Books - हम ईमान सिखाते हैं
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हम ईमान सिखाते हैं
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गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ऊँ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
तोते की मुक्ति गायत्री मंत्र से
देवियो, भाइयो! पिछले दिनों मैं वहाँ गया- केन्या। नैरोबी (केन्या) में एक लड़की रहती है- विद्या। उसने कांगो का एक तोता पाल रखा था। तोता जो था, वह ऐसा बढ़िया साफ- साफ गायत्री मंत्र बोलता था। मैंने उसको कैसेट में टेप कर लिया और कहा कि जब हिंदुस्तान जाऊँगा तो लोगों को बताऊँगा कि एक सुग्गा इतना सही गायत्री मंत्र बोलता है। टेप के बिना तो मेरी बात पर कोई विश्वास नहीं करेगा। इसीलिए मैं टेप करके लाया। जब मैं वहाँ ठहरा था तो देखा कि सुबह- सवेरे चार बजे कौन इतना साफ गायत्री मंत्र बार- बार बोलता है? यह चक्कर क्या है? मैं बहुत देर तक देखता रहा, लेकिन समझ में नहीं आया। फिर मैंने उस लड़की से पूछा कि यह गायत्री मंत्र कौन बोलता है? वह बोली- ' '' गुरुजी! कांगो एक देश है, जहाँ के सुग्गे बड़े- बड़े होते हैं और वे मनुष्य की आवाज को ठीक तरीके से याद कर लेते हैं। उस तोते ने भी गायत्री मंत्र याद कर रखा था। अच्छा महाराज जी! वह कितनी बार गायत्री मंत्र बोलता होगा? बेटे! वह सौ बार या एक सौ आठ बार तो बोलता ही होगा। तो क्या उसकी मुक्ति हो जाएगी? आपके ख्याल से तो हो भी सकती है, पर मेरे ख्याल से नहीं होगी; क्योंकि उसके भीतर कोई चिंतन नहीं है; कोई दृष्टि नहीं है; कोई आस्था नहीं हैं; कोई विश्वास नहीं है। केवल शब्दों को ही रिपीट करता रहता है।
अध्यात्म- आस्थाओं का परिपाक
अच्छा महाराज जी! शब्दों में कितनी ताकत है? बेटे! बस, इतनी ताकत है कि हम उसे टेप कर लाए और हम उस सुग्गे का नाम ले रहे हैं। और कोई ताकत है? और कोई ताकत नहीं है। बस, इससे लोगों को जानकारी मिल जाती है कि चार हजार जप कर लिया या तीन हजार जप किया। तो इसका कोई पुण्य नहीं है? न बेटे! कोई पुण्य नहीं है।
पुण्य कैसे हो सकता है? दृष्टि से हो सकता है। दृष्टि अगर हमारे पास हो, चिंतन हमारे पास हो, आस्थाएँ हमारे पास हों, हमारे जप में भाव- विह्वलता जुड़ी हो तो यही सामान्य जप इतना बड़ा फलदायक हो सकता है, जिसके मुकाबले में तराजू में बड़ी से बड़ी चीज तौली जा सकती है। और इसके मुकाबले बड़ी से बड़ी चीज इतने कम मूल्य की हो सकती है, छोटे मूल्य की हो सकती है कि ढेरों का ढेरों श्रम, ढेरों का ढेरों धन खरच करने के बाद भी हम उसको हिकारत की नजर से देख सकते हैं और उसे छोटी चीज ठहरा सकते हैं। अगर उसके पीछे निष्ठाएँ हों तब, आस्थाएँ हों तब। आस्थाओं का परिपाक इसी का नाम अध्यात्म है। अध्यात्म और कोई चीज नहीं है, मात्र दृष्टि के परिष्कार का नाम है।
मित्रो! दृष्टिकोण के पारष्कार का बात पर जब हम विचार करते हैं, तब हमको मालूम पड़ता है कि छोटी -छोटी घटनाएँ धार्मिक क्षेत्रों में घटित हुईं हैं तो उनके कितने तीव्र और कितने महत्त्वपूर्ण प्रभाव उत्पन्न हुए हैं। एक साधु और चिड़िया की कहानी कितनी बार आपको सुनाता रहता हूँ। एक साधु आया था। अपनी नजरों के तेज से उसने चिड़िया को जला दिया था। एक स्त्री थी, जिसने कहा था कि मैं योगाभ्यास कर रही हूँ। योगाभ्यास में वह खाना पका रही थी और अपने सास- ससुर की सेवा कर रही थी। तो महाराज जी। हमारी बहू भी सास ससुर की सेवा करती है और हमको खाना खिलाती है तो उतना ही पुण्य हमको भी मिल जाएगा क्या, जितना कि आप जो महाभारत का किस्सा सुना रहे थे? नहीं बेटे! तेरी बहू को नहीं मिलेगा। क्यों महाराज जी! उसमें क्या बात है? और उसमें क्या बात थी? वह भी खाना पकाती थी और हमारी औरत भी खाना पकाती है। बेटे! मुख्य बात, असल बात यह है कि तेरी औरत किस भाव से खाना पकाती है और किस दृष्टि से तेरी सेवा करती है? सारे का सारा चमत्कार, सारे का सारा जादू यहाँ है। अगर वह मजबूरी से खाना पकाती है, पेट के लिए खाना पकाती है तो समझ ले बेटे कि वह एक नौकरानी के तरीके से है, मजदूरनी के तरीके से है। उसमें वह योग की दृष्टि नहीं आ सकती, जो जिस महिला की बात मैंने बताई थी।
सबसे बड़े ब्रह्मज्ञानी
मित्रो! नकल क्रिया की मत कीजिए, भावनाओं की कीजिए। आपको तौल भावनाओं से करनी पड़ेगी, क्रियाओं से नहीं। क्रियाओं से तौल करके मैंने उसी कहानी में बताया था कि एक चांडाल था, जो गंदगी साफ करने का काम करता था, लेकिन वह बहुत बड़ा ब्रह्मज्ञानी था। उसी कहानी में मैंने तुलाधार वैश्य की कहानी बताई थी। वह लौंग- हींग बेचता था, लेकिन ब्रह्मज्ञानी था, तपस्वी था। मित्रो! गाड़ी वाले रैक्य की घटना का वर्णन उपनिषदों में आता है। एक दिन एक हंस और हासेना बेंठे हुए बात कर रहे थे। राजा जनक वहीं समीप में बैठे थे। हंस हसिनी कहने लगे कि इस जमाने का सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी कौन हो सकता है? उसने किसी एक ऋषि का नाम लिया। उसने कहा कि इस जमाने का सबसे बड़ा ऋषि गाड़ी वाला रैक्य है। राजा को चैन नहीं मिला। उसने कहा कि हमारे राज्य में गाड़ी वाला रैक्य सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी है। चलो, उसकी तलाश कराएँ और पता लगाएँ कि वह कैसा ब्रह्मज्ञानी है? पता लगाने के लिए बहुत दिनों तक नौकर -चाकर भेजते रहे। आखिर में जब पता लगा तो देखा कि जैसे आपने गाड़ियाँ लोहार देखे हैं, जो अपनी गाड़ी लिए गाँव गाँव फिरते हैं। ऐसे ही एक गाड़ी लिए मजदूरी करता हुआ, गाड़ी में सामान ढोता हुआ एक छोटा सा वृद्ध मजदूर दीखा। बात चीत करने पर उसकी विद्वत्ता का, श्रेष्ठता का राजा को भान हुआ कि वास्तव में वे इस जमाने के सर्वश्रेष्ठ ऋषि हैं। साथियो! क्रियाकृत्य करने वाले कितने ही महात्मा होते हैं, संत होते हैं; ज्ञानी होते हैं। लेकिन हम देखते हैं कि छोटी- छोटी क्रियाएँ करने वाले, जिनकी क्रियाएँ नगण्य थीं, जिनकी क्रियाएँ मजाक उड़ाने वाली थीं, उपहास करने वाली थीं, फिर भी उनका ब्रह्मज्ञान, भगवान की भक्ति उच्चस्तरीय रही है।
सिद्धपुरुष कबीर
कबीर क्या करते थे? क्रियाकृत्य कितना करते थे? जप कितना करते थे? अनुष्ठान कितना करते थे? बेटे! मुझे मालूम नहीं है, लेकिन इतना मुझे मालूम है कि कबीर अपना पेट पालने के लिए भिक्षा मागने के बजाय हाथ सूत से कातते थे। उस सूत से कपड़ा बुनते थे और कपड़ा बुनने से जो दो- चार आने की मजदूरी मिल जाती होगी, उसी से अपना पेट भर लेते और अपना गुजारा कर लेते थे। महाराज जी! तो वे अनुष्ठान नहीं करते थे? हों बेटे! वे अनुष्ठान नहीं करते थे। और प्राणायाम? प्राणायाम भी नहीं करते थे। और समाधि? समाधि भी नही लगाते थे। कपड़ा बुनते थे। तो महाराज जी! कपड़ा बुनने पर भी, कोई अनुष्ठान न करने पर भी, जप तप न करने पर भी वे कैसे इतने उच्चस्तरीय संत हो गए कि जिनके मरते समय हिंदू और मुसलमानों में लड़ाई हुई। मुसलमान कहते थे कि यह तो हमारा है और हिंदू कहते थे कि हमारा है। इस झगड़े को देखकर कबीर ने सोचा कि जिंदगी भर हम मोहब्बत पैदा करते रहे ओर अब मरते समय हमारी लाश के पीछे लड़ाई हो तो यह खराब बात है। उनकी मरी हुई लाश गायब हो गई और वहाँ जहाँ उनकी लाश पड़ी हुई थी, केवल फूल पड़े रह गए। आधे फूल मुसलमान उठा ले गए क्योंकि वे जुलाहे के यहाँ पैदा हुए थे और जुलाहे ने पालन पोषण किया था। उन्होंने कहा कि उसकी मस्जिद बनाएँगे, मक़बरा बनाएँगे और मक़बरा बना दिया गया।
मित्रो! आधे फूल हिंदू उठा ले गए। उन्होंने उन फूलों को जला दिया। जलाने के बाद में कबीर चौरा बना दिया गया। ऐसे थे वे सिद्धपुरुष, ऐसे थे महापुरुष। क्यों साहब सूत बुनने से हो सकते हैं? हाँ बेटे! सूत बुनने से हो सकते हैं। देख, सूत बुनने की खड्डियाँ हमारे यहाँ लगी हुई हैं। तू यहाँ से खड्डी ले जा और अपने घर में सूत बुना कर। थोड़े दिनों में कबीर हो जाएगा। तो महाराज जी! मैं कबीर हो जाऊँगा। बेटे! तू कबीर नहीं हो सकता। ऐसी दृष्टि कहाँ है? तेरे पास विश्वास कहाँ है? अगर तेरा यह खयाल है कि कृत्यों के माध्यम से, घटनाओं के माध्यम से, क्रिया- कलापों के माध्यम से भगवान को पाना चाहता है, तो यह नामुमकिन है।
विधि क्यों पूछते हैं?
