Books - खिलौनों ने अध्यात्म का सत्यानाश कर दिया
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
खिलौनों ने अध्यात्म का सत्यानाश कर दिया
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
खिलौनों ने अध्यात्म का सत्यानाश कर दिया
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
मित्रो! हमने यह क्या कर डाला! अज्ञान के वशीभूत हो करके हमने उस धर्म की जड़ में कुल्हाड़ा दे मारा और उसे काटकर फेंक दिया, जिसका उद्देश्य था कि हमको पाप से डरना चाहिए और श्रेष्ठ काम करना चाहिए। पापों के डर को तो हमने उसी दिन निकाल दिया, जिस दिन हमारे लिए गंगा पैदा हो गई। गंगा नहाइए और पापों का डर खतम। अच्छा साहब! चलिए ,, एक डर तो खतम हुआ। एक झगड़ा और रह गया है। क्या रह गया है? श्रेष्ठ काम कीजिए, त्याग कीजिए, बलिदान कीजिए, समाज सेवा कीजिए, अमुक काम कीजिए। पर इनका सफाया किसने कर दिया? बेटे! यह सत्यनारायण स्वामी ने कर दिया और महाकाल के मंदिर ने कर दिया। इन खिलौनों को देखिए और बैकुंठ को जाइए। अध्यात्म का सत्यानाश हो गया। अध्यात्म दुष्ट हो गया, अध्यात्म भ्रष्ट हो गया। भ्रष्ट और दुष्ट अध्यात्म को लेकर हम चलते हैं और फिर यह उम्मीद करते हैं कि इसके फलस्वरूप हमें वे लाभ मिलने चाहिए, वे चमत्कार मिलने चाहिए, वे सीढ़ियाँ मिलनी चाहिए और वे वरदान मिलने चाहिए। हर जगह है अध्यात्म की लाश
साथियों! यह कैसे हो सकता है? नास्तिकता का यह बहुत बुरा तरीका है और बहुत गंदा तरीका है, जो आपने अख्तियार कर रखा है। यह नास्तिकता का तरीका है। इसमें आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांतों को काट डाला गया है और कर्मकांडों की लाश को इतना ज्यादा सड़ा दिया गया है, जिस तरह से लाश जब एक बार सड़ जाती है तो उसका फूलना शुरू हो जाता है और फूल करके मुरदा इतना बड़ा हो जाता है कि देखने में मालूम पड़ता है कि मरा हुआ आदमी तिगुना- चौगुना हो गया। सड़ा हुआ अध्यात्म हमको चौदह- चौदह मंजिल के मंदिरों में दिखाई पड़ता है तथा यह मन आता है कि अभी और चौदह मंजिलें बन गई होतीं, तो हम सीधे बैकुंड चले जाते और बीच में किराया- भाड़ा खरच नहीं करना पड़ता। आध्यात्मिकता की लाश अखंड कीर्तनों के माध्यम से और भंडारों के माध्यम से इतनी फैलती और सड़ती जा रही है कि हमको मालूम पड़ता है कि अध्यात्म अब सड़ गया है। अध्यात्म मर गया, अध्यात्म का प्राण समाप्त हो गया। अब केवल अध्यात्म की लाश का बोलबाला है हर जगह अध्यात्म की लाश बढ़ती चली जाती है।
हमारी गायत्री की तप- साधना
मित्रो! ऐसे समय में आप लोगों को यहाँ आना पड़ा। गायत्री उपासना, जिसके लिए हमारा सारे का सारा जीवन समर्पित हो गया। गायत्री उपासना, जो हमारे जीवन का प्राण है। जिसके लिए हम जिएँगे और उसी के लिए मरेंगे। जिसके लिए हमने अपनी भरी जवानी निछावर कर दी। दूसरे आदमी भरी जवानी में तरह- तरह की कामनाएँ करते हैं। उस जमाने में हमने छह घंटे रोज के हिसाब से चौबीस साल तक, पंद्रह वर्ष की उम्र से लेकर चालीस वर्ष की उम्र तक हम जमीन पर सोए। छाछ और जौ की दो रोटियों के अलावा हमने तीसरी चीज ही नही देखी। नमक कैसा होता है, चौबीस वर्ष तक हमने कभी छुआ ही नहीं। शक्कर कैसी होती है, चौबीस वर्ष तक हमारी निगाह में ही नहीं आई। शाक- दाल किसे कहते हैं, हमने जाना भी नहीं। केवल गायत्री उपासना के लिए। सारी दुनिया हमको पागल कहती रही। बेवकूफ और बेहूदा बताती रही। पैसा हम कमा नहीं सके। जमीन पर पड़े रहे। खाने का जायका हम ले नहीं सके। इंद्रियों का जायका उठा नहीं सके। यश प्राप्त न कर सके। सम्मान प्राप्त न कर सके। जिस गायत्री मंत्र के लिए, जिस गायत्री की महत्ता के लिए बेटे! हम निछावर हैं और हमारा जीवन जिसके लिए समर्पित है, वह ऐसी महत्त्वपूर्ण शक्ति है, जिसका आधार इतना बड़ा है कि मनुष्य के भीतर वह देवत्व का उदय कर सकती है और मनुष्य अपने इसी जीवन में स्वर्ग जैसा आनंद लेने में समर्थ हो सकता है।
इस उपासना का मजाक न उड़ाएँ
मित्रों! ऐसी महत्त्वपूर्ण शक्ति, चमत्कारों की देवी, ज्ञान की देवी, विज्ञान की देवी, सामर्थ्य की देवी गायत्री माता, जिसका कि हम इन शिविरों में अनुष्ठान करने के लिए बुलाएँ, पर क्या करें आप त;ो हमें कई तरह से परेशान कर देते हैं, हैरान कर देते हैं। हमारा मानसिक संतुलन खराब कर देते हैं। आप तो शंातिकुंज को धर्मशाला बना देते हैं। आप तो इसको अन्नक्षेत्र बना देते हैं और बेटे! उन लोगों को लेकर चले आते हैं, जिनका कि इस अध्यात्म से कोई संबंध नहीं है; उपासना से कोई संबंध नहीं है; अनुष्ठान से कोई संबंध नहीं है; आप भीड़ लाकर खड़ी कर देते हैं और हमारा अनुशासन बिगाड़ देते हैं। भीड़ पग- पग पर हमको हैरान करती है और पग- पग पर अवज्ञा करती है। एक के स्थान पर पाँच लोग आ जाते हैं। कल एक व्यक्ति आया और बोला- साहब! हम अनुष्ठान नहीं कर सकते। हम तो अपनी औरत की वजह से यहाँ आए हैं, जो यह कहती है कि हमारे बाल- बच्चे नहीं होते हैं। हम तो इसी कारण से आए हैं, अन्यथा किसी अनुष्ठान से हमारा कोई ताल्लुक नहीं है और हम कोई अनुष्ठान नहीं करेंगे। नहीं करेंगे, बेटे! ऐसा कर कि तेरी औरत के अगर बच्चा होने वाला होगा तो वहाँ धर्मशाला में ही हो जाएगा और अगर न होना होगा तो यहाँ भी नहीं हो सकता। तू कल ले जा। कल मैंने उसे भगा दिया।
ऐसों से कैसे बनेगा स्तर
