Books - गायत्री की दिव्य शक्तियाँ
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Language: HINDI
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मृत्यु का पूर्व ज्ञान
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विक्रम सम्वत् १९१४ में पं. भुदरमल जी के घर पर एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम रखा- गया नन्दकिशोर! लड़का सुशील एवं आज्ञाकारी निकला, इसलिए घर पर पर उसका नाम हुकमीचन्द रखा गया। हुकमीचन्द जब ३० साल के हुए तब उनकी माता का देहान्त हो गया, पिता पहले ही स्वर्ग सिधार चुके थे।
व्यवसाय के क्रम में संयोगवश उन्हें कलकत्ता जाना पड़ा। वहाँ से वे १९५७ में वापस रतनगढ़ लौटे। शहर के बाहर एक धर्मशाला में ठहरकर गायत्री जप करने लगे। वहीं रहकर उन्होंने गायत्री के तीन पुरश्चरण किये, इसके उपरान्त वे काशी में जा बसे और अन्त तक काशी में रहे। उन्हें भी वचन सिद्धि प्राप्त हो गई थी, अनेक सेठ- साहूकार उनके भक्त बन गये थे, और उनके आशीष से अपनी आर्थिक समृद्धि बढ़ाते रहे। कई सामान्य स्तर के लोग उनके आशीर्वाद से सेठ और लक्षाधिपति हो गये।
उन्हें अपनी मृत्यु की जानकारी, गायत्री माँ की कृपा से एक माह पूर्व ही हो गई थी। उसी दिन से उन्होंने अन्नाहार छोड़ दिया था और केवल थोड़ा सा दूध ही लेते थे। मृत्यु के लिए जब १८ दिन ही शेष रहे तब उन्होंने दूध भी लेना छोड़ दिया और जल पर रहने लगे। चार दिन शेष रहे जानकर उन्होंने जल का भी परित्याग कर दिया। निश्चित दिन को गायत्री जप करते- करते ब्राह्मणों द्वारा वेदपाठ के मध्य उन्होंने आषाढ़ शुक्ल पंचमी विक्रम सं. १७८२ में इस नश्वर शरीर से मुक्त होकर गायत्री लोक को प्राप्त किया।
उन्हीं के सुपुत्र श्री पं. वैद्यनाथ जोशी ने उनकी प्रेरणा से काशी में मारवाड़ी संस्कृत पाठशाला नामक एक छोटी- सी संस्था शुरू की थी। यह संस्था काशी में ‘मारवाड़ी संस्कृत कालेज’ के नाम से सुप्रसिद्ध है। श्री वैद्यनाथ जी के दो पुत्र, श्री शिवलालजी जो कि कथाकार शिरोमणि तथा पं. रामेश्वर जी जोशी कर्मकाण्ड शिरोमणि हैं। दोनों ही आजकल रतनगढ़ में ठाठ से रहते हैं और पुत्र- पौत्रों समेत सुखी- सम्पन्न हैं।
व्यवसाय के क्रम में संयोगवश उन्हें कलकत्ता जाना पड़ा। वहाँ से वे १९५७ में वापस रतनगढ़ लौटे। शहर के बाहर एक धर्मशाला में ठहरकर गायत्री जप करने लगे। वहीं रहकर उन्होंने गायत्री के तीन पुरश्चरण किये, इसके उपरान्त वे काशी में जा बसे और अन्त तक काशी में रहे। उन्हें भी वचन सिद्धि प्राप्त हो गई थी, अनेक सेठ- साहूकार उनके भक्त बन गये थे, और उनके आशीष से अपनी आर्थिक समृद्धि बढ़ाते रहे। कई सामान्य स्तर के लोग उनके आशीर्वाद से सेठ और लक्षाधिपति हो गये।
उन्हें अपनी मृत्यु की जानकारी, गायत्री माँ की कृपा से एक माह पूर्व ही हो गई थी। उसी दिन से उन्होंने अन्नाहार छोड़ दिया था और केवल थोड़ा सा दूध ही लेते थे। मृत्यु के लिए जब १८ दिन ही शेष रहे तब उन्होंने दूध भी लेना छोड़ दिया और जल पर रहने लगे। चार दिन शेष रहे जानकर उन्होंने जल का भी परित्याग कर दिया। निश्चित दिन को गायत्री जप करते- करते ब्राह्मणों द्वारा वेदपाठ के मध्य उन्होंने आषाढ़ शुक्ल पंचमी विक्रम सं. १७८२ में इस नश्वर शरीर से मुक्त होकर गायत्री लोक को प्राप्त किया।
उन्हीं के सुपुत्र श्री पं. वैद्यनाथ जोशी ने उनकी प्रेरणा से काशी में मारवाड़ी संस्कृत पाठशाला नामक एक छोटी- सी संस्था शुरू की थी। यह संस्था काशी में ‘मारवाड़ी संस्कृत कालेज’ के नाम से सुप्रसिद्ध है। श्री वैद्यनाथ जी के दो पुत्र, श्री शिवलालजी जो कि कथाकार शिरोमणि तथा पं. रामेश्वर जी जोशी कर्मकाण्ड शिरोमणि हैं। दोनों ही आजकल रतनगढ़ में ठाठ से रहते हैं और पुत्र- पौत्रों समेत सुखी- सम्पन्न हैं।