Books - जीवन साधना का मर्म है भक्ति
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जीवन साधना का मर्म है भक्ति
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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ-
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
त्रिपदा का अनन्त विस्तार
देवियो, भाइयो! गायत्री का नाम ‘त्रिपदा’ भी रखा गया है। यह किस उद्देश्य से रखा गया है? इसकी तीन धारायें प्रख्यात हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान् का जो स्वरूप प्रकट हुआ था, उसे हम सत्, ‘चित्’, और ‘आनन्द’-इन तीन शब्दों में व्याख्या कर सकते हैं। भगवान क्या हो सकता है? भगवान क्या होना चाहिए? भगवान का स्वरूप कैसा होना चाहिए? इस बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए आपको यह जानना होगा कि भगवान सत्, चित् और आनन्द है। प्रकृति कैसी है? यह तीन तत्त्वों के ऊपर टिकी हुई है, जिसके नाम हैं-सत, रज, तम। प्रकृति की यह तीन मूल अवस्थायें हैं। पंचतत्त्व इसके बाद में पैदा होते हैं। पंचतत्त्वों के पैदा होने से पहले ‘सत’, ‘चित’, ‘आनन्द’ और ‘सत’, ‘रज’, ‘तम’ आते हैं। पंचतत्त्वों का प्रकटीकरण इसके बाद हुआ है। पंचप्राणों का जो प्रकटीकरण हुआ है, वह सृष्टि के मूल में दूसरी चीजें हैं, जिनको हम ‘सत्यम्’, ‘शिवम्’, ‘सुन्दरम्’ कहते हैं। इस सृष्टि में तीन शक्तियाँ हैं। ये ब्रह्मा, विष्णु और महेश के नाम से प्रख्यात हैं। इन तीन शक्ति धाराओं को, जो गायत्री मंत्र के अंतर्गत सन्निहित हैं, तीन देवियों के नाम से-सरस्वती, लक्ष्मी और काली के नाम से बताया गया है। तीन अवस्थायें हैं-पैदा होना, विकसित होना और पतन होना अर्थात् समाप्त हो जाना। यह तीन अवस्थायें हैं। इस तरह त्रिपदा गायत्री का बहुत विस्तार है।
गायत्री उपनिषद् और सावित्री उपनिषद् में इसीलिए तप का बहुत विस्तार किया गया है। तप क्या हो सकता है? तीन धारायें क्या हो सकती हैं? गायत्री का स्वरूप क्या हो सकता है? यहाँ इतना तो समय नहीं है कि मैं सारी की सारी फिलॉसफी और तत्त्वज्ञान आपको अभी समझाऊँ, जिससे आप यह समझ पायें कि ऋषियों ने गायत्री को इतना महत्त्व क्यों दिया और उसके कलेवर का विस्तार करते-करते तीनों वेद क्यों बना दिये? ‘त्रैगुण्यां विषयः वेद विस्तारः’। नहीं साहब! तीन नहीं, चार वेद हैं। बेटे, वेद तीन ही हैं। सामवेद तो ‘सांग’ है-गायन है। सामवेद में कुल मिलाकर स्वयं के ग्यारह-बारह मंत्र हैं और बाकी जो इतना बड़ा वेद है, उसमें तो उसके नोट्स-अंग दिये हुए हैं। तीनों वेदों के मंत्रों को कैसे गाया जाना चाहिए? उसका ‘म्यूजिक’ क्या हो सकता है? सामवेद में यही सब कुछ है। सामवेद में अपना कोई मंत्र नहीं है। तीनों वेदों का समन्वय है।
त्रिपदा से तीन वेद बने
इस तरह वेद तीन हैं और ये भी त्रिपदा गायत्री के तीन चरण से सम्बन्ध रखते हैं। आपको कल मैं ज्ञान की तीन धारायें समझा रहा था, जो आदमी की चेतना से सम्बन्धित हैं। अभी मैं आपको सृष्टि का क्रम बता रहा था। अब मैं आपको सृष्टि का क्रम न बताकर आदमी की गरिमा से सम्बन्धित बातें बताऊँगा कि आदमी का उत्थान, आदमी का विकास कैसे हो सकता है और आदमी को शान्ति कैसे उपलब्ध हो सकती है। गायत्री के जिस तत्त्वज्ञान से यह सम्बन्धित है, उनको हम ज्ञानगंगा कहते हैं। गंगा का जन्म भी उसी दिन हुआ था, जिस दिन गायत्री का जन्म हुआ। दोनों का जन्म एक ही दिन हुआ है। गंगा क्या है? गंगा का एक स्वरूप वह है जो यहाँ जमीन पर बहती है। जिसने मरों का, दुष्ट-पापियों का उद्धार कर दिया, जीवों के पाप नाश कर दिये। खेती-बाड़ी में जो पानी देती है। भौतिक दृष्टि से भी यह गंगा लाभदायक है। गंगा में अगर पानी न हुआ होता, तो गंगा-यमुना का दायरा-जिसको हम आर्यावर्त कहते हैं, ब्रह्मावर्त कहते हैं। जिसको हम पांचाल कहते हैं, पाटलिपुत्र कहते हैं। यह देशों का बड़ा समन्वय है। बिहार से लेकर बंगाल तक का सारा का सारा इलाका इसी के आँचल में सिमटा हुआ है। अगर गंगा जमीन पर न आयी होती, तो खुशहाली की दृष्टि से गरमी से यह कंगाल रह गया होता। पानी नहीं मिलता, तो फिर हम क्या कर सकते थे? जहाँ पानी नहीं मिलता, वहाँ का क्या हाल हो रहा है? रेगिस्तानों में क्या हाल हो रहा है? जैसलमेर में क्या हाल हो रहा है? रेगिस्तान में जहाँ पानी नहीं है, वहाँ आप देख ही रहे हैं। अगर गंगा न आती तब हरिद्वार का भी यही हाल रहा होता।
तीर्थ और मेले भी यहीं गंगा तट पर
मित्रो! गंगा पृथ्वी पर संपत्ति लायी है, समृद्धि लायी हैं। खुशहाली लायी है। सुषमा लायी है। हरियाली लायी है। गंगा जहाँ भी बही है, वहाँ उसने आध्यात्मिकता की दृष्टि से तप करने का मौका दिया है। हिमालय के नजदीक, हिमालय के किनारे हमारे तीर्थ बने हुए हैं। हरिद्वार में तीर्थ बना हुआ है। उत्तरकाशी में तीर्थ बना हुआ है। गंगोत्री में तीर्थ बना हुआ है। अगर आप गंगा किनारे चलेंगे, तो पायेंगे कि अनेकों अन्यान्य तीर्थ बने हुए हैं। प्रयाग बना हुआ है, काशी बनी हुई है और दूसरे तीर्थ बने हुए हैं। यहाँ से वहाँ तक-गोमुख से लेकर गंगासागर तक तीर्थों की बड़ी शृंखला बनी हुई है। उससे आदमी को जीवन में आध्यात्मिक लाभ मिला। और मरने के बाद में? मरने के बाद में भी बहुत कुछ मिला। मरने के बाद लोग हड्डियों और भस्म को गंगा जी में बहा देते हैं। लोगों का विश्वास है कि मरने के बाद में गंगा आदमी को स्वर्ग में ले जाती है। मालूम नहीं यह कहाँ तक सही है, लेकिन जहाँ तक हो, लोगों का विश्वास जरूर है। यह हो भी सकता है। गंगा जी के किनारे कुम्भ के मेले होते हैं। एक हरिद्वार में कुम्भ मेला होता है। एक इलाहाबाद में कुम्भ का मेला होता है। चार कुम्भों के मेले में दो इन्हीं स्थानों में पाये जाते हैं और दो अन्य स्थानों (नासिक एवं उज्जयिनी) पर चले जाते हैं। कुम्भ मेले के सम्बन्ध में पचास परसेंट धार्मिक कृत्यों का क्रम गंगा किनारे है, पचास परसेंट में सारा भारत है।
दूध की गंगा-गायत्री
गंगा की अपनी महत्ता है, लेकिन जब गंगा, यमुना और सरस्वती-इन तीनों का मिलन हो जाता है, संगम हो जाता है, तो इसकी महत्ता अपने आप में और भी विशिष्ट हो जाती है। गायत्री के बारे में भी यही बात है। यह ज्ञान की गंगा है। एक गंगा गोमुख से निकलती है, जिसे भगीरथ ने तप के द्वारा स्वर्ग से उतारा था। वह स्वर्ग की गंगा कौन सी थी? भाई साहब! वह दूध की गंगा है और यह पानी की गंगा है। पानी की गंगा अलग है और दूध की गंगा अलग है। दूध की गंगा कैसी होती है? हमने नहीं देखी है। अगर देखी होती तो फिर ढाई रुपये किलो आपको सपरेटा का दूध नहीं लेना पड़ता फिर मक्खन निकला हुआ दूध नहीं पीना पड़ता। फिर तो दूध की गंगा में से ही भर लेते। नहीं भाई साहब! दूध की गंगा हो सकती है? हाँ, हो तो सकती है, पर यह विचारपरक है, बुद्धिपरक है। वह इस तरह की नहीं है, जिसमें स्नान किया जा सके। स्नान किया भी जा सकता है, पर उसमें अन्तरात्मा स्नान कर सकती है। इसको हम गायत्री कहते हैं।
उपासना का मूल क्या?
गायत्री क्या है? गायत्री वास्तव में ज्ञान की गंगा है। गायत्री फिलॉसफी है। गायत्री क्रिया है। क्रिया की जान-पहचान आपको है। क्रिया उसका फल है। क्रिया उसका फूल है। जल अलग है, फूल अलग है। भाई साहब! आप समझते क्यों नहीं? नहीं साहब! इसमें फूल आते हैं, फल आते हैं। हाँ, इसमें फूल भी आते हैं, फल भी आते हैं, यह बात आपकी सही है। सिद्धि आती है, चमत्कार आते हैं, यह बात भी बिलकुल सही है, लेकिन आपको यह मालूम होना चाहिए-कि फल और फूल जहाँ से आते हैं, उसके नीचे भी कोई चीज है। उसके नीचे तना और उसके नीचे जड़ें हैं। आपको यह जानकारी होनी चाहिए कि अगर जड़ नहीं होगी, तो फूल कहाँ से आयेगा? तना नहीं होगा, तो भी फूल नहीं आयेगा। अतः जड़ें होनी चाहिए, तना होना चाहिए। आप जड़ और तने का मूल्य नहीं समझ पाते। नहीं साहब! हम फूल को समझते हैं, फल को समझते हैं, सिद्धि को समझते हैं, चमत्कार को समझते हैं। गायत्री माता की कृपा को समझते हैं। गायत्री माता के अनुग्रह को समझते हैं। गायत्री माता के असर को समझते हैं। फिर जड़ को क्यों नहीं समझते? जड़ को आप समझना ही नहीं चाहते। पहले देखिये, समझिये कि जड़ क्या होती है?
मित्रो! जड़ वह है, जिसे मैं आपको समझा रहा था। जड़ में मैं यह समझा रहा था कि गायत्री उपासना क्या है? गायत्री-उपासना का क्रियायोग मैं फिर कभी समझाऊँगा कि क्रियायोग तीन बातों पर टिका हुआ है-नामोच्चारण, ध्यान-दो और पूजन-तीन। सारी की सारी उपासनाओं की क्रियाएँ इसी में सीमित रह जाती हैं। इन तीन क्रियाओं के अतिरिक्त बाकी कोई भी क्रिया कहीं भी नहीं है। एक क्रिया ध्यान की है, जिसमें नादयोग किया जाता है। सारे के सारे योग ध्यान में आ जाते हैं। दूसरी क्रिया उच्चारण की है। इसमें आपका रामायण पाठ भी आ जाता है, हनुमान चालीसा भी आ जाता है। गीता पाठ आ जाता है। गायत्री का जप आ जाता है। राम नाम का जप आ जाता है। सब आ जाते हैं नामोच्चारण में। एक प्रक्रिया और है जिसे हम ‘प्रतीक पूजन’ कहते हैं। प्रतीक पूजन किसे कहते हैं? प्रतीक पूजन में चावल चढ़ा दिया, अक्षत चढ़ा दिया, जल चढ़ा दिया, प्रतिमा को धूप, दीप नैवेद्य अर्पित कर दिया, हवन कर दिया। वस्तुओं के माध्यम से जो उल्टी-पुल्टी प्रक्रिया की जाती है, उस सारी की सारी प्रक्रिया को ‘प्रतीक-पूजन’ कहते हैं। इस तरह सारे के सारे क्रियापक्ष तीन हैं। इसे हम बाद में समझा देंगे। पहले मैं जड़ की बात समझाना चाहता हूँ, जिसे आप समझना नहीं चाहते।
प्रतीक पर मत जाइए
हाँ साहब! आप पहले फूल की बात बता दीजिए, फल की बात बता दीजिए। बेटे फल और फूल की बातें आपके लिए बेकार हैं। क्रियापक्ष बाहरी है। यह प्रारम्भिक नहीं है। खेती की, फसल की काट-छाँट जरूरी है, पर पहली बात है जमीन! जमीन नहीं होगी, तो क्या आप बगीचा लगा सकते हैं? नहीं लगा सकते। पानी का इन्तजाम पहला है, खाद का इन्तजाम पहला है, जमीन का इन्तजाम पहला है। नहीं साहब! पहले यह बताइये कि किसान बुवाई कहाँ से करता है। निराई कहाँ से करता है? किसान पत्तों की काट-छाँट कैसे करता है? रखवाली कैसे करता है? भाई साहब! यह सब बातें हम पीछे बतायेंगे, पहले हमको यह बताने दीजिए कि किसान को और माली को जमीन की जरूरत पड़ती है। उसके जुताई की जरूरत पड़ती है। जुताई न हो, तो क्या हर्ज है? पानी की जरूरत पड़ती है। नहीं साहब। पानी-वानी सब बेकार है। पहले तो आप यह बताइये कि किसान जो फूल लगाता है, वह उसकी कलम कैसे उगाता है? कलम उगाना हम बता सकते हैं, पर इस बारे में आप जल्दबाजी मत कीजिए। नहीं साहब! आप बताइये कि कलमी आम कैसे आता है?
चमत्कार के मर्म को जानिए
बेटे कलमी आम लगाना हम तब बतायेंगे जब तुम्हारी यह बहस खत्म हो जायेगी कि जमीन को ठीक कैसे किया जा सकता है। जब तक जमीन को ठीक नहीं किया जाता तो कलमी आम को कहाँ पर लगायेगा? नहीं साहब! कलमी आम की विधि बता दीजिए, कलमी आम को काटना बता दीजिए। बेटे, यह सब क्रियाएँ पीछे बता देंगे। नहीं साहब! क्रियायोग बता दीजिए, ताकि हमको कोई चमत्कार दिखाई पड़े। बेटे, क्रियायोग में कोई चमत्कार नहीं है। जप करने में कोई चमत्कार नहीं है। नहीं साहब! जप में बहुत चमत्कार है। रत्ती भर भी चमत्कार नहीं है। समय खराब करने के अलावा जप में कुछ भी नहीं है। नहीं साहब! जप में तो बहुत फायदा है। हाँ फायदा तो है, पर तब, जब आप यह जान लेंगे कि जप करने के पीछे जो ग्राउण्ड है, जो उसकी आधारशिला है। उसे आप जान लेंगे, तो जप चमत्कारी है। अभी न आपके पास ग्राउण्ड है, न आधारशिला है, न व्यक्तित्व है, न चिन्तन है और न चरित्र ।। सारे के सारे जप करेंगे। भाड़ में गिरेंगे जप करके, जहन्नुम में गिरेंगे।
बीज का है अपना महत्त्व
मित्रो! इसीलिए मैं आपसे यह निवेदन कर रहा था कि क्रियापक्ष का मूल्य राई के बराबर है। कितना है? बरगद के बीज के बराबर। तो क्या आप बरगद के बीज को गाली दे रहे हैं? नहीं भाई साहब। बरगद के बीज को मैं गाली नहीं दे रहा था। मैं तो यह कह रहा था कि बरगद का बीज कब नकारा होता है? जब आपके पास जमीन नहीं है, तब और जब सिंचाई नहीं है, खाद का इन्तजाम नहीं है, तब। बिना जमीन की सहायता के कुछ नहीं हो सकता। इसका अर्थ यह हुआ कि आप बीज को बेकार समझते हैं। नहीं बेटे, बीज को मैं बेकार नहीं समझता। मैं तो कहता हूँ कि बीज में बहुत ताकत है। बरगद का जो पेड़ है, असल में वह बीज के भीतर छिपा हुआ पड़ा है। बीज अगर न हो, तो बरगद का वृक्ष पैदा नहीं हो सकता। पीपल का वृक्ष पैदा नहीं हो सकता, चन्दन का वृक्ष पैदा नहीं हो सकता। इसलिए बीज का महत्त्व जरूर मानूँगा, लेकिन बिना जमीन के अगर आप बीज को हवा में उगाना चाहें, बगीचा तैयार करना चाहें, तो यह बेकार है। केवल बीज के रहने भर से आप बगीचा नहीं लगा सकते। बिना जमीन के, बिना पानी के, बिना खाद के बीज अपना काम नहीं कर सकता।
तीन योग
इसलिए मैं आपसे कह रहा था कि चिन्तन मुख्य है, विचारणा मुख्य है। गायत्री की फिलॉसफी मुख्य है। इसकी थ्योरी मुख्य है। प्रैक्टिस? प्रैक्टिस इसकी मुख्य नहीं है, थ्योरी मुख्य है। प्रैक्टिस गौण है। कल मैं आपको थ्योरी समझा रहा था कि गायत्री मंत्र का हमारे जीवन क्रम में क्या सलूक होना चाहिए और हमारे जीवन में गायत्री का समावेश कैसे होना चाहिए? हमारे चिन्तन से गायत्री का क्या ताल्लुक होना चाहिए। यह समझाते हुए मैंने कल दो बातें पूरी करने की कोशिश की थी और यह बताया था कि योग तीन प्रकार के हैं। एक योग का नाम है-भक्तियोग, एक का नाम है-ज्ञानयोग और एक का नाम है-कर्मयोग। ये तीन धारायें हैं, जैसे गंगा, यमुना और सरस्वती को मिला देने से त्रिवेणी बन जाती है, ऐसे ही इन तीन धाराओं को मिला देने पर आध्यात्मिक संगम बन जाता है।
भावावेश नहीं है भक्ति
भक्तियोग के बाबत मैंने बताया था कि ईश्वर का विश्वास आवश्यक है। और भजन की? ईश्वर के भजन की भी महत्ता है। भजन की भी आवश्यकता है, पर चलिए एक बार मैं भजन को गौण मान लेता हूँ और भजन बिना आपको क्षमा कर सकता हूँ और भजन के बिना ही आपको यह विश्वास दिलाता हूँ कि आपको भगवान के दर्शन हो सकते हैं। भजन के बिना भी आपको भगवान का अनुग्रह मिल सकता है। लेकिन मैं आपसे यह कहना चाहूँगा कि अगर आप दिन-रात भजन करते होंगे और आपके भीतर उस चीज पर विश्वास न होगा, तो गाड़ी चलेगी नहीं। फिर आपको आध्यात्मिक प्रगति में कोई सहायता नहीं मिलेगी। कल मैंने आपको समझाया था कि ईश्वर का विश्वास भावावेशों से ताल्लुक नहीं रखता। भावावेश क्या होते हैं? भावावेश वे होते हैं जो उमंगों के रूप में, उद्वेगों के रूप में, सनकों के रूप में तरह-तरह से हावी होते हैं। कभी आदमी की आँख से आँसू आ जाते हैं। कभी वह उछलने लगता है, कभी रोने लगता है, कभी कूदने लगता है, कभी फुदकने लगता है। कभी मचलने लगता है, कभी जोश में आ जाता है, तो कभी ठण्डा हो जाता है।
यह क्या है? यह है-सेंटीमेंट्स।
तो क्या ईश्वर विश्वास सेंटीमेंट है? ईश्वर विश्वास सेंटीमेंट्स नहीं है। सेंटीमेंट्स कहीं आदमी को ऊँचा उठाने में सहायक हो सकते हैं, पर अन्ततः ये हानिकारक हैं। सेंटीमेंट्स अगर निषेधात्मक होंगे, तो भी हानिकारक हैं। आपको क्रोध आता है, आपको घृणा आती है, द्वेष आपको आता है, तो भी हानिकारक है और यह भी हानिकारक है कि कभी आपको बुखार चढ़े और कोई कहे कि आपको त्याग-बलिदान कर देना चाहिए। तो क्या आप अपने कपड़े भी उतार देंगे, धोती उतार देंगे और सामान भी बेच देंगे? यदि ऐसा करते हैं, तो फिर आप भूखों मरेंगे।
असली है विश्वास
मित्रो! सेंटीमेंट्स पागलपन की निशानियाँ हैं। सेंटीमेंट्स भगवान की भक्ति की निशानियाँ नहीं हैं। भगवान की भक्ति विश्वासों से ताल्लुक रखती है। ऐसे विश्वासों से ताल्लुक रखती हैं, जो आदमी की जिन्दगी में भले और बुरे दोनों ही तरह के मौके आते रहते हैं, लेकिन आदमी के विश्वासों को डगमग नहीं कर सकते। मसलन, गुरु गोविन्द सिंह की जिन्दगी को आप जरा देखिए न। शुरू से आखिर तक उन्होंने कैसे अपने बच्चों का देश के लिए, धर्म के लिए, संस्कृति के लिए दीवारों में चुनवाने से लेकर लड़ाई के मैदानों में टुकड़े-टुकड़े करवा देने तक का काम अपनी आँखों से देखा। आपके पास है-ईश्वर विश्वास? नहीं साहब! भगवान नाराज है। भगवान बड़ा खराब है। भगवान ने हमारे बेटी पैदा कर दी और बेटा पैदा नहीं किया। हमारी गाय को बछड़ा दे दिया, बछड़ी नहीं दी। देखिए साहब! गायत्री माता हमसे नाराज हो गयीं, इसलिए नौकरी में तरक्की नहीं हो सकी है। हमने चौबीस हजार का जप किया था, फिर भी कोई फायदा नहीं हुआ। तो यही है आपकी निष्ठा? पैसा दे दें तो गायत्री माता, नहीं दें तो चुड़ैल। यह मूर्खता का काम है। भगवान पर कहीं है आपका विश्वास? कहीं नहीं है।
स्वार्थ पर टिकी भक्ति नहीं
मित्रो! आप तो जायका चाहते फिरते रहते हैं। यहाँ से चाटने को मिल जाय, तो यहाँ अच्छा। जिस तरीके से कुत्ता दोना चाटता फिरता है। दोना यहाँ मिल गया तो यहाँ खा लिया और वहाँ मिल गया तो यहाँ खाने के बाद वहाँ खाने लगा। जहाँ-तहाँ मारा-मारा खाने के लिए दोना चाटने के लिए डोलता फिरता है। नहीं साहब! हम भजन करते हैं। भजन करता है या ढोंग करता है? बेटे, यह भक्ति नहीं हो सकती। भक्ति तो ऐसे अटूट विश्वास को कहते हैं, जिनमें बन्दा बैरागी से लेकर गुरु गोविन्द सिंह तक सम्मिलित हैं, जो शुरू से लेकर आखिर तक कठोर से कठोर परीक्षा में चलते रहते हैं और यह कहते रहते हैं कि यह हमारे लिए गौरव की बात है कि हमने अपनी भक्ति का इजहार, भक्ति का विश्वास इस तरीके से दिखाया कि कोई आदमी अंगुली न उठा सके कि हमारी भक्ति कमजोर थी, अथवा किसी स्वार्थ पर टिकी हुई थी।
ईश्वर विश्वास की पहचान
मित्रो! मैं क्या कह रहा था? ईश्वर का विश्वास आदमी की निष्ठा पर टिका हुआ है। ईश्वर का विश्वास निष्ठा से ताल्लुक रखता है, आदमी की चालाकियों और स्वार्थों से ताल्लुक रखता है, आदमी की चालाकियों और स्वार्थों से ताल्लुक नहीं रखता। जो स्वार्थों की पूर्ति होने के बाद में बना रहे और स्वार्थों की पूर्ति न होने पर विश्वास कम हो जाय, उसको मैं विश्वास नहीं कहता। वह सेंटीमेंट्स है। विश्वास न हो तो? विश्वास न हो तो आदमी को किसी लम्बे-चौड़े फायदे की आशा नहीं करनी चाहिए। विश्वास फलदायक होता है। आपको अपने भीतर से विश्वास पैदा करना चाहिए। भक्ति भी इसी से मिलती है। ईश्वर के विश्वास की पहचान क्या है? कल मैंने आपको बताया था ईश्वर के विश्वास की पहचान के बारे में कि भगवान सब जगह समाया हुआ है। उसकी आँखों से हम बच नहीं सकते। कोई भी ऐसी जगह नहीं है जहाँ हम अपने को उससे छिपा सकें या छिपकर कोई काम कर सकते हों। ईश्वर विश्वासी के जीवन में से छिपने वाली बात निकल जाती है। छिपने वाली बात अगर आपको जीवन में से निकल गयी, तो आपको सदाचारी होने के अलावा, शरीफ होने के अलावा, सज्जन होने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह जाता। ये सब ईश्वर विश्वास के पर्यायवाचक शब्द हैं।
चरित्रवान ही आस्तिक
आदमी की सज्जनता और आस्तिकता-दोनों पर्यायवाचक शब्द हैं। ये एक दूसरे से मिले हुए हैं। कहने-सुनने में तो अलग मालूम पड़ते हैं। ये एक दूसरे से मिले हुए हैं। कहने-सुनने में तो अलग मालूम पड़ते हैं कि आस्तिकता अलग होनी चाहिए और सज्जनता अलग होनी चाहिए, पर वास्तविकता यह नहीं है। वस्तुतः यह दोनों एक ही हैं। आस्तिकता जहाँ होगी, सज्जनता वहाँ जरूर होगी। और अगर सज्जनता आदमी के पास है, तो वह आस्तिकता से अलग नहीं हो सकता। भजन नहीं करता है, तो कोई हर्ज की बात नहीं है। नहीं साहब! वह ईश्वर को गाली देता है। देने दीजिए, तो भी मैं उसको आस्तिक कहूँगा, क्योंकि वह चरित्र के ऊपर, आचरण के ऊपर इतना निष्ठावान है कि मैं उसे आस्तिक कहूँगा। नहीं साहब! वह भजन भी नहीं कर रहा था, गाली दे रहा था। मुझे कोई ऐतराज नहीं है। उसको गाली देने दीजिए और भजन से इनकार करने दीजिए, पर चूँकि वह चरित्रवान है, इसलिए उसको मैं आस्तिक कहूँगा।
आज के नास्तिक
मित्रो! अगर आप आस्तिक हैं, तो आपको ईश्वर विश्वास का फायदा जरूर मिलेगा। अगर आप नास्तिक हैं-तो नास्तिक कैसे होते हैं? उन आदमियों को नास्तिक कहने में मुझे कोई ऐतराज नहीं है, जो घंटों बैठे-बैठे तरह-तरह की माला जपते रहते हैं और तरह-तरह की बोलियाँ बोलते रहते हैं। तरह-तरह की बोलियाँ बोलने में कई आदमी माहिर होते हैं। कोई हिन्दी बोल सकता है, कोई अंग्रेजी बोल सकता है, कोई क्या बोल सकता है। कोई श्लोक बोल सकता है, कोई गाना सुना सकता है। कई आदमी कई तरीके की बोलियाँ बोल सकते हैं, श्लोक बोल सकते हैं। कई आदमी देवी का पाठ करते हैं, रामायण का पाठ करते हैं। इससे मुझे कोई ऐतराज नहीं है और प्रसन्नता भी नहीं है। कई तरह की बोलियाँ बोलने से भगवान की भक्ति का कोई ताल्लुक है? मेरा स्वयं का अपना ऐसा विश्वास है कि ईश्वर की भक्ति से बोलियाँ बोलने का कोई बहुत ज्यादा ताल्लुक नहीं है। बोलियाँ बोलने से, श्लोक बोलने से, प्रार्थना बोलने से, पुस्तकों का पाठ करने से हमारे मन की उन्नति तो जरूर होती होगी। यह तो मैं नहीं कहता कि नहीं होती होगी, लेकिन किताब से उन्नति भी नहीं हो सकती। कब? जब आपने यह विश्वास कर लिया होगा कि इस किताब का पाठ करने से, माला फेरने से, उच्चारण करने से भला हो जायेगा, तो वह नहीं होगा।
अध्यात्म इतना सस्ता नहीं
मित्रो! अगर आपके मन में यह बात जम गयी है कि इन पुस्तकों को पढ़ने से-मसलन रामायण पढ़ने से ही आपका भला हो जायेगा, तो फिर गयी गाड़ी पानी में। रामायण को जीवन में उतारना पड़ेगा, तो भला हो जायेगा, यह तो मैं मानता हूँ। लेकिन आपने यह मान लिया कि गीता पढ़ने से भला हो जायेगा, तब तो बात खत्म हो गयी। आपने सब रास्ता ही बन्द कर दिया। गीता को आपके जीवन में प्रवेश करना चाहिए। जब आप यही मान बैठे हैं कि गीता के पाठ से ही हमारा काम चल जायेगा, तो फिर जीवन में आप उसे उतारेंगे क्यों? आप मुसीबत उठायेंगे क्यों? आप अपने आपसे जद्दोजहद करेंगे क्यों? आप अपने जीवन में इन सिद्धान्तों का समावेश करेंगे क्यों? आपको तो पण्डित जी ने यह समझा दिया है कि गीता का पाठ कर लिया कीजिए और बैकुण्ठ को चले जाइये। पण्डित जी ने तो आपको यह कह दिया है कि रामायण के पन्ने पढ़ लिया कीजिए और बैकुण्ठ को चले जाया कीजिए। जब इतना सस्ता अध्यात्म है, तो आपको महँगा खरीदने की क्या जरूरत पड़ेगी?