मित्रो! मैं चाहता था कि संस्था का स्तर अच्छा बना रहता और अनुष्ठानों का स्तर अच्छा गना रहता, पर मैं क्या कर सकता हूँ। मैंने आपको निमंत्रणपत्र इसलिए भेजे थे कि आप क्वालिटी के आदमी कहीं न कहीं से ढूँढ़कर लाएँगे, जिनकी मुझे बहुत जरूरत है। लोग फार्म भर करके मंजूरी मँगा लेते हैं, लेकिन उससे क्वालिटी के आदमी नीं आ पाते। क्वालिटी के आदमी न आने से मुझे बड़ा क्लेश होता है। मैं किसे समझाऊँ, क्यों समझाऊँ और क्या समझाऊँ? लेकिन मैंने आपको निमंत्रणपत्र इसलिए भिजवाए थे कि शायद आप अच्छे आदमी और बेहतरीन आदमी ले आएँगे, लेकिन आपने ये क्या कर डाला! आप तो सैलानियों को इकट्ठा कर लाए, जो कि हरिद्वार घूमने के लिए आए थे। वे ऋषिकेश घूमना चाहते थे, बदरीनाथ घूमना चाहते थे। इनके लिए आपने यहाँ पड़ाव डाल दिया। कहाँ जा रहे हो? साहब! बदरीनाथ जा रहे हैं। पड़ाव कहाँ पड़ेगा? शान्तिकुन्ज में। कितने दिन रहेंगे? दस दिन रहेंगे। पड़ाव में खूब मजा आएगा। वहाँ सस्ता भोजन मिलता है। ठहरने को फोकट में मिलता है। कोई किराया- खरच नहीं करना पड़ता है। वहाँ पर वरदान भी फोकट में मिलता है। चलिए, गुरूजी से आशीर्वाद लेंगे। बेटे! आपने यह क्या कर डाला ! आपने सत्यानाश कर दिया। बेकार के आदमी,बुड़ढे- बुढ़िया, सड़े- गले, लूले- लँगड़े, काने- कुबड़े, जो न अध्यात्म को समझते हैं, न भजन को समझते हैं, न पूजा को समझते हैं। सैलानियों के तरीके से तमाशा देखने के लिए हरिद्वार चले थे, आपने लाकर उन्हें मेरी गरदन पर सवार करा दिया।
नासमझों की भीड़ नहीं
बेटे! आपने यह कैसी आफत बुला ली? आपने बेकार की भीड़ इकट्ठी कर ली, जिसे देखकर मुझे दुःख होता है। मैंने शिविरों का आयोजन इसलिए किया था कि इनमें अच्छे लोग आएँगे, समझदार लोग आएँगे, लेकिन आपने निकम्मों की, वाहियात लोगों की भीड़ इकट्ठी करके तमाशा बना दिया है। मैंने इसीलिए तमाशबीनों पर प्रतिबंध लगाए थे, बच्चों पर प्रतिबंध लगाए थे, बुड्ढे- बुढ़ियों पर प्रतिबंध लगाए थे, ताकि अनावश्यक आदमी और बेकार की भीड़, बेकार के दर्शक जमा न हो जाएँ और यहाँ का स्तर खराब न करें। धर्मशाला की तरह से यहाँ भी नरक न बना डालें और हमको परेशान न कर डालें, लेकिन आपने तो वही कर डाला यहाँ। बेटे! जो मैं नहीं चाहता था, आपने वही परेशानी खड़ी कर दी। खैर चलिए, जो हो गया, सो हो गया।
बडी शक्तिशाली है यह साधना
मित्रो! गायत्री मंत्र कितना सामर्थ्यवान मंत्र है ! मैं चाहता था कि उस सामर्थ्य का लाभ उठाने के लिए मेरे बाद दूसरे आदमी भी रहे होते तो मजा आ जाता। अभी जो लोग रोज गालियाँ दिया करते हैं और कहते हैं कि हमको तीन साल गायत्री मंत्र जप करते हो गये, पर इससे कोई फायदा नहीं हुआ। यदि मैं अपने पीछे ऐसे आदमी छोड़कर मरा होता जो मेरे ही तरीके से गरदन ऊँची करके लोगों से यह कहने में समर्थ रहे होते कि अध्यात्म बड़े काम का है और यह बहुत उपयोगी है, फायदेमंद है और शक्तिशाली है और बड़ा चमत्कारी है। जैसे कि हम हिम्मत के साथ कहते हैं कि आप में से भी ऐसे आदमी होते और हम आपको यह सिखाते कि अध्यात्म क्या हो सकता है? गायत्री क्या हो सकती है? उपासना क्या हो सकती है और उपासना के आधार क्या हो सकते हैं? बेटे! मैंने इसलिए शिविर में आपको बुलाया था कि गायत्री उपासना के जो पाँच अंग, पाँच कोश- अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश और आनंदमयकोश हैं, इन पाँचों कोशों की उच्चस्तरीय उपासना, जो इसमें जुड़ी हुई है, उसे सामान्य प्रकिया में भी जोड़कर रखा है। यह ऊँचे स्तर की भी है। इसे मैं आपको समझाना चाहता था कि इन पाँचों कोशों का अनावरण कैसे किया जाता है। अभी तक जो ज्ञान आपको दिया गया, वह यह समझकर दिया गया कि अभी आप बालक हैं। समय आएगा तो मैं समझा दुँगा, सिखा दूँगा।
सीखें यह सच्चा अध्यात्म
मित्रो ! सोचता हूँ, अब शुरूआत तो करूँ, आपको पट्टीपूजन तो कराऊँ, ओलम- बाहरखड़ी तो सिखाऊँ, अक्षरज्ञान तो सिखाऊँ, गिनती गिनना तो सिखाऊँ। फिर पीछे फिजिक्स सिखा दूँगा, केमिस्ट्री सिखा दूँगा, रेखागणित सिखा दूँगा, गणित सिखा दूँगा। ये सब चीजें मैंने छिपाकर रखी थीं। अभी मैंने आपको गिनतियाँ याद कराई थीं और पहाड़े याद कराए थे और आपको जप करना सिखाया, अनुष्ठान करना सिखाया, माला घुमाना सिखाया था, प्राणायाम करना सिखाया था और इनकी विधि सिखाई थी, कर्मकांड सिखाया था। इन सबका प्राण तो मैंने सिखाया भी नहीं था। मैं चाहता था कि चलते- चलते इनका प्राण सिखा जाऊँ ,, ताकि आपका अध्यात्म जीवंत हो सके ; ताकि आपकी उपासना जीवंत हो सके और जीवंत उपासना का जो लाभ आपको मिलना चाहिए, वह लाभ आपको मिलने मे समर्थ हो सके और आप अपनी जिंदगी में यह अनुभव कर सकें कि हमको कोई ऐसी चीज बताई गई थी। अगर हमने नहीं की तो ठीक है, लेकिन की तो उसका पूरे का पूरा फायदा उठाया। हम आपको ऐसा ही अध्यात्म सिखाने के इच्छुक हैं। आपको ऐसा अध्यात्म सीखना चाहिए और ऐसा अध्यात्म जानना चाहिए।
पहला चरण आत्मशोधन
मित्रो ! अध्यात्म में आत्मशोधन पहली प्रकिया है। पंचमुखी गायत्री के पाँच मुखों को पाँच दिशाओं, पाँच धाराओं, गायत्री उपासना के पाँच टुकड़ों में बाँट दिया गया है। इसमें तीन चरण हैं, एक पर्व है। इसमें एक ‘ऊँ’ है। गायत्री पाँच हिस्सों में बँटी हुई है, जिसकी हम पाँच हिस्सों में व्याख्या कर सकते हैं। इसको हम पाँच कोशों का जागरण कह सकते हैं। इसके लिए हम आपको पाँच उपासनाएँ सिखा सकते हैं, जिसे आपको समझना चाहिए। गायत्री माता का पहला वाला खंड वह है, जिसे हम प्रत्येक क्रियाकृत्य के साथ- साथ सबसे पहले सिखाते हैं और कहते हैं कि इसके बिना कोई कृत्य पूरा नहीं हो सकता। वह क्या हो सकता है? वह है- आत्मशोधन की प्रकिया। आत्मशोधन- प्रकिया के कौन- कौन से अंग हैं? आप उसके बिना जप नहीं कर सकते ; उसके बिना हवन नहीं कर सकते। उसके बिना कोई कर्मकांड नहीं कर सकते; यह तो हमारे कर्म का प्रारंभ है और यह हमारे अध्यात्म का प्रारंभ है, जिसको हम आत्मशोधन की प्रकिया कहते हैं।
यह द्वार है
उसमें क्या- क्या चीजें आती हैं? बेटे ! इसमें पहला अंग ‘पवित्रीकरण’ का आता है। ऊँ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतो पिव। यह पहला पाठ है। इसके बाद आपको तीन आचमन करना सिखाते हैं। तीन आचमन करने के बाद में प्राणायाम सिखाते हैं, न्यास सिखाते हैं, शिखावंदन सिखाते हैं और आपको पृथ्वीपूजन सिखाते हैं। ये छह क्रियाएँ हैं, जिन्हें ‘षट्कर्म’ भी कहा गया है। आप षट्कर्म का प्राण समझिए और अध्यात्म की भूमिका में प्रवेश कीजिए और गायत्री उपासना के दरवाजे को खोलिए। आप उसमें धुसने का प्रयत्न कीजिए। यहाँ से प्रयत्न आरंभ होता है। इसके बाद और सब काम होते हैं। गायत्री जप इसके पीछे होता है। ध्यान उसके पीछे होता है और सब क्रियाकृत्य इसके पीछे होते हैं। सबसे पहले आपको यह क्रिया करनी पड़ेगी। अगर आपने यह नहीं किया तो आपका सब काम अधूरा है। आत्मशोधन की प्रकिया से आपको उपासना आरंभ करनी चाहिए थी। आत्मशोधन के पीछे क्या है? बेटे! यह वास्तव में अपनी आंतरिक सफाई की प्रक्रिया है। आंतरिक सफाई किस तरह से की जाती है? जिस तरह से आपने जमीन से कच्चा निकलते देखा है। भारी और कच्ची मिट्टी का नाम लोहा है। भारी मिट्टी लोहा कैसे हो जाती है? स्टील कैसे हो जाती है? बेटे! उसको गरम करना पड़ता है, शोधन करना पड़ता है। इसकी मिट्टी अलग निकाल देते हैं, जला देते हैं। आप बोकारो चले जाइए, सारी की सारी फैक्टरियों में आप चले जाइए और यह कहिए कि साहब! यहाँ कच्चा लोहा पकाया जाता है। अच्छा, तो लाइए, कच्चा लोहा दिखाइए। कच्चे लोहे में मिट्टी मिली होगी। मिट्टी को साफ करना और साफ करके लोहा निकालना, सबसे पहला काम है।
