Books - महात्मा गौत्तम बुद्ध
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Language: HINDI
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सहकारी- जीवन की आवश्यकता
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बुद्ध पाँच सौ भिक्षुओं को लेकर कीटागिरि की ओर चले। सारिपुत्र और मौद्गल्यायन भी उनके साथ थे। जबकीटागिरि निवासी भिक्षुओं ने, जिनमें अश्वजित और पुनर्वसु प्रमुख थे, यह समाचार सुना तो उन्होंने परस्पर सलाह की कि सारिपुत्र तथा मौद्गल्यायन की नियत ठीक नहीं है- इसलिए ऐसा उपाय किया जाए कि उनको शयनासन प्राप्त न हो सके। यह सोचकर उन्होंने संघ के समस्त प्रयोजनीय पदार्थों को आपस में बाँट लिया। जब बुद्ध संघ के कुछ व्यक्ति आगे बढ़कर कीटागिरि पहुँचे और वहाँ के भिक्षुओं से भगवान् बुद्ध, सारिपुत्र तथामौद्गल्यायन के लिए शयनासन की व्यवस्था करने को कहा, तो उन्होंने कहा-
"आवुसों ! यहाँ सांधिक शयनासन नहीं है। हमने सभी सांधिक को, संपत्ति को बाँट लिया है। भगवान् का स्वागत है। वे चाहे जिस विहार में ठहरें। सारिपुत्र तथा मौद्गल्यायन पाथेच्छुक हैं,
हम उन्हें शयनासन नहीं देंगे।" सारिपुत्र ने उनसे पुछा-
"क्या आवुसों ! तुमने संघ की शैय्याएँ बाँट ली हैं?"
हाँ हमने ऐसा ही किया है।" अश्वजित ने कहा।
भिक्षुओं ने जाकर समस्त समाचार भगवान् बुद्ध की सेवा में निवेदित किया, तो उन्होंने ऐसा अनुचित कर्म करने वाले भिक्षुओं की निंदा करते हुए कहा-
"भिक्षुओं ! पाँच वस्तुएँ बाँटी नहीं जा सकतीं-
(१) आराम या आराम की वस्तु,
(२) विहार्- निवासस्थान्,
(३)मंच, पीठ, गद्दी, तकिया,
(४) लौह- कुंभी,
(५) बल्ली, बाँस, मूँज।
साधु का बहुत बडा़ लक्षण 'अपरिग्रह' भी है। जो व्यक्ति साधु वेष धारण करके भी अपनी सुख- सुविधा के लिए हर तरह से सुख- सामग्री एकत्रित करता रहे, उसे ढोंगी या हरामखोर ही कहना पडे़गा, क्योंकि यदि उसे सुख सामग्रीयों की इतनी लालसा है तो गृहस्थ- जीवन को त्यागकर भिक्षु बनने की आवश्यकता ही क्या थी? गृहस्थ में अगर वह परिश्रम करके धोपार्जन करता और उससे इच्छानुसार आराम का जीवन व्यतीत करता तो उसकी तरफ कोई विशेष ध्यान न देता। पर यदि कोई व्यक्ति 'साधु' बनकर जिविकोपार्जन के लिए परिश्रम करना बंद कर दे और तब भी सुख- सामग्री के संग्रह करने, उन पर अपना स्वामित्व स्थापित करने की लालसा या फिक्र में लगा रहे, तो वह समाज के आगे एक दूषित उदाहरण उपस्थित करने का दोषी ही समझा जायेगा।
साधु आश्रम का एक बडा़ लाभ सहकारी- जीवन व्यतीत करना है। गृहस्थ आश्रम में तो सामाजिक परिस्थितियों और व्यक्तिगत कारणों से भी मनुष्य को अपने व्यवहार की अधिकांश वस्तुएँ पृथक् रखनी पड़ती हैं, पर साधु के साथ ऐसा कोई बंधन नहीं होता और वह चाहे व्यक्तिगत पदार्थों का भार ढोने और उनकी रक्षा करने के झंझट से सहज में ही छुटकारा पा सकता है। जैन साधुओं में इस तथ्य पर बहुत अधिक जोर दिया है और उनके सामने यह आदर्श रखा गया है कि- यदि उनमें सामर्थ्य हो तो वे अपनी आवश्यक वस्तुओं की संख्या घटाते- घटाते उनका पूर्ण रूप से अंत कर सकते हैं। तब उनके पास तो अन्न का एक दाना और न एक बालिश्त वस्त्र शेष रहता है और वे अपना भार सर्वथा प्रकृति पर और समाज पर छोड़कर निश्चिंत हो जाते हैं। यदि इस सीमा