यहाँ कितने लोग आते रहते हैं और बार- बार यही पूछते रहते हैं कि विधि बताइए। किसकी विधि बताएँ? गायत्री माता का साक्षात्कार करने की विधि बताइए। अरे अभागे! विधि तो पूछ मत। तू तो केवल रामनाम लेता चल, इसी से पार हो जाएगा। वाल्मीकि इसी से पार हो गए थे। प्रह्लाद इसी से पार हो गया था। मैंने तो यह गायत्री मंत्र बता दिया है। नहीं साहब! आपने गायत्री मंत्र तो बता दिया है, पर विधि नहीं बताई है। क्या विधि बताऊँ? नहीं महाराज जी! बीजमंत्र लगाने की विधि बताइए। बताऊँ तेरा सिर, बेहूदा कहीं का। विधियों पूछता है। विधियों में क्या रखा है! नहीं साहब! ऐसी विधि बताइए कि झट से भगवान मिल जाएँ। बेटे! कोई विधि नहीं है ऐसी, केवल एक ही विधि है। कौन सी? अपना ईमान और अपनी निष्ठाएँ अपने विश्वासों की गहराइयों को मजबूत बनाता चला जा। फिर देख तू रामनाम लेता हो, तो भी तुझे मुबारक। रामनाम न भी आता हो, मरा- मरा कहता हो, तो मुबारक। मरा- मरा कहने से, उलटा नाम जपने से-
उलटा नाम जपत जग जाना ।वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।
वाल्मीकि ब्रह्म के समान हो गए थे। विधियाँ बताइए। बेटे! मैं विधियाँ बताता तो हूँ। विधियों का प्रचार करता हूँ विधियाँ आपको भी सिखाता हूँ। विधियाँ जनता को भी सिखाई हैं, पर मैं हमेशा यह कहता रहा हूँ और कहता रहूँगा कि विधियों के माध्यम से हम लोगों की निष्ठाओं को परिपक्व करते हैं। जनमानस का परिष्कार हमारा मूल उद्देश्य है।
बदला हुआ समाज
मित्रो! हमने सारे समाज को देखा है। आज हम गरीब नहीं हैं, संपन्न हैं, पैसे वाले हैं, लेकिन पुराने लोगों की तुलना में आज के लोगों में जो फर्क दिखाई पड़ता है, वह एक ही है कि आदमी का चिंतन और आदमी का दृष्टिकोण बराबर घटिया होता हुआ चला जा रहा है। पहले एक घर में ३० ३०, ४० -४ ० आदमी मिल- जुलकर रह लेते थे, पता ही नहीं चलता था। हर आदमी अपना काम करता और मजे से रहता था। स्वार्थपरता, आपा- धापी, छीना- झपटी नाममात्र की भी नहीं थी। अरे साहब! इतना बड़ा घर पड़ा है। भगवान सबका पालन कर रहा है। इस घर में हमारा भी गुजारा हो जाएगा। पच्चीस आदमी मरेंगे तो हम भी मर जाएँगे। पच्चीस आदमियों को रोटी नहीं मिलेगी तो हमको भी नहीं मिलेगी। परंतु अब हर आदमी यह सोचता है कि इस घर में से कितना चुरा सकता हूँ और अलग से कितना क्या बना सकता हूँ?
यह दृष्टिकोण आने से क्या होता चला गया? मित्रो! इसके आने से हमारे घरों का सत्यानाश होता चला गया। हमारी संपत्ति बेकार हो गई, नाकारा हो गई। ज्यादा आमदनी से कुछ फायदा न हो सका। ज्यादा आमदनी हो गई तो बाप, बेटों के लिए जमा करके रख गया। होना यह चाहिए था कि बाप की कमाई से सारा का सारा घर गुजारा करता और चैन से हर व्यक्ति आगे बढ़ता। परंतु जैसे ही बाप के मरने के दिन आए आपस में मुकदमेबाजियाँ शुरू हो गईं। मार- काट शुरू हो गई। फौजदारी शुरू हो गई। खून- खराबियाँ शुरू हो गईं। कत्ल शुरू हो गए। संपत्ति थी, तो खुशहाली बढ़नी चाहिए थी, लेकिन खुशहाली नहीं बढ़ सकी, उलटे विनाश खड़ा हो गया। क्यों? क्योंकि दृष्टिकोण घटिया हो गया।
दृष्टिकोण घटिया हो जाने से मित्रो! हमारे सारे समाज का सर्वनाश होता चला गया और यह दौलत हमारे किसी काम नहीं आ रही है। यह दौलत हमारे लिए विनाश खडा करेगी। क्यों? क्योंकि दृष्टिकोण का स्तर गिरा और सामान का स्तर बढ़ा तो कितनी बड़ी असमानता आ गई? सामान का स्तर बढ़ना चाहिए था तो दृष्टिकोण भी ऊँचा होना चाहिए था। तब जो साधन- संपत्ति हमारे पास हैं, उसका फायदा समाज ने उठाया होता। विद्या हमारी बढ़ी तो विद्या के साथ- साथ हमारा हृदय भी बड़ा होता, दिमाग की चौड़ाई बढ़ी होती। अगर ये दोनों साथ- साथ बडे और बड़े होते तो फिर चाहे हम कम पढ़े- लिखे होते अथवा ज्यादा पढे- लिखे होते, फिर हमारे ज्ञान का फायदा सारे समाज ने उठाया होता।
बढना चाहिए सहृदयता का क्षेत्र
मित्रो! महर्षि चरक के श्रम एवं ज्ञान का लाभ हम और आप अभी तक उठा रहे हैं। हजारों वर्ष हो गए चरक अपनी पुस्तक '' चरक संहिता '' जैसा महान आयुर्वेदिक ग्रंथ लिखकर रख गए हैं। चरक ने अपने उस ज्ञान का लाभ स्वयं तो उठाया ही, संसार भर के बीमारों ने उसका लाभ उठाया, पीछे वाले लोगों ने, हकीमों ने उसका लाभ उठाया। चरक की लिखी हुई किताब को पढ़कर सैकड़ों आदमी अपना पेट पाल रहे हैं, गुजारा कर रहे हैं, दवा- दारू कर रहे हैं। हजारों आदमियों का इलाज कर रहे हैं।
बेटे! ज्ञान और अक्ल के साथ साथ यदि आदमी का कलेजा बढ़ जाए तब? हृदय बढ़ जाए तब? दृष्टिकोण बढ़ जाए तब? तब फिर मजा आ जाए और अगर हमारा कलेजा- हृदय छोटा होता हुआ चला जाए तब फिर हमारा दिमाग सफाया करेगा और हममें से हर आदमी ठग बनने की कोशिश करेगा। धूर्त और बेईमान बनने की कोशिश करेगा। जालसाज बनने की कोशिश करेगा और ऐसी अक्ल से अपने पड़ोसी की गरदन काटने की तैयारी करेगा। आज जो अक्ल मनुष्य को मिली हुई है, उससे वह ऐसे- ऐसे जाल रचेगा, जिसमें वह स्वयं ही उलझकर मरेगा और जो भी उसके संपर्क में आएगा, उसको भी मार डालेगा। आज की अक्ल ऐसी ही है।
लानत है ऐसी अक्ल पर
लेकिन मित्रो! ऐसी अक्ल के ऊपर लानत है। ऐसे एम० ए० होने के ऊपर, बी० ए० होने के ऊपर धिक्कार है। अगर यह अक्ल मनुष्य के हृदय को विकसित न कर सकती हो, हृदय को विकसित करने में इसने सहायता न की हो तो मैं अक्ल से ज्यादा खराब, अक्ल से ज्यादा खौफनाक कोई चीज नहीं समझता। अगर दृष्टिकोण का परिष्कार न हो और केवल शिक्षा का एवं दिमाग का विकास हो तो मेरी बात चले तो मैं यह नहीं जानता कि मेरी बात चलेगी कि नहीं चलेगी, किंतु अगर मेरी बात चले और कोई माने तो मैं सब स्कूलों को बंद करा दूँ और ये कहूँ कि बिना पढ़े आदमी अच्छे होते हैं। बिना पड़े आदमी किसान हो सकते हैं, मजदूर हो सकते हैं, शरीफ हो सकते हैं और अगर किसी का नुकसान करेंगे तो थोड़ा सा करेंगे। गाली- गलौज करेंगे, किसी का सिर फोड़ देंगे, लेकिन जिसके पास अक्ल है और डुदय नहीं है, ईमान नहीं है, वह आदमी तो दुनिया का सफाया करके रहेगा। उसका सत्यानाश और सर्वनाश करके रहेगा। जितनी पैनी अक्ल होगी, उतने ही तीखे विनाश के साधन होंगे। इसीलिए मैं अक्ल को न उठाने की बात कहूँगा, जब तक कि हृदय को ऊँचा न उठाया जा सके, समझदारी को ऊँचा न उठाया जा सके।
हृदय न बदले तो पैसा भी न बढे़
मित्रो! पैसा जरूर बढ़ाना चाहिए लेकिन पैसा बढ़ाने के साथ -साथ लोगों का ईमान, लोगों का दृष्टिकोण, लोगों का चिंतन भी बढ़ाना चाहिए। आखिर जो पैसा हमें मिलेगा, उसका हम करेंगे क्या? अगर '' करेंगे क्या '' की बात न हो तो इससे ऐय्याशी बढ़ सकती है। इससे फैशन−परस्ती की वृद्धि हो सकती है। इससे सिनेमाखोरी की वृद्धि हो सकती है। इससे नशेबाजी की वृद्धि हो सकती है। इससे दुनिया में तबाही आ सकती है और गरीबी से भी ज्यादा अमीरी महँगी पड सकती है, जैसे कि आजकल पड़ रही है।
यही बात धर्मक्षेत्र पर भी लागू होगी