धुलाई और रँगाई
इसी तरह मित्रो! सबसे पहला काम है- आत्मशोधन। हमारी जीवात्मा जो निकृष्ट स्तर की घटिया हो गई है, गई- गुजरी बनी हुई है, इसमें न कोई शक्ति है, न कोई चमत्कार है। अज्ञान में डूबी हुई है। असहाय, दीन, दुर्बल, प्रत्येक क्षण चिंताओं से धिरी हुई, पाप और अनाचारों से धिरी हुई, दुःख और दर्द से धिरी हुई, शोक और संताप से धिरी हुई अर्थात मलावरण से हमारी चेतना धिरी हुई है। इसको क्या करना पड़ेगा? इसको बेटे ! इसी तरह से अलग करना पड़ेगा, जैसे कि लोहे को मिट्टी से अलग करना पड़ता है। अगर आप यह क्रिया पूरी कर लें तो समझना चाहिए कि आपने आध्यात्मिकता का पहला वाला सिद्धांत सीख लिया। रँगाई से पहले धुलाई की जाती है। भक्ति से पहले, कर्मकांड़ों से पहले, अनुष्ठानों से पहले धुलाई आवश्यक है। अगर कपड़े की धुलाई नहीं की गई तो रँगाई नहीं कर सकते। नहीं साहब! ऐसे ही रँग दीजिए। क्या रँग दें? हमारा कोट। कैसा रँग दें? गुलाबी रँग दीजिए। अच्छा ला, कहाँ है कोट? तेल में डूबा हुआ, मैल में डुबा हुआ, मिट्टी में डूबा हुआ, सारा का सारा मैला पड़ा है। बेटे! यह नहीं रँगा जा सकता। नहीं साहब! रँग दीजिए। बेटे ! हम गुलाबी रंग रँगेंगे तो हमारा रंग खराब हो जाएगा। यह नहीं रँगा जा सकता।
पहली शर्त अपनी सफाई
यह कैसे रँगा जा सकता है? इसको पहले धोबी के यहाँ ले जाओ। धोबी क्या करेगा? इसके ऊपर जो मलिनताएँ चढ़ी हुई हैं, उन मलिनताओं को वह पहले साफ करेगा; पापों को साफ करेगा ; अनाचारों को साफ करेगा। जिस दिन वह सारे के सारे जो आवरण चढ़े हुए हैं, उन्हें साफ कर देगा, उस दिन तू हमारे पास ले आना। फिर जो भी रंग कहेगा, हम तेरे कुरते को उसी रंग से रँग देंगे। महादेव जी का गुलाबी रंग रँग देंगे, हनुमान जी का पीला रंग रँग देंगे, लक्ष्मी जी का वासंती रंग रँग देंगे। जिस भी देवता का कहेगा, हम फौरन रँग देंगे, लेकिन रंगने से पहले तुझे सफाई करनी पड़ेगी, आत्मशोधन करना पड़ेगा। अगर आपने सफाई नहीं की और रंग करना शुरू कर दिया, जप करना शुरू कर दिया, अनुष्ठान करना शुरू कर दिया, ध्यान करना शुरू कर दिया और पुजा करना शुरू कर दिया तो बेटे ! आपका रंग खराब हो जाएगा। पहले धोकर लाइए। धोने की इस प्रकिया का नाम ही आत्मशोधन है, जो सबसे पहले आपको सिखाई गई थी और जिसकी आज मैं व्याख्या कर रहा हूँ। रँगाई से पहले अंगारे के ऊपर चढ़ी राख की परत को हटाते हैं। अंगारे के ऊपर राख की परत जम जाती है। राख की परत का जब हटा देते हैं तो अंगार लाल दिखाई पड़ता है, चमकदार दिखाई पड़ता है। अंगारे के ऊपर से राख की परत हटाना आवश्यक है, ताकि उसकी चमक, उसकी गरमी दिखाई पड़ने लगे। जब तक अंगारे के ऊपर राख की परत जमी रहती है, वह काला दिखाई पड़ता है, ठंड़ा दिखाई पड़ता है।
मलिनता मिटे तो चमत्कार प्रकटें
मित्रो ! इसी तरह हमारे ऊपर जो मलिनताओं के आवरण- कषाय शारीरिक पापों के रूप में ,, मानसिक पापों के रूप में और आध्यात्मिक पापों के रूप में छा गए हैं, उनका आपको निराकरण करना चाहिए। अगर आप अपने ऊपर चढ़ी हुई मलिनता को साफ कर पाएँ तो आपके भीतर वह शक्ति का स्रोत, शक्ति का पुंज, जिसको हम जीवात्मा कहते हैं, स्वयमेव अनायास ही शक्तिशाली होता हुआ, उभरता हुआ, उठता हुआ चला जाएगा और फिर आप अपनी आत्मा का चमत्कार, अपनी साधना का चमत्कार देख सकते हैं। देवताओं के चमत्कार नहीं, अपनी आत्मा के चमत्कार को देख सकते हैं। देवताओं के चमत्कार नहीं, अपनी आत्मा के चमत्कार को देख सकते हैं। देवताओं के अनुग्रह नहीं, अपनी जीवात्मा का अनुग्रह देख सकते हैं बाहर वाले देवताओं का जो नाम रखा है, वास्तव में हमने अपनी भीतरवाली सत्ता का प्रकारंतर से बाहर का नाम रखा है। बाहर से हमको कभी कोई सहायता नहीं मिलती। बाहर का कोई वरदान हमको कभी नहीं मिलता। बाहर का कोई भगवान कभी सहायक नहीं हुआ। भीतर वाला ही वह भगवान है, जो जब जाग्रत होता है तो बाहर वाले भगवान को खींचता हुआ चला आता है; पकड़ता हुआ चला आता है; घसीटता हुआ चला आता है। हमारा भीतर वाला मैग्नेट सोया हुआ हो, भीतर वाला मैग्नेट गया- गुजरा हो तो आप कोई चीज नहीं पकड़ सकते। न भगवान को पकड़ सकते हैं; न सिद्धियों को पकड़ सकते हैं; न आशीर्वादों को पकड़ सकते हैं ; न वरदान को पकड़ सकते हैं। आप कोई चीज नहीं पकड़ सकते हैं। आप मुरदे के तरीके से पड़े रहेंगे।
संशोधन का महत्त्व
इसलिए मित्रो ! अंगारे के ऊपर से राख हटाना आवश्यक है। बहुत से लोग विषों का संशोधन करते रहते हैं। हकीम जी करते हैं। कहिए साहब! क्या- क्या और किस- किस की दवाई बना रहे हैं? अरे साहब! यह दमे की दवाई है। हमने इसमें संखिया मिलाया हुआ है। अरे हकीम साहब ! हमें संखिया खिलाकर मार डालेंगे क्या? नहीं, हमने संखिया को संशोधित किया हुआ है। कुचला को संशोधित किया हुआ है। किसलिए करते हैं? कुचला को इसलिए संशोधित किया हुआ है कि इससे हम वात की बीमारियों और धुटन के दरद को ठीक कर देंगे। गंधक को हम शोधित करते हैं। इससे हम खाज- खुजली को अच्छा कर सकते हैं। इस तरह हमने गंधक को संशोधित कर दिया है और वह हमारा काम करता है। कुचला हमारा काम करता है। संखिया हमारा काम करता है। हर तरह का जहर हमारे लिए उपयोगी बन जाता है, अमृत बन जाता है। इसी तरह अगर आप कच्चे पारे को ठीक कर लें, संशोधित कर लें तो पारा रसायन बन जाता है।
डिस्टिल्ड वाटर बनिए
