Books - मरने के बाद हमारा क्या होता है ?
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
परलोक कैसा है?
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
यह अन्यत्र बताया गया है कि परलोक का दूरी से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। ‘क्ष’ किरणें (ऐक्स रेज) ठोस पदार्थों को चीरती हुई पर हो जाती हैं, हमें दीवार का पर्दा तोड़ना मुश्किल मालूम पड़ता है पर ‘क्ष’ किरणों के लिए यह पर्दा कुछ नहीं के बराबर है। गर्मी और सर्दी का प्रभाव बहुत अंशों में बाहरी प्रतिबन्धों को तोड़ कर भीतर चला जाता है। इसी प्रकार सूक्ष्म तत्वों के लिए स्थूल वस्तुओं के कारण कुछ बाधा नहीं पड़ती। हवा का समुद्र, पृथ्वी के चारों ओर भरा हुआ है, पर हम उसे चीरते हुए चाहे जहां फिरते हैं, हमें वह भान भी नहीं होता कि हम हवा के बीच में इसी प्रकार भाग दौड़ कर रहे हैं जैसे पानी में मछली। सम्भव है मछली भी पानी में ऐसे ही स्वतन्त्र घूमती हों जैसे हम हवा के समुद्र में घूमते हैं। मृत आत्माएं सूक्ष्म तत्वों की बनी हुई हैं, इसलिए वे ईथर तत्व की भांति चाहे जहां आ जा सकती हैं। परलोक कहीं अलग बना हुआ नहीं है वह सर्वत्र व्याप्त है। उसके निवासी स्वेच्छानुसार चाहे जहां—भूमि, जल पर्वत, ग्रह नक्षत्र आदि के बीचों बीच या ऊपर नीचे भी रह सकते हैं और अपने रहने के लिए सब प्रकार की सुविधाएं वहां उत्पन्न कर सकते हैं।
यह जानना चाहिए कि मृत प्राणी के साथ उसके विचार स्वभाव, विश्वास और अनुभव भी जाते हैं। घरों में रहने, कपड़े पहनने, भोजन करने आदि की क्रियाएं जीवित मनुष्यों को जीवन भर करनी पड़ती है, इसलिए उनके यह विश्वास सुदृढ़ हो जाते हैं यह बात एक साधारण मनुष्य के विचारों से बाहर की है कि कोई मनुष्य बिना घर, वस्त्र और भोजन के भी रह सकता है जैसे विश्वासों के कारण सूक्ष्म शरीर और इन्द्रियां उत्पन्न हो जाती हैं वैसे ही विश्वासी के आधार पर परलोक वासी के लिए गृह, वस्त्र, आहार, विहार की भी व्यवस्था हो जाती है। वे समझते हैं कि हम घरों में रहते हैं, कपड़े पहनते हैं और भोजन करते हैं। यह सब पदार्थ उनकी भावना स्वरूप होते हैं। यदि कोई परमहंस संन्यासी निर्जन वन में वस्त्र रहित और कन्द मूल फल खा कर निर्वाह करता हो तो उसका परलोक भी वैसा ही होगा। भूत प्रेत किन्हीं विशेष स्थानों पर ठहर जाते हैं किन्तु साधारण क्रम के अनुसार चलने वाले प्राणी स्थान सम्बन्धी बन्धन में नहीं बंधते। वे एक स्थान पर रहते हैं किंतु वह स्थान चाहे जहां हो सकता हो।
स्त्री और पुरुष का लिंग भेद बना रहता है। विश्वासों के आधार पर यह भी निर्भर है, जो पुरुष स्त्री भावना का आचरण करते हैं या जो स्त्रियां पुरुष भाव को हृदयंगम करती हैं ये कुछ काल नपुंसक की दशा में रह कर लिंग परिवर्तन कर लेते हैं। और अगला जन्म परिवर्तित भावना के अनुसार होता है। यह अपवाद है। साधारणतः लिंग परिवर्तन करने की किसी जीव की रुचि नहीं होती। शरीर सम्बन्धी अयोग्यताएं परलोक में हट जाती हैं। बालकों, अपूर्ण मस्तिष्क वालों, अंग भंगों की अपूर्णताएं हट जाती हैं और वे प्रायः तरुण दशा को प्राप्त हो जाते हैं। क्योंकि यह अयोग्यताएं मन की नहीं वरन् शरीर की हैं शरीर की भी जन्म−जन्मांतरों की नहीं वरन् एक शरीर में भी कुछ समय की हैं। इसलिए इन शारीरिक अयोग्यताओं का मन पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता।
