Books - ज्ञान दीक्षा एवं समावर्तन संकल्प
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Language: HINDI
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समावर्तन संकल्पः
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विद्यालय में प्रवेश के समय छात्र-छात्राओं को अपने विद्यार्जन के कर्त्तव्य का बोध जिस प्रकार ‘ज्ञानदीक्षा’ कार्यक्रम के माध्यम से कराया जाता है, उसी प्रकार विद्यालय का पाठ्यक्रम पूरा करके जीवन के अगले चरण में प्रवेश के समय समावर्तन सङ्कल्प के द्वारा इनके अन्दर यह सङ्कल्प जगाने का प्रयास किया जाता है कि वे अपनी शक्ति-सम्पदा का उपयोग मानवोचित प्रयोजनों में ही करेंगे।
विश्व विद्यालयों में स्नातक एवं स्नातकोत्तर परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लेने पर ‘कन्वोकेशन’ समारोह करके, उन्हें उनके स्तानक होने की गरिमा का बोध तो कराया जाता है; किन्तु उसके साथ प्राप्त विद्या को प्रखरतम बनाते हुए समय की अनगढ़ होड़ से बचते हुए, उसके गरिमामय सदुपयोग के प्रति उपयुक्त भाव शायद ही कहीं जाग्रत् किये, कराये जाते हैं।
दीक्षान्त नहीं, समावर्तन
विश्वविद्यालयों में ‘कन्वोकेशन’ समारोहों को ‘दीक्षान्त समारोह’ नाम दिया जाने लगा है। कन्वोकेशन का शाब्दिक अर्थ तो उद्देश्य विशेष के लिए ‘एकत्रीकरण-सम्मेलन’ होता है। यदि उसके भाव को व्यक्त करना है, तो उसे ‘समावर्तन’ कहा जाना उचित है।
दीक्षा तो एक पवित्र अनुबन्ध होता है, जीवन भर जिसका निर्वाह किया जाता है। विद्यालय में प्रवेश के समय ‘ज्ञानदीक्षा’ के माध्यम से जिन जीवन सूत्रों के साथ प्रतिबद्धता जाग्रत् की जाती है, उनकी उपयोगिता जीवन -पर्यन्त बनी रहती है। प्रतिबद्धता को तोड़ देना एक गम्भीर पाप है, निन्दनीय कायरता-मूर्खता माना जाता है, इसलिए दीक्षा का कभी अन्त होने की व्यवस्था ऋषियों-मनीषियों ने किसी भी रूप में नहीं दी है। अस्तु, कन्वोकेशन को ‘दीक्षान्त’ कहना अविवेकपूर्ण लगता है।
समावर्तन इसके लिए उपयुक्त शब्द है। ज्ञानदीक्षा के साथ विद्यार्जन का जो श्रेष्ठ क्रम प्रारम्भ किया गया था, उसका एक चक्र-एक आवर्त्तन, एक कोर्स पूरा हुआ। इसके आगे भी और चक्र-आवर्तनों का क्रम चलाया जाता रहेगा।
समावर्तन समारोह को ‘समावर्तन सङ्कल्प’ समारोह का स्वरूप देने की बात यहाँ की जा रही है। छात्र-छात्राओं को यह बोध कराया जाना चाहिए कि स्नातक ज्ञान की धारा में स्नान करके स्वयं को पवित्र और स्फूर्तिवान् बना लेना एक गौरव का विषय है, भावी जीवन में इस गरिमा को गिरने न देने के लिए, आदर्श मनुष्य-श्रेष्ठ नागरिकों के अनुरूप अपने चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार को बनाये रखने के लिए उन्हें उत्साहित एवं सङ्कल्पित करने, कराने के लिए विवेकपूर्ण प्रयास किये जाने चाहिए।
दिव्यता की राह
ऋषि-मनीषी, श्रेष्ठ विचारकों का कथन है कि गुण, शक्ति, साधन अर्जित करने से भी अधिक बुद्धिमानी और सावधानी उनके उपयोग के सन्दर्भ में बरती जानी चाहिए। तप, साधना द्वारा शक्ति-साधन अर्जित करने वाले जो साधक उनके सदुपयोग के प्रति उदासीन हुए तो उनकी गिनती असुरों-दैत्यों की श्रेणी में की जाने लगी। इसलिए प्राप्त शक्ति संसाधनों के सदुपयोग का सङ्कल्प स्नातकों के मनों में जगाना, उन्हें किन्हीं बड़ी दुर्घटनाओं से बचाकर जीवन की श्रेष्ठता-दिव्यता की ओर गतिशील बनाना है।