मित्रो! दृष्टिकोण के विकास की आवश्यकता नहीं समझी गई तो हमारा धार्मिक क्षेत्र भी नाकारा होता हुआ चला जाएगा। इसमें ढोंग और विडंबनाएँ जड़ जमाती चली जाएँगी, निहित स्वार्थ अपना फायदा उठाएँगे और बेचारे भावुक लोग बेमौत मारे जाएँगे। फिर हमारा धार्मिक क्षेत्र धूर्तों और मूर्खों की ऐसी जोड़ी बनेगा कि '' राम मिलाई जोड़ी एक अंधा- एक कोढ़ी '' की उक्ति ही चरितार्थ होगी। कोढ़ी कौन? ये धूर्त, जिनको हम पंडा- पुरोहित कहते हैं, बाबा जो, साधु कहते हैं आर महत कहते हैं। ये कौन? धूर्त और बेईमान हैं और वे बेचारे भावुक, जो बेमौत मारे जाते हैं? जो अपना पैसा खराब करते हैं? समय खराब करते हैं? अक्ल खराब करते हैं? उनका नाम है- मूर्ख, जो कर्मकाण्डों को ही सब कुछ समझते हैं। साहब! फलाने स्वामी जी भण्डारा कर रहे हैं। अच्छा, पहले यह बता कि भण्डारे में क्या होगा? नहीं साहब! भण्डारे में बाबा जी आएँगे और गाँजा पिएँगे। उखाड़ बाल इस बाबा जी के। ये कौन हैं? धूर्त हैं, जो जनता को मूर्ख बनाते हैं।
मित्रो! क्या होता रहता है कि जनता का धन अनावश्यक कार्यों में खरच होता हुआ चला जाता है। हम लोग समझते हैं कि इससे हमारा अमुक फायदा हो जाएगा। इससे हमें यह पुण्य मिल जाएगा। इससे हमारे देवी -देवता प्रसन्न हो जाएँगे। धर्मभीरु बेचारी जनता बेकार में मारी जाती है। हमारा धर्मक्षेत्र अगर ढोंग और विडंबनायुक्त बना रहेगा तो नुकसानदेह बना रहेगा। इससे हानियाँ होंगी, धन की बरबादी होगी और निहित- स्वार्थ अपना थोड़ा सा फायदा करने के लिए जनता से ढेरों धन कमाएँगे। अगर उनको दो हजार रुपए चुराने हैं तो जनता के बीस हजार रुपए भण्डारे में खरच कराएँगे, ताकि बीस हजार रुपए में से दो हजार रुपए हमको चुराने को मिल जाएँ। अठारह हजार रुपए तो तुमने खराब करा दिए। इससे तो यह अच्छा था कि तुम दो हजार रुपए की भीख माँग लाते और अपनी जेब में जमा कर लेते। नहीं साहब! ऐसे तो कोई नहीं दे सकता था। इसलिए हमने बीस हजार रुपए का ढोंग रचाकर खरच कराया और तब हमें दो हजार रुपए मिले।
हमारा मिशन जनमानस के परिष्कार हेतु मित्रो! कर्मकाण्डों का, क्रियाकृत्यों का मैं प्रचार- प्रसार करता हूँ। आप सबको, दुनिया को कर्मकाण्ड सिखाता हूँ पर आप एक बात मत भूलना। अगर आपने यह बात भुला दी तो हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे और हम जिस मिशन के लिए काम करते हैं, उसी को काटकर फेंक देंगे। हम इस मिशन के लिए काम करते हैं, ताकि जनमानस का परिष्कार हो। शाहजहाँ के ताजमहल की तुलना में आज यदि मुझसे पूछा जाए कि ज्यादा दिलेर कौन सा था और जनता की श्रद्धा किसके ऊपर टपकती है? तो मैं समझता हूँ कि शाहजहाँ की तुलना में हजारी किसान था, जिसके ऊपर हमारी आँखों में से आँसू और श्रद्धा के भाव जो टपकते हैं, वे बहुत हैं। क्यों साहब! हजारी किसान पढ़ा- लिखा नहीं था? हों बेटे! पढ़ा लिखा नहीं था। अमीर था? नहीं था। विद्वान था? नहीं, विद्वान भी नहीं था। ज्ञानी था? भक्त था? नहीं था। फिर क्या था? उसका कलेजा चौड़ा था। जिन आदमियों का कलेजा चौड़ा होता है, उनके चिंतन का तरीका, सोचने का ढंग मक्खी मच्छरों जैसा नहीं होता, वरन दिलेर लोगों जैसा होता है, ऊँचे लोगों जैसा होता है, हमारे जैसा होता है।
मित्रो! अगर हमारे दृष्टिकोण ऊँचे हों तो हर जिंदगी में मजा आ सकता है। अगर हमारे कलेजे छोटे हों तब? बेटे! तब हमारे पास पैसा- दौलत हो जाए तो क्या? ज्ञान हो जाए तो क्या? भक्ति हो जाए तो क्या? विद्या हो जाए तो क्या? उससे कोई खास फायदा नहीं हो सकता है। इसलिए मैं आपसे एक निवेदन कर रहा था कि हमको बड़ी फैक्टरियाँ नहीं बनानी हैं। हमको बड़े इनसान बनाने हैं। बड़े इनसान बनाने के लिए क्या करना पड़ता है? अगर पेड़ को बड़ा एवं ऊँचा बनाना हो तो क्या करना पड़ेगा? इसके लिए सिर्फ एक काम करना पड़ेगा कि उसकी जड़ों के लिए गुंजाइश छोड़नी पड़ेगी। जड़ें जितनी गहरी होंगी, पेड़ उसी हिसाब से बढ़ता चला जाएगा। क्यों साहब! बरगद का पेड़ क्यों बड़ा हो जाता है? क्योंकि बेटे! उसकी जड़ें इतनी पैनी हो जाती हैं कि दूर- दूर तक फैलती चली जाती हैं। बरगद की जटाएँ निकलती हैं, उनकी ये विशेषता होती है कि वे नीचे की ओर आती हुई जमीन मेँ घुस जाता हैं और जमीन से खुराक लेने लगती हैं और पेड़ फैलता हुआ चला जाता है।
जड़ों को देखें
साथियो! बरगद का पेड़ इसी आधार पर फैलता है कि उसकी जड़ें गहरी होती हैं। गहरी जड़ें, नीची जड़ें, अगर हमारी हों, तब? बेटे! हमारी बाहर की जिंदगी फैलती हुई चली जाएगी। जड़ों से क्या मतलब है? जड़ों से मेरा मतलब है बेटे! ईमान। आदमी का व्यक्तित्व वह नहीं है, जो बाहर दिखाई पड़ता है। किसी का चेहरा अच्छा और खूबसूरत है। किसी आदमी में ताकत बहुत है। किसी में अक्ल समझदारी बहुत है। बेटे! इन सबको मैं नहीं मानता। आदमी का व्यक्तित्व वह है जो उसकी निष्ठाओं पर टिका हुआ है, आस्थाओं पर टिका हुआ है। अगर वह व्यक्तित्व गहरा है तो आदमी को महापुरुष कहा जा सकता है, ज्ञानी कहा जा सकता है और न जाने क्या क्या कहा जा सकता है।
मामूली आदमी असाधारण काम
मित्रो! आदमी की जिंदगी अगर बदल जाए दृष्टिकोण बदल जाए तो मामूली आदमी, जिसमें हम और आप भी शामिल हैं, ऐसे- ऐसे काम कर सकते हैं, जो दुनिया के इतिहास में अजर- अमर रह सकें। कुछ लोगों के नाम मैं अकसर गिनाया करता हूँ। उनमें राजस्थान के एक प्राइमरी स्कूल के अध्यापक का नाम न जाने क्यों मेरी जबान पर अकसर आ जाता है, जिसे मैं भूल नहीं सकता। उन्होंने यह निश्चय किया था कि पेट भरने के लिए नौकरी करने से क्या फायदा? पेट तो हम किसी भी तरीके से भर सकते हैं। जिन छोटे देहातों में शिक्षा का अभाव है, वहाँ हम एक कन्या पाठशाला चलाएँगे। उन्होंने निस्वार्थ भाव से बिना कोई वेतन लिए एक छोटे से देहात में शिक्षण- कार्य शुरूकर दिया था। उस प्राइमरी के अध्यापक हीरालाल शास्त्री ने सारी जिंदगी कन्या शिक्षा के लिए काम किया। उनका वह स्कूल जो फूँस के छप्पर के नीचे था, बढ़ते- बढ़ते वनस्थली बालिका विद्यालय के नाम से प्रख्यात हुआ। वहाँ मोटर चलाने से लेकर हवाई जहाज उड़ाना लड़कियाँ सीखती हैं।
मित्रो! आदमी का ईमान कितना प्रभावशाली होता है, आदमी की अंतरात्मा कितनी शक्तिशाली होती है, आपने कभी अंदाज ही नहीं लगाया है। उस अध्यापक की अंतरात्मा में विशुद्ध रूप से एक ही दृष्टि थी कि हमको समाज की सेवा करनी है। न उसमें चालाकी की गुंजाइश थी, न बेईमानी की गुंजाइश थी, न चोरी की गुंजाइश थी, न बदनीयती की और न नाम- यश की गुंजाइश थी। बस, छोटा सा काम करता चला गया । ऐसे निस्वार्थ काम, चाहे उसका नाम भजन हो, चाहे सेवाकार्य, हमेशा फलते- फूलते रहे हैं। उस प्राइमरी के अध्यापक ने चरित्र के हिसाब से, अपने दृष्टिकोण के हिसाब से एक नई फिजाँ एक नई दिशा और नया आदर्श, नया चिंतन लोगों के सामने रखा।
तो महाराज जी! हम भी स्कूल खोल सकते हैं? नहीं बेटे! तू नहीं खोल सकता। क्यों? तेरा कलेजा मक्खी- मच्छर जैसा है। चंदा आएगा तो पहले तू उससे अपना उल्लू सीधा करेगा। इसलिए जनता का धिक्कार भगवान का धिक्कार, तेरी जीवात्मा का धिक्कार तेरे ऊपर बरसता चला जाएगा। उसका परिणाम यह होगा कि तेरे हर काम की पोल खुलती चली जाएगी। तेरे हर काम में असहयोग होता हुआ चला जाएगा। नहीं महाराज जी! मैं तो बहुत चालाक और लोगों को उल्लू बना सकता हूँ। नहीं बेटे! भगवान को कोई उल्लू नहीं बना सकता। जनमानस को उल्लू बनाना किसी के लिए भी संभव नहीं है।
