Books - गायत्री अनुष्ठान का विज्ञान और विधान
Language: HINDI
सदैव शुभ गायत्री यज्ञ
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गायत्री अनुष्ठान के अन्त में या किसी भी शुभ अवसर पर ‘‘गायत्री- यज्ञ’’ करना चाहिए। जिस प्रकार वेदमाता की सरलता, सौम्यता, वत्सलता, सुसाध्यता प्रसिद्ध है उसी प्रकार गायत्री हवन भी अत्यन्त सुगम है। इसके लिए बड़ी भारी मीन- मेख निकालने की या कर्मकाण्डी पण्डितों का ही आश्रय लेने की अनिवार्यता नहीं है। साधारण बुद्धि के साधक इसको स्वयमेव भली प्रकार कर सकते हैं।
कुण्ड खोदकर या वेदी बनाकर दोनों ही प्रकार हवन किया जा सकता है। निष्काम बुद्धि से आत्म कल्याण के लिए किये जाने वाले हवन, कुण्ड खोदकर करना ठीक है और किसी कामना से मनोरथ की पूर्ति के लिए किये जाने वाले यज्ञ वेदी पर किये जाने चाहिए। कुण्ड या वेदी की लम्बाई- चौड़ाई साधक के अंगुलों से चौबीस- २ अंगुल होनी चाहिए। कुण्ड खोदा जाय तो उसे चौबीस अंगुल ही गहरा भी खोदना चाहिए और इस प्रकार तिरछा खोदना चाहिए कि नीचे पहुँचते- २ छः अंगुल चौड़ा और छः अंगुल लम्बा रह जावे। वेदी बनानी हो तो पीली मिट्टी की चार अंगुल ऊँची वेदी चौबीस- २ अंगुल लम्बी चौड़ी बनानी चाहिए। वेदी या कुण्ड को हवन करने से दो घण्टे पूर्व केवल पानी से इस प्रकार लीप देना चाहिए कि वह समतल हो जावे, ऊँचाई- नीचाई अधिक न रहे। कुण्ड या वेदी से चार अंगुल हटकर एक छोटी- सी नाली दो अंगुल गहरी खोदकर उसमें पानी भर देना चाहिए। वेदी या कुण्ड के आस- पास गेहूँ का आटा, हल्दी, रोली आदि मांगलिक द्रव्यों से चौक पूर कर चित्र- विचित्र बना कर अपनी कलाप्रियता का परिचय देना चाहिए। यज्ञ- स्थल को अपनी सुविधानुसार मण्डप, पुष्प- पल्लव आदि से जितना सुन्दर एवं आकर्षक बनाया जा सके उतना अच्छा है।
वेदी या कुण्ड के ईशानकोण में कलश स्थापित करना चाहिए। मिट्टी या उत्तम धातु के बने हुए कलश में पवित्र जल भर कर उसके मुख में आम्र- पल्लव रखने चाहिए और ऊपर ढक्कन में चावल, गेहूँ का आटा, मिष्ठान्न अथवा कोई अन्य मांगलिक द्रव्य रख देना चाहिए। कलश के चारों ओर हल्दी से स्वस्तिक (सन्थिया) अंकित कर देना चाहिए। कलश के समीप एक छोटी चौकी या वेदी पर पुष्प और गायत्री की प्रतिमा, पूजन सामग्री रखनी चाहिए।
वेदी या कुण्ड के तीन ओर आसन बिछाकर इष्ट मित्रों, बन्धु- बान्धवों सहित बैठना चाहिए। पूर्व दिशा में जिधर कलश और गायत्री स्थापित है, उधर किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण अथवा अपने वयोवृद्ध को आचार्य वरण करके बिठाना चाहिए, वह इस यज्ञ का ब्रह्मा है। यजमान पहले ब्रह्मा के दाहिने हाथ में सूत्र (कलावा) बाँधे रोली या चन्दन से उनका तिलक करे, चरण स्पर्श करे तथा पुष्प, फल, मिष्ठान्न की एक छोटी- सी भेंट उनके सामने उपस्थित करें। तदुपरांत ब्रह्मा उपस्थित सब लोगों को क्रमशः अपने पास बुलाकर उनके दाहिने हाथ में कलावा बाँधे मस्तक पर रोली का तिलक करें और उनके ऊपर अक्षत छिड़क कर आशीर्वाद के मङ्गल वचन बोलें।