समय साध्य है यह
साथियो! कल मैं आपको यह समझा रहा था कि आपकी आस्तिकता, ईश्वर विश्वास क्या है? यह इस मायने में है कि भगवान हर जगह समाया हुआ है, इसलिए हमको छिपकर कोई काम नहीं करना चाहिए। और हमको यह विश्वास कर लेना चाहिए कि कर्मफल से हमको छुटकारा नहीं मिल सकता। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों हमको जरूर फल मिलेगा। कई आदमियों को नहीं मिलता। भाई साहब! थोड़ा टाइम लग जाता है। टाइम किसी में भी लग जाता है। आज हम दूध जमाते हैं, तो कल दही जमता है। नहीं साहब! आज दही जम जायेगा? बेटे, आज नहीं जम सकता। इसके लिए कल तक इन्तजार कीजिए। आज बीज बोने के बाद फल मिलने के लिए इन्तजार करना पड़ता है। नहीं साहब! आज के पौधे में आज ही फल लगा दीजिए। भाई साहब! इसमें थोड़ा टाइम लग जायेगा। हमने आज ही स्कूल में दाखिला लिया है और आज ही आप हमको एम.ए. करा दीजिए। भाई साहब! हम आपको एम.ए. करा देंगे, पर इसके लिए आपको जरा ठहरना पड़ेगा। हमने आज फसल बोयी है, उसके फल ला दीजिए? भाई साहब! उसके लिए आपको ठहरना पड़ेगा। नहीं साहब! हम ठहरना नहीं चाहते, हम तुरत-फुरत चाहते हैं। भाई साहब! आप हथेली पर सरसों जमाना चाहते हैं, तो मुश्किल है। हथेली पर सरसों नहीं जमती।
कर्म का फल भी समय के साथ मिलेगा
मित्रो! कर्मों का फल प्राप्त करने के लिए इन्तजार करना पड़ता है। इस इन्तजार में ही आदमी डाँवाडोल हो जाता है। इस इंतजार में ही आदमी का ईमान गड़बड़ा जाता है। आदमी को जब विलम्ब लगता दिखाई पड़ता है कि जिस आदमी ने बेईमानी की, बुरे कर्म किये, फिर भी वह मजे से रह रहा है। लेकिन हमने बुरे कर्म नहीं किये, सत्कर्मों में, परोपकार में ही लगे रहे, फिर भी मुझे कोई फल नहीं मिला, गवर्नमेण्ट से भी कोई फल नहीं मिला, समाज से भी कोई फल नहीं मिला, तो उसकी जुर्रत और हिमाकत तथा हिम्मत बढ़ जाती है। हम कल भी ऐसे काम कर सकते हैं, क्योंकि पकड़े नहीं जायेंगे। अच्छे काम करते समय में कर्म का फल नहीं मिला, तो आदमी का ईमान डाँवाडोल हो जाता है और वह कहता है कि अरे साहब! हमने तो देख लिया। दूसरों के साथ हमने भलाई की और हमें बुराई मिली। सब बेकार है। अब क्या रखा है? तुरन्त के लिए आदमी घबरा जाता है।
इस नियम को समझिए
ईश्वर का विश्वास होने का अर्थ यह है कि कर्मफल को प्राप्त करने के लिए इस तरह धीरज रखना चाहिए और यह इन्तजार करना चाहिए कि यह दुनिया एक नियम, एक कायदा और एक व्यवस्था के ऊपर टिकी हुई है, जो गेहूँ के भीतर से गेहूँ पैदा करता है। बकरी के पेट में से बकरी पैदा करता है और आदमी के शरीर में से आदमी पैदा करता है। उसके कायदे के मुताबिक़ सूरज टाइम पर निकलता है, चन्द्रमा टाइम पर निकलता है। ऐसी सुन्दर व्यवस्था जिसकी बनी हुई है, उसमें कर्मफल की व्यवस्था भी होनी चाहिए और इस कर्मफल की व्यवस्था को आदमी समझता रहेगा, तो अच्छे कामों को करने के बाद में अधीर नहीं होगा। अच्छे कामों के फल मिलने में ज्यादा विलम्ब लगता है, यह जानकर वह अधीर नहीं होगा, धीरज बनाये रखेगा। वह जानता है कि कल नहीं, तो परसों मिल ही जायेगा। आपने बुरा काम किया है, तो आपकी हिम्मत नहीं बढ़ेगी कि हमारा कोई क्या कर लेगा? कल नहीं तो परसों हमको इसका प्रतिफल जरूर मिलेगा और हमारे गुनाहों का फल हमारे सामने जरूर आ जायेगा।
भक्ति अर्थात् सचाई-मोहब्बत भरा जीवन
इससे पूर्व अक्टूबर अंक में आपने पढ़ा कि गायत्री उपासना का मूल है भक्ति। क्रियापक्ष बाहरी है। जप आदि सबका महत्त्व है। पर बीज का महत्त्व तो समझना चाहिए। वह है भक्ति। तीन प्रकार के योग हैं, भक्ति, कर्म, ज्ञान पर इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है भक्तियोग। ईश्वर विश्वास-दृढ़ विश्वास ही भक्ति है। पर यह भावावेश या भावुकता नहीं है। सेण्टीमेण्ट्स पागलपन की निशानी होते हैं। भगवद् भक्ति विश्वास पर टिकी है। अटूट विश्वास जिस तरह बंदा वैरागी में था, गुरु गोविन्दसिंह में था। सही मायने में चरित्रवान ही सच्चा आस्तिक हो सकता है। मात्र रामायण पढ़ने, कथा कर लेने से, सुन लेने से कोई भक्त नहीं हो जाता। अध्यात्म इतना सस्ता नहीं है। समयसाध्य प्रक्रिया है। कर्मों के फल की एक सुनिश्चित प्रक्रिया पर सारा अध्यात्म टिका हुआ है। अब आगे पढ़ें।
भावावेश नही है भक्ति
आदमी के जीवन क्रम और चरित्र क्रम को बनाने के लिए आस्तिकता की, ईश्वरभक्ति की आवश्यकता है, ताकि आदमी का व्यक्तिगत जीवन श्रेष्ठ और समुन्नत बना रहे। ताकि मनुष्य जाति का सामाजिक जीवन श्रेष्ठ और समुन्नत बना रहे। ताकि मनुष्य का अंतरंग और बहिरंग जीवन शालीनता से सम्पन्न बना रहे। व्यक्ति और समाज की सुव्यवस्था के लिए आस्तिकता की जरूरत है और आदमी के आंतरिक विकास के लिए आस्तिकता के सिद्धान्तों की जरूरत है। इसलिए मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि भक्तियोग जिसमें भावावेश चाहे आये या न आये, हमारी आँखों में आँसू आयें या न आयें, कोई हर्ज की बात नहीं है। भाई साहब! क्या जरूरत है आँसू आने की? नहीं साहब! भगवान की भक्ति आती है, तो आँसू जरूर आता है। आँसू का भक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। अगर यही पहचान है भक्ति की, तो फिर जब आपको भजन करना हो, तो कपूर की डली को आँखों से चिपका लिया कीजिए, पिपरमिंट लगा लिया कीजिए, आँसू आ जायेगा। नहीं साहब! आँसू आ जाता है, तो भक्ति आ जाती है। आँसू आ जाता है, जैसी बेसिलसिले की पागलों जैसी बातें करता है, जिसकी न कोई सींग है न पूँछ है। नहीं साहब! भगवान में बहुत आनन्द आता है। आनन्द आता है तो भाग और गाँजे की चिलम पी लिया कर, तो आनन्द आ जाया करेगा, मूर्ख कहीं का।
बेकार के सेण्टीमेण्ट्स
मित्रो! आदमी को जब यह विश्वास हो जाता है कि हम यह करेंगे, तो आनन्द आयेगा। बस, इसी निश्चय का नाम आनन्द है। इससे आदमी में दृढ़ता आ जाती है, संकल्पबल आ जाता है। ‘डू आर डाइ’ करेंगे या मरेंगे का निश्चय कर लेने का नाम है-भावना। भावना को आप ‘सेंटीमेंट्स’ मान लेते हैं। आप भावना को इसीलिए गले लगाये फिरते हैं। पर सेंटीमेंट्स तो बच्चों में होते हैं। खिलौना दे दिया तो उछलने लगे, गुब्बारा छीन लिया तो रोने लगे। सेंटीमेन्ट्स बच्चों में होते हैं। बड़े आदमी के सेंटीमेंट्स खत्म हो जाते हैं। बड़े आदमियों में कोई सेंटीमेंट्स नहीं होते। समझदार आदमी में कोई सेंटीमेंट्स नहीं होते। मिलिट्री के कप्तान का कोई सेंटीमेंट्स नहीं होता। नहीं साहब! हमारा भतीजा लड़ाई में मारा गया है। मारे गये ढाई सौ आदमियों में हमारा भतीजा भी था। उसके शव को घर ले चलिए। भाई साहब! आप हमारा बैलेन्स खराब करेंगे। कप्तान अपना बैलेन्स खराब नहीं कर सकता। भतीजा मर गया तो मर गया, हम क्या कर सकते हैं। रोयेंगे? नहीं, समझदार आदमी रोया नहीं करते। मित्रो! समझदार आदमी को सेंटीमेंट्स नहीं आते। उन्हें पराक्रम और पुरुषार्थ आते हैं। सेंटीमेंट्स तो बुढ़िया को आते हैं। एक बुढ़िया रोने लगी। पड़ोसन आयी तो पूछने पर बताया कि हमारी सहेली आयी थी और बता रही थी कि बहू से लड़ाई हो गयी थी, तो उसने खाना नहीं खाया। वह रो रही थी, तो उसे देखकर हम भी रोने लगे। बुढ़िया रोया करती है। बेकार आँखों में आँसू आ जाते हैं।
आज की भक्ति?
मित्रो! फिर क्या करना चाहिए? अभी मैं भक्तियोग की निशानी बता रहा था कि ‘भक्ति’ शब्द जहाँ से आता है, उसे मोहब्बत कहते हैं। भक्ति किसे कहते हैं? भक्ति मोहब्बत को कहते हैं। अब मैंने ‘भक्ति’ का नाम लेना बंद कर दिया है। क्यों? क्योंकि भक्ति अब बदनाम हो गयी है। ‘हरिजन’ शब्द पहले कैसा अच्छा शब्द था। ‘हरिजन’ अहा! भगवान के आदमी हैं आप? हाँ साहब! हम भगवान के आदमी हैं और आप संसार के आदमी हैं। कभी ‘हरिजन’ शब्द बहुत अच्छा था। हरिजन शब्द कहते थे, तो उससे महात्मा का, संत का ज्ञान होता था और यह पता चलता था कि उस व्यक्ति को कोई भगवान का भक्त होना चाहिए। अब हरिजन शब्द कह देते हैं, तो सामने वाला तुरन्त कह उठता है कि आपने हमें हरिजन कैसे बता दिया? नहीं साहब! सम्मान किया है। सम्मान किया है या हमको अछूत बता दिया है? हरिजन शब्द आज खराब हो गया है। ‘भक्ति’ शब्द भी मैं अब नहीं कहता, क्योंकि ‘भक्ति’ शब्द अब बदनाम हो गया है। क्यों? क्योंकि भक्ति का लबादा उन लोगों ने ओढ़ लिया है, जिनको मैं हर दृष्टि से कमजोर कहता हूँ। जो पराधीन हैं, हर मामले में जिसके अन्दर से पराधीनता टपकती है। जिसको भगवान के मामले में भी पराधीनता टपकती है। आज भक्ति का यही स्वरूप हो गया है।
पराधीन न बनो
जिन लोगों की मनोवृत्ति परावलम्बी और पराधीन है, उन लोगों को आज भक्त कहा जाता है। जो व्यक्ति यह कहता है कि ‘जो करेगा भगवान करेगा।’ ‘भगवान की इच्छा से होगा’ ‘भगवान जो चाहेंगे, वही हो जाएगा।’ ‘भगवान की कृपा का इन्तजार कीजिए।’ ‘सोइ जानइ जेहि देहु जनाई’। भगवान बता देंगे, तो हम जान जायेंगे। तो बेटे तू क्या करेगा? जब भगवान ही जना देगा, भगवान ही उद्धार कर देगा, जब सब काम वही कर देगा, तो तू भी किसी मर्ज की दवाई है या नहीं? नहीं साहब! हम किसी मर्ज की दवाई नहीं है। सब भगवान करेगा। सब गलत बात है। फिर भगवान कुछ भी नहीं करेगा। भगवान इतना ही करेगा कि जब आप मरेंगे, तो आपको मार देगा, आप जियेंगे तो आपको जिन्दा कर देगा। नहीं साहब! भगवान कृपा करेगा। भगवान ने किसी पर कृपा नहीं की और न करेगा। मित्रो! दो बातों पर आदमी का विश्वास बना रहे कि बुरे कर्म का फल आदमी को बुरा मिलता है और अच्छे कर्म के बारे में यह विश्वास बनाये रखें कि फल मिलेगा अवश्य, तो फिर हम गलतियाँ नहीं कर सकते। आग के बारे में हमको मालूम है कि हम आग को छूयेंगे, तो जल जायेंगे। नहीं साहब! प्रयोग करके देखिए, हाथ नहीं जलेगा। नहीं साहब! हम प्रयोग करना नहीं चाहते। हाथ जलेगा, हमने पड़ोसी को देखा था, आग से उसका हाथ जल गया था, हम नहीं जलाना चाहते। अगर आदमी को यह विश्वास बना रहे कि मनुष्य कर्मों का फल भोगने के लिए विवश होता है, तो अपने पुरुषार्थ पूर्ण कर्म करने में कोई आदमी चूक न करे और बुरा कर्म करने के लिए कोई आदमी कदम आगे न बढ़ाये।
गुलाम हैं भारतीय
मित्रो! स्वावलम्बन की शक्ति को जिसने हमसे छीन लिया है, उसका नाम आज भी भक्ति है। मैंने एक बार एक किताब पढ़ी थी, जिसको पढ़कर मुझे बड़ा क्लेश हुआ। मिस मेओ नामक एक अमेरिकन महिला ने हिन्दुस्तान के बारे में एक किताब लिखी थी-‘‘स्लेव्स आँफ द गॉड्स’’। देवताओं के गुलाम नाम से हिन्दी में इसका अनुवाद हुआ था। उसने अंग्रेजों के पक्ष में यह हिमायत की थी कि हिन्दुस्तानियों को स्वतंत्रता की कतई जरूरत नहीं है। हिन्दुस्तानियों की जहनियत, हिन्दुस्तानियों के दिमाग की जो बनावट है, वह ऐसी है कि किसी की गुलामी के बिना वह जिन्दा नहीं रह सकती। जब तक वे किसी न किसी के गुलाम नहीं रहेंगे, तब तक इनको चैन नहीं मिल सकता। किसी के गुलाम बनेंगे तब? दिशाशूल है, जोगिनी सामने है, हम नहीं जा सकते। मुहूर्त खराब है। चन्द्रमा खराब है। काल राहु खराब है। दिशाशूल खराब है। कहाँ है दिशाशूल? साहब! वहाँ है-पीपल के पेड़ के नीचे बैठा हुआ है। दिशाशूल पकड़ लेगा। दिशाशूल के कारण चूल्हा नहीं बना सकते, चक्की नहीं बना सकते। बेटी का ब्याह नहीं कर सकते। मर नहीं सकते, जी नहीं सकते। किसके बिना? देवताओं की मदद के बिना। देवताओं की मदद के बिना बेटी का ब्याह नहीं कर सकते। क्यों नहीं कर सकते? शुक्र डूब गया है। कहाँ डूब गया है? भाई साहब! हमें बताइये, हम निकाल लायेंगे। पुलिस में रिपोर्ट करेंगे। तालाब में डूब गया है? नहीं साहब! शुक्र भगवान तो डूब गये हैं। कहाँ डूब गये हैं, बताइये तो सही। साहब! पंडित जी के पत्रा में डूब गये हैं। पंडित जी को लिवा लाइये और यह पूछिये कि भाई साहब। नवग्रहों में से कोई ग्रह कभी डूबता है क्या? एक ग्रह दूसरे की छाया में आ जाते हैं। दिन रात का फर्क पड़ जाता है। कोई तारा दिन में उदय होता है, तो कोई रात में। जब दिन में उदय होता है तो दिखाई नहीं पड़ता और जब रात में उदय होता है, तो दीख जाता है। डूब कहाँ गया? तेरे सिर में डूब गया। नहीं साहब! लड़की की जन्मपत्री नहीं मिलती, फलानी नहीं मिलती, ढिकानी नहीं मिलती, अतः लड़की का ब्याह नहीं हो सकता।
विकृति भक्ति की
मित्रो! मैं क्या कहूँ आपसे? मेरे मुँह से गालियाँ निकलती हैं। इसलिए क्या करना चाहिए? यह भक्ति, जिसका अर्थ है-परावलम्बन। यह मनुष्य के लिए लाभदायक है? नहीं, घोर हानिकारक है। यह आदमी के मनोबल को गिराती है। यह आदमी के व्यक्तित्व को गिराती है। यह आदमी की साहसिकता को गिराती है। यह आदमी के स्वावलम्बन को गिराती है और आदमी का जो मूलभूत गूढ़ अस्तित्व है, उसको हानि पहुँचाती है। तो क्या आप भक्ति योग समझा रहे थे? हाँ, पर मैं वह भक्ति योग नहीं समझा रहा था, जो भक्ति योग की विकृति है। विकृति? हाँ! विकृति होती है। अनाज बहुत अच्छा होता है, लेकिन जब अनाज विकृत हो जाता है, तो उसका नाम पाखाना हो जाता है, कै हो जाता है। थाली में अनाज था। हमने खा लिया। थोड़ी देन बाद क्या हुआ? उल्टी हो गयी। अनाज वही था। खीर वही थी। सब्जी वही थी, जो सुरक्षित रखी हुई है। उसको दुबारा खा सकते हैं, लेकिन जो पेट में चली गयी और उल्टी से बाहर आ गयी, उसको दुबारा नहीं खाया जा सकता। यह क्या हुआ? अनाज की विकृति हो गयी।
आखिर भगवान है क्या?
मित्रो! यह भक्ति नहीं है, जिसको लोगों ने भक्ति बना रखा है। इससे हिन्दुस्तान का बहुत नुकसान हुआ है। इस भक्ति ने लोगों का बहुत नुकसान किया है। कौन सी भक्ति ने? जो लोगों के दिमाग पर छायी हुई है। आप कौन सी भक्ति की बात कर रहे थे कल? जो गायत्री माता के साथ जुड़ी हुई है, मैं उस भक्ति की बात कर रहा था। जिसका दूसरा नाम है-मोहब्बत। जिसका नाम है-प्यार। भगवान क्या है? ‘‘रसो वै सः।’’ भगवान प्यार है। प्यार कैसा होता है? प्यार ऐसा होता है, जो भगवान से शुरू किया जाता है और इंसान तक फला दिया जाता है। भगवान से प्यार कैसा होता है? भगवान क्या है? पहले यह मालूम कीजिए। भगवान है-आदर्श, भगवान है-सिद्धान्त। आदमी के जीवन में जब भगवान आता है, तो सिद्धान्तों के रूप में आता है। आदमी के दिमाग में आता है, तो उत्कृष्ट चिन्तन के रूप में आता है और जब भगवान आदमी के शरीर में आता है, तो आदर्श क्रिया कलापों के रूप में आता है। भगवान माने आदर्श। भगवान जब कभी इन्सान के ऊपर आयेगा तो आदर्श के रूप में दिमाग में आयेगा, आदर्श के रूप में व्यवहार में आयेगा। इन्हीं दो तरीकों से भगवान आयेगा। नहीं साहब! हमको भगवान आता है। आपको कैसे आता है? रात को सपने में दिखाई देता है। अच्छा! आपको रात में सपने में दिखाई देता है? कैसे दिखाई पड़ता है? गुरुजी! घोड़े पर सवार होकर आया था, बैल पर सवार होकर आया था और हाथी पर सवार होकर आया था। चल रहने दे पगले, बेकार की बातें मत कर। नहीं साहब! रात को हमको देवी दिखाई पड़ी थी और हनुमान जी दिखाई पड़े थे। तो क्या लाये थे हनुमान जी? नहीं साहब! लाये तो कुछ नहीं थे। और देवी कुछ लायी थी? नहीं साहब! रात में सपने में देवी दिखाई पड़ी। पागल कहीं का, बैठा-बैठा बहकता रहता है, सनकता रहता है कि पेड़ के नीचे देवी दिखाई पड़ी थी और हम बद्रीनाथ गये थे, तो रास्ते में दिखाई पड़ी थी। पत्थर में दिखाई पड़ी थी। तेरे सिर में दिखाई पड़ी थी।
सिद्धान्तों से प्यार
मित्रो! मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि भगवान की भक्ति जब आती है, तब प्यार के रूप में आती है। प्यार किससे होता है? सिद्धान्तों से। इनसानों से नहीं होता प्यार। नहीं साहब! हमें बेटे से प्यार है। नहीं, बेटे से प्यार नहीं हो सकता, सिद्धान्तों से प्यार हो सकता है। सिद्धान्तों से अगर आपका प्यार है, तो उसको मैं भक्ति कहूँगा। फिर आपको वास्तविक मोहब्बत है, सच्ची मोहब्बत है और यह जहाँ कहीं भी जायेगी, आनन्द ही आनन्द बरसाती चली जायेगी। फिर आप भगवान से भक्ति करेंगे, तो उसके बदले में आपको तुरन्त आनन्द मिलेगा। भगवान से भक्ति कैसे करें? सिद्धान्तों से भक्ति करेंगे, आदर्शों से भक्ति करेंगे, तो आप देखेंगे कि आपके कलेजे में से, आपके भीतर से, आपकी अन्तरात्मा में से और आपके हृदय में ये कैसा संतोष और उमंग उत्पन्न होता है। आपने आदर्शों से कोई प्यार नहीं किया है? मैं क्या कह सकता हूँ? आदर्श तो आपके लिए एक बहाना है, एक मनोरंजन है। आदर्श तो आपके लिए मखौल है। लोग आदर्श के बारे में अक्सर यह कहते पाये गये हैं कि आदर्श व्यावहारिक जीवन में काम नहीं आ सकते। यह सब सिद्धांत की बातें हैं, जो जीवन में काम नहीं आ सकती। बेटे, काम में आ सकती हैं और आनी चाहिए। काम में जो चीज नहीं आ सकती, वह बेकार है। उसको हटा देना चाहिए। अगर सत्य जीवन में काम नहीं आ सकता, तो मैं कहता हूँ कि सत्य को हटा देना चाहिए। या तो आप इसे काम में लाइये, या हटाइए। नहीं साहब! काम में तो नहीं आ सकता। तो फिर हटाइए। हटा नहीं सकते तो फिर काम में लाइये।
सच्चाई का बल
मित्रो! सच्चाई काम में आ सकती है, बिलकुल काम में आ सकती है। सारे योरोप में इस सच्चाई को काम में लाकर कितनी प्रगति की। स्विस घड़ियाँ, वेस्टेण्ड घड़ियाँ सारी दुनिया में छायी हुई हैं। चौबीस घंटे में एक सेकेण्ड का भी फर्क पड़ेगा तो उसे ठीक कराने के लिए दोबारा फैक्ट्री में भेज दिया जायेगा, रिटर्न कर दिया जायेगा। वे दुबारा रिलीज नहीं की जा सकतीं। चौबीसों घंटे इंजीनियर घूमते रहते हैं और देखते रहते हैं कि चौबीस घंटे में जो आज घड़ियाँ बनी हैं, उनमें से किसी में भी एक सेकण्ड का फर्क पड़ा है, तो उसे उतारिए और फैक्ट्री में डालिए। सच्चाई के बल पर ही आदमियों ने उन्नति की है। नहीं साहब! सच्चाई गलत है। नहीं भाई साहब! सच्चाई ही सही है। सच्चाई को इन्तजार करना पड़ता है। सच्चाई की सिंचाई करनी पड़ती है। सच्चाई व्यवहार में लाई जा सकती है और लोगों के लिए फायदेमन्द हो सकती है। अगर आप सच्चाई को काम में लायें, तो वह आपके लिए बहुत फायदेमन्द हो सकती है। सिद्धांतों को अगर प्यार करते हैं, तो व्यावहारिक जीवन में इसे उतारने के लिए मैं आपको एक छोटा सा उदाहरण सुना सकता हूँ। नहीं साहब! पुराणों की कथाओं पर हमारा विश्वास नहीं है। हाँ, मैं भी जानता हूँ, उनमें से कई कहानियाँ असंभव होती हैं, जिन पर आपको विश्वास नहीं होता। लेकिन मैं अपनी आँखों देखी कहानी सुनाता हूँ, जिसके बाद आपको यह विश्वास हो जायेगा कि सच्चाई आदमी के जीवन में कितनी लाभदायक हो सकती है। सच्चाई से प्यार करना भी अपने आपमें आदमी की शान है। मैं आपको मथुरा का एक पुराना किस्सा सुनाता हूँ-
जीवन्त उदाहरण
अब से चालीस साल पहले ‘अखण्ड ज्योति’ प्रकाशित करने के दिनों में ही एक व्यक्ति आये। उनका नाम था रामनारायण जी। लोग उन्हें मुंशी जी कहते थे। मथुरा कलेक्ट्रेट में वे पेशकार का काम करते थे। कौम से कायस्थ थे। उस जमाने में मैं सोचता हूँ कि आज से चालीस वर्ष पहले पेशकार को शायद पचास रुपये मिलते होंगे। पेशकार क्लर्क होते हैं, जो साहब के यहाँ, अफसर के यहाँ काम करते हैं। मियाँ-बीबी और तीन बच्चे-कुल मिलाकर पाँच आदमी थे। वे रिश्वत एक पैसा भी नहीं लेते थे। पचास रुपये में कैसे गुजारा करें? बच्चों को पढ़ाना भी था, मियाँ-बीबी का भी खर्च था। कैसे गुजारा करें? उनका रहन-सहन कुछ अजीब था। उनके कुर्ते और पाजामे में अक्सर टिकली लगी रहती थी। कुर्ता जहाँ से फट गया, बीबी सिल देती थी। पीठ पर फट गया, सो पीठ पर टिकली लगा देती थी। पाजामा यहाँ से फट गया, पाजामे में यहाँ से टिकली लगा दी। कुर्ता फट गया, सिलाई लगा दी, परन्तु वे कपड़ा साफ-स्वच्छ पहनते थे। ऐसा नहीं कि गरीबों जैसा, कंगालों जैसा हो। नहीं, पहनेंगे तो साफ-सुथरा। उन्होंने एक गाय पाल रखी थी। उसके लिए क्या करना चाहिए? घास-चारा कहाँ से आये? सो वे कलेक्ट्रेट के लॉन के माली से कह देते थे कि भाई साहब! आपकी जगह घास के ऊपर से मशीन हम घुमा देंगे और उस कटी हुई घास को आप हमको दे देना। अरे बाबूजी! आप तो मालिक हैं। आप कैसे काट सकते हैं। घास के लिए मैं कब मना करता हूँ। नहीं आप बैठिये, हम मशीन चलाते हैं। वे मशीन चलाते और घास काटकर अपनी गाय के लिए ले आते। गोबर जो सड़क पर पड़ा हुआ मिलता, शाम को घर लौटते वक्त एक बड़े थैले में एकत्र करके ले आते और अपने हाथ से उपले बनाकर सुखा लेते, ताकि वह खाना पकाने के लिए ईंधन का काम दे सके। टाइम पर आना और टाइम पर ऑफिस जाना-यह उनका नियम था। रिश्वत एक पैसा भी नहीं लेते। उनकी समझदारी भी कम न थी। वे बहुत समझदार थे। सारे का सारा कलेक्ट्रेट उनकी ऐसी इज्जत करता था कि मैं क्या कहूँ। लोग उनकी बहुत इज्जत करते थे। उनके बारे में लोगों का यह ख्याल था कि वे इन्सान नहीं, भगवान हैं।
सम्मान ईमानदारी का
मित्रो! सच्चाई से प्यार कीजिए। लेकिन सच्चाई से प्यार करना तो दूर आपने सच्चाई तो कभी जानी नहीं। आप तो सच्चाई का मखौल उड़ाते हैं और कहते हैं कि सच्चाई कभी व्यावहारिक जीवन में काम नहीं आ सकती। सच्चाई बेवकूफों की होती है। सच्चाई से कोई फायदा नहीं होता। बेटे, सच्चाई का इस्तेमाल करते, तब आपको पता चलता कि इससे जीवन सफल होता है कि नहीं होता। यह सच्चाई का ही प्रभाव था कि कलेक्ट्रेट में कोई जटिल मामला आ जाये, तो रामनारायण जी को बुलाइए। उनकी सलाह ली जाती थी। उन्होंने जो कह दिया, पत्थर की लकीर मान लिया जाता था। उनकी सलाह बहुत कीमती थी, क्योंकि उस आदमी की इज्जत और वकत उसके न्यायप्रिय व्यक्तित्व से सौ मन भारी थी। हर आदमी उनकी इज्जत करता था। एक नया कलेक्टर आया। उसकी उम्र करीब पच्चीस-छब्बीस साल की थी। जब रामनारायण जी आते, तो वह अक्सर अपनी कुर्सी से उठ खड़ा होता था। कई दिन यों ही खड़ा होता रहा। एक दिन रामनारायण जी ने मौका पाकर कहा कि हुजूर! आप हमारे ‘बॉस’ हैं और हम आपके ‘सब ऑर्डिनेट’ हैं। ‘बॉस’ और ‘सब आर्डिनेट’ का कायदा रहना चाहिए। आप हमारे आने पर उठा करेंगे, तो हम अपना ट्राँसफर किसी दूसरे इलाके में करा लेंगे। हम यहाँ से चले जायेंगे। यह गैरमुनासिब है और आपके पद की शोभा नहीं है और हमारे लिए भी शोभा नहीं देता। आप इज्जत करते हैं, तो अपने मन में रखें, लेकिन इस तरीके से न करें। कलेक्टर साहब मान गये।
मित्रो! यहाँ तक जो किस्सा था, मैंने सुना दिया है कि सच्चाई से प्यार करने वाला लोगों की दृष्टि में गरीब, किन्तु इज्जतदार आदमी कैसे होता है? आप तो भक्ति करते हैं। घंटी लिए बैठे रहते हैं और टुनन्-टुनन् करते हुए घंटरिया हिलाते रहते हैं। अरे पगले! तेरी घंटरिया सुनने के लिए भगवान आयेंगे? वे तेरे तरीके से ऐसे ही फालतू बैठे रहते हैं? घंटरिया बजा दी और वे आ गये। फिर दुबारा घंटी बजायी। किसको बुला रहे हैं? हनुमान जी को बुला रहे हैं। भगवान जी को बुला रहे है! बस, यों ही बैठे-बैठे खेल-खिलौने करता रहता है, मन बहलाता रहता है।
प्रतिफल ऐसी जिन्दगी का
मित्रो! मैं आपसे रामनारायण जी की बात कह रहा था। अब मैं आपसे सिद्धान्तों से प्यार की बात कहता हूँ, भक्ति की बात कहता हूँ। रामनारायण जी का देहान्त मेरे सामने ही हो गया। उनके तीन बच्चे थे, वे रह गये। अब जो पचास रुपये वे कमाते थे, वह पहली ही तारीख को खत्म हो जाते थे घर खर्च में। बेचारों के घर में तो कुछ था नहीं, पहली तारीख को तनख्वाह आती थी, तो किसी प्रकार गुजारा चलता था। अब क्या करना चाहिए, आपको एक घटना सुनाता हूँ। जब रामनारायण जी मर गये और औरत तथा उनके तीन बच्चे रह गये। तो मथुरा के तीन बड़े अफसरों ने विचार किया कि अब क्या करना चाहिए? उनके बच्चों का क्या करना चाहिए? उन्होंने कहा कि सच्चाई की इज्जत होनी चाहिए, सच्चाई की कदर होनी चाहिए, वकत होनी चाहिए। सच्चाई की वकत हुई है और होगी। हरिश्चन्द्र से लेकर गाँधी तक की परम्परा रही है कि सच्चाई की कदर हुई है और होगी। आपके पास सच्चाई नहीं है, इसलिए आपकी कदर नहीं होती। अगर आपके पास हो, तो होगी। हम आपसे वायदा करते हैं कि आप सच्चे हैं, तो आपकी इज्जत होगी और नहीं हैं या आधे सच्चे और आधे झूठे हैं, तो आपकी इज्जत कौन कर सकता है?
