Books - गायत्री की २४ शक्ति धाराएँ
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२४ गायत्री
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यों तो गायत्री में सन्निहित शक्तियाँ और उनकी प्रतिक्रियाओं के नामों का उल्लेख अनेक साधना शास्त्रों में अनेक प्रकार से हुआ है ।। इनके नाम, रूपों में भिन्नता दिखाई पड़ती है ।। इस मतभेद या विरोधाभास से किसी असमंजस में पड़ने की आवश्यकता नहीं है ।। एक ही शक्ति को विभिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त करने पर उसके विभिन्न परिणाम निकलते हैं ।। दूध पीने पर व्यायाम प्रिय व्यक्ति पहलवान बनता है ।। विद्यार्थी की स्मरण शक्ति बढ़ती है ।। योगी को उस सात्त्विक आहार से साधना में मन लगता है ।। प्रसूता के स्तनों में दूध बढ़ता है ।। यह लाभ एक दूसरे से भिन्न है ।। इससे प्रतीत होता है कि दूध के गुणों का जो वर्णन किया गया है, उसमें मतभेद है ।। यह विरोधाभास ऊपरी है ।। भीतरी व्यवस्था को समझने पर यों कहा जा सकता है कि हर स्थिति के व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुसार इससे लाभ पहुँचता है ।। दूध के गुणों में जो विरोधाभास जान पड़ता है, उसके लिए असमंजस नहीं करना चाहिए ।।
कई बार शब्दों के अन्तर से भी वस्तु की भिन्नता मालूम पड़ती है ।। एक ही पदार्थ के विभिन्न भाषाओं में विभिन्न नाम होते हैं ।। उन्हें सुनने पर सहज- बुद्धि को भ्रम हो सकता है और अनेक पदार्थों की बात चलती लग सकती है ।। पर जब यह प्रतीत होगा कि एक ही वस्तु के भाव भेद से अनेक उच्चारण हो रहे हैं तो उस अन्तर को समझने में देर नहीं लगती, जिससे एकता को अनेकता में समझा जा रहा था ।।
एक सूर्य के अनेक लहरों पर अनेक प्रतिबिम्ब चमकते हैं ।। व्यक्तियों की मनःस्थिति के अनुरूप एक ही उपलब्धि का प्रतिफल अनेक प्रकार का हो सकता है ।। धन को पाकर एक व्यक्ति व्यवसायी, दूसरा दानी, तीसरा अपव्ययी हो सकता है ।। धन के इन गुणों को देखकर उसकी भिन्न प्रतिक्रियाएँ झाँकने की बात अवास्तविक है ।। वास्तविक बात यह है कि हर व्यक्ति अपनी इच्छानुसार धन का उपयोग करके अभीष्ट प्रयोजन पूरे कर सकता है ।। गायत्री के २४ अक्षरों में सन्निहित चौबीस शक्तियों का प्रभाव यह है कि मनुष्य की मौलिक विशिष्टताओं को उभारने में उनके आधार पर असाधारण सहायता मिलती है ।। इसे आन्तरिक उत्कर्ष या दैवी अनुग्रह- दोनों में से किसी नाम से पुकारा जा सकता है ।। कहने- सुनने में इन दोनों शक्तियों में जमीन आसमान जैसा अन्तर दिखता है और दो भिन्न बातें कही जाती प्रतीत होती हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि व्यक्तित्व में बढ़ी हुई विशिष्टताएँ सुखद परिणाम उत्पन्न करती हैं और प्रगति क्रम में सहायक सिद्ध होती हैं ।। इतना कहने से भी काम चलता है ।। भीतरी उत्कर्ष और बाहरी अनुग्रह वस्तुतः एक ही तथ्य के दो प्रतिपादन भर हैं ।। उन्हें अन्योन्याश्रित भी कहा जा सकता है ।।
