Books - गायत्री की दिव्य शक्तियाँ
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Language: HINDI
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गायत्री उपासना से लौकिक और आत्मिक सफलतायें
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सती सावित्री द्वारा अपने पति के प्राण वापस लाने की कथा प्रसिद्ध है। अपने पति सत्यवान के प्राण जब उसने अपने तप-बल द्वारा यमराज से वापस ले लिये और अपनी आत्मिक महत्ता द्वारा उन्हें प्रसन्न भी कर किया, तब सावित्री सुअवसर का लाभ उठाकर धर्मराज से कुछ आध्यात्मिक प्रश्न पूछने लगी। उसने पूछा-"भगवान्! कौन व्यक्ति आपके पुर अर्थात नरक को नहीं जानते? नरक की यातना से कैसे बचा जा सकता है?" इसका उत्तर देते हुए यमराज ने भगाती महाशक्ति की महिमा बताई और कहा-"जो निष्ठापूर्वक उसकी उपासना करते हैं और तपश्चर्या द्वारा अपने जीवन को आत्म-शक्ति सम्पन्न बनाते हैं, उन्हें नरक की पीडा़ सहन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
कुन्डानि यमदूतैश्च रक्षितानि सदा शुभे।
नहि पश्यन्ति स्वप्ने च पञ्च देवाचर्का नरा:।।
देवी भक्ति विहीना ये ते पश्यन्ति ममालयम्।
यान्ति ये हरितीयम्बाश्रयन्ति हरि वासरम्।।
प्रणमन्ति हरि नित्यं हर्यर्चां कलयन्ति च।
न यान्ति तेपि घोरां । मम संयमिनी पुरीम्।।
त्रिसन्धिपूत: विप्राश्च शुद्धाचार समन्विता:।
निवृत्तिं नैव लप्स्यन्ति देवी सेवां बिना नरा:।।
अर्थ- सती सावित्री ने जब धर्मराज से कर्म-बन्धनिकृन्तन के सम्बन्ध में प्रश्न किये तो धर्मराज ने सावित्री को उत्तर देते हुए कहा-'हे शुभे! मेरे दूतोंके द्वारा कुण्ड सुरक्षित रहा करते हैं किन्तु जो पंच देवों में किसी भी एक देव की उपासना किया करते हैं, वे मनुष्य स्वप्न में भी उन कुण्डों को अर्थात नरकों को कभी भी नहीं देखते हैं। जो पुरूष देवी की भक्ति से हीन होते हैं वे ही मेरे पर को देखते हैं। जो मनुष्य हरि के तीर्थों का अटन करते हैं या हरिवासर का आश्रय लेते हैं एवं हरि को नित्य प्रणाम करते हैं तथा हरि का अर्चन किया करते हैं, वे मनुष्य भी मेरी महाघोर संयमनीपुरी में नहीं जाया करते हैं। त्रिकाल में संध्या-वन्दना करने से पवित्र एवं शुद्ध आचार से युक्त रहने वाले भी विप्र देवी की सेवा के बिना, निवृत्त की प्राप्ति नहीं किया करते हैं।
देयी मन्त्रो पासकानां नाम्नाञ्चैव निकृन्तनम्।
करोति नख लेखन्या चित्रगुप्तश्च भीतवत्।।
मधुयर्कादिकं तेषां कुरूसुतै च पुन: पुन:।
विलंघड्य ब्रह्म लोकं च लोकं गच्छन्ति ते सति।।
दुरितानि च नश्यन्ति येषां संस्पर्श मात्रत:।
ते महाभाग्य वन्तो हि सहस्त कुल पावना:।।
अर्थ- धर्मराज ने कहा- हे सति ! जो पुरूष देवीके मन्त्र की उपासना करने वाले हैं, उनके तो नाम से ही कर्म-बन्ध का निकृन्तन हो जाता है और चित्रगुप्त बहुत डरा-सा होकर नख की लेखनी से उनके कर्म-बन्ध को काट दिया करता है। जब वे ब्रह्मलोक का लंघन कर लोक को जाते हैं तो चित्रगुप्त उनके लिये बारम्बार मधुपर्क आदि का उपचार किया करता है।उनके स्पर्शमात्र से ही पापों का नाश हो जाता है। ऐसे पुरूष महान भाग्यशाली हैं और सहस्त्र कुल का उद्धार करने वाले होते हैं।
देवी-भक्तिं देहि मह्यं साराणां चैव सारकम्।
पुंसी मुक्ति द्वार बीजं नरकार्णव तारकम्।।
कारण मुक्ति साराणां सर्वाशुभ विनाशतम्।
दारकं कर्म्म वृक्षाणां कृत पायौद्य गुहारणम।।
तत्त्व ज्ञान विहीना च स्त्री जातिर्विधि-निर्मिता।
किञ्चिज्ङानं सारभूतं वद वेदविदांवर।
सर्व दानं च यज्ञश्च तीर्थस्नान्ण व्रतं तप:
अज्ञानि ज्ञान दानस्य कलां नार्दन्ति षोडशीम्।।
पितु: शतगुणा माता गौरयेचेति निश्चतम्।
मातु: शत गुण पूज्यो ज्ञान दाता गुरू: प्रभो! ।।
अर्थ- सती सावित्री ने धर्मराज से कहा- मुझे और कृपा करके देवी की भक्ति प्रदान कीजिये, जो समस्त सार वस्तुओं का भी सार स्वरूप है। देवी की भक्ति मनुष्यों के लिये मुक्ति प्राप्त करने का द्वार एवं बीज है और इसके द्वारा नरकों के घोर सागर से मनुष्य हो जाया करता है। यह मुक्ति प्रद सारों का भी कारण है और इस देवी की भक्ति से सभी प्रकार के अशुभों का नाश हो जाता है। यह कर्मों के वृक्षों का विहारण करने वाला है तथा किये हुए पापों के समूह का नाशक है। सावित्री ने धर्मराज से कहा- विधाता ने हमारी सती जाति को तत्त्व-ज्ञान से विहीन बनाया है। अत: हे वेदों के वेत्ताओं में परम श्रेष्ठ देव। जोकुछ सारभूत ज्ञान हो उसे ही बतला देवें। सब प्रकार के दान, यज्ञ, तीर्थस्नान, व्रत और तप ये सब अज्ञानी को ज्ञान का दान करने की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं हो सकते हैं। पिता से माता का सौ गुनाअधिक गौरव होता है, किन्तु माता से भी सौ गुना ज्ञान के प्रदान करने वाले गुरू का गौरव होता है।
श्रोतुमिच्छसि कल्याणि! श्री देवी-गुण कीर्त्तनम्।
नक्तणां पृच्छ कानाञ्च श्र तृष्णां कुल तारणम्।।
न यद्वक्तुं क्षमा: सिद्ध मुनीन्द्रा योगिन स्तथा।
के चान्ये च वयं केवा श्रीदेव्या गुण वर्णने।।
ध्यामन्ते यत्यदाम्भोजं ब्रह्म, विष्णु शिवादय:।
अर्थ- धर्मराज ने सती सावित्री से कहा- हे कल्याणि ! श्री देवी के गुणों, कीर्तन, वक्ता, श्रोता और पूछने वालों के फलों को तारने वाला है। देवी के गुणों का कीर्तन सिद्ध-मुनीन्द्र और योगी भी, कहने में समर्थ नहीं हैं। दूसरे और हम तो क्या हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिवादि भी उसके चरण कमल का ध्यान करते हैं।
श्रोतुमिच्छसि कल्याणि! श्री देवी-गुण कीर्त्तनम्।
नक्तणां पृच्छ कानाञ्च श्र तृष्णां कुल तारणाम्।।
न यद्वक्तुं क्षमा:सिद्ध मुनीद्रा योगिन स्तथा।
के चान्ये च वयं केवा श्रीदेव्या गुण वर्णने।।
ध्यामन्ते यत्यदाम्भोजं ब्रह्म, विष्णु शिवादय:।
अर्थ धर्मराज ने सती सावित्री से कहा हे कल्याणि! श्री देवी के गुणों, कीर्तन, वक्ता, श्रोता और पूछने वालों के फलों को तारने वाला है। देवी के गुणों का कीर्तन सिद्ध-मुनीन्द्र और योगी भी, कहनेमें समर्थ नहीं हैं। दूसरे और हम तो क्या हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिवादि भी उसके चरण कमल का ध्यान करते हैं।
एक बार नागाधिराज हिमिवान ने भगवती सेउनके स्वरूप, वैभव एवं उपास्य साधन के बारे में प्रश्न किया तो भगवती ने उन्हें स्वयं बताया कि उनकी शक्ति सामर्थ्य का क्षेत्र कितना व्यापक है और किस मनोभूमि के व्यक्ति उनके अनुग्रह को प्राप्त कर सकते हैं।
इस वर्णन में उन्होंने साधक की उत्कृष्ट मनोभूमि, उज्जवल चरित्र और भक्ति-भावपूर्ण अन्त:करण की आवश्यकता विशेष रूप से बताई है। जप, ध्यान, स्तवन और पूजा विधान के कर्मकाण्ड तो आसानी से किये जाते हैं पर इतने से ही काम नहीं चलना।साधक का अन्त:करण जितना निर्मल और चरित्र जितना उज्जवल होगा, उसी अनुपात से उसे दिव्य अनुग्रह भी उपलब्ध होगा।
स्वीयां भक्तिं वदस्वाम्वा येन ज्ञानं सुखेन हि।
जायेत मनुजस्यास्य मध्यमस्याविरागिण:।।
मार्गासजयो मे विख्याता मोक्ष प्राप्तौ नगाधिप।
कर्म्म योगो ज्ञान योगो भक्ति योगश्च सत्तम।।
गुणभेदान्मनुष्याणां सा भक्ति स्त्रिविधामता।
