Books - गायत्री यज्ञ विधान
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Language: HINDI
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कुण्डों की संख्या
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कुण्डों की संख्या अधिक बनाना इसलिए आवश्यक है कि अधिक व्यक्तियों को कम समय में निर्धारित आहुतियाँ दे सकना सम्भव हो, एक ही कुण्ड हो तो एक बार में नौ व्यक्ति बैठते हैं। पुरश्चरण करने वाले कुल मिलाकर ६०- ७० व्यक्ति हो जायें या यह संख्या १०० तक पहुँचे तो १०- ११ बार तक हवन करना पड़ सकता है। इसमें बहुत समय लगेगा और पूर्णाहुति में बहुत विलम्ब हो जायेगा। ऐसी दशा में अधिक कुण्डों के बनाने की आवश्यकता पड़ती है।
जिन यज्ञों में आहुतियाँ देने वालों की संख्या १०० तक पहुँचे, उनके लिए ५ कुण्डों की यज्ञशाला पर्याप्त है। इससे अधिक बढ़ने पर ३००- ४०० के लिए ९ कुण्ड की यज्ञशाला पर्याप्त है।
कितनी आहुतियाँ देनी हैं? हवन पर बैठने वाले व्यक्ति कितने हैं? एक यज्ञशाला पर कितने व्यक्ति बिठाये जायें? इन सब बातों पर स्थिति के अनुसार विचार करके यह निश्चित करना होता है कि कितनी पारी बिठाई जायेंगी और प्रति पारी में कितनी -कितनी आहुतियाँ लगेंगी। इसके लिए कोई सुनिश्चित एवं पूर्व निर्धारित क्रम नहीं हैं। सभी यज्ञ करने वालों को अवसर मिल जाय और आहुतियों की निर्धारित संख्या पूरी हो जाय। इसका हिसाब लगाते हुए कितनी पारी हों और प्रति पाली में कितनी आहुतियाँ हो, उसकी गणना करनी चाहिए।
यदि एक ही कुण्ड होता है, तो पूर्व दिशा में वेदी पर एक कलश की स्थापना होने से शेष तीन दिशाओं में ही याज्ञिक बैठते हैं। प्रत्येक दिशा में तीन व्यक्ति बैठें तो ९ व्यक्ति एक बार में बैठ सकते हैं। यदि कुण्डों की संख्या ५ हैं तो प्रमुख कुण्ड को छोड़कर शेष ४ पर १२- १२ व्यक्ति भी
बिठाये जा सकते हैं। संख्या कम हो तो चारों दिशाओं में उसी हिसाब से ४, ८ भी बिठा कर कार्य पुरा किया जा सकता है। यही क्रम ९ कुण्डों की यज्ञशाला में रह सकता है। प्रमुख कुण्ड पर ९ और शेष ८ पर १२x८=९६+२०५ व्यक्ति एक बार में बैठ सकते हैं। संख्या कम हो तो कुण्डों पर उन्हें कम- कम बिठाया जा सकता है। अधिक हों तो होताओं को दो, तीन, चार या अधिक पारियों में बिठाया जा सकता है। इस प्रकार तीन, चार सौ यहाँ तक कि पाँच सौ होताओं की भी व्यवस्था नौ कुण्ड की यज्ञशाला में हो सकती है। कितने ही हजार याज्ञिक हो, संख्या बहुत बड़ी हो तो २९, २५, ५१ या १०१ कुण्डों की अत्यधिक विशाल यज्ञशाला बनाने की बात सोचनी चाहिए। कहीं- कहीं अपने आयोजन की विशालता की छाप दूसरों पर डालने या मिथ्या विज्ञापन करने की दृष्टि से याज्ञिकों की संख्या कम होते हुए भी अधिक कुण्ड बनाने का प्रयत्न किया जाता है। यह व्यर्थ ही नहीं, हानिकारक भी है। बड़ी यज्ञशाला बनाने