मित्रो! उस प्राइमरी स्कूल के अध्यापक के तरीके से ढेरों के ढेरों आदमी हैं, जिनने ऊँचा दिल रखा और उनको सफलताएँ मिलती चली गईं। मैं उनका यश और गुणगान करता हूँ। उन्हीं में से एक हैं- नागपुर के एक मामूली से वकील, जिनका नाम बाबा साहब आमटे है। बस, एक दिन मन में आ गया कोढियों की सेवा करनी चाहिए। वकालत करके झूठ- मूठ में लोगों को मुकदमेबाजी में फँसा देने, झूठ बोलना सिखाने की अपेक्षा क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम गरीबी में जिएँ, पेट भरने के लिए किसी तरीके से रोटी कमा लें और अपनी सारी जिंदगी दीन- दुखियारों के लिए लगा दें। उन्होंने जो कोढ़ी सड़क किनारे बैठे थे, उनको लेकर एक निश्चय किया कि ये सभी स्वावलंबी बन सकते हैं। वे उन्हें लेकर एक छोटे से गाँव में चले गए और वहाँ बकरी पाल ली, मुरगी पाल ली, जिसे कोढ़ी भी चरा सकते थे। वे स्वयं भी चराने लगे। उनसे दूध, ऊन आदि जिन चीजों से आमदनी होती थी, उससे अपना गुजारा करने लगे। कोढ़ियों का इलाज भी स्वावलम्बनपूर्वक होने लगा। उन्होंने कहा कि मनुष्य अगर कमजोर हो, अंधा हो, कोढ़ी हो, तो भी स्वावलंबी बनकर स्वाभिमानपूर्वक रह सकता है। वे कमजोर और उपेक्षित लोगों का शिक्षण करते चले गए।
मैं ईमान का शिक्षण करता हूँ
आदमी के ईमान से ज्यादा कशिश और प्रभावशाली ताकत दुनिया में और कोई नहीं है। दुनिया में मनुष्य के उच्च दृष्टिकोण के अतिरिक्त और किसी में भी इतनी ताकत नहीं है। भजन में भी नहीं है। नहीं साहब! भजन में बड़ी ताकत है। बेटे! तुमसे हम कह रहे हैं कि भजन में कोई ताकत नहीं है। अगर कोई ताकत रही होती तो ये भजन करने वाले सवेरे से शाम तक क्यों बैठे रहते हैं और भीख माँगते रहते हैं? अगर ऐसा है तो फिर क्यों दरवाजे- दरवाजे पर भीख माँगते हैं? क्यों दुनिया भर की चालाकी करते हैं? नहीं साहब! भजन में बड़ी ताकत है। कोई ताकत नहीं है। फिर किसमें ताकत है? मित्रो! भजन में अगर ताकत है तो वह आदमी के ईमान से मिली हुई ताकत है। भजन से बड़ा ईमान है। भजन बड़ा नहीं, छोटा है ईमान से। ईमान बड़ा है।
साथियो! मैं आपसे यह कह रहा था कि आदमी की जड़ें नीचे रहती हैं, जिनको हम सिद्धांत कहते हैं, आदर्श कहते हैं, आस्थाएँ कहते हैं, मान्यताएँ कहते हैं। वे अगर हमारे पास हों तो मजा आ जाए। हम आपसे बराबर निवेदन करते आ रहे हैं कि आप स्वयं अपन जीवन में दृष्टिकोण का परिष्कार करें।
हमने आपके कर्मकाण्डों को कोई महत्त्व नहीं दिया है। उस दिन हम आपको शिक्षण दे रहे थे कि हमने आपको स्नान क्यों कराया? पीला कपड़ा क्यों पहनाया? क्यों महाराज जी! अगर हम पीला कपड़ा पहन लें तो क्या बैकुंठ को चले जाएँगे? नहीं बेटे! कहीं नहीं जमता, चाहे पीला कपड़ा पहन ले, चाहे हरा पहन ले। इससे क्या बनता है ?ए हम तो यह याद दिलाना चाहते थे कि हमारा दृष्टिकोण परिष्कृत होना चाहिए। आपको उस दिन व्याख्या करते हुए हम यह कह रहे थे कि आपके हाथ में दंड और कोपीन इसलिए दिया गया हे कि आप मुस्तैदी सीखें। कमर में रस्सी इसलिए बँधवाई गई थी कि आपका ढीला पोला जीवन, वाहियात जीवन है, जिसमें न कोई नियमितता है, न कोई व्यवस्था है, न कोई निरंतरता है, न कोई कर्तव्य है और न कोई जिम्मेदारी हैं। आप फौजी सिपाही के तरीके से कमर की पेटी बाँधकर खड़े हो जाइए जिससे मालूम पड़े कि ये सैनिक हैं।
कौपीनधारी की जिम्मेदारी अनुभव करें
मित्रो! आप धर्म के सैनिक हैं, अध्यात्म के सैनिक हैं, इसीलिए आपको कौपीन बँधवाई थी, पेटी बँधवाई थी। आप कौपीनधारी होने के कारण से जिम्मेदारी का अनुभव कीजिए। जब कभी किसी फौजी या पुलिस वाले का कोर्टमार्शल किया जाता है तो उसकी पेटी जमा करा ली जाती है। क्यों साहब! पेटी पहने रहें तो? नहीं पेटी नहीं पहन सकते। पेटी इज्जत है। तो महाराज जी! आपने लँगोटी क्यों दी, पैंट क्यों नहीं दिया, जिससे ठंढक भी दूर हो जाती। अरे अभागे! तू बाहर की व्याख्या करता है। हम क्या कह रहे हैं, उसे समझता नहीं है। अरे! हमने तो तुझे एक दृष्टि दी थी, दृष्टिकोण दिया था। एक सेठ जी थे। एक रात स्वप्न् में लक्ष्मी जी आईं और कहने लगीं कि अब तो हम आपके यहों से चले जाएँगे और गरीबी आपके घर में रहेगी। अब इसमें कोई सुधार नहीं हो सकता, क्योंकि आपका पुण्य खतम हो गया। लेकिन आपने हमारी बीस साल से बहुत सेवा की है, इसलिए एक वरदान माँग लीजिए परंतु यह वरदान मत माँगना कि हम आपके यहाँ रह जाएँ। सेठ ने लक्ष्मी जी से कहा कि आप एक वरदान दे जाइए कि हम घर में जितने भी आदमी हैं, प्यार से रहें, मोहब्बत से रहें, मिल- जुलकर रहें। सेवा और सहायता की दृष्टि से रहें। बस, इतना वरदान दे जाइए और चली जाइए।
लक्ष्मी जी वरदान देकर चली गईं। उस गरीबी में भी वे बड़े प्यार से रहने लगे, मिल- बाँटकर खाने लगे। कपड़े कम पड़ गए तो एक ने दूसरे के उतरे पहन लिए। एक बीमार पड़ गया तो दूसरे आदमी सेवा करने लगे। गरीबी में भी इतना आनंद, इतनी खुशी, इतनी मस्ती बनी रही कि उनका जो संकट था, कंगाली थी, धीरे- धीरे दूर होने लगी। लक्ष्मी जी फिर सपने में आईं और कहा कि हम तो फिर से आपके यहाँ आ गए। सेठ ने कहा- एक साल पहले तो आप कह रही थी कि तुम्हारा पुण्य खतम हो गया। अब आप कैसे आ गईं? लक्ष्मी जी ने कहा कि जहाँ कहीं भी प्यार रहता है, सहकार रहता है, सेवावृत्ति रहती है, उदारता रहती है, हमको वहाँ झक मारकर आना पड़ता है। हम वहाँ से जा नहीं सकते। हमने देखा कि आपके यहाँ तो प्रेमभाव है, सहकारिता है, उदारता है, सेवा है, फिर हम कैसे आपको छोड़ेगी? बस, लक्ष्मीजी आ गईं और गरीबी चली गई।
दृष्टिकोण का परिष्कार- प्रशिक्षण का मर्म मित्रो! हमारा अध्यात्म तीन धाराओं में बँटा हुआ था। व्यावहारिक अध्यात्म और उसके पीछे दृष्टि एक होती थी- उदार दृष्टि, उदात्त दृष्टि और सेवा की दृष्टि। हमारी यह दृष्टि विकसित हो तो जो कर्मकाण्ड हम आपको सिखाते हैं और जिन कर्मकाण्डों का हम विस्तार करना चाहते हैं, आप यह कसौटी तैयार रखना कि हमने जो कर्मकाण्ड कराए थे, वे केवल क्रिया मात्र रह गए। मित्रो! क्रिया के पीछे दृष्टि और कलेवर के पीछे प्राण होता है, यह मत भूलना। अगर आप ये बातें भूलेंगे नहीं तो हमारे वो ख्वाब और इस मिशन के वो सपने पूरे होकर रहेंगे, जिसके लिए हमने यह मिशन स्थापित किया है और जिसके लिए हम आपका शिक्षण करते हुए इतना बड़ा संगठन बनाते हुए क्रियाकृत्यों को गति देते हुए चले जा रहे हैं।
आज की बात समाप्त।।। ऊँ शांति: ।।
ऊँ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
तोते की मुक्ति गायत्री मंत्र से