बच्चे पढ़ लिखकर बड़े बने
मित्रो! तो फिर क्या हुआ? तीन अफसर इकट्ठे हुए और उन तीनों बच्चों की माँ को बुलाया और यह कहा कि आप इन तीन बच्चों को हम तीन बड़े अफसरों के हवाले कर दें। आप यह मत सोचिए कि हम आपके बच्चों को खरीद रहे हैं या गिरवी रख रहे हैं। आपके बच्चों को अपने बच्चों के तरीके से पढ़ायेंगे और पढ़-लिख जाने पर इनकी ब्याह-शादी कर देंगे। ये रहेंगे आपके ही बच्चे, आप किसी के भी पास रह सकती हैं, चाहे जहाँ भी रह सकती हैं। आपके लिए मना नहीं है। आपके बच्चों का पढ़ाना-लिखाना, खिलाना-पिलाना यह हमारा काम है और वह हम पूरा करेंगे। उन्होंने तीनों को पढ़ाया, लिखाया और वे सारे के सारे पी.सी.एस. हो गये, आई.ए.एस. हो गये। उनके अपने बच्चों से भी अधिक हैसियत उन तीनों बच्चों की हो गयी। रामनारायण जी जिन्दा रहे होते, तो शायद बेईमानी से भी इस वास्ते इतना पैसा न कमा पाते, जिससे यह सब हो पाता।
एक शक्ति, एक आदर्श, एक सिद्धांत
मित्रो! मैंने आपको यह सिखाया था कि भक्ति का अर्थ है-प्यार। प्यार कहाँ से शुरू होना चाहिए? प्यार भगवान से शुरू होना चाहिए। भगवान से क्या मतलब है? भगवान कोई व्यक्ति नहीं होता। आप फिर ध्यान रखिये कि भगवान कोई व्यक्ति नहीं है। नहीं साहब! महादेव जी भगवान हैं। नहीं, गलत है। तो वह कौन है? वह एक अलंकार है। भगवान एक सिद्धान्त है। भगवान एक आदर्श है। भगवान एक शक्ति है, जो इन्सान के पास आते हैं, तो वे सिद्धांत बन जाते हैं और जब सूरज के पास जाते हैं, तो गर्मी बन जाते हैं। इन्सान के पास आते हैं, तो वे मोहब्बत बन जाते हैं। भगवान निराकार है और संवेदनाओं के रूप में आते हैं। वे शक्ल के रूप में नहीं आते, आप यह ध्यान रखिये। हमने भगवान की जो शक्लें गढ़ी हैं। यह तो अपने ध्यान की सुविधा के लिए, पूजा की सुविधा के लिए गढ़ी हैं? नहीं, गायत्री के पाँच मुँह हैं। नहीं भाई साहब! बिलकुल नहीं हैं। तो फिर क्या हैं? यह हमने गढ़ी है। क्यों गढ़ी हैं? इसलिए गढ़ी है, ताकि उसकी जो फिलॉसफी है, उसको समझने में हमें सरलता पड़े।
सिद्धान्तों से मोहब्बत
अभी आप क्या कह रहे थे? मैं भक्तियोग की बात कह रहा था और कल यह समझा रहा था कि भक्तियोग का सार और रहस्य यह है कि हम मोहब्बत करना सीखें। मोहब्बत करना किससे सीखें? सिद्धांतों से सीखें और सिद्धांतों से मोहब्बत करने के बाद में व्यायामशाला में, अखाड़े में अपने हाथ पाँव मजबूत करने के बाद में दंगल में आयें। दंगल से क्या मतलब है? जनता के सामने आयें। अखाड़ा किसे कहते हैं। अखाड़ा कहते हैं-पूजा की कोठरी को। पूजा की कोठरी में आप व्यायाम करें, कसरत करें। सड़क पर चौराहे के पास न करें। वहाँ लोग आपका मखौल उड़ायेंगे। आप वहाँ मत कीजिए। तो कहाँ पर कसरत करें। भाई साहब! आपको अपने घर में कसरत करनी चाहिए, पूजा की कोठरी में करनी चाहिए। मोहब्बत का अभ्यास आपको अपने घर में करना चाहिए। उसके बाद उसका डिमॉस्ट्रेशन, उसका प्रदर्शन, उसका व्यवहार समाज में करना चाहिए।
प्यार अर्थात् देना
मित्रो! मोहब्बत का अर्थ होता है-देना। मोहब्बत किसे कहते हैं? मोहब्बत कहते हैं-देने को। अगर आप किसी को प्यार करते हैं, तो उसे दें। किससे प्यार करते हैं? किसी को भी प्यार करते हों। आप अपनी माता को प्यार करते हों, तो आप उनको दें। क्या दें? मान दें, सम्मान दें, उनकी सेवा करें और उनको प्यार दें। हम तो बच्चों को भी प्यार करते हैं। तो बच्चों को संस्कार दें, जिस प्रकार विनोबा भावे की माँ ने अपने बच्चों को संस्कार दिये थे। वैसे ही आप भी अपने बच्चों को संस्कार दें। अगर आप बीबी को बहुत प्यार करते हैं, तो आप उनको सम्मान दें। उनके स्वास्थ्य का संवर्धन करें। उनके ज्ञान को बढ़ायें। आप उनकी मदद करें।
चाह नहीं, कुछ माँग नहीं
मित्रो! भक्ति में माँगा नहीं जाता। भगवान की भक्ति करते हैं, तो आप भगवान को दें। नहीं साहब! हम तो भगवान से माँगेंगे। भाई साहब! भगवान की भक्ति में माँगा नहीं जाता। भक्ति में माँगने की कतई गुंजायश नहीं है। नहीं साहब! हम भगवान से चाहते हैं। भाई साहब! भगवान की भक्ति में चाहा नहीं जाता। मोहब्बत अपने आपमें इतनी पूर्ण है कि उसमें चाहने की कतई जरूरत नहीं पड़ती। भक्त काहे का जो चाहेगा? भक्ति किस बात की, जिसमें चाहा जाता है? चाहना और भक्ति का कोई ताल्लुक नहीं है। साहब! हम तो प्यार करते हैं। आप किसको प्यार करते हैं? साहब! हम तो पड़ोस की एक लड़की को प्यार करते हैं। अच्छा, तो आपको पड़ोस की लड़की से प्यार है? हाँ साहब! पड़ोस की लड़की से प्यार है। तो आप ऐसा किया कीजिए कि उसके पास पढ़ने-लिखने की कॉपी-किताब का इंतजाम कम हुआ हो, तो आप भिजवा दिया कीजिए। आपके पास फालतू नोटबुक्स हों, कापी ज्यादा हों, तो भिजवा दिया कीजिए। और? और जब वह बड़ी हो जाय और कभी हारी-बीमारी हो, तो आप उसके बारे में पता लगाया कीजिए कि उसको हारी बीमारी तो नहीं रहती है। कभी कोई उसकी इज्जत पर हमला करता हो, तो आप उन लोगों को धमकाया कीजिए कि यह हमारी बहन है। आप उसको प्यार करते हैं, तो ऐसा किया कीजिए।
इसे प्यार न कहना
नहीं साहब! हमारा यह मतलब नहीं है। क्या मतलब है आपका प्यार से? प्यार से हमारा मतलब यह है कि हम उसका ईमान खराब करना चाहते हैं। और हम उसको बेइज्जत करना चाहते हैं। प्यार से हमारा मतलब यह है कि उसकी कहीं अच्छे घर में ब्याह-शादी होती हो, तो वह न हो। हमारा यही मतलब है। अच्छा! तो आपका यही मतलब है? हाँ साहब! हमारा यही मतलब है कि हम उसका लोक-परलोक बिगाड़ना चाहते हैं। उसके बहन-भाइयों की आँखों में उसकी घृणा चाहते हैं। उसके माँ-बाप की इज्जत हम खराब करना चाहते हैं। और? और जब कभी जिन्दगी में उसकी ब्याह-शादी होगी, तो उसके दूल्हे को जब यह पता चलेगा, तो वह उसको अपने घर से निकाल देगा। तो आप यह चाहते हैं? हाँ साहब! यही चाहते हैं। आप क्या सोचते हैं और क्या करना चाहते हैं, क्या आप इसी को प्यार कह रहे थे? प्यार ऐसा होता है? प्यार इसी चीज का नाम है? इसी कमीनेपन को आप प्यार कह रहे थे? कमीनेपन को ही प्यार कहते हैं? नहीं साहब! यह तो हमारा प्यार है। खबरदार! आइन्दा जो प्यार का नाम लिया तो? तो क्या कहेंगे? जो भी चाहे आप कह सकते हैं, पर इस कमीनेपन को प्यार मत कहना।
दुष्टों का प्यार!
अच्छा, गुरुजी! इस तरह के प्यार करने वालों के कुछ नाम बताइये? भाई साहब! मैं नाम तो नहीं बता सकता, पर आप उससे पूछ सकते हैं-भेड़िये से। कौन से भेड़िये से? जो खरगोश के बच्चों को प्यार करता है। भेड़िये से पूछना कि क्यों साहब! आप सबसे ज्यादा किसको प्यार करते हैं? हम झाड़ी में छिपे बैठे रहते हैं। वे जैसे ही आते हैं, हम उन्हें खट् से पकड़ लेते हैं और सेकण्डों में खा जाते हैं। आपको किससे प्यार है? पकौड़ियों से प्यार है। तो आप पकौड़ियों को क्या करते हैं? गऽऽप्-से मुँह में डाल लेते हैं। आपको किससे प्यार है? रेवड़ी से, जलेबी से। जलेबी से आप क्या करते हैं? भाई साहब! जैसे ही जलेबी मिलती है, झट से चबाकर उदरस्थ कर लेते हैं। तो फिर आप किससे प्यार करना चाहते हैं? पड़ोस की लड़की से प्यार करना चाहते हैं। तो फिर आप उसका क्या करेंगे? हम साहब! उसको चबाकर खत्म कर देंगे। उसको खा जायेंगे। आप ऐसा प्यार करेंगे? आप ऐसा प्यार करना चाहते हैं? दुष्ट कहीं के।
परमार्थ में निहित है आपका सच्चा स्वार्थ
परम पूज्य गुरुदेव ने इससे पूर्व कहा कि भावावेश नहीं है भक्ति। भक्ति का अर्थ है मोहब्बत। भक्ति पराधीनता नहीं है। भारत की दुर्दशा भक्ति का मर्म न समझने के कारण ही हुई। भक्ति का विकृत स्वरूप आया तो हम कायर हो गए, गुलाम हो गए। जो परावलम्बन की ओर ले जाय वह भक्ति घातक है, विकृत है। भक्ति का सही स्वरूप है ‘‘रसो वै सः’’। भगवान से आदर्शों से प्यार। जब सिद्धान्तों से प्यार हो जाता है तो सही भक्ति जीवन में आती है। रामनारायण जी का एक बड़ा सुन्दर उदाहरण पूज्यवर ने विगत अंक में प्रस्तुत किया था कि उनने सच्चाई को, सिद्धान्तों को जीवन में उतारा, कभी रिश्वत नहीं ली, सबका काम ठीक से किया तो बड़े से बड़े अधिकारियों ने उनकी मृत्यु के बाद उनके बच्चों को पढ़ाया। सारे बच्चे आय. ए. एस. हुए। यह है भक्ति का-आदर्शों से प्यार का चमत्कार। भक्तियोग का अर्थ है मोहब्बत। देना-अपनी भावनाएँ बाँटना। भक्ति में कुछ माँग नहीं होती। दुष्टों का लौकिक प्यार भक्ति नहीं होता। अब आगे पढ़ें।
अनड्यू एडवान्टेज
मित्रो! भक्ति को आप ऐसा ही प्यार कहना चाहते हैं? आप भगवान का ईमान खराब करेंगे, ताकि सृष्टि की व्यवस्था के लिए उसने जो मर्यादा, नियम, कायदे और कानून बना रखे हैं, उनका उल्लंघन हो। आप भगवान से यह चाहते हैं कि जिस सुप्रीम कोर्ट के जज के स्थान पर वह बैठा हुआ है, वहाँ वह आपकी सिफारिश करे और आपके ऊपर जो इल्जाम लगे हुए हैं, उनसे आपको रिहा करा दे। आप यही चाहते हैं न ?? अपने मित्र का और अपने बड़े का जो मान और पद न्यायाधीश के रूप में बना हुआ है, वह आप खराब कराना चाहते हैं? हाँ साहब! हम तो खराब कराना चाहते हैं। क्यों? क्योंकि इससे हमारा उल्लू सीधा होता है। हमारी मनोकामना पूरी होती है। अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए आप भगवान की इज्जत खराब करा रहे थे। भगवान के पद का दुरुपयोग करा रहे थे। भगवान को ऐसे काम करने के लिए उन्हें आप मजबूर कर रहे थे, जो उनको नहीं करने चाहिए। जो आपके कर्मों के हिसाब से ‘ड्यू’ नहीं हैं, आप ‘अन् ड्यू एडवाण्टेज’ लेना चाहते थे। हाँ साहब! हम अन्ड्यू एडवाण्टेज लेना चाहते थे अर्थात् मनोकामना पूरी कराना चाहते थे।
मनोकामना का अर्थ होता है-‘अनड्यू एडवाण्टेज’। अगर आपका ड्यू है, तो आपको मिलेगा। इसके लिए आप भगवान से झगड़ सकते हैं कि आपको देना चाहिए। देखिए, हमने ऐसा किया था और अब आप क्यों नहीं देते? मजदूर हमसे लड़ने के लिए खड़ा हो जाता है और कहता है कि देखिए साहब! हम आपके यहाँ चार दिन से काम कर रहे हैं और आप तनख्वाह नहीं देते। यह भी कोई तरीका है? आपने क्यों काम कराया? लाल-लाल आँखें लेकर आ जाता है और लड़ने के लिए उतारू हो जाता है और आप भी चाहें तो भगवान से लड़ने के लिए उतारू हो सकते हैं कि आप हमारी इस जिन्दगी के कौन होते हैं? हमारी मेहनत का फल आप क्यों नहीं देते? आप भगवान से लड़ सकते हैं। लेकिन आप ज्यों ही दीन होते हैं, गिड़गिड़ाते हैं, नाक रगड़ते है, तो यह आपकी कमजोरी होती है। आपका कॉन्शस यह समझता रहता है कि हम ‘अन्ड्यू एडवाण्टेज’ लेना चाहते हैं, जिसके कि हम हकदार नहीं हैं, जो हमको नहीं मिलना चाहिए। जो हमारे पुरुषार्थ से तालमेल नहीं रखता। जो हमारी योग्यता के अनुरूप नहीं है। जो हमारे पराक्रम-पुरुषार्थ से सम्बन्ध नहीं रखता। इस तरह की चीजें आप माँगना चाहते हैं।
सिद्धान्तों से प्यार
मित्रो! मैं आपको भक्ति के सिद्धान्तों को समझा रहा था और यह कह रहा था कि अगर आपके पास भक्ति आयेगी, तो आप सिद्धान्तों से प्यार करेंगे और जब आप सिद्धान्तों से प्यार करेंगे तब? तब आप निहाल हो जायेंगे। फिर आप समझिये कि आपका नाम सिद्धान्त से प्यार करने वाले सन्तों की परम्परा में दर्ज हो जायेगा। अगर आप सन्त परम्परा में देखना चाहें, तो वह मैं आपको बता दूँगा। अगर आप राजनेताओं का नाम जानना चाहें, तो मैं एक लिस्ट खड़ी कर दूँगा। किसकी? महामना मालवीय जी से लेकर सरदार पटेल तक, इतनी बड़ी लिस्ट बना दूँ कि जिसमें हर वह आदमी आ जायेगा, जो सिद्धान्तों के साथ प्यार करता रहा और उन्नत करते-करते कहाँ से कहाँ जा पहुँचा।
मित्रो! महामना मालवीय जी का नाम मुझे याद आ गया। वह हमारे दीक्षा गुरु थे। उन्होंने हमको जनेऊ पहनाया था। क्या है उनकी बात? उनकी बात यह है कि वे पहले बनारस में थे और वकालत करते थे। वकील थे। कालाकाँकर महाराज को ऐसे ही पण्डितों से, ज्ञान-ध्यान करने वालों से अच्छी मेल-मुलाकात रहती थी। कालाकाँकर महाराज का मालवीय जी से अक्सर मिलना-जुलना होता रहता था। वकालत के मामले में भी आते रहते थे। एक बार राजा साहब को मौज आ गयी। उन्होंने पूछा-क्यों वकील साहब। एक बात बताइये। क्या? आपकी वकालत में आमदनी क्या है? सच-सच बताना? उन्होंने साल भर का हिसाब देखकर बताया कि राजा साहब! दो सौ रुपया महीना हम कमा लेते हैं। बस, दो सौ रुपया? हाँ, दो सौ रुपया। अच्छा, तो मालवीय जी देखिए आप हमारे यहाँ आ जाइये। हम आपको ढाई सौ रुपये महीने दिया करेंगे। वकालत छोड़कर मालवीय जी ढाई सौ रुपये की नौकरी के लिए कालाकाँकर महाराज के पास चले गये।
व्यक्तित्व से बनें महान
यह है मालवीय जी का स्वरूप, लेकिन सिद्धान्तों से प्यार करने के कारण, न कि चन्दा वसूल करने के कारण। आदमी का वजन और व्यक्तित्व किससे बढ़ता है? सिद्धान्तों से। आदमी का वजन दुनिया में किसने बढ़ाया? सिद्धान्तों के पालन ने। सिद्धान्तों का पालन करने की वजह से मालवीय जी की हस्ती और व्यक्तित्व इतना बढ़ता हुआ चला गया। उन्होंने करोड़ों रुपया इकट्ठा कर दिया और उन करोड़ों रुपयों से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय बना दिया और भी जाने क्या से क्या कर दिया। हिन्दुस्तान की तवारीख में क्या से क्या हो गया। मैं उन सारे नामों को बताऊँ? सारे नाम एक से बढ़कर एक हैं। लेकिन आज लोगों के अन्दर चालाकी भरी हुई है। वे चालाकी से नेता हो जाते हैं, अभिनेता हो जाते हैं और इनके ऊपर हर आदमी धिक्कारता है। व्यक्तित्व का नेता बनने के लिए सुभाषचन्द्र बोस होना चाहिए। सुभाषचन्द्र बोस कहाँ तक पढ़े थे? जहाँ तक आप पढ़े हैं, वहीं तक सुभाषचन्द्र बोस पढ़े थे। आय.सी.एस. होने जा रहे थे। पर सब छोड़ दिया। क्यों साहब! कुछ तो करना पड़ा होगा? हाँ भाई साहब! सिद्धान्तों से प्यार करना पड़ा था उन्हें। नहीं साहब! वे राजनीति के नेता थे। राजनीति के ऊपर लानत। वे राजनीति से नहीं हुए थे महान। वे व्यक्तित्व से महान बने थे। आदमी के व्यक्तित्व को तो आप समझते ही नहीं कि व्यक्तित्व किसे कहते हैं? चरित्र किसे कहते हैं? आपको राजनीति मैं बता दूँगा। धर्मनीति मैं बता दूँगा। जिस क्षेत्र में भी आप जानना चाहें, मैं प्रत्येक क्षेत्र में बताता हुआ चला जाऊँगा।
पढ़ें महामानवों का इतिहास
मित्रो! आदमी का वजनदार व्यक्तित्व कैसे बनता है और वजनदार व्यक्तित्व की वजह से वह जनता के मध्य सम्मानित कैसे होता है और उनको जन सहयोग कैसे मिलता है? आपको मैं बता सकता हूँ। जन सहयोग मिलने के कारण से आदमी छोटी से छोटी हैसियत का होने पर भी ऊँची से ऊँची हैसियत तक कैसे पहुँचता हुआ चला जाता है, आप समझते क्यों नहीं? आपने इतिहास पढ़ा है या नहीं? आप इतिहास पढ़िए। नहीं साहब! हमने तो सब पढ़ा है। किसका पढ़ा है? वायसराय का पढ़ा है और मुसलमानों का इतिहास पढ़ा है। उनका मत पढ़िए। आप उनका इतिहास पढ़िए, जिनको हम महामानव कहते हैं। आप प्रत्येक क्षेत्र के महामानव-धार्मिक क्षेत्र के महामानव, राजनैतिक क्षेत्र के महामानव, विद्या के क्षेत्र के महामानव-किसी भी क्षेत्र के महामानवों का इतिहास पढ़िये और इतिहास में से एक नतीजा निकालिए। क्या चीज निकालें? यही कि उन्होंने कैसे सिद्धान्तों से प्यार किया था और सिद्धान्तों से प्यार करने की वजह से इतने प्रामाणिक होते चले गये कि जनसाधारण ने उन्हें असीम प्यार दिया। असीम प्यार ही नहीं दिया, वरन् असीम सहयोग भी दिया। असीम प्यार और असीम सहयोग पाकर छोटे-छोटे लोग महात्मा गाँधी हो गये, कबीर हो गये, बुद्ध हो गये, नानक हो गये और जाने क्या से क्या हो गये।
आदमी नहीं सिद्धान्तों से प्यार
मित्रो! मैं भक्ति के बाबत कह रहा था। मोहब्बत उसे कहते हैं, जिसमें हम सिद्धान्तों को प्यार करते हैं। जिनसे भी हमारा सम्बन्ध होता है, उनको भी हम प्यार करते हैं। हमारी यह नीयत रहती है कि इनको हम क्या चीज देंगे, क्योंकि हम उनको प्यार करते हैं। आपको हम प्यार करते हैं, इसलिए हमारे मन में जो बनावट होनी चाहिए, वह सिर्फ एक ही बनावट होनी चाहिए कि हम आपके लिए क्या त्याग कर सकते हैं? हमको आपके लिए क्या करना चाहिए? आपको ऊँचा उठाने के लिए क्या हम मददगार बन सकते हैं? हाँ, बन सकते हैं। पर हमको हर क्षण अपने आपसे यह पूछना चाहिए और जो हमारे लिए सम्भव हो, वह करना चाहिए। ठीक इसी तरीके से किसी महिला से, किसी लड़की से, किसी सम्बन्धी से आप मोहब्बत करते हैं, तो आपको निरन्तर एक ही विचार करना चाहिए कि उसका व्यक्तित्व और स्तर ऊँचा उठाने के लिए हम क्या कर सकते हैं? उसको प्रसन्न करने के लिए नहीं। आदमियों को प्रसन्न करने की बात मत सोचिए। आदमी बड़े बदमाश हैं। उनको प्रसन्न करने की कोशिश करेंगे तो आप मरेंगे। आदमियों को मत प्रसन्न कीजिए। वे बड़े बदकार हैं। नहीं साहब! हम अपने भतीजे को प्यार करते हैं और प्रसन्न करना चाहते हैं। इसलिए वह जिसमें प्रसन्न होगा, हम वही करना चाहते हैं। मत कीजिए भतीजे को प्यार। नहीं साहब! हम उसे प्यार करते हैं। आप उसे प्यार नहीं करते, वरन् वह जो चाहता है, आप वह करना चाहते हैं। हाँ साहब! हम वही करना चाहते हैं। जिसमें वह खुश हो सके। मित्रो! अगर आप लोगों को खुश करना चाहेंगे, तो आप अपनी आत्मा-परमात्मा को खुश नहीं कर सकते। आप अपनी आत्मा को खुश कीजिए और अपने परमात्मा को खुश कीजिए। दुनिया नाराज होती है, तो एक सिरे से अन्त तक नाराज होने दीजिए। मैं आपको यह क्या समझा रहा था? भक्ति के सिद्धान्त समझा रहा था। भक्ति की निशानी बता रहा था। भक्ति एक दृढ़ता है, भक्ति एक फिलॉसफी है। भक्ति एक आदर्श है। यह एक ऐसा आदर्श है कि अगर यह आपके जीवन में समाविष्ट हो सके, तो मैं आपसे कहता हूँ कि आप निहाल हो जायेंगे।
एक ही प्रश्रय भगवान का
मित्रो! मैंने कल आपको ज्ञानयोग के बाबत बताया था। ज्ञानयोग की दूसरी धारा के बाबत, गंगा-यमुना की धारा के बाबत तथा दूसरी धाराओं के बाबत जानकारी दिलायी थी। और आपसे यह कहा था कि आपको अपने सम्बन्ध में जानकारी होनी चाहिए। मैं यह जानता हूँ कि आपको बहुत जानकारी है। आप बी.ए. हैं, एम.ए. किया है, पीएच.डी. किया है। वह आपको मुबारक हो। आपके बारे में हमें बहुत जानकारी है। आपका जनरल नॉलेज बहुत है, लेकिन वह आपके किसी काम का नहीं है। क्यों? क्योंकि आप अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान तक नहीं कर सके। आपको यह तक पता नहीं चल सका कि हम कहाँ से आये हैं और हम कहाँ जा रहे हैं? आपको इस बात की भी जानकारी नहीं है कि कल-परसों के बाद अर्थात् शरीर त्यागने के बाद में आपका क्या होना है? भगवान के यहाँ आपसे एक ही सवाल पूछा जाना है। भगवान के दरबार में आपको जरूर पेश होना है, आप निश्चिन्त रहिए। वहाँ आपसे एक ही सवाल पूछा जाना है कि आपको जो जिन्दगी मिली थी, उसका आपने क्या किया? इस जिन्दगी से आपको क्या करना था? जिन्दगी से आपको यह काम करना चाहिए था कि अपूर्णता को पूर्णता में परिवर्तित करना।
क्या किया जिन्दगी का?