तक आगे न बढा़ जाए तो भी साधुओं का यह कर्तव्य- धर्म अवश्य है कि अपने पास रहने वाली वस्तुओं की संख्या कम से कम रखें और निवास, शैय्या, भोजन- सामग्री आदि की व्यवस्था सामूहिक रूप से ही करें। इससे थोडे़ पदार्थों में ही बहुत- से लोगों का काम चल सकता है और साधु अनेक वस्तुओं का बोझा ढोने और उनकी देख- भाल करने की चिंता से मुक्त रह सकता है। और आगे चलकर समाज के अन्य व्यक्ति भी इस आदर्श को अपना सकते हैं और अपनी परिस्थितियों तथा सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए सामूहिक- जीवन का न्यूनाधिक भाग या अंश ले सकते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि इस प्रकार का सामूहिक- जीवन सभ्यता और प्रगति का एक बहुत बडा़ साधन है। इसमें प्रत्येक पदार्थ की उपयोगिता कई गुनी बढ़ जाती है और उससे अधिक से अधिक लाभ उठाया जा सकता है। जो लोग अकेले बडे़ पदार्थों की व्यवस्था कर सकने में असमर्थ होते हैं, वे भी किसी रूप में उनके प्रयोग की सुविधा प्राप्त कर सकते हैं। इससे व्यक्तिगत लालसा, स्वामित्व, प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या- द्वेष आदि हानिकारक प्रवृत्तियों में कमी आती है। इसी तथ्य को दृष्टिगोचर रखकर वेदों ने गाया है-
संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
समानो मंत्रः समिति समानी समानं मनः सह
चित्तमेषाम् ।।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानिवः।
समानमस्तु वो मनो यथा व सुसहासतिः।
अर्थात्- "तुम लोग साथ- साथ चलो, साथ बोलो, तुम समान मन वाले होओ, तुम्हारे विचार भी समान होवें। तुम्हारा कर्म समान हो, तुम्हारे हृदय और मन भी समान हों, तुम समान मति और रुचि वाले होकर सब प्रकार से सुसंगठित हो।"
बुद्ध- संघ में भी आरंभ में त्याग का आदर्श बडा़ ऊँचा रखा गया था और ऐसी व्यवस्था की गई थी कि गृहस्थों द्वारा त्यागी गई अल्प उपयोगी वस्तुओं से ही भिक्षु लोग अपना काम चला लें और समाज के ऊपर अपना भार कम से कम आने दें। बौद्ध- भिक्षु केवल वस्त्र पहनने को, सोने को एक गुदडी़ और खाने- पीने के लिए एक काष्ठ- पात्र के सिवाय कुछ न रखते थे। पर बाद में इन भिक्षुओं में भी संग्रह करने की प्रवृत्ति बढ़ती गई और एक समय ऐसा आया जब बौद्ध- मठों में लाखों करोडो़ं की संपत्ति इकट्ठी हो गई जैसा कि आज हम बहुसंख्यक हिंदू- मंदिरों में देख रहे हैं। संपत्ति का इस प्रकार एकत्र होना निश्चित रूप से पतन तथा भ्रष्टाचार का कारण बनता है और वही बात बौद्ध- संघ के साथ हुई। संपत्ति के बढ़ने से उनमें भ्रष्टता और तरह- तरह के दोष उत्पन्न हो गए और उनका नाश होने लग गया। बुद्ध इस तथ्य को अच्छी तरह समझते थे और इसलिए उन्होंने एक मठ में इसकी थोडी़- सी प्रवृत्ति देखते ही उसकी निंदा की और उसे रोकने का आदेश दे दिया। जब तक बौद्ध- संघ इस पर आचरण करता रहा तब तक इसकी निरंतर प्रगति होती गई और वह दुनिया के दूर- दूर के स्थानों तक फैल गया।
"आवुसों ! यहाँ सांधिक शयनासन नहीं है। हमने सभी सांधिक को, संपत्ति को बाँट लिया है। भगवान् का स्वागत है। वे चाहे जिस विहार में ठहरें। सारिपुत्र तथा मौद्गल्यायन पाथेच्छुक हैं,
हम उन्हें शयनासन नहीं देंगे।" सारिपुत्र ने उनसे पुछा-
"क्या आवुसों ! तुमने संघ की शैय्याएँ बाँट ली हैं?"