पर पीडां समुद्यिश्य दम्भं कृत्वा पुर: सरम्।।
मात्सर्य क्रोध युक्तो यस्तस्थ भक्ति स्तुतमसी।
पर पीडा़दि रहित: स्वकल्याणार्थ मेव च।।
नित्यं सकामो ह्रदयं य्शोर्थी भोग लोलुप:।
तत्तत्फलसमावाप्ल्यै मामुपास्तेति भक्तित:।।
भेद बुद्धचर तु मां स्वस्मादन्यांजानाति पामर:।
तस्य भक्ति: समाख्याता नगाधिप तु राजसी।।
परमेशार्यणं कर्म्म पाप संक्षाल नाय च।
वेदोक्तत्वाघ्वश्यं तत्कर्त्तव्यं तु मया निशम्।।
इति निश्चित बुद्धिस्तु भेद बुद्धि मुपाश्रित:।
करोति प्रीतये कर्म भक्ति: सा नग सात्विकी।।
अर्थ- नागराज ने एक बार जगत्जननी देवी से पूछाहे समस्त संसार की माता! आप कृपा कर मुझे अपनी भक्ति के विषय में बताइये जिसके करने से विराग रहित मध्यम श्रेणी के मनुष्य को सुख्पूर्वक ज्ञान की उत्पत्ति हो जावे। नागाधिराज हिमवान के इस्जिज्ञासापूर्ण प्रश्न को सुनकर भगवती ने कहामेरी उपासना करने के तीन मार्ग सुविख्यात हैं। हे नगाधिप! इन तीनों मार्गों से मेरी अराधनोपासना करने पर मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। हे सत्तम! वे तीन मार्ग कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग इन तीन नामों से प्रसिद्ध हैं। गुणों के भेद होने से वह मनुष्यों के द्वारा की हुई भक्ति भी तीन प्रकार की होती है। दूसरे को पीडा़ पहुँचाने के उद्देश्य से दम्भपूर्वक मात्सर्य और क्रोध से युक्त होकर जो कोई मनुष्य मेरी भक्ति किया करता है, वह उसकी भक्ति तामसी कही जाती है, क्योंकि उसमें तमोगुण की प्रधानता रहती है। दूसरों को पीडा़ देने की भावना से रहित होकर केवल अपने ही कल्याण करने की कामना वाला, यश प्राप्त करने का इच्छुक एवं भोगों के भोगने का लालसी मनुष्य अपने समुदिदष्ट फलों की प्राप्ति के लिये जो भक्तिपूर्वक मेरी उपासना किया करता है और भेद की बुद्धि से मुझे वह पामर अपने से अन्य ही समझता है। हे नागाधिराज ! उसकी भक्ति राजसी कही गई है, क्योंकि इस प्रकार की भक्ति और अराधना में रजोगुण की प्रधानता विद्यमान रहा करती है, क्योंकिसर्वदा अपने सुखोपभोग प्राप्त करने की ही भावना इस उपासना का एकमात्र लक्ष्य होता है। जो कर्म परात्पर के निमित्त किया जाता है, अर्थात् उसका कोई भी फल अपने लिये न चाहकर जो कुछ भी हो वह सब अपने आराध्य के ही चरणों में समर्पित कर दिया जावे और केवल पापों के प्रक्षालन होने से अपनी आत्मशुद्धि की भावना रहे और उपासना करने वाले के हृदय में ऐसी निष्ठा बनी रहे कि यह वेदोक्त विधान का करना मेरा परम कर्तव्य है, अतएव मुझे यह अनवरत करना ही चाहिए ऐसी बुद्धि के द्वारा भेद बुद्धि का उपाश्रय करके देव की प्रीत्यर्थ जो कर्म अर्थात् आराधना की जाती है, जिसमें एक प्रकार का हृदय सुदृढ़ निश्चय बना रहता है, वह देव भक्ति को सात्विक कहा जाता है, क्योंकि इसमें सतोगुण की प्रधानता रहती है और केवल अपने समाराध्य की प्राप्ति के लिये ही यह कर्त्तव्य कर्म समझ कर की जाती है और इसके द्वारा अपनी आत्म शुद्धि इष्टदेव कि कृपा से हो जाने की भावना सुदृढ़ रहती है।
राजा जन्मेय के प्रश्न और भगवान् व्यास के उत्तर के रूप में प्रस्तुत एक सम्वाद यह प्रतिपादन करता है कि कलियुग के प्रभाव और उसके दुष्परिणामों से बचे रहने के लिये भगवती महाशक्ति का आश्रय लेना सर्वोत्तम है। उनकी शरण में जाने वाले की अन्तःप्रेरणा उसे दुष्कर्मों से और दुष्ट भावनाओं से बचाती है, फलतः वह उन बाह्य एवं आन्तरिक यातनाओं से भी बच जाता है, जो कलियुग के कुपथगामी मनुष्यों को निरन्तर मिलती रहती है।
