Books - गायत्रीपुरश्चरण
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Language: HINDI
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गायत्री पुरश्चरण की पृष्ठभूमि
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यह मानव शरीर सुर दुर्लभ है। ८४
लाख योनियों में भ्रमण करने के पश्चात् लाखों वर्ष बाद यह
प्राप्त होता है। एक बार इसे व्यर्थ गँवा देने के पश्चात् लाखों
वर्ष बाद ही फिर ऐसा अवसर आने की सम्भावना होती है ।। इसलिए
दूरदर्शी और विवेकशील लोग इसे इन्द्रिय विषयों और तृष्णा जंजाल
में फँसकर इस जीवन रूपी बहुमूल्य सम्पत्ति को व्यर्थ नष्ट करने
की अपेक्षा आत्म- कल्याण की बात ही सोचते हैं और उसी में अपनी
भावना एवं शक्ति का अधिकाधिक उपयोग करने का प्रयत्न करते हैं।
शास्त्रकारों ने पग- पग पर मनुष्य को यही शिक्षा दी है कि इन अमूल्य क्षणों को बाल- क्रीड़ा में- शरीर की गुलामी में बर्बाद न करके अनन्त काल स्थिर रहने वाली सद्गति को उपलब्ध करने में ध्यान दिया जाय। इसी में उसका सच्चा हित, स्वार्थ, लाभ एवं कल्याण सन्निहित है।
इस आत्मकल्याण की साधना को योग कहते हैं। योग साधना द्वारा मनुष्य अपना वास्तविक स्वरूप तथा जीवन का लक्ष्य समझ सकता है। परमात्मा को प्राप्त कर सकता है और जो कुछ इस संसार में प्राप्त करने योग्य है उसे प्राप्त कर सकता है। कहा गया है कि-
आत्मा वा अरे दृष्टव्य श्रोतव्यो मन्तव्यो
निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मने वा अरे
दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेद सर्वं विदितम् ।।
-बृहदारण्यक २।४।५
आत्मा ही देखने, सुनने, मनन और निदिध्यासन करने योग्य है ।। हे मैत्रेयी, उसे देखने, सुनने, समझने और अनुभव करने से इस संसार में जो कुछ है वह सब जाना जा सकता है।
अयं तु परमोधर्मो यद्योगेनात्म दर्शनम्।
-याज्ञवल्क्य
मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म कर्तव्य यही है कि योग के द्वारा आत्मदर्शन करे ।।
योगाग्निर्दहति क्षिप्रयशेषं पाप पुञ्रजम्।
प्रसन्न जायते ज्ञानं ज्ञानाग्नि त्रिर्वाण मृच्छति ॥
-कूर्मपुराण
योग अग्नि में पापों का समूह जल जाता है। तब निर्मल ज्ञान प्राप्त होता है और उससे ब्रह्म निर्वाण मिल जाता है।
योगेन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
-विदुर नीति
योग से ही धर्म की रक्षा होती है और योग से विद्या की रक्षा होती है।
द्वाविभौ पुरूषौ लोके सूर्य मण्डल भेदिनौ।
परिव्रांड्योग युक्तश्च रणेचाभि मुखेहतः ॥
दो प्रकार से ही मनुष्य सूर्य मण्डल वेधता हुआ परमपद पा सकता है। एक योग युक्त होकर दूसरे धर्म रक्षा के लिए लड़ता हुआ मरने पर ।।
तपसा ब्रह्म विजिज्ञासत्व, तपो ब्रह्मेति ।।
तप ही ब्रह्म है। तप द्वारा ही वह ब्रह्म जाना जाता है। जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट और क्लेश हैं उनकी निवृत्ति साधारण उपचारों से नहीं हो सकती। किसी की कृपा एवं सहायता से भी उनकी क्षणिक निवृत्ति ही हो सकती है। दुःखों का समूल निवारण योग साधना से ही सम्भव है लिखा है-
