Books - महात्मा गौत्तम बुद्ध
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Language: HINDI
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समता के सिद्धांत पर आचरण
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अनेक स्थानों में भ्रमण करते हुए जिस समय बुद्ध वैशाली पहुँचे तो वहाँ नगर के बाहर एक सुरम्य 'आम्रवन' में ठहर गए। वह आम्रवन उस नगर की प्रमुख वेश्या 'अंबपाली' का था। जब आंबपाली ने यह समाचार सुना तो वह अपने रथ पर सवार होकर भगवान् के दर्शनों के लिए गई। उस समय उसके चित्त में तरह- तरह के विचार उठ रहे थे। कभी वह अपने नीच पेशे की ओर देखती थी और कभी शील के अवतार भगवान् बुद्ध की ओर। जब आम्रवन थोडी़ ही दूर रहा तो वह मर्यादा के ख्याल से रथ से उतर पडी़ और पैदल ही आम्रवन के भीतर प्रविष्ट हुई। उसने देखा कि बुद्ध भगवान् भिक्षु- समूह को उपदेश दे रहे हैं। वह भी एक ओर बैठकर सुनने लगी। सभा विसर्जित होने पर वह बुद्ध के निकट पहुँची और दूसरे दिन संघ सहित भोजन का निमंत्रण दिया। भगवान् ने मौन रहकर उसे स्वीकार कर लिया।
आंबपाली नगर को लौट रही थी, तब उसे वैशाली के लिच्छवि वंशीय सरदार बुद्ध के पडा़व की तरफ जाते हुए मिले। उन्होंने पूछा- "आंबपाली आज क्या बात है कि रथ से रथ को धक्का देकर निकल रही हो?"
"आर्यपुत्रों ! भगवान् ने कल के लिए मेरा भोजन स्वीकार कर लिया है।" लिच्छवि यह सुनकर आश्चर्य चकित रह गए और कहने लगे- "आंबपाली ! यह दान हमें देने दे। हम इसके लिए एक लाख मुद्रा देंगे।" "आर्यपुत्रों ! एक लाख तो क्या, यदि बदले में मुझे सारी वैशाली भी दे दें तो भी मैं यह निमंत्रण नहीं दे सकती।"
लिच्छवि आपस में कहने लगे- "ओह ! हमने देर कर दी, हम हार गए। इस गणिका ने हमें जीत लिया।" फिर भी वे सब इकट्ठे होकर बुद्ध की सेवा में पहुँचे और कहा- "भंते ! संघ सहित आप कल के लिए हमारा निमंत्रण स्वीकार करें।"
लिच्छवियों ! कल के लिए तो मैंने आंबपाली का निमंत्रण स्वीकार कर लिया है।" लिच्छवि चुप रह गए और नतमस्तक होकर वापस चले गए।"
दूसरे दिन भोजन का समय हो जाने पर आंबपाली ने बुद्ध के पास सूचना भेजी। वे अपने समस्त भिक्षुओं को साथ लेकर उसके घर पर पहुँचे और बिछे हुए आसनों पर बैठ गए। आंबपाली ने बडे़ प्रेम से आग्रहपूर्वक भगवान् को भोजन कराया। भोजन समाप्त होने पर वह उनके सम्मुख बैठ गई और बोली- "भंते ! मैं बुद्ध- संघ की शरण चाहती हूँ और अपने आम्रवन को बुद्ध तथा भिक्षु- संघ को भेंट करतीहूँ।" बुद्ध ने मौन रहकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।
यद्यपि भारतीय शास्त्रों में प्राचीनकाल से ही 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का उपदेश दिया गया था, पर व्यवहार में उसका उपयोग करने वाले व्यक्तियों की संख्या अँगुलियों पर गिनने लायक थी। विशेषतः शूद्रों और स्त्रियों के साथ तो धर्मनेताओं का व्यवहार किसी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता था। बुद्ध ने इस अन्याय का अनुभव किया और अपने संघ में सदैव इन दोनों अन्याय पीडि़त वर्गों को समान स्थान दिया। आंबपाली की घटना साम्य भाव का बहुत उत्कृष्ट उदाहरण है। वह स्त्री तो थी ही, साथ ही उसका पेशा भी ऐसा था, जो समाज में नीच और उपेक्षित समझा जाता है; पर बुद्ध ने उसके मनोभाव की शुद्धता को समझ लिया और उसके साथ पूर्ण शिष्टता का व्यवहार किया। इसके परिणाम- स्वरूप आंबपाली का हृदय पूर्ण शुद्ध हो गया और उसने अपनी धन- संपत्ति ही नहीं, समस्त जीवन धर्म और समाज की सेवा के लिए अर्पण कर दिया। इसउदाहण ने अन्य हजारों स्त्रियों को भी प्रेरणा दी और वे भी बुद्ध- संघ की अनुयायी और सहायिका बन गईं। इसके परिणामस्वरूप समाज के संस्कार और प्रगति में इतनी अधिक सहायता मिली, जिसकी कल्पना भी नहीं की जाकती थी।
आंबपाली नगर को लौट रही थी, तब उसे वैशाली के लिच्छवि वंशीय सरदार बुद्ध के पडा़व की तरफ जाते हुए मिले। उन्होंने पूछा- "आंबपाली आज क्या बात है कि रथ से रथ को धक्का देकर निकल रही हो?"