यजमान को पश्चिम की ओर बैठना चाहिए, उसका मुख पूर्व को रहे। हवन सामग्री और घृत अधिक हो तो उसे कई पात्रों में विभाजित करने के लिए कई आदमी हवन करने बैठ सकते हैं। सामग्री थोड़ी हो तो यजमान हवन सामग्री अपने पास रखें और उसकी पत्नी घृत- पात्र सामने रखकर चम्मच (श्रुवा) सँभाले। पत्नी न हो तो भाई या मित्र घृत- पात्र लेकर बैठ सकता है। समिधायें सात प्रकार की होती हैं। यह सब प्रकार की न मिल सकें तो जितने प्रकार की मिल सकें, उतने प्रकार की ले लेनी चाहिए। हवन सामग्री, त्रिगुणात्मक साधना में आगे दी हुई हैं। वे तीनों गुण वाली लेनी चाहिए, पर आध्यात्मिक हवन हो तो सतोगुणी सामग्री आधी और चौथाई- चौथाई रजोगुणी, तमोगुणी लेनी चाहिए। यदि किसी भौतिक कामना के लिए हवन किया गया हो तो रजोगुणी आधी और सतोगुणी, तमोगुणी चौथाई- चौथाई लेनी चाहिए। सामग्री को भले प्रकार साफ कर धूप में सुखा कर जौकुट कर लेना चाहिये। सामग्रियों की किसी वस्तु के न मिलने पर या कम मिलने पर उसका भाग उसी गुण वाली दूसरी औषधि को मिलाकर किया जा सकता है।
उपस्थित लोगों में जो हवन की विधि में सम्मिलित हों, वे स्नान किये हुए हों। जो लोग दर्शक हों, वे थोड़ा हटकर बैठें। दोनों के बीच थोड़ा फासला होना चाहिये।
हवन आरम्भ करते हुए यजमान ब्रह्मसंध्या के आरम्भ में प्रयोग होने वाले पंचकोषों (आचमन, शिखाबन्धन, प्राणायाम,अघमर्षण तथा न्यास) की क्रियायें करें। तत्पश्चात् वेदी या कुण्ड पर समिधायें चिनकर कपूर की सहायता से गायत्री मंत्र के उच्चारण सहित अग्नि प्रज्वलित करें। सब लोग साथ- साथ मन्त्र बोलें और अन्त में स्वाहा के साथ घृत तथा सामग्री वाले उनका हवन करें। आहुति के अन्त में चम्मच में से बचे हुए घृत की एक- एक बूँद पास में रखे हुए जल पात्र में टपकाते जाना चाहिए और आदि ‘शक्तिगायत्र्यै इदन्नमम’ का उच्चारण करना चाहिए। हवन के साथ- साथ बोलते हुए मधुर स्वर से मंत्रोच्चारण करना उत्तम है। उदात्त अनुदान और स्वरित के अनुसार होने न होने की इस सामूहि सम्मेलन में शास्त्रकारों को छूट दी हुई है।
आहुतियाँ कम से कम १०८ होनी चाहिए। अधिक इससे दो, तीन, चार या चाहे जितने गुने किये जा सकते हैं। सामग्री कम से कम प्रति आहुति के लिये तीन मासे के हिसाब से ३२ तोले अर्थात् करीब ६॥ छटाँक और धूत एक मासे प्रति आहुति के हिसाब से २॥ छँटाक होना चाहिए। सामर्थ्यानुसार इससे अधिक चाहे जितना बढ़ाया जा सकता है। ब्रह्मा माला लेकर बैठे और आहुतियाँ गिनता रहे। जब पूरा हो जाये तो आहुतियाँ समाप्त करा दे। उस दिन बने हुये पकवान मिष्ठान्न आदि में से अलौने और मधुर पदार्थ लेने चाहिए। नमक मिर्च मिले हुए शाक, अचार, रायते आदि का अग्नि होमने का निषेध है। इस भोजन में से थोड़ा- थोड़ा भाग लेकर वे सभी लोग चढ़ावें जिन्होंने स्नान किया है और हवन में भाग लिया है ।। अन्त में एक नारियल की भीतरी गिरी का गोला लेकर उसमें छेद करके यज्ञशेष घृत भरना चाहिये और खड़े होकर पूर्णाहुति के रूप में उसे अग्नि में समर्पित कर देना चाहिये। यदि कुछ सामग्री बची हो तो वह सब इसी समय चढ़ा देनी चाहिए।