परलोक में इच्छा करने पर कोई जीव किन्हीं दूसरे जीवों से मिल भी सकता है। इच्छा होने पर ही वे दूसरे परलोकवासी दिखाई देते हैं और उनसे विचार परिवर्तन करना सम्भव होता है। यह मिलन दो चेतनाओं का मिलन होता है। विचारों का आदान प्रदान ही हो सकता है शरीर कोई किसी को नहीं देखता क्योंकि परलोक वासियों के सूक्ष्म शरीर वास्तव में देखने योग्य नहीं होते। घर, कपड़े, भोजनादि की हर जीव की अपनी कल्पना होती है उसका देखना भी दूसरे के लिए कठिन है। स्वर्ग नर्क के दुःख सुख का दूसरा परिचय पाते हैं पर यह नहीं देख सकते कि वह कुम्भीपाक नर्क में पड़ा हुआ है या गौरव में। स्वर्गवासी आत्माओं के शरीर में एक प्रकार का तेज होता है जिससे उनके सुखी होने का परिचय मिलता है पर यह जानना कठिन है कि वह हूर गिरमाओं को जन्नत में ही या सुरपुरी में, क्योंकि यह सब भी अपनी अपनी स्वतन्त्र कल्पनाएं हैं, दृश् वस्तु इनमें से कुछ भी नहीं। मृतात्माएं एक दूसरे से कह सुन सकती हैं, पर उनके लिए यह कठिन है कि दुःख सुख में भी हिस्सा बांट सकें। कुछ आत्माएं अपने पूर्व परिचितों मृतकों के साथ रहना पसन्द करती हैं और उनका एक समुदाय बन जाता है। ऐसे समुदाय नीचे लोक में ही होते हैं उच्चलोकवासी जन्म−जन्मांतरों में आकर्षित प्राणियों के साथ अपने सम्पर्कों का ध्यान करते हुए इन भ्रम बन्धनों की व्यर्थता को समझ जाते हैं और मोह जाल से दूर रहते हुए आत्मोन्नति का एकान्त प्रयत्न करते हैं। आत्माएं किसी बाड़े में या किसी अन्य शासन के अधिकार में नहीं रहतीं जीवों पर उनकी अन्तरात्माओं का ही शासन होता है।
श्राद्ध करने या स्मारक बनाने का पुण्य फल उनके करने वालों को ही प्राप्त होता है। यह दान पुण्य परलोक वासी की कुछ विशेष सहायता नहीं कर सकता क्योंकि इन उदार कार्यों के करने में अपना कुछ हाथ थोड़े ही है? यह निश्चय है कि पुण्य फल का अदला बदला नहीं हो सकता। जो करता है वही मरता है। फिर भी परलोक वासी जब यह देखता है कि मेरे पूर्व सम्बन्धी मेरे प्रति कृतज्ञता और उपकार के भाव प्रदर्शित कर रहे हैं, तो उसे सन्तोष होता है, और कभी उनके बस की बात हो एवं अवसर पावें तो उस उपकार भाव का किसी अदृश्य प्रकार से बदला चुकाते हैं। अपने प्रियजनों की सहायता के लिए जो कर सकते हैं, करते हैं। सम्बन्धियों के रोने पीटने या शोक प्रदर्शन करने से मृतक को दुःख होता है और उनकी शान्ति में बाधा पड़ती है। इसलिए उचित यह है कि मृतक के साथ मोह बन्धन शीघ्र से शीघ्र तोड़ लिए जायं और केवल शांति की उच्च कामना की जाय।
यह जानना चाहिए कि मृत प्राणी के साथ उसके विचार स्वभाव, विश्वास और अनुभव भी जाते हैं। घरों में रहने, कपड़े पहनने, भोजन करने आदि की क्रियाएं जीवित मनुष्यों को जीवन भर करनी पड़ती है, इसलिए उनके यह विश्वास सुदृढ़ हो जाते हैं यह बात एक साधारण मनुष्य के विचारों से बाहर की है कि कोई मनुष्य बिना घर, वस्त्र और भोजन के भी रह सकता है जैसे विश्वासों के कारण सूक्ष्म शरीर और इन्द्रियां उत्पन्न हो जाती हैं वैसे ही विश्वासी के आधार पर परलोक वासी के लिए गृह, वस्त्र, आहार, विहार की भी व्यवस्था हो जाती है। वे समझते हैं कि हम घरों में रहते हैं, कपड़े पहनते हैं और भोजन करते हैं। यह सब पदार्थ उनकी भावना स्वरूप होते हैं। यदि कोई परमहंस संन्यासी निर्जन वन में वस्त्र रहित और कन्द मूल फल खा कर निर्वाह करता हो तो उसका परलोक भी वैसा ही होगा। भूत प्रेत किन्हीं विशेष स्थानों पर ठहर जाते हैं किन्तु साधारण क्रम के अनुसार चलने वाले प्राणी स्थान सम्बन्धी बन्धन में नहीं बंधते। वे एक स्थान पर रहते हैं किंतु वह स्थान चाहे जहां हो सकता हो।