भगवान् ! सर्वधर्मज्ञ !सर्वशास्त्र विशारदा।
कलाव धर्मबहुले नराणां का गतिर्भवेत् ?।।
यद्यस्ति तदुपाश्चेद्ययया तं वदस्व मे।
एकएव महाराज तत्रोपायस्तु नायरः।।
सर्व दोष निरासार्थं ध्यायेद्येवी पदाम्बजम्।
म सन्त्यघामि तावन्ति मावती शक्तिरस्ति हि।
अर्थ- महर्षि वेदव्यास जी से राजा जन्मेजय युग-धर्म के कराल समय में सद्गति का उपाय पूछते हुए कहते हैं- हे सम्पूर्ण धर्म के तत्व के ज्ञाता और समस्त शास्त्रों के महामनीषी। इस अधर्म से परिपूर्ण इस घोर कलियुग में मनुष्यों की गति कैसे होगी, यदि इसका कोई उपाय हो तो आप कृपा करके बतलायें। व्यास महर्षि ने कहा- इसका केवल एक ही उपाअय हैदूसरा कोई नहीं है। कलि में समस्त दोषों के विनाश करने के लिये देवी के चरण कमलों का ध्यान करना चाहिये। उतने पापों में सामर्थ्य नहीं है, जितनी देवी की शक्ति होती है।
स्मृता सम्पूजिता भक्ता ध्याता चोच्चारिता स्तुता।
ददाति वाञ्चिछतानर्थान्कामदा तेन कीर्त्यते।।
समाराधिता च तथा नृभिरेभिः सदाम्बिका।
यतोमी सुखिनः सर्वे संसारेस्मिन्न संशयः।।
इतिराजञ्चद्रुतं तत्रमया मुनिसमागमे।
लोमशस्य मुखात्कामं देवी माहात्म्य् मुत्तमम्।
इति सच्चिन्त्ये राजेन्द्र कर्त्तव्यं च सदार्चनम्।
भक्तया परमया देव्याः प्रीत्या च पुरूषर्षभ।।
अर्थ- सत्यव्रत के आख्यान मेम देवी की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है- भगवती के स्मरण से वह स्वपूजित, भक्तिभाव से ध्यान की हुई, मुख से उच्चारण किये जाने पर और स्तुत होती हुई मानवों के सभी इच्छित मनोरथों का प्रदान कर देती है। इसीलियेउसका 'कामदा'- यह नाम कहा जाता है। मनुष्यों के द्वारा सदा समाराधित वह देवी होती है, इसीलियेइस संसार में सब सुखी हैं, इसमें संशय नहीं है। व्यास ने कहा- हे राजन्! मैंने लोमश के मुख से देवी का माहात्म्य सुना है अतः प्रेम-भक्ति से देवी का सदा अर्चन करना चाहिये।
पिछला जीवन कुमार्गगामी भी रहा हो तो इस महाशक्ति का आश्रय लेने वाला एक दिव्य प्रकाश से अपने अन्तःकरण को त्याग कर धर्मपय का अनुगामी बनकर अपना लोक परलोक सुधारता है।
महर्षि वाल्मीक का प्रसंग ऐसा ही है, वे जीवन के प्रथम चरण में डाकू थे पर जब वे आत्म-कल्याण की उपासना में प्रवृत्त हुए तो सारे दोष-दुर्गुणों से छुटकारा पाकर ऋषि जीवन को पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकने में समर्थ हुए।
बीजोच्चारण तो देव्या विद्या प्रस्फुरिताखिला।
बाल्मीकेश्च यथा पूर्व तथा स द्युभवत्कविः।।
अर्थ- सावित्री भगवती के केवल बीज मात्र के उच्चारण करने से बाल्मिकि की समस्त विद्यायें प्रस्फुरित हो गई थीं और सर्वप्रथम महान् कवि हो गये थे।
भगवती महाशक्ति गायत्री यह नहीं देखतीं कि साधक का पिछला जीवन कैसा रहा है, इस आधार पर वे किसी से घृणा भी नहीं करतीं। शरण में आने वाले को वे दिव्य प्रकाश देती हैं और उसे सन्मार्गगामी प्रेरणा देकर सच्ची सुख-शांति का अधिकारी बना देती हैं-
न वैषम्यं न नैघृण्यं भगवत्यां कदाचन।
केवल जीव मोक्षार्थ यतते भुवनेश्वरी।।
अर्थ- भगवती गायत्री में कोई भी विषमता का भाव नहीं रहता है, अर्थात् वह सबको समान भाव से ही देखती है और उसमें किसी से भी घृणा नहीं होती है। वह इस सम्पूर्ण भुवन की स्वामिनी केवल जीवों के कल्याण के लिये ही सदा यत्न करती है।
भौतिक जीवन की सुख-समृद्धि और आध्यात्मिक जीवन की शांति सद्गति का उन्हें अधिकार मिलता है, जो सच्चे मन से, वचन और कर्म से माता की शरण में जाते हैं और उनके निर्देश अनुरूप जीवन क्रम का निर्धारण करते हैं।