इसके पश्चात् सब लोग खड़े होकर यज्ञ की चार परिक्रमा करें और ‘इदन्नमम’ का पानी पर तैरता हुआ घृत उँगली से लेकर पलकों पर लगावें। हवन की बुझी हुई भस्म लेकर सब लोग मस्तक पर लगावें। कीर्तन या भजन गायन करें और प्रसाद वितरण करके सब लोग प्रसन्नता और अभिवादन पूर्वक विद हों। यज्ञ की सामग्री को दूसरे दिन किसी पवित्र स्थान में विसर्जित करना चाहिए। यह गायत्री यज्ञ अनुष्ठान के अन्त में नहीं हो सकता, अन्य शुभ कर्मों में किया जा सकता है। प्रयोजन के अनुरूप ही साधक भी जुटाने पड़ते हैं। लड़ाई के लिए युद्ध सामग्री जमा करनी पड़ती है और जिस प्रकार का व्यापार हो उसके लिए उस तरह का सामान इकट्ठा करना होता है भोजन बनाने वाला रसोई सम्बन्धी वस्तुएँ लाकर अपने पास रखता है और चित्रकार को अपनी आवश्यक चीज जमा करनी होती है। व्यायाम करने की और दफ्तर जाने की पोशाक में अन्तर रहता है। जिस प्रकार की साधना करनी होती है, उसी के अनुरूप, उन्हीं तत्वों वाली, उन्हीं प्राणों वाली, उन्हीं गुणों वाली सामग्री उपयोग में लानी होती है। सबसे प्रथम यह देखना चाहिए कि हमारी साधना किस उद्देश्य के लिए है? सत, रज ,तम में किसी तन्त्र की वृद्धि के लिए है। जिस प्रकार की साधना हो, इसी प्रकार की साधना- सामग्री व्यवहृत करनी चाहिए। नीचे सम्बन्ध में एक विवरण दिया जाता है-
सतोगुण-
माला- तुलसी। आसन- कुश। पुष्प- श्वेत। पात्र- ताँबा। वस्त्र- सूत (खादी)। मुख- पूर्व को ।। दीपक में घृत- गौ। तिलक- चन्दन। हवन में समिधा- पीपल, बड़,गूलर। हवन सामग्री- श्वेत चन्दन, अगर, छोटी इलयची, लोंग, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, शतावरि, खस, शीतल चीनी, आँवला, इन्द्रजौ, वंशलोचन, जावित्री, गिलोय, बच, नेत्रवाला, मुलहठी, कमल केशर, बड़ की जटाएं, नारियल बादाम, दाख, जौ, मिश्री।
रजोगुण-
माला- चन्दन। आसन- सूत। पुष्प- पीले। पात्र- काँसा। वस्त्र- रेशम। मुख- उत्तर को। दीपक में घृत- भैंस का घृत। तिलक- रोली। समिधा- आम, ढाक, शीशम। हवन- सामग्री, बड़ी इलायची, केशर, छारछबीला, पुनर्नवा, जीवन्ती, कचूर, तालीस पत्र, रास्ना, नागरमोथा, उन्नाव, तालमखाना, मोचरस, सोंफ, चित्रक, दालचीनी, पद्माख, छुहारा, किशमिश, चावल, खाँड़।
तमोगुण-
माला- रूद्राक्ष। आसन- ऊन। पुष्प- हल्के या गहरे लाल। पात्र- लोहा। वस्त्र- ऊन। मुख- पश्चिम को ।। दीपक में घृत- बकरी का। तिलक -भस्म का। समिधा- बेल, छोंकर, करील। सामग्री- रक्त चन्दन, तगर, असगन्ध, जायफल, कमलगट्टा, नागकेशर, पीपर बड़ी, कुटली, चिरायता, अपामार्ग, काकाड़ासिंगी, पोहकरमूल, कुलञ्जन, मूसली स्याह, मेथी के बीच, काकजंघा, भारङ्गी, अकरकरा, पिस्ता, अखरोट, चिरोंजी, तिल, उड़द, गुड़।
गुणों के अनुसार साधना- सामग्री उपयोग करने से साधक में उन्हीं गुणों की अभिवृद्धि होती है, तदनुसार सफलता का मार्ग अधिक सुगम हो जाता है।
नित्य हवन विधिगायत्री उपासना से हवन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। गायत्री उपासक को अपनी सुविधा और स्थिति के अनुसार हवन भी करते रहना चाहिए। बड़े यज्ञों का ‘यज्ञ विधान’ तथा छोटे हवनों की ‘हवन विधि’ छापी जा चुकी है। पर जिन्हें नित्य हवन करना हो, या जिनके पास बहुत ही कम समय हो उनके लिए और भी संक्षिप्त विधि नीचे दी जा रही है। जप के बाद हवन किया जाता है। हवन करना हो तो विसर्जन, अर्घ्यदान आदि उपासना समाप्ति की क्रियाएँ यज्ञ के बाद ही करनी चाहिए। हवन में यदि अन्य व्यक्ति भी भाग लें तो उनसे ब्रह्मसंध्या कराके तब हवन में सम्मिलित करना चाहिए।