देवियो, भाइयो! पिछले दिनों मैं वहाँ गया- केन्या। नैरोबी (केन्या) में एक लड़की रहती है- विद्या। उसने कांगो का एक तोता पाल रखा था। तोता जो था, वह ऐसा बढ़िया साफ- साफ गायत्री मंत्र बोलता था। मैंने उसको कैसेट में टेप कर लिया और कहा कि जब हिंदुस्तान जाऊँगा तो लोगों को बताऊँगा कि एक सुग्गा इतना सही गायत्री मंत्र बोलता है। टेप के बिना तो मेरी बात पर कोई विश्वास नहीं करेगा। इसीलिए मैं टेप करके लाया। जब मैं वहाँ ठहरा था तो देखा कि सुबह- सवेरे चार बजे कौन इतना साफ गायत्री मंत्र बार- बार बोलता है? यह चक्कर क्या है? मैं बहुत देर तक देखता रहा, लेकिन समझ में नहीं आया। फिर मैंने उस लड़की से पूछा कि यह गायत्री मंत्र कौन बोलता है? वह बोली- ' '' गुरुजी! कांगो एक देश है, जहाँ के सुग्गे बड़े- बड़े होते हैं और वे मनुष्य की आवाज को ठीक तरीके से याद कर लेते हैं। उस तोते ने भी गायत्री मंत्र याद कर रखा था। अच्छा महाराज जी! वह कितनी बार गायत्री मंत्र बोलता होगा? बेटे! वह सौ बार या एक सौ आठ बार तो बोलता ही होगा। तो क्या उसकी मुक्ति हो जाएगी? आपके ख्याल से तो हो भी सकती है, पर मेरे ख्याल से नहीं होगी; क्योंकि उसके भीतर कोई चिंतन नहीं है; कोई दृष्टि नहीं है; कोई आस्था नहीं हैं; कोई विश्वास नहीं है। केवल शब्दों को ही रिपीट करता रहता है।
अध्यात्म- आस्थाओं का परिपाक
अच्छा महाराज जी! शब्दों में कितनी ताकत है? बेटे! बस, इतनी ताकत है कि हम उसे टेप कर लाए और हम उस सुग्गे का नाम ले रहे हैं। और कोई ताकत है? और कोई ताकत नहीं है। बस, इससे लोगों को जानकारी मिल जाती है कि चार हजार जप कर लिया या तीन हजार जप किया। तो इसका कोई पुण्य नहीं है? न बेटे! कोई पुण्य नहीं है।
पुण्य कैसे हो सकता है? दृष्टि से हो सकता है। दृष्टि अगर हमारे पास हो, चिंतन हमारे पास हो, आस्थाएँ हमारे पास हों, हमारे जप में भाव- विह्वलता जुड़ी हो तो यही सामान्य जप इतना बड़ा फलदायक हो सकता है, जिसके मुकाबले में तराजू में बड़ी से बड़ी चीज तौली जा सकती है। और इसके मुकाबले बड़ी से बड़ी चीज इतने कम मूल्य की हो सकती है, छोटे मूल्य की हो सकती है कि ढेरों का ढेरों श्रम, ढेरों का ढेरों धन खरच करने के बाद भी हम उसको हिकारत की नजर से देख सकते हैं और उसे छोटी चीज ठहरा सकते हैं। अगर उसके पीछे निष्ठाएँ हों तब, आस्थाएँ हों तब। आस्थाओं का परिपाक इसी का नाम अध्यात्म है। अध्यात्म और कोई चीज नहीं है, मात्र दृष्टि के परिष्कार का नाम है।
मित्रो! दृष्टिकोण के पारष्कार का बात पर जब हम विचार करते हैं, तब हमको मालूम पड़ता है कि छोटी -छोटी घटनाएँ धार्मिक क्षेत्रों में घटित हुईं हैं तो उनके कितने तीव्र और कितने महत्त्वपूर्ण प्रभाव उत्पन्न हुए हैं। एक साधु और चिड़िया की कहानी कितनी बार आपको सुनाता रहता हूँ। एक साधु आया था। अपनी नजरों के तेज से उसने चिड़िया को जला दिया था। एक स्त्री थी, जिसने कहा था कि मैं योगाभ्यास कर रही हूँ। योगाभ्यास में वह खाना पका रही थी और अपने सास- ससुर की सेवा कर रही थी। तो महाराज जी। हमारी बहू भी सास ससुर की सेवा करती है और हमको खाना खिलाती है तो उतना ही पुण्य हमको भी मिल जाएगा क्या, जितना कि आप जो महाभारत का किस्सा सुना रहे थे? नहीं बेटे! तेरी बहू को नहीं मिलेगा। क्यों महाराज जी! उसमें क्या बात है? और उसमें क्या बात थी? वह भी खाना पकाती थी और हमारी औरत भी खाना पकाती है। बेटे! मुख्य बात, असल बात यह है कि तेरी औरत किस भाव से खाना पकाती है और किस दृष्टि से तेरी सेवा करती है? सारे का सारा चमत्कार, सारे का सारा जादू यहाँ है। अगर वह मजबूरी से खाना पकाती है, पेट के लिए खाना पकाती है तो समझ ले बेटे कि वह एक नौकरानी के तरीके से है, मजदूरनी के तरीके से है। उसमें वह योग की दृष्टि नहीं आ सकती, जो जिस महिला की बात मैंने बताई थी।
सबसे बड़े ब्रह्मज्ञानी
मित्रो! नकल क्रिया की मत कीजिए, भावनाओं की कीजिए। आपको तौल भावनाओं से करनी पड़ेगी, क्रियाओं से नहीं। क्रियाओं से तौल करके मैंने उसी कहानी में बताया था कि एक चांडाल था, जो गंदगी साफ करने का काम करता था, लेकिन वह बहुत बड़ा ब्रह्मज्ञानी था। उसी कहानी में मैंने तुलाधार वैश्य की कहानी बताई थी। वह लौंग- हींग बेचता था, लेकिन ब्रह्मज्ञानी था, तपस्वी था। मित्रो! गाड़ी वाले रैक्य की घटना का वर्णन उपनिषदों में आता है। एक दिन एक हंस और हासेना बेंठे हुए बात कर रहे थे। राजा जनक वहीं समीप में बैठे थे। हंस हसिनी कहने लगे कि इस जमाने का सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी कौन हो सकता है? उसने किसी एक ऋषि का नाम लिया। उसने कहा कि इस जमाने का सबसे बड़ा ऋषि गाड़ी वाला रैक्य है। राजा को चैन नहीं मिला। उसने कहा कि हमारे राज्य में गाड़ी वाला रैक्य सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी है। चलो, उसकी तलाश कराएँ और पता लगाएँ कि वह कैसा ब्रह्मज्ञानी है? पता लगाने के लिए बहुत दिनों तक नौकर -चाकर भेजते रहे। आखिर में जब पता लगा तो देखा कि जैसे आपने गाड़ियाँ लोहार देखे हैं, जो अपनी गाड़ी लिए गाँव गाँव फिरते हैं। ऐसे ही एक गाड़ी लिए मजदूरी करता हुआ, गाड़ी में सामान ढोता हुआ एक छोटा सा वृद्ध मजदूर दीखा। बात चीत करने पर उसकी विद्वत्ता का, श्रेष्ठता का राजा को भान हुआ कि वास्तव में वे इस जमाने के सर्वश्रेष्ठ ऋषि हैं। साथियो! क्रियाकृत्य करने वाले कितने ही महात्मा होते हैं, संत होते हैं; ज्ञानी होते हैं। लेकिन हम देखते हैं कि छोटी- छोटी क्रियाएँ करने वाले, जिनकी क्रियाएँ नगण्य थीं, जिनकी क्रियाएँ मजाक उड़ाने वाली थीं, उपहास करने वाली थीं, फिर भी उनका ब्रह्मज्ञान, भगवान की भक्ति उच्चस्तरीय रही है।
सिद्धपुरुष कबीर
कबीर क्या करते थे? क्रियाकृत्य कितना करते थे? जप कितना करते थे? अनुष्ठान कितना करते थे? बेटे! मुझे मालूम नहीं है, लेकिन इतना मुझे मालूम है कि कबीर अपना पेट पालने के लिए भिक्षा मागने के बजाय हाथ सूत से कातते थे। उस सूत से कपड़ा बुनते थे और कपड़ा बुनने से जो दो- चार आने की मजदूरी मिल जाती होगी, उसी से अपना पेट भर लेते और अपना गुजारा कर लेते थे। महाराज जी! तो वे अनुष्ठान नहीं करते थे? हों बेटे! वे अनुष्ठान नहीं करते थे। और प्राणायाम? प्राणायाम भी नहीं करते थे। और समाधि? समाधि भी नही लगाते थे। कपड़ा बुनते थे। तो महाराज जी! कपड़ा बुनने पर भी, कोई अनुष्ठान न करने पर भी, जप तप न करने पर भी वे कैसे इतने उच्चस्तरीय संत हो गए कि जिनके मरते समय हिंदू और मुसलमानों में लड़ाई हुई। मुसलमान कहते थे कि यह तो हमारा है और हिंदू कहते थे कि हमारा है। इस झगड़े को देखकर कबीर ने सोचा कि जिंदगी भर हम मोहब्बत पैदा करते रहे ओर अब मरते समय हमारी लाश के पीछे लड़ाई हो तो यह खराब बात है। उनकी मरी हुई लाश गायब हो गई और वहाँ जहाँ उनकी लाश पड़ी हुई थी, केवल फूल पड़े रह गए। आधे फूल मुसलमान उठा ले गए क्योंकि वे जुलाहे के यहाँ पैदा हुए थे और जुलाहे ने पालन पोषण किया था। उन्होंने कहा कि उसकी मस्जिद बनाएँगे, मक़बरा बनाएँगे और मक़बरा बना दिया गया।
मित्रो! आधे फूल हिंदू उठा ले गए। उन्होंने उन फूलों को जला दिया। जलाने के बाद में कबीर चौरा बना दिया गया। ऐसे थे वे सिद्धपुरुष, ऐसे थे महापुरुष। क्यों साहब सूत बुनने से हो सकते हैं? हाँ बेटे! सूत बुनने से हो सकते हैं। देख, सूत बुनने की खड्डियाँ हमारे यहाँ लगी हुई हैं। तू यहाँ से खड्डी ले जा और अपने घर में सूत बुना कर। थोड़े दिनों में कबीर हो जाएगा। तो महाराज जी! मैं कबीर हो जाऊँगा। बेटे! तू कबीर नहीं हो सकता। ऐसी दृष्टि कहाँ है? तेरे पास विश्वास कहाँ है? अगर तेरा यह खयाल है कि कृत्यों के माध्यम से, घटनाओं के माध्यम से, क्रिया- कलापों के माध्यम से भगवान को पाना चाहता है, तो यह नामुमकिन है।
विधि क्यों पूछते हैं?