यदज्ञानाद्भवोत्पति यैज्ज्ञानाद्भव नाशनम्।
सं विद्रूपां च तां देवी समरामः साप्रचोदयात्।।
अर्थ- जिस गायत्री देवी के ज्ञान न होने से इस संसार में उत्पत्ति हुआ करती है अर्थात् यह मानव संसार के जन्म-मरण रूपी बन्धन का दुःख निरन्तर भोगता रहा करता है और जब भगवती गायत्री देवी का ज्ञान हो जाता है तो फिर इस संसार के आवागमन रूपी दुःख का नाश हो जाता है। हम उस संवित्वरूपिणी देवी का सदा-सर्वदा स्मरण करते हैं। वह भगवती हमको सत्प्रेरणा प्रदान करे।
कुन्डानि यमदूतैश्च रक्षितानि सदा शुभे।
नहि पश्यन्ति स्वप्ने च पञ्च देवाचर्का नरा:।।
देवी भक्ति विहीना ये ते पश्यन्ति ममालयम्।
यान्ति ये हरितीयम्बाश्रयन्ति हरि वासरम्।।
प्रणमन्ति हरि नित्यं हर्यर्चां कलयन्ति च।
न यान्ति तेपि घोरां । मम संयमिनी पुरीम्।।
त्रिसन्धिपूत: विप्राश्च शुद्धाचार समन्विता:।
निवृत्तिं नैव लप्स्यन्ति देवी सेवां बिना नरा:।।
अर्थ- सती सावित्री ने जब धर्मराज से कर्म-बन्धनिकृन्तन के सम्बन्ध में प्रश्न किये तो धर्मराज ने सावित्री को उत्तर देते हुए कहा-'हे शुभे! मेरे दूतोंके द्वारा कुण्ड सुरक्षित रहा करते हैं किन्तु जो पंच देवों में किसी भी एक देव की उपासना किया करते हैं, वे मनुष्य स्वप्न में भी उन कुण्डों को अर्थात नरकों को कभी भी नहीं देखते हैं। जो पुरूष देवी की भक्ति से हीन होते हैं वे ही मेरे पर को देखते हैं। जो मनुष्य हरि के तीर्थों का अटन करते हैं या हरिवासर का आश्रय लेते हैं एवं हरि को नित्य प्रणाम करते हैं तथा हरि का अर्चन किया करते हैं, वे मनुष्य भी मेरी महाघोर संयमनीपुरी में नहीं जाया करते हैं। त्रिकाल में संध्या-वन्दना करने से पवित्र एवं शुद्ध आचार से युक्त रहने वाले भी विप्र देवी की सेवा के बिना, निवृत्त की प्राप्ति नहीं किया करते हैं।
देयी मन्त्रो पासकानां नाम्नाञ्चैव निकृन्तनम्।
करोति नख लेखन्या चित्रगुप्तश्च भीतवत्।।
मधुयर्कादिकं तेषां कुरूसुतै च पुन: पुन:।
विलंघड्य ब्रह्म लोकं च लोकं गच्छन्ति ते सति।।
दुरितानि च नश्यन्ति येषां संस्पर्श मात्रत:।
ते महाभाग्य वन्तो हि सहस्त कुल पावना:।।
अर्थ- धर्मराज ने कहा- हे सति ! जो पुरूष देवीके मन्त्र की उपासना करने वाले हैं, उनके तो नाम से ही कर्म-बन्ध का निकृन्तन हो जाता है और चित्रगुप्त बहुत डरा-सा होकर नख की लेखनी से उनके कर्म-बन्ध को काट दिया करता है। जब वे ब्रह्मलोक का लंघन कर लोक को जाते हैं तो चित्रगुप्त उनके लिये बारम्बार मधुपर्क आदि का उपचार किया करता है।उनके स्पर्शमात्र से ही पापों का नाश हो जाता है। ऐसे पुरूष महान भाग्यशाली हैं और सहस्त्र कुल का उद्धार करने वाले होते हैं।
देवी-भक्तिं देहि मह्यं साराणां चैव सारकम्।
पुंसी मुक्ति द्वार बीजं नरकार्णव तारकम्।।
कारण मुक्ति साराणां सर्वाशुभ विनाशतम्।
दारकं कर्म्म वृक्षाणां कृत पायौद्य गुहारणम।।
तत्त्व ज्ञान विहीना च स्त्री जातिर्विधि-निर्मिता।
किञ्चिज्ङानं सारभूतं वद वेदविदांवर।
सर्व दानं च यज्ञश्च तीर्थस्नान्ण व्रतं तप:
अज्ञानि ज्ञान दानस्य कलां नार्दन्ति षोडशीम्।।
पितु: शतगुणा माता गौरयेचेति निश्चतम्।
मातु: शत गुण पूज्यो ज्ञान दाता गुरू: प्रभो! ।।