मित्रो! अपने आप की सफाई आत्मशोधन की पहली प्रकिया है। दर्पण के ऊपर जब तक गंदगी की परत चढ़ी होती है, मलिनता की परत चढ़ी होती है, तब तक हमको उसमें अपना चेहरा दिखाई नहीं पड़ता। जिस वक्त आप शीशे के ऊपर से परत हटा देते हैं, उस वक्त आपको भगवान दिखाई पड़ता है ; पूजा दिखाई पड़ती है, भक्ति दिखाई पड़ती है ; अपनी मलिनता दिखाई पड़ती है- ‘‘ दिल के आइने में है तसवीर यार की, जब जरा गरदन उठाई देख ली।’’ मित्रो! अपनी मलिनता को साफ कीजिए और भगवान को अपने भीतर देखिए। अपने दर्पण की सफाई कीजिए। डिस्टिल्ड वाटर का उपयोग आप जानते हैं? लाइए डॉक्टर साहब! एक कुनैन मिक्सचर का इंजेक्शन लगाइए। अच्छा पानी लाइए। अरे! इस पानी से थोड़े ही लगेगा। इसमें तो कीटाणु- जीवाणु हैं। इसका इंजेक्शन लगा देंगे तो आप मर जाएँगे। तो किस पानी से लगाएँगे? डिस्टिल्ड वाटर से। डिस्टिल्ड वाटर किसे कहते हैं? बेटे! उसे कहते हैं, जो भाप के द्वारा उड़ाया हुआ है। डिस्टिल्ड वाटर अर्थात वह आदमी जो भगवान का भक्त कहला सकता है और गंदा पानी कौन? वह आदमी, जो दोहाई तो भक्ति की देता है। भक्ति के कर्मकांड करता है, जिसे मैं नखरे कहता हूँ। ऐसा आदमी भक्ति के नखरे तो करता है, लेकिन असल में उसने अपने आप को इतना घटिया बनाकर रखा है कि उसके अंदर क्या हो सकता है और क्या नहीं हो सकता, बेटे! हम उसके ऊपर कोई विश्वास नहीं कर सकते। हमारे लिए अपने भीतर की सफाई करना अत्यधिक आवश्यक है।
बुद्ध की शिक्षा सेठ जी को
भगवान बुद्ध एक शिष्य के यहाँ भिक्षा माँगने के लिए गए। भिक्षा के लिए अपना कमंडल साथ ले गए। सेठ जी को पता था कि आज भगवान बुद्ध हमारे यहाँ आने वाले हैं, सो उन्होंने मेवे की खीर बनाकर रखी कि मैं भगवान को भिक्षा में खीर दूँगा। भिक्षा के लिए जब उन्होंने कमंडल आगे बढ़ाया तो सेठ जी ने देखा कि कमंडल के भीतर गोबर भरा पड़ा था। सेठ जी ने कहा कि भगवान! आप यह क्या कर रहे हैं- बताइए कि आप गोबर भरे हुए कमंडल में खीर लेंगे? तो बेटे ! इसमें क्या हर्ज है। स्वामी जी! इसमें दो हर्ज हैं- पहला यह कि इसमें गोबर भरा हुआ है इसमें जो खीर डालेंगे, वह जमीन पर गिर पड़ेगी, इस कमंडल में नहीं आएगी। दूसरा ,, अगर थोड़ी- बहुत खीर आ भी गई, तो गोबर में मिल जाएगी और अगर आपने इसे खाना शुरू भी कर दिया तो खीर और गोबर ,, दोनों चीजों को मिलाकर खाने से उलटी हो जाएगी और हमारा सारा प्रयत्न बेकार हो जाएगा। तो बेटे! अब क्या करना चाहिए, गलती तो हो गई। लाइए, कमंडल हमें दीजिए ।। सेठ जी कमंडल ले गए। उसे धोया, साफ किया और साफ करने के बाद में उसमें खीर भरी और बुद्ध से प्रार्थना की कि भविष्य में कहीं भी भिक्षा माँगने जाया करें तो गोबर के कमंडल को धोकर के ले जाया कीजिए, ताकि कोई आदमी आपको भिक्षा दे तो उस भिक्षा का फायदा उठा सकें और देने वाले का नियम भी सार्थक हो सके। देने वाले की भावना सार्थक हो सके और आपने जो पाया है, उसका आप पूरा फायदा उठा सकें।
कमंडल साफ रखें
बुद्ध भगवान ने कहा कि बेटे ! शिक्षा तो तूने अच्छी दी। आइंदा से अब मैं ऐसा ही करूँगा। वे कुछ देर चुप रहे, फिर बोले- बेटा! एक कमी रह गई। तू जो संत- महात्माओं की सेवा करता है, भगवान का भजन करता है, वह किस काम के लिए करता है? यही वरदान माँगने के लिए, आशीर्वाद पाने और कुछ सिद्धियाँ पाने के लिए करता हूँ। बेटे! ये सिद्धियाँ, ये वरदान और आशीर्वाद तेरी खीर के बराबर हो सकती हैं। नहीं महाराज जी! खीर तो हमने दो रूपए की बनाई है, लेकिन सिद्धि तो बहुत दाम की हो सकती है ; चमत्कार तो बहुत दाम का हो सकता है; भगवान का प्यार तो बहुत दाम का हो सकता है। हाँ बेटे! लेकिन अगर कोई इसे देगा तो मैले कमंडल में कैसे देगा? मैला कमंडल कैसा है? जैसा तू है, भीतर से भी मैला और बाहर से भी मैला। पहले इसे धो करके ला, ताकि तुझे कोई वरदान दे, आशीर्वाद दे तो देने वाले का श्रम सार्थक हो सके। तुमने अभी जो पाया है, उसको भी कोई ठोर- ठिकाना मिल सके, ठीक से उपयोग कर सके, अन्यथा गोबर से भरा हुआ कमंडल दोनों को मिलाकर गुड़- गोबर कर देगा।
अन्नमयकोश की धुलाई पहले
गुड़- गोबर किसे कहते हैं? जो न खाने के काम आता है, न लीपने के काम आता है। यह क्या लाए साहब! यह तो गुड़- गोबर लाए। गुड़ में गोबर मिलाकर लाए। बेटे! यह तो किसी काम का नहीं है। क्यों नहीं है? क्योंकि यह गुड़- गोबर है। इससे आप लीपेंगे तो मक्खियाँ भिनकेंगी, पैर चिपक जाएगा। यह किसी काम का नहीं रहा। इससे तो अच्छा होता कि आपने गुड़ को अलग रखा होता। गोबर हमारा जीवन और अध्यात्म हमारा भगवान। बेटे! इसके साथ यदि हम भगवान की भक्ति को इकट्ठा करना चाहते हैं तो इससे कोई फायदा नहीं होगा। हमारा सारा श्रम बेकार चला जायगा, इसलिए अच्छा है कि आप कमंडल को साफ करके चलें। यह शिक्षा हम आपको किसमें देते हैं? हम आपको गायत्री के पहले वाले चरण में देते हैं। गायत्री का पहला वाला चरण, पहला वाला शिक्षण, पहली वाली धारा, पहला वाला सूक्त, पहला वाला प्रयोग, जो हम आपको सिखाते हैं, वह गायत्री के पाँच मुखों में से एक है। पंचकोशों की जाग्रति में वह पहला वाला कोश है। पहले वाले कोश को, जिसे अन्नमयकोश कहते हैं, उसकी मलिनता का निराकरण करें। मलिनता का निराकरण अगर आप नहीं करेंगे और खाना खाते जाएँग, मैले को भीतर रोककर रखेंगे तो मरेंगे। आपको खुराक नहीं मिलेगी। मारेंगी हमारी मलिनताएँ
मित्रो! फिर आध्ययत्मिकता की खुराक आपके हिस्से में नहीं आने वाली। किसी देवी- देवता का वरदान नहीं आने वाला। आपको किसी सिद्धपुरूष का अनुग्रह नहीं वाला है और कोई आध्यात्मिक चमत्कार नहीं दिखाई देने वाला है। अगर आप अपने आप को साफ करके नहीं आयेगे तब। बेटे! हमको कई काम करने पड़ते हैं। पसीना निकालना पड़ता है अगर हम पसीना नहीं निकालें तब? पेशाब न करें तब? साँस नहीं लें तब? इन सबके द्वारा जो हम मलिनताओं को निकालते हैं, अगर हम इन मलिनताओं को नहीं निकालें अर्थात साँस नहीं लें, पसीना नहीं निकालें, पेशाब नहीं करें, तब मलिनताएँ हमारे शरीर में जमा होती चली जाएँगी और मित्रो! कोई और तो मारेगा नहीं, हमारी कोई हत्या करने तो नहीं आएगा, लेकिन मलिनताएँ हमको मार डालेंगी। इसलिए मेरी आप सबसे एक ही अपेक्षा है कि आप अंदर की मलिनताओं को साफ करें आज की बात समाप्त