यहाँ कितने लोग आते रहते हैं और बार- बार यही पूछते रहते हैं कि विधि बताइए। किसकी विधि बताएँ? गायत्री माता का साक्षात्कार करने की विधि बताइए। अरे अभागे! विधि तो पूछ मत। तू तो केवल रामनाम लेता चल, इसी से पार हो जाएगा। वाल्मीकि इसी से पार हो गए थे। प्रह्लाद इसी से पार हो गया था। मैंने तो यह गायत्री मंत्र बता दिया है। नहीं साहब! आपने गायत्री मंत्र तो बता दिया है, पर विधि नहीं बताई है। क्या विधि बताऊँ? नहीं महाराज जी! बीजमंत्र लगाने की विधि बताइए। बताऊँ तेरा सिर, बेहूदा कहीं का। विधियों पूछता है। विधियों में क्या रखा है! नहीं साहब! ऐसी विधि बताइए कि झट से भगवान मिल जाएँ। बेटे! कोई विधि नहीं है ऐसी, केवल एक ही विधि है। कौन सी? अपना ईमान और अपनी निष्ठाएँ अपने विश्वासों की गहराइयों को मजबूत बनाता चला जा। फिर देख तू रामनाम लेता हो, तो भी तुझे मुबारक। रामनाम न भी आता हो, मरा- मरा कहता हो, तो मुबारक। मरा- मरा कहने से, उलटा नाम जपने से-
उलटा नाम जपत जग जाना ।वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।
वाल्मीकि ब्रह्म के समान हो गए थे। विधियाँ बताइए। बेटे! मैं विधियाँ बताता तो हूँ। विधियों का प्रचार करता हूँ विधियाँ आपको भी सिखाता हूँ। विधियाँ जनता को भी सिखाई हैं, पर मैं हमेशा यह कहता रहा हूँ और कहता रहूँगा कि विधियों के माध्यम से हम लोगों की निष्ठाओं को परिपक्व करते हैं। जनमानस का परिष्कार हमारा मूल उद्देश्य है।
बदला हुआ समाज
मित्रो! हमने सारे समाज को देखा है। आज हम गरीब नहीं हैं, संपन्न हैं, पैसे वाले हैं, लेकिन पुराने लोगों की तुलना में आज के लोगों में जो फर्क दिखाई पड़ता है, वह एक ही है कि आदमी का चिंतन और आदमी का दृष्टिकोण बराबर घटिया होता हुआ चला जा रहा है। पहले एक घर में ३० ३०, ४० -४ ० आदमी मिल- जुलकर रह लेते थे, पता ही नहीं चलता था। हर आदमी अपना काम करता और मजे से रहता था। स्वार्थपरता, आपा- धापी, छीना- झपटी नाममात्र की भी नहीं थी। अरे साहब! इतना बड़ा घर पड़ा है। भगवान सबका पालन कर रहा है। इस घर में हमारा भी गुजारा हो जाएगा। पच्चीस आदमी मरेंगे तो हम भी मर जाएँगे। पच्चीस आदमियों को रोटी नहीं मिलेगी तो हमको भी नहीं मिलेगी। परंतु अब हर आदमी यह सोचता है कि इस घर में से कितना चुरा सकता हूँ और अलग से कितना क्या बना सकता हूँ?
यह दृष्टिकोण आने से क्या होता चला गया? मित्रो! इसके आने से हमारे घरों का सत्यानाश होता चला गया। हमारी संपत्ति बेकार हो गई, नाकारा हो गई। ज्यादा आमदनी से कुछ फायदा न हो सका। ज्यादा आमदनी हो गई तो बाप, बेटों के लिए जमा करके रख गया। होना यह चाहिए था कि बाप की कमाई से सारा का सारा घर गुजारा करता और चैन से हर व्यक्ति आगे बढ़ता। परंतु जैसे ही बाप के मरने के दिन आए आपस में मुकदमेबाजियाँ शुरू हो गईं। मार- काट शुरू हो गई। फौजदारी शुरू हो गई। खून- खराबियाँ शुरू हो गईं। कत्ल शुरू हो गए। संपत्ति थी, तो खुशहाली बढ़नी चाहिए थी, लेकिन खुशहाली नहीं बढ़ सकी, उलटे विनाश खड़ा हो गया। क्यों? क्योंकि दृष्टिकोण घटिया हो गया।
दृष्टिकोण घटिया हो जाने से मित्रो! हमारे सारे समाज का सर्वनाश होता चला गया और यह दौलत हमारे किसी काम नहीं आ रही है। यह दौलत हमारे लिए विनाश खडा करेगी। क्यों? क्योंकि दृष्टिकोण का स्तर गिरा और सामान का स्तर बढ़ा तो कितनी बड़ी असमानता आ गई? सामान का स्तर बढ़ना चाहिए था तो दृष्टिकोण भी ऊँचा होना चाहिए था। तब जो साधन- संपत्ति हमारे पास हैं, उसका फायदा समाज ने उठाया होता। विद्या हमारी बढ़ी तो विद्या के साथ- साथ हमारा हृदय भी बड़ा होता, दिमाग की चौड़ाई बढ़ी होती। अगर ये दोनों साथ- साथ बडे और बड़े होते तो फिर चाहे हम कम पढ़े- लिखे होते अथवा ज्यादा पढे- लिखे होते, फिर हमारे ज्ञान का फायदा सारे समाज ने उठाया होता।
बढना चाहिए सहृदयता का क्षेत्र
मित्रो! महर्षि चरक के श्रम एवं ज्ञान का लाभ हम और आप अभी तक उठा रहे हैं। हजारों वर्ष हो गए चरक अपनी पुस्तक '' चरक संहिता '' जैसा महान आयुर्वेदिक ग्रंथ लिखकर रख गए हैं। चरक ने अपने उस ज्ञान का लाभ स्वयं तो उठाया ही, संसार भर के बीमारों ने उसका लाभ उठाया, पीछे वाले लोगों ने, हकीमों ने उसका लाभ उठाया। चरक की लिखी हुई किताब को पढ़कर सैकड़ों आदमी अपना पेट पाल रहे हैं, गुजारा कर रहे हैं, दवा- दारू कर रहे हैं। हजारों आदमियों का इलाज कर रहे हैं।
बेटे! ज्ञान और अक्ल के साथ साथ यदि आदमी का कलेजा बढ़ जाए तब? हृदय बढ़ जाए तब? दृष्टिकोण बढ़ जाए तब? तब फिर मजा आ जाए और अगर हमारा कलेजा- हृदय छोटा होता हुआ चला जाए तब फिर हमारा दिमाग सफाया करेगा और हममें से हर आदमी ठग बनने की कोशिश करेगा। धूर्त और बेईमान बनने की कोशिश करेगा। जालसाज बनने की कोशिश करेगा और ऐसी अक्ल से अपने पड़ोसी की गरदन काटने की तैयारी करेगा। आज जो अक्ल मनुष्य को मिली हुई है, उससे वह ऐसे- ऐसे जाल रचेगा, जिसमें वह स्वयं ही उलझकर मरेगा और जो भी उसके संपर्क में आएगा, उसको भी मार डालेगा। आज की अक्ल ऐसी ही है।
लानत है ऐसी अक्ल पर
लेकिन मित्रो! ऐसी अक्ल के ऊपर लानत है। ऐसे एम० ए० होने के ऊपर, बी० ए० होने के ऊपर धिक्कार है। अगर यह अक्ल मनुष्य के हृदय को विकसित न कर सकती हो, हृदय को विकसित करने में इसने सहायता न की हो तो मैं अक्ल से ज्यादा खराब, अक्ल से ज्यादा खौफनाक कोई चीज नहीं समझता। अगर दृष्टिकोण का परिष्कार न हो और केवल शिक्षा का एवं दिमाग का विकास हो तो मेरी बात चले तो मैं यह नहीं जानता कि मेरी बात चलेगी कि नहीं चलेगी, किंतु अगर मेरी बात चले और कोई माने तो मैं सब स्कूलों को बंद करा दूँ और ये कहूँ कि बिना पढ़े आदमी अच्छे होते हैं। बिना पड़े आदमी किसान हो सकते हैं, मजदूर हो सकते हैं, शरीफ हो सकते हैं और अगर किसी का नुकसान करेंगे तो थोड़ा सा करेंगे। गाली- गलौज करेंगे, किसी का सिर फोड़ देंगे, लेकिन जिसके पास अक्ल है और डुदय नहीं है, ईमान नहीं है, वह आदमी तो दुनिया का सफाया करके रहेगा। उसका सत्यानाश और सर्वनाश करके रहेगा। जितनी पैनी अक्ल होगी, उतने ही तीखे विनाश के साधन होंगे। इसीलिए मैं अक्ल को न उठाने की बात कहूँगा, जब तक कि हृदय को ऊँचा न उठाया जा सके, समझदारी को ऊँचा न उठाया जा सके।
हृदय न बदले तो पैसा भी न बढे़
मित्रो! पैसा जरूर बढ़ाना चाहिए लेकिन पैसा बढ़ाने के साथ -साथ लोगों का ईमान, लोगों का दृष्टिकोण, लोगों का चिंतन भी बढ़ाना चाहिए। आखिर जो पैसा हमें मिलेगा, उसका हम करेंगे क्या? अगर '' करेंगे क्या '' की बात न हो तो इससे ऐय्याशी बढ़ सकती है। इससे फैशन−परस्ती की वृद्धि हो सकती है। इससे सिनेमाखोरी की वृद्धि हो सकती है। इससे नशेबाजी की वृद्धि हो सकती है। इससे दुनिया में तबाही आ सकती है और गरीबी से भी ज्यादा अमीरी महँगी पड सकती है, जैसे कि आजकल पड़ रही है।
यही बात धर्मक्षेत्र पर भी लागू होगी