गायत्री की २४ शक्तियों का वर्णन शास्त्रों ने अनेक नाम रूपों से किया है ।। उनके क्रम में अन्तर है ।। इतने पर भी इस मूल तथ्य में रत्ती भर भी अन्तर नहीं आता कि इस महाशक्ति के अवलम्बन से मनुष्य की उच्चस्तरीय प्रगति का द्वार खुलता है और जिस दिशा में भी उसके कदम बढ़ते हैं उसमें सफलता का सहज दर्शन होता है ।।
गायत्री ब्रह्म चेतना है ।। समस्त ब्रह्माण्ड के अन्तराल में वही संव्याप्त है ।। जड़ जगत् का समस्त संचालन उसी की प्रेरणा एवं व्यवस्था के अन्तर्गत हो रहा है ।। अन्य प्राणियों में उसका उतना ही अंश है, जिससे अपना जीवन निर्वाह सुविधा पूर्वक चला सकें ।। मनुष्य में उसकी विशेषता है ।। यह विशेषता सामान्य रूप से मस्तिष्क क्षेत्र की अधिष्ठात्री बुद्धि के रूप में दृष्टिगोचर होती है ।। सुख सुविधाओं को जुटाने वाले साधन इसी के सहारे प्राप्त होते हैं ।। असामान्य रूप से यह ब्रह्म चेतना प्रज्ञा है ।। यह अन्तःकरण की गहराई में रहती है ।। और प्रायः प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है ।। पुरुषार्थी उसे प्रयत्न पूर्वक जगाते और क्रियाशील बनाते हैं ।। इस जागरण का प्रतिफल बहिरंग और अन्तरंग में मुक्ति बन कर प्रकट होता है ।। बुद्धिबल से मनुष्य वैभववान बनता है, प्रज्ञाबल से ऐश्वर्यवान् ।। वैभव का स्वरूप है- धन, बल, कौशल, यश, प्रभाव अर्जित ऐश्वर्य का रूप महान् व्यक्तित्व है ।। इसके पाँच वर्ग हैं ।। सन्त, ऋषि, महर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि ।। पांच देवों का वर्गीकरण इन्हीं विशेषताओं के अनुपात से किया है ।। विभिन्न स्वरूप, विभिन्न क्षेत्रों में प्रकट होने वाले उत्कृष्टता के ही पाँच स्वरूप हैं ।। वैभव सम्पन्नों को दैत्य (समृद्ध) और ऐश्वर्यवान् महामानवों को दैव (उदात्त) कहा गया है ।।
वैभव उपार्जन करने के लिए आवश्यक ज्ञान और साधन किस प्रकार किये जा सकते हैं इसे शिक्षा कहते हैं ।। ऐश्वर्यवान बनने के लिए जिस ज्ञान एवं उपाय को अपनाना पड़ता है, उसका परिचय विद्या से मिलता है ।। विद्या का पूरा नाम ऋतम्भरा प्रज्ञा या विद्या है ।। इसका ज्ञान पक्ष योग और साधन पक्ष तप कहलाता है ।। योग उपासना है और तप साधना ।। इन्हें अपनाना परम पुरुषार्थ कहलाता है ।। जिस अन्तराल में प्रसुप्त स्थिति में पड़ी हुई- बीजरूप से विद्यमान शक्ति को सक्रिय बनाने में जितनी सफलता मिलती है, वह उतना ही बड़ा महामानव- सिद्ध पुरुष, देवात्मा एवं अवतार कहलाता है ।।
ब्रह्म चेतना- गायत्री सर्वव्यापक होने से सर्व शक्तिमान् है ।। उसके साथ विशिष्ट घनिष्ठता स्थापित करने के प्रयास साधना कहलाते हैं ।। इस सान्निध्य में प्रधान माध्यम- भक्ति है ।। भक्ति अर्थात् भाव- संवेदना ।। भाव शरीर धारियों के साथ ही विकसित हो सकता है ।। साधना की सफलता के लिए भाव भरी साधना अनिवार्य है ।। मनुष्य को जिस स्तर का चेतना- तन्त्र मिला है उसके दिव्य शक्तियों को देव- काया में प्रतिष्ठापित करने के उपरान्त ही ध्यान धारणा का प्रयोजन पूरा हो सकता है ।। तत्त्वदर्शियों ने इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए समस्त दिव्य शक्तियों के स्वरूप मानव आकृति में प्रतिष्ठित किये हैं ।। यही देवता और देवियाँ हैं ।। गायत्री को आद्य शक्ति के रूप में मान्यता दी गई है ।। निराकार उपासक प्रातःकाल के स्वर्णिम सूर्य के रूप में उसकी धारणा करते हैं ।।
