Books - ज्ञान दीक्षा एवं समावर्तन संकल्प
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Language: HINDI
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कर्मकाण्ड
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जीवन के महत्त्वपूर्ण सूत्रों को जन-जीवन में स्थापित करने के लिए उन्हें दृश्य-श्रव्य (आडियो-विजुअल) तकनीक के माध्यम से प्रस्तुत करना बहुत उपयोगी माना जाता है। भारतीय संस्कृति में तो यह प्रक्रिया हजारों वर्ष पूर्व से ही मान्यता प्राप्त रही है। शिक्षण के क्रम में नई शोधों के आधार पर भी इसे श्रेष्ठ माना गया है। ज्ञानदीक्षा की प्रक्रिया को भी उसी मनोविज्ञान सम्मत प्रारूप (फॉर्मेट) में प्रस्तुत किया गया है। हर श्रेष्ठ भाव और विचार के लिए कोई न कोई क्रिया जोड़ी गई है तथा प्रत्येक क्रिया के साथ श्रेष्ठ भावों-विचारों को उभारा गया है। निवेदन है कि सुसंगति का लाभ मनोयोगपूर्वक उठायें।
१- पवित्रीकरण-सिंचन
प्रेरणा- शास्त्र वचन है ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ अर्थात् श्रेष्ठ-पवित्र कार्य को पवित्रता के साथ ही करना चाहिए। देवत्व से जुड़ने की पहली शर्त पवित्रता ही है। हम देवत्व से जुड़ने के लिए, देव कार्य करने योग्य बनने के लिए, मन्त्रों और प्रार्थना द्वारा भावना, विचारणा एवं आचरण को पवित्र बनाने की कामना करते हैं।
क्रिया और भावना- सभी लोग कमर सीधी करके बैठें। दोनों हाथ गोद में रखें, आँखें बन्द करके ध्यान मुद्रा में बैठें। अब मन्त्रों सहित जल सिञ्चन होगा। भावना करें कि अनन्त आकाश से हम पर पवित्रता की वर्षा हो रही है।
- हमारा शरीर धुल रहा है - आचरण पवित्र हो रहा है।
- हमारा मन धुल रहा है - भावनाएँ पवित्र हो रही हैं।
- हम अन्दर बाहर से पूर्ण पवित्र हो रहे हैं।
(सिञ्चन करने वालों को संकेत करें तथा सब पर सिञ्चन होने तक पुनः-पुनः निम्रांकित वाक्य दुहरायें।)
ॐ पवित्रता मम/मनःकाय/अन्तःकरणेषु/संविशेत्।
भावना करें कि हमें पवित्रता का अनुदान मिला, हम अन्दर बाहर से पवित्र हो गये। हाथ जोड़कर प्रार्थना करें- (मन्त्र सूत्र हिन्दी में समझायें, संस्कृत में खण्ड-खण्ड दुहरवायें। विराम के स्थानों पर (/) चिह्न लगे हैं।)
- पवित्रता हमें/सन्मार्ग पर चलाये - ॐ पवित्रता नः/सन्मार्गं नयेत्।
- पवित्रता हमें/ महान् बनाये - ॐ पवित्रता नः/महत्तां प्रयच्छतु।
- पवित्रता हमें/शान्ति प्रदान करे - ॐ पवित्रता नः/शान्तिं प्रददातु।
२- प्राणायाम
प्रेरणा- सूर्य से इस सारे विश्व में प्राण की अगणित धाराओं का सञ्चार होता रहता है। वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी आदि प्रकृति से सहज क्रम में सीमित प्राण शक्ति धारण करते रहते हैं। मनुष्य में यह क्षमता है कि वह भावनाओं के अनुरूप बड़ी मात्रा में प्राणशक्ति को आकर्षित कर सकता है, धारण कर सकता है। शरीर से सामान्य दिखने पर भी महाप्राण-महामानवों ने असाधारण कार्य किये हैं। हम भी उज्ज्वल भविष्य की दिशा में आगे बढ़ने के लिए विशेष प्राण शक्ति धारण करने का प्रयोग करते हैं।
क्रिया और भावना - कमर सीधी करके ध्यान मुद्रा में बैठें। ध्यान करें कि हमारे चारों ओर श्वेत बादलों की तरह दिव्य प्राण का समुद्र लहरा रहा है। हम प्रार्थना करें कि -
- हे विश्व के स्वामी! हे सबके उत्पन्नकर्त्ता और सञ्चालक सविता देव! हमें बुराइयों से छुड़ाइये, श्रेष्ठताओं से जोड़िये।
- ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव, यद्भद्रं तन्नआसुव।
उक्त भाव बनाये रखकर प्राणायाम करें।
क्रिया- धीरे-धीरे दोनों नथुनों से श्वास खींचें, थोड़ा रोकें, धीरे से छोड़ें, थोड़ी देर बाहर रोकें। भावना करें कि श्वास छोड़ने के साथ शरीर एवं मन के विकार बाहर जा रहे हैं और श्वास लेने के साथ श्रेष्ठ विचारों का अन्दर प्रवेश हो रहा है।
[छात्र-छात्राओं से प्राणायाम करने को कहें। उसके साथ सञ्चालक गण नीचे लिखे भाव-प्रेरक वाक्य दुहराते रहें।]
- हमारा रोम-रोम सविता का तेज सोख रहा है, हमारा शरीर प्राणवान् बन रहा है।
- हमारा मन सविता का तेज सोख रहा है, हमारा मन तेजस्वी हो रहा है।
- हमारा हृदय सविता का तेज सोख रहा है, हमारा हृदय तेजोमय हो रहा है। हम बाहर भीतर से तेजोमय हो गये हैं।
३- मस्तिष्क संस्कार (तिलकम्)
प्रेरणा- तिलक श्रेष्ठ को किया जाता है। शरीर की सारी क्रियाओं का सञ्चालन विचारों से-मस्तिष्क से होता है। शरीर विचारों से चलने वाला यन्त्र है। विचारों में श्रेष्ठता का-देवत्व का सञ्चार होता रहे, तो सारे क्रिया-कलाप श्रेष्ठ होते हैं और मनुष्य गौरव प्राप्त करता है। मस्तिष्क को देवत्व का स्पर्श देने के लिए हम तिलक करते हैं।
क्रिया और भावना- जिन्हें मस्तक पर रोली-चन्दन लगाने में एतराज न हो, वे अनामिका (रिङ्ग फिङ्गर) उँगली पर उसे लें। मन्त्रों के साथ उसी पर दृष्टि टिकाए रखकर उसे अपनी भावना से अभिमन्त्रित करने का भाव करें। जिन्हें रोली-चन्दन धारण करने में झिझक हो, वे दाहिने हाथ की हथेली पर दृष्टि टिकाकर अभी बोले जाने वाले सूत्रों के अनुरूप भावना बनाएँ।
प्रार्थनाएँ भावनापूर्वक सुनें, समझें और संस्कृत के सूत्र दुहरायें-
- हमारा मस्तिष्क शान्त रहे - ॐ मस्तिष्कं/शान्तं भूयात्।
- इसमें अनुचित आवेश प्रवेश न करने पायें - ॐ अनुचितः आवेशः/ न भूयात्।
- हमारा मस्तक सदा ऊँचा रहे - ॐ शीर्षं/उन्नतं भूयात्।
- इसमें विवेक सदैव बना रहे - ॐ विवेकः/ स्थिरीभूयात्।
इस प्रकार प्रार्थना के बाद गायत्री मन्त्र बोलते हुए भावनापूर्वक चन्दन-रोली मस्तक पर लगायें अथवा दाहिने हाथ की हथेली को सिर पर फेर लें। भाव करें, हमारा मस्तिष्क संस्कारों को धारण करने के लिए तैयार हो रहा है।
४- धरती माँ की वन्दना