मित्रो! दृष्टिकोण के विकास की आवश्यकता नहीं समझी गई तो हमारा धार्मिक क्षेत्र भी नाकारा होता हुआ चला जाएगा। इसमें ढोंग और विडंबनाएँ जड़ जमाती चली जाएँगी, निहित स्वार्थ अपना फायदा उठाएँगे और बेचारे भावुक लोग बेमौत मारे जाएँगे। फिर हमारा धार्मिक क्षेत्र धूर्तों और मूर्खों की ऐसी जोड़ी बनेगा कि '' राम मिलाई जोड़ी एक अंधा- एक कोढ़ी '' की उक्ति ही चरितार्थ होगी। कोढ़ी कौन? ये धूर्त, जिनको हम पंडा- पुरोहित कहते हैं, बाबा जो, साधु कहते हैं आर महत कहते हैं। ये कौन? धूर्त और बेईमान हैं और वे बेचारे भावुक, जो बेमौत मारे जाते हैं? जो अपना पैसा खराब करते हैं? समय खराब करते हैं? अक्ल खराब करते हैं? उनका नाम है- मूर्ख, जो कर्मकाण्डों को ही सब कुछ समझते हैं। साहब! फलाने स्वामी जी भण्डारा कर रहे हैं। अच्छा, पहले यह बता कि भण्डारे में क्या होगा? नहीं साहब! भण्डारे में बाबा जी आएँगे और गाँजा पिएँगे। उखाड़ बाल इस बाबा जी के। ये कौन हैं? धूर्त हैं, जो जनता को मूर्ख बनाते हैं।
मित्रो! क्या होता रहता है कि जनता का धन अनावश्यक कार्यों में खरच होता हुआ चला जाता है। हम लोग समझते हैं कि इससे हमारा अमुक फायदा हो जाएगा। इससे हमें यह पुण्य मिल जाएगा। इससे हमारे देवी -देवता प्रसन्न हो जाएँगे। धर्मभीरु बेचारी जनता बेकार में मारी जाती है। हमारा धर्मक्षेत्र अगर ढोंग और विडंबनायुक्त बना रहेगा तो नुकसानदेह बना रहेगा। इससे हानियाँ होंगी, धन की बरबादी होगी और निहित- स्वार्थ अपना थोड़ा सा फायदा करने के लिए जनता से ढेरों धन कमाएँगे। अगर उनको दो हजार रुपए चुराने हैं तो जनता के बीस हजार रुपए भण्डारे में खरच कराएँगे, ताकि बीस हजार रुपए में से दो हजार रुपए हमको चुराने को मिल जाएँ। अठारह हजार रुपए तो तुमने खराब करा दिए। इससे तो यह अच्छा था कि तुम दो हजार रुपए की भीख माँग लाते और अपनी जेब में जमा कर लेते। नहीं साहब! ऐसे तो कोई नहीं दे सकता था। इसलिए हमने बीस हजार रुपए का ढोंग रचाकर खरच कराया और तब हमें दो हजार रुपए मिले।
हमारा मिशन जनमानस के परिष्कार हेतु मित्रो! कर्मकाण्डों का, क्रियाकृत्यों का मैं प्रचार- प्रसार करता हूँ। आप सबको, दुनिया को कर्मकाण्ड सिखाता हूँ पर आप एक बात मत भूलना। अगर आपने यह बात भुला दी तो हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे और हम जिस मिशन के लिए काम करते हैं, उसी को काटकर फेंक देंगे। हम इस मिशन के लिए काम करते हैं, ताकि जनमानस का परिष्कार हो। शाहजहाँ के ताजमहल की तुलना में आज यदि मुझसे पूछा जाए कि ज्यादा दिलेर कौन सा था और जनता की श्रद्धा किसके ऊपर टपकती है? तो मैं समझता हूँ कि शाहजहाँ की तुलना में हजारी किसान था, जिसके ऊपर हमारी आँखों में से आँसू और श्रद्धा के भाव जो टपकते हैं, वे बहुत हैं। क्यों साहब! हजारी किसान पढ़ा- लिखा नहीं था? हों बेटे! पढ़ा लिखा नहीं था। अमीर था? नहीं था। विद्वान था? नहीं, विद्वान भी नहीं था। ज्ञानी था? भक्त था? नहीं था। फिर क्या था? उसका कलेजा चौड़ा था। जिन आदमियों का कलेजा चौड़ा होता है, उनके चिंतन का तरीका, सोचने का ढंग मक्खी मच्छरों जैसा नहीं होता, वरन दिलेर लोगों जैसा होता है, ऊँचे लोगों जैसा होता है, हमारे जैसा होता है।
मित्रो! अगर हमारे दृष्टिकोण ऊँचे हों तो हर जिंदगी में मजा आ सकता है। अगर हमारे कलेजे छोटे हों तब? बेटे! तब हमारे पास पैसा- दौलत हो जाए तो क्या? ज्ञान हो जाए तो क्या? भक्ति हो जाए तो क्या? विद्या हो जाए तो क्या? उससे कोई खास फायदा नहीं हो सकता है। इसलिए मैं आपसे एक निवेदन कर रहा था कि हमको बड़ी फैक्टरियाँ नहीं बनानी हैं। हमको बड़े इनसान बनाने हैं। बड़े इनसान बनाने के लिए क्या करना पड़ता है? अगर पेड़ को बड़ा एवं ऊँचा बनाना हो तो क्या करना पड़ेगा? इसके लिए सिर्फ एक काम करना पड़ेगा कि उसकी जड़ों के लिए गुंजाइश छोड़नी पड़ेगी। जड़ें जितनी गहरी होंगी, पेड़ उसी हिसाब से बढ़ता चला जाएगा। क्यों साहब! बरगद का पेड़ क्यों बड़ा हो जाता है? क्योंकि बेटे! उसकी जड़ें इतनी पैनी हो जाती हैं कि दूर- दूर तक फैलती चली जाती हैं। बरगद की जटाएँ निकलती हैं, उनकी ये विशेषता होती है कि वे नीचे की ओर आती हुई जमीन मेँ घुस जाता हैं और जमीन से खुराक लेने लगती हैं और पेड़ फैलता हुआ चला जाता है।
जड़ों को देखें
साथियो! बरगद का पेड़ इसी आधार पर फैलता है कि उसकी जड़ें गहरी होती हैं। गहरी जड़ें, नीची जड़ें, अगर हमारी हों, तब? बेटे! हमारी बाहर की जिंदगी फैलती हुई चली जाएगी। जड़ों से क्या मतलब है? जड़ों से मेरा मतलब है बेटे! ईमान। आदमी का व्यक्तित्व वह नहीं है, जो बाहर दिखाई पड़ता है। किसी का चेहरा अच्छा और खूबसूरत है। किसी आदमी में ताकत बहुत है। किसी में अक्ल समझदारी बहुत है। बेटे! इन सबको मैं नहीं मानता। आदमी का व्यक्तित्व वह है जो उसकी निष्ठाओं पर टिका हुआ है, आस्थाओं पर टिका हुआ है। अगर वह व्यक्तित्व गहरा है तो आदमी को महापुरुष कहा जा सकता है, ज्ञानी कहा जा सकता है और न जाने क्या क्या कहा जा सकता है।
मामूली आदमी असाधारण काम
मित्रो! आदमी की जिंदगी अगर बदल जाए दृष्टिकोण बदल जाए तो मामूली आदमी, जिसमें हम और आप भी शामिल हैं, ऐसे- ऐसे काम कर सकते हैं, जो दुनिया के इतिहास में अजर- अमर रह सकें। कुछ लोगों के नाम मैं अकसर गिनाया करता हूँ। उनमें राजस्थान के एक प्राइमरी स्कूल के अध्यापक का नाम न जाने क्यों मेरी जबान पर अकसर आ जाता है, जिसे मैं भूल नहीं सकता। उन्होंने यह निश्चय किया था कि पेट भरने के लिए नौकरी करने से क्या फायदा? पेट तो हम किसी भी तरीके से भर सकते हैं। जिन छोटे देहातों में शिक्षा का अभाव है, वहाँ हम एक कन्या पाठशाला चलाएँगे। उन्होंने निस्वार्थ भाव से बिना कोई वेतन लिए एक छोटे से देहात में शिक्षण- कार्य शुरूकर दिया था। उस प्राइमरी के अध्यापक हीरालाल शास्त्री ने सारी जिंदगी कन्या शिक्षा के लिए काम किया। उनका वह स्कूल जो फूँस के छप्पर के नीचे था, बढ़ते- बढ़ते वनस्थली बालिका विद्यालय के नाम से प्रख्यात हुआ। वहाँ मोटर चलाने से लेकर हवाई जहाज उड़ाना लड़कियाँ सीखती हैं।
मित्रो! आदमी का ईमान कितना प्रभावशाली होता है, आदमी की अंतरात्मा कितनी शक्तिशाली होती है, आपने कभी अंदाज ही नहीं लगाया है। उस अध्यापक की अंतरात्मा में विशुद्ध रूप से एक ही दृष्टि थी कि हमको समाज की सेवा करनी है। न उसमें चालाकी की गुंजाइश थी, न बेईमानी की गुंजाइश थी, न चोरी की गुंजाइश थी, न बदनीयती की और न नाम- यश की गुंजाइश थी। बस, छोटा सा काम करता चला गया । ऐसे निस्वार्थ काम, चाहे उसका नाम भजन हो, चाहे सेवाकार्य, हमेशा फलते- फूलते रहे हैं। उस प्राइमरी के अध्यापक ने चरित्र के हिसाब से, अपने दृष्टिकोण के हिसाब से एक नई फिजाँ एक नई दिशा और नया आदर्श, नया चिंतन लोगों के सामने रखा।