आद्यशक्ति गायत्री को संक्षेप में विश्वव्यापी ब्रह्म चेतना समझा जाना चाहिए ।। उसकी असंख्य तरंगें हैं ।। अर्थात् उस एक ही महासागर में असंख्यों लहरें उठती हैं ।। उनके अस्तित्व पृथक्- पृथक् दीखते हुए भी वस्तुतः उन्हें सागर की जलराशि के अंग अवयव ही माना जायगा ।। गायत्री की सहस्र शक्तियों में जिन २४ की प्रधानता है, वे विभिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने वाली शक्ति धाराएँ हैं ।। २४ अवतार- २४ देवता ऋषि- २४ गीताएँ आदि में गायत्री के २४ अक्षरों का ही तत्त्वज्ञान विभिन्न पृष्ठभूमि पर बताया, समझाया गया है ।। इन २४ अक्षरों में सन्निहित शक्तियों की उपासना २४ देवियों के रूप में की जाती है ।।
तथ्य को समझने में बिजली के उदाहरण से अधिक सरलता पड़ेगी ।। बिजली सर्वत्र संव्याप्त ऊर्जा तत्त्व है ।। यह सर्वत्र संव्याप्त और निराकार है ।। उसे विशेष मात्रा में उपार्जित एवं एकत्रित करने के लिए बिजलीघर बनाये जाते हैं ।। उपलब्ध विद्युत शक्ति को स्विच तक पहुँचाया जाता है ।। स्विच के साथ जिस प्रकार का यन्त्र जोड़ दिया जाता हैं ।। बिजली उसी प्रयोजन को पूरा करने लगती है ।। बत्ती जलाकर प्रकाश, पंखा चलाकर हवा, हीटर से गर्मी, कूलर से ठण्डक, रेडियो से आवाज, टेलीविजन से दृश्य, मोटर से गति- स्पर्श से झटका जैसे अनेकानेक प्रयोजन पूरे होते हैं ।। इनका लाभ एवं अनुभव अलग- अलग प्रकार का होता है ।। इन सबके यन्त्र भी अलग- अलग प्रकार के होते हैं ।। इतने पर भी विद्युत शक्ति के मूल स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता है ।। इन विविधताओं को उसके प्रयोगों की भिन्नताएँ भार कहा जा सकता है ।। आद्य- शक्ति गायत्री एक ही है, पर उसका प्रयोग विभिन्न प्रयोजनों के लिए करने पर नाम- रूप में भिन्नता आ जाती है और ऐसा भ्रम होने लगता है कि वे एक दूसरे से पृथक तो नहीं है? विचारवान जानते है कि बिजली एक ही है ।। उद्देश्यों और प्रयोगों की भिन्नता के कारण उनके नाम रूप में अंतर आता है और पृथकता होने जैसा आभास मिलता है ।। तत्त्वदर्शी इस पृथकता में भी एकता का अनुभव करते हैं ।। गायत्री की २४ शक्तियों के बारे में ठीक इसी प्रकार समझा जाना चाहिए ।।
पेड़ के कई अंग अवयव होते हैं- जड़, तना, छाल, टहनी, पत्ता, फूल, पराग, फल, बीज आदि ।। इन सबके नाम, रूप, स्वाद, गंध, गुण आदि भी सब मिला कर यह सारा परिवार वृक्ष की सत्ता में ही सन्निहित माना जाता है ।। गायत्री की २४ शक्तियाँ भी इसी प्रकार मानी जानी चाहिए ।। सूर्य के सात रंग, सात अश्व- पृथक्- पृथक् निरूपित किये जाते हैं ।। उनके गुण, धर्म भी अलग- अलग होते हैं ।। इतने पर भी ये सूर्य- परिवार के अन्तर्गत ही हैं ।। गायत्री की २४ शक्तियों की उपासना को विभिन्न प्रयोजनों के लिए विभिन्न नाम रूपों में किया जा सकता है, पर यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि वे सभी स्वतन्त्र एवं विरोधी हैं ।। उन्हें एक ही काया के विभिन्न अवयव एवं परस्पर पूरक मान कर चलना ही उपयुक्त है ।।
