Books - महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया
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Language: HINDI
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सहस्र शीर्षा पुरुषाः
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पुरुष सूक्त में भगवान् के स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए उसे ‘‘सहस्र शीर्षा: पुरुष: सहस्राक्ष-सहस्र पातं’’ हजार सिर वाला, हजार हाथ वाला बताया गया है। यों ब्रह्म एक है पर विशेष अवसरों पर वह अपने विशेष साधनों उपकरणों द्वारा अभीष्ट प्रयोजन को पूर्ति करता है। सृष्टि के संचालन में हजारों देव शक्तियाँ उसकी सहचरी बनकर विश्व- व्यवस्था की महान प्रक्रिया सम्पन्न करती हैं। युग परिवर्तन जैसे विशिष्ट अवसरों पर हजारों जीवन मुक्त उच्च-स्तरीय आत्मायें उसकी सहचर बनकर महाकाल का प्रयोजन पूरा करती हैं।
सृष्टि के सृजनकर्त्ता ब्रह्माजी की उत्पत्ति कमल पुष्पं में से है। यह कमल पुष्प ‘सहस्रार दल कमल’ कहलाता है जो मस्तिष्क के मध्य बिन्दु-ब्रह्मरंध्र में अवस्थित है। मूलाधार में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति को इस मानव पिण्ड का दक्षिण ध्रुव और मस्तिष्क स्थित सहस्रार कमल को उत्तर ध्रुव माना गया है। देहधारी की समस्त भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियाँ इन्हीं धुर्वों में केन्द्रित रहती हैं। प्रमुखता आत्मबल की है। सहस्रार कमल में केन्दित रहने के कारण ईश्वर की उत्पत्ति एवं स्थिति का केन्द्र बिन्दु उसे ही माना गया है।
क्षीर सागर में शेष शैया पर सोये हुए विष्णु का अलंकार इसी रहस्य का उद्घाटन करता है। शेष सर्प कुण्डलिनी शक्ति का प्रतीक है, उसके हजारों फनों में सहस्रार कमल का संकेत है। यह सहस्र शिर, सहस्र आँखें, सहस्र हाथ-पैर, सहस्रार कमल का वर्णन यह बताता है कि भगवान् के महत्वपूर्ण क्रिया-कलाप सहस्रार शक्तियों की सम्मिलित प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होते हैं। शतपथ ब्राह्मण में इन्द्र को सहस्र अप्सराओं के साथ नृत्य करता हुआ बताया गया है और आगे चलकर उसी का रहस्योद्घाटन सूर्य का सहस्र किरणों के साथ अपनी क्रिया पद्धति गतिशील रखने के रुप में किया गया है। भगवान् एक अवश्य हैं पर वे कुछ विशेष प्रयोजन पूर्ण करते हैं तब एकाकी नहीं रहते वरन् सहस्र रश्मियों वाले अंशुमाली की तरह प्रकट होते हैं। युग परिवर्तन जैसे प्रयोजनों में तो उनका ‘‘सहस्र शीर्षा’’ रूप निश्चय ही विकीर्ण हो उठता है।
कृष्णावतार की लीलाओं में इस तथ्य को अलंकारिक रूप में और भी अधिक स्पष्ट किया गया है। कृष्ण लीला में ‘महारास’ की चर्चा सर्वोपरि रहती है। निविड़ निशा में सोती हुई गोपियों को वंशी बजाकर जगाना, घरों से बाहर एकान्त में उन्हें बुलाना और उनके साथ नृत्य करना हर गोपी को पूर्ण कृष्ण के साथ नृत्य का अनुभव कराना, यह घटनाक्रम सामाजिक दृष्टि से अनुचित और अवांछनीय प्रतीत होता है, पर जब हम इस आध्यात्मिक पहेली को बूझते हैं और इस अलंकार के पीछे छिपे मर्म को ढूँढ निकालते हैं तब हमें इस महत्वपूर्ण तथ्य का पता चल जाता है। अज्ञान व्यामोह की निविड़ निशा में सोती हुई प्रबुद्ध आत्माओं का ईश्वरीय वाणी-आत्म पुकार की वंशी द्वारा उद्बोधन किया