प्रेरणा- जन्मदात्री माँ उत्पन्न करती है, एक अवधि तक पालन-पोषण करती है और श्रेष्ठ संस्कारों के विकास में सहयोग देती है; परन्तु धरती पर माँ यह सब जीवन भर करती है। इसलिए सभी धर्म-सम्प्रदायों के सत्पुरुषों ने किसी न किसी रूप में इस तथ्य को स्वीकार किया है। इसीलिए धरती माँ को मातृभूमि, मदरलैण्ड, मादरेवतन जैसे गरिमामय सम्बोधन दिये गये हैं। हम सब भी इस तथ्य को स्वीकार करें और उसका लाभ उठाएँ।
क्रिया और भावना - (धरती माँ का स्पर्श करते हुए सभी से यह सूत्र दुहरवायें-)
माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः। नमो मात्रे पृथिव्यैः।
- यह धरती हमारी माता है, हम सब इसकी सन्तान हैं। धरती माता को प्रणाम।
सभी हाथ जोड़ें, सबकी माता-धरती माता से भावभरी प्रार्थना करें-
- हे धरती माता! आप उर्वर हैं - हमें श्रेष्ठ वृत्तियाँ दें।
- आप पोषणकर्त्री हैं - हमारी श्रेष्ठताओं को पुष्ट करें।
- आप धारणकर्त्री हैं - हमें ज्ञान धारण करने की शक्ति दें।
- आप सुगन्ध की स्रोत हैं - हमारे जीवन को सुगन्धित बनायें।
५- सर्वदेव नमस्कार
प्रेरणा- परमात्मा एक ही है। विज्ञजनों ने उसे विविध रूपों में व्यक्त किया है। जगत् पिता, जगन्माता, जगत् पति उसी को कहा गया है। अत्यन्त कृपालु-दयालु (रहमान-रहीम) उसी के विशेषण हैं। उसे ही सर्वव्यापी (ऑम्री प्रेजैण्ट), सर्वज्ञ (ऑम्रीसिएण्ट) तथा सर्वसमर्थ (ऑम्री पोटैण्ट) माना गया है। वही अपनी विभिन्न शक्तिधाराओं से जगत् का सृजन, पालन और संहार करता रहता है। जैसे हमारे प्राण की विविध धाराएँ हमारी भिन्न-भिन्न इन्द्रियाँ-आँख, नाक, कान, हाथ, पैर आदि के रूप में सक्रिय रहती हैं, उसी प्रकार परमात्मसत्ता की विविध प्राणधाराएँ, विभिन्न देव शक्तियों (फरिश्तों, एन्जेल्स) के रूप में इस विविधतापूर्ण संसार का सन्तुलन बनाती रहती हैं। मनुष्य से यह उम्मीद की जाती है कि वह परमात्मा की उपासना करे और उसकी विभिन्न विशेषताओं, शक्तिधाराओं को अपने अन्दर जाग्रत्, विकसित और सक्रिय करे।
नमन का अर्थ है - अभिवादन-प्रणाम। देव शक्तियों का अभिवादन अर्थात् उनका सम्मान करना। हमारे मन का झुकाव देवत्व की ओर होना चाहिए। प्रणाम नम्रता-शालीनता का भी प्रतीक है। जो विनम्र होता है वही पाता है; इस उक्ति का अर्थ है कि सज्जन-शालीन को सब लोग कुछ देना चाहते हैं, उद्दण्ड अहंकारी को नहीं।
हमारा अभ्यास देवत्व की ओर बढ़ने का बने। देवत्व के कुछ स्रोत-स्वरूप यहाँ दर्शाए गये हैं। जहाँ ऐसी शक्तियों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में अनुभव हो, वहीं झुकना कल्याणकारी है।
क्रिया और भावना- सभी लोग हाथ जोड़ें। जिस क्रम से कहा जाए, उसी क्रम से देव शक्तियों का स्मरण करें, नमन करें। वे हमें सही मार्ग प्रदान करती रहें। प्रगति के लिए सहयोग प्रदान करती रहें। हिन्दी के वचन सुनें-समझें और संस्कृत के सूत्र दुहराएँ।
१- जो हम सबके अन्दर तथा चर-अचर जगत् की हर इकाई में संव्याप्त है और जिसके अन्दर यह सारा संसार समाया हुआ है, उस परमात्मसत्ता को नमन - ॐ परमात्मने नमः।
२- जो सदा देती रहती हैं और देते रहने की प्रेरणा प्रदान करती हैं, परमात्मा की उन सभी देव शक्तियों को नमन -
ॐ सर्वाभ्यो/देवशक्तिभ्यो नमः।
३- जिन्होंने परमात्मा की दिव्य शक्तियों को धारण कर अपने आपको दिव्य बनाया और हमारे लिए दिव्य वातावरण बनाने हेतु स्वयं को खपाया, उन देवपुरुषों (अवतारियों, ईश्वरदूतों, पैगम्बरों) को नमन -
ॐ सर्वेभ्यो/देवपुरुषेभ्यो नमः।
४- जिन्होंने अपने आप को जीता और सत्प्रवृत्ति-संवर्धन में प्राणपण से संलग्न रहे, उन महाप्राणों (सन्तों, सुधारकों, शहीदों) को नमन -
ॐ सर्वेभ्यो महाप्राणेभ्यो नमः।
५- ममता की मूर्ति, शुभ-सद्भाव जगाने वाली, कुपुत्रों को सुधारने वाली, सुपुत्रों को दुलारने वाली (देवपुरुषों, महाप्राणवानों को जन्म देने वाली, विकसित करने वाली) समस्त मातृशक्तियों को नमन -
ॐ सर्वाभ्यो/मातृशक्तिभ्यो नमः।
६- जिनमें सुसंस्कारों की सुवास भरी है, जो सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक को पुण्य-प्रेरणा प्रदान करते हैं, सभी धर्म-सम्प्रदायों से सम्बन्धित उन दिव्य क्षेत्रों को नमन - ॐ सर्वेभ्यः/तीर्थेभ्यो नमः।
७- जिसके अभाव में मनुष्य अज्ञान-अन्धकार में ही भटकता रह जाता है, उस महाविद्या को नमन - ॐ महाविद्यायै नमः।
६- पञ्चोपचार पूजन
प्रेरणा- जिसके प्रति वास्तविक श्रद्धा हो, तो उसका पूजन करने का मन होता है। पूजन में सम्मान की भावना को क्रिया रूप में व्यक्त किया जाता है। श्रद्धा को सक्रिय बनाना ही पूजन का वास्तविक स्वरूप है। पूजन में कुछ अर्पित किया-चढ़ाया जाता है। जिनको हम श्रद्धा से नमन कर रहे हैं, उनका कार्य-प्रभाव क्षेत्र बढ़े, इसके लिए अपना योगदान देने के लिए मन आकुल-व्याकुल हो उठता है। यह श्रद्धा भरा सहयोग ही वास्तविक पूजन सामग्री है। पञ्चोपचार पूजन के पाँच प्रतीक हमारी पाँच प्रकार की सामर्थ्यों के प्रतीक हैं, जिन्हें हम देव शक्तियों के निमित्त अर्पित करते हैं।
क्रिया और भावना - देवमञ्च के पास नियुक्त प्रतिनिधि जल, गन्धाक्षत, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य मन्त्रोच्चार के साथ अर्पित करें। सभी लोग हाथ जोड़कर प्रार्थना सुनें-भावनाएँ अर्पित करें।
- हे देव! जल के रूप में हमारी सहज श्रद्धा आपको समर्पित है।
- हे देव! गन्धाक्षत के रूप में हमारी सदाशयता तथा अटूट निष्ठा स्वीकार करें।
- हे देव! पुष्प के रूप में हमारे अन्तः का उल्लास आपको अर्पित है।
- हे देव! धूप-दीप के रूप में हमारी प्रतिभा और योग्यता को स्वीकार करें।
- हे देव! नैवेद्य के रूप में हमारे साधन-सम्पदा का एक अंश समर्पित है। इसे स्वीकार करें। (अब संस्कृत के सूत्र दुहराते हुए पूजन सामग्री समर्पित करें)
ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः/गन्धं/पुष्पं/धूपं/दीपं/नैवेद्यं समर्पयामि। (इसके बाद हाथ जोड़कर नमन करें)
मन्त्र-ॐ नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये, सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे।
सहस्रनाम्रे पुरुषाय शाश्वते, सहस्रकोटीयुगधारिणे नमः॥
पद्यानुवाद-
नमन तुम्हें प्रभु! अनन्तरूपी, अनन्त बाहु शिर-नेत्र धारी।
अनन्त हैं नाम तुम एक शाश्वत, अनन्त ब्रह्माण्ड के तुम प्रभारी॥
प्रतीकधारण
जीवन के महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों एवं उनसे सम्बन्धित सङ्कल्पों को बराबर ध्यान में बनाए रखने के लिए, उनसे जुड़े होने का गौरव अनुभव करते रहने के लिए कुछ प्रतीकों का निर्धारण किया जाता है। राष्ट्रीय ध्वज, स्काउट का स्कार्फ, सैनिकों के बैज आदि ऐसे ही प्रतीकों के रूप में स्थापित रहे हैं।
ज्ञान दीक्षा के क्रम में जिन गरिमामय जीवन सूत्रों को अपनाने और अभ्यास में लाने का शुभारम्भ किया जा रहा है, उनकी स्मृति में कोई प्रतीक धारण कराया जाना उचित और आवश्यक है। प्रतीक चिह्नों का निर्धारण इस दृष्टि से किया जाना चाहिए कि उसे सभी विद्यार्थी शान के साथ धारण करें और अपने विकास के प्रति सतत जागरूक एवं सचेष्ट रह सकें।
विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों के अपने कुछ प्रतीक चिह्न (मोनोग्राम) निर्धारित रहते हैं। उन्हें महत्त्वपूर्ण पत्रकों पर, व्लेजरों पर, सीलों (मुहर) आदि पर अंकित किया जाता है। उन्हीं मोनोग्राम्स के बैज बनवाए जा सकते हैं, जो प्रवेश करने वाले हर छात्र-छात्रा को धारण कराए जाएँ। संस्थानों के प्रशासनिक अधिकारियों के परामर्श से मोनोग्राम या अन्य प्रकार के प्रतीक-बैज तैयार कराए जा सकते हैं। मशाल के साथ धियो यो नः प्रचोदयात्, ‘सबको सन्मति दे भगवान्’, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, बी गुड, डू गुड (क्चश्व त्रह्रह्रष्ठ, ष्ठह्र त्रह्रह्रष्ठ) जैसे प्रेरक वाक्य युक्त बैज भी बनवाए जा सकते हैं। अच्छा हो कि कोई प्रेरक प्रतीक चिह्न तैयार कराए जाएँ। जब तक यह सम्भव न हो, प्रतीक के रूप में कलावा-रक्षासूत्र का भी उपयोग किया जा सकता है।
[निर्धारित प्रतीक सभी छात्र-छात्राओं के हाथ में (हो सके, तो अक्षत-पुष्प सहित) दिए जाएँ। स्वस्तिवाचन एवं दीक्षा सङ्कल्प के बाद उन्हें धारण कराये जाएँ।]
७- स्वस्तिवाचन
प्रेरणा- स्वस्ति का भाव है हितकारी-कल्याणकारी, वाचन का भाव है कथन-घोषणा। हम किसी श्रेष्ठ उद्देश्य के लिए सद्भाव एवं उत्साहपूर्वक सङ्कल्पित हो रहे हैं, इस तथ्य की घोषणा मन्त्रों द्वारा स्थूल एवं सूक्ष्म जगत् में की जाती है। स्थूल जगत् में घोषणा होने से सत्पुरुषों का सहयोग उस पुण्य कार्य हेतु सुलभ होने लगता है। सूक्ष्म जगत् में सञ्चार होने से अन्तरिक्ष में संव्याप्त ईश्वर की श्रेष्ठ शक्तियाँ और अपने अन्तःकरण में स्थित श्रेष्ठ प्रवृत्तियाँ जाग्रत् और सक्रिय हो उठती हैं। हम भी विश्व समाज को श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदान करने के उद्देश्य से ‘ज्ञानदीक्षा’ में प्रवृत्त हो रहे हैं। इसलिए स्वस्तिवाचन द्वारा स्थूल-सूक्ष्म जगत् में अपने भाव सञ्चारित कर रहे हैं।
क्रिया और भावना- सभी छात्र-छात्राएँ प्रतीक चिह्न दाहिने हाथ में लें, बायाँ हाथ नीचे लगायें। मन्त्र पाठ के साथ मन ही मन यह प्रार्थना करें कि हे परमात्मा! हमें शक्ति दें; ताकि हम प्रतीकों से जुड़ें सङ्कल्पों का भली प्रकार पालन कर सकें।
ॐ गणानां त्वा गणपति हवामहे, प्रियाणां त्वा प्र्रियपति हवामहे, निधीनां त्वा निधिपति हवामहे, वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥
ॐ स्वस्ति न ऽइन्द्रो वृद्धश्रवाः, स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्ताक्र्ष्योऽअरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।
ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः।
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्॥
ॐ विष्णो रराटमसि विष्णोः, श्नप्त्रेस्थो विष्णोः स्यूरसि विर्ष्णोधु्रवोऽसि, वैष्णवमसि विष्णवे त्वा।
ॐ अग्निर्देवता वातो देवता, सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता, वसवो देवता रुद्रा देवता,ऽऽदित्या देवता मरुतो देवता, विश्वेदेवा देवता, बृहस्पति-र्देवतेन्द्रो देवता, वरुणो देवता।
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः, पृथिवी शान्तिरापः, शान्ति-
रोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः, शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः,सर्व - शान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि।
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद्भद्रं तन्नऽआ सुव।
ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः॥ सर्वारिष्टसुशान्तिर्भवतु।
८- दीक्षासङ्कल्प
[नीचे दिये सङ्कल्प छात्र-छात्राओं से दुहरवाये जाने हैं। शिक्षण संस्थान के किन्हीं प्रमुख यह सङ्कल्प क्रमशः दुहरवाने का कार्य करें। हो सके, तो सङ्कल्पों का छपा पत्रक सभी छात्र-छात्राओं को पहले से ही दे दिया जाय।]
मैं (सभी छात्र-छात्राएँ अपना नाम बोलें) स्नातकों के लिए निर्धारित आदर्श, मर्यादा एवं कार्ययोजना के अनुरूप-ज्ञान पाने-देने की साधना, व्यक्तित्व गढ़ने-गढ़ाने की तप साधना हेतु निष्ठापूर्वक दीक्षित होता हूँ/होती हूँ।
यह कार्य छात्रों एवं शिक्षकों के संयुक्त पुरुषार्थ से ही सम्भव होगा। इसलिए दोनों वर्ग एक साथ भावनापूर्वक निर्धारित सूत्र-मन्त्र बोलें- अगले क्रम में पहले हिन्दी में भाव बोलें, बाद में सङ्कल्प-मन्त्र दुहरायें।