गायत्री का उपास्य सूर्य-सविता है । सविता का तेजस सहस्रांशु कहलाता है । उसके सात रंग अश्व है और सहस्र किरणें गायत्री की सहस्र शक्तियाँ हैं । इनका उल्लेख-संकेत उसके सहस्र नामों में वर्णित है । गायत्री सहस्रनाम प्रख्यात हैं । इनमें अष्टोत्तरशत अधिक प्रचलित हैं । इनमें भी २४ की प्रमुखता है । विश्वामित्र तन्त्र में इन २४ नामों का उल्लेख है । इन शक्तियों में से १२ दक्षिण पक्षीय हैं और १२ वाम पक्षीय । दक्षिण पक्ष को आगम और वाम पक्ष को निगम कहते हैं । कहा गया है-
गायत्री बहुनामांस्ति संयुक्ता देव शक्तिभिः ।
सर्वं सिद्धिषु व्याप्ता सा दृष्टा मुनिभ्राहिता॥
अर्थात्-''गायत्री के असंख्य नाम हैं, समस्त देवशक्तियाँ उसी से अनुप्राणित हैं, समस्त सिद्धियों में उसी का दर्शन होता है ।''
चतुर्विंशति साहस्रं महा प्रज्ञा मुखं मतम् ।
चतुर्विंशक्ति शवे चैतु ज्ञेयं मुख्यं मुनीषिभिः॥
अर्थात्- महा प्रज्ञा के २४ हजार नाम प्रधान हैं, इनमें २४ को अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है ।
तत्रापि च सहस्रं तु प्रधान परिकीर्तिम् ।
अष्टोत्तरशतं मुख्यं तेषु प्रोक्तं महर्षिभः॥
अर्थात्-उन (२४००० नामों) में भी मात्र सहस्रनाम ही सर्वविदित हैं । सहस्रों में से एक सौ आठ चुने जा सकते हैं ।
चतुर्विंशतिदेवास्याः गायत्र्याश्चाक्षराणि तु ।
सन्ति सर्वसमर्थानि तस्याः सादान्वितानि च॥
अर्थात्- चौबीस अक्षरों वाली सर्व समर्थ गायत्री के चौबीस नाम भी ऐसे ही हैं,
जिनमें सार रूप से गायत्री के वैभव - विस्तार का आभास मिल जाता है ।
चतुर्विशतिकेष्वेवं नामसु द्वादशैव तु ।
वैदिकानि तथाऽन्यानि शेषाणि तान्त्रिकानि तु॥
अर्थात्- गायत्री के चौबीस नामों में बारह वैदिक वर्ग के हैं और बारह तान्त्र्ािक वर्ग के ।
चतुर्विंशतु वर्णेषु चतुर्विशति शक्तयः ।
शक्ति रूपानुसारं च तासाँ पूजाविधीयते॥
अर्थात्- गायत्री के चौबीस अक्षरों में चौबीस देवशक्तियाँ निवास करती हैं । इसलिए उनके अनुरूपों की ही पूजा-अर्चा की जाती है ।
आद्य शक्तिस्तथा ब्राह्मी, वैष्णवी शाम्भवीति च ।
वेदमाता देवमाता विश्वमाता ऋतम्भरा॥
मन्दाकिन्यजपा चैव, ऋद्धि सिद्धि प्रकीर्तिता ।
वैदिकानि तु नामानि पूर्वोक्तानि हि द्वादश॥
अर्थात्- (१) आद्यशक्ति (२) ब्राह्मी (३) वैष्णवी (४) शाम्भवी (५) वेदमाता (६) देवमाता (७) विश्वमाता (८)ऋतम्भरा (९) मन्दाकिनी (१०)अजपा (११)ऋद्धि (१२) सिद्धि-इन बारह को वैदिकी कहा गया है ।
सावित्री सरस्वती ज्ञेया, लक्ष्मी दुर्गा तथैव च ।
कुण्डलिनी प्राणग्निश्च भ्ावानी भुवनेश्वरी॥
अन्नपूर्णेति नामानि महामाया पयस्विनी ।
त्रिपुरा चैवेति विज्ञेया तान्त्र्कानि च द्वादश॥
अर्थात्-(१) सावित्री (२) सरस्वती (३) लक्ष्मी (४) दुर्गा (५) कुण्डलिनी (६) प्राणाग्नि (७) भवानी (८) भुवनेश्वरी (९) अन्नपूर्णा (१०) महामाया (११) पयस्विनी और (१२) त्रिपुरा-इन बारह को तान्त्र्ािकी कहा गया है ।
बारह ज्ञान पक्ष की, बारह विज्ञान पक्ष की शक्तियों के मिलन से चौबीस अक्षर वाला गायत्री मन्त्र विनिर्मित हुआ ।
गायत्री तत्त्वबोध के अनुसार-
गायत्रीमंत्रगावर्णाः प्रतीका निश्चितं मताः ।