दैनिक हवन
(१) अग्नि स्थापन- कुण्ड या वेदी को शुद्ध करके उस पर समिधाएँ चिन लें फिर अग्निस्थापन के लिए चम्मच से कपूर या घी में भिगोई हुई बत्ती को जलाकर उन समिधाओं के बीच में स्थापित करें। मंत्र-
ॐ भूर्भुवः स्वः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीववरिम्णा।
तस्यातेपृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नदमन्नाद्यायादधे॥
अग्निं दूतं पुरो धते हव्यवामुपब्रुबे। देवांऽआसादयादिह ॥
ॐ अग्नये नमः। अग्निं आवाहयामि। स्थापयामि ।।
इहागच्छ इह तिष्ठ। इत्यावाह्य पञ्चोपचारैः पूजयेत् ॥
(२) अग्नि प्रदीपन- जब अग्नि समिधाओं में प्रवेश कर जावे तब उसे पंखे से प्रज्वलित करें और यह मंत्र बोलें-
ॐ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृह त्वमिष्ठा पूर्ते सँ सृजेथामयंच। अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वेदेवा यजयमानश्च सीदत॥
(३) समिधादान- तत्पश्चात् निम्न चार मन्त्रों से छोटी- छोटी चार समिधाएँ प्रत्येक मन्त्र के उच्चारण के बाद क्रम से घी में डुबोकर अग्नि में डालें-
(क) ॐ अयं त इध्म आत्मा जतवेदस्तेनेध्यस्व
वर्धस्व। चेद्ध वर्धय चास्मानृ प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समधयस्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम॥
(ख)ॐ समिधाग्नि दुबस्य घृतबोधयता तिथिम्। अस्मिन हव्या जुहोतन स्वाहा॥ इदमग्नये इदं न मम॥
(ग) ॐ सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन। अग्नये जातवेदसे स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे इदं न मम ॥
(घ) ॐ तंत्वा समिदिभरि रो घृतेन वर्धयामि। वृहच्छीचायविष्ठया स्वाहा। इतमग्नयेऽङ्गिरसे इदं न मम ॥
(४) जल प्रसेचन- तत्पश्चात् अञ्जलि (या आचमनी) में जल लेकर यज्ञ कुण्ड (बेदी) के चारों ओर छिड़कावें।
उसके मन्त्र ये हैं-
ॐ अदितेऽनुमन्यस्व ॥ इससे पूर्व को
ॐ अनुमतेऽनुमन्यस्व ॥ इससे पश्चिम को
ॐ सरस्वत्यनुमन्यस्व ॥ इससे उत्तर को
ॐ देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुवं यज्ञपतिं भगार्य। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।
(५) आज्याहुति होम- नीचे लिखी साम आहुतियाँ केवल घृत की देवें और स्रुवा (घी होमने का चम्मच) से बचा हुआ घृत इदन्नमम उच्चारण के साथ प्रणीता जल भरी हुई कटोरी में हर आहुति के बाद टपकाते जाते हैं। यही टपकाया हुआ घृत अन्त में अवघ्राण के काम आता है।
(क) ॐ प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये इदं न मम ।।
(ख) ॐ इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय इदं न मम ।।
(ग) ॐ अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदं न मम।
(घ) ॐ सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदं न मम।
(ङ) ॐ भूः स्वाहा। इदं अग्नये इदं न मम।
(च) ॐ भुवः स्वाहा। इदं वायवे इदं न मम ।।