देवसंस्कृति विश्वविद्यालय में हर पाठ्यक्रम में उत्तीर्ण छात्र-छात्राओं को तीन माह लोक सेवा के लिए ‘इण्टर्नशिप’ (अनुवीक्षण काल) में बिताने की प्रेरणा दी जाती है। उसके बड़े अच्छे परिणाम सामने आये हैं। सभी विश्वविद्यालयों, संस्थानों के लिए ऐसी व्यवस्था बनाना तो कठिन है, किन्तु उन्हें अपनी क्षमताओं के श्रेष्ठ सदुपयोग के प्रति उत्प्रेरित तो किया ही जा सकता है।
समारोह का स्वरूप
ज्ञानदीक्षा की तरह समावर्तन सङ्कल्प समारोह का भी सर्वसुलभ प्रारूप बनाया गया है। मुख्य समारोह में मुख्य, विशिष्ट अतिथियों को बुलाया जाता है। उस समारोह की अपनी भी एक नियमावली (प्रोटोकॉल) होता है और अतिथियों के पास समय की कमी होती है। इसलिए यदि इसे मुख्य समारोह के साथ न जोड़ा जा सके, तो उसे-उसके पहले समुचित प्रेरक ढंग से कर लेना चाहिए। केवल सङ्कल्पों को मुख्य अतिथियों की उपस्थिति में फिर से दुहरवाया जा सकता है।
पूर्व तैयारी - व्यवस्था ज्ञान दीक्षा की तरह ही बनाई जाय। उपयुक्त प्रेरक संगीतों से भी वातावरण को प्रेरक बनाया जा सकता है।
कर्मकाण्ड
पवित्रीकरण से स्वस्तिवाचन तक का क्रम ज्ञानदीक्षा प्रकरण (पृष्ठ संख्या १३ से २१) के अनुसार ही चलाया जाय। उसके बाद स्नातकों से निम्रानुसार सङ्कल्प दुहरवाये जायें। सभी स्नातक हाथ जोड़कर प्रार्थना दुहरायें।
* हे परमात्मा! हमारे मन को श्रेष्ठ संकल्पों से जोड़ी। यह मन बहुत समर्थ है। यह अपने सङ्कल्प के अनुरूप परिस्थितियों एवं वातावरण का सृजन करने में समर्थ है। हे प्रभो! हमारे मन में मानवीय आदर्शों के अनुरूप रस पैदा करें, ताकि यह अनगढ़ हीन प्रवृत्तियों से अप्रभावित रहकर, सदा सन्मार्गगामी बना रहे।
(उचित लगे तथा समय हो, तो यहाँ शिवसङ्कल्प उपनिषद् के संस्कृत मन्त्रों एवं उसके हिन्दी पद्यानुवाद का सस्वर गान किया जाय। स्थाई पद-तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु एवं यह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो, सभी स्नातकों से भी दुहरवायें।)
॥ शिवसङ्कल्प सूक्त॥
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदुसुप्तस्य तथैवैति।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ १॥
जो तीव्र गति से सर्वत्रगामी, जाग्रत् अवस्था या स्वप्नमय हो।
है ज्योतिवानों में स्व प्रकाशित, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥ १॥
येन कर्मार्ण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ २॥
जिसके सहारे सब कर्मयोगी, यज्ञादि-सत्कर्म करते सदय हों।
सब प्राणियों में, प्रकृति में सुशोभित, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥ २॥
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ३॥
जो बुद्धि में, चित्त-अन्तःकरण में, रहता अमर ज्योति के साथ लय हो।
जिसके बिना कर्म रहते असम्भव, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥ ३॥
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ४॥
जो भूत-भावी सहित हर समय को, धारण किये रहता बोधमय हो।
करते यजन जिससे सप्त होता, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥ ४॥
यस्मिन्नृचः साम यजूँषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ५॥
ऋक्-साम-यजु वेद जिस पर टिके हैं, धुरे पर ‘अरे’ ज्यों टिके शक्तिमय हो।
टिके हैं उसी पर सभी हित प्रजा के, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥ ५॥