स्वस्वविशिष्टदेवीनां देवतानामथापि च॥
ऋषीणां शक्तिबीजानां यंत्राणामपि पार्वती ।
सन्त्येषां च प्रयोगोऽथ रहस्यं तत्फलं पृथक् ॥
तत्त्वज्ञानयुता योगरतास्ते हि तपस्विनः ।
उद्भावयन्ति यान्येवं लाभ्ामासादयन्ति च॥
अर्थात्- गायत्री मंत्र का प्रत्येक अक्षर एक-एक विशिष्ट शक्तिधारा-देवी का, देवता का, ऋषि का, शक्तिबीज का, यन्त्र चक्र का प्रतीक है । इनमें से प्रत्येक के अपने-अपने प्रयोग और प्रतिफल है । जिन्हें तत्त्वज्ञानी, योगी तपस्वी प्रकट करते और लाभान्वित होते रहते हैं । इनका विस्तार पूर्वक विवेचन आगे किया जा रहा है ।
कई बार शब्दों के अन्तर से भी वस्तु की भिन्नता मालूम पड़ती है ।। एक ही पदार्थ के विभिन्न भाषाओं में विभिन्न नाम होते हैं ।। उन्हें सुनने पर सहज- बुद्धि को भ्रम हो सकता है और अनेक पदार्थों की बात चलती लग सकती है ।। पर जब यह प्रतीत होगा कि एक ही वस्तु के भाव भेद से अनेक उच्चारण हो रहे हैं तो उस अन्तर को समझने में देर नहीं लगती, जिससे एकता को अनेकता में समझा जा रहा था ।।
एक सूर्य के अनेक लहरों पर अनेक प्रतिबिम्ब चमकते हैं ।। व्यक्तियों की मनःस्थिति के अनुरूप एक ही उपलब्धि का प्रतिफल अनेक प्रकार का हो सकता है ।। धन को पाकर एक व्यक्ति व्यवसायी, दूसरा दानी, तीसरा अपव्ययी हो सकता है ।। धन के इन गुणों को देखकर उसकी भिन्न प्रतिक्रियाएँ झाँकने की बात अवास्तविक है ।। वास्तविक बात यह है कि हर व्यक्ति अपनी इच्छानुसार धन का उपयोग करके अभीष्ट प्रयोजन पूरे कर सकता है ।। गायत्री के २४ अक्षरों में सन्निहित चौबीस शक्तियों का प्रभाव यह है कि मनुष्य की मौलिक विशिष्टताओं को उभारने में उनके आधार पर असाधारण सहायता मिलती है ।। इसे आन्तरिक उत्कर्ष या दैवी अनुग्रह- दोनों में से किसी नाम से पुकारा जा सकता है ।। कहने- सुनने में इन दोनों शक्तियों में जमीन आसमान जैसा अन्तर दिखता है और दो भिन्न बातें कही जाती प्रतीत होती हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि व्यक्तित्व में बढ़ी हुई विशिष्टताएँ सुखद परिणाम उत्पन्न करती हैं और प्रगति क्रम में सहायक सिद्ध होती हैं ।। इतना कहने से भी काम चलता है ।। भीतरी उत्कर्ष और बाहरी अनुग्रह वस्तुतः एक ही तथ्य के दो प्रतिपादन भर हैं ।। उन्हें अन्योन्याश्रित भी कहा जा सकता है ।।
गायत्री की २४ शक्तियों का वर्णन शास्त्रों ने अनेक नाम रूपों से किया है ।। उनके क्रम में अन्तर है ।। इतने पर भी इस मूल तथ्य में रत्ती भर भी अन्तर नहीं आता कि इस महाशक्ति के अवलम्बन से मनुष्य की उच्चस्तरीय प्रगति का द्वार खुलता है और जिस दिशा में भी उसके कदम बढ़ते हैं उसमें सफलता का सहज दर्शन होता है ।।