"आर्यपुत्रों ! भगवान् ने कल के लिए मेरा भोजन स्वीकार कर लिया है।" लिच्छवि यह सुनकर आश्चर्य चकित रह गए और कहने लगे- "आंबपाली ! यह दान हमें देने दे। हम इसके लिए एक लाख मुद्रा देंगे।" "आर्यपुत्रों ! एक लाख तो क्या, यदि बदले में मुझे सारी वैशाली भी दे दें तो भी मैं यह निमंत्रण नहीं दे सकती।"
लिच्छवि आपस में कहने लगे- "ओह ! हमने देर कर दी, हम हार गए। इस गणिका ने हमें जीत लिया।" फिर भी वे सब इकट्ठे होकर बुद्ध की सेवा में पहुँचे और कहा- "भंते ! संघ सहित आप कल के लिए हमारा निमंत्रण स्वीकार करें।"
लिच्छवियों ! कल के लिए तो मैंने आंबपाली का निमंत्रण स्वीकार कर लिया है।" लिच्छवि चुप रह गए और नतमस्तक होकर वापस चले गए।"
दूसरे दिन भोजन का समय हो जाने पर आंबपाली ने बुद्ध के पास सूचना भेजी। वे अपने समस्त भिक्षुओं को साथ लेकर उसके घर पर पहुँचे और बिछे हुए आसनों पर बैठ गए। आंबपाली ने बडे़ प्रेम से आग्रहपूर्वक भगवान् को भोजन कराया। भोजन समाप्त होने पर वह उनके सम्मुख बैठ गई और बोली- "भंते ! मैं बुद्ध- संघ की शरण चाहती हूँ और अपने आम्रवन को बुद्ध तथा भिक्षु- संघ को भेंट करतीहूँ।" बुद्ध ने मौन रहकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।
यद्यपि भारतीय शास्त्रों में प्राचीनकाल से ही 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का उपदेश दिया गया था, पर व्यवहार में उसका उपयोग करने वाले व्यक्तियों की संख्या अँगुलियों पर गिनने लायक थी। विशेषतः शूद्रों और स्त्रियों के साथ तो धर्मनेताओं का व्यवहार किसी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता था। बुद्ध ने इस अन्याय का अनुभव किया और अपने संघ में सदैव इन दोनों अन्याय पीडि़त वर्गों को समान स्थान दिया। आंबपाली की घटना साम्य भाव का बहुत उत्कृष्ट उदाहरण है। वह स्त्री तो थी ही, साथ ही उसका पेशा भी ऐसा था, जो समाज में नीच और उपेक्षित समझा जाता है; पर बुद्ध ने उसके मनोभाव की शुद्धता को समझ लिया और उसके साथ पूर्ण शिष्टता का व्यवहार किया। इसके परिणाम- स्वरूप आंबपाली का हृदय पूर्ण शुद्ध हो गया और उसने अपनी धन- संपत्ति ही नहीं, समस्त जीवन धर्म और समाज की सेवा के लिए अर्पण कर दिया। इसउदाहण ने अन्य हजारों स्त्रियों को भी प्रेरणा दी और वे भी बुद्ध- संघ की अनुयायी और सहायिका बन गईं। इसके परिणामस्वरूप समाज के संस्कार और प्रगति में इतनी अधिक सहायता मिली, जिसकी कल्पना भी नहीं की जाकती थी।