मित्रो! सारी जिन्दगी हम अपूर्णता में, चौरासी लाख योनियों में घूमते चले आये। अपूर्णता से पूर्णता में आने का एक ही रास्ता था-इनसानी जीवन। आप चाहते तो पूर्णता प्राप्त कर सकते थे, जिसको हम ‘मुक्ति’ कहते हैं। जिसको हम स्वर्ग कहते हैं, जिसको हम शान्ति कहते हैं। इसके लिए क्या करना चाहिए? आपको सिर्फ एक काम करना चाहिए था-अपने कषाय-कल्मष को धोकर साफ कर लेना चाहिए था। यही दो रुकावटें हैं-भगवान और इन्सान के बीच। उन्हें एक नहीं दो रुकावटें कह सकते हैं। यह एक ऐसी परिधि खड़ी हो गयी है, जिसमें भगवान उस परिधि के पीछे बैठे हैं और हम एक दूसरे की शक्ल नहीं देख सकते। हम एक दूसरे की सहायता नहीं कर सकते। वैसे तो हम बहुत नजदीक बैठे हुए हैं, पर बीच में वह कौन सी दीवार है, जो ईंट-चूने की बनी हुई है। कषाय की ईंटें और कल्मष के चूने से बनी हुई है, बस।
तप का अर्थ समझिए
मित्रो! भगवान को पाने के लिए क्या करना चाहिए? कुछ नहीं करना चाहिए। तप करना चाहिए? हाँ, तप कर सकते हैं। तप कैसे कर सकते हैं। तप करने का मतलब ब्लैकमेलिंग नहीं है। जैसा आप समझते हैं कि हम तप करेंगे, भूखे रहेंगे। हम पानी नहीं पियेंगे, हम रोटी नहीं खायेंगे। फिर आप क्या करना चाहते हैं? आप भगवान पर दबाव डालना चाहते हैं। हाँ साहब! हम भगवान पर दबाव डालने के लिए तप कर रहे थे। अच्छा, तो आप दबाव डालकर काम कराना चाहते हैं? हाँ, हम खाना नहीं खायेंगे, तो भगवान की नाक में दम हो जायेगी और भगवान की बड़ी निन्दा और बदनामी हो जायेगी। तब भगवान अपनी नाक कटने से बचाने के लिए, अपनी लाज बचाने के लिए हमारी मर्जी को पूरा कर देंगे। इसीलिए तप कर रहे थे। तप करने से आपका मतलब यही था? हाँ साहब! यही था। मित्रो! तप करने का यह मतलब नहीं हो सकता। तप करने से मतलब वह मशक्कत है, वह मेहनत है, जो कषाय और कल्मषों की दीवार को तोड़ने के लिए हमको अपने आपसे जद्दोजहद करनी पड़ती है। अपने आपको साथ में लड़ाई करनी पड़ती है। इसी का नाम तप है। पसीना बहाना इसी का नाम है। गरम करना इसी का नाम है। गर्मी इसी का नाम है। आप अपने अन्दर भरे हुए कषाय-कल्मषों के खिलाफ एक जेहाद खड़ी कर दें, एक महाभारत खड़ी कर दें। यह क्या हो गया? ज्ञान हो गया। ज्ञानयोग क्या है? ज्ञानयोग यह है कि हम पूर्णता को कैसे प्राप्त कर सकते हैं।
कषाय कल्मषों से मुक्ति
साथियो! एक और चीज है, जो हमारे फायदे में है। वह है हमारा स्वार्थ। हमारा सबसे बड़ा स्वार्थ होना चाहिए-जिन्दगी की पूर्णता। अगर आप स्वार्थी हैं, तो आपको एक ही स्वार्थ पूरा करना चाहिए और अपनी इसी जिन्दगी में उस स्थान पर जा पहुँचना चाहिए और वह सफलता प्राप्त कर लेनी चाहिए, जो सबसे ऊँची सफलता कहलाती है। सबसे ऊँची सफलता क्या है? आप इन्सान से भगवान बनें, नर से नारायण बनें, पुरुष से पुरुषोत्तम बनें। लघु से महान बनें। यह आपकी सबसे बड़ी सफलता है और आप यह कर सकते हैं। इसके लिए क्या करना पड़ेगा? आपको अपनी क्षुद्रताओं से लड़ना पड़ेगा। आपको अपनी क्षुद्रताएँ घटानी पड़ेंगी और अपनी महानताएँ बढ़ानी पड़ेंगी। इसी को मैंने कषाय और कल्मषों का निराकरण कहा था। अगर आपको आत्मज्ञान आ जाय, तो आपके भीतर से एक ऐसी हूक उठेगी, जो आपको बेचैन कर देगी। और यह कहेगी कि हमको पूर्णता की ओर चलने के लिए अपनी गतिविधियों और कार्य प्रणालियों का निर्माण ऐसा करना चाहिए जिससे कि हमारे भीतर से अपूर्णता को दूर करके पूर्णता प्राप्त करने का अवसर मिल सके। अगर आपके भीतर ज्ञान नहीं आये, तब? फिर आपको यह जञ्जाल जकड़े रहेंगे।
भौतिक नहीं आत्मज्ञान पाएँ
मित्रो! संसार में इतना बड़ा जञ्जाल है कि आप इसे कहाँ तक पूरा कर सकेंगे। हम पुस्तकें पढ़ते हैं? क्यों पढ़ते हैं आप? साहब! हम तो फिजिक्स पढ़ते हैं। बेटे, फिजिक्स इतना बड़ा विषय है कि आप जैसे तीन सौ अस्सी आदमी जन्म से मृत्यु तक इसे पढ़ें, तो भी नहीं पढ़ सकते। जिन लोगों ने इस विषय को ढूँढ़ लिया है, उसको आप सारी जिन्दगी तक क्या पढ़ेंगे। नहीं साहब! हम बड़े ज्ञानवान हैं। बड़े आये ज्ञानवान बनने वाले। मित्रो! क्या करना चाहिए? हम जिसको आत्मज्ञान कहते हैं, जिसको हम ज्ञानयोग की बाबत कह रहे थे। उस ज्ञानयोग की एक किरण जब आपके भीतर आएगी, तो आपको स्वयं के बारे में विचार करना पड़ेगा कि इनसानी जिन्दगी जो हमारे लिए सबसे बेहतरीन उपहार था, सबसे नायाब मौका था, इसका हम अच्छा उपयोग कर सकते थे क्या? आप विचार करेंगे तो आपको हजार रास्ते मिलेंगे। अगर आप विचार नहीं करेंगे, तो सब रास्ते बन्द मिलेंगे। नहीं साहब! हम तो उन्नति कर सकते हैं और हमारे घर की परिस्थितियाँ ठीक नहीं हैं। इस तरह आपको हमेशा परिस्थितियों की शिकायतें करनी पड़ेंगी। आप जन्म भर परिस्थितियों की शिकायतें करते चलेंगे और जन्म भर यह बहाने बनाते चलेंगे कि हमको तो फुर्सत ही नहीं मिली थी। परिस्थितियाँ ही नहीं मिली थीं। बेटे, ये बेकार के बहाने हैं। इनमें कोई दम नहीं है। जब तक आपमें आत्मज्ञान का अभाव रहेगा, तब तक आप हमेशा शिकायतें करते रहेंगे। अगर आपके पास ज्ञान आया, तो आपके मन में से एक और बात उठ सकती है और उस चीज का नाम है परमार्थ।
सर्वोच्च स्वार्थ
इस तरह एक है स्वार्थ, जिसका अर्थ है-अपने आपको पूर्ण बना लेना। उन्नति करनी है तो ढंग की उन्नति कीजिए। नहीं साहब! अपना मकान बना लेंगे, ग्यारह रुपये की तरक्की हो जायेगी और हमारी नौकरी में बढ़ोत्तरी हो जायेगी। बेटे, यह क्या तरक्की है? तरक्की करनी है, तो पूरी कीजिए न और फिर भगवान के मुकाबले जाइये न? सन्तों के मुकाबले पहुँचिए न। देवताओं के मुकाबले पहुँचिए न? नहीं साहब! हमारी बेइज्जती हो गयी है और हमसे छोटे आदमी सब-आर्डिनेट का प्रमोशन हो गया और हमारा नहीं हुआ। तो फिर आप अपना वह प्रमोशन कीजिए, जिसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। बड़ी बातों को आप समझते नहीं हैं और छोटी-छोटी बातों के लिए फिरते हैं। मित्रो! अगर आपको अपना स्वार्थ साधना है, तो वह एक बात पर टिका हुआ है, जिसको अक्ल कहते हैं। नहीं साहब! अक्ल तो बहुत तेज है। हम फर्स्ट डिवीजन पास हो गये, मैं उस वक्त की बात नहीं पूछता। मैं तो उस अक्ल की बात पूछता हूँ, जिसको हम प्रज्ञा कहते हैं। जिसकी गायत्री मंत्र में उपासना की गयी है। प्रज्ञा की बाबत एक और बात है। कौन सी बात? आपका परमार्थ, जिसको हम परम स्वार्थ कहते हैं। परम स्वार्थ क्या हुआ? परमार्थ। परमार्थ वह है जो भगवान के लिए किया जाता है। एक अपने लिए करना और दूसरा भगवान के लिए करना। भगवान की प्रसन्नता के लिए, भगवान पर एहसान जताने के लिए, भगवान के कर्ज-ऋण चुकाने के लिए क्या हम कुछ कर सकते हैं? क्या कर सकते हैं। एक काम कर सकते हैं कि भगवान की इस खूबसूरत दुनिया को सुन्दर बनाने के लिए, समुन्नत बनाने के लिए, श्रेष्ठ बनाने के लिए हम अपना पसीना बहा सकते हैं। और अपनी अक्ल लगा सकते हैं और अपनी कमाई का हिस्सा लगा सकते हैं।
कैसे करें भगवान को प्रसन्न
मित्रो! भगवान के लिए हमको लगाना चाहिए। आप धूपबत्ती जलाइए, चाहे न जलाइए। भाई साहब! धूपबत्ती आपके काम आयेगी। महीने भर में आप पच्चीस पैसे बेकार गवाँ देते हैं। पच्चीस पैसे की एक कप चाय पिया कीजिए। एक कप चाय से गर्मी आ जायेगी, पसीना आ जायेगा। लेकिन धूपबत्ती जला देने से आपको कोई फायदा नहीं है। नहीं साहब! धूपबत्ती से हम भगवान को प्रसन्न करेंगे। आप भगवान को प्रसन्न नहीं कर सकते। भगवान को धूपबत्तियों से कोई ताल्लुक नहीं है। तो फिर आप क्या काम करेंगे? एक ही काम है। अगर आप भगवान को प्रसन्न करना चाहते हैं, आत्मा को, मन को प्रसन्न करना चाहते हैं, तो अपने जीवन का स्तर ऊँचा बनाइये। अगर आपमें ज्ञान, अक्ल हो, तो तब अक्ल का दूसरा इस्तेमाल करें।
भगवान की हमसे अपेक्षाएँ
मित्रो! भगवान की भी जरूरत है। भगवान से आपकी भी कुछ जरूरतें हैं, कुछ रिक्वायरमेंट्स हैं। आपकी भी भगवान से कुछ शिकायतें हैं। लेकिन एक दिन मैंने भगवान जी से पूछा कि इंसान से आपकी भी तो कुछ आवश्यकताएँ नहीं हैं? उन्होंने कहा कि ‘हाँ। इन्सान से हमारी भी कुछ माँगें हैं।’ क्या माँगें हैं? उन्होंने कहा-‘जिस दिन आपको पैदा किया था, तो बस एक काम के लिए पैदा किया था कि आप उसकी खूबसूरत दुनिया को, उसकी बनायी हुई दुनिया को ज्यादा सुन्दर, ज्यादा समुन्नत, ज्यादा श्रेष्ठ बनाने के लिए अगर आप कुछ योगदान कर सकते हों, तो करें।’ भगवान ने आपको एक असिस्टेण्ट के रूप में, एक इंञ्जीनियर के रूप में, एक सब-आर्डिनेट के रूप में, एक प्राइवेट सेक्रेटरी के रूप में बनाया था, ताकि हमारी अक्ल का, हमारे जैसा, हमारी योग्यताओं-विभूतियों से भरा हुआ हमारा एक उत्तराधिकारी पैदा होगा। वह हमारे राज्य, हमारी हुकूमत और हमारी दुनिया को ज्यादा सुन्दर और समुन्नत बनाने मे हमारा हाथ बँटायेगा। परन्तु आपको तो भगवान से एक ही अपेक्षा है कि आप भगवान को धूपबत्ती चढ़ायेंगे। भाई साहब! एक दिन हमने भगवान से पूछा-‘क्यों साहब! आपको कितनी धूपबत्तियों की अपेक्षा है?’ कहिए तो हम किसी आदमी से धूपबत्ती का एक बण्डल पार्सल से भिजवा दें? भगवान जी ने कहा-‘गुरु जी! आप लोगों से कह देना कि हमें धूपबत्तियों की कतई जरूरत नहीं है।’
भगवान का संदेशा
मित्रो! हमने फिर एक दिन भगवान जी से पूछा-‘क्यों साहब! लोगों का यह ख्याल है कि सवा रुपये का प्रसाद बाँटने से आपका गुजारा हो जाता है और आप प्रसाद खा करके प्रसन्न हो जाते हैं?’ भगवान जी ने कहा-‘लोगों से आप कह देना कि यह सब बेकार है। प्रसाद बाँटने से या न बाँटने से हमें कोई शिकायत नहीं है। हमको प्रसाद खाना होगा, तो हम किसी शक्कर की फैक्ट्री में जा बैठेंगे। शक्कर की फैक्ट्री में चूहे बन जायेंगे, चीटी बन जायेंगे और अपनी मनमर्जी की चाहे जितनी शक्कर खा लिया करेंगे। लोगों को पैसा खराब करने की और प्रसाद बाँटने की कोई जरूरत नहीं है।’ हमने कहा-‘साहब! लोग तो नहीं मानते। वे तो कहते हैं कि हम सवा रुपये का प्रसाद बाँटेंगे। या मंगल के दिन हनुमान जी को मिठाई चढ़ा देंगे, तो हनुमान जी खुश हो जायेंगे।’ तो फिर भगवान जी ने चुपके से कान में कहा-‘‘आप औरों से तो मत कहना, पर हमारी ओर से संदेश दे देना कि हनुमान जी ने यह कह दिया है कि हमको डायबिटीज हो गयी है। आप शक्कर की गोलियाँ खिलायेंगे तो हम और ज्यादा बीमार हो जायेंगे, तो लोग मान जायेंगे। पागलों से, लोगों से आप यही कहना।’’ इन पागलों से आप यही कहना कि जो देवी को बकरा खिला करके, हनुमान जी को चने के लड्डू खिला करके और भगवान जी को चाँदी के छत्र चढ़ा करके उन्हें प्रसन्न करना चाहते हैं, उनसे कहना कि पागलो! गहराई में चलो, वास्तविकता को समझो।’’
दुनिया और अच्छी बनाइए न!
मित्रो! भगवान क्या चाहते हैं? सिर्फ एक ही चीज चाहते हैं कि उस भगवान की दुनिया को सुंदर और समुन्नत बनाने के लिए, खुशबूदार बनाने के लिए आप क्या कुछ कर सकते हैं? साहब! हम क्या कर सकते हैं? इस दुनिया को सुन्दर बनाने के लिए आप बहुत कुछ कर सकते हैं। आपके पास पैसा न हो, तो कोई बात नहीं है। आप अपना पसीना खर्च करके हजारी किसान के तरीके से सारे बिहार में आम के बगीचे लगा सकते हैं और अपने आपको अजर-अमर बना सकते हैं। पिसनहारी के तरीके से अपनी मेहनत और मशक्कत लगाकर तथा पसीना बहाकर दुनिया को सुन्दर बनाने के लिए आप बहुत काम कर सकते हैं। पीड़ा और पतन से दुनिया बेहाल है। आप दुनिया के मानसिक पतन और शारीरिक पीड़ा तथा अभाव और अज्ञान को दूर करने के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। अपनी अक्ल के सहारे, अपनी समझ के सहारे, अपने परिश्रम के सहारे, अपने पैसे के सहारे आप इस मद में बहुत कुछ कर सकते हैं।
खबरदार! जो यह कहा तो!