जाना, उनका एक सीमित परिवार की उपेक्षा कर विश्व-परिवार के लिये गौतम बुद्ध की तरह आगे बढ़ चलना-ईश्वरीय प्रयोजन में सबका एक साथ तन्मयता पूर्वक जुट जाना यही सब तो महारास है। महाकाल को विशेष अवसरों पर ऐसा महारास रचना पड़ता है जिसमें उत्कृष्ट आदर्श के लिये सहसों महामानव कार्यरत दिखाई पड़े। गोपियाँ प्रबुद्ध आत्मायें हैं, वंशी- आत्मा को पुकार, महारास-ईश्वरीय विशेष प्रयोजन, निशा-व्यामोह, परिजनों की उपेक्षा-स्वार्थ और संकीर्णता की परिधि का साहसपूर्वक उल्लंघन। इस महारास में जो सहस्रों गोपियाँ-प्रबुद्ध आत्मायें भाग ले सकी वे ब्रह्मानन्द का आनन्द लेती हुई अपने को बड़भागी अनुभव कर सकीं। जो सोती रह गई उन्हें पछताना पड़ा।
भगवान् कृष्ण की सोलह हजार रानियाँ बताई जाती हैं। यों लौकिक दृष्टि से यह बात समझ से बाहर की है। महाभारत में उनकी एक-दो पत्नियों का ही वर्णन है। रुक्मिणी, सत्यभामा आदि ही उनकी धर्म-पत्नी हैं। सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से यह उचित भी था। फिर यह हजारों रानियाँ क्या हैं इस पहेली का हल भी उपरोक्त प्रकार का ही है। ईश्वरीय प्रयोजन में जो आत्मायें प्राणपण से जुट जाती हैं उसी में अपना आत्म-समर्पण कर देती हैं। वे आत्मा-परमात्मा की प्राण-प्रिय पत्नियों ही कहलायेगी। पत्नी सम्बन्ध के साथ अश्लील काम-क्रीड़ा और गोपनीयता का सम्बन्ध जुड़ जाने से सामाजिक क्षेत्र में वह रिश्ता अड़चन भरा और अचकचा-सा लगता है पर अध्यात्म चर्चा में इस प्रकार की कोई अड़चन नहीं है। आत्म-समर्पण और अभिन्न एकता की जो भावनात्मक स्थिति है उसकी तुलना लौकिक रिश्ते में पति-पत्नी भाव से ही मिलती-जुलती है। अन्य रिश्ते कुछ दूर पड़ जाते हैं। इसलिये सन्तों सूफियों ने आत्मा और परमात्मा की एकता को प्रणय सूचक शब्दों में अनेक गीतों में गाया है। कबीर का सुरतियोग, मीरा का प्रणय-योग एक उच्च आध्यात्मिक भूमिका है। उसमें जिस पति-पत्नी भाव की चर्चा की है वह सामान्य गृहस्थ पद्धति से असंख्य गुनी ऊँची वस्तु है। श्रीकृष्ण भगवान् की सोलह हजार रानियाँ उस अवतार की सहयोगिनी सोलह हजार प्रबुद्ध आत्मायें ही हैं। इस अलंकारिक दाम्पत्य जीवन ने हर रानी को आठ-आठ सन्तानें दीं। अर्थात् इन लोगों ने आठ-आठ अपने उत्तराधिकारी और बनाये। वे स्वयं तो ईश्वरीय प्रयोजन में तत्पर रहे ही साथ ही उनकी प्रयत्नशीलता ने औसतन आठ-आठ साथी सहचर अनुयायी और बढ़ा दिये यह उनकी सन्तानें थी।
इस प्रकार के विवाह में नर-नारी लिंग भेद अपेक्षित नहीं। सखी- सम्प्रदाय में पुरुष भी अपनी मनोभूमि को नारी जैसी मानकर पति रूप में ईश्वर की उपासना करते हैं। भक्ति-योग में ऐसे अनेक साधन-क्रम विद्यमान हैं। कृष्ण उपासना का क्रिया-कलाप तो बहुत करके इसी स्तर का है। नर भी उन्हीं गीतों को गाकर भाव-विभोर होते हैं जिन्हें नारियाँ अपने पति के सदर्भ में गा सकती हैं। गोपी-कृष्ण का प्रेम-प्रसंग प्रस्तुत नर-नारी भेद से असंख्य गुना ऊँचा है उसे विशुद्ध रूप से आत्मा-परमात्मा का मिलन बिन्दु ही कहा जा सकता है। कृष्णावतार के समय सहप्तों प्रबुद्ध आत्माओं ने परमात्मा के अभीष्ट प्रयोजन में आत्म-समर्पण करके जो महारास रचाया उसी से अवतार का उद्देश्य पूर्ण हो सका। साथी-सहचरों के बिना अकेले कृष्ण आखिर कर भी क्या सकते थे ?