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
मित्रो! हमने यह क्या कर डाला! अज्ञान के वशीभूत हो करके हमने उस धर्म की जड़ में कुल्हाड़ा दे मारा और उसे काटकर फेंक दिया, जिसका उद्देश्य था कि हमको पाप से डरना चाहिए और श्रेष्ठ काम करना चाहिए। पापों के डर को तो हमने उसी दिन निकाल दिया, जिस दिन हमारे लिए गंगा पैदा हो गई। गंगा नहाइए और पापों का डर खतम। अच्छा साहब! चलिए ,, एक डर तो खतम हुआ। एक झगड़ा और रह गया है। क्या रह गया है? श्रेष्ठ काम कीजिए, त्याग कीजिए, बलिदान कीजिए, समाज सेवा कीजिए, अमुक काम कीजिए। पर इनका सफाया किसने कर दिया? बेटे! यह सत्यनारायण स्वामी ने कर दिया और महाकाल के मंदिर ने कर दिया। इन खिलौनों को देखिए और बैकुंठ को जाइए। अध्यात्म का सत्यानाश हो गया। अध्यात्म दुष्ट हो गया, अध्यात्म भ्रष्ट हो गया। भ्रष्ट और दुष्ट अध्यात्म को लेकर हम चलते हैं और फिर यह उम्मीद करते हैं कि इसके फलस्वरूप हमें वे लाभ मिलने चाहिए, वे चमत्कार मिलने चाहिए, वे सीढ़ियाँ मिलनी चाहिए और वे वरदान मिलने चाहिए। हर जगह है अध्यात्म की लाश
साथियों! यह कैसे हो सकता है? नास्तिकता का यह बहुत बुरा तरीका है और बहुत गंदा तरीका है, जो आपने अख्तियार कर रखा है। यह नास्तिकता का तरीका है। इसमें आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांतों को काट डाला गया है और कर्मकांडों की लाश को इतना ज्यादा सड़ा दिया गया है, जिस तरह से लाश जब एक बार सड़ जाती है तो उसका फूलना शुरू हो जाता है और फूल करके मुरदा इतना बड़ा हो जाता है कि देखने में मालूम पड़ता है कि मरा हुआ आदमी तिगुना- चौगुना हो गया। सड़ा हुआ अध्यात्म हमको चौदह- चौदह मंजिल के मंदिरों में दिखाई पड़ता है तथा यह मन आता है कि अभी और चौदह मंजिलें बन गई होतीं, तो हम सीधे बैकुंड चले जाते और बीच में किराया- भाड़ा खरच नहीं करना पड़ता। आध्यात्मिकता की लाश अखंड कीर्तनों के माध्यम से और भंडारों के माध्यम से इतनी फैलती और सड़ती जा रही है कि हमको मालूम पड़ता है कि अध्यात्म अब सड़ गया है। अध्यात्म मर गया, अध्यात्म का प्राण समाप्त हो गया। अब केवल अध्यात्म की लाश का बोलबाला है हर जगह अध्यात्म की लाश बढ़ती चली जाती है।
हमारी गायत्री की तप- साधना
मित्रो! ऐसे समय में आप लोगों को यहाँ आना पड़ा। गायत्री उपासना, जिसके लिए हमारा सारे का सारा जीवन समर्पित हो गया। गायत्री उपासना, जो हमारे जीवन का प्राण है। जिसके लिए हम जिएँगे और उसी के लिए मरेंगे। जिसके लिए हमने अपनी भरी जवानी निछावर कर दी। दूसरे आदमी भरी जवानी में तरह- तरह की कामनाएँ करते हैं। उस जमाने में हमने छह घंटे रोज के हिसाब से चौबीस साल तक, पंद्रह वर्ष की उम्र से लेकर चालीस वर्ष की उम्र तक हम जमीन पर सोए। छाछ और जौ की दो रोटियों के अलावा हमने तीसरी चीज ही नही देखी। नमक कैसा होता है, चौबीस वर्ष तक हमने कभी छुआ ही नहीं। शक्कर कैसी होती है, चौबीस वर्ष तक हमारी निगाह में ही नहीं आई। शाक- दाल किसे कहते हैं, हमने जाना भी नहीं। केवल गायत्री उपासना के लिए। सारी दुनिया हमको पागल कहती रही। बेवकूफ और बेहूदा बताती रही। पैसा हम कमा नहीं सके। जमीन पर पड़े रहे। खाने का जायका हम ले नहीं सके। इंद्रियों का जायका उठा नहीं सके। यश प्राप्त न कर सके। सम्मान प्राप्त न कर सके। जिस गायत्री मंत्र के लिए, जिस गायत्री की महत्ता के लिए बेटे! हम निछावर हैं और हमारा जीवन जिसके लिए समर्पित है, वह ऐसी महत्त्वपूर्ण शक्ति है, जिसका आधार इतना बड़ा है कि मनुष्य के भीतर वह देवत्व का उदय कर सकती है और मनुष्य अपने इसी जीवन में स्वर्ग जैसा आनंद लेने में समर्थ हो सकता है।
इस उपासना का मजाक न उड़ाएँ
मित्रों! ऐसी महत्त्वपूर्ण शक्ति, चमत्कारों की देवी, ज्ञान की देवी, विज्ञान की देवी, सामर्थ्य की देवी गायत्री माता, जिसका कि हम इन शिविरों में अनुष्ठान करने के लिए बुलाएँ, पर क्या करें आप त;ो हमें कई तरह से परेशान कर देते हैं, हैरान कर देते हैं। हमारा मानसिक संतुलन खराब कर देते हैं। आप तो शंातिकुंज को धर्मशाला बना देते हैं। आप तो इसको अन्नक्षेत्र बना देते हैं और बेटे! उन लोगों को लेकर चले आते हैं, जिनका कि इस अध्यात्म से कोई संबंध नहीं है; उपासना से कोई संबंध नहीं है; अनुष्ठान से कोई संबंध नहीं है; आप भीड़ लाकर खड़ी कर देते हैं और हमारा अनुशासन बिगाड़ देते हैं। भीड़ पग- पग पर हमको हैरान करती है और पग- पग पर अवज्ञा करती है। एक के स्थान पर पाँच लोग आ जाते हैं। कल एक व्यक्ति आया और बोला- साहब! हम अनुष्ठान नहीं कर सकते। हम तो अपनी औरत की वजह से यहाँ आए हैं, जो यह कहती है कि हमारे बाल- बच्चे नहीं होते हैं। हम तो इसी कारण से आए हैं, अन्यथा किसी अनुष्ठान से हमारा कोई ताल्लुक नहीं है और हम कोई अनुष्ठान नहीं करेंगे। नहीं करेंगे, बेटे! ऐसा कर कि तेरी औरत के अगर बच्चा होने वाला होगा तो वहाँ धर्मशाला में ही हो जाएगा और अगर न होना होगा तो यहाँ भी नहीं हो सकता। तू कल ले जा। कल मैंने उसे भगा दिया।
ऐसों से कैसे बनेगा स्तर
मित्रो! मैं चाहता था कि संस्था का स्तर अच्छा बना रहता और अनुष्ठानों का स्तर अच्छा गना रहता, पर मैं क्या कर सकता हूँ। मैंने आपको निमंत्रणपत्र इसलिए भेजे थे कि आप क्वालिटी के आदमी कहीं न कहीं से ढूँढ़कर लाएँगे, जिनकी मुझे बहुत जरूरत है। लोग फार्म भर करके मंजूरी मँगा लेते हैं, लेकिन उससे क्वालिटी के आदमी नीं आ पाते। क्वालिटी के आदमी न आने से मुझे बड़ा क्लेश होता है। मैं किसे समझाऊँ, क्यों समझाऊँ और क्या समझाऊँ? लेकिन मैंने आपको निमंत्रणपत्र इसलिए भिजवाए थे कि शायद आप अच्छे आदमी और बेहतरीन आदमी ले आएँगे, लेकिन आपने ये क्या कर डाला! आप तो सैलानियों को इकट्ठा कर लाए, जो कि हरिद्वार घूमने के लिए आए थे। वे ऋषिकेश घूमना चाहते थे, बदरीनाथ घूमना चाहते थे। इनके लिए आपने यहाँ पड़ाव डाल दिया। कहाँ जा रहे हो? साहब! बदरीनाथ जा रहे हैं। पड़ाव कहाँ पड़ेगा? शान्तिकुन्ज में। कितने दिन रहेंगे? दस दिन रहेंगे। पड़ाव में खूब मजा आएगा। वहाँ सस्ता भोजन मिलता है। ठहरने को फोकट में मिलता है। कोई किराया- खरच नहीं करना पड़ता है। वहाँ पर वरदान भी फोकट में मिलता है। चलिए, गुरूजी से आशीर्वाद लेंगे। बेटे! आपने यह क्या कर डाला ! आपने सत्यानाश कर दिया। बेकार के आदमी,बुड़ढे- बुढ़िया, सड़े- गले, लूले- लँगड़े, काने- कुबड़े, जो न अध्यात्म को समझते हैं, न भजन को समझते हैं, न पूजा को समझते हैं। सैलानियों के तरीके से तमाशा देखने के लिए हरिद्वार चले थे, आपने लाकर उन्हें मेरी गरदन पर सवार करा दिया।
