Books - गायत्री की २४ शक्ति धाराएँ
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Language: HINDI
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लक्ष्मी
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'म' वणर्स्य च देवी तु महालक्ष्मीस्तथैव च ।।
कुबेरो देवता बीजं 'श्रीं' ऋषिश्चाश्वलायनः॥
यन्त्रं श्रीः श्रीमुखी भूती तारिणी कथितान्यपि ।।
सम्पन्नत्वं सदिच्छा च द्वयं प्रतिफलं मतम्॥
अर्थात - 'म' अक्षर की देवी 'महालक्ष्मी', देवता- 'कुबेर', बीज 'श्रीं, ऋषि- 'आश्वलायन, यन्त्र 'श्रीयन्त्रम्', विभूति- 'तारिणी एवं श्रीमुखी' और फलश्रुति- 'सदिच्छा एवं सम्पन्नता' है ।।
गायत्री की एक धारा 'श्री' है ।। 'श्री' अर्थात लक्ष्मी- लक्ष्मी अर्थात् समृद्धि ।। गायत्री की कृपा से मिलने वाले वरदानों में एक लक्ष्मी भी है ।। जिस पर यह अनुग्रह उतरता है, वह दरिद्र, दुर्बल, कृपण, असंतुष्ट एवं पिछड़ेपन से ग्रसित नहीं रहता ।। स्वच्छता एवं सुव्यवस्था के स्वभाव को भी 'श्री' कहा गया है ।। यह सद्गुण जहाँ होंगे, वहाँ दरिद्रता, कुरूपता टिक नहीं सकेगी ।।
पदार्थ को मनुष्य के लिए उपयोगी बनाने और उसकी अभीष्ट मात्रा उपलब्ध करने की क्षमता को लक्ष्मी कहते हैं ।। यों प्रचलन में तो 'लक्ष्मी' शब्द सम्पत्ति के लिए प्रयुक्त होता है, पर वस्तुतः वह चेतना का एक गुण है, जिसके आधार पर निरुपयोगी वस्तुओं को भी उपयोगी बनाया जा सकता है ।। मात्रा में स्वल्प होते हुए भी उनका भरपूर लाभ सत्प्रयोजनों के लिए उठा लेना एक विशिष्ट कला है ।। वह जिसे आती है उसे लक्ष्मीवान , श्रीमान् कहते हैं ।। शेष अमीर लोगों को धनवान् भर कहा जाता है ।। गायत्री की एक किरण लक्ष्मी भी है ।। जो इसे प्राप्त करता है, उसे स्वल्प साधनों में भी अर्थ उपयोग की कला आने के कारण सदा सुसम्पन्नों जैसी प्रसन्नता बनी रहती है ।।
धन का अधिक मात्रा में संग्रह होने मात्र से किसी को सौभाग्यशाली नहीं कहा जा सकता ।। सद्बुद्धि के अभाव में वह नशे का काम करती है, जो मनुष्य को अहंकारी, उद्धत, विलासी और दुर्व्यसनी बना देता है ।। सामान्यतया धन पाकर लोग कृपण, विलासी, अपव्ययी और अहंकारी हो जाते हैं ।। लक्ष्मी का एक वाहन उलूक माना गया है ।। उलूक अर्थात मूर्खता ।। कुसंस्कारी व्यक्तियों को अनावश्यक सम्पत्ति मूर्ख ही बनाती है ।। उनसे दुरुपयोग ही बन पड़ता है और उसके फल स्वरूप वह आहत ही होता है ।।
लक्ष्मी का अभिषेक दो हाथी करते हैं ।। वह कमल के आसन पर विराजमान है ।। कमल कोमलता का प्रतीक है ।।
कोमलता और सुंदरता सुव्यवस्था में ही सन्निहित रहती है ।। कला भी इसी सत्प्रवृत्ति को कहते हैं ।। लक्ष्मी का एक नाम कमल भी है ।। इसी को संक्षेप में कला कहते हैं ।। वस्तुओं को, सम्पदाओं को सुनियोजित रीति से सदुदेश्य के लिए सदुपयोग करना, उसे परिश्रम एवं मनोयोग के साथ नीति और न्याय की मर्यादा में रहकर उपार्जित करना भी अर्थकला के अंतर्गत आता है ।। उपार्जन अभिवर्धन में कुशल होना श्री तत्त्व के अनुग्रह का पूर्वार्द्ध है ।। उत्तरार्द्ध वह है जिसमें एक पाई का भी अपव्यय नहीं किया जाता ।। एक- एक पैसे को सदुद्देश्य के लिए ही खर्च किया जाता है ।।
लक्ष्मी का जल- अभिषेक करने वाले दो गजराजों को परिश्रम और मनोयोग कहते हैं ।। उनका लक्ष्मी के साथ अविच्छिन्न संबंध है ।। यह युग्म जहाँ भी रहेगा, वहाँ वैभव की, श्रेय- सहयोग की कमी रहेगी ही नहीं ।। प्रतिभा के धनी पर सम्पन्नता और सफलता की वर्षा होती है और उन्हें उत्कर्ष के अवसर पग- पग पर उपलब्ध होते हैं ।।