भावानुवाद- साथ-साथ हो रक्षण-पालन, साथ-साथ पुरुषार्थ करें।
तेजस्वी हो ज्ञान हमारा, नहीं परस्पर द्वेष करें।
मन्त्र- ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।
(हम दोनों का यश एक साथ बढ़े।) ॐ सह नौ यशः।
(हम दोनों का ब्रह्मवर्चस एक साथ बढ़े।) ॐ सह नौ ब्रह्मवर्चसम्।
ध्यान रखें-यश लौकिक होता है, पठन-पाठन की सम्यक् साधना से बढ़ेगा। ब्रह्मवर्चस अलौकिक होता है, वह आध्यात्मिक साधना से बढ़ेगा। अस्तु; हम सङ्कल्प करते हैं कि दोनों को साथ-साथ चलायेंगे।
आचार्यगण निम्र सूत्रों को विद्यालय के आचार्यों-शिक्षकों से विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए दुहरवायें और प्रत्येक सूत्र के पश्चात् छात्र-छात्राएँ कहें- मान्यं (स्वीकार है)।
आचार्यगण बोलें - विद्यार्थीगण बोलें
सत्यं वद। (सत्य बोलो।) - मान्यं। (स्वीकार है।)
धर्मं चर। (धर्म का आचरण करो) - मान्यं। (स्वीकार है।)
स्वाध्यायान् मा प्रमदः। - मान्यं।
(स्वाध्याय में प्रमाद मत करना।) - (स्वीकार है।)
धर्मान्न प्रमदितव्यम्। - मान्यं।
(धर्म में प्रमाद न करना।) - (स्वीकार है।)
भूत्यै न प्रमदितव्यम्। - मान्यं।
(संसाधनों के विकास में प्रमाद न करें।)- (स्वीकार है।)
स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्।- मान्यं।
(स्वाध्याय और प्रवचन में प्रमाद न करें)- (स्वीकार है।)
मातृदेवो भव। (माता को देवता मानो)- मान्यं। (स्वीकार है।)
पितृदेवो भव। (पिता को देवता मानो।)- मान्यं। (स्वीकार है।)
आचार्य देवो भव। (आचार्य को देवता मानो।)- मान्यं। (स्वीकार है।)
यानि अनवद्यानि, कर्माणि तानि सेवितव्यानि,
नो इतराणि। - मान्यं।
(जो दोष रहित कर्म हैं, उन्हीं का सेवन करें, अन्य नहीं।)-
(स्वीकार है।)
यानि अस्माकं सुचरितानि, तानि त्वया उपास्यानि,
नो इतराणि। - मान्यं।
(जो हमारे श्रेष्ठ चरित्र हैं, उनका तुम पालन करना, अन्य का नहीं।)-
(स्वीकार है।)
सङ्कल्प का शेष अंश - मैं पृथ्वी पुत्र हूँ। भूमि मेरी माता है। मेरा जीवन मातृभूमि की सेवा में समर्पित रहेगा। मैं लोक कल्याण के लिए समर्पित रहूँगा। सम्पूर्ण विश्व को अपने ज्ञान और शक्ति से उद्दीप्त रखने की मेरी चेष्टा रहेगी। मुझे पूज्य आचार्यों से जो ज्ञान प्राप्त होगा, उससे अपने राष्ट्र को जीवन्त और जाग्रत् रखूँगा। हम प्रत्येक नियम-अनुशासन का पालन करेंगे। चूक होने पर भूल सुधार एवं प्रायश्चित्त द्वारा प्रगति क्रम को प्रखर बनाये रखेंगे।
(अक्षत-पुष्प एकत्रित किए जायें। प्रतीक चिह्न धारण किये जायें।)
९- दीपयज्ञ
प्रेरणा- दीपक श्रेष्ठ ज्ञान सम्पन्न जीवन का सर्वमान्य प्रतीक है। दीपक अपने छोटे से कलेवर में ईश्वरीय प्रकाश की प्रतीक ज्योति को लम्बे समय तक धारण किये रहने में समर्थ होता है। हम भी चाहते हैं कि अपनी नगण्य काया (नाचीज़ हस्ती) में ईश्वरीय ज्ञान को जीवन भर धारण किये रहें। इसी भाव से दीपक को आदर्श मानकर परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि वह हम सबके अन्दर अपने दिव्य ज्ञान को सञ्चरित करता रहे और उसी के अनुसार हमारा जीवन सञ्चालित होता रहे। गायत्री मन्त्र में यही भाव समाया हुआ है। इसलिए भाव सहित दीपयज्ञ करते हैं। हर मन्त्र के बाद ‘स्वाहा’ कहा जाता है। इसका भाव है, यह सुन्दर उक्ति है- हम इससे सहमत हैं, हम इस हेतु प्रयत्नशील रहेंगे।
क्रिया भावना - मञ्च पर कम से कम ५, २४, ५१ या १०८ दीपक प्रज्वलित करके ५, ७ या ९ गायत्री मंत्र से आहुतियाँ करायें।
गायत्री मन्त्र -ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् स्वाहा। इदं गायत्र्यै, इदं न मम॥
१०- पूर्णाहुतिः
ज्ञान साधना को पूर्णता तक पहुँचाने का प्रयास करेंगे, ऐसा भाव बनाएँ। ज्ञान आचरण में लाने से ही फलित होता है। उसका शुभारम्भ आज से ही करते हैं। अपनी अभी की जानकारी के अनुसार किसी एक बुराई को छोड़ने एवं एक अच्छे नियम को निभाने का सङ्कल्प लें। यह क्रम आगे भी बनाए रखें। यह क्रम हमें पूर्णता तक पहुँचाएगा। यह भाव, सङ्कल्प जगाकर पूर्णाहुति मन्त्र बोलें।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम्, पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते॥ स्वाहा॥
ॐ सर्वं वै पूर्ण स्वाहा।
समापन - सभी को इस पुण्य- प्रयास के लिए साधुवाद दें। विद्यालय को श्रेष्ठ व्यक्तित्व ढालने की टकसाल बनाने के लिए निवेदन करें। इसी भाव के साथ सबके कल्याण की कामना से आशीर्वाद, अभिषिञ्चन एवं शान्तिपाठ करायें।
११- अभिषिञ्चन
[सभी छात्रों पर मङ्गल कलशों से जलसिञ्चन की व्यवस्था बनाई जाय। पहले मन्त्रों का भाव समझायें, बाद में सिञ्चन के साथ मन्त्र पाठ करें।]
ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुवः। ता न ऊर्जे दधातन। महेरणाय चक्षसे।
ॐ यो वः शिवतमो रसः तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।
ॐ तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः॥
अर्थात्- हे जल! तुम हमारे लिए कल्याणकारी बनो। महान् आदर्शों के दर्शन अनुगमन के लिए मेरे अन्दर ऊर्जा का आधान करो। हे जल! आप का जो अत्यन्त कल्याणकारी रस है, उसका हमें उसी प्रकार भागीदार बनाओ, जैसे कि अत्यन्त भावनाशील माताएँ अपने शिशुओं को अपने स्नेह रस का भागीदार बनाती हैं। आपका प्रगतिशील दिव्य रस पाने के लिए हम तत्पर हैं। आप हमें उन्नतिशील बनायें।
१२- आशीवर्चन
[सभी शिक्षक एवं छात्रगण हाथ जोड़ें। परमात्मा से दिव्य शक्तियों से आशीर्वाद प्राप्त करने का भाव करें।]
मन्त्र- मन्त्रार्थाः सफलाः सन्तु, पूर्णाः सन्तु मनोरथाः।
शत्रुभ्यो भयनाशोऽस्तु, मित्राणां उदयस्तव॥
पद्यानुवाद- मन्त्र अर्थ सब सफल हों, पूर्ण मनोरथ होहिं।
दुष्ट-शत्रु भय नष्ट हो, मित्र सुविकसित होहिं॥