शरीर से हृदय का बहुत महत्व है। जीवन का श्रेय उसी को है, पर सहस्रों नाड़ियों द्वारा उसे रक्त अर्पण करने का जो प्रेम-योग साधा जाता है उसी आधार पर शरीर जीवित है। समुद्र इसीलिये नहीं सूखता कि सहस्रों नदियाँ इनमें अपना योगदान अर्पित करती हैं। चक्रवर्ती शासक वही कहलाता है जिसमें सहस्रों राजा एक महाछत्र के नीचे प्रकाशित होते हैं। इसी एकीकरण के लिये प्राचीन काल में अश्वमेध यज्ञ का आयोजन होता था। उन्हें राजनैतिक महारास कहना चाहिये।
इन दिनों यही सब हो रहा है। अनेक जन्मों से जिनके पास आध्यात्मिक पूँजी संग्रहीत है उन प्रबुद्ध आत्माओं को युग निर्माण योजना के कार्यक्रमों द्वारा अपने अवतरण उद्देश्य से परिचित और अभ्यस्त कराया जा रहा है। यह स्थूल प्रक्रिया हुई। सूक्ष्म स्तर पर वे परस्पर अभिन्न-योग का अभ्यास कर रहे हैं। सब मिलकर एक केन्द्र बिन्दु का निर्माण कर रहे हैं। संग्रहीत ऋषि रक्त से सीता उपजी थी और संग्रहीत देव शक्ति से दुर्गा। यह संग्रह नदियों द्वारा समुद्र को किये गये योगदान की तरह एक केन्द्र बिन्दु को परिपुष्ट करेगा। सौर मण्डल के ग्रह उपग्रहों का सम्मिलित संगठित सौर परिवार जिस प्रकार विश्व ब्रह्माण्ड की स्थिति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल रहा है उसी प्रकार दशम् निष्कलंक अवतार-नव-निर्माण का प्रचार अभियान भी एक अत्यन्त सामयिक भूमिका प्रस्तुत करेगा।
सृष्टि के सृजनकर्त्ता ब्रह्माजी की उत्पत्ति कमल पुष्पं में से है। यह कमल पुष्प ‘सहस्रार दल कमल’ कहलाता है जो मस्तिष्क के मध्य बिन्दु-ब्रह्मरंध्र में अवस्थित है। मूलाधार में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति को इस मानव पिण्ड का दक्षिण ध्रुव और मस्तिष्क स्थित सहस्रार कमल को उत्तर ध्रुव माना गया है। देहधारी की समस्त भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियाँ इन्हीं धुर्वों में केन्द्रित रहती हैं। प्रमुखता आत्मबल की है। सहस्रार कमल में केन्दित रहने के कारण ईश्वर की उत्पत्ति एवं स्थिति का केन्द्र बिन्दु उसे ही माना गया है।
क्षीर सागर में शेष शैया पर सोये हुए विष्णु का अलंकार इसी रहस्य का उद्घाटन करता है। शेष सर्प कुण्डलिनी शक्ति का प्रतीक है, उसके हजारों फनों में सहस्रार कमल का संकेत है। यह सहस्र शिर, सहस्र आँखें, सहस्र हाथ-पैर, सहस्रार कमल का वर्णन यह बताता है कि भगवान् के महत्वपूर्ण क्रिया-कलाप सहस्रार शक्तियों की सम्मिलित प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होते हैं। शतपथ ब्राह्मण में इन्द्र को सहस्र अप्सराओं के साथ नृत्य करता हुआ बताया गया है और आगे चलकर उसी का रहस्योद्घाटन सूर्य का सहस्र किरणों के साथ अपनी क्रिया पद्धति गतिशील रखने के रुप में किया गया है। भगवान् एक अवश्य हैं पर वे कुछ विशेष प्रयोजन पूर्ण करते हैं तब एकाकी नहीं रहते वरन् सहस्र रश्मियों वाले अंशुमाली की तरह प्रकट होते हैं। युग परिवर्तन जैसे प्रयोजनों में तो उनका ‘‘सहस्र शीर्षा’’ रूप निश्चय ही विकीर्ण हो उठता है।