नासमझों की भीड़ नहीं
बेटे! आपने यह कैसी आफत बुला ली? आपने बेकार की भीड़ इकट्ठी कर ली, जिसे देखकर मुझे दुःख होता है। मैंने शिविरों का आयोजन इसलिए किया था कि इनमें अच्छे लोग आएँगे, समझदार लोग आएँगे, लेकिन आपने निकम्मों की, वाहियात लोगों की भीड़ इकट्ठी करके तमाशा बना दिया है। मैंने इसीलिए तमाशबीनों पर प्रतिबंध लगाए थे, बच्चों पर प्रतिबंध लगाए थे, बुड्ढे- बुढ़ियों पर प्रतिबंध लगाए थे, ताकि अनावश्यक आदमी और बेकार की भीड़, बेकार के दर्शक जमा न हो जाएँ और यहाँ का स्तर खराब न करें। धर्मशाला की तरह से यहाँ भी नरक न बना डालें और हमको परेशान न कर डालें, लेकिन आपने तो वही कर डाला यहाँ। बेटे! जो मैं नहीं चाहता था, आपने वही परेशानी खड़ी कर दी। खैर चलिए, जो हो गया, सो हो गया।
बडी शक्तिशाली है यह साधना
मित्रो! गायत्री मंत्र कितना सामर्थ्यवान मंत्र है ! मैं चाहता था कि उस सामर्थ्य का लाभ उठाने के लिए मेरे बाद दूसरे आदमी भी रहे होते तो मजा आ जाता। अभी जो लोग रोज गालियाँ दिया करते हैं और कहते हैं कि हमको तीन साल गायत्री मंत्र जप करते हो गये, पर इससे कोई फायदा नहीं हुआ। यदि मैं अपने पीछे ऐसे आदमी छोड़कर मरा होता जो मेरे ही तरीके से गरदन ऊँची करके लोगों से यह कहने में समर्थ रहे होते कि अध्यात्म बड़े काम का है और यह बहुत उपयोगी है, फायदेमंद है और शक्तिशाली है और बड़ा चमत्कारी है। जैसे कि हम हिम्मत के साथ कहते हैं कि आप में से भी ऐसे आदमी होते और हम आपको यह सिखाते कि अध्यात्म क्या हो सकता है? गायत्री क्या हो सकती है? उपासना क्या हो सकती है और उपासना के आधार क्या हो सकते हैं? बेटे! मैंने इसलिए शिविर में आपको बुलाया था कि गायत्री उपासना के जो पाँच अंग, पाँच कोश- अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश और आनंदमयकोश हैं, इन पाँचों कोशों की उच्चस्तरीय उपासना, जो इसमें जुड़ी हुई है, उसे सामान्य प्रकिया में भी जोड़कर रखा है। यह ऊँचे स्तर की भी है। इसे मैं आपको समझाना चाहता था कि इन पाँचों कोशों का अनावरण कैसे किया जाता है। अभी तक जो ज्ञान आपको दिया गया, वह यह समझकर दिया गया कि अभी आप बालक हैं। समय आएगा तो मैं समझा दुँगा, सिखा दूँगा।
सीखें यह सच्चा अध्यात्म
मित्रो ! सोचता हूँ, अब शुरूआत तो करूँ, आपको पट्टीपूजन तो कराऊँ, ओलम- बाहरखड़ी तो सिखाऊँ, अक्षरज्ञान तो सिखाऊँ, गिनती गिनना तो सिखाऊँ। फिर पीछे फिजिक्स सिखा दूँगा, केमिस्ट्री सिखा दूँगा, रेखागणित सिखा दूँगा, गणित सिखा दूँगा। ये सब चीजें मैंने छिपाकर रखी थीं। अभी मैंने आपको गिनतियाँ याद कराई थीं और पहाड़े याद कराए थे और आपको जप करना सिखाया, अनुष्ठान करना सिखाया, माला घुमाना सिखाया था, प्राणायाम करना सिखाया था और इनकी विधि सिखाई थी, कर्मकांड सिखाया था। इन सबका प्राण तो मैंने सिखाया भी नहीं था। मैं चाहता था कि चलते- चलते इनका प्राण सिखा जाऊँ ,, ताकि आपका अध्यात्म जीवंत हो सके ; ताकि आपकी उपासना जीवंत हो सके और जीवंत उपासना का जो लाभ आपको मिलना चाहिए, वह लाभ आपको मिलने मे समर्थ हो सके और आप अपनी जिंदगी में यह अनुभव कर सकें कि हमको कोई ऐसी चीज बताई गई थी। अगर हमने नहीं की तो ठीक है, लेकिन की तो उसका पूरे का पूरा फायदा उठाया। हम आपको ऐसा ही अध्यात्म सिखाने के इच्छुक हैं। आपको ऐसा अध्यात्म सीखना चाहिए और ऐसा अध्यात्म जानना चाहिए।
पहला चरण आत्मशोधन
मित्रो ! अध्यात्म में आत्मशोधन पहली प्रकिया है। पंचमुखी गायत्री के पाँच मुखों को पाँच दिशाओं, पाँच धाराओं, गायत्री उपासना के पाँच टुकड़ों में बाँट दिया गया है। इसमें तीन चरण हैं, एक पर्व है। इसमें एक ‘ऊँ’ है। गायत्री पाँच हिस्सों में बँटी हुई है, जिसकी हम पाँच हिस्सों में व्याख्या कर सकते हैं। इसको हम पाँच कोशों का जागरण कह सकते हैं। इसके लिए हम आपको पाँच उपासनाएँ सिखा सकते हैं, जिसे आपको समझना चाहिए। गायत्री माता का पहला वाला खंड वह है, जिसे हम प्रत्येक क्रियाकृत्य के साथ- साथ सबसे पहले सिखाते हैं और कहते हैं कि इसके बिना कोई कृत्य पूरा नहीं हो सकता। वह क्या हो सकता है? वह है- आत्मशोधन की प्रकिया। आत्मशोधन- प्रकिया के कौन- कौन से अंग हैं? आप उसके बिना जप नहीं कर सकते ; उसके बिना हवन नहीं कर सकते। उसके बिना कोई कर्मकांड नहीं कर सकते; यह तो हमारे कर्म का प्रारंभ है और यह हमारे अध्यात्म का प्रारंभ है, जिसको हम आत्मशोधन की प्रकिया कहते हैं।
यह द्वार है
उसमें क्या- क्या चीजें आती हैं? बेटे ! इसमें पहला अंग ‘पवित्रीकरण’ का आता है। ऊँ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतो पिव। यह पहला पाठ है। इसके बाद आपको तीन आचमन करना सिखाते हैं। तीन आचमन करने के बाद में प्राणायाम सिखाते हैं, न्यास सिखाते हैं, शिखावंदन सिखाते हैं और आपको पृथ्वीपूजन सिखाते हैं। ये छह क्रियाएँ हैं, जिन्हें ‘षट्कर्म’ भी कहा गया है। आप षट्कर्म का प्राण समझिए और अध्यात्म की भूमिका में प्रवेश कीजिए और गायत्री उपासना के दरवाजे को खोलिए। आप उसमें धुसने का प्रयत्न कीजिए। यहाँ से प्रयत्न आरंभ होता है। इसके बाद और सब काम होते हैं। गायत्री जप इसके पीछे होता है। ध्यान उसके पीछे होता है और सब क्रियाकृत्य इसके पीछे होते हैं। सबसे पहले आपको यह क्रिया करनी पड़ेगी। अगर आपने यह नहीं किया तो आपका सब काम अधूरा है। आत्मशोधन की प्रकिया से आपको उपासना आरंभ करनी चाहिए थी। आत्मशोधन के पीछे क्या है? बेटे! यह वास्तव में अपनी आंतरिक सफाई की प्रक्रिया है। आंतरिक सफाई किस तरह से की जाती है? जिस तरह से आपने जमीन से कच्चा निकलते देखा है। भारी और कच्ची मिट्टी का नाम लोहा है। भारी मिट्टी लोहा कैसे हो जाती है? स्टील कैसे हो जाती है? बेटे! उसको गरम करना पड़ता है, शोधन करना पड़ता है। इसकी मिट्टी अलग निकाल देते हैं, जला देते हैं। आप बोकारो चले जाइए, सारी की सारी फैक्टरियों में आप चले जाइए और यह कहिए कि साहब! यहाँ कच्चा लोहा पकाया जाता है। अच्छा, तो लाइए, कच्चा लोहा दिखाइए। कच्चे लोहे में मिट्टी मिली होगी। मिट्टी को साफ करना और साफ करके लोहा निकालना, सबसे पहला काम है।