१२- शान्तिपाठ
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः, पृथिवी शान्तिरापः, शान्ति-रोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः, शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः, सर्व शान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि॥
ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः॥ र्वारिष्टसुशान्तिर्भवतु।
(जयघोष- व्यक्ति निर्माण एवं राष्ट्रीय स्तर के कराएँ।)
१- पवित्रीकरण-सिंचन
प्रेरणा- शास्त्र वचन है ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ अर्थात् श्रेष्ठ-पवित्र कार्य को पवित्रता के साथ ही करना चाहिए। देवत्व से जुड़ने की पहली शर्त पवित्रता ही है। हम देवत्व से जुड़ने के लिए, देव कार्य करने योग्य बनने के लिए, मन्त्रों और प्रार्थना द्वारा भावना, विचारणा एवं आचरण को पवित्र बनाने की कामना करते हैं।
क्रिया और भावना- सभी लोग कमर सीधी करके बैठें। दोनों हाथ गोद में रखें, आँखें बन्द करके ध्यान मुद्रा में बैठें। अब मन्त्रों सहित जल सिञ्चन होगा। भावना करें कि अनन्त आकाश से हम पर पवित्रता की वर्षा हो रही है।
- हमारा शरीर धुल रहा है - आचरण पवित्र हो रहा है।
- हमारा मन धुल रहा है - भावनाएँ पवित्र हो रही हैं।
- हम अन्दर बाहर से पूर्ण पवित्र हो रहे हैं।
(सिञ्चन करने वालों को संकेत करें तथा सब पर सिञ्चन होने तक पुनः-पुनः निम्रांकित वाक्य दुहरायें।)
ॐ पवित्रता मम/मनःकाय/अन्तःकरणेषु/संविशेत्।
भावना करें कि हमें पवित्रता का अनुदान मिला, हम अन्दर बाहर से पवित्र हो गये। हाथ जोड़कर प्रार्थना करें- (मन्त्र सूत्र हिन्दी में समझायें, संस्कृत में खण्ड-खण्ड दुहरवायें। विराम के स्थानों पर (/) चिह्न लगे हैं।)
- पवित्रता हमें/सन्मार्ग पर चलाये - ॐ पवित्रता नः/सन्मार्गं नयेत्।
- पवित्रता हमें/ महान् बनाये - ॐ पवित्रता नः/महत्तां प्रयच्छतु।
- पवित्रता हमें/शान्ति प्रदान करे - ॐ पवित्रता नः/शान्तिं प्रददातु।
२- प्राणायाम
प्रेरणा- सूर्य से इस सारे विश्व में प्राण की अगणित धाराओं का सञ्चार होता रहता है। वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी आदि प्रकृति से सहज क्रम में सीमित प्राण शक्ति धारण करते रहते हैं। मनुष्य में यह क्षमता है कि वह भावनाओं के अनुरूप बड़ी मात्रा में प्राणशक्ति को आकर्षित कर सकता है, धारण कर सकता है। शरीर से सामान्य दिखने पर भी महाप्राण-महामानवों ने असाधारण कार्य किये हैं। हम भी उज्ज्वल भविष्य की दिशा में आगे बढ़ने के लिए विशेष प्राण शक्ति धारण करने का प्रयोग करते हैं।
क्रिया और भावना - कमर सीधी करके ध्यान मुद्रा में बैठें। ध्यान करें कि हमारे चारों ओर श्वेत बादलों की तरह दिव्य प्राण का समुद्र लहरा रहा है। हम प्रार्थना करें कि -
- हे विश्व के स्वामी! हे सबके उत्पन्नकर्त्ता और सञ्चालक सविता देव! हमें बुराइयों से छुड़ाइये, श्रेष्ठताओं से जोड़िये।
- ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव, यद्भद्रं तन्नआसुव।
उक्त भाव बनाये रखकर प्राणायाम करें।
क्रिया- धीरे-धीरे दोनों नथुनों से श्वास खींचें, थोड़ा रोकें, धीरे से छोड़ें, थोड़ी देर बाहर रोकें। भावना करें कि श्वास छोड़ने के साथ शरीर एवं मन के विकार बाहर जा रहे हैं और श्वास लेने के साथ श्रेष्ठ विचारों का अन्दर प्रवेश हो रहा है।
[छात्र-छात्राओं से प्राणायाम करने को कहें। उसके साथ सञ्चालक गण नीचे लिखे भाव-प्रेरक वाक्य दुहराते रहें।]
- हमारा रोम-रोम सविता का तेज सोख रहा है, हमारा शरीर प्राणवान् बन रहा है।
- हमारा मन सविता का तेज सोख रहा है, हमारा मन तेजस्वी हो रहा है।
- हमारा हृदय सविता का तेज सोख रहा है, हमारा हृदय तेजोमय हो रहा है। हम बाहर भीतर से तेजोमय हो गये हैं।
३- मस्तिष्क संस्कार (तिलकम्)
प्रेरणा- तिलक श्रेष्ठ को किया जाता है। शरीर की सारी क्रियाओं का सञ्चालन विचारों से-मस्तिष्क से होता है। शरीर विचारों से चलने वाला यन्त्र है। विचारों में श्रेष्ठता का-देवत्व का सञ्चार होता रहे, तो सारे क्रिया-कलाप श्रेष्ठ होते हैं और मनुष्य गौरव प्राप्त करता है। मस्तिष्क को देवत्व का स्पर्श देने के लिए हम तिलक करते हैं।
क्रिया और भावना- जिन्हें मस्तक पर रोली-चन्दन लगाने में एतराज न हो, वे अनामिका (रिङ्ग फिङ्गर) उँगली पर उसे लें। मन्त्रों के साथ उसी पर दृष्टि टिकाए रखकर उसे अपनी भावना से अभिमन्त्रित करने का भाव करें। जिन्हें रोली-चन्दन धारण करने में झिझक हो, वे दाहिने हाथ की हथेली पर दृष्टि टिकाकर अभी बोले जाने वाले सूत्रों के अनुरूप भावना बनाएँ।
प्रार्थनाएँ भावनापूर्वक सुनें, समझें और संस्कृत के सूत्र दुहरायें-
- हमारा मस्तिष्क शान्त रहे - ॐ मस्तिष्कं/शान्तं भूयात्।
- इसमें अनुचित आवेश प्रवेश न करने पायें - ॐ अनुचितः आवेशः/ न भूयात्।
- हमारा मस्तक सदा ऊँचा रहे - ॐ शीर्षं/उन्नतं भूयात्।
- इसमें विवेक सदैव बना रहे - ॐ विवेकः/ स्थिरीभूयात्।
इस प्रकार प्रार्थना के बाद गायत्री मन्त्र बोलते हुए भावनापूर्वक चन्दन-रोली मस्तक पर लगायें अथवा दाहिने हाथ की हथेली को सिर पर फेर लें। भाव करें, हमारा मस्तिष्क संस्कारों को धारण करने के लिए तैयार हो रहा है।
४- धरती माँ की वन्दना
प्रेरणा- जन्मदात्री माँ उत्पन्न करती है, एक अवधि तक पालन-पोषण करती है और श्रेष्ठ संस्कारों के विकास में सहयोग देती है; परन्तु धरती पर माँ यह सब जीवन भर करती है। इसलिए सभी धर्म-सम्प्रदायों के सत्पुरुषों ने किसी न किसी रूप में इस तथ्य को स्वीकार किया है। इसीलिए धरती माँ को मातृभूमि, मदरलैण्ड, मादरेवतन जैसे गरिमामय सम्बोधन दिये गये हैं। हम सब भी इस तथ्य को स्वीकार करें और उसका लाभ उठाएँ।