कृष्णावतार की लीलाओं में इस तथ्य को अलंकारिक रूप में और भी अधिक स्पष्ट किया गया है। कृष्ण लीला में ‘महारास’ की चर्चा सर्वोपरि रहती है। निविड़ निशा में सोती हुई गोपियों को वंशी बजाकर जगाना, घरों से बाहर एकान्त में उन्हें बुलाना और उनके साथ नृत्य करना हर गोपी को पूर्ण कृष्ण के साथ नृत्य का अनुभव कराना, यह घटनाक्रम सामाजिक दृष्टि से अनुचित और अवांछनीय प्रतीत होता है, पर जब हम इस आध्यात्मिक पहेली को बूझते हैं और इस अलंकार के पीछे छिपे मर्म को ढूँढ निकालते हैं तब हमें इस महत्वपूर्ण तथ्य का पता चल जाता है। अज्ञान व्यामोह की निविड़ निशा में सोती हुई प्रबुद्ध आत्माओं का ईश्वरीय वाणी-आत्म पुकार की वंशी द्वारा उद्बोधन किया जाना, उनका एक सीमित परिवार की उपेक्षा कर विश्व-परिवार के लिये गौतम बुद्ध की तरह आगे बढ़ चलना-ईश्वरीय प्रयोजन में सबका एक साथ तन्मयता पूर्वक जुट जाना यही सब तो महारास है। महाकाल को विशेष अवसरों पर ऐसा महारास रचना पड़ता है जिसमें उत्कृष्ट आदर्श के लिये सहसों महामानव कार्यरत दिखाई पड़े। गोपियाँ प्रबुद्ध आत्मायें हैं, वंशी- आत्मा को पुकार, महारास-ईश्वरीय विशेष प्रयोजन, निशा-व्यामोह, परिजनों की उपेक्षा-स्वार्थ और संकीर्णता की परिधि का साहसपूर्वक उल्लंघन। इस महारास में जो सहस्रों गोपियाँ-प्रबुद्ध आत्मायें भाग ले सकी वे ब्रह्मानन्द का आनन्द लेती हुई अपने को बड़भागी अनुभव कर सकीं। जो सोती रह गई उन्हें पछताना पड़ा।
भगवान् कृष्ण की सोलह हजार रानियाँ बताई जाती हैं। यों लौकिक दृष्टि से यह बात समझ से बाहर की है। महाभारत में उनकी एक-दो पत्नियों का ही वर्णन है। रुक्मिणी, सत्यभामा आदि ही उनकी धर्म-पत्नी हैं। सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से यह उचित भी था। फिर यह हजारों रानियाँ क्या हैं इस पहेली का हल भी उपरोक्त प्रकार का ही है। ईश्वरीय प्रयोजन में जो आत्मायें प्राणपण से जुट जाती हैं उसी में अपना आत्म-समर्पण कर देती हैं। वे आत्मा-परमात्मा की प्राण-प्रिय पत्नियों ही कहलायेगी। पत्नी सम्बन्ध के साथ अश्लील काम-क्रीड़ा और गोपनीयता का सम्बन्ध जुड़ जाने से सामाजिक क्षेत्र में वह रिश्ता अड़चन भरा और अचकचा-सा लगता है पर अध्यात्म चर्चा में इस प्रकार की कोई अड़चन नहीं है। आत्म-समर्पण और अभिन्न एकता की जो भावनात्मक स्थिति है उसकी तुलना लौकिक रिश्ते में पति-पत्नी भाव से ही मिलती-जुलती है। अन्य रिश्ते कुछ दूर पड़ जाते हैं। इसलिये सन्तों सूफियों ने आत्मा और परमात्मा की एकता को प्रणय सूचक शब्दों में अनेक गीतों में गाया है। कबीर का सुरतियोग, मीरा का