में अधिक खर्च पड़ता है। उतनी गुँजाइश न हो तो दरिद्र- आडम्बर और भी बुरा दीखता है। अधिक कुण्डों चर अधिक घी, अधिक सामग्री एवं अधिक समिधाएँ खर्च होती हैं। जितनी आहुतियाँ ५ कुण्डों में दी जाती हैं, उतनी ही यदि २१ कुण्डों में दी जायें ,तो घी, समिधा, पूजा सामग्री, यज्ञशाला निर्माण, व्यवस्था आदि का खर्चा जोड़ने से लगभग दूना हो जायेगा। ऐसा तभी करना चाहिए जब इसके बिना और कोई रास्ता न हो। कुण्डों की संख्या बढ़ा कर यज्ञ की विशालता विज्ञापित करने की उपहासास्पद- बाल बुद्धि की अवहेलना ही करनी चाहिए। साधारणतया मध्यम वृत्ति के सामूहिक यज्ञों के लिए ५ या ९ कुण्ड पर्याप्त माने जाने चाहिए।
प्राचीन काल में कुण्ड चौकोर खोदे जाते थे, उनकी लम्बाई, चौड़ाई गहराई समान होती थी। यह इसलिए होता था कि उन दिनों भरपूर समिधाएँ प्रयुक्त होती थी, घी और सामग्री भी बहुत- बहुत होमी जाती थी, फलस्वरूप अग्नि की प्रचण्डता भी अधिक रहती थी। उसे नियंत्रण में रखने के लिए भूमि के भीतर अधिक जगह रहना आवश्यक था।
उस स्थिति में चौकोर कोण ही उपयुक्त थे। पर आज समिधा, घी ,, सामग्री सभी में अत्यधिक महँगाई के कारण किफायत करनी पड़ती है। ऐसी दशा में चौकोर कुण्डों में थोड़ी ही अग्नि जल पाती है और वह ऊपर अच्छी तरह दिखाई भी नहीं पड़ती। ऊपर तक भर कर भी नहीं आते तो कुरूप लगते है। अतएव आज की स्थिति में कुण्ड इस प्रकार बनने चाहिए कि बाहर से चौकोर रहे, लम्बाई, चौड़ाई, चौबीस- चौबीस अंगुल हो तो गहराई भी २४ अंगुल तो रखना चाहिये कि पेंदा छः- छः अंगुल लम्बा चौड़ा रह जाय। इस प्रकार के बने हुए कुण्ड समिधाओं से प्रज्ज्वलित रहते हैं, उनमें अग्नि बुझती नहीं। थोड़ी सामग्री से ही कुण्ड ऊपर तक भर जाता है और अग्निदेव के दर्शन सभी को आसानी से होने लगते हैं।
जिन यज्ञों में आहुतियाँ देने वालों की संख्या १०० तक पहुँचे, उनके लिए ५ कुण्डों की यज्ञशाला पर्याप्त है। इससे अधिक बढ़ने पर ३००- ४०० के लिए ९ कुण्ड की यज्ञशाला पर्याप्त है।
कितनी आहुतियाँ देनी हैं? हवन पर बैठने वाले व्यक्ति कितने हैं? एक यज्ञशाला पर कितने व्यक्ति बिठाये जायें? इन सब बातों पर स्थिति के अनुसार विचार करके यह निश्चित करना होता है कि कितनी पारी बिठाई जायेंगी और प्रति पारी में कितनी -कितनी आहुतियाँ लगेंगी। इसके लिए कोई सुनिश्चित एवं पूर्व निर्धारित क्रम नहीं हैं। सभी यज्ञ करने वालों को अवसर मिल जाय और आहुतियों की निर्धारित संख्या पूरी हो जाय। इसका हिसाब लगाते हुए कितनी पारी हों और प्रति पाली में कितनी आहुतियाँ हो, उसकी गणना करनी चाहिए।
यदि एक ही कुण्ड होता है, तो पूर्व दिशा में वेदी पर एक कलश की स्थापना होने से शेष तीन दिशाओं में ही याज्ञिक बैठते हैं। प्रत्येक दिशा में तीन व्यक्ति बैठें तो ९ व्यक्ति एक बार में बैठ सकते हैं। यदि कुण्डों की संख्या ५ हैं तो प्रमुख कुण्ड को छोड़कर शेष ४ पर १२- १२ व्यक्ति भी