क्रिया और भावना - (धरती माँ का स्पर्श करते हुए सभी से यह सूत्र दुहरवायें-)
माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः। नमो मात्रे पृथिव्यैः।
- यह धरती हमारी माता है, हम सब इसकी सन्तान हैं। धरती माता को प्रणाम।
सभी हाथ जोड़ें, सबकी माता-धरती माता से भावभरी प्रार्थना करें-
- हे धरती माता! आप उर्वर हैं - हमें श्रेष्ठ वृत्तियाँ दें।
- आप पोषणकर्त्री हैं - हमारी श्रेष्ठताओं को पुष्ट करें।
- आप धारणकर्त्री हैं - हमें ज्ञान धारण करने की शक्ति दें।
- आप सुगन्ध की स्रोत हैं - हमारे जीवन को सुगन्धित बनायें।
५- सर्वदेव नमस्कार
प्रेरणा- परमात्मा एक ही है। विज्ञजनों ने उसे विविध रूपों में व्यक्त किया है। जगत् पिता, जगन्माता, जगत् पति उसी को कहा गया है। अत्यन्त कृपालु-दयालु (रहमान-रहीम) उसी के विशेषण हैं। उसे ही सर्वव्यापी (ऑम्री प्रेजैण्ट), सर्वज्ञ (ऑम्रीसिएण्ट) तथा सर्वसमर्थ (ऑम्री पोटैण्ट) माना गया है। वही अपनी विभिन्न शक्तिधाराओं से जगत् का सृजन, पालन और संहार करता रहता है। जैसे हमारे प्राण की विविध धाराएँ हमारी भिन्न-भिन्न इन्द्रियाँ-आँख, नाक, कान, हाथ, पैर आदि के रूप में सक्रिय रहती हैं, उसी प्रकार परमात्मसत्ता की विविध प्राणधाराएँ, विभिन्न देव शक्तियों (फरिश्तों, एन्जेल्स) के रूप में इस विविधतापूर्ण संसार का सन्तुलन बनाती रहती हैं। मनुष्य से यह उम्मीद की जाती है कि वह परमात्मा की उपासना करे और उसकी विभिन्न विशेषताओं, शक्तिधाराओं को अपने अन्दर जाग्रत्, विकसित और सक्रिय करे।
नमन का अर्थ है - अभिवादन-प्रणाम। देव शक्तियों का अभिवादन अर्थात् उनका सम्मान करना। हमारे मन का झुकाव देवत्व की ओर होना चाहिए। प्रणाम नम्रता-शालीनता का भी प्रतीक है। जो विनम्र होता है वही पाता है; इस उक्ति का अर्थ है कि सज्जन-शालीन को सब लोग कुछ देना चाहते हैं, उद्दण्ड अहंकारी को नहीं।
हमारा अभ्यास देवत्व की ओर बढ़ने का बने। देवत्व के कुछ स्रोत-स्वरूप यहाँ दर्शाए गये हैं। जहाँ ऐसी शक्तियों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में अनुभव हो, वहीं झुकना कल्याणकारी है।
क्रिया और भावना- सभी लोग हाथ जोड़ें। जिस क्रम से कहा जाए, उसी क्रम से देव शक्तियों का स्मरण करें, नमन करें। वे हमें सही मार्ग प्रदान करती रहें। प्रगति के लिए सहयोग प्रदान करती रहें। हिन्दी के वचन सुनें-समझें और संस्कृत के सूत्र दुहराएँ।
१- जो हम सबके अन्दर तथा चर-अचर जगत् की हर इकाई में संव्याप्त है और जिसके अन्दर यह सारा संसार समाया हुआ है, उस परमात्मसत्ता को नमन - ॐ परमात्मने नमः।
२- जो सदा देती रहती हैं और देते रहने की प्रेरणा प्रदान करती हैं, परमात्मा की उन सभी देव शक्तियों को नमन -
ॐ सर्वाभ्यो/देवशक्तिभ्यो नमः।
३- जिन्होंने परमात्मा की दिव्य शक्तियों को धारण कर अपने आपको दिव्य बनाया और हमारे लिए दिव्य वातावरण बनाने हेतु स्वयं को खपाया, उन देवपुरुषों (अवतारियों, ईश्वरदूतों, पैगम्बरों) को नमन -
ॐ सर्वेभ्यो/देवपुरुषेभ्यो नमः।
४- जिन्होंने अपने आप को जीता और सत्प्रवृत्ति-संवर्धन में प्राणपण से संलग्न रहे, उन महाप्राणों (सन्तों, सुधारकों, शहीदों) को नमन -
ॐ सर्वेभ्यो महाप्राणेभ्यो नमः।
५- ममता की मूर्ति, शुभ-सद्भाव जगाने वाली, कुपुत्रों को सुधारने वाली, सुपुत्रों को दुलारने वाली (देवपुरुषों, महाप्राणवानों को जन्म देने वाली, विकसित करने वाली) समस्त मातृशक्तियों को नमन -
ॐ सर्वाभ्यो/मातृशक्तिभ्यो नमः।
६- जिनमें सुसंस्कारों की सुवास भरी है, जो सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक को पुण्य-प्रेरणा प्रदान करते हैं, सभी धर्म-सम्प्रदायों से सम्बन्धित उन दिव्य क्षेत्रों को नमन - ॐ सर्वेभ्यः/तीर्थेभ्यो नमः।
७- जिसके अभाव में मनुष्य अज्ञान-अन्धकार में ही भटकता रह जाता है, उस महाविद्या को नमन - ॐ महाविद्यायै नमः।
६- पञ्चोपचार पूजन
प्रेरणा- जिसके प्रति वास्तविक श्रद्धा हो, तो उसका पूजन करने का मन होता है। पूजन में सम्मान की भावना को क्रिया रूप में व्यक्त किया जाता है। श्रद्धा को सक्रिय बनाना ही पूजन का वास्तविक स्वरूप है। पूजन में कुछ अर्पित किया-चढ़ाया जाता है। जिनको हम श्रद्धा से नमन कर रहे हैं, उनका कार्य-प्रभाव क्षेत्र बढ़े, इसके लिए अपना योगदान देने के लिए मन आकुल-व्याकुल हो उठता है। यह श्रद्धा भरा सहयोग ही वास्तविक पूजन सामग्री है। पञ्चोपचार पूजन के पाँच प्रतीक हमारी पाँच प्रकार की सामर्थ्यों के प्रतीक हैं, जिन्हें हम देव शक्तियों के निमित्त अर्पित करते हैं।
क्रिया और भावना - देवमञ्च के पास नियुक्त प्रतिनिधि जल, गन्धाक्षत, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य मन्त्रोच्चार के साथ अर्पित करें। सभी लोग हाथ जोड़कर प्रार्थना सुनें-भावनाएँ अर्पित करें।
- हे देव! जल के रूप में हमारी सहज श्रद्धा आपको समर्पित है।
- हे देव! गन्धाक्षत के रूप में हमारी सदाशयता तथा अटूट निष्ठा स्वीकार करें।
- हे देव! पुष्प के रूप में हमारे अन्तः का उल्लास आपको अर्पित है।
- हे देव! धूप-दीप के रूप में हमारी प्रतिभा और योग्यता को स्वीकार करें।
- हे देव! नैवेद्य के रूप में हमारे साधन-सम्पदा का एक अंश समर्पित है। इसे स्वीकार करें। (अब संस्कृत के सूत्र दुहराते हुए पूजन सामग्री समर्पित करें)
ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः/गन्धं/पुष्पं/धूपं/दीपं/नैवेद्यं समर्पयामि। (इसके बाद हाथ जोड़कर नमन करें)
मन्त्र-ॐ नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये, सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे।
सहस्रनाम्रे पुरुषाय शाश्वते, सहस्रकोटीयुगधारिणे नमः॥
पद्यानुवाद-
नमन तुम्हें प्रभु! अनन्तरूपी, अनन्त बाहु शिर-नेत्र धारी।