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्ने नीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ६॥
अश्वादि को सारथी ज्यों चलाता, मन हाँकता इन्द्रियों को अभय हो।
जो है सहज ही अजर शक्तिशाली, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥ ६॥
विश्व विद्यालयों में स्नातक एवं स्नातकोत्तर परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लेने पर ‘कन्वोकेशन’ समारोह करके, उन्हें उनके स्तानक होने की गरिमा का बोध तो कराया जाता है; किन्तु उसके साथ प्राप्त विद्या को प्रखरतम बनाते हुए समय की अनगढ़ होड़ से बचते हुए, उसके गरिमामय सदुपयोग के प्रति उपयुक्त भाव शायद ही कहीं जाग्रत् किये, कराये जाते हैं।
दीक्षान्त नहीं, समावर्तन
विश्वविद्यालयों में ‘कन्वोकेशन’ समारोहों को ‘दीक्षान्त समारोह’ नाम दिया जाने लगा है। कन्वोकेशन का शाब्दिक अर्थ तो उद्देश्य विशेष के लिए ‘एकत्रीकरण-सम्मेलन’ होता है। यदि उसके भाव को व्यक्त करना है, तो उसे ‘समावर्तन’ कहा जाना उचित है।
दीक्षा तो एक पवित्र अनुबन्ध होता है, जीवन भर जिसका निर्वाह किया जाता है। विद्यालय में प्रवेश के समय ‘ज्ञानदीक्षा’ के माध्यम से जिन जीवन सूत्रों के साथ प्रतिबद्धता जाग्रत् की जाती है, उनकी उपयोगिता जीवन -पर्यन्त बनी रहती है। प्रतिबद्धता को तोड़ देना एक गम्भीर पाप है, निन्दनीय कायरता-मूर्खता माना जाता है, इसलिए दीक्षा का कभी अन्त होने की व्यवस्था ऋषियों-मनीषियों ने किसी भी रूप में नहीं दी है। अस्तु, कन्वोकेशन को ‘दीक्षान्त’ कहना अविवेकपूर्ण लगता है।
समावर्तन इसके लिए उपयुक्त शब्द है। ज्ञानदीक्षा के साथ विद्यार्जन का जो श्रेष्ठ क्रम प्रारम्भ किया गया था, उसका एक चक्र-एक आवर्त्तन, एक कोर्स पूरा हुआ। इसके आगे भी और चक्र-आवर्तनों का क्रम चलाया जाता रहेगा।
समावर्तन समारोह को ‘समावर्तन सङ्कल्प’ समारोह का स्वरूप देने की बात यहाँ की जा रही है। छात्र-छात्राओं को यह बोध कराया जाना चाहिए कि स्नातक ज्ञान की धारा में स्नान करके स्वयं को पवित्र और स्फूर्तिवान् बना लेना एक गौरव का विषय है, भावी जीवन में इस गरिमा को गिरने न देने के लिए, आदर्श मनुष्य-श्रेष्ठ नागरिकों के अनुरूप अपने चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार को बनाये रखने के लिए उन्हें उत्साहित एवं सङ्कल्पित करने, कराने के लिए विवेकपूर्ण प्रयास किये जाने चाहिए।
दिव्यता की राह
ऋषि-मनीषी, श्रेष्ठ विचारकों का कथन है कि गुण, शक्ति, साधन अर्जित करने से भी अधिक बुद्धिमानी और सावधानी उनके उपयोग के सन्दर्भ में बरती जानी चाहिए। तप, साधना द्वारा शक्ति-साधन अर्जित करने वाले जो साधक उनके सदुपयोग के प्रति उदासीन हुए तो उनकी गिनती असुरों-दैत्यों की श्रेणी में की जाने लगी। इसलिए प्राप्त शक्ति संसाधनों के सदुपयोग का सङ्कल्प स्नातकों के मनों में जगाना, उन्हें किन्हीं बड़ी दुर्घटनाओं से बचाकर जीवन की श्रेष्ठता-दिव्यता की ओर गतिशील बनाना है।
देवसंस्कृति विश्वविद्यालय में हर पाठ्यक्रम में उत्तीर्ण छात्र-छात्राओं को तीन माह लोक सेवा के लिए ‘इण्टर्नशिप’ (अनुवीक्षण काल) में बिताने की प्रेरणा दी जाती है। उसके बड़े अच्छे परिणाम सामने आये हैं। सभी विश्वविद्यालयों, संस्थानों के लिए ऐसी व्यवस्था बनाना तो कठिन है, किन्तु उन्हें अपनी क्षमताओं के श्रेष्ठ सदुपयोग के प्रति उत्प्रेरित तो किया ही जा सकता है।