(छ) ॐ स्वः स्वाहा। इदं सूर्याय इदं न मम ।।
(६) गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ- इसके पश्चात् गायत्री मन्त्र से जितनी आहुतियाँ देनी हों हवन सामग्री तथा घी से देनी चाहिए। यदि दो व्यक्ति हवन करने वाले हों तो एक सामग्री, दूसरा घी होमे। यदि एक ही व्यक्ति हो तो घी सामग्री मिलाकर आहुति देवें। गायत्री मन्त्र-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
इदं गायत्र्यै इदं न मम ।।
(७) स्विष्टकृत होम- अभीष्ट संख्या में गायत्री मन्त्र से आहुतियाँ देने के पश्चात् मिष्ठान्न, खीर, हलुआ आदि पदार्थों की एक आहुति देनी चाहिए-
ॐ यदस्य कर्मणो त्यरीरिचं यद्वान्यूनमिहाकरं अग्निष्टत्
स्विष्टकृद्विद्यात्सर्व स्विष्टं सुहुतं करोतुमे। अग्नये स्विष्टकृते
सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामनां समययित्रे सर्वान्नः
कामान् समेधय स्वाहा। इदमग्नये स्विष्टकृते इदन्नमम ।।
(८) पूर्णाहुति- इसके बाद स्रुचि चम्मच में घृत समेत सुपाड़ी रखकर पूर्णाहुति दे।
ॐ पूर्णमिदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।।
पूर्णस्य पूर्ण मादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ पूर्णादर्विपरापत सुपूर्णा पुनरापत ।।
वस्नेवं विक्रीणा वहाऽइषमूर्ज शतक्रतो स्वाहा ॥
ॐ सर्व वै पूर्ण स्वाहा ।।
(९) वसोधारा- चम्मच से ही भर कर धीरे- धीरे बाँध कर छोड़ें ।।
ॐ वसो पवित्र मसि शतंधारं वसो पवित्रमसि
सहस्र धारम्। देवस्त्वा सविता पुनातु वसो पवित्रेण
शत धारेण सुप्वा कामाधुक्षः स्वाहा ॥
(१०) आरती- तत्पश्चात् निम्न मन्त्रों को पढ़ते हुए आरती उतारें-
यं ब्रह्मावरूणेन्द्ररूद्रमरूतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवैः ।।
वेदैः सा पदक्रमोपनिषदै र्गायन्ति यं सामगाः ॥
ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो ।।
यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणाः देवाय तस्मै नमः ।।
(११) घृत अवघ्राण -प्रणीता में इदन्नमम के साथ टपकाये हुये घृत को हथेलियों पर लगा कर अग्नि पर सेके और उसे सूंघे तथा मुख, नेत्र कर्ण आदि पर लगावे।
ॐ तनूपा अग्नेसि तन्व मे पाहि ।।
ॐ आयुर्दा अग्नेऽस्युर्मे देहि ।।
ॐ वर्चोदा अग्नेसि वर्चो मे देहि ।।
ॐ अग्ने यन्ये तन्वा उनन्तन्म आपृण ।।
ॐ मेधा मे देवः सविता आदधातु ।।
ॐ मेधां मे देवी सरस्वती आदधातु ।।
ॐ मेधां मे अश्विनौ वाधतां पुष्कर स्रजौ ।।
(१२) भस्म धारण- स्रुवा से यज्ञ भस्म लेकर अनामिका उंगली से निम्न मंत्रों द्वारा ललाट, ग्रीवा, दक्षिण बाहु मूल तथा हृदय पर लगावे ।।
ॐ त्र्यायुषं जमदग्नेरिति ललाटे ।।
ॐ कश्यपश्य त्रायुषमिति ग्रीवायाम् ।।
ॐ यद्देबेषु त्र्यायुषमिति दक्षिण बाहु मूले ।।
ॐ तन्नोअस्तु त्र्यायुषमिति हृदि ।।
(१३) शान्ति पाठ- हाथ जोड़ कर सबके कल्याण के लिए शान्ति पाठ करें ।।
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्षः शान्तिः पृथ्वी शान्ति राप शान्तिरोषधयः शान्तिः वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिरेव शान्तिः सामा शान्ति रे धि ॥ ॐ शान्ति शान्ति शान्ति ।। सर्वारिष्टा सुशान्तिर्भवतु ॥