलाए। कुबेर इस व्रत को कर धनवान बने, यम ने भी प्राणी हत्या से मुक्ति प्राप्त की, अग्नि ने सर्व भक्षण किया पर उनको इसके प्रभाव से एक भी दोष न लगा। अनेक युग तक राक्षस राज सुकेश भी इसके वरदान से जीवित रहा। सप्तव्दीप विख्यात नल राजा ने इस व्रत को करके पुनः स्वराज्य तथा पत्नी को प्राप्त किया ।। कृपालु प्रभु रामचन्द्र ने इसी के प्रभाव से रावण का वध किया। धर्मपुत्र युधिष्ठिर महाभारत युद्ध में कौरव दल को जीत कर समस्त पृथ्वी के राजा हुए। इन्हीं का ध्यान कर देवताओं का वास स्थान स्वर्ग में हुआ। मैं भी उन्हीं सूर्य की कृपा से श्वासत परब्रह्म होकर सर्वस्थान का दर्शन कर रहा हूँ। अतः आप भी इस महिमामयी व्रत को कर सर्वदा शुभफल की अभिलाषा करें।
नारद के मुख से साम्व ने श्रद्धापूर्वक रविवार व्रत का माहात्म्य सुना और वह संकल्प पूर्वक व्रत करके पित् श्राप से मुक्ति पाकर संपत्ति युक्त हुए एवं इस लोक में ऐश्वर्यशाली होकर अन्तकाल में बैकुण्ठ धाम को प्राप्त हुए। यह रविवार व्रत उसी दिन से इस मंडल में विख्यात हुआ।
गायत्री उपासना में विशेष रूप से रविवार का व्रत किया जाता है। उस दिन अपनी सामर्थ्यानुसार निराहार, फलाहार, दुग्धाहार, स्वल्पाहार, अस्वाद करके पूर्ण या आंशिक उपवास करना चाहिए। विशेष तपश्चर्या के रूप में ९ दिन में चौबीस हजार लघु अनुष्ठान, चालीस दिन में सवा लक्ष का अनुष्ठान, दो वर्ष में २४ लाख का महाअनुष्ठान किया जाता है।
पेट को विश्राम देने की समस्या भी ठीक इसी प्रकार की है। इससे पेट की कमजोरी दूर होती है, जो अपच आमाशय एवं आंतों में जमा है वह इस विश्राम के दिन पच जाता है। दफ्तर के जिन बाबुओं के पास बहुत काम रहता है और कागज रोज नहीं निपट पाते वे उस पिछड़े हुए काम को छुट्टी के दिन पूरा कर लेते हैं। पेट के बारे में भी यही बात है। यदि पिछला अपच जमा है तो उसे वह उपवास के दिन पचाकर शरीर को उदर व्याधि से ग्रस्त होने बचा लेता है। सारी बीमारियों की जड़ अपच है। यदि पेट को विश्राम देते रह कर अपच से बचे रहा जाय तो बीमारियों से आसानी के साथ छुटकारा प्राप्त हो सकता है। रोग ग्रस्त होकर लोग बहुत कष्ट पाते हैं और धन व्यय करते हैं। दुर्बलता के कारण उनका उपार्जन कार्य एवं इन्द्रिय बल घट जाता है, इससे दरिद्रता और निराशा की चिन्ताजनक परिस्थितियों में पड़ना पड़ता है। उपवास में कुछ विशेष कष्ट नहीं है पर लाभ बहुत है।
मानसिक चिन्ताओं दुर्गुणों और कुविचारों का समाधान करने में भी उपवास का विशेष महत्त्व है। पापों के प्रायश्चित में उपवास कराया जाता है। इसे आत्म दंड भी माना जाता है पर वास्तविकता यह है कि अन्न दोष के कारण जो विक्षेप मन में उठते रहते हैं वे उपवास के समय नहीं उठते और आत्मा के सतोगुण को विकसित होने का अवसर मिल जाता है। यह अनुभव की बात है कि जिस दिन उपवास रखा जाता है उस दिन कुविचार बहुत कम आते हैं, कुसंस्कार दबे रहते हैं और पाप कर्मों की ओर सहज ही अरूचि होती है। बारबार उपवास करते रहने से यह सत् प्रवृत्तियाँ अभ्यस्त होती जाती हैं और दिन- दिन मनुष्य अधिक सतोगुणी बनता जाता है। आत्म उत्कर्ष और मानसिक सुधार के लिए उपवास का इतना अधिक लाभ है उसे धर्मव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
गायत्री परिवार में साप्ताहिक उपवास रविवार को किया जाता है। गायत्री के देवता सविता अर्थात् सूर्य। सूर्य का दिन रविवार है। इस दिन का कुछ विशेष वैज्ञानिक महत्व है। उपवास करने वाले व्यक्ति की आत्मा सविता देवता से विकीर्ण होने वाली सूक्ष्म आध्यात्मिक तरंगों को अधिक मात्रा में ग्रहण करती है फलस्वरूप उसे शारीरिक और मानसिक ही नहीं, कुछ विशेष आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त होते हैं। इस दृष्टि से अन्य दिनों की अपेक्षा रविवार के दिन उपवास रखने का माहात्म्य इस प्रकार वर्णन किया गया है।