स्त्री और पुरुष का लिंग भेद बना रहता है। विश्वासों के आधार पर यह भी निर्भर है, जो पुरुष स्त्री भावना का आचरण करते हैं या जो स्त्रियां पुरुष भाव को हृदयंगम करती हैं ये कुछ काल नपुंसक की दशा में रह कर लिंग परिवर्तन कर लेते हैं। और अगला जन्म परिवर्तित भावना के अनुसार होता है। यह अपवाद है। साधारणतः लिंग परिवर्तन करने की किसी जीव की रुचि नहीं होती। शरीर सम्बन्धी अयोग्यताएं परलोक में हट जाती हैं। बालकों, अपूर्ण मस्तिष्क वालों, अंग भंगों की अपूर्णताएं हट जाती हैं और वे प्रायः तरुण दशा को प्राप्त हो जाते हैं। क्योंकि यह अयोग्यताएं मन की नहीं वरन् शरीर की हैं शरीर की भी जन्म−जन्मांतरों की नहीं वरन् एक शरीर में भी कुछ समय की हैं। इसलिए इन शारीरिक अयोग्यताओं का मन पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता।
परलोक में इच्छा करने पर कोई जीव किन्हीं दूसरे जीवों से मिल भी सकता है। इच्छा होने पर ही वे दूसरे परलोकवासी दिखाई देते हैं और उनसे विचार परिवर्तन करना सम्भव होता है। यह मिलन दो चेतनाओं का मिलन होता है। विचारों का आदान प्रदान ही हो सकता है शरीर कोई किसी को नहीं देखता क्योंकि परलोक वासियों के सूक्ष्म शरीर वास्तव में देखने योग्य नहीं होते। घर, कपड़े, भोजनादि की हर जीव की अपनी कल्पना होती है उसका देखना भी दूसरे के लिए कठिन है। स्वर्ग नर्क के दुःख सुख का दूसरा परिचय पाते हैं पर यह नहीं देख सकते कि वह कुम्भीपाक नर्क में पड़ा हुआ है या गौरव में। स्वर्गवासी आत्माओं के शरीर में एक प्रकार का तेज होता है जिससे उनके सुखी होने का परिचय मिलता है पर यह जानना कठिन है कि वह हूर गिरमाओं को जन्नत में ही या सुरपुरी में, क्योंकि यह सब भी अपनी अपनी स्वतन्त्र कल्पनाएं हैं, दृश् वस्तु इनमें से कुछ भी नहीं। मृतात्माएं एक दूसरे से कह सुन सकती हैं, पर उनके लिए यह कठिन है कि दुःख सुख में भी हिस्सा बांट सकें। कुछ आत्माएं अपने पूर्व परिचितों मृतकों के साथ रहना पसन्द करती हैं और उनका एक समुदाय बन जाता है। ऐसे समुदाय नीचे लोक में ही होते हैं उच्चलोकवासी जन्म−जन्मांतरों में आकर्षित प्राणियों के साथ अपने सम्पर्कों का ध्यान करते हुए इन भ्रम बन्धनों की व्यर्थता को समझ जाते हैं और मोह जाल से दूर रहते हुए आत्मोन्नति का एकान्त प्रयत्न करते हैं। आत्माएं किसी बाड़े में या किसी अन्य शासन के अधिकार में नहीं रहतीं जीवों पर उनकी अन्तरात्माओं का ही शासन होता है।
श्राद्ध करने या स्मारक बनाने का पुण्य फल उनके करने वालों को ही प्राप्त होता है। यह दान पुण्य परलोक वासी की कुछ विशेष सहायता नहीं कर सकता क्योंकि इन उदार कार्यों के करने में अपना कुछ हाथ थोड़े ही है? यह निश्चय है कि पुण्य फल का अदला बदला नहीं हो सकता। जो करता है वही मरता है। फिर भी परलोक वासी जब यह देखता है कि मेरे पूर्व सम्बन्धी मेरे प्रति कृतज्ञता और उपकार के भाव प्रदर्शित कर रहे हैं, तो उसे सन्तोष होता है, और कभी उनके बस की बात हो एवं अवसर पावें तो उस उपकार भाव का किसी अदृश्य प्रकार से बदला चुकाते हैं। अपने प्रियजनों की सहायता के लिए जो कर सकते हैं, करते हैं। सम्बन्धियों के रोने पीटने या शोक प्रदर्शन करने से मृतक को दुःख होता है और उनकी शान्ति में बाधा पड़ती है। इसलिए उचित यह है कि मृतक के साथ मोह बन्धन शीघ्र से शीघ्र तोड़ लिए जायं और केवल शांति की उच्च कामना की जाय।