समारोह का स्वरूप
ज्ञानदीक्षा की तरह समावर्तन सङ्कल्प समारोह का भी सर्वसुलभ प्रारूप बनाया गया है। मुख्य समारोह में मुख्य, विशिष्ट अतिथियों को बुलाया जाता है। उस समारोह की अपनी भी एक नियमावली (प्रोटोकॉल) होता है और अतिथियों के पास समय की कमी होती है। इसलिए यदि इसे मुख्य समारोह के साथ न जोड़ा जा सके, तो उसे-उसके पहले समुचित प्रेरक ढंग से कर लेना चाहिए। केवल सङ्कल्पों को मुख्य अतिथियों की उपस्थिति में फिर से दुहरवाया जा सकता है।
पूर्व तैयारी - व्यवस्था ज्ञान दीक्षा की तरह ही बनाई जाय। उपयुक्त प्रेरक संगीतों से भी वातावरण को प्रेरक बनाया जा सकता है।
कर्मकाण्ड
पवित्रीकरण से स्वस्तिवाचन तक का क्रम ज्ञानदीक्षा प्रकरण (पृष्ठ संख्या १३ से २१) के अनुसार ही चलाया जाय। उसके बाद स्नातकों से निम्रानुसार सङ्कल्प दुहरवाये जायें। सभी स्नातक हाथ जोड़कर प्रार्थना दुहरायें।
* हे परमात्मा! हमारे मन को श्रेष्ठ संकल्पों से जोड़ी। यह मन बहुत समर्थ है। यह अपने सङ्कल्प के अनुरूप परिस्थितियों एवं वातावरण का सृजन करने में समर्थ है। हे प्रभो! हमारे मन में मानवीय आदर्शों के अनुरूप रस पैदा करें, ताकि यह अनगढ़ हीन प्रवृत्तियों से अप्रभावित रहकर, सदा सन्मार्गगामी बना रहे।
(उचित लगे तथा समय हो, तो यहाँ शिवसङ्कल्प उपनिषद् के संस्कृत मन्त्रों एवं उसके हिन्दी पद्यानुवाद का सस्वर गान किया जाय। स्थाई पद-तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु एवं यह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो, सभी स्नातकों से भी दुहरवायें।)
॥ शिवसङ्कल्प सूक्त॥
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदुसुप्तस्य तथैवैति।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ १॥
जो तीव्र गति से सर्वत्रगामी, जाग्रत् अवस्था या स्वप्नमय हो।
है ज्योतिवानों में स्व प्रकाशित, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥ १॥
येन कर्मार्ण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ २॥
जिसके सहारे सब कर्मयोगी, यज्ञादि-सत्कर्म करते सदय हों।
सब प्राणियों में, प्रकृति में सुशोभित, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥ २॥
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ३॥
जो बुद्धि में, चित्त-अन्तःकरण में, रहता अमर ज्योति के साथ लय हो।
जिसके बिना कर्म रहते असम्भव, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥ ३॥
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ४॥
जो भूत-भावी सहित हर समय को, धारण किये रहता बोधमय हो।
करते यजन जिससे सप्त होता, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥ ४॥
यस्मिन्नृचः साम यजूँषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ५॥
ऋक्-साम-यजु वेद जिस पर टिके हैं, धुरे पर ‘अरे’ ज्यों टिके शक्तिमय हो।
टिके हैं उसी पर सभी हित प्रजा के, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥ ५॥
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्ने नीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ६॥
अश्वादि को सारथी ज्यों चलाता, मन हाँकता इन्द्रियों को अभय हो।
जो है सहज ही अजर शक्तिशाली, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥ ६॥