गायत्री ब्रह्म चेतना है ।। समस्त ब्रह्माण्ड के अन्तराल में वही संव्याप्त है ।। जड़ जगत् का समस्त संचालन उसी की प्रेरणा एवं व्यवस्था के अन्तर्गत हो रहा है ।। अन्य प्राणियों में उसका उतना ही अंश है, जिससे अपना जीवन निर्वाह सुविधा पूर्वक चला सकें ।। मनुष्य में उसकी विशेषता है ।। यह विशेषता सामान्य रूप से मस्तिष्क क्षेत्र की अधिष्ठात्री बुद्धि के रूप में दृष्टिगोचर होती है ।। सुख सुविधाओं को जुटाने वाले साधन इसी के सहारे प्राप्त होते हैं ।। असामान्य रूप से यह ब्रह्म चेतना प्रज्ञा है ।। यह अन्तःकरण की गहराई में रहती है ।। और प्रायः प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है ।। पुरुषार्थी उसे प्रयत्न पूर्वक जगाते और क्रियाशील बनाते हैं ।। इस जागरण का प्रतिफल बहिरंग और अन्तरंग में मुक्ति बन कर प्रकट होता है ।। बुद्धिबल से मनुष्य वैभववान बनता है, प्रज्ञाबल से ऐश्वर्यवान् ।। वैभव का स्वरूप है- धन, बल, कौशल, यश, प्रभाव अर्जित ऐश्वर्य का रूप महान् व्यक्तित्व है ।। इसके पाँच वर्ग हैं ।। सन्त, ऋषि, महर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि ।। पांच देवों का वर्गीकरण इन्हीं विशेषताओं के अनुपात से किया है ।। विभिन्न स्वरूप, विभिन्न क्षेत्रों में प्रकट होने वाले उत्कृष्टता के ही पाँच स्वरूप हैं ।। वैभव सम्पन्नों को दैत्य (समृद्ध) और ऐश्वर्यवान् महामानवों को दैव (उदात्त) कहा गया है ।।
वैभव उपार्जन करने के लिए आवश्यक ज्ञान और साधन किस प्रकार किये जा सकते हैं इसे शिक्षा कहते हैं ।। ऐश्वर्यवान बनने के लिए जिस ज्ञान एवं उपाय को अपनाना पड़ता है, उसका परिचय विद्या से मिलता है ।। विद्या का पूरा नाम ऋतम्भरा प्रज्ञा या विद्या है ।। इसका ज्ञान पक्ष योग और साधन पक्ष तप कहलाता है ।। योग उपासना है और तप साधना ।। इन्हें अपनाना परम पुरुषार्थ कहलाता है ।। जिस अन्तराल में प्रसुप्त स्थिति में पड़ी हुई- बीजरूप से विद्यमान शक्ति को सक्रिय बनाने में जितनी सफलता मिलती है, वह उतना ही बड़ा महामानव- सिद्ध पुरुष, देवात्मा एवं अवतार कहलाता है ।।
ब्रह्म चेतना- गायत्री सर्वव्यापक होने से सर्व शक्तिमान् है ।। उसके साथ विशिष्ट घनिष्ठता स्थापित करने के प्रयास साधना कहलाते हैं ।। इस सान्निध्य में प्रधान माध्यम- भक्ति है ।। भक्ति अर्थात् भाव- संवेदना ।। भाव शरीर धारियों के साथ ही विकसित हो सकता है ।। साधना की सफलता के लिए भाव भरी साधना अनिवार्य है ।। मनुष्य को जिस स्तर का चेतना- तन्त्र मिला है उसके दिव्य शक्तियों को देव- काया में प्रतिष्ठापित करने के उपरान्त ही ध्यान धारणा का प्रयोजन पूरा हो सकता है ।। तत्त्वदर्शियों ने इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए समस्त दिव्य शक्तियों के स्वरूप मानव आकृति में प्रतिष्ठित किये हैं ।। यही देवता और देवियाँ हैं ।। गायत्री को आद्य शक्ति के रूप में मान्यता दी गई है ।। निराकार उपासक प्रातःकाल के स्वर्णिम सूर्य के रूप में उसकी धारणा करते हैं ।।
आद्यशक्ति गायत्री को संक्षेप में विश्वव्यापी ब्रह्म चेतना समझा जाना चाहिए ।। उसकी असंख्य तरंगें हैं ।। अर्थात् उस एक ही महासागर में असंख्यों लहरें उठती हैं ।। उनके अस्तित्व पृथक्- पृथक् दीखते हुए भी वस्तुतः उन्हें सागर की जलराशि के अंग अवयव ही माना जायगा ।। गायत्री की सहस्र शक्तियों में जिन २४ की प्रधानता है, वे विभिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने वाली शक्ति धाराएँ हैं ।। २४ अवतार- २४ देवता ऋषि- २४ गीताएँ आदि में गायत्री के २४ अक्षरों का ही तत्त्वज्ञान विभिन्न पृष्ठभूमि पर बताया, समझाया गया है ।। इन २४ अक्षरों में सन्निहित शक्तियों की उपासना २४ देवियों के रूप में की जाती है ।।