एक समय शौनक ऋषि के आश्रम में अति बुद्धिमान सूतजी ने आगमन किया उस समय शौनक अनेक ऋषियों के सहित स्वयं वहाँ विराजमान थे। शौनक ने सूतजी को आते देख सम्पूर्ण शिष्यों के सहित पृथ्वी पर गिरकर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया एवं बैठने के लिए दिव्य आसन देकर स्वयं सम्पूर्ण मुनियों सहित स्वस्थान में विराजे। मुनियों की श्रद्धा को देखकर सूतजी ने कहा हे मुनियों ! मैं आप लोगों के समक्ष रविवार के व्रत को सविस्तार वर्णन करता हूँ उसे आप लोग ध्यान पूर्वक सुनें। एक समय नारद ऋषि घूमते हुए पृथ्वी के अग्निकोणस्थित कोणार्क नामक पवित्र स्थान में पहुँचे। वह स्थान लवण समुद्र के समीप एक पवित्र भूमि है वहाँ श्री, कृष्णवीर्योत्पन्न जाम्ववती के पुत्र साम्व को कुष्ट रोग से पीड़ित देख उन्होंने पूछा- हे साम्व को आपका रूप इस प्रकार कुरूप क्यों हुआ, उसे आप सविस्तार वर्णन करें।
नारद के उपर्युक्त वचन को सुनकर भक्ति पूर्वक साम्व ने प्रणाम कर कहा- हे प्रभु ! आप तो सर्वज्ञ हैं अतः आपको सर्वविदित ही है मैं औ क्या कहूँ जो आप मुझे पूछ रहे हैं। आपके आदेश पालने हेतु मैं बता रहा हूँ। हे मुनि ! किसी कारण से पिता ने मुझ पर क्रोधित होकर कुष्ठ रोगी होओ कह कर श्राप दिया। हे गुरूदेव ! मुझे इससे मुक्ति का कोई उपाया बतावें, मैं आपसे इतनी विनती करता हूँ।
ऋषि श्रेष्ठ नारद साम्व का वचन सुनकर बोले हे साम्व ! इस रोग से मुक्ति पाने के लिए आप रविवार का व्रत करें जिसे ब्रह्मादि देवताओं ने करके सद्गति प्राप्त की एवं सर्वजनों का मनोरथ पूरक यह व्रत है। इस व्रत को करने वाला अचल सम्पत्ति प्राप्त कर सम्पूर्ण रोगों से मुक्ति प्राप्त करता है। इसी रविवार व्रत के करने से ब्रह्मा ने रचना शक्ति प्राप्त की तथा इन्द्र देव इसी के प्रभाव से हजारों लोक विचरण कर ‘‘सहस्राक्ष’’ कहलाए। कुबेर इस व्रत को कर धनवान बने, यम ने भी प्राणी हत्या से मुक्ति प्राप्त की, अग्नि ने सर्व भक्षण किया पर उनको इसके प्रभाव से एक भी दोष न लगा। अनेक युग तक राक्षस राज सुकेश भी इसके वरदान से जीवित रहा। सप्तव्दीप विख्यात नल राजा ने इस व्रत को करके पुनः स्वराज्य तथा पत्नी को प्राप्त किया ।। कृपालु प्रभु रामचन्द्र ने इसी के प्रभाव से रावण का वध किया। धर्मपुत्र युधिष्ठिर महाभारत युद्ध में कौरव दल को जीत कर समस्त पृथ्वी के राजा हुए। इन्हीं का ध्यान कर देवताओं का वास स्थान स्वर्ग में हुआ। मैं भी उन्हीं सूर्य की कृपा से श्वासत परब्रह्म होकर सर्वस्थान का दर्शन कर रहा हूँ। अतः आप भी इस महिमामयी व्रत को कर सर्वदा शुभफल की अभिलाषा करें।
नारद के मुख से साम्व ने श्रद्धापूर्वक रविवार व्रत का माहात्म्य सुना और वह संकल्प पूर्वक व्रत करके पित् श्राप से मुक्ति पाकर संपत्ति युक्त हुए एवं इस लोक में ऐश्वर्यशाली होकर अन्तकाल में बैकुण्ठ धाम को प्राप्त हुए। यह रविवार व्रत उसी दिन से इस मंडल में विख्यात हुआ।
गायत्री उपासना में विशेष रूप से रविवार का व्रत किया जाता है। उस दिन अपनी सामर्थ्यानुसार निराहार, फलाहार, दुग्धाहार, स्वल्पाहार, अस्वाद करके पूर्ण या आंशिक उपवास करना चाहिए। विशेष तपश्चर्या के रूप में ९ दिन में चौबीस हजार लघु अनुष्ठान, चालीस दिन में सवा लक्ष का अनुष्ठान, दो वर्ष में २४ लाख का महाअनुष्ठान किया जाता है।