नहीं साहब! हमारे पास तो पैसा नहीं है। पैसा नहीं है, यह तो भाई साहब मत कहिए। आप तो यों कहिए कि हमारा दिल नहीं है। ऐसा शब्द कहेंगे तो मैं मान लूँगा। आप यह बताइये कि आपके कितने बच्चे हैं। साहब! तीन बच्चे हैं। तो मैं यह पूछता हूँ कि अगर भगवान आपको एक और बच्चा दे दे, तो आप उसका पालन करेंगे कि नहीं? इस चौथे बच्चे को आप जिन्दा रखेंगे या मारकर फेंक देंगे? नहीं साहब! उसको भी जिन्दा रखेंगे। हम जो खायेंगे, वह उसे भी खिला देंगे, कपड़ा पहना देंगे, ब्याह-शादी भी कर देंगे। जब आप चौथे बच्चे का पालन कर सकते हैं, उसे रोटी दे सकते हैं, उसी गरीबी में से, तो आप एक हिस्सा भगवान को क्यों नहीं दे सकते? कृपण कहीं का, निष्ठुर कहीं का। फिर बार-बार यह क्यों कहता है कि कंगाली में आ गया। जब कंगाली में आ गया है, तो फिर रोटी कैसे खाता है? बड़ा आया कंगाली में आने वाला।
हो इस स्तर की भक्ति
मित्रो! भगवान के लिए हम प्रत्येक परिस्थिति में कुछ कर सकते हैं। हम गरीबी में भी कुछ कर सकते हैं। हम व्यस्त जीवन में भी कुछ कर सकते हैं। हम अभाव में भी कुछ कर सकते हैं, दरिद्र होकर भी कुछ कर सकते हैं। हम शरीर से असमर्थ होने पर भी कुछ कर सकते हैं। महिला होकर भी कुछ कर सकते हैं। देश के लिए, धर्म के लिए, समाज के लिए, संस्कृति के लिए अर्थात् भगवान के लिए हमें कुछ न कुछ जरूर करना चाहिए। अगर आपके भीतर इस तरह की भक्ति उत्पन्न हो, तो मैं यह कहूँगा कि आप भगवान के भक्त हैं। आप भगवान के परायण हैं अर्थात् आपने भक्ति करना जान लिया है और भगवान को कुछ देना सीख लिया है। आप अपने आपको दीजिए, ताकि आप अजर-अमर बन सकें और जीवन की पूर्णता को प्राप्त कर सकें। भगवान को आप दीजिए, ताकि उसकी दुनिया को ज्यादा समुन्नत, ज्यादा शानदार और ज्यादा श्रेष्ठ बनाने में समर्थ हो सकें। इसको हम चरित्रनिष्ठा और समाजनिष्ठा कहते हैं। समाज निष्ठा यानि भगवान की पूजा अर्थात् चरित्रनिष्ठा। आत्म साक्षात्कार चरित्र निष्ठा के ऊपर निर्भर है।
ज्ञानवान-भक्तिवान
मित्रो! यह क्या चीज है? यह चरण नम्बर एक है ज्ञान का और चरण नम्बर-दो? आपके भीतर से जब ज्ञान की धारा उदय होगी, तो दो चीजें आपके सामने खड़ी हो जायेंगी। रोटी भी जरूरी है, कपड़ा भी जरूरी है, ठीक है। पेट भी जरूरी, औलाद भी जरूरी-ये भी ठीक है। शरीर को सुविधा भी जरूरी है, मनोरञ्जन भी जरूरी है-ये भी ठीक। सब ठीक है, लेकिन यह भी ठीक है कि आपकी मौलिक आवश्यकताएँ, सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ दो हैं। कौन-कौन सी दो हैं? एक आवश्यकता वह है जिसमें हम अपना आत्मकल्याण करते हैं और दूसरी वाली हमारी आवश्यकता वह है, जिसमें हम लोक कल्याण करते हैं। लोक कल्याण और समाज कल्याण करने के लिए जब आपके भीतर से उमंग उत्पन्न हो, तो मैं कहूँगा कि आप ज्ञानवान हो गये और आप भक्तिवान हो गये। ‘‘ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय।’’ इन सिद्धान्तों को अगर आप हृदयंगम कर लें, तो आपका ज्ञानयोग सार्थक और आपका भक्तियोग सार्थक है।
विडम्बनाओं से बाहर आएँ
साथियो! अगर आपने ऐसा न किया, तब ठीक है। विडम्बनाएँ तो चल ही रही हैं, मजाक तो चल ही रहा है, मखौल तो चल ही रहा है, दिल्लगीबाजी तो चल ही रही है, आप भी इसमें शामिल हो जाइये। बहुत से आदमी हैं दिल्लगीबाज, भगवान का मखौल उड़ाने वाले, आत्मा का मखौल उड़ाने वाले, परमात्मा का मखौल उड़ाने वाले। छोटे-छोटे कृत्यों, कर्मकाण्डों के आधार पर अपने मन को बहलाने वाले ढेरों के ढेरों आदमी भरे पड़े हैं, आप भी उन्हीं में शामिल हो जाइये। लेकिन अगर आपको शामिल न होना हो और आपको वास्तविकता के नजदीक जाना हो, गायत्री माता का वास्तविक स्वरूप समझना हो, गायत्री माता की वास्तविक कृपा की आवश्यकता हो। गहरी और तात्त्विक उपासना करनी हो, तो मैं आपसे कल भी निवेदन कर रहा था और आपसे आज भी जोरदार शब्दों में निवेदन करूँगा कि आपको भक्तियोग का अनुयायी होना चाहिए और आपको ज्ञानयोग का अनुयायी होना चाहिए।
योग की त्रिवेणी
मित्रो! तीसरा वाला एक और चरण रह गया है। दो चरण मुख्य हैं। तीसरा इनको मिला देने से बन जाता है। गंगा, यमुना दो मुख्य हैं। इसी तरह ज्ञान और भक्ति दो मुख्य हैं। इन दोनों का जब समन्वय हो जाता है, तो एक और नदी बन जाती है, जिसको हम ‘सरस्वती’ कहते हैं। जिसको हम ‘कर्मयोग’ कहते हैं। ‘कर्मयोग’ क्या है? सैद्धान्तिक, भावनात्मक और बौद्धिक-इन तीनों का जब समन्वय हो जाता है, तो हमारे व्यवहार में और आचरण में जो बात बन जाती है, वह ‘कर्मयोग’ कहलाती है। मूल धारायें दो ही हैं। गंगा और यमुना दो ही हैं। दिन और रात दो ही हैं, लेकिन दिन और रात को मिला देने से संध्या हो जाती है। ज्ञानयोग और भक्तियोग-दो ही योग हैं। इन दोनों को मिला देने से ‘कर्मयोग’ बन जाता है। इन सिद्धान्तों और भावनाओं का समन्वय करने से जब हम अपने व्यावहारिक जीवन में उन्हीं आदर्शों को और सिद्धान्तों को स्थान देते हैं, तो हम ‘कर्मयोगी’ कहलाते हैं। मित्रो! ‘कर्मयोग’ के बाबत रह गया, इस बाबत फिर बताऊँगा।
आज की बात समाप्त।
ॐ शान्तिः
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
त्रिपदा का अनन्त विस्तार
देवियो, भाइयो! गायत्री का नाम ‘त्रिपदा’ भी रखा गया है। यह किस उद्देश्य से रखा गया है? इसकी तीन धारायें प्रख्यात हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान् का जो स्वरूप प्रकट हुआ था, उसे हम सत्, ‘चित्’, और ‘आनन्द’-इन तीन शब्दों में व्याख्या कर सकते हैं। भगवान क्या हो सकता है? भगवान क्या होना चाहिए? भगवान का स्वरूप कैसा होना चाहिए? इस बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए आपको यह जानना होगा कि भगवान सत्, चित् और आनन्द है। प्रकृति कैसी है? यह तीन तत्त्वों के ऊपर टिकी हुई है, जिसके नाम हैं-सत, रज, तम। प्रकृति की यह तीन मूल अवस्थायें हैं। पंचतत्त्व इसके बाद में पैदा होते हैं। पंचतत्त्वों के पैदा होने से पहले ‘सत’, ‘चित’, ‘आनन्द’ और ‘सत’, ‘रज’, ‘तम’ आते हैं। पंचतत्त्वों का प्रकटीकरण इसके बाद हुआ है। पंचप्राणों का जो प्रकटीकरण हुआ है, वह सृष्टि के मूल में दूसरी चीजें हैं, जिनको हम ‘सत्यम्’, ‘शिवम्’, ‘सुन्दरम्’ कहते हैं। इस सृष्टि में तीन शक्तियाँ हैं। ये ब्रह्मा, विष्णु और महेश के नाम से प्रख्यात हैं। इन तीन शक्ति धाराओं को, जो गायत्री मंत्र के अंतर्गत सन्निहित हैं, तीन देवियों के नाम से-सरस्वती, लक्ष्मी और काली के नाम से बताया गया है। तीन अवस्थायें हैं-पैदा होना, विकसित होना और पतन होना अर्थात् समाप्त हो जाना। यह तीन अवस्थायें हैं। इस तरह त्रिपदा गायत्री का बहुत विस्तार है।
गायत्री उपनिषद् और सावित्री उपनिषद् में इसीलिए तप का बहुत विस्तार किया गया है। तप क्या हो सकता है? तीन धारायें क्या हो सकती हैं? गायत्री का स्वरूप क्या हो सकता है? यहाँ इतना तो समय नहीं है कि मैं सारी की सारी फिलॉसफी और तत्त्वज्ञान आपको अभी समझाऊँ, जिससे आप यह समझ पायें कि ऋषियों ने गायत्री को इतना महत्त्व क्यों दिया और उसके कलेवर का विस्तार करते-करते तीनों वेद क्यों बना दिये? ‘त्रैगुण्यां विषयः वेद विस्तारः’। नहीं साहब! तीन नहीं, चार वेद हैं। बेटे, वेद तीन ही हैं। सामवेद तो ‘सांग’ है-गायन है। सामवेद में कुल मिलाकर स्वयं के ग्यारह-बारह मंत्र हैं और बाकी जो इतना बड़ा वेद है, उसमें तो उसके नोट्स-अंग दिये हुए हैं। तीनों वेदों के मंत्रों को कैसे गाया जाना चाहिए? उसका ‘म्यूजिक’ क्या हो सकता है? सामवेद में यही सब कुछ है। सामवेद में अपना कोई मंत्र नहीं है। तीनों वेदों का समन्वय है।
त्रिपदा से तीन वेद बने
इस तरह वेद तीन हैं और ये भी त्रिपदा गायत्री के तीन चरण से सम्बन्ध रखते हैं। आपको कल मैं ज्ञान की तीन धारायें समझा रहा था, जो आदमी की चेतना से सम्बन्धित हैं। अभी मैं आपको सृष्टि का क्रम बता रहा था। अब मैं आपको सृष्टि का क्रम न बताकर आदमी की गरिमा से सम्बन्धित बातें बताऊँगा कि आदमी का उत्थान, आदमी का विकास कैसे हो सकता है और आदमी को शान्ति कैसे उपलब्ध हो सकती है। गायत्री के जिस तत्त्वज्ञान से यह सम्बन्धित है, उनको हम ज्ञानगंगा कहते हैं। गंगा का जन्म भी उसी दिन हुआ था, जिस दिन गायत्री का जन्म हुआ। दोनों का जन्म एक ही दिन हुआ है। गंगा क्या है? गंगा का एक स्वरूप वह है जो यहाँ जमीन पर बहती है। जिसने मरों का, दुष्ट-पापियों का उद्धार कर दिया, जीवों के पाप नाश कर दिये। खेती-बाड़ी में जो पानी देती है। भौतिक दृष्टि से भी यह गंगा लाभदायक है। गंगा में अगर पानी न हुआ होता, तो गंगा-यमुना का दायरा-जिसको हम आर्यावर्त कहते हैं, ब्रह्मावर्त कहते हैं। जिसको हम पांचाल कहते हैं, पाटलिपुत्र कहते हैं। यह देशों का बड़ा समन्वय है। बिहार से लेकर बंगाल तक का सारा का सारा इलाका इसी के आँचल में सिमटा हुआ है। अगर गंगा जमीन पर न आयी होती, तो खुशहाली की दृष्टि से गरमी से यह कंगाल रह गया होता। पानी नहीं मिलता, तो फिर हम क्या कर सकते थे? जहाँ पानी नहीं मिलता, वहाँ का क्या हाल हो रहा है? रेगिस्तानों में क्या हाल हो रहा है? जैसलमेर में क्या हाल हो रहा है? रेगिस्तान में जहाँ पानी नहीं है, वहाँ आप देख ही रहे हैं। अगर गंगा न आती तब हरिद्वार का भी यही हाल रहा होता।
तीर्थ और मेले भी यहीं गंगा तट पर
मित्रो! गंगा पृथ्वी पर संपत्ति लायी है, समृद्धि लायी हैं। खुशहाली लायी है। सुषमा लायी है। हरियाली लायी है। गंगा जहाँ भी बही है, वहाँ उसने आध्यात्मिकता की दृष्टि से तप करने का मौका दिया है। हिमालय के नजदीक, हिमालय के किनारे हमारे तीर्थ बने हुए हैं। हरिद्वार में तीर्थ बना हुआ है। उत्तरकाशी में तीर्थ बना हुआ है। गंगोत्री में तीर्थ बना हुआ है। अगर आप गंगा किनारे चलेंगे, तो पायेंगे कि अनेकों अन्यान्य तीर्थ बने हुए हैं। प्रयाग बना हुआ है, काशी बनी हुई है और दूसरे तीर्थ बने हुए हैं। यहाँ से वहाँ तक-गोमुख से लेकर गंगासागर तक तीर्थों की बड़ी शृंखला बनी हुई है। उससे आदमी को जीवन में आध्यात्मिक लाभ मिला। और मरने के बाद में? मरने के बाद में भी बहुत कुछ मिला। मरने के बाद लोग हड्डियों और भस्म को गंगा जी में बहा देते हैं। लोगों का विश्वास है कि मरने के बाद में गंगा आदमी को स्वर्ग में ले जाती है। मालूम नहीं यह कहाँ तक सही है, लेकिन जहाँ तक हो, लोगों का विश्वास जरूर है। यह हो भी सकता है। गंगा जी के किनारे कुम्भ के मेले होते हैं। एक हरिद्वार में कुम्भ मेला होता है। एक इलाहाबाद में कुम्भ का मेला होता है। चार कुम्भों के मेले में दो इन्हीं स्थानों में पाये जाते हैं और दो अन्य स्थानों (नासिक एवं उज्जयिनी) पर चले जाते हैं। कुम्भ मेले के सम्बन्ध में पचास परसेंट धार्मिक कृत्यों का क्रम गंगा किनारे है, पचास परसेंट में सारा भारत है।
दूध की गंगा-गायत्री
गंगा की अपनी महत्ता है, लेकिन जब गंगा, यमुना और सरस्वती-इन तीनों का मिलन हो जाता है, संगम हो जाता है, तो इसकी महत्ता अपने आप में और भी विशिष्ट हो जाती है। गायत्री के बारे में भी यही बात है। यह ज्ञान की गंगा है। एक गंगा गोमुख से निकलती है, जिसे भगीरथ ने तप के द्वारा स्वर्ग से उतारा था। वह स्वर्ग की गंगा कौन सी थी? भाई साहब! वह दूध की गंगा है और यह पानी की गंगा है। पानी की गंगा अलग है और दूध की गंगा अलग है। दूध की गंगा कैसी होती है? हमने नहीं देखी है। अगर देखी होती तो फिर ढाई रुपये किलो आपको सपरेटा का दूध नहीं लेना पड़ता फिर मक्खन निकला हुआ दूध नहीं पीना पड़ता। फिर तो दूध की गंगा में से ही भर लेते। नहीं भाई साहब! दूध की गंगा हो सकती है? हाँ, हो तो सकती है, पर यह विचारपरक है, बुद्धिपरक है। वह इस तरह की नहीं है, जिसमें स्नान किया जा सके। स्नान किया भी जा सकता है, पर उसमें अन्तरात्मा स्नान कर सकती है। इसको हम गायत्री कहते हैं।
उपासना का मूल क्या?
गायत्री क्या है? गायत्री वास्तव में ज्ञान की गंगा है। गायत्री फिलॉसफी है। गायत्री क्रिया है। क्रिया की जान-पहचान आपको है। क्रिया उसका फल है। क्रिया उसका फूल है। जल अलग है, फूल अलग है। भाई साहब! आप समझते क्यों नहीं? नहीं साहब! इसमें फूल आते हैं, फल आते हैं। हाँ, इसमें फूल भी आते हैं, फल भी आते हैं, यह बात आपकी सही है। सिद्धि आती है, चमत्कार आते हैं, यह बात भी बिलकुल सही है, लेकिन आपको यह मालूम होना चाहिए-कि फल और फूल जहाँ से आते हैं, उसके नीचे भी कोई चीज है। उसके नीचे तना और उसके नीचे जड़ें हैं। आपको यह जानकारी होनी चाहिए कि अगर जड़ नहीं होगी, तो फूल कहाँ से आयेगा? तना नहीं होगा, तो भी फूल नहीं आयेगा। अतः जड़ें होनी चाहिए, तना होना चाहिए। आप जड़ और तने का मूल्य नहीं समझ पाते। नहीं साहब! हम फूल को समझते हैं, फल को समझते हैं, सिद्धि को समझते हैं, चमत्कार को समझते हैं। गायत्री माता की कृपा को समझते हैं। गायत्री माता के अनुग्रह को समझते हैं। गायत्री माता के असर को समझते हैं। फिर जड़ को क्यों नहीं समझते? जड़ को आप समझना ही नहीं चाहते। पहले देखिये, समझिये कि जड़ क्या होती है?
मित्रो! जड़ वह है, जिसे मैं आपको समझा रहा था। जड़ में मैं यह समझा रहा था कि गायत्री उपासना क्या है? गायत्री-उपासना का क्रियायोग मैं फिर कभी समझाऊँगा कि क्रियायोग तीन बातों पर टिका हुआ है-नामोच्चारण, ध्यान-दो और पूजन-तीन। सारी की सारी उपासनाओं की क्रियाएँ इसी में सीमित रह जाती हैं। इन तीन क्रियाओं के अतिरिक्त बाकी कोई भी क्रिया कहीं भी नहीं है। एक क्रिया ध्यान की है, जिसमें नादयोग किया जाता है। सारे के सारे योग ध्यान में आ जाते हैं। दूसरी क्रिया उच्चारण की है। इसमें आपका रामायण पाठ भी आ जाता है, हनुमान चालीसा भी आ जाता है। गीता पाठ आ जाता है। गायत्री का जप आ जाता है। राम नाम का जप आ जाता है। सब आ जाते हैं नामोच्चारण में। एक प्रक्रिया और है जिसे हम ‘प्रतीक पूजन’ कहते हैं। प्रतीक पूजन किसे कहते हैं? प्रतीक पूजन में चावल चढ़ा दिया, अक्षत चढ़ा दिया, जल चढ़ा दिया, प्रतिमा को धूप, दीप नैवेद्य अर्पित कर दिया, हवन कर दिया। वस्तुओं के माध्यम से जो उल्टी-पुल्टी प्रक्रिया की जाती है, उस सारी की सारी प्रक्रिया को ‘प्रतीक-पूजन’ कहते हैं। इस तरह सारे के सारे क्रियापक्ष तीन हैं। इसे हम बाद में समझा देंगे। पहले मैं जड़ की बात समझाना चाहता हूँ, जिसे आप समझना नहीं चाहते।
प्रतीक पर मत जाइए
हाँ साहब! आप पहले फूल की बात बता दीजिए, फल की बात बता दीजिए। बेटे फल और फूल की बातें आपके लिए बेकार हैं। क्रियापक्ष बाहरी है। यह प्रारम्भिक नहीं है। खेती की, फसल की काट-छाँट जरूरी है, पर पहली बात है जमीन! जमीन नहीं होगी, तो क्या आप बगीचा लगा सकते हैं? नहीं लगा सकते। पानी का इन्तजाम पहला है, खाद का इन्तजाम पहला है, जमीन का इन्तजाम पहला है। नहीं साहब! पहले यह बताइये कि किसान बुवाई कहाँ से करता है। निराई कहाँ से करता है? किसान पत्तों की काट-छाँट कैसे करता है? रखवाली कैसे करता है? भाई साहब! यह सब बातें हम पीछे बतायेंगे, पहले हमको यह बताने दीजिए कि किसान को और माली को जमीन की जरूरत पड़ती है। उसके जुताई की जरूरत पड़ती है। जुताई न हो, तो क्या हर्ज है? पानी की जरूरत पड़ती है। नहीं साहब। पानी-वानी सब बेकार है। पहले तो आप यह बताइये कि किसान जो फूल लगाता है, वह उसकी कलम कैसे उगाता है? कलम उगाना हम बता सकते हैं, पर इस बारे में आप जल्दबाजी मत कीजिए। नहीं साहब! आप बताइये कि कलमी आम कैसे आता है?
चमत्कार के मर्म को जानिए
बेटे कलमी आम लगाना हम तब बतायेंगे जब तुम्हारी यह बहस खत्म हो जायेगी कि जमीन को ठीक कैसे किया जा सकता है। जब तक जमीन को ठीक नहीं किया जाता तो कलमी आम को कहाँ पर लगायेगा? नहीं साहब! कलमी आम की विधि बता दीजिए, कलमी आम को काटना बता दीजिए। बेटे, यह सब क्रियाएँ पीछे बता देंगे। नहीं साहब! क्रियायोग बता दीजिए, ताकि हमको कोई चमत्कार दिखाई पड़े। बेटे, क्रियायोग में कोई चमत्कार नहीं है। जप करने में कोई चमत्कार नहीं है। नहीं साहब! जप में बहुत चमत्कार है। रत्ती भर भी चमत्कार नहीं है। समय खराब करने के अलावा जप में कुछ भी नहीं है। नहीं साहब! जप में तो बहुत फायदा है। हाँ फायदा तो है, पर तब, जब आप यह जान लेंगे कि जप करने के पीछे जो ग्राउण्ड है, जो उसकी आधारशिला है। उसे आप जान लेंगे, तो जप चमत्कारी है। अभी न आपके पास ग्राउण्ड है, न आधारशिला है, न व्यक्तित्व है, न चिन्तन है और न चरित्र ।। सारे के सारे जप करेंगे। भाड़ में गिरेंगे जप करके, जहन्नुम में गिरेंगे।
बीज का है अपना महत्त्व
मित्रो! इसीलिए मैं आपसे यह निवेदन कर रहा था कि क्रियापक्ष का मूल्य राई के बराबर है। कितना है? बरगद के बीज के बराबर। तो क्या आप बरगद के बीज को गाली दे रहे हैं? नहीं भाई साहब। बरगद के बीज को मैं गाली नहीं दे रहा था। मैं तो यह कह रहा था कि बरगद का बीज कब नकारा होता है? जब आपके पास जमीन नहीं है, तब और जब सिंचाई नहीं है, खाद का इन्तजाम नहीं है, तब। बिना जमीन की सहायता के कुछ नहीं हो सकता। इसका अर्थ यह हुआ कि आप बीज को बेकार समझते हैं। नहीं बेटे, बीज को मैं बेकार नहीं समझता। मैं तो कहता हूँ कि बीज में बहुत ताकत है। बरगद का जो पेड़ है, असल में वह बीज के भीतर छिपा हुआ पड़ा है। बीज अगर न हो, तो बरगद का वृक्ष पैदा नहीं हो सकता। पीपल का वृक्ष पैदा नहीं हो सकता, चन्दन का वृक्ष पैदा नहीं हो सकता। इसलिए बीज का महत्त्व जरूर मानूँगा, लेकिन बिना जमीन के अगर आप बीज को हवा में उगाना चाहें, बगीचा तैयार करना चाहें, तो यह बेकार है। केवल बीज के रहने भर से आप बगीचा नहीं लगा सकते। बिना जमीन के, बिना पानी के, बिना खाद के बीज अपना काम नहीं कर सकता।
तीन योग
इसलिए मैं आपसे कह रहा था कि चिन्तन मुख्य है, विचारणा मुख्य है। गायत्री की फिलॉसफी मुख्य है। इसकी थ्योरी मुख्य है। प्रैक्टिस? प्रैक्टिस इसकी मुख्य नहीं है, थ्योरी मुख्य है। प्रैक्टिस गौण है। कल मैं आपको थ्योरी समझा रहा था कि गायत्री मंत्र का हमारे जीवन क्रम में क्या सलूक होना चाहिए और हमारे जीवन में गायत्री का समावेश कैसे होना चाहिए? हमारे चिन्तन से गायत्री का क्या ताल्लुक होना चाहिए। यह समझाते हुए मैंने कल दो बातें पूरी करने की कोशिश की थी और यह बताया था कि योग तीन प्रकार के हैं। एक योग का नाम है-भक्तियोग, एक का नाम है-ज्ञानयोग और एक का नाम है-कर्मयोग। ये तीन धारायें हैं, जैसे गंगा, यमुना और सरस्वती को मिला देने से त्रिवेणी बन जाती है, ऐसे ही इन तीन धाराओं को मिला देने पर आध्यात्मिक संगम बन जाता है।
भावावेश नहीं है भक्ति
भक्तियोग के बाबत मैंने बताया था कि ईश्वर का विश्वास आवश्यक है। और भजन की? ईश्वर के भजन की भी महत्ता है। भजन की भी आवश्यकता है, पर चलिए एक बार मैं भजन को गौण मान लेता हूँ और भजन बिना आपको क्षमा कर सकता हूँ और भजन के बिना ही आपको यह विश्वास दिलाता हूँ कि आपको भगवान के दर्शन हो सकते हैं। भजन के बिना भी आपको भगवान का अनुग्रह मिल सकता है। लेकिन मैं आपसे यह कहना चाहूँगा कि अगर आप दिन-रात भजन करते होंगे और आपके भीतर उस चीज पर विश्वास न होगा, तो गाड़ी चलेगी नहीं। फिर आपको आध्यात्मिक प्रगति में कोई सहायता नहीं मिलेगी। कल मैंने आपको समझाया था कि ईश्वर का विश्वास भावावेशों से ताल्लुक नहीं रखता। भावावेश क्या होते हैं? भावावेश वे होते हैं जो उमंगों के रूप में, उद्वेगों के रूप में, सनकों के रूप में तरह-तरह से हावी होते हैं। कभी आदमी की आँख से आँसू आ जाते हैं। कभी वह उछलने लगता है, कभी रोने लगता है, कभी कूदने लगता है, कभी फुदकने लगता है। कभी मचलने लगता है, कभी जोश में आ जाता है, तो कभी ठण्डा हो जाता है।
यह क्या है? यह है-सेंटीमेंट्स।
तो क्या ईश्वर विश्वास सेंटीमेंट है? ईश्वर विश्वास सेंटीमेंट्स नहीं है। सेंटीमेंट्स कहीं आदमी को ऊँचा उठाने में सहायक हो सकते हैं, पर अन्ततः ये हानिकारक हैं। सेंटीमेंट्स अगर निषेधात्मक होंगे, तो भी हानिकारक हैं। आपको क्रोध आता है, आपको घृणा आती है, द्वेष आपको आता है, तो भी हानिकारक है और यह भी हानिकारक है कि कभी आपको बुखार चढ़े और कोई कहे कि आपको त्याग-बलिदान कर देना चाहिए। तो क्या आप अपने कपड़े भी उतार देंगे, धोती उतार देंगे और सामान भी बेच देंगे? यदि ऐसा करते हैं, तो फिर आप भूखों मरेंगे।
असली है विश्वास
मित्रो! सेंटीमेंट्स पागलपन की निशानियाँ हैं। सेंटीमेंट्स भगवान की भक्ति की निशानियाँ नहीं हैं। भगवान की भक्ति विश्वासों से ताल्लुक रखती है। ऐसे विश्वासों से ताल्लुक रखती हैं, जो आदमी की जिन्दगी में भले और बुरे दोनों ही तरह के मौके आते रहते हैं, लेकिन आदमी के विश्वासों को डगमग नहीं कर सकते। मसलन, गुरु गोविन्द सिंह की जिन्दगी को आप जरा देखिए न। शुरू से आखिर तक उन्होंने कैसे अपने बच्चों का देश के लिए, धर्म के लिए, संस्कृति के लिए दीवारों में चुनवाने से लेकर लड़ाई के मैदानों में टुकड़े-टुकड़े करवा देने तक का काम अपनी आँखों से देखा। आपके पास है-ईश्वर विश्वास? नहीं साहब! भगवान नाराज है। भगवान बड़ा खराब है। भगवान ने हमारे बेटी पैदा कर दी और बेटा पैदा नहीं किया। हमारी गाय को बछड़ा दे दिया, बछड़ी नहीं दी। देखिए साहब! गायत्री माता हमसे नाराज हो गयीं, इसलिए नौकरी में तरक्की नहीं हो सकी है। हमने चौबीस हजार का जप किया था, फिर भी कोई फायदा नहीं हुआ। तो यही है आपकी निष्ठा? पैसा दे दें तो गायत्री माता, नहीं दें तो चुड़ैल। यह मूर्खता का काम है। भगवान पर कहीं है आपका विश्वास? कहीं नहीं है।
स्वार्थ पर टिकी भक्ति नहीं
मित्रो! आप तो जायका चाहते फिरते रहते हैं। यहाँ से चाटने को मिल जाय, तो यहाँ अच्छा। जिस तरीके से कुत्ता दोना चाटता फिरता है। दोना यहाँ मिल गया तो यहाँ खा लिया और वहाँ मिल गया तो यहाँ खाने के बाद वहाँ खाने लगा। जहाँ-तहाँ मारा-मारा खाने के लिए दोना चाटने के लिए डोलता फिरता है। नहीं साहब! हम भजन करते हैं। भजन करता है या ढोंग करता है? बेटे, यह भक्ति नहीं हो सकती। भक्ति तो ऐसे अटूट विश्वास को कहते हैं, जिनमें बन्दा बैरागी से लेकर गुरु गोविन्द सिंह तक सम्मिलित हैं, जो शुरू से लेकर आखिर तक कठोर से कठोर परीक्षा में चलते रहते हैं और यह कहते रहते हैं कि यह हमारे लिए गौरव की बात है कि हमने अपनी भक्ति का इजहार, भक्ति का विश्वास इस तरीके से दिखाया कि कोई आदमी अंगुली न उठा सके कि हमारी भक्ति कमजोर थी, अथवा किसी स्वार्थ पर टिकी हुई थी।
ईश्वर विश्वास की पहचान
मित्रो! मैं क्या कह रहा था? ईश्वर का विश्वास आदमी की निष्ठा पर टिका हुआ है। ईश्वर का विश्वास निष्ठा से ताल्लुक रखता है, आदमी की चालाकियों और स्वार्थों से ताल्लुक रखता है, आदमी की चालाकियों और स्वार्थों से ताल्लुक नहीं रखता। जो स्वार्थों की पूर्ति होने के बाद में बना रहे और स्वार्थों की पूर्ति न होने पर विश्वास कम हो जाय, उसको मैं विश्वास नहीं कहता। वह सेंटीमेंट्स है। विश्वास न हो तो? विश्वास न हो तो आदमी को किसी लम्बे-चौड़े फायदे की आशा नहीं करनी चाहिए। विश्वास फलदायक होता है। आपको अपने भीतर से विश्वास पैदा करना चाहिए। भक्ति भी इसी से मिलती है। ईश्वर के विश्वास की पहचान क्या है? कल मैंने आपको बताया था ईश्वर के विश्वास की पहचान के बारे में कि भगवान सब जगह समाया हुआ है। उसकी आँखों से हम बच नहीं सकते। कोई भी ऐसी जगह नहीं है जहाँ हम अपने को उससे छिपा सकें या छिपकर कोई काम कर सकते हों। ईश्वर विश्वासी के जीवन में से छिपने वाली बात निकल जाती है। छिपने वाली बात अगर आपको जीवन में से निकल गयी, तो आपको सदाचारी होने के अलावा, शरीफ होने के अलावा, सज्जन होने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह जाता। ये सब ईश्वर विश्वास के पर्यायवाचक शब्द हैं।
चरित्रवान ही आस्तिक
आदमी की सज्जनता और आस्तिकता-दोनों पर्यायवाचक शब्द हैं। ये एक दूसरे से मिले हुए हैं। कहने-सुनने में तो अलग मालूम पड़ते हैं। ये एक दूसरे से मिले हुए हैं। कहने-सुनने में तो अलग मालूम पड़ते हैं कि आस्तिकता अलग होनी चाहिए और सज्जनता अलग होनी चाहिए, पर वास्तविकता यह नहीं है। वस्तुतः यह दोनों एक ही हैं। आस्तिकता जहाँ होगी, सज्जनता वहाँ जरूर होगी। और अगर सज्जनता आदमी के पास है, तो वह आस्तिकता से अलग नहीं हो सकता। भजन नहीं करता है, तो कोई हर्ज की बात नहीं है। नहीं साहब! वह ईश्वर को गाली देता है। देने दीजिए, तो भी मैं उसको आस्तिक कहूँगा, क्योंकि वह चरित्र के ऊपर, आचरण के ऊपर इतना निष्ठावान है कि मैं उसे आस्तिक कहूँगा। नहीं साहब! वह भजन भी नहीं कर रहा था, गाली दे रहा था। मुझे कोई ऐतराज नहीं है। उसको गाली देने दीजिए और भजन से इनकार करने दीजिए, पर चूँकि वह चरित्रवान है, इसलिए उसको मैं आस्तिक कहूँगा।
आज के नास्तिक
मित्रो! अगर आप आस्तिक हैं, तो आपको ईश्वर विश्वास का फायदा जरूर मिलेगा। अगर आप नास्तिक हैं-तो नास्तिक कैसे होते हैं? उन आदमियों को नास्तिक कहने में मुझे कोई ऐतराज नहीं है, जो घंटों बैठे-बैठे तरह-तरह की माला जपते रहते हैं और तरह-तरह की बोलियाँ बोलते रहते हैं। तरह-तरह की बोलियाँ बोलने में कई आदमी माहिर होते हैं। कोई हिन्दी बोल सकता है, कोई अंग्रेजी बोल सकता है, कोई क्या बोल सकता है। कोई श्लोक बोल सकता है, कोई गाना सुना सकता है। कई आदमी कई तरीके की बोलियाँ बोल सकते हैं, श्लोक बोल सकते हैं। कई आदमी देवी का पाठ करते हैं, रामायण का पाठ करते हैं। इससे मुझे कोई ऐतराज नहीं है और प्रसन्नता भी नहीं है। कई तरह की बोलियाँ बोलने से भगवान की भक्ति का कोई ताल्लुक है? मेरा स्वयं का अपना ऐसा विश्वास है कि ईश्वर की भक्ति से बोलियाँ बोलने का कोई बहुत ज्यादा ताल्लुक नहीं है। बोलियाँ बोलने से, श्लोक बोलने से, प्रार्थना बोलने से, पुस्तकों का पाठ करने से हमारे मन की उन्नति तो जरूर होती होगी। यह तो मैं नहीं कहता कि नहीं होती होगी, लेकिन किताब से उन्नति भी नहीं हो सकती। कब? जब आपने यह विश्वास कर लिया होगा कि इस किताब का पाठ करने से, माला फेरने से, उच्चारण करने से भला हो जायेगा, तो वह नहीं होगा।
अध्यात्म इतना सस्ता नहीं
मित्रो! अगर आपके मन में यह बात जम गयी है कि इन पुस्तकों को पढ़ने से-मसलन रामायण पढ़ने से ही आपका भला हो जायेगा, तो फिर गयी गाड़ी पानी में। रामायण को जीवन में उतारना पड़ेगा, तो भला हो जायेगा, यह तो मैं मानता हूँ। लेकिन आपने यह मान लिया कि गीता पढ़ने से भला हो जायेगा, तब तो बात खत्म हो गयी। आपने सब रास्ता ही बन्द कर दिया। गीता को आपके जीवन में प्रवेश करना चाहिए। जब आप यही मान बैठे हैं कि गीता के पाठ से ही हमारा काम चल जायेगा, तो फिर जीवन में आप उसे उतारेंगे क्यों? आप मुसीबत उठायेंगे क्यों? आप अपने आपसे जद्दोजहद करेंगे क्यों? आप अपने जीवन में इन सिद्धान्तों का समावेश करेंगे क्यों? आपको तो पण्डित जी ने यह समझा दिया है कि गीता का पाठ कर लिया कीजिए और बैकुण्ठ को चले जाइये। पण्डित जी ने तो आपको यह कह दिया है कि रामायण के पन्ने पढ़ लिया कीजिए और बैकुण्ठ को चले जाया कीजिए। जब इतना सस्ता अध्यात्म है, तो आपको महँगा खरीदने की क्या जरूरत पड़ेगी?