हाँ हमने ऐसा ही किया है।" अश्वजित ने कहा।
भिक्षुओं ने जाकर समस्त समाचार भगवान् बुद्ध की सेवा में निवेदित किया, तो उन्होंने ऐसा अनुचित कर्म करने वाले भिक्षुओं की निंदा करते हुए कहा-
"भिक्षुओं ! पाँच वस्तुएँ बाँटी नहीं जा सकतीं-
(१) आराम या आराम की वस्तु,
(२) विहार्- निवासस्थान्,
(३)मंच, पीठ, गद्दी, तकिया,
(४) लौह- कुंभी,
(५) बल्ली, बाँस, मूँज।
साधु का बहुत बडा़ लक्षण 'अपरिग्रह' भी है। जो व्यक्ति साधु वेष धारण करके भी अपनी सुख- सुविधा के लिए हर तरह से सुख- सामग्री एकत्रित करता रहे, उसे ढोंगी या हरामखोर ही कहना पडे़गा, क्योंकि यदि उसे सुख सामग्रीयों की इतनी लालसा है तो गृहस्थ- जीवन को त्यागकर भिक्षु बनने की आवश्यकता ही क्या थी? गृहस्थ में अगर वह परिश्रम करके धोपार्जन करता और उससे इच्छानुसार आराम का जीवन व्यतीत करता तो उसकी तरफ कोई विशेष ध्यान न देता। पर यदि कोई व्यक्ति 'साधु' बनकर जिविकोपार्जन के लिए परिश्रम करना बंद कर दे और तब भी सुख- सामग्री के संग्रह करने, उन पर अपना स्वामित्व स्थापित करने की लालसा या फिक्र में लगा रहे, तो वह समाज के आगे एक दूषित उदाहरण उपस्थित करने का दोषी ही समझा जायेगा।
साधु आश्रम का एक बडा़ लाभ सहकारी- जीवन व्यतीत करना है। गृहस्थ आश्रम में तो सामाजिक परिस्थितियों और व्यक्तिगत कारणों से भी मनुष्य को अपने व्यवहार की अधिकांश वस्तुएँ पृथक् रखनी पड़ती हैं, पर साधु के साथ ऐसा कोई बंधन नहीं होता और वह चाहे व्यक्तिगत पदार्थों का भार ढोने और उनकी रक्षा करने के झंझट से सहज में ही छुटकारा पा सकता है। जैन साधुओं में इस तथ्य पर बहुत अधिक जोर दिया है और उनके सामने यह आदर्श रखा गया है कि- यदि उनमें सामर्थ्य हो तो वे अपनी आवश्यक वस्तुओं की संख्या घटाते- घटाते उनका पूर्ण रूप से अंत कर सकते हैं। तब उनके पास तो अन्न का एक दाना और न एक बालिश्त वस्त्र शेष रहता है और वे अपना भार सर्वथा प्रकृति पर और समाज पर छोड़कर निश्चिंत हो जाते हैं। यदि इस सीमा तक आगे न बढा़ जाए तो भी साधुओं का यह कर्तव्य- धर्म अवश्य है कि अपने पास रहने वाली वस्तुओं की संख्या कम से कम रखें और निवास, शैय्या, भोजन- सामग्री आदि की व्यवस्था सामूहिक रूप से ही करें। इससे थोडे़ पदार्थों में ही बहुत- से लोगों का काम चल सकता है और साधु अनेक वस्तुओं का बोझा ढोने और उनकी देख- भाल करने की चिंता से मुक्त रह सकता है। और आगे चलकर समाज के अन्य व्यक्ति भी इस आदर्श को अपना सकते