तथ्य को समझने में बिजली के उदाहरण से अधिक सरलता पड़ेगी ।। बिजली सर्वत्र संव्याप्त ऊर्जा तत्त्व है ।। यह सर्वत्र संव्याप्त और निराकार है ।। उसे विशेष मात्रा में उपार्जित एवं एकत्रित करने के लिए बिजलीघर बनाये जाते हैं ।। उपलब्ध विद्युत शक्ति को स्विच तक पहुँचाया जाता है ।। स्विच के साथ जिस प्रकार का यन्त्र जोड़ दिया जाता हैं ।। बिजली उसी प्रयोजन को पूरा करने लगती है ।। बत्ती जलाकर प्रकाश, पंखा चलाकर हवा, हीटर से गर्मी, कूलर से ठण्डक, रेडियो से आवाज, टेलीविजन से दृश्य, मोटर से गति- स्पर्श से झटका जैसे अनेकानेक प्रयोजन पूरे होते हैं ।। इनका लाभ एवं अनुभव अलग- अलग प्रकार का होता है ।। इन सबके यन्त्र भी अलग- अलग प्रकार के होते हैं ।। इतने पर भी विद्युत शक्ति के मूल स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता है ।। इन विविधताओं को उसके प्रयोगों की भिन्नताएँ भार कहा जा सकता है ।। आद्य- शक्ति गायत्री एक ही है, पर उसका प्रयोग विभिन्न प्रयोजनों के लिए करने पर नाम- रूप में भिन्नता आ जाती है और ऐसा भ्रम होने लगता है कि वे एक दूसरे से पृथक तो नहीं है? विचारवान जानते है कि बिजली एक ही है ।। उद्देश्यों और प्रयोगों की भिन्नता के कारण उनके नाम रूप में अंतर आता है और पृथकता होने जैसा आभास मिलता है ।। तत्त्वदर्शी इस पृथकता में भी एकता का अनुभव करते हैं ।। गायत्री की २४ शक्तियों के बारे में ठीक इसी प्रकार समझा जाना चाहिए ।।
पेड़ के कई अंग अवयव होते हैं- जड़, तना, छाल, टहनी, पत्ता, फूल, पराग, फल, बीज आदि ।। इन सबके नाम, रूप, स्वाद, गंध, गुण आदि भी सब मिला कर यह सारा परिवार वृक्ष की सत्ता में ही सन्निहित माना जाता है ।। गायत्री की २४ शक्तियाँ भी इसी प्रकार मानी जानी चाहिए ।। सूर्य के सात रंग, सात अश्व- पृथक्- पृथक् निरूपित किये जाते हैं ।। उनके गुण, धर्म भी अलग- अलग होते हैं ।। इतने पर भी ये सूर्य- परिवार के अन्तर्गत ही हैं ।। गायत्री की २४ शक्तियों की उपासना को विभिन्न प्रयोजनों के लिए विभिन्न नाम रूपों में किया जा सकता है, पर यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि वे सभी स्वतन्त्र एवं विरोधी हैं ।। उन्हें एक ही काया के विभिन्न अवयव एवं परस्पर पूरक मान कर चलना ही उपयुक्त है ।।
गायत्री का उपास्य सूर्य-सविता है । सविता का तेजस सहस्रांशु कहलाता है । उसके सात रंग अश्व है और सहस्र किरणें गायत्री की सहस्र शक्तियाँ हैं । इनका उल्लेख-संकेत उसके सहस्र नामों में वर्णित है । गायत्री सहस्रनाम प्रख्यात हैं । इनमें अष्टोत्तरशत अधिक प्रचलित हैं । इनमें भी २४ की प्रमुखता है । विश्वामित्र तन्त्र में इन २४ नामों का उल्लेख है । इन शक्तियों में से १२ दक्षिण पक्षीय हैं और १२ वाम पक्षीय । दक्षिण पक्ष को आगम और वाम पक्ष को निगम कहते हैं । कहा गया है-
गायत्री बहुनामांस्ति संयुक्ता देव शक्तिभिः ।