अनन्त हैं नाम तुम एक शाश्वत, अनन्त ब्रह्माण्ड के तुम प्रभारी॥
प्रतीकधारण
जीवन के महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों एवं उनसे सम्बन्धित सङ्कल्पों को बराबर ध्यान में बनाए रखने के लिए, उनसे जुड़े होने का गौरव अनुभव करते रहने के लिए कुछ प्रतीकों का निर्धारण किया जाता है। राष्ट्रीय ध्वज, स्काउट का स्कार्फ, सैनिकों के बैज आदि ऐसे ही प्रतीकों के रूप में स्थापित रहे हैं।
ज्ञान दीक्षा के क्रम में जिन गरिमामय जीवन सूत्रों को अपनाने और अभ्यास में लाने का शुभारम्भ किया जा रहा है, उनकी स्मृति में कोई प्रतीक धारण कराया जाना उचित और आवश्यक है। प्रतीक चिह्नों का निर्धारण इस दृष्टि से किया जाना चाहिए कि उसे सभी विद्यार्थी शान के साथ धारण करें और अपने विकास के प्रति सतत जागरूक एवं सचेष्ट रह सकें।
विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों के अपने कुछ प्रतीक चिह्न (मोनोग्राम) निर्धारित रहते हैं। उन्हें महत्त्वपूर्ण पत्रकों पर, व्लेजरों पर, सीलों (मुहर) आदि पर अंकित किया जाता है। उन्हीं मोनोग्राम्स के बैज बनवाए जा सकते हैं, जो प्रवेश करने वाले हर छात्र-छात्रा को धारण कराए जाएँ। संस्थानों के प्रशासनिक अधिकारियों के परामर्श से मोनोग्राम या अन्य प्रकार के प्रतीक-बैज तैयार कराए जा सकते हैं। मशाल के साथ धियो यो नः प्रचोदयात्, ‘सबको सन्मति दे भगवान्’, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, बी गुड, डू गुड (क्चश्व त्रह्रह्रष्ठ, ष्ठह्र त्रह्रह्रष्ठ) जैसे प्रेरक वाक्य युक्त बैज भी बनवाए जा सकते हैं। अच्छा हो कि कोई प्रेरक प्रतीक चिह्न तैयार कराए जाएँ। जब तक यह सम्भव न हो, प्रतीक के रूप में कलावा-रक्षासूत्र का भी उपयोग किया जा सकता है।
[निर्धारित प्रतीक सभी छात्र-छात्राओं के हाथ में (हो सके, तो अक्षत-पुष्प सहित) दिए जाएँ। स्वस्तिवाचन एवं दीक्षा सङ्कल्प के बाद उन्हें धारण कराये जाएँ।]
७- स्वस्तिवाचन
प्रेरणा- स्वस्ति का भाव है हितकारी-कल्याणकारी, वाचन का भाव है कथन-घोषणा। हम किसी श्रेष्ठ उद्देश्य के लिए सद्भाव एवं उत्साहपूर्वक सङ्कल्पित हो रहे हैं, इस तथ्य की घोषणा मन्त्रों द्वारा स्थूल एवं सूक्ष्म जगत् में की जाती है। स्थूल जगत् में घोषणा होने से सत्पुरुषों का सहयोग उस पुण्य कार्य हेतु सुलभ होने लगता है। सूक्ष्म जगत् में सञ्चार होने से अन्तरिक्ष में संव्याप्त ईश्वर की श्रेष्ठ शक्तियाँ और अपने अन्तःकरण में स्थित श्रेष्ठ प्रवृत्तियाँ जाग्रत् और सक्रिय हो उठती हैं। हम भी विश्व समाज को श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदान करने के उद्देश्य से ‘ज्ञानदीक्षा’ में प्रवृत्त हो रहे हैं। इसलिए स्वस्तिवाचन द्वारा स्थूल-सूक्ष्म जगत् में अपने भाव सञ्चारित कर रहे हैं।
क्रिया और भावना- सभी छात्र-छात्राएँ प्रतीक चिह्न दाहिने हाथ में लें, बायाँ हाथ नीचे लगायें। मन्त्र पाठ के साथ मन ही मन यह प्रार्थना करें कि हे परमात्मा! हमें शक्ति दें; ताकि हम प्रतीकों से जुड़ें सङ्कल्पों का भली प्रकार पालन कर सकें।
ॐ गणानां त्वा गणपति हवामहे, प्रियाणां त्वा प्र्रियपति हवामहे, निधीनां त्वा निधिपति हवामहे, वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥
ॐ स्वस्ति न ऽइन्द्रो वृद्धश्रवाः, स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्ताक्र्ष्योऽअरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।
ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः।
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्॥
ॐ विष्णो रराटमसि विष्णोः, श्नप्त्रेस्थो विष्णोः स्यूरसि विर्ष्णोधु्रवोऽसि, वैष्णवमसि विष्णवे त्वा।
ॐ अग्निर्देवता वातो देवता, सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता, वसवो देवता रुद्रा देवता,ऽऽदित्या देवता मरुतो देवता, विश्वेदेवा देवता, बृहस्पति-र्देवतेन्द्रो देवता, वरुणो देवता।
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः, पृथिवी शान्तिरापः, शान्ति-
रोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः, शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः,सर्व - शान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि।
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद्भद्रं तन्नऽआ सुव।
ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः॥ सर्वारिष्टसुशान्तिर्भवतु।
८- दीक्षासङ्कल्प
[नीचे दिये सङ्कल्प छात्र-छात्राओं से दुहरवाये जाने हैं। शिक्षण संस्थान के किन्हीं प्रमुख यह सङ्कल्प क्रमशः दुहरवाने का कार्य करें। हो सके, तो सङ्कल्पों का छपा पत्रक सभी छात्र-छात्राओं को पहले से ही दे दिया जाय।]
मैं (सभी छात्र-छात्राएँ अपना नाम बोलें) स्नातकों के लिए निर्धारित आदर्श, मर्यादा एवं कार्ययोजना के अनुरूप-ज्ञान पाने-देने की साधना, व्यक्तित्व गढ़ने-गढ़ाने की तप साधना हेतु निष्ठापूर्वक दीक्षित होता हूँ/होती हूँ।
यह कार्य छात्रों एवं शिक्षकों के संयुक्त पुरुषार्थ से ही सम्भव होगा। इसलिए दोनों वर्ग एक साथ भावनापूर्वक निर्धारित सूत्र-मन्त्र बोलें- अगले क्रम में पहले हिन्दी में भाव बोलें, बाद में सङ्कल्प-मन्त्र दुहरायें।
भावानुवाद- साथ-साथ हो रक्षण-पालन, साथ-साथ पुरुषार्थ करें।
तेजस्वी हो ज्ञान हमारा, नहीं परस्पर द्वेष करें।
मन्त्र- ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।
(हम दोनों का यश एक साथ बढ़े।) ॐ सह नौ यशः।
(हम दोनों का ब्रह्मवर्चस एक साथ बढ़े।) ॐ सह नौ ब्रह्मवर्चसम्।
ध्यान रखें-यश लौकिक होता है, पठन-पाठन की सम्यक् साधना से बढ़ेगा। ब्रह्मवर्चस अलौकिक होता है, वह आध्यात्मिक साधना से बढ़ेगा। अस्तु; हम सङ्कल्प करते हैं कि दोनों को साथ-साथ चलायेंगे।