गायत्री के तत्त्वदर्शन एवं साधन क्रम की एक धारा लक्ष्मी है ।। इसका शिक्षण यह है कि अपने में उस कुशलता की, क्षमता की अभिवृद्धि की जाय, तो कहीं भी रहो, लक्ष्मी के अनुग्रह और अनुदान की कमी नहीं रहेगी ।। उसके अतिरिक्त गायत्री उपासना की एक धारा 'श्री' साधना है ।। उसके विधान अपनाने पर चेतना- केन्द्र में प्रसुप्त पड़ी हुई वे क्षमताएँ जागृत होती हैं, जिनके चुम्बकत्व से खिंचता हुआ धन- वैभव उपयुक्त मात्रा में सहज ही एकत्रित होता रहता है ।। एकत्रित होने पर बुद्धि की देवी सरस्वती उसे संचित नहीं रहने देती, वरन् परमार्थ प्रयोजनों में उसके सदुपयोग की प्रेरणा देती है ।।
लक्ष्मी प्रसन्नता की, उल्लास की, विनोद की देवी है ।। वह जहाँ रहेगी हँसने- हँसाने का वातावरण बना रहेगा ।। अस्वच्छता भी दरिद्रता है ।। सौन्दर्य, स्वच्छता एवं कलात्मक सज्जा का ही दूसरा नाम है ।। लक्ष्मी सौन्दर्य की देवी है ।। वह जहाँ रहेगी वहाँ स्वच्छता, प्रसन्नता, सुव्यवस्था, श्रमनिष्ठा एवं मितव्ययिता का वातावरण बना रहेगा ।।
गायत्री की लक्ष्मी धारा का अवगाहन करने वाले श्रीवान बनते हैं और उसका आनंद एकाकी न लेकर असंख्यों को लाभान्वित करते हैं ।। लक्ष्मी के स्वरूप, वाहन आदि का संक्षेप में विवेचन इस प्रकार है-
लक्ष्मी के एक मुख, चार हाथ हैं ।। वे एक लक्ष्य और चार प्रकृतियों (दूरदर्शिता, दृढ़ संकल्प, श्रमशीलता एवं व्यवस्था शक्ति) के प्रतीक हैं ।। दो हाथों में कमल- सौन्दर्य और प्रामाणिकता के प्रतीक है ।। दान मुद्रा से उदारता तथा आशीर्वाद मुद्रा से अभय अनुग्रह का बोध होता है ।। वाहन- उलूक, निर्भीकता एवं रात्रि में अँधेरे में भी देखने की क्षमता का प्रतीक है ।।
कुबेरो देवता बीजं 'श्रीं' ऋषिश्चाश्वलायनः॥
यन्त्रं श्रीः श्रीमुखी भूती तारिणी कथितान्यपि ।।
सम्पन्नत्वं सदिच्छा च द्वयं प्रतिफलं मतम्॥
अर्थात - 'म' अक्षर की देवी 'महालक्ष्मी', देवता- 'कुबेर', बीज 'श्रीं, ऋषि- 'आश्वलायन, यन्त्र 'श्रीयन्त्रम्', विभूति- 'तारिणी एवं श्रीमुखी' और फलश्रुति- 'सदिच्छा एवं सम्पन्नता' है ।।
गायत्री की एक धारा 'श्री' है ।। 'श्री' अर्थात लक्ष्मी- लक्ष्मी अर्थात् समृद्धि ।। गायत्री की कृपा से मिलने वाले वरदानों में एक लक्ष्मी भी है ।। जिस पर यह अनुग्रह उतरता है, वह दरिद्र, दुर्बल, कृपण, असंतुष्ट एवं पिछड़ेपन से ग्रसित नहीं रहता ।। स्वच्छता एवं सुव्यवस्था के स्वभाव को भी 'श्री' कहा गया है ।। यह सद्गुण जहाँ होंगे, वहाँ दरिद्रता, कुरूपता टिक नहीं सकेगी ।।
पदार्थ को मनुष्य के लिए उपयोगी बनाने और उसकी अभीष्ट मात्रा उपलब्ध करने की क्षमता को लक्ष्मी कहते हैं ।। यों प्रचलन में तो 'लक्ष्मी' शब्द सम्पत्ति के लिए प्रयुक्त होता है, पर वस्तुतः वह चेतना का एक गुण है, जिसके आधार पर निरुपयोगी वस्तुओं को भी उपयोगी बनाया जा सकता है ।। मात्रा में स्वल्प होते हुए भी उनका भरपूर लाभ सत्प्रयोजनों के लिए उठा लेना एक विशिष्ट कला है ।। वह जिसे आती है उसे लक्ष्मीवान , श्रीमान् कहते हैं ।। शेष अमीर लोगों को धनवान् भर कहा जाता है ।। गायत्री की एक किरण लक्ष्मी भी है ।। जो इसे प्राप्त करता है, उसे स्वल्प साधनों में भी अर्थ उपयोग की कला आने के कारण सदा सुसम्पन्नों जैसी प्रसन्नता बनी रहती है ।।