समय साध्य है यह
साथियो! कल मैं आपको यह समझा रहा था कि आपकी आस्तिकता, ईश्वर विश्वास क्या है? यह इस मायने में है कि भगवान हर जगह समाया हुआ है, इसलिए हमको छिपकर कोई काम नहीं करना चाहिए। और हमको यह विश्वास कर लेना चाहिए कि कर्मफल से हमको छुटकारा नहीं मिल सकता। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों हमको जरूर फल मिलेगा। कई आदमियों को नहीं मिलता। भाई साहब! थोड़ा टाइम लग जाता है। टाइम किसी में भी लग जाता है। आज हम दूध जमाते हैं, तो कल दही जमता है। नहीं साहब! आज दही जम जायेगा? बेटे, आज नहीं जम सकता। इसके लिए कल तक इन्तजार कीजिए। आज बीज बोने के बाद फल मिलने के लिए इन्तजार करना पड़ता है। नहीं साहब! आज के पौधे में आज ही फल लगा दीजिए। भाई साहब! इसमें थोड़ा टाइम लग जायेगा। हमने आज ही स्कूल में दाखिला लिया है और आज ही आप हमको एम.ए. करा दीजिए। भाई साहब! हम आपको एम.ए. करा देंगे, पर इसके लिए आपको जरा ठहरना पड़ेगा। हमने आज फसल बोयी है, उसके फल ला दीजिए? भाई साहब! उसके लिए आपको ठहरना पड़ेगा। नहीं साहब! हम ठहरना नहीं चाहते, हम तुरत-फुरत चाहते हैं। भाई साहब! आप हथेली पर सरसों जमाना चाहते हैं, तो मुश्किल है। हथेली पर सरसों नहीं जमती।
कर्म का फल भी समय के साथ मिलेगा
मित्रो! कर्मों का फल प्राप्त करने के लिए इन्तजार करना पड़ता है। इस इन्तजार में ही आदमी डाँवाडोल हो जाता है। इस इंतजार में ही आदमी का ईमान गड़बड़ा जाता है। आदमी को जब विलम्ब लगता दिखाई पड़ता है कि जिस आदमी ने बेईमानी की, बुरे कर्म किये, फिर भी वह मजे से रह रहा है। लेकिन हमने बुरे कर्म नहीं किये, सत्कर्मों में, परोपकार में ही लगे रहे, फिर भी मुझे कोई फल नहीं मिला, गवर्नमेण्ट से भी कोई फल नहीं मिला, समाज से भी कोई फल नहीं मिला, तो उसकी जुर्रत और हिमाकत तथा हिम्मत बढ़ जाती है। हम कल भी ऐसे काम कर सकते हैं, क्योंकि पकड़े नहीं जायेंगे। अच्छे काम करते समय में कर्म का फल नहीं मिला, तो आदमी का ईमान डाँवाडोल हो जाता है और वह कहता है कि अरे साहब! हमने तो देख लिया। दूसरों के साथ हमने भलाई की और हमें बुराई मिली। सब बेकार है। अब क्या रखा है? तुरन्त के लिए आदमी घबरा जाता है।
इस नियम को समझिए
ईश्वर का विश्वास होने का अर्थ यह है कि कर्मफल को प्राप्त करने के लिए इस तरह धीरज रखना चाहिए और यह इन्तजार करना चाहिए कि यह दुनिया एक नियम, एक कायदा और एक व्यवस्था के ऊपर टिकी हुई है, जो गेहूँ के भीतर से गेहूँ पैदा करता है। बकरी के पेट में से बकरी पैदा करता है और आदमी के शरीर में से आदमी पैदा करता है। उसके कायदे के मुताबिक़ सूरज टाइम पर निकलता है, चन्द्रमा टाइम पर निकलता है। ऐसी सुन्दर व्यवस्था जिसकी बनी हुई है, उसमें कर्मफल की व्यवस्था भी होनी चाहिए और इस कर्मफल की व्यवस्था को आदमी समझता रहेगा, तो अच्छे कामों को करने के बाद में अधीर नहीं होगा। अच्छे कामों के फल मिलने में ज्यादा विलम्ब लगता है, यह जानकर वह अधीर नहीं होगा, धीरज बनाये रखेगा। वह जानता है कि कल नहीं, तो परसों मिल ही जायेगा। आपने बुरा काम किया है, तो आपकी हिम्मत नहीं बढ़ेगी कि हमारा कोई क्या कर लेगा? कल नहीं तो परसों हमको इसका प्रतिफल जरूर मिलेगा और हमारे गुनाहों का फल हमारे सामने जरूर आ जायेगा।
भक्ति अर्थात् सचाई-मोहब्बत भरा जीवन
इससे पूर्व अक्टूबर अंक में आपने पढ़ा कि गायत्री उपासना का मूल है भक्ति। क्रियापक्ष बाहरी है। जप आदि सबका महत्त्व है। पर बीज का महत्त्व तो समझना चाहिए। वह है भक्ति। तीन प्रकार के योग हैं, भक्ति, कर्म, ज्ञान पर इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है भक्तियोग। ईश्वर विश्वास-दृढ़ विश्वास ही भक्ति है। पर यह भावावेश या भावुकता नहीं है। सेण्टीमेण्ट्स पागलपन की निशानी होते हैं। भगवद् भक्ति विश्वास पर टिकी है। अटूट विश्वास जिस तरह बंदा वैरागी में था, गुरु गोविन्दसिंह में था। सही मायने में चरित्रवान ही सच्चा आस्तिक हो सकता है। मात्र रामायण पढ़ने, कथा कर लेने से, सुन लेने से कोई भक्त नहीं हो जाता। अध्यात्म इतना सस्ता नहीं है। समयसाध्य प्रक्रिया है। कर्मों के फल की एक सुनिश्चित प्रक्रिया पर सारा अध्यात्म टिका हुआ है। अब आगे पढ़ें।
भावावेश नही है भक्ति
आदमी के जीवन क्रम और चरित्र क्रम को बनाने के लिए आस्तिकता की, ईश्वरभक्ति की आवश्यकता है, ताकि आदमी का व्यक्तिगत जीवन श्रेष्ठ और समुन्नत बना रहे। ताकि मनुष्य जाति का सामाजिक जीवन श्रेष्ठ और समुन्नत बना रहे। ताकि मनुष्य का अंतरंग और बहिरंग जीवन शालीनता से सम्पन्न बना रहे। व्यक्ति और समाज की सुव्यवस्था के लिए आस्तिकता की जरूरत है और आदमी के आंतरिक विकास के लिए आस्तिकता के सिद्धान्तों की जरूरत है। इसलिए मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि भक्तियोग जिसमें भावावेश चाहे आये या न आये, हमारी आँखों में आँसू आयें या न आयें, कोई हर्ज की बात नहीं है। भाई साहब! क्या जरूरत है आँसू आने की? नहीं साहब! भगवान की भक्ति आती है, तो आँसू जरूर आता है। आँसू का भक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। अगर यही पहचान है भक्ति की, तो फिर जब आपको भजन करना हो, तो कपूर की डली को आँखों से चिपका लिया कीजिए, पिपरमिंट लगा लिया कीजिए, आँसू आ जायेगा। नहीं साहब! आँसू आ जाता है, तो भक्ति आ जाती है। आँसू आ जाता है, जैसी बेसिलसिले की पागलों जैसी बातें करता है, जिसकी न कोई सींग है न पूँछ है। नहीं साहब! भगवान में बहुत आनन्द आता है। आनन्द आता है तो भाग और गाँजे की चिलम पी लिया कर, तो आनन्द आ जाया करेगा, मूर्ख कहीं का।
बेकार के सेण्टीमेण्ट्स
मित्रो! आदमी को जब यह विश्वास हो जाता है कि हम यह करेंगे, तो आनन्द आयेगा। बस, इसी निश्चय का नाम आनन्द है। इससे आदमी में दृढ़ता आ जाती है, संकल्पबल आ जाता है। ‘डू आर डाइ’ करेंगे या मरेंगे का निश्चय कर लेने का नाम है-भावना। भावना को आप ‘सेंटीमेंट्स’ मान लेते हैं। आप भावना को इसीलिए गले लगाये फिरते हैं। पर सेंटीमेंट्स तो बच्चों में होते हैं। खिलौना दे दिया तो उछलने लगे, गुब्बारा छीन लिया तो रोने लगे। सेंटीमेन्ट्स बच्चों में होते हैं। बड़े आदमी के सेंटीमेंट्स खत्म हो जाते हैं। बड़े आदमियों में कोई सेंटीमेंट्स नहीं होते। समझदार आदमी में कोई सेंटीमेंट्स नहीं होते। मिलिट्री के कप्तान का कोई सेंटीमेंट्स नहीं होता। नहीं साहब! हमारा भतीजा लड़ाई में मारा गया है। मारे गये ढाई सौ आदमियों में हमारा भतीजा भी था। उसके शव को घर ले चलिए। भाई साहब! आप हमारा बैलेन्स खराब करेंगे। कप्तान अपना बैलेन्स खराब नहीं कर सकता। भतीजा मर गया तो मर गया, हम क्या कर सकते हैं। रोयेंगे? नहीं, समझदार आदमी रोया नहीं करते। मित्रो! समझदार आदमी को सेंटीमेंट्स नहीं आते। उन्हें पराक्रम और पुरुषार्थ आते हैं। सेंटीमेंट्स तो बुढ़िया को आते हैं। एक बुढ़िया रोने लगी। पड़ोसन आयी तो पूछने पर बताया कि हमारी सहेली आयी थी और बता रही थी कि बहू से लड़ाई हो गयी थी, तो उसने खाना नहीं खाया। वह रो रही थी, तो उसे देखकर हम भी रोने लगे। बुढ़िया रोया करती है। बेकार आँखों में आँसू आ जाते हैं।
आज की भक्ति?
मित्रो! फिर क्या करना चाहिए? अभी मैं भक्तियोग की निशानी बता रहा था कि ‘भक्ति’ शब्द जहाँ से आता है, उसे मोहब्बत कहते हैं। भक्ति किसे कहते हैं? भक्ति मोहब्बत को कहते हैं। अब मैंने ‘भक्ति’ का नाम लेना बंद कर दिया है। क्यों? क्योंकि भक्ति अब बदनाम हो गयी है। ‘हरिजन’ शब्द पहले कैसा अच्छा शब्द था। ‘हरिजन’ अहा! भगवान के आदमी हैं आप? हाँ साहब! हम भगवान के आदमी हैं और आप संसार के आदमी हैं। कभी ‘हरिजन’ शब्द बहुत अच्छा था। हरिजन शब्द कहते थे, तो उससे महात्मा का, संत का ज्ञान होता था और यह पता चलता था कि उस व्यक्ति को कोई भगवान का भक्त होना चाहिए। अब हरिजन शब्द कह देते हैं, तो सामने वाला तुरन्त कह उठता है कि आपने हमें हरिजन कैसे बता दिया? नहीं साहब! सम्मान किया है। सम्मान किया है या हमको अछूत बता दिया है? हरिजन शब्द आज खराब हो गया है। ‘भक्ति’ शब्द भी मैं अब नहीं कहता, क्योंकि ‘भक्ति’ शब्द अब बदनाम हो गया है। क्यों? क्योंकि भक्ति का लबादा उन लोगों ने ओढ़ लिया है, जिनको मैं हर दृष्टि से कमजोर कहता हूँ। जो पराधीन हैं, हर मामले में जिसके अन्दर से पराधीनता टपकती है। जिसको भगवान के मामले में भी पराधीनता टपकती है। आज भक्ति का यही स्वरूप हो गया है।
पराधीन न बनो
जिन लोगों की मनोवृत्ति परावलम्बी और पराधीन है, उन लोगों को आज भक्त कहा जाता है। जो व्यक्ति यह कहता है कि ‘जो करेगा भगवान करेगा।’ ‘भगवान की इच्छा से होगा’ ‘भगवान जो चाहेंगे, वही हो जाएगा।’ ‘भगवान की कृपा का इन्तजार कीजिए।’ ‘सोइ जानइ जेहि देहु जनाई’। भगवान बता देंगे, तो हम जान जायेंगे। तो बेटे तू क्या करेगा? जब भगवान ही जना देगा, भगवान ही उद्धार कर देगा, जब सब काम वही कर देगा, तो तू भी किसी मर्ज की दवाई है या नहीं? नहीं साहब! हम किसी मर्ज की दवाई नहीं है। सब भगवान करेगा। सब गलत बात है। फिर भगवान कुछ भी नहीं करेगा। भगवान इतना ही करेगा कि जब आप मरेंगे, तो आपको मार देगा, आप जियेंगे तो आपको जिन्दा कर देगा। नहीं साहब! भगवान कृपा करेगा। भगवान ने किसी पर कृपा नहीं की और न करेगा। मित्रो! दो बातों पर आदमी का विश्वास बना रहे कि बुरे कर्म का फल आदमी को बुरा मिलता है और अच्छे कर्म के बारे में यह विश्वास बनाये रखें कि फल मिलेगा अवश्य, तो फिर हम गलतियाँ नहीं कर सकते। आग के बारे में हमको मालूम है कि हम आग को छूयेंगे, तो जल जायेंगे। नहीं साहब! प्रयोग करके देखिए, हाथ नहीं जलेगा। नहीं साहब! हम प्रयोग करना नहीं चाहते। हाथ जलेगा, हमने पड़ोसी को देखा था, आग से उसका हाथ जल गया था, हम नहीं जलाना चाहते। अगर आदमी को यह विश्वास बना रहे कि मनुष्य कर्मों का फल भोगने के लिए विवश होता है, तो अपने पुरुषार्थ पूर्ण कर्म करने में कोई आदमी चूक न करे और बुरा कर्म करने के लिए कोई आदमी कदम आगे न बढ़ाये।
गुलाम हैं भारतीय
मित्रो! स्वावलम्बन की शक्ति को जिसने हमसे छीन लिया है, उसका नाम आज भी भक्ति है। मैंने एक बार एक किताब पढ़ी थी, जिसको पढ़कर मुझे बड़ा क्लेश हुआ। मिस मेओ नामक एक अमेरिकन महिला ने हिन्दुस्तान के बारे में एक किताब लिखी थी-‘‘स्लेव्स आँफ द गॉड्स’’। देवताओं के गुलाम नाम से हिन्दी में इसका अनुवाद हुआ था। उसने अंग्रेजों के पक्ष में यह हिमायत की थी कि हिन्दुस्तानियों को स्वतंत्रता की कतई जरूरत नहीं है। हिन्दुस्तानियों की जहनियत, हिन्दुस्तानियों के दिमाग की जो बनावट है, वह ऐसी है कि किसी की गुलामी के बिना वह जिन्दा नहीं रह सकती। जब तक वे किसी न किसी के गुलाम नहीं रहेंगे, तब तक इनको चैन नहीं मिल सकता। किसी के गुलाम बनेंगे तब? दिशाशूल है, जोगिनी सामने है, हम नहीं जा सकते। मुहूर्त खराब है। चन्द्रमा खराब है। काल राहु खराब है। दिशाशूल खराब है। कहाँ है दिशाशूल? साहब! वहाँ है-पीपल के पेड़ के नीचे बैठा हुआ है। दिशाशूल पकड़ लेगा। दिशाशूल के कारण चूल्हा नहीं बना सकते, चक्की नहीं बना सकते। बेटी का ब्याह नहीं कर सकते। मर नहीं सकते, जी नहीं सकते। किसके बिना? देवताओं की मदद के बिना। देवताओं की मदद के बिना बेटी का ब्याह नहीं कर सकते। क्यों नहीं कर सकते? शुक्र डूब गया है। कहाँ डूब गया है? भाई साहब! हमें बताइये, हम निकाल लायेंगे। पुलिस में रिपोर्ट करेंगे। तालाब में डूब गया है? नहीं साहब! शुक्र भगवान तो डूब गये हैं। कहाँ डूब गये हैं, बताइये तो सही। साहब! पंडित जी के पत्रा में डूब गये हैं। पंडित जी को लिवा लाइये और यह पूछिये कि भाई साहब। नवग्रहों में से कोई ग्रह कभी डूबता है क्या? एक ग्रह दूसरे की छाया में आ जाते हैं। दिन रात का फर्क पड़ जाता है। कोई तारा दिन में उदय होता है, तो कोई रात में। जब दिन में उदय होता है तो दिखाई नहीं पड़ता और जब रात में उदय होता है, तो दीख जाता है। डूब कहाँ गया? तेरे सिर में डूब गया। नहीं साहब! लड़की की जन्मपत्री नहीं मिलती, फलानी नहीं मिलती, ढिकानी नहीं मिलती, अतः लड़की का ब्याह नहीं हो सकता।
विकृति भक्ति की
मित्रो! मैं क्या कहूँ आपसे? मेरे मुँह से गालियाँ निकलती हैं। इसलिए क्या करना चाहिए? यह भक्ति, जिसका अर्थ है-परावलम्बन। यह मनुष्य के लिए लाभदायक है? नहीं, घोर हानिकारक है। यह आदमी के मनोबल को गिराती है। यह आदमी के व्यक्तित्व को गिराती है। यह आदमी की साहसिकता को गिराती है। यह आदमी के स्वावलम्बन को गिराती है और आदमी का जो मूलभूत गूढ़ अस्तित्व है, उसको हानि पहुँचाती है। तो क्या आप भक्ति योग समझा रहे थे? हाँ, पर मैं वह भक्ति योग नहीं समझा रहा था, जो भक्ति योग की विकृति है। विकृति? हाँ! विकृति होती है। अनाज बहुत अच्छा होता है, लेकिन जब अनाज विकृत हो जाता है, तो उसका नाम पाखाना हो जाता है, कै हो जाता है। थाली में अनाज था। हमने खा लिया। थोड़ी देन बाद क्या हुआ? उल्टी हो गयी। अनाज वही था। खीर वही थी। सब्जी वही थी, जो सुरक्षित रखी हुई है। उसको दुबारा खा सकते हैं, लेकिन जो पेट में चली गयी और उल्टी से बाहर आ गयी, उसको दुबारा नहीं खाया जा सकता। यह क्या हुआ? अनाज की विकृति हो गयी।
आखिर भगवान है क्या?
मित्रो! यह भक्ति नहीं है, जिसको लोगों ने भक्ति बना रखा है। इससे हिन्दुस्तान का बहुत नुकसान हुआ है। इस भक्ति ने लोगों का बहुत नुकसान किया है। कौन सी भक्ति ने? जो लोगों के दिमाग पर छायी हुई है। आप कौन सी भक्ति की बात कर रहे थे कल? जो गायत्री माता के साथ जुड़ी हुई है, मैं उस भक्ति की बात कर रहा था। जिसका दूसरा नाम है-मोहब्बत। जिसका नाम है-प्यार। भगवान क्या है? ‘‘रसो वै सः।’’ भगवान प्यार है। प्यार कैसा होता है? प्यार ऐसा होता है, जो भगवान से शुरू किया जाता है और इंसान तक फला दिया जाता है। भगवान से प्यार कैसा होता है? भगवान क्या है? पहले यह मालूम कीजिए। भगवान है-आदर्श, भगवान है-सिद्धान्त। आदमी के जीवन में जब भगवान आता है, तो सिद्धान्तों के रूप में आता है। आदमी के दिमाग में आता है, तो उत्कृष्ट चिन्तन के रूप में आता है और जब भगवान आदमी के शरीर में आता है, तो आदर्श क्रिया कलापों के रूप में आता है। भगवान माने आदर्श। भगवान जब कभी इन्सान के ऊपर आयेगा तो आदर्श के रूप में दिमाग में आयेगा, आदर्श के रूप में व्यवहार में आयेगा। इन्हीं दो तरीकों से भगवान आयेगा। नहीं साहब! हमको भगवान आता है। आपको कैसे आता है? रात को सपने में दिखाई देता है। अच्छा! आपको रात में सपने में दिखाई देता है? कैसे दिखाई पड़ता है? गुरुजी! घोड़े पर सवार होकर आया था, बैल पर सवार होकर आया था और हाथी पर सवार होकर आया था। चल रहने दे पगले, बेकार की बातें मत कर। नहीं साहब! रात को हमको देवी दिखाई पड़ी थी और हनुमान जी दिखाई पड़े थे। तो क्या लाये थे हनुमान जी? नहीं साहब! लाये तो कुछ नहीं थे। और देवी कुछ लायी थी? नहीं साहब! रात में सपने में देवी दिखाई पड़ी। पागल कहीं का, बैठा-बैठा बहकता रहता है, सनकता रहता है कि पेड़ के नीचे देवी दिखाई पड़ी थी और हम बद्रीनाथ गये थे, तो रास्ते में दिखाई पड़ी थी। पत्थर में दिखाई पड़ी थी। तेरे सिर में दिखाई पड़ी थी।
सिद्धान्तों से प्यार
मित्रो! मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि भगवान की भक्ति जब आती है, तब प्यार के रूप में आती है। प्यार किससे होता है? सिद्धान्तों से। इनसानों से नहीं होता प्यार। नहीं साहब! हमें बेटे से प्यार है। नहीं, बेटे से प्यार नहीं हो सकता, सिद्धान्तों से प्यार हो सकता है। सिद्धान्तों से अगर आपका प्यार है, तो उसको मैं भक्ति कहूँगा। फिर आपको वास्तविक मोहब्बत है, सच्ची मोहब्बत है और यह जहाँ कहीं भी जायेगी, आनन्द ही आनन्द बरसाती चली जायेगी। फिर आप भगवान से भक्ति करेंगे, तो उसके बदले में आपको तुरन्त आनन्द मिलेगा। भगवान से भक्ति कैसे करें? सिद्धान्तों से भक्ति करेंगे, आदर्शों से भक्ति करेंगे, तो आप देखेंगे कि आपके कलेजे में से, आपके भीतर से, आपकी अन्तरात्मा में से और आपके हृदय में ये कैसा संतोष और उमंग उत्पन्न होता है। आपने आदर्शों से कोई प्यार नहीं किया है? मैं क्या कह सकता हूँ? आदर्श तो आपके लिए एक बहाना है, एक मनोरंजन है। आदर्श तो आपके लिए मखौल है। लोग आदर्श के बारे में अक्सर यह कहते पाये गये हैं कि आदर्श व्यावहारिक जीवन में काम नहीं आ सकते। यह सब सिद्धांत की बातें हैं, जो जीवन में काम नहीं आ सकती। बेटे, काम में आ सकती हैं और आनी चाहिए। काम में जो चीज नहीं आ सकती, वह बेकार है। उसको हटा देना चाहिए। अगर सत्य जीवन में काम नहीं आ सकता, तो मैं कहता हूँ कि सत्य को हटा देना चाहिए। या तो आप इसे काम में लाइये, या हटाइए। नहीं साहब! काम में तो नहीं आ सकता। तो फिर हटाइए। हटा नहीं सकते तो फिर काम में लाइये।
सच्चाई का बल
मित्रो! सच्चाई काम में आ सकती है, बिलकुल काम में आ सकती है। सारे योरोप में इस सच्चाई को काम में लाकर कितनी प्रगति की। स्विस घड़ियाँ, वेस्टेण्ड घड़ियाँ सारी दुनिया में छायी हुई हैं। चौबीस घंटे में एक सेकेण्ड का भी फर्क पड़ेगा तो उसे ठीक कराने के लिए दोबारा फैक्ट्री में भेज दिया जायेगा, रिटर्न कर दिया जायेगा। वे दुबारा रिलीज नहीं की जा सकतीं। चौबीसों घंटे इंजीनियर घूमते रहते हैं और देखते रहते हैं कि चौबीस घंटे में जो आज घड़ियाँ बनी हैं, उनमें से किसी में भी एक सेकण्ड का फर्क पड़ा है, तो उसे उतारिए और फैक्ट्री में डालिए। सच्चाई के बल पर ही आदमियों ने उन्नति की है। नहीं साहब! सच्चाई गलत है। नहीं भाई साहब! सच्चाई ही सही है। सच्चाई को इन्तजार करना पड़ता है। सच्चाई की सिंचाई करनी पड़ती है। सच्चाई व्यवहार में लाई जा सकती है और लोगों के लिए फायदेमन्द हो सकती है। अगर आप सच्चाई को काम में लायें, तो वह आपके लिए बहुत फायदेमन्द हो सकती है। सिद्धांतों को अगर प्यार करते हैं, तो व्यावहारिक जीवन में इसे उतारने के लिए मैं आपको एक छोटा सा उदाहरण सुना सकता हूँ। नहीं साहब! पुराणों की कथाओं पर हमारा विश्वास नहीं है। हाँ, मैं भी जानता हूँ, उनमें से कई कहानियाँ असंभव होती हैं, जिन पर आपको विश्वास नहीं होता। लेकिन मैं अपनी आँखों देखी कहानी सुनाता हूँ, जिसके बाद आपको यह विश्वास हो जायेगा कि सच्चाई आदमी के जीवन में कितनी लाभदायक हो सकती है। सच्चाई से प्यार करना भी अपने आपमें आदमी की शान है। मैं आपको मथुरा का एक पुराना किस्सा सुनाता हूँ-
जीवन्त उदाहरण
अब से चालीस साल पहले ‘अखण्ड ज्योति’ प्रकाशित करने के दिनों में ही एक व्यक्ति आये। उनका नाम था रामनारायण जी। लोग उन्हें मुंशी जी कहते थे। मथुरा कलेक्ट्रेट में वे पेशकार का काम करते थे। कौम से कायस्थ थे। उस जमाने में मैं सोचता हूँ कि आज से चालीस वर्ष पहले पेशकार को शायद पचास रुपये मिलते होंगे। पेशकार क्लर्क होते हैं, जो साहब के यहाँ, अफसर के यहाँ काम करते हैं। मियाँ-बीबी और तीन बच्चे-कुल मिलाकर पाँच आदमी थे। वे रिश्वत एक पैसा भी नहीं लेते थे। पचास रुपये में कैसे गुजारा करें? बच्चों को पढ़ाना भी था, मियाँ-बीबी का भी खर्च था। कैसे गुजारा करें? उनका रहन-सहन कुछ अजीब था। उनके कुर्ते और पाजामे में अक्सर टिकली लगी रहती थी। कुर्ता जहाँ से फट गया, बीबी सिल देती थी। पीठ पर फट गया, सो पीठ पर टिकली लगा देती थी। पाजामा यहाँ से फट गया, पाजामे में यहाँ से टिकली लगा दी। कुर्ता फट गया, सिलाई लगा दी, परन्तु वे कपड़ा साफ-स्वच्छ पहनते थे। ऐसा नहीं कि गरीबों जैसा, कंगालों जैसा हो। नहीं, पहनेंगे तो साफ-सुथरा। उन्होंने एक गाय पाल रखी थी। उसके लिए क्या करना चाहिए? घास-चारा कहाँ से आये? सो वे कलेक्ट्रेट के लॉन के माली से कह देते थे कि भाई साहब! आपकी जगह घास के ऊपर से मशीन हम घुमा देंगे और उस कटी हुई घास को आप हमको दे देना। अरे बाबूजी! आप तो मालिक हैं। आप कैसे काट सकते हैं। घास के लिए मैं कब मना करता हूँ। नहीं आप बैठिये, हम मशीन चलाते हैं। वे मशीन चलाते और घास काटकर अपनी गाय के लिए ले आते। गोबर जो सड़क पर पड़ा हुआ मिलता, शाम को घर लौटते वक्त एक बड़े थैले में एकत्र करके ले आते और अपने हाथ से उपले बनाकर सुखा लेते, ताकि वह खाना पकाने के लिए ईंधन का काम दे सके। टाइम पर आना और टाइम पर ऑफिस जाना-यह उनका नियम था। रिश्वत एक पैसा भी नहीं लेते। उनकी समझदारी भी कम न थी। वे बहुत समझदार थे। सारे का सारा कलेक्ट्रेट उनकी ऐसी इज्जत करता था कि मैं क्या कहूँ। लोग उनकी बहुत इज्जत करते थे। उनके बारे में लोगों का यह ख्याल था कि वे इन्सान नहीं, भगवान हैं।
सम्मान ईमानदारी का
मित्रो! सच्चाई से प्यार कीजिए। लेकिन सच्चाई से प्यार करना तो दूर आपने सच्चाई तो कभी जानी नहीं। आप तो सच्चाई का मखौल उड़ाते हैं और कहते हैं कि सच्चाई कभी व्यावहारिक जीवन में काम नहीं आ सकती। सच्चाई बेवकूफों की होती है। सच्चाई से कोई फायदा नहीं होता। बेटे, सच्चाई का इस्तेमाल करते, तब आपको पता चलता कि इससे जीवन सफल होता है कि नहीं होता। यह सच्चाई का ही प्रभाव था कि कलेक्ट्रेट में कोई जटिल मामला आ जाये, तो रामनारायण जी को बुलाइए। उनकी सलाह ली जाती थी। उन्होंने जो कह दिया, पत्थर की लकीर मान लिया जाता था। उनकी सलाह बहुत कीमती थी, क्योंकि उस आदमी की इज्जत और वकत उसके न्यायप्रिय व्यक्तित्व से सौ मन भारी थी। हर आदमी उनकी इज्जत करता था। एक नया कलेक्टर आया। उसकी उम्र करीब पच्चीस-छब्बीस साल की थी। जब रामनारायण जी आते, तो वह अक्सर अपनी कुर्सी से उठ खड़ा होता था। कई दिन यों ही खड़ा होता रहा। एक दिन रामनारायण जी ने मौका पाकर कहा कि हुजूर! आप हमारे ‘बॉस’ हैं और हम आपके ‘सब ऑर्डिनेट’ हैं। ‘बॉस’ और ‘सब आर्डिनेट’ का कायदा रहना चाहिए। आप हमारे आने पर उठा करेंगे, तो हम अपना ट्राँसफर किसी दूसरे इलाके में करा लेंगे। हम यहाँ से चले जायेंगे। यह गैरमुनासिब है और आपके पद की शोभा नहीं है और हमारे लिए भी शोभा नहीं देता। आप इज्जत करते हैं, तो अपने मन में रखें, लेकिन इस तरीके से न करें। कलेक्टर साहब मान गये।
मित्रो! यहाँ तक जो किस्सा था, मैंने सुना दिया है कि सच्चाई से प्यार करने वाला लोगों की दृष्टि में गरीब, किन्तु इज्जतदार आदमी कैसे होता है? आप तो भक्ति करते हैं। घंटी लिए बैठे रहते हैं और टुनन्-टुनन् करते हुए घंटरिया हिलाते रहते हैं। अरे पगले! तेरी घंटरिया सुनने के लिए भगवान आयेंगे? वे तेरे तरीके से ऐसे ही फालतू बैठे रहते हैं? घंटरिया बजा दी और वे आ गये। फिर दुबारा घंटी बजायी। किसको बुला रहे हैं? हनुमान जी को बुला रहे हैं। भगवान जी को बुला रहे है! बस, यों ही बैठे-बैठे खेल-खिलौने करता रहता है, मन बहलाता रहता है।
प्रतिफल ऐसी जिन्दगी का
मित्रो! मैं आपसे रामनारायण जी की बात कह रहा था। अब मैं आपसे सिद्धान्तों से प्यार की बात कहता हूँ, भक्ति की बात कहता हूँ। रामनारायण जी का देहान्त मेरे सामने ही हो गया। उनके तीन बच्चे थे, वे रह गये। अब जो पचास रुपये वे कमाते थे, वह पहली ही तारीख को खत्म हो जाते थे घर खर्च में। बेचारों के घर में तो कुछ था नहीं, पहली तारीख को तनख्वाह आती थी, तो किसी प्रकार गुजारा चलता था। अब क्या करना चाहिए, आपको एक घटना सुनाता हूँ। जब रामनारायण जी मर गये और औरत तथा उनके तीन बच्चे रह गये। तो मथुरा के तीन बड़े अफसरों ने विचार किया कि अब क्या करना चाहिए? उनके बच्चों का क्या करना चाहिए? उन्होंने कहा कि सच्चाई की इज्जत होनी चाहिए, सच्चाई की कदर होनी चाहिए, वकत होनी चाहिए। सच्चाई की वकत हुई है और होगी। हरिश्चन्द्र से लेकर गाँधी तक की परम्परा रही है कि सच्चाई की कदर हुई है और होगी। आपके पास सच्चाई नहीं है, इसलिए आपकी कदर नहीं होती। अगर आपके पास हो, तो होगी। हम आपसे वायदा करते हैं कि आप सच्चे हैं, तो आपकी इज्जत होगी और नहीं हैं या आधे सच्चे और आधे झूठे हैं, तो आपकी इज्जत कौन कर सकता है?