हैं और अपनी परिस्थितियों तथा सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए सामूहिक- जीवन का न्यूनाधिक भाग या अंश ले सकते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि इस प्रकार का सामूहिक- जीवन सभ्यता और प्रगति का एक बहुत बडा़ साधन है। इसमें प्रत्येक पदार्थ की उपयोगिता कई गुनी बढ़ जाती है और उससे अधिक से अधिक लाभ उठाया जा सकता है। जो लोग अकेले बडे़ पदार्थों की व्यवस्था कर सकने में असमर्थ होते हैं, वे भी किसी रूप में उनके प्रयोग की सुविधा प्राप्त कर सकते हैं। इससे व्यक्तिगत लालसा, स्वामित्व, प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या- द्वेष आदि हानिकारक प्रवृत्तियों में कमी आती है। इसी तथ्य को दृष्टिगोचर रखकर वेदों ने गाया है-
संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
समानो मंत्रः समिति समानी समानं मनः सह
चित्तमेषाम् ।।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानिवः।
समानमस्तु वो मनो यथा व सुसहासतिः।
अर्थात्- "तुम लोग साथ- साथ चलो, साथ बोलो, तुम समान मन वाले होओ, तुम्हारे विचार भी समान होवें। तुम्हारा कर्म समान हो, तुम्हारे हृदय और मन भी समान हों, तुम समान मति और रुचि वाले होकर सब प्रकार से सुसंगठित हो।"
बुद्ध- संघ में भी आरंभ में त्याग का आदर्श बडा़ ऊँचा रखा गया था और ऐसी व्यवस्था की गई थी कि गृहस्थों द्वारा त्यागी गई अल्प उपयोगी वस्तुओं से ही भिक्षु लोग अपना काम चला लें और समाज के ऊपर अपना भार कम से कम आने दें। बौद्ध- भिक्षु केवल वस्त्र पहनने को, सोने को एक गुदडी़ और खाने- पीने के लिए एक काष्ठ- पात्र के सिवाय कुछ न रखते थे। पर बाद में इन भिक्षुओं में भी संग्रह करने की प्रवृत्ति बढ़ती गई और एक समय ऐसा आया जब बौद्ध- मठों में लाखों करोडो़ं की संपत्ति इकट्ठी हो गई जैसा कि आज हम बहुसंख्यक हिंदू- मंदिरों में देख रहे हैं। संपत्ति का इस प्रकार एकत्र होना निश्चित रूप से पतन तथा भ्रष्टाचार का कारण बनता है और वही बात बौद्ध- संघ के साथ हुई। संपत्ति के बढ़ने से उनमें भ्रष्टता और तरह- तरह के दोष उत्पन्न हो गए और उनका नाश होने लग गया। बुद्ध इस तथ्य को अच्छी तरह समझते थे और इसलिए उन्होंने एक मठ में इसकी थोडी़- सी प्रवृत्ति देखते ही उसकी निंदा की और उसे रोकने का आदेश दे दिया। जब तक बौद्ध- संघ इस पर आचरण करता रहा तब तक इसकी निरंतर प्रगति होती गई और वह दुनिया के दूर- दूर के स्थानों तक फैल गया।