सर्वं सिद्धिषु व्याप्ता सा दृष्टा मुनिभ्राहिता॥
अर्थात्-''गायत्री के असंख्य नाम हैं, समस्त देवशक्तियाँ उसी से अनुप्राणित हैं, समस्त सिद्धियों में उसी का दर्शन होता है ।''
चतुर्विंशति साहस्रं महा प्रज्ञा मुखं मतम् ।
चतुर्विंशक्ति शवे चैतु ज्ञेयं मुख्यं मुनीषिभिः॥
अर्थात्- महा प्रज्ञा के २४ हजार नाम प्रधान हैं, इनमें २४ को अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है ।
तत्रापि च सहस्रं तु प्रधान परिकीर्तिम् ।
अष्टोत्तरशतं मुख्यं तेषु प्रोक्तं महर्षिभः॥
अर्थात्-उन (२४००० नामों) में भी मात्र सहस्रनाम ही सर्वविदित हैं । सहस्रों में से एक सौ आठ चुने जा सकते हैं ।
चतुर्विंशतिदेवास्याः गायत्र्याश्चाक्षराणि तु ।
सन्ति सर्वसमर्थानि तस्याः सादान्वितानि च॥
अर्थात्- चौबीस अक्षरों वाली सर्व समर्थ गायत्री के चौबीस नाम भी ऐसे ही हैं,
जिनमें सार रूप से गायत्री के वैभव - विस्तार का आभास मिल जाता है ।
चतुर्विशतिकेष्वेवं नामसु द्वादशैव तु ।
वैदिकानि तथाऽन्यानि शेषाणि तान्त्रिकानि तु॥
अर्थात्- गायत्री के चौबीस नामों में बारह वैदिक वर्ग के हैं और बारह तान्त्र्ािक वर्ग के ।
चतुर्विंशतु वर्णेषु चतुर्विशति शक्तयः ।
शक्ति रूपानुसारं च तासाँ पूजाविधीयते॥
अर्थात्- गायत्री के चौबीस अक्षरों में चौबीस देवशक्तियाँ निवास करती हैं । इसलिए उनके अनुरूपों की ही पूजा-अर्चा की जाती है ।
आद्य शक्तिस्तथा ब्राह्मी, वैष्णवी शाम्भवीति च ।
वेदमाता देवमाता विश्वमाता ऋतम्भरा॥
मन्दाकिन्यजपा चैव, ऋद्धि सिद्धि प्रकीर्तिता ।
वैदिकानि तु नामानि पूर्वोक्तानि हि द्वादश॥
अर्थात्- (१) आद्यशक्ति (२) ब्राह्मी (३) वैष्णवी (४) शाम्भवी (५) वेदमाता (६) देवमाता (७) विश्वमाता (८)ऋतम्भरा (९) मन्दाकिनी (१०)अजपा (११)ऋद्धि (१२) सिद्धि-इन बारह को वैदिकी कहा गया है ।
सावित्री सरस्वती ज्ञेया, लक्ष्मी दुर्गा तथैव च ।
कुण्डलिनी प्राणग्निश्च भ्ावानी भुवनेश्वरी॥
अन्नपूर्णेति नामानि महामाया पयस्विनी ।
त्रिपुरा चैवेति विज्ञेया तान्त्र्कानि च द्वादश॥
अर्थात्-(१) सावित्री (२) सरस्वती (३) लक्ष्मी (४) दुर्गा (५) कुण्डलिनी (६) प्राणाग्नि (७) भवानी (८) भुवनेश्वरी (९) अन्नपूर्णा (१०) महामाया (११) पयस्विनी और (१२) त्रिपुरा-इन बारह को तान्त्र्ािकी कहा गया है ।
बारह ज्ञान पक्ष की, बारह विज्ञान पक्ष की शक्तियों के मिलन से चौबीस अक्षर वाला गायत्री मन्त्र विनिर्मित हुआ ।
गायत्री तत्त्वबोध के अनुसार-
गायत्रीमंत्रगावर्णाः प्रतीका निश्चितं मताः ।
स्वस्वविशिष्टदेवीनां देवतानामथापि च॥
ऋषीणां शक्तिबीजानां यंत्राणामपि पार्वती ।
सन्त्येषां च प्रयोगोऽथ रहस्यं तत्फलं पृथक् ॥
तत्त्वज्ञानयुता योगरतास्ते हि तपस्विनः ।
उद्भावयन्ति यान्येवं लाभ्ामासादयन्ति च॥
अर्थात्- गायत्री मंत्र का प्रत्येक अक्षर एक-एक विशिष्ट शक्तिधारा-देवी का, देवता का, ऋषि का, शक्तिबीज का, यन्त्र चक्र का प्रतीक है । इनमें से प्रत्येक के अपने-अपने प्रयोग और प्रतिफल है । जिन्हें तत्त्वज्ञानी, योगी तपस्वी प्रकट करते और लाभान्वित होते रहते हैं । इनका विस्तार पूर्वक विवेचन आगे किया जा रहा है ।