बच्चे पढ़ लिखकर बड़े बने
मित्रो! तो फिर क्या हुआ? तीन अफसर इकट्ठे हुए और उन तीनों बच्चों की माँ को बुलाया और यह कहा कि आप इन तीन बच्चों को हम तीन बड़े अफसरों के हवाले कर दें। आप यह मत सोचिए कि हम आपके बच्चों को खरीद रहे हैं या गिरवी रख रहे हैं। आपके बच्चों को अपने बच्चों के तरीके से पढ़ायेंगे और पढ़-लिख जाने पर इनकी ब्याह-शादी कर देंगे। ये रहेंगे आपके ही बच्चे, आप किसी के भी पास रह सकती हैं, चाहे जहाँ भी रह सकती हैं। आपके लिए मना नहीं है। आपके बच्चों का पढ़ाना-लिखाना, खिलाना-पिलाना यह हमारा काम है और वह हम पूरा करेंगे। उन्होंने तीनों को पढ़ाया, लिखाया और वे सारे के सारे पी.सी.एस. हो गये, आई.ए.एस. हो गये। उनके अपने बच्चों से भी अधिक हैसियत उन तीनों बच्चों की हो गयी। रामनारायण जी जिन्दा रहे होते, तो शायद बेईमानी से भी इस वास्ते इतना पैसा न कमा पाते, जिससे यह सब हो पाता।
एक शक्ति, एक आदर्श, एक सिद्धांत
मित्रो! मैंने आपको यह सिखाया था कि भक्ति का अर्थ है-प्यार। प्यार कहाँ से शुरू होना चाहिए? प्यार भगवान से शुरू होना चाहिए। भगवान से क्या मतलब है? भगवान कोई व्यक्ति नहीं होता। आप फिर ध्यान रखिये कि भगवान कोई व्यक्ति नहीं है। नहीं साहब! महादेव जी भगवान हैं। नहीं, गलत है। तो वह कौन है? वह एक अलंकार है। भगवान एक सिद्धान्त है। भगवान एक आदर्श है। भगवान एक शक्ति है, जो इन्सान के पास आते हैं, तो वे सिद्धांत बन जाते हैं और जब सूरज के पास जाते हैं, तो गर्मी बन जाते हैं। इन्सान के पास आते हैं, तो वे मोहब्बत बन जाते हैं। भगवान निराकार है और संवेदनाओं के रूप में आते हैं। वे शक्ल के रूप में नहीं आते, आप यह ध्यान रखिये। हमने भगवान की जो शक्लें गढ़ी हैं। यह तो अपने ध्यान की सुविधा के लिए, पूजा की सुविधा के लिए गढ़ी हैं? नहीं, गायत्री के पाँच मुँह हैं। नहीं भाई साहब! बिलकुल नहीं हैं। तो फिर क्या हैं? यह हमने गढ़ी है। क्यों गढ़ी हैं? इसलिए गढ़ी है, ताकि उसकी जो फिलॉसफी है, उसको समझने में हमें सरलता पड़े।
सिद्धान्तों से मोहब्बत
अभी आप क्या कह रहे थे? मैं भक्तियोग की बात कह रहा था और कल यह समझा रहा था कि भक्तियोग का सार और रहस्य यह है कि हम मोहब्बत करना सीखें। मोहब्बत करना किससे सीखें? सिद्धांतों से सीखें और सिद्धांतों से मोहब्बत करने के बाद में व्यायामशाला में, अखाड़े में अपने हाथ पाँव मजबूत करने के बाद में दंगल में आयें। दंगल से क्या मतलब है? जनता के सामने आयें। अखाड़ा किसे कहते हैं। अखाड़ा कहते हैं-पूजा की कोठरी को। पूजा की कोठरी में आप व्यायाम करें, कसरत करें। सड़क पर चौराहे के पास न करें। वहाँ लोग आपका मखौल उड़ायेंगे। आप वहाँ मत कीजिए। तो कहाँ पर कसरत करें। भाई साहब! आपको अपने घर में कसरत करनी चाहिए, पूजा की कोठरी में करनी चाहिए। मोहब्बत का अभ्यास आपको अपने घर में करना चाहिए। उसके बाद उसका डिमॉस्ट्रेशन, उसका प्रदर्शन, उसका व्यवहार समाज में करना चाहिए।
प्यार अर्थात् देना
मित्रो! मोहब्बत का अर्थ होता है-देना। मोहब्बत किसे कहते हैं? मोहब्बत कहते हैं-देने को। अगर आप किसी को प्यार करते हैं, तो उसे दें। किससे प्यार करते हैं? किसी को भी प्यार करते हों। आप अपनी माता को प्यार करते हों, तो आप उनको दें। क्या दें? मान दें, सम्मान दें, उनकी सेवा करें और उनको प्यार दें। हम तो बच्चों को भी प्यार करते हैं। तो बच्चों को संस्कार दें, जिस प्रकार विनोबा भावे की माँ ने अपने बच्चों को संस्कार दिये थे। वैसे ही आप भी अपने बच्चों को संस्कार दें। अगर आप बीबी को बहुत प्यार करते हैं, तो आप उनको सम्मान दें। उनके स्वास्थ्य का संवर्धन करें। उनके ज्ञान को बढ़ायें। आप उनकी मदद करें।
चाह नहीं, कुछ माँग नहीं
मित्रो! भक्ति में माँगा नहीं जाता। भगवान की भक्ति करते हैं, तो आप भगवान को दें। नहीं साहब! हम तो भगवान से माँगेंगे। भाई साहब! भगवान की भक्ति में माँगा नहीं जाता। भक्ति में माँगने की कतई गुंजायश नहीं है। नहीं साहब! हम भगवान से चाहते हैं। भाई साहब! भगवान की भक्ति में चाहा नहीं जाता। मोहब्बत अपने आपमें इतनी पूर्ण है कि उसमें चाहने की कतई जरूरत नहीं पड़ती। भक्त काहे का जो चाहेगा? भक्ति किस बात की, जिसमें चाहा जाता है? चाहना और भक्ति का कोई ताल्लुक नहीं है। साहब! हम तो प्यार करते हैं। आप किसको प्यार करते हैं? साहब! हम तो पड़ोस की एक लड़की को प्यार करते हैं। अच्छा, तो आपको पड़ोस की लड़की से प्यार है? हाँ साहब! पड़ोस की लड़की से प्यार है। तो आप ऐसा किया कीजिए कि उसके पास पढ़ने-लिखने की कॉपी-किताब का इंतजाम कम हुआ हो, तो आप भिजवा दिया कीजिए। आपके पास फालतू नोटबुक्स हों, कापी ज्यादा हों, तो भिजवा दिया कीजिए। और? और जब वह बड़ी हो जाय और कभी हारी-बीमारी हो, तो आप उसके बारे में पता लगाया कीजिए कि उसको हारी बीमारी तो नहीं रहती है। कभी कोई उसकी इज्जत पर हमला करता हो, तो आप उन लोगों को धमकाया कीजिए कि यह हमारी बहन है। आप उसको प्यार करते हैं, तो ऐसा किया कीजिए।
इसे प्यार न कहना
नहीं साहब! हमारा यह मतलब नहीं है। क्या मतलब है आपका प्यार से? प्यार से हमारा मतलब यह है कि हम उसका ईमान खराब करना चाहते हैं। और हम उसको बेइज्जत करना चाहते हैं। प्यार से हमारा मतलब यह है कि उसकी कहीं अच्छे घर में ब्याह-शादी होती हो, तो वह न हो। हमारा यही मतलब है। अच्छा! तो आपका यही मतलब है? हाँ साहब! हमारा यही मतलब है कि हम उसका लोक-परलोक बिगाड़ना चाहते हैं। उसके बहन-भाइयों की आँखों में उसकी घृणा चाहते हैं। उसके माँ-बाप की इज्जत हम खराब करना चाहते हैं। और? और जब कभी जिन्दगी में उसकी ब्याह-शादी होगी, तो उसके दूल्हे को जब यह पता चलेगा, तो वह उसको अपने घर से निकाल देगा। तो आप यह चाहते हैं? हाँ साहब! यही चाहते हैं। आप क्या सोचते हैं और क्या करना चाहते हैं, क्या आप इसी को प्यार कह रहे थे? प्यार ऐसा होता है? प्यार इसी चीज का नाम है? इसी कमीनेपन को आप प्यार कह रहे थे? कमीनेपन को ही प्यार कहते हैं? नहीं साहब! यह तो हमारा प्यार है। खबरदार! आइन्दा जो प्यार का नाम लिया तो? तो क्या कहेंगे? जो भी चाहे आप कह सकते हैं, पर इस कमीनेपन को प्यार मत कहना।
दुष्टों का प्यार!
अच्छा, गुरुजी! इस तरह के प्यार करने वालों के कुछ नाम बताइये? भाई साहब! मैं नाम तो नहीं बता सकता, पर आप उससे पूछ सकते हैं-भेड़िये से। कौन से भेड़िये से? जो खरगोश के बच्चों को प्यार करता है। भेड़िये से पूछना कि क्यों साहब! आप सबसे ज्यादा किसको प्यार करते हैं? हम झाड़ी में छिपे बैठे रहते हैं। वे जैसे ही आते हैं, हम उन्हें खट् से पकड़ लेते हैं और सेकण्डों में खा जाते हैं। आपको किससे प्यार है? पकौड़ियों से प्यार है। तो आप पकौड़ियों को क्या करते हैं? गऽऽप्-से मुँह में डाल लेते हैं। आपको किससे प्यार है? रेवड़ी से, जलेबी से। जलेबी से आप क्या करते हैं? भाई साहब! जैसे ही जलेबी मिलती है, झट से चबाकर उदरस्थ कर लेते हैं। तो फिर आप किससे प्यार करना चाहते हैं? पड़ोस की लड़की से प्यार करना चाहते हैं। तो फिर आप उसका क्या करेंगे? हम साहब! उसको चबाकर खत्म कर देंगे। उसको खा जायेंगे। आप ऐसा प्यार करेंगे? आप ऐसा प्यार करना चाहते हैं? दुष्ट कहीं के।
परमार्थ में निहित है आपका सच्चा स्वार्थ
परम पूज्य गुरुदेव ने इससे पूर्व कहा कि भावावेश नहीं है भक्ति। भक्ति का अर्थ है मोहब्बत। भक्ति पराधीनता नहीं है। भारत की दुर्दशा भक्ति का मर्म न समझने के कारण ही हुई। भक्ति का विकृत स्वरूप आया तो हम कायर हो गए, गुलाम हो गए। जो परावलम्बन की ओर ले जाय वह भक्ति घातक है, विकृत है। भक्ति का सही स्वरूप है ‘‘रसो वै सः’’। भगवान से आदर्शों से प्यार। जब सिद्धान्तों से प्यार हो जाता है तो सही भक्ति जीवन में आती है। रामनारायण जी का एक बड़ा सुन्दर उदाहरण पूज्यवर ने विगत अंक में प्रस्तुत किया था कि उनने सच्चाई को, सिद्धान्तों को जीवन में उतारा, कभी रिश्वत नहीं ली, सबका काम ठीक से किया तो बड़े से बड़े अधिकारियों ने उनकी मृत्यु के बाद उनके बच्चों को पढ़ाया। सारे बच्चे आय. ए. एस. हुए। यह है भक्ति का-आदर्शों से प्यार का चमत्कार। भक्तियोग का अर्थ है मोहब्बत। देना-अपनी भावनाएँ बाँटना। भक्ति में कुछ माँग नहीं होती। दुष्टों का लौकिक प्यार भक्ति नहीं होता। अब आगे पढ़ें।
अनड्यू एडवान्टेज
मित्रो! भक्ति को आप ऐसा ही प्यार कहना चाहते हैं? आप भगवान का ईमान खराब करेंगे, ताकि सृष्टि की व्यवस्था के लिए उसने जो मर्यादा, नियम, कायदे और कानून बना रखे हैं, उनका उल्लंघन हो। आप भगवान से यह चाहते हैं कि जिस सुप्रीम कोर्ट के जज के स्थान पर वह बैठा हुआ है, वहाँ वह आपकी सिफारिश करे और आपके ऊपर जो इल्जाम लगे हुए हैं, उनसे आपको रिहा करा दे। आप यही चाहते हैं न ?? अपने मित्र का और अपने बड़े का जो मान और पद न्यायाधीश के रूप में बना हुआ है, वह आप खराब कराना चाहते हैं? हाँ साहब! हम तो खराब कराना चाहते हैं। क्यों? क्योंकि इससे हमारा उल्लू सीधा होता है। हमारी मनोकामना पूरी होती है। अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए आप भगवान की इज्जत खराब करा रहे थे। भगवान के पद का दुरुपयोग करा रहे थे। भगवान को ऐसे काम करने के लिए उन्हें आप मजबूर कर रहे थे, जो उनको नहीं करने चाहिए। जो आपके कर्मों के हिसाब से ‘ड्यू’ नहीं हैं, आप ‘अन् ड्यू एडवाण्टेज’ लेना चाहते थे। हाँ साहब! हम अन्ड्यू एडवाण्टेज लेना चाहते थे अर्थात् मनोकामना पूरी कराना चाहते थे।
मनोकामना का अर्थ होता है-‘अनड्यू एडवाण्टेज’। अगर आपका ड्यू है, तो आपको मिलेगा। इसके लिए आप भगवान से झगड़ सकते हैं कि आपको देना चाहिए। देखिए, हमने ऐसा किया था और अब आप क्यों नहीं देते? मजदूर हमसे लड़ने के लिए खड़ा हो जाता है और कहता है कि देखिए साहब! हम आपके यहाँ चार दिन से काम कर रहे हैं और आप तनख्वाह नहीं देते। यह भी कोई तरीका है? आपने क्यों काम कराया? लाल-लाल आँखें लेकर आ जाता है और लड़ने के लिए उतारू हो जाता है और आप भी चाहें तो भगवान से लड़ने के लिए उतारू हो सकते हैं कि आप हमारी इस जिन्दगी के कौन होते हैं? हमारी मेहनत का फल आप क्यों नहीं देते? आप भगवान से लड़ सकते हैं। लेकिन आप ज्यों ही दीन होते हैं, गिड़गिड़ाते हैं, नाक रगड़ते है, तो यह आपकी कमजोरी होती है। आपका कॉन्शस यह समझता रहता है कि हम ‘अन्ड्यू एडवाण्टेज’ लेना चाहते हैं, जिसके कि हम हकदार नहीं हैं, जो हमको नहीं मिलना चाहिए। जो हमारे पुरुषार्थ से तालमेल नहीं रखता। जो हमारी योग्यता के अनुरूप नहीं है। जो हमारे पराक्रम-पुरुषार्थ से सम्बन्ध नहीं रखता। इस तरह की चीजें आप माँगना चाहते हैं।
सिद्धान्तों से प्यार
मित्रो! मैं आपको भक्ति के सिद्धान्तों को समझा रहा था और यह कह रहा था कि अगर आपके पास भक्ति आयेगी, तो आप सिद्धान्तों से प्यार करेंगे और जब आप सिद्धान्तों से प्यार करेंगे तब? तब आप निहाल हो जायेंगे। फिर आप समझिये कि आपका नाम सिद्धान्त से प्यार करने वाले सन्तों की परम्परा में दर्ज हो जायेगा। अगर आप सन्त परम्परा में देखना चाहें, तो वह मैं आपको बता दूँगा। अगर आप राजनेताओं का नाम जानना चाहें, तो मैं एक लिस्ट खड़ी कर दूँगा। किसकी? महामना मालवीय जी से लेकर सरदार पटेल तक, इतनी बड़ी लिस्ट बना दूँ कि जिसमें हर वह आदमी आ जायेगा, जो सिद्धान्तों के साथ प्यार करता रहा और उन्नत करते-करते कहाँ से कहाँ जा पहुँचा।
मित्रो! महामना मालवीय जी का नाम मुझे याद आ गया। वह हमारे दीक्षा गुरु थे। उन्होंने हमको जनेऊ पहनाया था। क्या है उनकी बात? उनकी बात यह है कि वे पहले बनारस में थे और वकालत करते थे। वकील थे। कालाकाँकर महाराज को ऐसे ही पण्डितों से, ज्ञान-ध्यान करने वालों से अच्छी मेल-मुलाकात रहती थी। कालाकाँकर महाराज का मालवीय जी से अक्सर मिलना-जुलना होता रहता था। वकालत के मामले में भी आते रहते थे। एक बार राजा साहब को मौज आ गयी। उन्होंने पूछा-क्यों वकील साहब। एक बात बताइये। क्या? आपकी वकालत में आमदनी क्या है? सच-सच बताना? उन्होंने साल भर का हिसाब देखकर बताया कि राजा साहब! दो सौ रुपया महीना हम कमा लेते हैं। बस, दो सौ रुपया? हाँ, दो सौ रुपया। अच्छा, तो मालवीय जी देखिए आप हमारे यहाँ आ जाइये। हम आपको ढाई सौ रुपये महीने दिया करेंगे। वकालत छोड़कर मालवीय जी ढाई सौ रुपये की नौकरी के लिए कालाकाँकर महाराज के पास चले गये।
व्यक्तित्व से बनें महान
यह है मालवीय जी का स्वरूप, लेकिन सिद्धान्तों से प्यार करने के कारण, न कि चन्दा वसूल करने के कारण। आदमी का वजन और व्यक्तित्व किससे बढ़ता है? सिद्धान्तों से। आदमी का वजन दुनिया में किसने बढ़ाया? सिद्धान्तों के पालन ने। सिद्धान्तों का पालन करने की वजह से मालवीय जी की हस्ती और व्यक्तित्व इतना बढ़ता हुआ चला गया। उन्होंने करोड़ों रुपया इकट्ठा कर दिया और उन करोड़ों रुपयों से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय बना दिया और भी जाने क्या से क्या कर दिया। हिन्दुस्तान की तवारीख में क्या से क्या हो गया। मैं उन सारे नामों को बताऊँ? सारे नाम एक से बढ़कर एक हैं। लेकिन आज लोगों के अन्दर चालाकी भरी हुई है। वे चालाकी से नेता हो जाते हैं, अभिनेता हो जाते हैं और इनके ऊपर हर आदमी धिक्कारता है। व्यक्तित्व का नेता बनने के लिए सुभाषचन्द्र बोस होना चाहिए। सुभाषचन्द्र बोस कहाँ तक पढ़े थे? जहाँ तक आप पढ़े हैं, वहीं तक सुभाषचन्द्र बोस पढ़े थे। आय.सी.एस. होने जा रहे थे। पर सब छोड़ दिया। क्यों साहब! कुछ तो करना पड़ा होगा? हाँ भाई साहब! सिद्धान्तों से प्यार करना पड़ा था उन्हें। नहीं साहब! वे राजनीति के नेता थे। राजनीति के ऊपर लानत। वे राजनीति से नहीं हुए थे महान। वे व्यक्तित्व से महान बने थे। आदमी के व्यक्तित्व को तो आप समझते ही नहीं कि व्यक्तित्व किसे कहते हैं? चरित्र किसे कहते हैं? आपको राजनीति मैं बता दूँगा। धर्मनीति मैं बता दूँगा। जिस क्षेत्र में भी आप जानना चाहें, मैं प्रत्येक क्षेत्र में बताता हुआ चला जाऊँगा।
पढ़ें महामानवों का इतिहास
मित्रो! आदमी का वजनदार व्यक्तित्व कैसे बनता है और वजनदार व्यक्तित्व की वजह से वह जनता के मध्य सम्मानित कैसे होता है और उनको जन सहयोग कैसे मिलता है? आपको मैं बता सकता हूँ। जन सहयोग मिलने के कारण से आदमी छोटी से छोटी हैसियत का होने पर भी ऊँची से ऊँची हैसियत तक कैसे पहुँचता हुआ चला जाता है, आप समझते क्यों नहीं? आपने इतिहास पढ़ा है या नहीं? आप इतिहास पढ़िए। नहीं साहब! हमने तो सब पढ़ा है। किसका पढ़ा है? वायसराय का पढ़ा है और मुसलमानों का इतिहास पढ़ा है। उनका मत पढ़िए। आप उनका इतिहास पढ़िए, जिनको हम महामानव कहते हैं। आप प्रत्येक क्षेत्र के महामानव-धार्मिक क्षेत्र के महामानव, राजनैतिक क्षेत्र के महामानव, विद्या के क्षेत्र के महामानव-किसी भी क्षेत्र के महामानवों का इतिहास पढ़िये और इतिहास में से एक नतीजा निकालिए। क्या चीज निकालें? यही कि उन्होंने कैसे सिद्धान्तों से प्यार किया था और सिद्धान्तों से प्यार करने की वजह से इतने प्रामाणिक होते चले गये कि जनसाधारण ने उन्हें असीम प्यार दिया। असीम प्यार ही नहीं दिया, वरन् असीम सहयोग भी दिया। असीम प्यार और असीम सहयोग पाकर छोटे-छोटे लोग महात्मा गाँधी हो गये, कबीर हो गये, बुद्ध हो गये, नानक हो गये और जाने क्या से क्या हो गये।
आदमी नहीं सिद्धान्तों से प्यार
मित्रो! मैं भक्ति के बाबत कह रहा था। मोहब्बत उसे कहते हैं, जिसमें हम सिद्धान्तों को प्यार करते हैं। जिनसे भी हमारा सम्बन्ध होता है, उनको भी हम प्यार करते हैं। हमारी यह नीयत रहती है कि इनको हम क्या चीज देंगे, क्योंकि हम उनको प्यार करते हैं। आपको हम प्यार करते हैं, इसलिए हमारे मन में जो बनावट होनी चाहिए, वह सिर्फ एक ही बनावट होनी चाहिए कि हम आपके लिए क्या त्याग कर सकते हैं? हमको आपके लिए क्या करना चाहिए? आपको ऊँचा उठाने के लिए क्या हम मददगार बन सकते हैं? हाँ, बन सकते हैं। पर हमको हर क्षण अपने आपसे यह पूछना चाहिए और जो हमारे लिए सम्भव हो, वह करना चाहिए। ठीक इसी तरीके से किसी महिला से, किसी लड़की से, किसी सम्बन्धी से आप मोहब्बत करते हैं, तो आपको निरन्तर एक ही विचार करना चाहिए कि उसका व्यक्तित्व और स्तर ऊँचा उठाने के लिए हम क्या कर सकते हैं? उसको प्रसन्न करने के लिए नहीं। आदमियों को प्रसन्न करने की बात मत सोचिए। आदमी बड़े बदमाश हैं। उनको प्रसन्न करने की कोशिश करेंगे तो आप मरेंगे। आदमियों को मत प्रसन्न कीजिए। वे बड़े बदकार हैं। नहीं साहब! हम अपने भतीजे को प्यार करते हैं और प्रसन्न करना चाहते हैं। इसलिए वह जिसमें प्रसन्न होगा, हम वही करना चाहते हैं। मत कीजिए भतीजे को प्यार। नहीं साहब! हम उसे प्यार करते हैं। आप उसे प्यार नहीं करते, वरन् वह जो चाहता है, आप वह करना चाहते हैं। हाँ साहब! हम वही करना चाहते हैं। जिसमें वह खुश हो सके। मित्रो! अगर आप लोगों को खुश करना चाहेंगे, तो आप अपनी आत्मा-परमात्मा को खुश नहीं कर सकते। आप अपनी आत्मा को खुश कीजिए और अपने परमात्मा को खुश कीजिए। दुनिया नाराज होती है, तो एक सिरे से अन्त तक नाराज होने दीजिए। मैं आपको यह क्या समझा रहा था? भक्ति के सिद्धान्त समझा रहा था। भक्ति की निशानी बता रहा था। भक्ति एक दृढ़ता है, भक्ति एक फिलॉसफी है। भक्ति एक आदर्श है। यह एक ऐसा आदर्श है कि अगर यह आपके जीवन में समाविष्ट हो सके, तो मैं आपसे कहता हूँ कि आप निहाल हो जायेंगे।
एक ही प्रश्रय भगवान का
मित्रो! मैंने कल आपको ज्ञानयोग के बाबत बताया था। ज्ञानयोग की दूसरी धारा के बाबत, गंगा-यमुना की धारा के बाबत तथा दूसरी धाराओं के बाबत जानकारी दिलायी थी। और आपसे यह कहा था कि आपको अपने सम्बन्ध में जानकारी होनी चाहिए। मैं यह जानता हूँ कि आपको बहुत जानकारी है। आप बी.ए. हैं, एम.ए. किया है, पीएच.डी. किया है। वह आपको मुबारक हो। आपके बारे में हमें बहुत जानकारी है। आपका जनरल नॉलेज बहुत है, लेकिन वह आपके किसी काम का नहीं है। क्यों? क्योंकि आप अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान तक नहीं कर सके। आपको यह तक पता नहीं चल सका कि हम कहाँ से आये हैं और हम कहाँ जा रहे हैं? आपको इस बात की भी जानकारी नहीं है कि कल-परसों के बाद अर्थात् शरीर त्यागने के बाद में आपका क्या होना है? भगवान के यहाँ आपसे एक ही सवाल पूछा जाना है। भगवान के दरबार में आपको जरूर पेश होना है, आप निश्चिन्त रहिए। वहाँ आपसे एक ही सवाल पूछा जाना है कि आपको जो जिन्दगी मिली थी, उसका आपने क्या किया? इस जिन्दगी से आपको क्या करना था? जिन्दगी से आपको यह काम करना चाहिए था कि अपूर्णता को पूर्णता में परिवर्तित करना।
क्या किया जिन्दगी का?