प्रणय-योग एक उच्च आध्यात्मिक भूमिका है। उसमें जिस पति-पत्नी भाव की चर्चा की है वह सामान्य गृहस्थ पद्धति से असंख्य गुनी ऊँची वस्तु है। श्रीकृष्ण भगवान् की सोलह हजार रानियाँ उस अवतार की सहयोगिनी सोलह हजार प्रबुद्ध आत्मायें ही हैं। इस अलंकारिक दाम्पत्य जीवन ने हर रानी को आठ-आठ सन्तानें दीं। अर्थात् इन लोगों ने आठ-आठ अपने उत्तराधिकारी और बनाये। वे स्वयं तो ईश्वरीय प्रयोजन में तत्पर रहे ही साथ ही उनकी प्रयत्नशीलता ने औसतन आठ-आठ साथी सहचर अनुयायी और बढ़ा दिये यह उनकी सन्तानें थी।
इस प्रकार के विवाह में नर-नारी लिंग भेद अपेक्षित नहीं। सखी- सम्प्रदाय में पुरुष भी अपनी मनोभूमि को नारी जैसी मानकर पति रूप में ईश्वर की उपासना करते हैं। भक्ति-योग में ऐसे अनेक साधन-क्रम विद्यमान हैं। कृष्ण उपासना का क्रिया-कलाप तो बहुत करके इसी स्तर का है। नर भी उन्हीं गीतों को गाकर भाव-विभोर होते हैं जिन्हें नारियाँ अपने पति के सदर्भ में गा सकती हैं। गोपी-कृष्ण का प्रेम-प्रसंग प्रस्तुत नर-नारी भेद से असंख्य गुना ऊँचा है उसे विशुद्ध रूप से आत्मा-परमात्मा का मिलन बिन्दु ही कहा जा सकता है। कृष्णावतार के समय सहप्तों प्रबुद्ध आत्माओं ने परमात्मा के अभीष्ट प्रयोजन में आत्म-समर्पण करके जो महारास रचाया उसी से अवतार का उद्देश्य पूर्ण हो सका। साथी-सहचरों के बिना अकेले कृष्ण आखिर कर भी क्या सकते थे ?
शरीर से हृदय का बहुत महत्व है। जीवन का श्रेय उसी को है, पर सहस्रों नाड़ियों द्वारा उसे रक्त अर्पण करने का जो प्रेम-योग साधा जाता है उसी आधार पर शरीर जीवित है। समुद्र इसीलिये नहीं सूखता कि सहस्रों नदियाँ इनमें अपना योगदान अर्पित करती हैं। चक्रवर्ती शासक वही कहलाता है जिसमें सहस्रों राजा एक महाछत्र के नीचे प्रकाशित होते हैं। इसी एकीकरण के लिये प्राचीन काल में अश्वमेध यज्ञ का आयोजन होता था। उन्हें राजनैतिक महारास कहना चाहिये।
इन दिनों यही सब हो रहा है। अनेक जन्मों से जिनके पास आध्यात्मिक पूँजी संग्रहीत है उन प्रबुद्ध आत्माओं को युग निर्माण योजना के कार्यक्रमों द्वारा अपने अवतरण उद्देश्य से परिचित और अभ्यस्त कराया जा रहा है। यह स्थूल प्रक्रिया हुई। सूक्ष्म स्तर पर वे परस्पर अभिन्न-योग का अभ्यास कर रहे हैं। सब मिलकर एक केन्द्र बिन्दु का निर्माण कर रहे हैं। संग्रहीत ऋषि रक्त से सीता उपजी थी और संग्रहीत देव शक्ति से दुर्गा। यह संग्रह नदियों द्वारा समुद्र को किये गये योगदान की तरह एक केन्द्र बिन्दु को परिपुष्ट करेगा। सौर मण्डल के ग्रह उपग्रहों का सम्मिलित संगठित सौर परिवार जिस प्रकार विश्व ब्रह्माण्ड की स्थिति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल रहा है उसी प्रकार दशम् निष्कलंक अवतार-नव-निर्माण का प्रचार अभियान भी एक अत्यन्त सामयिक भूमिका प्रस्तुत करेगा।