धुलाई और रँगाई
इसी तरह मित्रो! सबसे पहला काम है- आत्मशोधन। हमारी जीवात्मा जो निकृष्ट स्तर की घटिया हो गई है, गई- गुजरी बनी हुई है, इसमें न कोई शक्ति है, न कोई चमत्कार है। अज्ञान में डूबी हुई है। असहाय, दीन, दुर्बल, प्रत्येक क्षण चिंताओं से धिरी हुई, पाप और अनाचारों से धिरी हुई, दुःख और दर्द से धिरी हुई, शोक और संताप से धिरी हुई अर्थात मलावरण से हमारी चेतना धिरी हुई है। इसको क्या करना पड़ेगा? इसको बेटे ! इसी तरह से अलग करना पड़ेगा, जैसे कि लोहे को मिट्टी से अलग करना पड़ता है। अगर आप यह क्रिया पूरी कर लें तो समझना चाहिए कि आपने आध्यात्मिकता का पहला वाला सिद्धांत सीख लिया। रँगाई से पहले धुलाई की जाती है। भक्ति से पहले, कर्मकांड़ों से पहले, अनुष्ठानों से पहले धुलाई आवश्यक है। अगर कपड़े की धुलाई नहीं की गई तो रँगाई नहीं कर सकते। नहीं साहब! ऐसे ही रँग दीजिए। क्या रँग दें? हमारा कोट। कैसा रँग दें? गुलाबी रँग दीजिए। अच्छा ला, कहाँ है कोट? तेल में डूबा हुआ, मैल में डुबा हुआ, मिट्टी में डूबा हुआ, सारा का सारा मैला पड़ा है। बेटे! यह नहीं रँगा जा सकता। नहीं साहब! रँग दीजिए। बेटे ! हम गुलाबी रंग रँगेंगे तो हमारा रंग खराब हो जाएगा। यह नहीं रँगा जा सकता।
पहली शर्त अपनी सफाई
यह कैसे रँगा जा सकता है? इसको पहले धोबी के यहाँ ले जाओ। धोबी क्या करेगा? इसके ऊपर जो मलिनताएँ चढ़ी हुई हैं, उन मलिनताओं को वह पहले साफ करेगा; पापों को साफ करेगा ; अनाचारों को साफ करेगा। जिस दिन वह सारे के सारे जो आवरण चढ़े हुए हैं, उन्हें साफ कर देगा, उस दिन तू हमारे पास ले आना। फिर जो भी रंग कहेगा, हम तेरे कुरते को उसी रंग से रँग देंगे। महादेव जी का गुलाबी रंग रँग देंगे, हनुमान जी का पीला रंग रँग देंगे, लक्ष्मी जी का वासंती रंग रँग देंगे। जिस भी देवता का कहेगा, हम फौरन रँग देंगे, लेकिन रंगने से पहले तुझे सफाई करनी पड़ेगी, आत्मशोधन करना पड़ेगा। अगर आपने सफाई नहीं की और रंग करना शुरू कर दिया, जप करना शुरू कर दिया, अनुष्ठान करना शुरू कर दिया, ध्यान करना शुरू कर दिया और पुजा करना शुरू कर दिया तो बेटे ! आपका रंग खराब हो जाएगा। पहले धोकर लाइए। धोने की इस प्रकिया का नाम ही आत्मशोधन है, जो सबसे पहले आपको सिखाई गई थी और जिसकी आज मैं व्याख्या कर रहा हूँ। रँगाई से पहले अंगारे के ऊपर चढ़ी राख की परत को हटाते हैं। अंगारे के ऊपर राख की परत जम जाती है। राख की परत का जब हटा देते हैं तो अंगार लाल दिखाई पड़ता है, चमकदार दिखाई पड़ता है। अंगारे के ऊपर से राख की परत हटाना आवश्यक है, ताकि उसकी चमक, उसकी गरमी दिखाई पड़ने लगे। जब तक अंगारे के ऊपर राख की परत जमी रहती है, वह काला दिखाई पड़ता है, ठंड़ा दिखाई पड़ता है।
मलिनता मिटे तो चमत्कार प्रकटें
मित्रो ! इसी तरह हमारे ऊपर जो मलिनताओं के आवरण- कषाय शारीरिक पापों के रूप में ,, मानसिक पापों के रूप में और आध्यात्मिक पापों के रूप में छा गए हैं, उनका आपको निराकरण करना चाहिए। अगर आप अपने ऊपर चढ़ी हुई मलिनता को साफ कर पाएँ तो आपके भीतर वह शक्ति का स्रोत, शक्ति का पुंज, जिसको हम जीवात्मा कहते हैं, स्वयमेव अनायास ही शक्तिशाली होता हुआ, उभरता हुआ, उठता हुआ चला जाएगा और फिर आप अपनी आत्मा का चमत्कार, अपनी साधना का चमत्कार देख सकते हैं। देवताओं के चमत्कार नहीं, अपनी आत्मा के चमत्कार को देख सकते हैं। देवताओं के चमत्कार नहीं, अपनी आत्मा के चमत्कार को देख सकते हैं। देवताओं के अनुग्रह नहीं, अपनी जीवात्मा का अनुग्रह देख सकते हैं बाहर वाले देवताओं का जो नाम रखा है, वास्तव में हमने अपनी भीतरवाली सत्ता का प्रकारंतर से बाहर का नाम रखा है। बाहर से हमको कभी कोई सहायता नहीं मिलती। बाहर का कोई वरदान हमको कभी नहीं मिलता। बाहर का कोई भगवान कभी सहायक नहीं हुआ। भीतर वाला ही वह भगवान है, जो जब जाग्रत होता है तो बाहर वाले भगवान को खींचता हुआ चला आता है; पकड़ता हुआ चला आता है; घसीटता हुआ चला आता है। हमारा भीतर वाला मैग्नेट सोया हुआ हो, भीतर वाला मैग्नेट गया- गुजरा हो तो आप कोई चीज नहीं पकड़ सकते। न भगवान को पकड़ सकते हैं; न सिद्धियों को पकड़ सकते हैं; न आशीर्वादों को पकड़ सकते हैं ; न वरदान को पकड़ सकते हैं। आप कोई चीज नहीं पकड़ सकते हैं। आप मुरदे के तरीके से पड़े रहेंगे।
संशोधन का महत्त्व
इसलिए मित्रो ! अंगारे के ऊपर से राख हटाना आवश्यक है। बहुत से लोग विषों का संशोधन करते रहते हैं। हकीम जी करते हैं। कहिए साहब! क्या- क्या और किस- किस की दवाई बना रहे हैं? अरे साहब! यह दमे की दवाई है। हमने इसमें संखिया मिलाया हुआ है। अरे हकीम साहब ! हमें संखिया खिलाकर मार डालेंगे क्या? नहीं, हमने संखिया को संशोधित किया हुआ है। कुचला को संशोधित किया हुआ है। किसलिए करते हैं? कुचला को इसलिए संशोधित किया हुआ है कि इससे हम वात की बीमारियों और धुटन के दरद को ठीक कर देंगे। गंधक को हम शोधित करते हैं। इससे हम खाज- खुजली को अच्छा कर सकते हैं। इस तरह हमने गंधक को संशोधित कर दिया है और वह हमारा काम करता है। कुचला हमारा काम करता है। संखिया हमारा काम करता है। हर तरह का जहर हमारे लिए उपयोगी बन जाता है, अमृत बन जाता है। इसी तरह अगर आप कच्चे पारे को ठीक कर लें, संशोधित कर लें तो पारा रसायन बन जाता है।
डिस्टिल्ड वाटर बनिए