अर्थ- सती सावित्री ने धर्मराज से कहा- मुझे और कृपा करके देवी की भक्ति प्रदान कीजिये, जो समस्त सार वस्तुओं का भी सार स्वरूप है। देवी की भक्ति मनुष्यों के लिये मुक्ति प्राप्त करने का द्वार एवं बीज है और इसके द्वारा नरकों के घोर सागर से मनुष्य हो जाया करता है। यह मुक्ति प्रद सारों का भी कारण है और इस देवी की भक्ति से सभी प्रकार के अशुभों का नाश हो जाता है। यह कर्मों के वृक्षों का विहारण करने वाला है तथा किये हुए पापों के समूह का नाशक है। सावित्री ने धर्मराज से कहा- विधाता ने हमारी सती जाति को तत्त्व-ज्ञान से विहीन बनाया है। अत: हे वेदों के वेत्ताओं में परम श्रेष्ठ देव। जोकुछ सारभूत ज्ञान हो उसे ही बतला देवें। सब प्रकार के दान, यज्ञ, तीर्थस्नान, व्रत और तप ये सब अज्ञानी को ज्ञान का दान करने की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं हो सकते हैं। पिता से माता का सौ गुनाअधिक गौरव होता है, किन्तु माता से भी सौ गुना ज्ञान के प्रदान करने वाले गुरू का गौरव होता है।
श्रोतुमिच्छसि कल्याणि! श्री देवी-गुण कीर्त्तनम्।
नक्तणां पृच्छ कानाञ्च श्र तृष्णां कुल तारणम्।।
न यद्वक्तुं क्षमा: सिद्ध मुनीन्द्रा योगिन स्तथा।
के चान्ये च वयं केवा श्रीदेव्या गुण वर्णने।।
ध्यामन्ते यत्यदाम्भोजं ब्रह्म, विष्णु शिवादय:।
अर्थ- धर्मराज ने सती सावित्री से कहा- हे कल्याणि ! श्री देवी के गुणों, कीर्तन, वक्ता, श्रोता और पूछने वालों के फलों को तारने वाला है। देवी के गुणों का कीर्तन सिद्ध-मुनीन्द्र और योगी भी, कहने में समर्थ नहीं हैं। दूसरे और हम तो क्या हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिवादि भी उसके चरण कमल का ध्यान करते हैं।
श्रोतुमिच्छसि कल्याणि! श्री देवी-गुण कीर्त्तनम्।
नक्तणां पृच्छ कानाञ्च श्र तृष्णां कुल तारणाम्।।
न यद्वक्तुं क्षमा:सिद्ध मुनीद्रा योगिन स्तथा।
के चान्ये च वयं केवा श्रीदेव्या गुण वर्णने।।
ध्यामन्ते यत्यदाम्भोजं ब्रह्म, विष्णु शिवादय:।
अर्थ धर्मराज ने सती सावित्री से कहा हे कल्याणि! श्री देवी के गुणों, कीर्तन, वक्ता, श्रोता और पूछने वालों के फलों को तारने वाला है। देवी के गुणों का कीर्तन सिद्ध-मुनीन्द्र और योगी भी, कहनेमें समर्थ नहीं हैं। दूसरे और हम तो क्या हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिवादि भी उसके चरण कमल का ध्यान करते हैं।
एक बार नागाधिराज हिमिवान ने भगवती सेउनके स्वरूप, वैभव एवं उपास्य साधन के बारे में प्रश्न किया तो भगवती ने उन्हें स्वयं बताया कि उनकी शक्ति सामर्थ्य का क्षेत्र कितना व्यापक है और किस मनोभूमि के व्यक्ति उनके अनुग्रह को प्राप्त कर सकते हैं।
इस वर्णन में उन्होंने साधक की उत्कृष्ट मनोभूमि, उज्जवल चरित्र और भक्ति-भावपूर्ण अन्त:करण की आवश्यकता विशेष रूप से बताई है। जप, ध्यान, स्तवन और पूजा विधान के कर्मकाण्ड तो आसानी से किये जाते हैं पर इतने से ही काम नहीं चलना।साधक का अन्त:करण जितना निर्मल और चरित्र जितना उज्जवल होगा, उसी अनुपात से उसे दिव्य अनुग्रह भी उपलब्ध होगा।
स्वीयां भक्तिं वदस्वाम्वा येन ज्ञानं सुखेन हि।
जायेत मनुजस्यास्य मध्यमस्याविरागिण:।।
मार्गासजयो मे विख्याता मोक्ष प्राप्तौ नगाधिप।
कर्म्म योगो ज्ञान योगो भक्ति योगश्च सत्तम।।
गुणभेदान्मनुष्याणां सा भक्ति स्त्रिविधामता।
पर पीडां समुद्यिश्य दम्भं कृत्वा पुर: सरम्।।
मात्सर्य क्रोध युक्तो यस्तस्थ भक्ति स्तुतमसी।
पर पीडा़दि रहित: स्वकल्याणार्थ मेव च।।
नित्यं सकामो ह्रदयं य्शोर्थी भोग लोलुप:।
तत्तत्फलसमावाप्ल्यै मामुपास्तेति भक्तित:।।
भेद बुद्धचर तु मां स्वस्मादन्यांजानाति पामर:।
तस्य भक्ति: समाख्याता नगाधिप तु राजसी।।
परमेशार्यणं कर्म्म पाप संक्षाल नाय च।
वेदोक्तत्वाघ्वश्यं तत्कर्त्तव्यं तु मया निशम्।।
इति निश्चित बुद्धिस्तु भेद बुद्धि मुपाश्रित:।