आचार्यगण निम्र सूत्रों को विद्यालय के आचार्यों-शिक्षकों से विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए दुहरवायें और प्रत्येक सूत्र के पश्चात् छात्र-छात्राएँ कहें- मान्यं (स्वीकार है)।
आचार्यगण बोलें - विद्यार्थीगण बोलें
सत्यं वद। (सत्य बोलो।) - मान्यं। (स्वीकार है।)
धर्मं चर। (धर्म का आचरण करो) - मान्यं। (स्वीकार है।)
स्वाध्यायान् मा प्रमदः। - मान्यं।
(स्वाध्याय में प्रमाद मत करना।) - (स्वीकार है।)
धर्मान्न प्रमदितव्यम्। - मान्यं।
(धर्म में प्रमाद न करना।) - (स्वीकार है।)
भूत्यै न प्रमदितव्यम्। - मान्यं।
(संसाधनों के विकास में प्रमाद न करें।)- (स्वीकार है।)
स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्।- मान्यं।
(स्वाध्याय और प्रवचन में प्रमाद न करें)- (स्वीकार है।)
मातृदेवो भव। (माता को देवता मानो)- मान्यं। (स्वीकार है।)
पितृदेवो भव। (पिता को देवता मानो।)- मान्यं। (स्वीकार है।)
आचार्य देवो भव। (आचार्य को देवता मानो।)- मान्यं। (स्वीकार है।)
यानि अनवद्यानि, कर्माणि तानि सेवितव्यानि,
नो इतराणि। - मान्यं।
(जो दोष रहित कर्म हैं, उन्हीं का सेवन करें, अन्य नहीं।)-
(स्वीकार है।)
यानि अस्माकं सुचरितानि, तानि त्वया उपास्यानि,
नो इतराणि। - मान्यं।
(जो हमारे श्रेष्ठ चरित्र हैं, उनका तुम पालन करना, अन्य का नहीं।)-
(स्वीकार है।)
सङ्कल्प का शेष अंश - मैं पृथ्वी पुत्र हूँ। भूमि मेरी माता है। मेरा जीवन मातृभूमि की सेवा में समर्पित रहेगा। मैं लोक कल्याण के लिए समर्पित रहूँगा। सम्पूर्ण विश्व को अपने ज्ञान और शक्ति से उद्दीप्त रखने की मेरी चेष्टा रहेगी। मुझे पूज्य आचार्यों से जो ज्ञान प्राप्त होगा, उससे अपने राष्ट्र को जीवन्त और जाग्रत् रखूँगा। हम प्रत्येक नियम-अनुशासन का पालन करेंगे। चूक होने पर भूल सुधार एवं प्रायश्चित्त द्वारा प्रगति क्रम को प्रखर बनाये रखेंगे।
(अक्षत-पुष्प एकत्रित किए जायें। प्रतीक चिह्न धारण किये जायें।)
९- दीपयज्ञ
प्रेरणा- दीपक श्रेष्ठ ज्ञान सम्पन्न जीवन का सर्वमान्य प्रतीक है। दीपक अपने छोटे से कलेवर में ईश्वरीय प्रकाश की प्रतीक ज्योति को लम्बे समय तक धारण किये रहने में समर्थ होता है। हम भी चाहते हैं कि अपनी नगण्य काया (नाचीज़ हस्ती) में ईश्वरीय ज्ञान को जीवन भर धारण किये रहें। इसी भाव से दीपक को आदर्श मानकर परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि वह हम सबके अन्दर अपने दिव्य ज्ञान को सञ्चरित करता रहे और उसी के अनुसार हमारा जीवन सञ्चालित होता रहे। गायत्री मन्त्र में यही भाव समाया हुआ है। इसलिए भाव सहित दीपयज्ञ करते हैं। हर मन्त्र के बाद ‘स्वाहा’ कहा जाता है। इसका भाव है, यह सुन्दर उक्ति है- हम इससे सहमत हैं, हम इस हेतु प्रयत्नशील रहेंगे।
क्रिया भावना - मञ्च पर कम से कम ५, २४, ५१ या १०८ दीपक प्रज्वलित करके ५, ७ या ९ गायत्री मंत्र से आहुतियाँ करायें।
गायत्री मन्त्र -ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् स्वाहा। इदं गायत्र्यै, इदं न मम॥
१०- पूर्णाहुतिः
ज्ञान साधना को पूर्णता तक पहुँचाने का प्रयास करेंगे, ऐसा भाव बनाएँ। ज्ञान आचरण में लाने से ही फलित होता है। उसका शुभारम्भ आज से ही करते हैं। अपनी अभी की जानकारी के अनुसार किसी एक बुराई को छोड़ने एवं एक अच्छे नियम को निभाने का सङ्कल्प लें। यह क्रम आगे भी बनाए रखें। यह क्रम हमें पूर्णता तक पहुँचाएगा। यह भाव, सङ्कल्प जगाकर पूर्णाहुति मन्त्र बोलें।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम्, पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते॥ स्वाहा॥
ॐ सर्वं वै पूर्ण स्वाहा।
समापन - सभी को इस पुण्य- प्रयास के लिए साधुवाद दें। विद्यालय को श्रेष्ठ व्यक्तित्व ढालने की टकसाल बनाने के लिए निवेदन करें। इसी भाव के साथ सबके कल्याण की कामना से आशीर्वाद, अभिषिञ्चन एवं शान्तिपाठ करायें।
११- अभिषिञ्चन
[सभी छात्रों पर मङ्गल कलशों से जलसिञ्चन की व्यवस्था बनाई जाय। पहले मन्त्रों का भाव समझायें, बाद में सिञ्चन के साथ मन्त्र पाठ करें।]
ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुवः। ता न ऊर्जे दधातन। महेरणाय चक्षसे।
ॐ यो वः शिवतमो रसः तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।
ॐ तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः॥
अर्थात्- हे जल! तुम हमारे लिए कल्याणकारी बनो। महान् आदर्शों के दर्शन अनुगमन के लिए मेरे अन्दर ऊर्जा का आधान करो। हे जल! आप का जो अत्यन्त कल्याणकारी रस है, उसका हमें उसी प्रकार भागीदार बनाओ, जैसे कि अत्यन्त भावनाशील माताएँ अपने शिशुओं को अपने स्नेह रस का भागीदार बनाती हैं। आपका प्रगतिशील दिव्य रस पाने के लिए हम तत्पर हैं। आप हमें उन्नतिशील बनायें।
१२- आशीवर्चन
[सभी शिक्षक एवं छात्रगण हाथ जोड़ें। परमात्मा से दिव्य शक्तियों से आशीर्वाद प्राप्त करने का भाव करें।]
मन्त्र- मन्त्रार्थाः सफलाः सन्तु, पूर्णाः सन्तु मनोरथाः।
शत्रुभ्यो भयनाशोऽस्तु, मित्राणां उदयस्तव॥
पद्यानुवाद- मन्त्र अर्थ सब सफल हों, पूर्ण मनोरथ होहिं।
दुष्ट-शत्रु भय नष्ट हो, मित्र सुविकसित होहिं॥
१२- शान्तिपाठ
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः, पृथिवी शान्तिरापः, शान्ति-रोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः, शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः, सर्व शान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि॥
ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः॥ र्वारिष्टसुशान्तिर्भवतु।
(जयघोष- व्यक्ति निर्माण एवं राष्ट्रीय स्तर के कराएँ।)