तो महाराज जी! हम भी स्कूल खोल सकते हैं? नहीं बेटे! तू नहीं खोल सकता। क्यों? तेरा कलेजा मक्खी- मच्छर जैसा है। चंदा आएगा तो पहले तू उससे अपना उल्लू सीधा करेगा। इसलिए जनता का धिक्कार भगवान का धिक्कार, तेरी जीवात्मा का धिक्कार तेरे ऊपर बरसता चला जाएगा। उसका परिणाम यह होगा कि तेरे हर काम की पोल खुलती चली जाएगी। तेरे हर काम में असहयोग होता हुआ चला जाएगा। नहीं महाराज जी! मैं तो बहुत चालाक और लोगों को उल्लू बना सकता हूँ। नहीं बेटे! भगवान को कोई उल्लू नहीं बना सकता। जनमानस को उल्लू बनाना किसी के लिए भी संभव नहीं है।
मित्रो! उस प्राइमरी स्कूल के अध्यापक के तरीके से ढेरों के ढेरों आदमी हैं, जिनने ऊँचा दिल रखा और उनको सफलताएँ मिलती चली गईं। मैं उनका यश और गुणगान करता हूँ। उन्हीं में से एक हैं- नागपुर के एक मामूली से वकील, जिनका नाम बाबा साहब आमटे है। बस, एक दिन मन में आ गया कोढियों की सेवा करनी चाहिए। वकालत करके झूठ- मूठ में लोगों को मुकदमेबाजी में फँसा देने, झूठ बोलना सिखाने की अपेक्षा क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम गरीबी में जिएँ, पेट भरने के लिए किसी तरीके से रोटी कमा लें और अपनी सारी जिंदगी दीन- दुखियारों के लिए लगा दें। उन्होंने जो कोढ़ी सड़क किनारे बैठे थे, उनको लेकर एक निश्चय किया कि ये सभी स्वावलंबी बन सकते हैं। वे उन्हें लेकर एक छोटे से गाँव में चले गए और वहाँ बकरी पाल ली, मुरगी पाल ली, जिसे कोढ़ी भी चरा सकते थे। वे स्वयं भी चराने लगे। उनसे दूध, ऊन आदि जिन चीजों से आमदनी होती थी, उससे अपना गुजारा करने लगे। कोढ़ियों का इलाज भी स्वावलम्बनपूर्वक होने लगा। उन्होंने कहा कि मनुष्य अगर कमजोर हो, अंधा हो, कोढ़ी हो, तो भी स्वावलंबी बनकर स्वाभिमानपूर्वक रह सकता है। वे कमजोर और उपेक्षित लोगों का शिक्षण करते चले गए।
मैं ईमान का शिक्षण करता हूँ
आदमी के ईमान से ज्यादा कशिश और प्रभावशाली ताकत दुनिया में और कोई नहीं है। दुनिया में मनुष्य के उच्च दृष्टिकोण के अतिरिक्त और किसी में भी इतनी ताकत नहीं है। भजन में भी नहीं है। नहीं साहब! भजन में बड़ी ताकत है। बेटे! तुमसे हम कह रहे हैं कि भजन में कोई ताकत नहीं है। अगर कोई ताकत रही होती तो ये भजन करने वाले सवेरे से शाम तक क्यों बैठे रहते हैं और भीख माँगते रहते हैं? अगर ऐसा है तो फिर क्यों दरवाजे- दरवाजे पर भीख माँगते हैं? क्यों दुनिया भर की चालाकी करते हैं? नहीं साहब! भजन में बड़ी ताकत है। कोई ताकत नहीं है। फिर किसमें ताकत है? मित्रो! भजन में अगर ताकत है तो वह आदमी के ईमान से मिली हुई ताकत है। भजन से बड़ा ईमान है। भजन बड़ा नहीं, छोटा है ईमान से। ईमान बड़ा है।
साथियो! मैं आपसे यह कह रहा था कि आदमी की जड़ें नीचे रहती हैं, जिनको हम सिद्धांत कहते हैं, आदर्श कहते हैं, आस्थाएँ कहते हैं, मान्यताएँ कहते हैं। वे अगर हमारे पास हों तो मजा आ जाए। हम आपसे बराबर निवेदन करते आ रहे हैं कि आप स्वयं अपन जीवन में दृष्टिकोण का परिष्कार करें।
हमने आपके कर्मकाण्डों को कोई महत्त्व नहीं दिया है। उस दिन हम आपको शिक्षण दे रहे थे कि हमने आपको स्नान क्यों कराया? पीला कपड़ा क्यों पहनाया? क्यों महाराज जी! अगर हम पीला कपड़ा पहन लें तो क्या बैकुंठ को चले जाएँगे? नहीं बेटे! कहीं नहीं जमता, चाहे पीला कपड़ा पहन ले, चाहे हरा पहन ले। इससे क्या बनता है ?ए हम तो यह याद दिलाना चाहते थे कि हमारा दृष्टिकोण परिष्कृत होना चाहिए। आपको उस दिन व्याख्या करते हुए हम यह कह रहे थे कि आपके हाथ में दंड और कोपीन इसलिए दिया गया हे कि आप मुस्तैदी सीखें। कमर में रस्सी इसलिए बँधवाई गई थी कि आपका ढीला पोला जीवन, वाहियात जीवन है, जिसमें न कोई नियमितता है, न कोई व्यवस्था है, न कोई निरंतरता है, न कोई कर्तव्य है और न कोई जिम्मेदारी हैं। आप फौजी सिपाही के तरीके से कमर की पेटी बाँधकर खड़े हो जाइए जिससे मालूम पड़े कि ये सैनिक हैं।
कौपीनधारी की जिम्मेदारी अनुभव करें
मित्रो! आप धर्म के सैनिक हैं, अध्यात्म के सैनिक हैं, इसीलिए आपको कौपीन बँधवाई थी, पेटी बँधवाई थी। आप कौपीनधारी होने के कारण से जिम्मेदारी का अनुभव कीजिए। जब कभी किसी फौजी या पुलिस वाले का कोर्टमार्शल किया जाता है तो उसकी पेटी जमा करा ली जाती है। क्यों साहब! पेटी पहने रहें तो? नहीं पेटी नहीं पहन सकते। पेटी इज्जत है। तो महाराज जी! आपने लँगोटी क्यों दी, पैंट क्यों नहीं दिया, जिससे ठंढक भी दूर हो जाती। अरे अभागे! तू बाहर की व्याख्या करता है। हम क्या कह रहे हैं, उसे समझता नहीं है। अरे! हमने तो तुझे एक दृष्टि दी थी, दृष्टिकोण दिया था। एक सेठ जी थे। एक रात स्वप्न् में लक्ष्मी जी आईं और कहने लगीं कि अब तो हम आपके यहों से चले जाएँगे और गरीबी आपके घर में रहेगी। अब इसमें कोई सुधार नहीं हो सकता, क्योंकि आपका पुण्य खतम हो गया। लेकिन आपने हमारी बीस साल से बहुत सेवा की है, इसलिए एक वरदान माँग लीजिए परंतु यह वरदान मत माँगना कि हम आपके यहाँ रह जाएँ। सेठ ने लक्ष्मी जी से कहा कि आप एक वरदान दे जाइए कि हम घर में जितने भी आदमी हैं, प्यार से रहें, मोहब्बत से रहें, मिल- जुलकर रहें। सेवा और सहायता की दृष्टि से रहें। बस, इतना वरदान दे जाइए और चली जाइए।
लक्ष्मी जी वरदान देकर चली गईं। उस गरीबी में भी वे बड़े प्यार से रहने लगे, मिल- बाँटकर खाने लगे। कपड़े कम पड़ गए तो एक ने दूसरे के उतरे पहन लिए। एक बीमार पड़ गया तो दूसरे आदमी सेवा करने लगे। गरीबी में भी इतना आनंद, इतनी खुशी, इतनी मस्ती बनी रही कि उनका जो संकट था, कंगाली थी, धीरे- धीरे दूर होने लगी। लक्ष्मी जी फिर सपने में आईं और कहा कि हम तो फिर से आपके यहाँ आ गए। सेठ ने कहा- एक साल पहले तो आप कह रही थी कि तुम्हारा पुण्य खतम हो गया। अब आप कैसे आ गईं? लक्ष्मी जी ने कहा कि जहाँ कहीं भी प्यार रहता है, सहकार रहता है, सेवावृत्ति रहती है, उदारता रहती है, हमको वहाँ झक मारकर आना पड़ता है। हम वहाँ से जा नहीं सकते। हमने देखा कि आपके यहाँ तो प्रेमभाव है, सहकारिता है, उदारता है, सेवा है, फिर हम कैसे आपको छोड़ेगी? बस, लक्ष्मीजी आ गईं और गरीबी चली गई।
दृष्टिकोण का परिष्कार- प्रशिक्षण का मर्म मित्रो! हमारा अध्यात्म तीन धाराओं में बँटा हुआ था। व्यावहारिक अध्यात्म और उसके पीछे दृष्टि एक होती थी- उदार दृष्टि, उदात्त दृष्टि और सेवा की दृष्टि। हमारी यह दृष्टि विकसित हो तो जो कर्मकाण्ड हम आपको सिखाते हैं और जिन कर्मकाण्डों का हम विस्तार करना चाहते हैं, आप यह कसौटी तैयार रखना कि हमने जो कर्मकाण्ड कराए थे, वे केवल क्रिया मात्र रह गए। मित्रो! क्रिया के पीछे दृष्टि और कलेवर के पीछे प्राण होता है, यह मत भूलना। अगर आप ये बातें भूलेंगे नहीं तो हमारे वो ख्वाब और इस मिशन के वो सपने पूरे होकर रहेंगे, जिसके लिए हमने यह मिशन स्थापित किया है और जिसके लिए हम आपका शिक्षण करते हुए इतना बड़ा संगठन बनाते हुए क्रियाकृत्यों को गति देते हुए चले जा रहे हैं।
आज की बात समाप्त।।। ऊँ शांति: ।।