करोति प्रीतये कर्म भक्ति: सा नग सात्विकी।।
अर्थ- नागराज ने एक बार जगत्जननी देवी से पूछाहे समस्त संसार की माता! आप कृपा कर मुझे अपनी भक्ति के विषय में बताइये जिसके करने से विराग रहित मध्यम श्रेणी के मनुष्य को सुख्पूर्वक ज्ञान की उत्पत्ति हो जावे। नागाधिराज हिमवान के इस्जिज्ञासापूर्ण प्रश्न को सुनकर भगवती ने कहामेरी उपासना करने के तीन मार्ग सुविख्यात हैं। हे नगाधिप! इन तीनों मार्गों से मेरी अराधनोपासना करने पर मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। हे सत्तम! वे तीन मार्ग कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग इन तीन नामों से प्रसिद्ध हैं। गुणों के भेद होने से वह मनुष्यों के द्वारा की हुई भक्ति भी तीन प्रकार की होती है। दूसरे को पीडा़ पहुँचाने के उद्देश्य से दम्भपूर्वक मात्सर्य और क्रोध से युक्त होकर जो कोई मनुष्य मेरी भक्ति किया करता है, वह उसकी भक्ति तामसी कही जाती है, क्योंकि उसमें तमोगुण की प्रधानता रहती है। दूसरों को पीडा़ देने की भावना से रहित होकर केवल अपने ही कल्याण करने की कामना वाला, यश प्राप्त करने का इच्छुक एवं भोगों के भोगने का लालसी मनुष्य अपने समुदिदष्ट फलों की प्राप्ति के लिये जो भक्तिपूर्वक मेरी उपासना किया करता है और भेद की बुद्धि से मुझे वह पामर अपने से अन्य ही समझता है। हे नागाधिराज ! उसकी भक्ति राजसी कही गई है, क्योंकि इस प्रकार की भक्ति और अराधना में रजोगुण की प्रधानता विद्यमान रहा करती है, क्योंकिसर्वदा अपने सुखोपभोग प्राप्त करने की ही भावना इस उपासना का एकमात्र लक्ष्य होता है। जो कर्म परात्पर के निमित्त किया जाता है, अर्थात् उसका कोई भी फल अपने लिये न चाहकर जो कुछ भी हो वह सब अपने आराध्य के ही चरणों में समर्पित कर दिया जावे और केवल पापों के प्रक्षालन होने से अपनी आत्मशुद्धि की भावना रहे और उपासना करने वाले के हृदय में ऐसी निष्ठा बनी रहे कि यह वेदोक्त विधान का करना मेरा परम कर्तव्य है, अतएव मुझे यह अनवरत करना ही चाहिए ऐसी बुद्धि के द्वारा भेद बुद्धि का उपाश्रय करके देव की प्रीत्यर्थ जो कर्म अर्थात् आराधना की जाती है, जिसमें एक प्रकार का हृदय सुदृढ़ निश्चय बना रहता है, वह देव भक्ति को सात्विक कहा जाता है, क्योंकि इसमें सतोगुण की प्रधानता रहती है और केवल अपने समाराध्य की प्राप्ति के लिये ही यह कर्त्तव्य कर्म समझ कर की जाती है और इसके द्वारा अपनी आत्म शुद्धि इष्टदेव कि कृपा से हो जाने की भावना सुदृढ़ रहती है।
राजा जन्मेय के प्रश्न और भगवान् व्यास के उत्तर के रूप में प्रस्तुत एक सम्वाद यह प्रतिपादन करता है कि कलियुग के प्रभाव और उसके दुष्परिणामों से बचे रहने के लिये भगवती महाशक्ति का आश्रय लेना सर्वोत्तम है। उनकी शरण में जाने वाले की अन्तःप्रेरणा उसे दुष्कर्मों से और दुष्ट भावनाओं से बचाती है, फलतः वह उन बाह्य एवं आन्तरिक यातनाओं से भी बच जाता है, जो कलियुग के कुपथगामी मनुष्यों को निरन्तर मिलती रहती है।
भगवान् ! सर्वधर्मज्ञ !सर्वशास्त्र विशारदा।
कलाव धर्मबहुले नराणां का गतिर्भवेत् ?।।
यद्यस्ति तदुपाश्चेद्ययया तं वदस्व मे।
एकएव महाराज तत्रोपायस्तु नायरः।।
सर्व दोष निरासार्थं ध्यायेद्येवी पदाम्बजम्।
म सन्त्यघामि तावन्ति मावती शक्तिरस्ति हि।
