Books - गीत माला भाग १६
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हे गुरुवर शक्ति हमें दो
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हे गुरुवर शक्ति हमें दो
हे गुरुवर शक्ति हमें दो, कार्य सतत कर पाएँ हम।
और तुम्हारी ऋषिसत्ता के, अग्रदूत कहलाएँ हम॥
हम हैं ऐसे दीप कि जिसमें, स्नेह नहीं रुक पाता है।
देख स्वयं के छिद्र, ग्लानि से, मन व्याकुल हो जाता है॥
हममें हरदम जलते रहने की, उत्कृष्ट अभिलाषा है।
पर अपनी वक्रता देखकर, होती बहुत निराशा है॥
ऐसी दो पात्रता हमें प्रभु, जो सशक्त हो जाएँ हम॥
बहुत चाहते हैं पर होता, मन का कायाकल्प नहीं।
स्नेह रुका तो भी बाती, जैसा होता संकल्प नहीं॥
जलती तो है ज्योति किन्तु, आलोक न फैला पाती है।
मात्र निमिष भर को थोड़ी, ऊष्मा देकर बुझ जाती है॥
ऊर्ध्वगामिता वह दो हमको, जो सुस्थिर बन पाएँ हम॥
हम कर रहे साधना लेकिन, शक्ति हमें देते रहना।
निर्देशों के लिए गहन, अनुरक्ति हमें देते रहना॥
ध्यान तुम्हारा ध्रुवतारा सा, हमको मार्ग दिखाता है।
शब्द- शब्द गुरुदेव तुम्हारा, ज्योति पुञ्ज बन जाता है॥
दूर करो दुर्बलता मन की, जो संकल्प निभाएँ हम॥
कृपा करो साधना हमारी, प्रबल प्रखर बन ही जाये।
अंधकार की चाल भयंकर, हमें देख हिल ही जाये॥
हम हों ऐसे दीप- दीप से, दीप जलें जिससे अनगिन।
सब मिल- जुलकर फैलाएँ, आलोक धरित्री पर निशिदिन॥
घनी अमावस में कोने- कोने का, तिमिर मिटाएँ हम॥
हे गुरुवर शक्ति हमें दो, कार्य सतत कर पाएँ हम।
और तुम्हारी ऋषिसत्ता के, अग्रदूत कहलाएँ हम॥
हम हैं ऐसे दीप कि जिसमें, स्नेह नहीं रुक पाता है।
देख स्वयं के छिद्र, ग्लानि से, मन व्याकुल हो जाता है॥
हममें हरदम जलते रहने की, उत्कृष्ट अभिलाषा है।
पर अपनी वक्रता देखकर, होती बहुत निराशा है॥
ऐसी दो पात्रता हमें प्रभु, जो सशक्त हो जाएँ हम॥
बहुत चाहते हैं पर होता, मन का कायाकल्प नहीं।
स्नेह रुका तो भी बाती, जैसा होता संकल्प नहीं॥
जलती तो है ज्योति किन्तु, आलोक न फैला पाती है।
मात्र निमिष भर को थोड़ी, ऊष्मा देकर बुझ जाती है॥
ऊर्ध्वगामिता वह दो हमको, जो सुस्थिर बन पाएँ हम॥
हम कर रहे साधना लेकिन, शक्ति हमें देते रहना।
निर्देशों के लिए गहन, अनुरक्ति हमें देते रहना॥
ध्यान तुम्हारा ध्रुवतारा सा, हमको मार्ग दिखाता है।
शब्द- शब्द गुरुदेव तुम्हारा, ज्योति पुञ्ज बन जाता है॥
दूर करो दुर्बलता मन की, जो संकल्प निभाएँ हम॥
कृपा करो साधना हमारी, प्रबल प्रखर बन ही जाये।
अंधकार की चाल भयंकर, हमें देख हिल ही जाये॥
हम हों ऐसे दीप- दीप से, दीप जलें जिससे अनगिन।
सब मिल- जुलकर फैलाएँ, आलोक धरित्री पर निशिदिन॥
घनी अमावस में कोने- कोने का, तिमिर मिटाएँ हम॥