Books - गायत्रीपुरश्चरण
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Language: HINDI
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श्रद्धा और सदाचार की आवश्यकता
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चित्त की चंचलता और कुमार्गगामिता पर जैसे- जैसे अंकुश लगता जाता
है वैसे ही वैसे दुष्कर्मों से घृणा होती जाती है, बुराइयाँ
घटती जाती हैं, पाप छूटते जाते हैं और संयम सदाचार का जीवन बनता
जाता है। श्रद्धा बढ़ती है और भ्रम सन्देहों
का निवारण होता है। सच्चे ज्ञान का उदय अपने आप होने लगता है
और सत्कर्मों में प्रवृत्ति बढ़ जाती है। यही ब्राह्मणत्व है। इस
स्थिति के प्राप्त होने से आत्म- कल्याण का मार्ग तीव्र गति से
प्रशस्त होता है। इस अंतःस्थिति से भगवान भी प्रभावित होते हैं
और साधक की श्रद्धा के अनुरूप उस पर अनुग्रह करने लगते हैं ।।
इस स्थिति का वर्णन इस प्रकार मिलता हैः-
श्रद्धामयोऽयं पुरूषः यो यच्छद्ध स एव स ।।
-गीता
मनुष्य श्रद्धामय है। जिसकी जैसी श्रद्धा है वह वैसा ही है। श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।।
ज्ञानं लेबध्वा परां शान्ति मचिरेणाधिगच्छति ॥
-गीता ४।३९
श्रद्धावान, इन्द्रियों को जीतने में तत्पर व्यक्ति सच्चे ज्ञान को प्राप्त करता है और ज्ञान को प्राप्त करते ही तुरन्त परम शान्ति प्राप्त कर लेता है।
समोऽहं सर्वभूतेषु ने मे द्वेषोऽस्तिन न प्रियः ।।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥
-गीता ९।९९
मेरे लिए सभी प्राणी समान हैं। न कोई मुझे प्यारा है, न किसी से द्वेष है। जो जिस भाव से मुझे भजता है मैं उसी रूप में उपस्थित होता हूँ।
भगवान सद्विचारों और सत्कर्मों से प्रभावित एवं प्रसन्न होते हैं। ऐसे सुकर्मी आस्तिक व्यक्ति ही ब्राह्मण माने गये हैं।
शमोदमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जव गेव च ।।
ज्ञान विज्ञान मास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥
शम, दम, तप, पवित्रता, शान्ति, सरलता ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान, आस्तिकता यह ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।
जो व्यक्ति इन पवित्र कर्तव्यों को त्याग देता है उसका सारा साधन, भजन फूटे बर्तन में भरे गये पानी की तरह नष्ट हो जाता है।
ब्राह्मणः समद्दक् शान्तो दीनानं समुपेक्षकः ।।
स्रवते ब्रह्म तरयापि भिन्न भाण्डात् पयोषथा॥
जो ब्राह्मण समदर्शी, शान्ति आदि का बहाना लेकर दीनों की उपेक्षा करता है, सेवा से जी चुराता है उसका ब्रह्मज्ञान वैसे ही नष्ट हो जाता है जैसे फूटे बर्तन में से पानी टपक जाता है।
साधना मार्ग में संयम और सदाचार का अत्यधिक महत्त्व है। जो इस पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ है वह अधिक कष्ट साध्य साधनाएँ न कर सके केवल गायत्री माता की साधारण उपासना करता रहे तो भी प्रशंसनीय सफलता प्राप्त कर लेता है।
सावित्री मात्र सारोऽपि वरं विप्र सुयंत्रितः ।।
-मनु २- ११६
संयमी ब्राह्मण गायत्री मंत्र जानता हो तो भी वह श्रेष्ठ है।
श्रद्धामयोऽयं पुरूषः यो यच्छद्ध स एव स ।।
-गीता
मनुष्य श्रद्धामय है। जिसकी जैसी श्रद्धा है वह वैसा ही है। श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।।
ज्ञानं लेबध्वा परां शान्ति मचिरेणाधिगच्छति ॥
-गीता ४।३९
श्रद्धावान, इन्द्रियों को जीतने में तत्पर व्यक्ति सच्चे ज्ञान को प्राप्त करता है और ज्ञान को प्राप्त करते ही तुरन्त परम शान्ति प्राप्त कर लेता है।
समोऽहं सर्वभूतेषु ने मे द्वेषोऽस्तिन न प्रियः ।।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥
-गीता ९।९९
मेरे लिए सभी प्राणी समान हैं। न कोई मुझे प्यारा है, न किसी से द्वेष है। जो जिस भाव से मुझे भजता है मैं उसी रूप में उपस्थित होता हूँ।
भगवान सद्विचारों और सत्कर्मों से प्रभावित एवं प्रसन्न होते हैं। ऐसे सुकर्मी आस्तिक व्यक्ति ही ब्राह्मण माने गये हैं।
शमोदमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जव गेव च ।।
ज्ञान विज्ञान मास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥
शम, दम, तप, पवित्रता, शान्ति, सरलता ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान, आस्तिकता यह ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।
जो व्यक्ति इन पवित्र कर्तव्यों को त्याग देता है उसका सारा साधन, भजन फूटे बर्तन में भरे गये पानी की तरह नष्ट हो जाता है।
ब्राह्मणः समद्दक् शान्तो दीनानं समुपेक्षकः ।।
स्रवते ब्रह्म तरयापि भिन्न भाण्डात् पयोषथा॥
जो ब्राह्मण समदर्शी, शान्ति आदि का बहाना लेकर दीनों की उपेक्षा करता है, सेवा से जी चुराता है उसका ब्रह्मज्ञान वैसे ही नष्ट हो जाता है जैसे फूटे बर्तन में से पानी टपक जाता है।
साधना मार्ग में संयम और सदाचार का अत्यधिक महत्त्व है। जो इस पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ है वह अधिक कष्ट साध्य साधनाएँ न कर सके केवल गायत्री माता की साधारण उपासना करता रहे तो भी प्रशंसनीय सफलता प्राप्त कर लेता है।
सावित्री मात्र सारोऽपि वरं विप्र सुयंत्रितः ।।
-मनु २- ११६
संयमी ब्राह्मण गायत्री मंत्र जानता हो तो भी वह श्रेष्ठ है।