अर्थ- महर्षि वेदव्यास जी से राजा जन्मेजय युग-धर्म के कराल समय में सद्गति का उपाय पूछते हुए कहते हैं- हे सम्पूर्ण धर्म के तत्व के ज्ञाता और समस्त शास्त्रों के महामनीषी। इस अधर्म से परिपूर्ण इस घोर कलियुग में मनुष्यों की गति कैसे होगी, यदि इसका कोई उपाय हो तो आप कृपा करके बतलायें। व्यास महर्षि ने कहा- इसका केवल एक ही उपाअय हैदूसरा कोई नहीं है। कलि में समस्त दोषों के विनाश करने के लिये देवी के चरण कमलों का ध्यान करना चाहिये। उतने पापों में सामर्थ्य नहीं है, जितनी देवी की शक्ति होती है।
स्मृता सम्पूजिता भक्ता ध्याता चोच्चारिता स्तुता।
ददाति वाञ्चिछतानर्थान्कामदा तेन कीर्त्यते।।
समाराधिता च तथा नृभिरेभिः सदाम्बिका।
यतोमी सुखिनः सर्वे संसारेस्मिन्न संशयः।।
इतिराजञ्चद्रुतं तत्रमया मुनिसमागमे।
लोमशस्य मुखात्कामं देवी माहात्म्य् मुत्तमम्।
इति सच्चिन्त्ये राजेन्द्र कर्त्तव्यं च सदार्चनम्।
भक्तया परमया देव्याः प्रीत्या च पुरूषर्षभ।।
अर्थ- सत्यव्रत के आख्यान मेम देवी की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है- भगवती के स्मरण से वह स्वपूजित, भक्तिभाव से ध्यान की हुई, मुख से उच्चारण किये जाने पर और स्तुत होती हुई मानवों के सभी इच्छित मनोरथों का प्रदान कर देती है। इसीलियेउसका 'कामदा'- यह नाम कहा जाता है। मनुष्यों के द्वारा सदा समाराधित वह देवी होती है, इसीलियेइस संसार में सब सुखी हैं, इसमें संशय नहीं है। व्यास ने कहा- हे राजन्! मैंने लोमश के मुख से देवी का माहात्म्य सुना है अतः प्रेम-भक्ति से देवी का सदा अर्चन करना चाहिये।
पिछला जीवन कुमार्गगामी भी रहा हो तो इस महाशक्ति का आश्रय लेने वाला एक दिव्य प्रकाश से अपने अन्तःकरण को त्याग कर धर्मपय का अनुगामी बनकर अपना लोक परलोक सुधारता है।
महर्षि वाल्मीक का प्रसंग ऐसा ही है, वे जीवन के प्रथम चरण में डाकू थे पर जब वे आत्म-कल्याण की उपासना में प्रवृत्त हुए तो सारे दोष-दुर्गुणों से छुटकारा पाकर ऋषि जीवन को पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकने में समर्थ हुए।
बीजोच्चारण तो देव्या विद्या प्रस्फुरिताखिला।
बाल्मीकेश्च यथा पूर्व तथा स द्युभवत्कविः।।
अर्थ- सावित्री भगवती के केवल बीज मात्र के उच्चारण करने से बाल्मिकि की समस्त विद्यायें प्रस्फुरित हो गई थीं और सर्वप्रथम महान् कवि हो गये थे।
भगवती महाशक्ति गायत्री यह नहीं देखतीं कि साधक का पिछला जीवन कैसा रहा है, इस आधार पर वे किसी से घृणा भी नहीं करतीं। शरण में आने वाले को वे दिव्य प्रकाश देती हैं और उसे सन्मार्गगामी प्रेरणा देकर सच्ची सुख-शांति का अधिकारी बना देती हैं-
न वैषम्यं न नैघृण्यं भगवत्यां कदाचन।
केवल जीव मोक्षार्थ यतते भुवनेश्वरी।।
अर्थ- भगवती गायत्री में कोई भी विषमता का भाव नहीं रहता है, अर्थात् वह सबको समान भाव से ही देखती है और उसमें किसी से भी घृणा नहीं होती है। वह इस सम्पूर्ण भुवन की स्वामिनी केवल जीवों के कल्याण के लिये ही सदा यत्न करती है।
भौतिक जीवन की सुख-समृद्धि और आध्यात्मिक जीवन की शांति सद्गति का उन्हें अधिकार मिलता है, जो सच्चे मन से, वचन और कर्म से माता की शरण में जाते हैं और उनके निर्देश अनुरूप जीवन क्रम का निर्धारण करते हैं।
यदज्ञानाद्भवोत्पति यैज्ज्ञानाद्भव नाशनम्।
सं विद्रूपां च तां देवी समरामः साप्रचोदयात्।।
अर्थ- जिस गायत्री देवी के ज्ञान न होने से इस संसार में उत्पत्ति हुआ करती है अर्थात् यह मानव संसार के जन्म-मरण रूपी बन्धन का दुःख निरन्तर भोगता रहा करता है और जब भगवती गायत्री देवी का ज्ञान हो जाता है तो फिर इस संसार के आवागमन रूपी दुःख का नाश हो जाता है। हम उस संवित्वरूपिणी देवी का सदा-सर्वदा स्मरण करते हैं। वह भगवती हमको सत्प्रेरणा प्रदान करे।