धन का अधिक मात्रा में संग्रह होने मात्र से किसी को सौभाग्यशाली नहीं कहा जा सकता ।। सद्बुद्धि के अभाव में वह नशे का काम करती है, जो मनुष्य को अहंकारी, उद्धत, विलासी और दुर्व्यसनी बना देता है ।। सामान्यतया धन पाकर लोग कृपण, विलासी, अपव्ययी और अहंकारी हो जाते हैं ।। लक्ष्मी का एक वाहन उलूक माना गया है ।। उलूक अर्थात मूर्खता ।। कुसंस्कारी व्यक्तियों को अनावश्यक सम्पत्ति मूर्ख ही बनाती है ।। उनसे दुरुपयोग ही बन पड़ता है और उसके फल स्वरूप वह आहत ही होता है ।।
लक्ष्मी का अभिषेक दो हाथी करते हैं ।। वह कमल के आसन पर विराजमान है ।। कमल कोमलता का प्रतीक है ।।
कोमलता और सुंदरता सुव्यवस्था में ही सन्निहित रहती है ।। कला भी इसी सत्प्रवृत्ति को कहते हैं ।। लक्ष्मी का एक नाम कमल भी है ।। इसी को संक्षेप में कला कहते हैं ।। वस्तुओं को, सम्पदाओं को सुनियोजित रीति से सदुदेश्य के लिए सदुपयोग करना, उसे परिश्रम एवं मनोयोग के साथ नीति और न्याय की मर्यादा में रहकर उपार्जित करना भी अर्थकला के अंतर्गत आता है ।। उपार्जन अभिवर्धन में कुशल होना श्री तत्त्व के अनुग्रह का पूर्वार्द्ध है ।। उत्तरार्द्ध वह है जिसमें एक पाई का भी अपव्यय नहीं किया जाता ।। एक- एक पैसे को सदुद्देश्य के लिए ही खर्च किया जाता है ।।
लक्ष्मी का जल- अभिषेक करने वाले दो गजराजों को परिश्रम और मनोयोग कहते हैं ।। उनका लक्ष्मी के साथ अविच्छिन्न संबंध है ।। यह युग्म जहाँ भी रहेगा, वहाँ वैभव की, श्रेय- सहयोग की कमी रहेगी ही नहीं ।। प्रतिभा के धनी पर सम्पन्नता और सफलता की वर्षा होती है और उन्हें उत्कर्ष के अवसर पग- पग पर उपलब्ध होते हैं ।।
गायत्री के तत्त्वदर्शन एवं साधन क्रम की एक धारा लक्ष्मी है ।। इसका शिक्षण यह है कि अपने में उस कुशलता की, क्षमता की अभिवृद्धि की जाय, तो कहीं भी रहो, लक्ष्मी के अनुग्रह और अनुदान की कमी नहीं रहेगी ।। उसके अतिरिक्त गायत्री उपासना की एक धारा 'श्री' साधना है ।। उसके विधान अपनाने पर चेतना- केन्द्र में प्रसुप्त पड़ी हुई वे क्षमताएँ जागृत होती हैं, जिनके चुम्बकत्व से खिंचता हुआ धन- वैभव उपयुक्त मात्रा में सहज ही एकत्रित होता रहता है ।। एकत्रित होने पर बुद्धि की देवी सरस्वती उसे संचित नहीं रहने देती, वरन् परमार्थ प्रयोजनों में उसके सदुपयोग की प्रेरणा देती है ।।
लक्ष्मी प्रसन्नता की, उल्लास की, विनोद की देवी है ।। वह जहाँ रहेगी हँसने- हँसाने का वातावरण बना रहेगा ।। अस्वच्छता भी दरिद्रता है ।। सौन्दर्य, स्वच्छता एवं कलात्मक सज्जा का ही दूसरा नाम है ।। लक्ष्मी सौन्दर्य की देवी है ।। वह जहाँ रहेगी वहाँ स्वच्छता, प्रसन्नता, सुव्यवस्था, श्रमनिष्ठा एवं मितव्ययिता का वातावरण बना रहेगा ।।
गायत्री की लक्ष्मी धारा का अवगाहन करने वाले श्रीवान बनते हैं और उसका आनंद एकाकी न लेकर असंख्यों को लाभान्वित करते हैं ।। लक्ष्मी के स्वरूप, वाहन आदि का संक्षेप में विवेचन इस प्रकार है-
लक्ष्मी के एक मुख, चार हाथ हैं ।। वे एक लक्ष्य और चार प्रकृतियों (दूरदर्शिता, दृढ़ संकल्प, श्रमशीलता एवं व्यवस्था शक्ति) के प्रतीक हैं ।। दो हाथों में कमल- सौन्दर्य और प्रामाणिकता के प्रतीक है ।। दान मुद्रा से उदारता तथा आशीर्वाद मुद्रा से अभय अनुग्रह का बोध होता है ।। वाहन- उलूक, निर्भीकता एवं रात्रि में अँधेरे में भी देखने की क्षमता का प्रतीक है ।।