मित्रो! अपने आप की सफाई आत्मशोधन की पहली प्रकिया है। दर्पण के ऊपर जब तक गंदगी की परत चढ़ी होती है, मलिनता की परत चढ़ी होती है, तब तक हमको उसमें अपना चेहरा दिखाई नहीं पड़ता। जिस वक्त आप शीशे के ऊपर से परत हटा देते हैं, उस वक्त आपको भगवान दिखाई पड़ता है ; पूजा दिखाई पड़ती है, भक्ति दिखाई पड़ती है ; अपनी मलिनता दिखाई पड़ती है- ‘‘ दिल के आइने में है तसवीर यार की, जब जरा गरदन उठाई देख ली।’’ मित्रो! अपनी मलिनता को साफ कीजिए और भगवान को अपने भीतर देखिए। अपने दर्पण की सफाई कीजिए। डिस्टिल्ड वाटर का उपयोग आप जानते हैं? लाइए डॉक्टर साहब! एक कुनैन मिक्सचर का इंजेक्शन लगाइए। अच्छा पानी लाइए। अरे! इस पानी से थोड़े ही लगेगा। इसमें तो कीटाणु- जीवाणु हैं। इसका इंजेक्शन लगा देंगे तो आप मर जाएँगे। तो किस पानी से लगाएँगे? डिस्टिल्ड वाटर से। डिस्टिल्ड वाटर किसे कहते हैं? बेटे! उसे कहते हैं, जो भाप के द्वारा उड़ाया हुआ है। डिस्टिल्ड वाटर अर्थात वह आदमी जो भगवान का भक्त कहला सकता है और गंदा पानी कौन? वह आदमी, जो दोहाई तो भक्ति की देता है। भक्ति के कर्मकांड करता है, जिसे मैं नखरे कहता हूँ। ऐसा आदमी भक्ति के नखरे तो करता है, लेकिन असल में उसने अपने आप को इतना घटिया बनाकर रखा है कि उसके अंदर क्या हो सकता है और क्या नहीं हो सकता, बेटे! हम उसके ऊपर कोई विश्वास नहीं कर सकते। हमारे लिए अपने भीतर की सफाई करना अत्यधिक आवश्यक है।
बुद्ध की शिक्षा सेठ जी को
भगवान बुद्ध एक शिष्य के यहाँ भिक्षा माँगने के लिए गए। भिक्षा के लिए अपना कमंडल साथ ले गए। सेठ जी को पता था कि आज भगवान बुद्ध हमारे यहाँ आने वाले हैं, सो उन्होंने मेवे की खीर बनाकर रखी कि मैं भगवान को भिक्षा में खीर दूँगा। भिक्षा के लिए जब उन्होंने कमंडल आगे बढ़ाया तो सेठ जी ने देखा कि कमंडल के भीतर गोबर भरा पड़ा था। सेठ जी ने कहा कि भगवान! आप यह क्या कर रहे हैं- बताइए कि आप गोबर भरे हुए कमंडल में खीर लेंगे? तो बेटे ! इसमें क्या हर्ज है। स्वामी जी! इसमें दो हर्ज हैं- पहला यह कि इसमें गोबर भरा हुआ है इसमें जो खीर डालेंगे, वह जमीन पर गिर पड़ेगी, इस कमंडल में नहीं आएगी। दूसरा ,, अगर थोड़ी- बहुत खीर आ भी गई, तो गोबर में मिल जाएगी और अगर आपने इसे खाना शुरू भी कर दिया तो खीर और गोबर ,, दोनों चीजों को मिलाकर खाने से उलटी हो जाएगी और हमारा सारा प्रयत्न बेकार हो जाएगा। तो बेटे! अब क्या करना चाहिए, गलती तो हो गई। लाइए, कमंडल हमें दीजिए ।। सेठ जी कमंडल ले गए। उसे धोया, साफ किया और साफ करने के बाद में उसमें खीर भरी और बुद्ध से प्रार्थना की कि भविष्य में कहीं भी भिक्षा माँगने जाया करें तो गोबर के कमंडल को धोकर के ले जाया कीजिए, ताकि कोई आदमी आपको भिक्षा दे तो उस भिक्षा का फायदा उठा सकें और देने वाले का नियम भी सार्थक हो सके। देने वाले की भावना सार्थक हो सके और आपने जो पाया है, उसका आप पूरा फायदा उठा सकें।
कमंडल साफ रखें
बुद्ध भगवान ने कहा कि बेटे ! शिक्षा तो तूने अच्छी दी। आइंदा से अब मैं ऐसा ही करूँगा। वे कुछ देर चुप रहे, फिर बोले- बेटा! एक कमी रह गई। तू जो संत- महात्माओं की सेवा करता है, भगवान का भजन करता है, वह किस काम के लिए करता है? यही वरदान माँगने के लिए, आशीर्वाद पाने और कुछ सिद्धियाँ पाने के लिए करता हूँ। बेटे! ये सिद्धियाँ, ये वरदान और आशीर्वाद तेरी खीर के बराबर हो सकती हैं। नहीं महाराज जी! खीर तो हमने दो रूपए की बनाई है, लेकिन सिद्धि तो बहुत दाम की हो सकती है ; चमत्कार तो बहुत दाम का हो सकता है; भगवान का प्यार तो बहुत दाम का हो सकता है। हाँ बेटे! लेकिन अगर कोई इसे देगा तो मैले कमंडल में कैसे देगा? मैला कमंडल कैसा है? जैसा तू है, भीतर से भी मैला और बाहर से भी मैला। पहले इसे धो करके ला, ताकि तुझे कोई वरदान दे, आशीर्वाद दे तो देने वाले का श्रम सार्थक हो सके। तुमने अभी जो पाया है, उसको भी कोई ठोर- ठिकाना मिल सके, ठीक से उपयोग कर सके, अन्यथा गोबर से भरा हुआ कमंडल दोनों को मिलाकर गुड़- गोबर कर देगा।
अन्नमयकोश की धुलाई पहले
गुड़- गोबर किसे कहते हैं? जो न खाने के काम आता है, न लीपने के काम आता है। यह क्या लाए साहब! यह तो गुड़- गोबर लाए। गुड़ में गोबर मिलाकर लाए। बेटे! यह तो किसी काम का नहीं है। क्यों नहीं है? क्योंकि यह गुड़- गोबर है। इससे आप लीपेंगे तो मक्खियाँ भिनकेंगी, पैर चिपक जाएगा। यह किसी काम का नहीं रहा। इससे तो अच्छा होता कि आपने गुड़ को अलग रखा होता। गोबर हमारा जीवन और अध्यात्म हमारा भगवान। बेटे! इसके साथ यदि हम भगवान की भक्ति को इकट्ठा करना चाहते हैं तो इससे कोई फायदा नहीं होगा। हमारा सारा श्रम बेकार चला जायगा, इसलिए अच्छा है कि आप कमंडल को साफ करके चलें। यह शिक्षा हम आपको किसमें देते हैं? हम आपको गायत्री के पहले वाले चरण में देते हैं। गायत्री का पहला वाला चरण, पहला वाला शिक्षण, पहली वाली धारा, पहला वाला सूक्त, पहला वाला प्रयोग, जो हम आपको सिखाते हैं, वह गायत्री के पाँच मुखों में से एक है। पंचकोशों की जाग्रति में वह पहला वाला कोश है। पहले वाले कोश को, जिसे अन्नमयकोश कहते हैं, उसकी मलिनता का निराकरण करें। मलिनता का निराकरण अगर आप नहीं करेंगे और खाना खाते जाएँग, मैले को भीतर रोककर रखेंगे तो मरेंगे। आपको खुराक नहीं मिलेगी। मारेंगी हमारी मलिनताएँ
मित्रो! फिर आध्ययत्मिकता की खुराक आपके हिस्से में नहीं आने वाली। किसी देवी- देवता का वरदान नहीं आने वाला। आपको किसी सिद्धपुरूष का अनुग्रह नहीं वाला है और कोई आध्यात्मिक चमत्कार नहीं दिखाई देने वाला है। अगर आप अपने आप को साफ करके नहीं आयेगे तब। बेटे! हमको कई काम करने पड़ते हैं। पसीना निकालना पड़ता है अगर हम पसीना नहीं निकालें तब? पेशाब न करें तब? साँस नहीं लें तब? इन सबके द्वारा जो हम मलिनताओं को निकालते हैं, अगर हम इन मलिनताओं को नहीं निकालें अर्थात साँस नहीं लें, पसीना नहीं निकालें, पेशाब नहीं करें, तब मलिनताएँ हमारे शरीर में जमा होती चली जाएँगी और मित्रो! कोई और तो मारेगा नहीं, हमारी कोई हत्या करने तो नहीं आएगा, लेकिन मलिनताएँ हमको मार डालेंगी। इसलिए मेरी आप सबसे एक ही अपेक्षा है कि आप अंदर की मलिनताओं को साफ करें आज की बात समाप्त