दुःसहा राम संसार विष वेग विषूचिका ।।
योग गारूड मंत्रेण पावेन नोपशाम्यति ॥
हे राम! संसार की विष वेदना सर्पिणी दुःसह है। यह योग रूपी गरूड़ से ही निवृत्ति होती है।
न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः ।।
प्राप्तस्य योगाग्नि मयं शरीरम् ॥
-श्वेता० २।१२
शरीर के योगाग्निमय होने पर उसे कोई रोग नहीं होता, बुढ़ापा नहीं आता, मृत्यु भी नहीं होती।
शास्त्रकारों ने पग- पग पर मनुष्य को यही शिक्षा दी है कि इन अमूल्य क्षणों को बाल- क्रीड़ा में- शरीर की गुलामी में बर्बाद न करके अनन्त काल स्थिर रहने वाली सद्गति को उपलब्ध करने में ध्यान दिया जाय। इसी में उसका सच्चा हित, स्वार्थ, लाभ एवं कल्याण सन्निहित है।
इस आत्मकल्याण की साधना को योग कहते हैं। योग साधना द्वारा मनुष्य अपना वास्तविक स्वरूप तथा जीवन का लक्ष्य समझ सकता है। परमात्मा को प्राप्त कर सकता है और जो कुछ इस संसार में प्राप्त करने योग्य है उसे प्राप्त कर सकता है। कहा गया है कि-
आत्मा वा अरे दृष्टव्य श्रोतव्यो मन्तव्यो
निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मने वा अरे
दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेद सर्वं विदितम् ।।
-बृहदारण्यक २।४।५
आत्मा ही देखने, सुनने, मनन और निदिध्यासन करने योग्य है ।। हे मैत्रेयी, उसे देखने, सुनने, समझने और अनुभव करने से इस संसार में जो कुछ है वह सब जाना जा सकता है।
अयं तु परमोधर्मो यद्योगेनात्म दर्शनम्।
-याज्ञवल्क्य
मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म कर्तव्य यही है कि योग के द्वारा आत्मदर्शन करे ।।
योगाग्निर्दहति क्षिप्रयशेषं पाप पुञ्रजम्।
प्रसन्न जायते ज्ञानं ज्ञानाग्नि त्रिर्वाण मृच्छति ॥
-कूर्मपुराण
योग अग्नि में पापों का समूह जल जाता है। तब निर्मल ज्ञान प्राप्त होता है और उससे ब्रह्म निर्वाण मिल जाता है।
योगेन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
-विदुर नीति
योग से ही धर्म की रक्षा होती है और योग से विद्या की रक्षा होती है।
द्वाविभौ पुरूषौ लोके सूर्य मण्डल भेदिनौ।
परिव्रांड्योग युक्तश्च रणेचाभि मुखेहतः ॥
दो प्रकार से ही मनुष्य सूर्य मण्डल वेधता हुआ परमपद पा सकता है। एक योग युक्त होकर दूसरे धर्म रक्षा के लिए लड़ता हुआ मरने पर ।।
तपसा ब्रह्म विजिज्ञासत्व, तपो ब्रह्मेति ।।
तप ही ब्रह्म है। तप द्वारा ही वह ब्रह्म जाना जाता है। जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट और क्लेश हैं उनकी निवृत्ति साधारण उपचारों से नहीं हो सकती। किसी की कृपा एवं सहायता से भी उनकी क्षणिक निवृत्ति ही हो सकती है। दुःखों का समूल निवारण योग साधना से ही सम्भव है लिखा है-
दुःसहा राम संसार विष वेग विषूचिका ।।
योग गारूड मंत्रेण पावेन नोपशाम्यति ॥
हे राम! संसार की विष वेदना सर्पिणी दुःसह है। यह योग रूपी गरूड़ से ही निवृत्ति होती है।
न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः ।।
प्राप्तस्य योगाग्नि मयं शरीरम् ॥
-श्वेता० २।१२
शरीर के योगाग्निमय होने पर उसे कोई रोग नहीं होता, बुढ़ापा नहीं आता, मृत्यु भी नहीं होती।