बिठाये जा सकते हैं। संख्या कम हो तो चारों दिशाओं में उसी हिसाब से ४, ८ भी बिठा कर कार्य पुरा किया जा सकता है। यही क्रम ९ कुण्डों की यज्ञशाला में रह सकता है। प्रमुख कुण्ड पर ९ और शेष ८ पर १२x८=९६+२०५ व्यक्ति एक बार में बैठ सकते हैं। संख्या कम हो तो कुण्डों पर उन्हें कम- कम बिठाया जा सकता है। अधिक हों तो होताओं को दो, तीन, चार या अधिक पारियों में बिठाया जा सकता है। इस प्रकार तीन, चार सौ यहाँ तक कि पाँच सौ होताओं की भी व्यवस्था नौ कुण्ड की यज्ञशाला में हो सकती है। कितने ही हजार याज्ञिक हो, संख्या बहुत बड़ी हो तो २९, २५, ५१ या १०१ कुण्डों की अत्यधिक विशाल यज्ञशाला बनाने की बात सोचनी चाहिए। कहीं- कहीं अपने आयोजन की विशालता की छाप दूसरों पर डालने या मिथ्या विज्ञापन करने की दृष्टि से याज्ञिकों की संख्या कम होते हुए भी अधिक कुण्ड बनाने का प्रयत्न किया जाता है। यह व्यर्थ ही नहीं, हानिकारक भी है। बड़ी यज्ञशाला बनाने में अधिक खर्च पड़ता है। उतनी गुँजाइश न हो तो दरिद्र- आडम्बर और भी बुरा दीखता है। अधिक कुण्डों चर अधिक घी, अधिक सामग्री एवं अधिक समिधाएँ खर्च होती हैं। जितनी आहुतियाँ ५ कुण्डों में दी जाती हैं, उतनी ही यदि २१ कुण्डों में दी जायें ,तो घी, समिधा, पूजा सामग्री, यज्ञशाला निर्माण, व्यवस्था आदि का खर्चा जोड़ने से लगभग दूना हो जायेगा। ऐसा तभी करना चाहिए जब इसके बिना और कोई रास्ता न हो। कुण्डों की संख्या बढ़ा कर यज्ञ की विशालता विज्ञापित करने की उपहासास्पद- बाल बुद्धि की अवहेलना ही करनी चाहिए। साधारणतया मध्यम वृत्ति के सामूहिक यज्ञों के लिए ५ या ९ कुण्ड पर्याप्त माने जाने चाहिए।
प्राचीन काल में कुण्ड चौकोर खोदे जाते थे, उनकी लम्बाई, चौड़ाई गहराई समान होती थी। यह इसलिए होता था कि उन दिनों भरपूर समिधाएँ प्रयुक्त होती थी, घी और सामग्री भी बहुत- बहुत होमी जाती थी, फलस्वरूप अग्नि की प्रचण्डता भी अधिक रहती थी। उसे नियंत्रण में रखने के लिए भूमि के भीतर अधिक जगह रहना आवश्यक था।
उस स्थिति में चौकोर कोण ही उपयुक्त थे। पर आज समिधा, घी ,, सामग्री सभी में अत्यधिक महँगाई के कारण किफायत करनी पड़ती है। ऐसी दशा में चौकोर कुण्डों में थोड़ी ही अग्नि जल पाती है और वह ऊपर अच्छी तरह दिखाई भी नहीं पड़ती। ऊपर तक भर कर भी नहीं आते तो कुरूप लगते है। अतएव आज की स्थिति में कुण्ड इस प्रकार बनने चाहिए कि बाहर से चौकोर रहे, लम्बाई, चौड़ाई, चौबीस- चौबीस अंगुल हो तो गहराई भी २४ अंगुल तो रखना चाहिये कि पेंदा छः- छः अंगुल लम्बा चौड़ा रह जाय। इस प्रकार के बने हुए कुण्ड समिधाओं से प्रज्ज्वलित रहते हैं, उनमें अग्नि बुझती नहीं। थोड़ी सामग्री से ही कुण्ड ऊपर तक भर जाता है और अग्निदेव के दर्शन सभी को आसानी से होने लगते हैं।