मित्रो! सारी जिन्दगी हम अपूर्णता में, चौरासी लाख योनियों में घूमते चले आये। अपूर्णता से पूर्णता में आने का एक ही रास्ता था-इनसानी जीवन। आप चाहते तो पूर्णता प्राप्त कर सकते थे, जिसको हम ‘मुक्ति’ कहते हैं। जिसको हम स्वर्ग कहते हैं, जिसको हम शान्ति कहते हैं। इसके लिए क्या करना चाहिए? आपको सिर्फ एक काम करना चाहिए था-अपने कषाय-कल्मष को धोकर साफ कर लेना चाहिए था। यही दो रुकावटें हैं-भगवान और इन्सान के बीच। उन्हें एक नहीं दो रुकावटें कह सकते हैं। यह एक ऐसी परिधि खड़ी हो गयी है, जिसमें भगवान उस परिधि के पीछे बैठे हैं और हम एक दूसरे की शक्ल नहीं देख सकते। हम एक दूसरे की सहायता नहीं कर सकते। वैसे तो हम बहुत नजदीक बैठे हुए हैं, पर बीच में वह कौन सी दीवार है, जो ईंट-चूने की बनी हुई है। कषाय की ईंटें और कल्मष के चूने से बनी हुई है, बस।
तप का अर्थ समझिए
मित्रो! भगवान को पाने के लिए क्या करना चाहिए? कुछ नहीं करना चाहिए। तप करना चाहिए? हाँ, तप कर सकते हैं। तप कैसे कर सकते हैं। तप करने का मतलब ब्लैकमेलिंग नहीं है। जैसा आप समझते हैं कि हम तप करेंगे, भूखे रहेंगे। हम पानी नहीं पियेंगे, हम रोटी नहीं खायेंगे। फिर आप क्या करना चाहते हैं? आप भगवान पर दबाव डालना चाहते हैं। हाँ साहब! हम भगवान पर दबाव डालने के लिए तप कर रहे थे। अच्छा, तो आप दबाव डालकर काम कराना चाहते हैं? हाँ, हम खाना नहीं खायेंगे, तो भगवान की नाक में दम हो जायेगी और भगवान की बड़ी निन्दा और बदनामी हो जायेगी। तब भगवान अपनी नाक कटने से बचाने के लिए, अपनी लाज बचाने के लिए हमारी मर्जी को पूरा कर देंगे। इसीलिए तप कर रहे थे। तप करने से आपका मतलब यही था? हाँ साहब! यही था। मित्रो! तप करने का यह मतलब नहीं हो सकता। तप करने से मतलब वह मशक्कत है, वह मेहनत है, जो कषाय और कल्मषों की दीवार को तोड़ने के लिए हमको अपने आपसे जद्दोजहद करनी पड़ती है। अपने आपको साथ में लड़ाई करनी पड़ती है। इसी का नाम तप है। पसीना बहाना इसी का नाम है। गरम करना इसी का नाम है। गर्मी इसी का नाम है। आप अपने अन्दर भरे हुए कषाय-कल्मषों के खिलाफ एक जेहाद खड़ी कर दें, एक महाभारत खड़ी कर दें। यह क्या हो गया? ज्ञान हो गया। ज्ञानयोग क्या है? ज्ञानयोग यह है कि हम पूर्णता को कैसे प्राप्त कर सकते हैं।
कषाय कल्मषों से मुक्ति
साथियो! एक और चीज है, जो हमारे फायदे में है। वह है हमारा स्वार्थ। हमारा सबसे बड़ा स्वार्थ होना चाहिए-जिन्दगी की पूर्णता। अगर आप स्वार्थी हैं, तो आपको एक ही स्वार्थ पूरा करना चाहिए और अपनी इसी जिन्दगी में उस स्थान पर जा पहुँचना चाहिए और वह सफलता प्राप्त कर लेनी चाहिए, जो सबसे ऊँची सफलता कहलाती है। सबसे ऊँची सफलता क्या है? आप इन्सान से भगवान बनें, नर से नारायण बनें, पुरुष से पुरुषोत्तम बनें। लघु से महान बनें। यह आपकी सबसे बड़ी सफलता है और आप यह कर सकते हैं। इसके लिए क्या करना पड़ेगा? आपको अपनी क्षुद्रताओं से लड़ना पड़ेगा। आपको अपनी क्षुद्रताएँ घटानी पड़ेंगी और अपनी महानताएँ बढ़ानी पड़ेंगी। इसी को मैंने कषाय और कल्मषों का निराकरण कहा था। अगर आपको आत्मज्ञान आ जाय, तो आपके भीतर से एक ऐसी हूक उठेगी, जो आपको बेचैन कर देगी। और यह कहेगी कि हमको पूर्णता की ओर चलने के लिए अपनी गतिविधियों और कार्य प्रणालियों का निर्माण ऐसा करना चाहिए जिससे कि हमारे भीतर से अपूर्णता को दूर करके पूर्णता प्राप्त करने का अवसर मिल सके। अगर आपके भीतर ज्ञान नहीं आये, तब? फिर आपको यह जञ्जाल जकड़े रहेंगे।
भौतिक नहीं आत्मज्ञान पाएँ
मित्रो! संसार में इतना बड़ा जञ्जाल है कि आप इसे कहाँ तक पूरा कर सकेंगे। हम पुस्तकें पढ़ते हैं? क्यों पढ़ते हैं आप? साहब! हम तो फिजिक्स पढ़ते हैं। बेटे, फिजिक्स इतना बड़ा विषय है कि आप जैसे तीन सौ अस्सी आदमी जन्म से मृत्यु तक इसे पढ़ें, तो भी नहीं पढ़ सकते। जिन लोगों ने इस विषय को ढूँढ़ लिया है, उसको आप सारी जिन्दगी तक क्या पढ़ेंगे। नहीं साहब! हम बड़े ज्ञानवान हैं। बड़े आये ज्ञानवान बनने वाले। मित्रो! क्या करना चाहिए? हम जिसको आत्मज्ञान कहते हैं, जिसको हम ज्ञानयोग की बाबत कह रहे थे। उस ज्ञानयोग की एक किरण जब आपके भीतर आएगी, तो आपको स्वयं के बारे में विचार करना पड़ेगा कि इनसानी जिन्दगी जो हमारे लिए सबसे बेहतरीन उपहार था, सबसे नायाब मौका था, इसका हम अच्छा उपयोग कर सकते थे क्या? आप विचार करेंगे तो आपको हजार रास्ते मिलेंगे। अगर आप विचार नहीं करेंगे, तो सब रास्ते बन्द मिलेंगे। नहीं साहब! हम तो उन्नति कर सकते हैं और हमारे घर की परिस्थितियाँ ठीक नहीं हैं। इस तरह आपको हमेशा परिस्थितियों की शिकायतें करनी पड़ेंगी। आप जन्म भर परिस्थितियों की शिकायतें करते चलेंगे और जन्म भर यह बहाने बनाते चलेंगे कि हमको तो फुर्सत ही नहीं मिली थी। परिस्थितियाँ ही नहीं मिली थीं। बेटे, ये बेकार के बहाने हैं। इनमें कोई दम नहीं है। जब तक आपमें आत्मज्ञान का अभाव रहेगा, तब तक आप हमेशा शिकायतें करते रहेंगे। अगर आपके पास ज्ञान आया, तो आपके मन में से एक और बात उठ सकती है और उस चीज का नाम है परमार्थ।
सर्वोच्च स्वार्थ
इस तरह एक है स्वार्थ, जिसका अर्थ है-अपने आपको पूर्ण बना लेना। उन्नति करनी है तो ढंग की उन्नति कीजिए। नहीं साहब! अपना मकान बना लेंगे, ग्यारह रुपये की तरक्की हो जायेगी और हमारी नौकरी में बढ़ोत्तरी हो जायेगी। बेटे, यह क्या तरक्की है? तरक्की करनी है, तो पूरी कीजिए न और फिर भगवान के मुकाबले जाइये न? सन्तों के मुकाबले पहुँचिए न। देवताओं के मुकाबले पहुँचिए न? नहीं साहब! हमारी बेइज्जती हो गयी है और हमसे छोटे आदमी सब-आर्डिनेट का प्रमोशन हो गया और हमारा नहीं हुआ। तो फिर आप अपना वह प्रमोशन कीजिए, जिसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। बड़ी बातों को आप समझते नहीं हैं और छोटी-छोटी बातों के लिए फिरते हैं। मित्रो! अगर आपको अपना स्वार्थ साधना है, तो वह एक बात पर टिका हुआ है, जिसको अक्ल कहते हैं। नहीं साहब! अक्ल तो बहुत तेज है। हम फर्स्ट डिवीजन पास हो गये, मैं उस वक्त की बात नहीं पूछता। मैं तो उस अक्ल की बात पूछता हूँ, जिसको हम प्रज्ञा कहते हैं। जिसकी गायत्री मंत्र में उपासना की गयी है। प्रज्ञा की बाबत एक और बात है। कौन सी बात? आपका परमार्थ, जिसको हम परम स्वार्थ कहते हैं। परम स्वार्थ क्या हुआ? परमार्थ। परमार्थ वह है जो भगवान के लिए किया जाता है। एक अपने लिए करना और दूसरा भगवान के लिए करना। भगवान की प्रसन्नता के लिए, भगवान पर एहसान जताने के लिए, भगवान के कर्ज-ऋण चुकाने के लिए क्या हम कुछ कर सकते हैं? क्या कर सकते हैं। एक काम कर सकते हैं कि भगवान की इस खूबसूरत दुनिया को सुन्दर बनाने के लिए, समुन्नत बनाने के लिए, श्रेष्ठ बनाने के लिए हम अपना पसीना बहा सकते हैं। और अपनी अक्ल लगा सकते हैं और अपनी कमाई का हिस्सा लगा सकते हैं।
कैसे करें भगवान को प्रसन्न
मित्रो! भगवान के लिए हमको लगाना चाहिए। आप धूपबत्ती जलाइए, चाहे न जलाइए। भाई साहब! धूपबत्ती आपके काम आयेगी। महीने भर में आप पच्चीस पैसे बेकार गवाँ देते हैं। पच्चीस पैसे की एक कप चाय पिया कीजिए। एक कप चाय से गर्मी आ जायेगी, पसीना आ जायेगा। लेकिन धूपबत्ती जला देने से आपको कोई फायदा नहीं है। नहीं साहब! धूपबत्ती से हम भगवान को प्रसन्न करेंगे। आप भगवान को प्रसन्न नहीं कर सकते। भगवान को धूपबत्तियों से कोई ताल्लुक नहीं है। तो फिर आप क्या काम करेंगे? एक ही काम है। अगर आप भगवान को प्रसन्न करना चाहते हैं, आत्मा को, मन को प्रसन्न करना चाहते हैं, तो अपने जीवन का स्तर ऊँचा बनाइये। अगर आपमें ज्ञान, अक्ल हो, तो तब अक्ल का दूसरा इस्तेमाल करें।
भगवान की हमसे अपेक्षाएँ
मित्रो! भगवान की भी जरूरत है। भगवान से आपकी भी कुछ जरूरतें हैं, कुछ रिक्वायरमेंट्स हैं। आपकी भी भगवान से कुछ शिकायतें हैं। लेकिन एक दिन मैंने भगवान जी से पूछा कि इंसान से आपकी भी तो कुछ आवश्यकताएँ नहीं हैं? उन्होंने कहा कि ‘हाँ। इन्सान से हमारी भी कुछ माँगें हैं।’ क्या माँगें हैं? उन्होंने कहा-‘जिस दिन आपको पैदा किया था, तो बस एक काम के लिए पैदा किया था कि आप उसकी खूबसूरत दुनिया को, उसकी बनायी हुई दुनिया को ज्यादा सुन्दर, ज्यादा समुन्नत, ज्यादा श्रेष्ठ बनाने के लिए अगर आप कुछ योगदान कर सकते हों, तो करें।’ भगवान ने आपको एक असिस्टेण्ट के रूप में, एक इंञ्जीनियर के रूप में, एक सब-आर्डिनेट के रूप में, एक प्राइवेट सेक्रेटरी के रूप में बनाया था, ताकि हमारी अक्ल का, हमारे जैसा, हमारी योग्यताओं-विभूतियों से भरा हुआ हमारा एक उत्तराधिकारी पैदा होगा। वह हमारे राज्य, हमारी हुकूमत और हमारी दुनिया को ज्यादा सुन्दर और समुन्नत बनाने मे हमारा हाथ बँटायेगा। परन्तु आपको तो भगवान से एक ही अपेक्षा है कि आप भगवान को धूपबत्ती चढ़ायेंगे। भाई साहब! एक दिन हमने भगवान से पूछा-‘क्यों साहब! आपको कितनी धूपबत्तियों की अपेक्षा है?’ कहिए तो हम किसी आदमी से धूपबत्ती का एक बण्डल पार्सल से भिजवा दें? भगवान जी ने कहा-‘गुरु जी! आप लोगों से कह देना कि हमें धूपबत्तियों की कतई जरूरत नहीं है।’
भगवान का संदेशा
मित्रो! हमने फिर एक दिन भगवान जी से पूछा-‘क्यों साहब! लोगों का यह ख्याल है कि सवा रुपये का प्रसाद बाँटने से आपका गुजारा हो जाता है और आप प्रसाद खा करके प्रसन्न हो जाते हैं?’ भगवान जी ने कहा-‘लोगों से आप कह देना कि यह सब बेकार है। प्रसाद बाँटने से या न बाँटने से हमें कोई शिकायत नहीं है। हमको प्रसाद खाना होगा, तो हम किसी शक्कर की फैक्ट्री में जा बैठेंगे। शक्कर की फैक्ट्री में चूहे बन जायेंगे, चीटी बन जायेंगे और अपनी मनमर्जी की चाहे जितनी शक्कर खा लिया करेंगे। लोगों को पैसा खराब करने की और प्रसाद बाँटने की कोई जरूरत नहीं है।’ हमने कहा-‘साहब! लोग तो नहीं मानते। वे तो कहते हैं कि हम सवा रुपये का प्रसाद बाँटेंगे। या मंगल के दिन हनुमान जी को मिठाई चढ़ा देंगे, तो हनुमान जी खुश हो जायेंगे।’ तो फिर भगवान जी ने चुपके से कान में कहा-‘‘आप औरों से तो मत कहना, पर हमारी ओर से संदेश दे देना कि हनुमान जी ने यह कह दिया है कि हमको डायबिटीज हो गयी है। आप शक्कर की गोलियाँ खिलायेंगे तो हम और ज्यादा बीमार हो जायेंगे, तो लोग मान जायेंगे। पागलों से, लोगों से आप यही कहना।’’ इन पागलों से आप यही कहना कि जो देवी को बकरा खिला करके, हनुमान जी को चने के लड्डू खिला करके और भगवान जी को चाँदी के छत्र चढ़ा करके उन्हें प्रसन्न करना चाहते हैं, उनसे कहना कि पागलो! गहराई में चलो, वास्तविकता को समझो।’’
दुनिया और अच्छी बनाइए न!
मित्रो! भगवान क्या चाहते हैं? सिर्फ एक ही चीज चाहते हैं कि उस भगवान की दुनिया को सुंदर और समुन्नत बनाने के लिए, खुशबूदार बनाने के लिए आप क्या कुछ कर सकते हैं? साहब! हम क्या कर सकते हैं? इस दुनिया को सुन्दर बनाने के लिए आप बहुत कुछ कर सकते हैं। आपके पास पैसा न हो, तो कोई बात नहीं है। आप अपना पसीना खर्च करके हजारी किसान के तरीके से सारे बिहार में आम के बगीचे लगा सकते हैं और अपने आपको अजर-अमर बना सकते हैं। पिसनहारी के तरीके से अपनी मेहनत और मशक्कत लगाकर तथा पसीना बहाकर दुनिया को सुन्दर बनाने के लिए आप बहुत काम कर सकते हैं। पीड़ा और पतन से दुनिया बेहाल है। आप दुनिया के मानसिक पतन और शारीरिक पीड़ा तथा अभाव और अज्ञान को दूर करने के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। अपनी अक्ल के सहारे, अपनी समझ के सहारे, अपने परिश्रम के सहारे, अपने पैसे के सहारे आप इस मद में बहुत कुछ कर सकते हैं।
खबरदार! जो यह कहा तो!
नहीं साहब! हमारे पास तो पैसा नहीं है। पैसा नहीं है, यह तो भाई साहब मत कहिए। आप तो यों कहिए कि हमारा दिल नहीं है। ऐसा शब्द कहेंगे तो मैं मान लूँगा। आप यह बताइये कि आपके कितने बच्चे हैं। साहब! तीन बच्चे हैं। तो मैं यह पूछता हूँ कि अगर भगवान आपको एक और बच्चा दे दे, तो आप उसका पालन करेंगे कि नहीं? इस चौथे बच्चे को आप जिन्दा रखेंगे या मारकर फेंक देंगे? नहीं साहब! उसको भी जिन्दा रखेंगे। हम जो खायेंगे, वह उसे भी खिला देंगे, कपड़ा पहना देंगे, ब्याह-शादी भी कर देंगे। जब आप चौथे बच्चे का पालन कर सकते हैं, उसे रोटी दे सकते हैं, उसी गरीबी में से, तो आप एक हिस्सा भगवान को क्यों नहीं दे सकते? कृपण कहीं का, निष्ठुर कहीं का। फिर बार-बार यह क्यों कहता है कि कंगाली में आ गया। जब कंगाली में आ गया है, तो फिर रोटी कैसे खाता है? बड़ा आया कंगाली में आने वाला।
हो इस स्तर की भक्ति
मित्रो! भगवान के लिए हम प्रत्येक परिस्थिति में कुछ कर सकते हैं। हम गरीबी में भी कुछ कर सकते हैं। हम व्यस्त जीवन में भी कुछ कर सकते हैं। हम अभाव में भी कुछ कर सकते हैं, दरिद्र होकर भी कुछ कर सकते हैं। हम शरीर से असमर्थ होने पर भी कुछ कर सकते हैं। महिला होकर भी कुछ कर सकते हैं। देश के लिए, धर्म के लिए, समाज के लिए, संस्कृति के लिए अर्थात् भगवान के लिए हमें कुछ न कुछ जरूर करना चाहिए। अगर आपके भीतर इस तरह की भक्ति उत्पन्न हो, तो मैं यह कहूँगा कि आप भगवान के भक्त हैं। आप भगवान के परायण हैं अर्थात् आपने भक्ति करना जान लिया है और भगवान को कुछ देना सीख लिया है। आप अपने आपको दीजिए, ताकि आप अजर-अमर बन सकें और जीवन की पूर्णता को प्राप्त कर सकें। भगवान को आप दीजिए, ताकि उसकी दुनिया को ज्यादा समुन्नत, ज्यादा शानदार और ज्यादा श्रेष्ठ बनाने में समर्थ हो सकें। इसको हम चरित्रनिष्ठा और समाजनिष्ठा कहते हैं। समाज निष्ठा यानि भगवान की पूजा अर्थात् चरित्रनिष्ठा। आत्म साक्षात्कार चरित्र निष्ठा के ऊपर निर्भर है।
ज्ञानवान-भक्तिवान
मित्रो! यह क्या चीज है? यह चरण नम्बर एक है ज्ञान का और चरण नम्बर-दो? आपके भीतर से जब ज्ञान की धारा उदय होगी, तो दो चीजें आपके सामने खड़ी हो जायेंगी। रोटी भी जरूरी है, कपड़ा भी जरूरी है, ठीक है। पेट भी जरूरी, औलाद भी जरूरी-ये भी ठीक है। शरीर को सुविधा भी जरूरी है, मनोरञ्जन भी जरूरी है-ये भी ठीक। सब ठीक है, लेकिन यह भी ठीक है कि आपकी मौलिक आवश्यकताएँ, सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ दो हैं। कौन-कौन सी दो हैं? एक आवश्यकता वह है जिसमें हम अपना आत्मकल्याण करते हैं और दूसरी वाली हमारी आवश्यकता वह है, जिसमें हम लोक कल्याण करते हैं। लोक कल्याण और समाज कल्याण करने के लिए जब आपके भीतर से उमंग उत्पन्न हो, तो मैं कहूँगा कि आप ज्ञानवान हो गये और आप भक्तिवान हो गये। ‘‘ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय।’’ इन सिद्धान्तों को अगर आप हृदयंगम कर लें, तो आपका ज्ञानयोग सार्थक और आपका भक्तियोग सार्थक है।
विडम्बनाओं से बाहर आएँ
साथियो! अगर आपने ऐसा न किया, तब ठीक है। विडम्बनाएँ तो चल ही रही हैं, मजाक तो चल ही रहा है, मखौल तो चल ही रहा है, दिल्लगीबाजी तो चल ही रही है, आप भी इसमें शामिल हो जाइये। बहुत से आदमी हैं दिल्लगीबाज, भगवान का मखौल उड़ाने वाले, आत्मा का मखौल उड़ाने वाले, परमात्मा का मखौल उड़ाने वाले। छोटे-छोटे कृत्यों, कर्मकाण्डों के आधार पर अपने मन को बहलाने वाले ढेरों के ढेरों आदमी भरे पड़े हैं, आप भी उन्हीं में शामिल हो जाइये। लेकिन अगर आपको शामिल न होना हो और आपको वास्तविकता के नजदीक जाना हो, गायत्री माता का वास्तविक स्वरूप समझना हो, गायत्री माता की वास्तविक कृपा की आवश्यकता हो। गहरी और तात्त्विक उपासना करनी हो, तो मैं आपसे कल भी निवेदन कर रहा था और आपसे आज भी जोरदार शब्दों में निवेदन करूँगा कि आपको भक्तियोग का अनुयायी होना चाहिए और आपको ज्ञानयोग का अनुयायी होना चाहिए।
योग की त्रिवेणी
मित्रो! तीसरा वाला एक और चरण रह गया है। दो चरण मुख्य हैं। तीसरा इनको मिला देने से बन जाता है। गंगा, यमुना दो मुख्य हैं। इसी तरह ज्ञान और भक्ति दो मुख्य हैं। इन दोनों का जब समन्वय हो जाता है, तो एक और नदी बन जाती है, जिसको हम ‘सरस्वती’ कहते हैं। जिसको हम ‘कर्मयोग’ कहते हैं। ‘कर्मयोग’ क्या है? सैद्धान्तिक, भावनात्मक और बौद्धिक-इन तीनों का जब समन्वय हो जाता है, तो हमारे व्यवहार में और आचरण में जो बात बन जाती है, वह ‘कर्मयोग’ कहलाती है। मूल धारायें दो ही हैं। गंगा और यमुना दो ही हैं। दिन और रात दो ही हैं, लेकिन दिन और रात को मिला देने से संध्या हो जाती है। ज्ञानयोग और भक्तियोग-दो ही योग हैं। इन दोनों को मिला देने से ‘कर्मयोग’ बन जाता है। इन सिद्धान्तों और भावनाओं का समन्वय करने से जब हम अपने व्यावहारिक जीवन में उन्हीं आदर्शों को और सिद्धान्तों को स्थान देते हैं, तो हम ‘कर्मयोगी’ कहलाते हैं। मित्रो! ‘कर्मयोग’ के बाबत रह गया, इस बाबत फिर बताऊँगा।
आज की बात समाप्त।
ॐ शान्तिः